हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #28 – संवेदना ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संवेदना”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 28 ☆

☆ संवेदना

संवेदना एक ऐसी भावना है जो मनुष्य मे ही प्रगट रूप से विद्यमान होती है. मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है क्योंकि उसमें संवेदना है. संवेदनाओं का संवहन, निर्वहन और प्रतिपादन मनुष्य द्वारा सम्भव है, क्योंकि मनुष्य के पास मन है. अन्य किसी प्राणी में संवेदना का यह स्तर दुर्लभ है. संवेदना मनुष्य मे प्रकृति प्रद्दत्त गुण है. पर वर्तमान मे   भौतिकता का महत्व दिन दूने रात चौगुने वेग से विस्तार पा रहा है और तेजी से मानव मूल्यों, संस्कारों के साथ साथ संवेदनशीलता भी त्याज्य होती जा रही है. मनुष्य संवेदनहीन होता जा रहा है, बहुधा संवेदनशील मनुष्य समाज में  बेवकूफ माना जाने लगा है. संवेदनशीलता का दायरा बड़ा तंग होता जा रहा है. स्व का घेरा दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है. अपने सुख दुःख, इच्छा अनिच्छा के प्रति मनुष्य सतत सजग और सचेष्ट रहने लगा है. अपने क्षुद्र, त्वरित सुख के लिए किसी को भी कष्ट देने में हमारी झिझक तेजी से समाप्त हो रही है. प्रतिफल मे जो व्यवस्था सामने है वह परिवार समाज तथा देश को विघटन की ओर अग्रसर कर रही है.

आज जन्म  के साथ ही बच्चे को एक ऐसी  व्यवस्था के साथ दो चार होना पड़ता है जिसमे बिना धन के जन्म तक ले पाना सम्भव नही. आज शिक्षा,चिकित्सा, सुरक्षा, सारी की सारी सामाजिक व्यवस्था  पैसे की नींव पर ही रखी हुई दिखती है.हमारे परिवेश में प्रत्येक चीज की गुणवत्ता  धन की मात्रा पर ही निर्भर करती है.  इसलिये सबकी  सारी दौड़, सारा प्रयास ही एक मार्गी,धनोन्मुखी हो गया है. सामाजिक व्यवस्था बचपन से ही हमें भौतिक वस्तुओं की महत्ता समझाने और उसे प्राप्त कर पाने के क्रम मे, श्रेष्ठतम योग्यता पाने की दौड़ मे झोंक देती है. हम भूल गये हैं कि धन  केवल जीवन जीने का माध्यम है. आज  मानव मूल्यों का वरण कर, उन्हें जीवन मे सर्वोच्च स्थान दे चारित्रिक निर्माण के सद्प्रयास की कमी है. किसी भी क्षेत्र मे शिखर पर पहुँच कर, अपने उस गुण से  धनोपार्जन करना ही एकमात्र जीवन उद्देश्य रह गया प्रतीत होता है. आज हर कोई एक दूसरे से भाईचारे के संवेदनशील भाव से नही अपितु एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी के रूप मे खड़ा दिखता है. हमें अपने आस पास सबको पछाड़ कर सबसे आगे निकल जाने की जल्दी है. इस अंधी दौड़ में आगे निकलने के लिये साम दाम दंड भेद, प्रत्येक उपक्रम अपनाने हेतु हम तत्पर हैं. संवेदनशील होना दुर्बलता और कामयाबी के मार्ग का बाधक माना जाने लगा है.सफलता का मानक ही अधिक से अधिक भौतिक साधन संपन्न होना बन गया हैं. संवेदनशीलता, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की बातें कोरी किताबी बातें बन कर रह गई हैं.

पहले हमारे आस पास घटित दुर्घटना ही हम भौतिक रूप से देख पाते थे और उससे हम व्यथित हो जाते थे, संवेदना से प्रेरित, तुरंत मदद हेतु हम क्रियाशील हो उठते थे. पर अब टी वी समाचारों के जरिये हर पल कहीं न कहीं घटित होते अपराध, व हादसों के सतत प्रसारण से हमारी  संवेदनशीलता पर कुठाराघात हुआ है.. टी वी पर हम दुर्घटना देख तो सकते हैं किन्तु चाह कर भी कुछ मदद नही कर सकते. शनैः शनैः इसका यह प्रभाव हुआ कि बड़ी से बड़ी घटना को भी अब अपेक्षाकृत सामान्य भाव से लिया जाने लगा है. अपनी ही आपाधापी में व्यस्त हम अब अपने आसपास घटित हादसे को भी अनदेखा कर बढ़ जाते हैं.

ऐसे संवेदना ह्रास के समय में जरूरी हो गया है कि हम शाश्वत मूल्यों को पुनर्स्थापित करें, समझें कि सच्चरित्रता, मानवीय मूल्य, त्याग, दया, क्षमा, अहिंसा, कर्मठता, संतोष, संवेदनशीलता यदि व्यक्तिव का अंग न हो तो मात्र धन, कभी भी सही मायने मे सुखी और संतुष्ट नही कर सकता.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #25 – क्रिकेट दर्शन-जीवन दर्शन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 25☆

☆ क्रिकेट दर्शन-जीवन दर्शन ☆

(हाल  ही में भारत ने वेस्टइंडीज से टी-20 क्रिकेट शृंखला जीती है। इसी परिप्रेक्ष्य में टी-20 और जीवन के अंतर्सम्बंध पर टिप्पणी करती *संजय उवाच* की इस कड़ी का पुनर्स्मरण हो आया। मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ।)

जीवन एक अर्थ में टी-20 क्रिकेट ही है। इच्छाओं की गेंदबाजी पर दायित्व बल्ला चला रहा है। अंपायरिंग करता काल सनद्ध है कि जरा-सी गलती हो और मर्त्यलोक का एक और विकेट लपका जाए। दुर्घटना, निराशा, अवसाद, आत्महत्या, हत्या आदि क्षेत्ररक्षण कर रहे हैं। मारकेश की वक्र-दृष्टि-सी विकेटकीपिंग, बोल्ड, कैच, रन आउट, स्टम्पिंग, एल.बी.डब्ल्यू., हिट-विकेट…,अकेला जीव, सब तरफ से घिरा हुआ जीवन के संग्राम में!

महाभारत में उतरना हरेक के बस का नहीं होता। तुम अभिमन्यु हो अपने समय के। जन्म और मरण के चक्रव्यूह को बेध भी सकते हो, छेद भी सकते हो। अपने लक्ष्य को समझो, निर्धारित करो। उसके अनुरूप नीति बनाओ और क्रियान्वित करो। कई बार ‘इतनी जल्दी क्या पड़ी, अभी तो खेलेंगे बरसों’ के चक्कर में 15वें-16वें ओवर तक अपेक्षित रन-रेट इतनी अधिक हो जाती है कि अकाल विकेट देने के सिवा कोई चारा नहीं बचता।

परिवार, मित्र, हितैषियों के साथ सच्ची और लक्ष्यबेधी साझेदारी करना सीखो। लक्ष्य तक पहुँचे या नहीं, यह स्कोरबोर्डरूपी समय तय करेगा। तुम रिस्क लो, रन बटोरो, रन-रेट अपने नियंत्रण में रखो। आवश्यक नहीं कि पूरे 20 ओवर खेल सको पर अंतिम गेंद तक खेलने का यत्न तो कर ही सकते हो न!

यह जो कुछ कहा गया, स्ट्रैटेजिक टाइम आऊट’ में किया गया दिशा-निर्देश भर है। चाहे तो विचार करो और तदनुरूप व्यवहार करो अन्यथा गेंदबाज, क्षेत्ररक्षक और अंपायर तो तैयार हैं ही!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य ☆ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ श्रीमती संगीता भिसे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।

हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ  डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो  निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे  हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी, डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’  जी  एवं प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध  वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम  पीढ़ी के मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।

☆ मराठी साहित्य – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी  के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श  उनकी सुपुत्री श्रीमती संगीता भिसे जी की कलम से। मैं  श्रीमती संगीता जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। श्रीमती संगीता जी की निम्नलिखित आत्मीय पंक्तियाँ उनका उनकी आदरणीय और प्रिय माँ के प्रति स्नेह को दर्शाती हैं जो उन्होंने उनके जन्मदिवस पर लिखी थी।

आई घराला येते प्रसन्नता तुझ्या स्पर्शाने,
आयुष्याला आहे अर्थ तुझ्या अस्तित्वाने..
तुझा प्रत्येक शब्द जणू अमृताचा,
प्रत्येक क्षणी आधार मायेच्या पदराचा..
माझी प्रत्येक चूक मनात ठेवतेस,
माझ्यावर खूप प्रेम करतेस..

एक सफल एवं आदर्श माँ , गृहणी, शिक्षिका एवं साहित्यकार के रूप में हमारी आदर्श हैं । उनका साहित्य हमें  हमारा सामजिक एवं पर्यावरण संरक्षण के दायित्व का एहसास दिलाती  हैं । उनका अधिकतम साहित्य  ईश्वर एवं धार्मिक आस्था से परिपूर्ण है। मैं स्वयं उन्हें उम्र के इस पड़ाव पर भी समय के साथ कुछ नया सीखने की ललक के गुण को अपना आदर्श मानता हूँ। इतना अथाह ज्ञान का भण्डार होते हुए भी इतनी सहज व्यक्तित्व की धनी श्रीमती उर्मिला जी को सादर नमन। उनकी जीवन यात्रा  एवं कृतियों/उपलब्धियों की जानकारी  आप इस  लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं   >>>>  श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे  )

Life began with waking up and having my mother’s face… George Eliot

जॉर्ज इलियट की उपरोक्त पंक्तियाँ प्रत्येक प्रातः मुझे मेरी माँ के स्नेहमय चहरे का स्मरण कराती है।  मेरी माँ.. मेरे जीवन का विश्वास,  मेरे जीवन का सार…। उनके बारे में लिखना मेरे लिए सबसे कठिन कार्य है। मेरे जीवन में उनके महत्व का वर्णन मैं शब्दों में बयान नही कर सकती। यह मुझे असंभव प्रतीत होता है।

आदर्श कवियत्री श्रीमती उर्मिला इंगळे जी की बेटी कहलाते हुये मुझे अत्यंत गर्व का अनुभव होता है।

हम दो बहने है और हमारे दो भाई है…। हम सबको हमारे माँ और पिताजी ने बिना किसी भेद भाव के बराबरी से बड़ा किया है। माँ ने हम सबको जीवन ही नहीं दिया, अपितु, जीवन जीने का तरीका भी सिखाया है। माँ ने हमें हर वो चीज सिखाई है, जो जीवन में जीने के लिए जरूरी है। हमारी माँ, हमारी जननी होने के साथ-साथ हमारी प्रारंभिक शिक्षक और मार्गदर्शक भी है। उन्होनें हम सबको हमारे जीवन में ऐसी छोटी-छोटी बातें बताई हैं जिनका जीवन में काफी महत्व है। उन्होंने हम सबको शारीरिक तथा मानसिक दोनों ही रूप से मजबूत बनाया है। समाज में किस प्रकार से आचरण और व्यवहार करना चाहिये सिखाया है।  उन्होंने हमें व्यवहारिक और सामाजिक ज्ञान भी दिया है।  कोई भी माँ नही चाहती कि- उसके बच्चे गलत रास्ते पर चलें।  इसी कारण से हमारी गलती होने पर उन्होंने फटकार भी लगायी है, ताकि हम अपने जीवन में सही मार्ग का अवलंबन करें और अपने जीवन में सफलता पाएं।

इसके साथ-साथ वे एक अच्छी एवं आदर्श गृहिणी भी हैं। अच्छा खाना बनाना, घर की साफ सफाई करना ऐसे सभी काम भी वो अच्छी तरह से करती थी। उन्होंने अपने जीवन में परिवार के हर व्यक्ति के लिए हर तरह की जिम्मेदारी संभाली है। अपने सभी दायित्व एवं कर्तव्य निभाये हैं। वे एक अच्छी बेटी, बहू, बहन, भाभी, माँ, सासु माँ, नानी और दादी हैं।

हमने बचपन से माँ को पढाई करते हुऐ देखा है। जब हम सब छोटे थे, उस वक्त जब हम लोग उठते थे तो माँ को कॉलेज से वापस आते देखते थे। वे हमे खिलाकर खुद तैयार होकर ऑफिस जाती थी। शाम को हम घर के बाहर खडे होकर माँ की राह देखते थे। माँ आते वक्त बाजार से सब्जियां और कुछ जरूरी चीज़ें लेकर आती थीं। हम लोग थकी हारी माँ से लिपट जाते थे। घर मे आते ही माँ तैयार हो कर अपना पल्लू संभालते हुये किचन में काम करने लगती थी। हमारे घर में रात का खाना खाते वक़्त सामाजिक विषय पर चर्चा होती थी।  जिससे हम सब भाई बहन को समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का एहसास हो गया। इसके साथ-साथ ही वे रचनाएँ (लेख तथा कवितायें) लिखती थी।

वर्ष 2004 में उनको ज्ञान विकास मंडळ, सातारा ने “सुमाता  से सम्मानित किया. समर्थ विद्यापीठ, शिवथरघळ की सभी परीक्षाओं की वो समीक्षक है और 1989 से लेकर आज तक उनकी ये समर्थ सेवा निर्बाध रूप से शुरू है। हमारी माँ सदैव प्रसन्न और हंसमुख रहती हैं। ईश्वर के प्रति भक्ति और निसर्ग के प्रति निष्ठा उनके काव्य में साफ साफ दिखाई देती है।

हमारे पिताजी अपने अंतिम दिनों गंभीर बीमारी के कारण बिस्तर में ही थे। माँने पूरी जिम्मेदारी के साथ दिन रात उनकी सेवा की है। साथ-साथ वे कविताएं भी लिखती रहीं और उस काव्यसंग्रह “काव्यपुष्प” के प्रकाशन के दूसरे दिन ही हमारे पिताजी ने संतोष के साथ अपनी अंतिम सांस ली। पिताजी के अंतिम समय में माँ उनके सिर पर हाथ रख कर विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ बोलती रही ताकि पिताजी को कुछ तकलीफ ना होते हुये उनको मोक्ष मिले.

हाल ही में माँ के चिरंजीवी चारोळी, चैतन्य चारोळी, चिंतामणी चारोळी, चामुंडेश्वरी चारोळी संग्रह पूरे हो गये हैं। माँ ने पूरी ज्ञानेश्वरी स्वहस्ताक्षर मे लिखकर श्रीमाऊली के समाधि को अर्पण की है।

ईश्वर की कृपा से माँ को ऐसा ही चैतन्य मिलता रहे और माँ जैसे अभी अपने पोते के साथ उसके स्टडी टेबल पर बैठ कर लिखती रहती हैं, वैसे ही अपने परपोते के साथ भी बैठ कर  लिखती हैं।

बहू के लिए उनकी सासु माँ एक सहेली के जैसी हैं।

वे बताती हैं कि जब उन्होंने पहली बार माँ को देखा तो उस प्यारे, आकर्षक सुंदर व्यक्तित्व से उनको प्यार हो गया और शादी के बाद माँ ने अपने समझदार  स्वभाव से बहू को अपनी बेटी बना दिया।

 

संप्रति..

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

२३६, यादोगोपाळपेठ, सातारा.

ता. जि.सातारा.

पिन.४१५००२

भ्रमणध्वनी क्र.९०२८८१५५८५

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 21 – अनसुलझा सच ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अनसुलझा सच।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 21 ☆

☆ अनसुलझा सच 

 

रामायण के विषय में सोचने, उसे दर्शाने और भगवान राम के जीवन ने शिक्षा प्राप्त करने के अनंत तरीके है । जीवन के दर्शन के रूप में रामायण की एक व्याख्या निम्न है :

‘रा’ का अर्थ है ‘प्रकाश’, और ‘म’ का अर्थ है ‘मेरे भीतर, मेरे दिल में’ । तो, राम का अर्थ है मेरे भीतर प्रकाश।

राम दशरथ और कौशल्या से पैदा हुए थे।

दशरथ का अर्थ है ‘दस रथ’। दस रथ, ज्ञानेन्द्रियाँ (पाँच ज्ञान के अंग) और कर्मेन्द्रियाँ (क्रिया के पाँच अंग) का प्रतीक है। कौशल्या का अर्थ है ‘कौशल’ । दस रथों के कुशल सवार ही भगवान राम को जन्म दे सकते हैं।

जब दस रथों का कुशलता से उपयोग किया जाता है, तो प्रकाश या आंतरिक चमक का जन्म होता है। भगवान राम का जन्म अयोध्या में हुआ था। अयोध्या का अर्थ है ‘वह जगह जहाँ कभी कोई युद्ध ना हुआ हो और ना होगा’ जब हमारे मस्तिष्क में कोई संघर्ष या युद्ध नहीं होता है, तो आंतरिक चमक अपने आप आ जाती है।

रामायण सिर्फ एक कहानी ही नहीं है जो बहुत पहले सुनी सुनाई या घटी हो।

इसमें दार्शनिक, आध्यात्मिक महत्व और इसमें एक गहरी सच्चाई है। ऐसा कहा जाता है कि रामायण हर समय हमारे शरीर में घटित हो रही है। भगवान राम हमारी आत्मा है, देवी सीता हमारा मस्तिष्क है, भगवान हनुमान हमारे प्राण (जीवन शक्ति) है, लक्ष्मण हमारी जागरूकता है, और रावण हमारी अहंकार है।

जब मन (देवी सीता) अहंकार (रावण) द्वारा चुराया जाता है, तो आत्मा (भगवान राम) बेचैन हो जातेहैं। जिससे आत्मा (भगवान राम) अपने मन (देवी सीता) तक नहीं पहुँच सकते हैं। प्राण (भगवान हनुमान), और जागरूकता (लक्ष्मण) की सहायता से, मस्तिष्क  (देवी सीता) आत्मा (भगवान राम) के साथ मिल जाता है और अहंकार (रावण) मर जाता है।

हकीकत में रामायण हर समय घटित होती एक शाश्वत घटना है।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 26 ☆ज़िन्दगी की शर्त…संधि-पत्र ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “ज़िन्दगी की शर्त…संधि-पत्र”.    नतमस्तक हूँ  डॉ मुक्ता जी की लेखनी का जो  नारी की पीड़ा  जैसे संवेदनशील तथ्यों  पर सतत  लिखकर ह्रदय को उद्वेलित करती हैं ।  चाहे प्रसाद जी की कालजयी रचना  ‘कामायनी ‘ की पंक्तियों हों या समाज में हो रही  वीभत्स घटनाएं  उनका संवेदनशील ह्रदय और लेखनी उनको लिखने से रोक नहीं सकती। यदि मैं उन्हें नारी सशक्तिकरण विमर्श की प्रणेता  कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मैं निःशब्द हूँ और इस ‘निःशब्द ‘ शब्द की पृष्ठभूमि को संवेदनशील और प्रबुद्ध पाठक निश्चय ही पढ़ सकते हैं. डॉ मुक्त जी की कलम को सदर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 26 ☆

☆ ज़िन्दगी की शर्त…संधि-पत्र

हर पल अहसास दिलाती हैं मुझे/ प्रसाद जी की दो पंक्तियां…

‘तुमको अपनी स्मित रेखा से

यह संधि पत्र लिखना होगा’

… और मैं खो जाती हूं अतीत में, आखिर कब तक यह संधि पत्र…जो विवाह की सात भांवरों के समान अटल है, जिसे सात जन्म के बंधन के रूप में स्वीकारा जाता है…लिखा जाता रहेगा। परंतु यह आज के ज़माने की ज़रूरत नहीं है। समय बदल चुका है।भले ही चंद महिलाएं अब नकार चुकी है, इस बंधन को…और पुरुषों की तरह स्वतंत्र जीवन जीने में विश्वास रखती हैं, उन्मुक्त भाव से अपनी ज़िंदगी बसर कर रही हैं…परंतु क्या वे स्वतंत्र हैं … निर्बंध हैं? क्या उन्हें सामाजिक भय नहीं, क्या उन्हें अपने आसपास भयानक साये मंडराते हुए नहीं प्रतीत होते? क्या उन्हें सामाजिक व पारिवारिक प्रताड़ना को नहीं झेलना पड़ता? परिवारजनों का बहिष्कार व उससे संबंध-विच्छेद करने का भय उन्हें हर पल आहत नहीं करता? जिस घर को वह अपना समझती थीं, उसे त्यागने के पश्चात् उन्हें किसी भयंकर व भीषण आपदा का सामना नहीं करना पड़ता? कल्पना कीजिए, कितनी मानसिक यातना से गुज़रना पड़ता होगा उन्हें? क्या किसी ने अनुभव किया है उस मर्मांतक पीड़ा को…शायद! किसी ने नहीं। सब के हृदय से यही शब्द निकलते हैं… ‘ऐसी औलाद से बांझ भली।’ अच्छा था वह पैदा होते ही मर जाती, तो हमारे माथे पर कलंक तो न लगता। देखो! कैसे भटक रही है सड़कों पर…क्या कोई अपना है उसका…शायद इस जहान में वह अकेली रह गई है। सुना था, खून के रिश्ते, कभी नहीं टूटते। परंतु आज कल तो ज़माने का चलन ही बदल गया है।

प्रश्न उठता है…आखिर उसके माता-पिता ने इल्ज़ाम लगा कर उसे कटघरे में क्यों खड़ा कर दिया? उन्होंने उसे उसकी प्रथम भूल समझ कर, उसे अपने घर में पनाह क्यों नहीं दी? परंतु ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि उन्हें अपनी औलाद से अधिक, अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा व मान-मर्यादा की परवाह थी, कि ‘लोग क्या कहेंगे’…शायद इसी लिये वे पल भर में उसे प्रताड़ित कर,घर से बेदखल कर देते हैं ताकि समाज में उनका रुतबा बना रहे और उन्हें वहां वाह-वाही मिलती रहे। क्या उन्हें उस  यह ध्यान आता है कि वह निरीह बालिका आखिर जायेगी कहां…क्या हश्र होगा उस की ज़िंदगी का…एक प्रताड़ित बालिका को कौन आश्रय देगा…यह सब बातें उन्हें बेमानी भासती हैं।

आखिर कौन बदल सका है तक़दीर किसी की… इंसान क्यों भुला बैठता है…बुरे कर्मों का फल सदैव बुरा ही होता है। सो! बेटियों को कभी भी घर की चारदीवारी को नहीं लांघना चाहिए। यह उपदेश देते हुए वे भूल जाते हैं कि वह मासूम निर्दोष भी हो सकती है…शायद  किसी मनचले ने उसके साथ ज़बरदस्ती दुष्कर्म किया हो? वे उस हादसे की गहराई तक नहीं जाते और अकारण उस मासूम पर दोषारोपण कर उसे व उनके माता-पिता को कटघरे में खड़ा कर देते हैं।

प्रश्न उठता है…क्या उस पीड़िता ने अपना अपहरण कराया स्वयं करवाया होगा? क्या उसे दुष्कर्मियों का  निवाला बनने का शौक था?क्या उसने चाहा था कि उसकी अस्मत लूटी जाए और वह दरिंदगी की शिकार हो?नहीं… नहीं… नहीं, यह असंभव है। उसके लिए तोउस घर के द्वार सदा के लिए बंद हो जाते हैं।अक्सर उसे बाहर से ही चलता कर दिया जाता है कि अब उनका उस निर्लज्ज से कोई रिश्ता- नाता नहीं। यदि उसे घर में प्रवेश पाने की अनुमति प्रदान कर दी जाती है, तो उसके साथ मारपीट की जाती है, उसे ज़लील किया जाता है और किसी दूरदराज़ के संबंधी के यहां भेजने का फ़रमॉन जारी कर  दिया जाता है, ताकि किसी को कानों-कान खबर न हो कि वह अभागिन बालिका दुष्कर्म की शिकार हुई है।

अब उसके सम्मुख विकल्प होता है… संधिपत्र का, हिटलर के शाही फ़रमॉन को स्वीकारने का…अपने  भविष्य को दांव पर लगाने का… अपने हाथों मिटा डालने का… जहां उसके अरमान,उसकी आकांक्षाएं, उसके सपने पल भर में राख हो जाते हैं और उसे भेज दिया जाता है दूर…कहीं बहुत दूर, अज्ञात- अनजान स्थान पर, जहां वह अजनबी सम अपना जीवन ढोती है। यहां भी उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता… उसे सौंप दिया जाता है, किसी दुहाजू, विधुर पिता-दादा समान आयु के व्यक्ति के हाथों, जहां उसे हर पल मरना पड़ता है। वह चाह कर भी न अपनी इच्छा प्रकट कर पाती है,न ही विरोध दर्ज करा पाती है, क्योंकि वह अपराधिनी कहलाती है,भले ही उसने कोई गलत काम याअपराध न किया हो।

भले ही उसका कोई दोष न हो,परंतु माता-पिता तो पल्ला झाड़ लेते हैं तथा विवाह के अवसर पर खर्च होने वाली धन-संपदा बचा कर, फूले नहीं समाते। सो! उनके लिए तो यह सच्चा सौदा हो जाता है। आश्चर्य होगा आपको यह जानकर कि संबंध तय करने की ऐवज़ में अनेक बार उन्हें धनराशि की पेशकश भी की जाती है, वे अपने भाग्य को सराहते नहीं अघाते। यह हुआ न आम के आम,गुठलियों के दाम। अक्सर उस निर्दोष को उन विषम परिस्थितियों से समझौता करना पड़ता है, जो उसके माता-पिता विधाता बन उसकी ज़िंदगी के बही-खाते में लिख देते हैं।

आइए दृष्टिपात करें, उसके दूसरे पहलू पर… कई बार उसे संधिपत्र लिखने का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता। उसे ज़िदगी में दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया जाता है, जहां कोई भी उसकी सुध नहीं लेता। वह हर दिन नई दुल्हन बनती हैं…एक दिन में चालीस-चालीस लोगों के सम्मुख परोसी जाती हैं। यह आंकड़े सत्य हैं… के•बी•सी• के मंच पर,  एक महिला कर्मवीर, जिसने हज़ारों लड़कियों को ऐसी घृणित ज़िंदगी अर्थात् नरक से निकाला था, उनसे साक्षात्कार प्रस्तुत किए गये कि किस प्रकार उन्हें उनके बच्चों का हवाला देकर एक-एक दिन में, इतने लोगों का हम-बिस्तर बनने को विवश किया जाता है…और यह समझौता उन्हें अनचाहे अर्थात् विवश होकर करना ही पड़ता है। ऐसी महिलाओं के समक्ष नतमस्तक है पूरा समाज,जो उन्हें आश्रय प्रदान कर, उस नरक से मुक्ति दिलाने का साहस जुटाती हैं।

वैसे भी आजकल ज़िंदगी शर्तों पर चलती है। बचपन में ही माता-पिता बच्चों को इस तथ्य से अवगत करा देते हैं कि यदि तुम ऐसा करोगे, हमारी बात मानोगे, परीक्षा में अच्छे अंक लाओगे, तो तुम्हें यह वस्तु मिलेगी…यह पुरस्कार मिलेगा।इस प्रकार बच्चे आदी हो जाते हैं, संधि-पत्र लिखने अर्थात् समझौता करने के और अक्सर वे प्रश्न कर बैठते हैं,यदि मैं ऐसा कर के दिखलाऊं, तो मुझे क्या मिलेगा…इसके ऐवज़ में? इस प्रकार यह सिलसिला अनवरत जारी रहता है। हां! केवल नारी को मुस्कुराते हुए अपना पक्ष रखे बिना, नेत्र मूंदकर संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने लाज़िम हैं। वैसे भी औरत में तो बुद्धि होती ही नहीं, तो सोच-विचार का तो प्रश्न ही कहां उठता है? उदाहरणत: एक प्रशासनिक अधिकारी, जो पूरे देश का दायित्व बखूबी संभाल सकती है, घर में मंदबुद्धि अथवा बुद्धिहीन कहलाती है। उसे हर पल प्रताड़ित किया जाता जाता है, सबके बीच ज़लील किया जाता है…अकारण दोषारोपण किया जाता है। यहां पर ही उसकी दास्तान का अंत नहीं होता, उसे विभिन्न प्रकार की शारीरिक व मानसिक यंत्रणाएं दी जाती हैं…ऐसे मुकदमे हर दिन महिला आयोग में आते हैं, जिनके बारे में जानकार हृदय में  ज्वालामुखी की भांति आक्रोश फूट निकलता है और मन सोचने पर विवश हो जाता है,आखिर यह सब कब तक?

हम 21वीं सदी के बाशिंदे…क्या बदल सके हैं अपनी सोच…क्या हम नारी को दे पाए हैं समानाधिकार… क्या हम उसे एक ज़िंदा लाश या रोबोट नहीं समझते … जिसे पति व परिवारजनों के हर उचित-अनुचित आदेश की अनुपालना करना अनिवार्य है… अन्यथा अंजाम से तो आप बखूबी परिचित हैं।आधुनिक युग में हम नये-नये ढंग अपनाने लगे हैं… मिट्टी के तेल का स्थान, ले लिया है पैट्रोल ने, बिजली की नंगी तारों व तेज़ाब से जलाने व पत्नी को पागल करार करने का धंधा भी बदस्तूर जारी है।भ्रूणहत्या के कारण, दूसरे प्रदेशों से खरीद कर लाई गई दुल्हनों से, तो उनका नाम व पहचान भी छीन ली जाती है और वे अनामिका व मोलकी के नाम से आजीवन संबोधित की जाती हैं। मोलकी अर्थात् खरीदी हुई वस्तु… जिससे मालिक मनचाहा व्यवहार कर सकता है और वे अपना जीवन बंधुआ मज़दूर के रूप में ढोने को विवश होती हैं।अक्सर नौकरीपेशा शिक्षित महिलाओं को हर दिन कटघरे में खड़ा किया जाता है। कभी रास्ते में ट्रैफिक की वजह से, देरी हो जाने पर, तो कभी कार्यस्थल पर अधिक कार्य होने की वजह से, उन्हें कोप-भाजन बनना पड़ता है।अक्सर कार्यालय में भी उनका शोषण किया जाता है। परंतु उन्हें अनिच्छा से वह सब झेलना पड़ता है क्योंकि नौकरी करना उनकी मजबूरी होती है। वे यह जानती हैं कि परिवार व  बच्चों के पालन-पोषण व अच्छी शिक्षा के निमित्त उन्हें यह समझौता करना पड़ता है। यह सब ज़िंदगी जीने की शर्तें हैं, जिनका मालिकाना हक़ क्रमशः पिता,पति व पुत्र को हस्तांतरित किया जाता है। परंतु औरत की नियति जन्म से मृत्यु पर्यंत वही रहती है, उसमें लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं होता।

‘औरत दलित थी,दलित है और दलित रहेगी’ कहने में अतिशयोक्ति नहीं है। वह सतयुग से लेकर आज तक 21सवीं सदी तक शोषित है, दोयम दर्जे की प्राणी है और उसे सदैव सहना है,कहना नहीं…यही  एकतरफ़ा समझौता ही उसके जीने की शर्त है। उसे आंख, कान ही नहीं, मुंह पर भी ताले लगाकर जीना है। वैसे उसकी चाबी उसके मालिक के पास है, जिसे वह बिना सोच-विचार के, अकारण किसी भी पल घुमा सकता है। हर पल औरत के ज़हन में प्रसाद की पंक्तियां दस्तक देकर अहसास दिलाती हैं…जीने का अंदाज से सिखलाती हैं… उसकी औकात दर्शाती हैं  और उसके हृदय को सहनशीलता से आप्लावित करती हैं और वह अपने पूर्वजों की भांति आचार- व्यवहार व ‘हां जी’ कहना स्वीकार लेती हैं क्योंकि नारी तो केवल श्रद्धा है! विश्वास है! उसे आजीवन सब के सुख,आनंद व समन्वय के लिए निरंतर बहना है ताकि जीवन में सामंजस्य बना रहे।

वैसे भी हमारे संविधान निर्माताओं ने सारे कर्त्तव्य अथवा दायित्व नारी के लिए निर्धारित किए हैं और अधिकार प्रदत्त हैं पुरुष को,जिनका वह साधिकार, धड़ल्ले से प्रयोग कर रहा है… उसके लिए कोई नियम व कायदे-कानून निर्धारित नहीं हैं।

पराधीन तो औरत है ही…जन्म लेने से पूर्व, भ्रूण रूप में ही उसे  दूसरों की इच्छा को स्वीकारने की आदत-सी हो जाती है और अंतिम सांस तक वह    अंकुश में रहती है। ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ‘ अर्थात्  गुलामी में वह कैसे सुख-चैन की सांस ले सकती है? उसकी ज़िंदगी उधार की होती है, जो दूसरों की इच्छा पर आश्रित है,निर्भर है।

अंततः नारी से मेरी यह इल्तज़ा है कि उसे हंसते- हंसते जीवन में संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने होंगे…मौन रहकर  सब कुछ सहना होगा।यदि उसने इसका विरोध किया तो भविष्य से वह अवगत है,जो उसके स्वयं के लिए, परिवार व समाज के लिए हितकर नहीं होगा। आइए! इस तथ्य को मन से स्वीकारें,  ताकि यह हमारे रोम-रोम व सांस-सांस में बस जाए और आंसुओं रूपी जल-धारा से उसका अभिषेक होता रहे।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 16 ☆ चीखती दीवारें..!!! ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है – उनका एक अत्यंत संवेदनशील, मार्मिक, गंगा जमुनी  तहजीब की मिसाल प्रस्तुत करती मानवीय दृष्टिकोण पर लिखा शिक्षाप्रद  सामयिक आलेख   “चीखती दीवारें !!!”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं। ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 16 ☆

☆ चीखती दीवारें..!!! ☆

 

9 दिसम्बर स्थान अनाज मंडी दिल्ली में सुबह का सूरज एक नई रोशनी ले के आने ही वाला था कि सुबह होने के पूर्व ही अनाज मंडी स्थित एक बैग फैक्ट्री की दीवारों से एक साथ तमाम चीखें सुनाई देने लगीं..! दीवारों की खिड़कियों से बड़ी तेजी से लगातार धुआं निकल रहा था..!! सुबह सुबह ये नजारा देख आस पास के लोगों में दहशत फैल गई.!!किसी ने आनन फानन में पुलिस को इतला दी..!!

अंदर धुंए और आग से लोगों का दम घुटने लगा था कुछ लोग आग की लपेट में भी आ चुके थे.! पुलिस जब तक उस तंग गली में स्थित फैक्ट्री तक पहुँचे इस बीच अंदर फंसे व्यक्तियों की मनोदशा अंतिम चरण में पहुँच चुकी थी.!! बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था,चारों तरफ़ धुआं ही धुआं आग और घुटन बढ़ती ही जा रही थी..!! मुसर्रफ अली भी उन व्यक्तियों में से एक था..!! उसे अहसास हो चला था कि वह अब मौत के दरवाजे पर खड़ा है.!!उसे एक एक कर बीते वर्षों की हर एक बात बड़ी तेजी से याद आ रही थी अभी छह माह पूर्व ही उसके वालिद का इंतक़ाल हो गया था तब वो घर बिजनोर गये थे.! अपनी माँ की गोद में सिर रखने पर मिलता सुकून,दो नन्हे से बच्चे और अपनी प्यारी सी बीबी की याद बड़ी बेसब्री से आ रही थी..!!! फिर अचानक उसे अपने अज़ीज़ दोस्त मोनू अग्रवाल का ख्याल आया और तुरंत उसने उसे मोबाइल से काल लगाया.!! ये एक ऐसा वक्त था जब मुसर्रफ अपने दिल की हर बात अपने अज़ीज़ दोस्त मोनू को जल्द से जल्द बता देना चाहता था,और हुआ भी वही..!! दूसरी तरफ फोन पर मोनू की आवाज़ सुन मुसर्रफ बड़ी ही संजीदगी से बोला यार सुन अब मेरे पास वक्त बहुत कम है,यहाँ फैक्ट्री में आग लगी हुई है चारों तरफ धुआं ही धुआं और गर्द है मुझे सांस लेने में भी तकलीफ हो रही है मोनू ने रोक कर कहा यार तू किसी तरीके से बाहर निकल अल्लाह सब ठीक करेगा तू फिक्र न कर यह सुन मुसर्रफ ने कहा सुन भाई मैं जो कहना चाहता हूँ मुझे बात करने में भी खासी तकलीफ हो रही है बमुश्किल बात कर पा रहा हूँ, तू मेरे बीबी बच्चों का ख्याल रखना जब तक वो बड़ें न हों जाएँ, पैरों पर खड़े न हों जाएँ अब तू ही एक सहारा है भाई.. मुझे तुझ पर पूरा भरोसा है भइया, उसकी आवाज़ में लड़खड़ाहट और मौत का ख़ौफ़ नज़र आ रहा था !! और हाँ भइया मैंने कुछ दिन पूर्व इमामुद्दीन से पांच हजार रुपये लिए थे उसके ये पैसे भी आप याद से लौटा देना भइया..! मोनू दूसरी तरफ से सांत्वना देते हुए बोला अरे सब लौटा देंगे तू काहे टेंसन ले रहा है सब ठीक होगा मुसर्रफ.!! एक बात और सुन मेरे भाई मेरे मरने की बात एक दम से न बताना परिवार बर्दास्त न कर सके इसलिए धीरे समय देख बड़ों जैसे समझदारी से बताना.!! ये कहते हुए उसकी आवाज़ थम सी रही थी अंत में सिर्फ ये सुनाई दिया या अल्लाह मेरे घर की देख रेख करना मोनू ने यह सुन उसे फिर आवाज दी हेलो मुसर्रफ पर दुबारा उसकी आवाज सुनाई नहीं दी..!!

तभी अग्निशामक दल की गाड़ियां आ चुकीं थीं जो दूर से ही पाइप डाल कर आग बुझाने में लग गई..!!,दिल्ली पुलिस आस पास के लोगों से पूछताछ में लग गई..!! मीडिया टी आर पी बढ़ाने में लग गया..!! जांच अधिकारी आग के कारणों को खोजने,और फैक्ट्री मालिक की गिरफ्तारी में लग गए..!! कई सवाल उठने लगे कि आखिर तंग गलियों में फैक्ट्री की इजाज़त क्यों..? लेकिन इस बीच अग्निशामकों द्वारा जब 43 लाशें बाहर निकाली गईं तो स्थितियाँ बहुत ही मार्मिक एवं ह्रदय विदारक थीं.!

बहरहाल कारण जो भी हों पर इस अग्निकांड ने 43 लोग बे समय काल कलवित हुए..!! घटनाओं के बाद जैसे प्रायः होता आया है वही मजिस्ट्रेटियल जांच के आदेश, मुआवजा, देकर xइन वीभत्स कांडो पर पर्दा डालने के कुत्सित प्रयास भी नजर अंदाज नहीं किये जा सकते..!!  नगरीय प्रशासन,राज्य स्तरीय,और केंद्रीय प्रशासन संयुक्त रूप से दोषियों के खिलाफ कार्यवाही और भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो इसका हल खोजने के बजाय एक दूजे को दोषारोपण देने में ही व्यस्त रहे ..!!

यह अग्निकांड तमाम सवाल अपने पीछे छोड़ गया है, जिनका जबाब हमें खोजना है..!! जैसे तंग गलियों में फैक्ट्री की इजाजत कैसे,बिजली कनेक्शन,पानी,अन्य अग्नि से निपटने के उपकरण, आपातकालीन दरवाजे आदि आदि पर एक बहुत बड़ा संदेश भी इस अग्निकांड से हमें मिला है वो है सामाजिक समरसता, सौहार्द, आपसी भाईचारा, परस्पर प्रेम, ईमानदारी और विस्वास का..!! उस ख़ुदा के नेक वंदे ने अपने आखिरी वक्त में जो बातें कहीं वो पूरे समाज के लिए चिंतनीय, सोचनीय, और अनुकरणीय हैं.!! अल्लाह उनको जन्नत नसीब करें.! जहाँ आज चौतरफा एक दूजे को शक की निगाह से देखा जा रहा है आपसी सौहार्द खतरे में हो,इन हालातों में समाज के बीच ये खिंची हुई दीवारें भी चीख चीख कर मानो हमसे कह रही हों हमें गिरा दो..!! इन चीखती दीवारों की व्यथा न जाने कब सुनेगा ये तथा कथित सभ्य समाज…???

संतोष

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 7 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 7 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

 

प्रश्न :-  यह तो कपडे के बारे में हुआ। लेकिन यंत्र की बनी तो अनेक चीजें हैं। वे चीजें या तो हमें परदेश से लेनी होंगी या ऐसे यंत्र हमारे देश में दाखिल करने होंगे।

उत्तर:- सचमुच हमारे देव (मूर्तियाँ) भी जर्मनी के यंत्रों से बनकर आते हैं; तो फिर दियासलाई या आलपिन से लेकर कांच के झाड-फानूस की तो बात क्या? मेरा अपना जवाब तो एक ही है। जब ये चीजें यंत्र से नहीं बनती थी तब हिन्दुस्तान क्या करता था? वैसा ही वह आज भी कर सकता है। जब तक हम हाथ से आलपिन नहीं बनायेंगे तब तक हम उसके बिना अपना काम चला लेंगे। झाड-फानूस को आग  लगा देंगे। मिटटी के दिए में तेल डालकर और हमारे खेत में पैदा हुई रुई की बत्ती बनाकर दिया जलाएंगे। ऐसा करने से हमारी आँखे (खराब होने से) बचेंगी, पैसे बचेंगे और हम स्वदेशी रहेंगे, बनेंगे और स्वराज की धूनी जगायेंगे।

यह सारा काम सब लोग एक ही समय में करेंगे या एक ही समय में कुछ लोग यंत्र की सब चीजें छोड़ देंगे, यह संभव नहीं है। लेकिन अगर यह विचार सही होगा, तो हमेशा थोड़ी-थोड़ी चीजें छोड़ते जायेंगे। अगर हम ऐसा करेंगे तो दूसरे लोग भी ऐसा करेंगे। पहले तो यह विचार जड़ पकडे यह जरूरी है; बाद में उसके मुताबिक़ काम होगा। पहले एक आदमी करेगा, फिर दस, फिर सौ- यों नारियल की कहानी की तरह लोग बढ़ते ही जायेंगे। बड़े लोग  जो काम करते हैं उसे छोटे भी करते हैं और करेंगे। समझे तो बात छोटी और सरल है। आपको मुझे और दूसरों  के करने की राह नहीं देखना है। हम तो ज्यों ही समझ ले त्यों ही उसे शुरू कर दें। जो नहीं करेगा वह खोएगा। समझते हुए भी जो नहीं करेगा, वह निरा दम्भी कहलायेगा।

प्रश्न:- ट्रामगाडी और बिजली की बत्ती का क्या होगा?

उत्तर :- यह सवाल आपने बहुत देर से किया। इस सवाल में अब कोई जान नहीं रही। रेल ने अगर हमारा नाश किया है, तो क्या ट्राम नहीं करती? यंत्र तो सांप का ऐसा बिल है, जिसमें एक नहीं सैकड़ों सांप होते हैं। एक के पीछे दूसरा लगा ही रहता है। जहाँ यंत्र होंगे वहाँ बड़े शहर होंगे वहाँ ट्राम गाडी और रेलगाड़ी होगी। वहीं बिजली की बत्ती की जरूरत रहती है। आप जानते होंगे विलायत में भी देहातों में बिजली की बत्ती या ट्राम नहीं है। प्रामाणिक वैद्य और डाक्टर आपको बताएँगे कि जहाँ रेलगाड़ी, ट्रामगाडी वगैरा साधन बढे हैं, वहाँ लोगों की तंदुरुस्ती  गिरी हुई होती है। मुझे याद है कि यूरोप के एक शहर में जब पैसे की तंगी हो गई थी तब ट्रामों, वकीलों, डाक्टरों की आमदनी घट गई थी, लेकिन लोग तंदुरस्त हो गए थे।

यंत्र का गुण तो मुझे एक भी याद नहीं आता, जब कि उसके अवगुणों से मैं पूरी किताब लिख सकता हूँ।

प्रश्न :- यह सारा लिखा हुआ यंत्र की मदद से छापा जाएगा और उसकी मदद से बांटा जाएगा, यह यंत्र का गुण है या अवगुण?

उत्तर :- यह ‘जहर की दवा जहर है’ की मिसाल है। इसमें यंत्र का कोई गुण नहीं है। यंत्र मरते-मरते कह जाता है कि ‘मुझसे बचिए, होशियार रहिये; मुझसे आपको कोई फायदा नहीं होने का।‘ अगर ऐसा कहा जाय कि यंत्र ने इतनी ठीक कोशिश की, तो यह भी उन्ही के लिए लागू होता है, जो यंत्र के जाल में फँसे हुए हैं।

लेकिन मूल बात न भूलियेगा। मन में यह तय कर लेना चाहिए कि यंत्र खराब चीज है। बाद में हम उसका धीरे-धीरे नाश करेंगे। ऐसा कोई सरल रास्ता कुदरत ने बनाया ही नहीं है कि जिस चीज की हमें इच्छा हो वह तुरंत मिल जाय। यंत्र के ऊपर हमारी मीठी नजर के बजाय जहरीली नजर पड़ेगी, तो आखिर वह जाएगा ही।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – ☆ हैवानियत – दीवारें, सड़के, पेड़ बोल उठे अब तो सुधर जा इंसान  ☆ – श्री कुमार जितेंद्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(आज प्रस्तुत है  श्री कुमार जितेंद्र जी  का विशेष आलेख “हैवानियत – दीवारें, सड़के, पेड़ बोल उठे अब तो सुधर जा इंसान ”।  इस आलेख के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण का अद्भुत  सन्देश दिया गया   है.

☆हैवानियत – दीवारें, सड़के, पेड़ बोल उठे अब तो सुधर जा इंसान  ☆

 

*हैवानियत* अर्थ पशुओं के समान क्रूर आचरण, अमानवीय व्यवहार जो मानव के मानव होने को कलंकित करे। अगर इसमे पशुओं को हटा दिया जाए तो कितना अच्छा रहेंगा क्योंकि वर्तमान का पशु तो क्रूर आचरण शायद ही कोई करे। ऎसा सुनने में बहुत कम आता है। और अगर सौभाग्य से सुनने को मिल जाता है तो यह बात सुनने को मिलती है कि उस पशु ने उस इंसान की जान बचाई। वर्तमान की परिस्थितिया कुछ और ही बया कर रही है। वर्तमान में मनुष्य ख़ुद अपने ही समाज मनुष्य के लिए हैवानियत बन गया है। प्रतिदिन विभिन्न प्रकार की घटनाएँ सुनने को मिल रही है। जो भविष्य के लिए एक बहुत बड़ा खतरा साबित हो सकता है।

आईए विश्लेषण से समझते हैं *हैवानियत* को.

*दीवारें बोल उठी, अब तो सुधर जा इंसान* – पौराणिक कहावत है कि दीवारों के भी कान होते हैं। मतलब किसी भी बात को दूसरे को गोपनीय तरीके से बताना जिसे अन्य किसी व्यक्ति को पता नहीं चले। परन्तु वर्तमान समय कुछ ऎसी स्थितियां लेकर प्रकट हुआ है। जिससे मुकबधिर, निर्जीव दीवारे भी बोल उठी है…चिल्ला उठी….. बेटी बचाओं, बेटी बचाओं। पेड़ो ने अपनी हवा रोक ली, सूर्य ने तेज किरणें फैला दी फिर भी इंसान सोया हुआ है। जिस इंसान को जाग उठना था, वह इंसान आज रंगीन रंगो में रंगा हुआ है। फिर तो अंतर सामने आ ही गया है निर्जीव और सजीव में। आज उसका विपरीत परिणाम देखने को मिल रहा है। सजीव ख़ुद निर्जीव बनते जा रहे हैं, और निर्जीव इस वक्त सजीव बन चिल्ला रहे हैं। इस समय इस धरा पर दुष्कर्म की घटनाओं ने एक विकराल रूप धारण कर लिया है। धरा अपने आंसुओ को रोक नहीं पा रही है, जब सामने रक्त की धार बहती है। वही दूसरी ओर अख़बारों के पन्नो को पलटते ही दुष्कर्म की एक वारदात दिखाई पड़ती है, उसे ठीक से पूरा पढ़ ही नहीं पाते हैं। की टेलीविजन या सोशल मीडिया के माध्यम से दूसरी घटना घटित हो जाती है।  अपराधी बिना डर के अपराध को अंजाम दे रहे हैं। धन्य हो मनुष्य…. सड़को के चौराहे पर मोमबतिया जला के अख़बारों के पहले पन्ने पर आ जाते हैं। पर उन दीवारों की चीख, पुकार… बेटी बचाओं, बेटी बचाओं… कौन सुनेंगा। क्या अखबारों के पहले पन्ने पर मोमबतिया लेकर पंक्तिबद्ध खड़े रहने से… बेटी बचा पाओंगे? क्या एक – दूसरे पर आरोप लगाने से अपराध कम हो जाएंगे? अनगिनत प्रश्न सामने खड़े है। इंसान मूक बधिर क्यू हो गया है। हे! मनुष्य तू क्या से…. क्या हो गया है। इतना स्वार्थी जिसका आंकलन करना नामुमकिन है। जिस कोख में पला – बढ़ा… जिस कोख ने तुम्हारी पल – पल रक्षा की… आज तू उसका ही बदला ले रहा है। हे! मनुष्य तेरा अंत निश्चित है फिर भी तुझे डर नहीं। थोड़ा संभल जहां वक्त पे…. अन्यथा बह जाएंगा नदी की धार में।…. दीवारें बोल उठी… चीख उठी…. पुकार रही है… बेटी बचाओं, बेटी बचाओं।.

*फर्क’… इंसान और पशु में कितना फर्क है*….

यह ख़ुद इंसान ने साबित कर दिया है….ऎसा तो कभी इंसान के बारे में पशु ने सोचा तक भी नहीं था। उदाहरण देख ही लीजिए……. एक बेजुबान जीव, तेज गर्मी के मौसम में सड़क के किनारे पर मृत अवस्था में पड़ा हुआ था। धरा रक्त से रंगीन हो गई थी, लग रहा था किसी ने टक्कर मार गिरा दिया है। पास से होकर दुनिया के रईस लोगो की बड़ी गाड़ियां गुजर रही है, किसी का ध्यान उस मृत बॉडी की तरफ नहीं गया क्योकि वह बॉडी जब जिंदा थी तब बोल नहीं सकी..और…… न दुनिया छोड़ देने के बाद… उसके कोई परिवार वाले है जो उसकी पैरवी कर सके…. जहां है वही है… सुरज भी अपनी किरणो को समेटे हुए शाम की आंचल में छिप गया। धीरे – धीरे… धरा पर लालीमा चाहने वाली….सड़क के आँसू बह रहे थे। बार बार उस पशु को देखते हुए…क्या यह मेरी ही कोख में समा गया……..अगर उस पशु की जगह कोई इंसान होता तो… न.. जाने अब तक उस हाइवे पर.. भीड़ जमा हो गई होती।   न जाने कितने बड़े बड़े बोलने वाले … चिल्लाते हुए नजर आते… कितनी जांच एजेंसियों ने हाइवे को घेर लिया होता… पता नहीं कितने फैसले लिए होते.. पर इस जीव के कोई सामने तक नहीं देख रहा है। रोजाना ऎसे पशु मौत के घाट उतार दिया दिए जाते हैं सड़को पर.. फिर उनकी कोई देखभाल तो दूर सामने तक नहीं देख पाते हैं। ….इंसान रंगीन रंगो में रंगा हुआ पास से गुजर रहा है.l  क्या मनुष्य और जानवर में इतना बड़ा फर्क… जबकि जानवर तो मनुष्य के किसी न किसी रूप में जरूर सहयोग दिया है। जितने पशु मनुष्यों के उपयोगी है उतने तो इंसान भी आज पशुओं की देखभाल नहीं कर रहे हैं। वर्तमान स्थिति में देखा जाए सड़को के इर्दगिर्द व चौराहे के मार्ग पर बहुत सारे बेजुबान जीव विचरण  करते हुए नजर आते हैं। पर उनकी तरफ देखने वाला कोई नहीं है। केवल बड़ी बड़ी बाते करने के लिए सोशल नेटवर्किंग पर व्याख्यान देते नजर आते हैं। वास्तविक धरातल पर मनुष्य आज जीव जंतुओं के लिए समय नहीं दे रहा है। मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति करने में लगा हुआ है। हें! प्राणी….. समय रहते तुम्हें बदलना होगा…. पशु को अपना परिवार मानना होगा…. उसका जीवन भर साथ देना होगा…. तभी तुम्हारा जीवन सार्थक होगा…

*खुद के विकास से – पेड़ो का कत्ल*….क्या यह भी हैवानियत से कम है…. कुछ वक्त पहले एक रास्ते से गुजरने दौरान दौड पड़ी नजर कटे हुए वृक्षों पर……. और कुछ पल सोचने को मजबूर कर दिया……. पेड़ है, तो यही जाना कि वह रहेगा नहीं……. सुनने में भले ही अजीब लगे… पर यह हकीकत है…. जो निस्वार्थ मनुष्य के जीवन को जिंदा बनाए रख रहे हैं…निःशुल्क ऑक्सिजन उपलब्‍ध करा रहे हैं… जहरीली गैसों को ग्रहण कर रहे हैं… फिर भी आज वही मनुष्य अपने खुद के विकास के लिए…खुद के जीवन के लिए उन पेड़ो का जीवन समाप्‍त कर रहे हैं…. क्या दोष उन पेड़ो का…. जो अपनी युवा अवस्था में ही जिंदगी खो रहे हैं। उन्हें न पता था कि इस जगह जन्म लेने से अपनी जिंदगी युवा अवस्था में ही चली जाएंगी।….. जब किसी मनुष्य की दुर्घटना होती है तो पता नहीं कितना बवाल खड़ा कर देता…..विभिन्न प्रकार की जांच की मांग कर देता है…. न जाने कितने तरीको का इस्तेमाल कर लेता है…. पर आज इन बेजुबान पेड़ो पर जब तीव्र गति से जे सी बी दौड पड़ती है…. एक पल में जिंदगी समाप्‍त कर दी जाती है…. मनुष्य देख रहे यह सब… फिर वह कुछ नहीं कर पाता… पेड़ बेचारे निःशब्द है… एक तरफा पेड़ लगा रहे हैं… दूसरी तरफ युवा पेड़ो की जिंदगी दाँव पर लगी है..

  *आओ मिलकर हैवानियत का संधि विच्छेद कर एक अच्छा प्रण ले* आओ इस धरा पर जहर रूपी फैल रहा शब्द हैवानियत का संधि विच्छेद कर उसमे से *हैवा* को अलग कर देते हैं। और अपने आसपास के वातावरण में अच्छी *नियत* को प्रकाशमान करे। ताकि भविष्य के लिए अच्छी नियत वाले मनुष्य के बीच रहने का सौभाग्य मिले। हें! प्राणी मनुष्य जीवन बड़ा अनमोल है, इस अनमोल रत्न को अनमोल ही रहने दें।.

 

©  कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #27 – संवाद संजीवनी है ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संवाद संजीवनी है”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 27 ☆

 

☆ संवाद संजीवनी है

 

घर, कार्यालय हर रिश्ते में सीधे संवाद की भूमिका अति महत्वपूर्ण है संवादहीनता सदा कपोलकल्पित भ्रम व दूरियां तथा समस्यायें उत्पन्न करती है.  वर्तमान युग मोबाइल का है, अपनो से पल पल का सतत संपर्क व संवाद हजारो किलोमीटर की दूरियों को भी मिता देता है.  जहां कार्यालयीन रिश्तों में फीडबैक व खुले संवाद से विश्वास व अपनापन बढ़ता है वहीं व्यर्थ की कानाफूसी तथा चुगली से मुक्ति मिलती हे.  इसी तरह घरेलू व व्यैक्तिक रिश्तो में लगातार संवाद से खुलापन आता है, परस्पर प्रगाढ़ता बढ़ती है, रिश्तों की गरमाहट बनी रहती है, खुशियां बांटने से बढ़ती ही हैं और दुःख बांटने से कम होता है.  कठनाईयां मिटती हें.  बेवजह ईगो पाइंट्स बनाकर संवाद से बचना सदैव अहितकारी है.

प्रधानमंत्री मोदी जी ने संवाद के महत्व को समझा व उसे अपनाया है.  वे आम जनता से सीधा संवाद मन की बात के जरिये करते हैं यह अभिनव प्रयोग है. विभिन्न कंपनी प्रमुख मैनेजमेंट के इस गुर को अपनाते हैं व अपनी कंपनी के कर्मचारियो में सर्क्युलेशन के लिये आंतरिक पत्रिका आदि प्रकाशित करते हैं. यद्यपि संवाद द्विपक्षीय होना चाहिये, इंटरनेट ने बिना सामने आये द्विपक्षीय संवाद को सरलता से  संभव बना दिया है. फीडबैक की व्यवस्था वेबसाइट में की जा सकती है.  आवश्यक है कि प्रत्युत्तर  में प्राप्त फीड बैक को संज्ञान में लिया जावे व उन पर कार्यवाही हो जिससे परस्पर विश्वास का वातावरण बन सके.

आज प्रायः बच्चे घरों से दूर शिक्षा पा रहे हैं उनसे निरंतर संवाद बनाये रख कर हम उनके पास बने रह सकते हैं व उनके पेरेण्ट्स होने के साथ साथ उनके बैस्ट फ्रैण्ड भी साबित हो सकते हैं.  डाइनिंग टेबल पर जब डिनर में घर के सभी सदस्य इकट्ठे होते हैं तो दिन भर की गतिविधियो पर संवाद घर की परंपरा बनानी चाहिये. यदि सीता जी के पास मोबाईल जैसा संवाद का साधन होता तो शायद राम रावण युद्ध की आवश्यकता ही न पड़ती और सीता जी की खोज में भगवान राम को जंगल जंल भटकना न पड़ता.  विज्ञान ने हमें संवाद के संचार के नये नये संसाधन मोबाईल, ईमेल, फोन, सामाजिक नेटवर्किंग साइट्स आदि के माध्यम से सुलभ कराये हैं, पर रिश्तो के हित में उनका समुचित दोहन हमारे ही हाथों में है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर चरण स्पर्श है जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं एवं हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी  एवं डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’  जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ विगत रविवार से प्रारम्भ कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि आपको प्रत्येक रविवार एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

 

☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

 

(आज ससम्मान प्रस्तुत है मेरे गुरुवर एवं संस्थापक प्राचार्य केंद्रीय विद्यालय-1, जबलपुर प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श उनके सुपुत्र श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी की कलम से। मैं श्री विवेक जी का हार्दिक आभारी हूँ जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। श्री विवेक रंजन जी को साहित्य की विभिन्न विधाएँ विरासत में मिली हैं, जिन्हें उन्होंने अपनी अभियांत्रिकीय शिक्षा एवं कार्य के साथ निरंतर संजो कर रखा है। वे ही नहीं हम भी उनके पिताश्री को .. एक सफल पिता, शिक्षाविद, राष्ट्रीय भावधारा के निर्झर कवि, संस्कृत ग्रंथो के हिन्दी काव्य अनुवादक, अर्थशास्त्री और सहज इंसान के रूप में अपना आदर्श मानते हैं। उनकी जीवन यात्रा  एवं कृतियों/उपलब्धियों की जानकारी  आप इस  लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं   >>>> प्रो  चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ‘)

(प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  के सुपुत्र श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ )

मेरे पिता उम्र के दशवें दशक में हैं, परमात्मा की कृपा, उनका स्वयं का नियमित रहन सहन, खान पान, व्यायाम, लेखन, नियमित टहलना, पठन, स्वाध्याय, संयम  का ही परिणाम है कि वे आज भी निरंतर सक्रिय जीवन व्यतीत कर रहे हैं. जब तक माँ का साथ रहा, पिताजी के समय पर  भोजन, फल, दूध की जम्मेदारी वे लिये रहीं, माँ के हृदयाघात से दुखद आकस्मिक निधन के बाद मेरी पत्नी ने बहू से बेटी बनकर ये सारी जिम्मेदारियां उठा ली. समय पर दवा के लिये ३ डिबियां बना दी गई हैं, जिनमें नियम से दवाई निकाल कर रख दी जाती हैं, जिन्हें याद दिलाकर पिताजी को खिलाना होता है. पिताजी की दिनचर्या इतनी नियमित है कि मैं कहीं भी रहूं समय देखकर बता सकता हूं कि वे इस वक्त क्या कर रहे होंगे.

मैं उन्हें एक  सिद्धांतो  के पक्के, अपनी धुन में रमें हुये सहज सरल व्यक्ति के रूप में ही पहचानता हूं. वे एक सफल पिता हैं, क्योकि उन्होने माँ के संग मिलकर हमें, मुझे व मेरी ३ बहनो को  तत्कालीन औसत सामाजिक स्थितियों से बेहतर शिक्षा दी, हम सबको जीवन में सही दिशा उचित संस्कार देकर सुव्यवस्थित किया. उनके स्वयं के सदा भूख से एक रोटी कम खाने की आदत,  भौतिकता की दौड़ के  समय में भी संतोष की वृत्ति के कारण ही वे आज हमारे बच्चो तक को निर्देशित करने की स्थिति में हैं. वे स्वयं के लिए जरूरत से ज्यादा मितव्ययी हैं, पर हम लोगों को जब तब लाखो के चैक काटकर दे देते हैं । कागज व्यर्थ करना उन्हें पसंद नही आता हर टुकड़े पर लिखते हैं।

मण्डला में गौड़ राजाओ के दीवानी कार्यो हेतु मूलतः मुगलसराय के पास सिकंदरसराय से मण्डला आये हुये कायस्थ परिवार में मेरे पिता प्रो.चित्र भूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” का जन्म २३मार्च १९२७  को स्व श्री सी एल श्रीवास्तव व माता श्रीमती सरस्वती देवी के घर  हुआ था. पिताजी उनके भाईयो में सबसे बड़े हैं. मण्डला में हमारा घर महलात कहलाता है, जिसका निर्माण व शैली किले के साथ की है, घर नर्मदा तट से कोई २०० मीटर पर पर्याप्त उंचाई पर है. बड़ा सा आहाता है, इतना बड़ा कि वर्ष १९२६ में जब नर्मदा जी में अब तक की सबसे बड़ी बाढ़ आई थी तब वहां हजारो लोगो की जान बची थी. घर पर इस कार्य के लिये तत्कालीन अंग्रेज प्रशासको का दिया हुआ प्रशस्ति पत्र भी है. पिताजी बताते हैं कि जब वे बच्चे थे तो स्टीम एंजिन से चलने वाली बस से जबलपुर आवाजाही होती थी. नर्मदा जी के उस पार महाराजपुर में मण्डला फोर्ट नेरो गेज रेल्वे स्टेशन टर्मिनस था.जो नैनपुर जंकशन को मण्डला से जोड़ती है. अब नेरो गेज बंद हो चुकी है, ब्राड गेज लाईन डाली जा चुकी है. यह सब लिखने का आशय मात्र इतना कि  पिताजी ने विकास के बड़े लम्बे आयाम देखे हैं, कहां आज वे मेरे बच्चो के साथ दुबई, श्रीलंका, आदि हवाई विदेश यात्रायें कर रहे हैं और कहां उन्होने लालटेन की रोशनी में पढ़ा,पढ़ाया है. स्वतंत्रता के आंदोलन में छात्र जीवन में सहभागिता की है. मण्डला के अमर शहीद उदय चंद जैन उनकी ही डेस्क पर बैठने वाले उनके सहपाठी थे. मेरे दादा जी कांग्रेस के एक्टिव कार्यकर्ता थे, छोटी छोटी देशभक्ति के गीतो की पुस्तिकायें वे युवाओ में वितरित करते थे, प्रसंगवश लिखना चाहता हूं कि आजादी के इन तरानो का संग्रह हमने जिला संग्रहालय मण्डला में भेंट किया है, जो वहां सुरक्षित है. पिताजी के आदर्श ऐसे, कि जब १९७० के आस पास स्वतंत्रता संग्राम सेनानियो की सूची बनी और ताम्र पट्टिकायें, पेंशन वगैरह वगैरह लाभ बटें तो न तो पिताजी ने स्वयं का और न ही हमारे दादा जी का नाम पंजीकृत करवाया.

पिताजी ने शालेय शिक्षा मण्डला के ही सरकारी स्कूल में प्राप्त की. एम.ए. हिन्दी, एम.ए.अर्थशास्त्र, साहित्य रत्न, एम.एड.की उपाधियां प्राप्त की.वे चाहते तो रेवेन्यू सर्विसेज में जा सकते थे, किन्तु जैसा वे चाहते थे,उन्होंने शिक्षण को ही अपनी नौकरी के रूप में चुना . वे केंद्रीय विद्यालय क्रमांक १ जबलपुर के संस्थापक प्राचार्य रहे. शिक्षा विभाग में दीर्घ कालीन सेवाये देते हुये प्रांतीय शासकीय शिक्षण महाविद्यालय जबलपुर से प्राध्यापक के रूप में  सेवानिवृत  हुये हैं. उस पुराने जमाने में उनका विवाह लखनऊ में हुआ. इतनी दूर शादी, मण्डला जैसे पिछड़े क्षेत्र में  सहज बात नही थी. माँ, पढ़ी लिखी थीं. फिर मां ने नौकरी भी की, मैं समझ सकता हूं यह तो मुहल्ले के लिये अजूबा ही रहा होगा. मम्मी पापा ने साथ मिलकर पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. नौकरी में तत्कालीन सी पी एण्ड बरार के अमरावती, खामगांव आदी स्थानो पर निकले, मुझे लगता है उनका यह संघर्ष आज मेरे बच्चों के दुबई, न्यूयार्क और हांगकांग जाने से बड़ा था.

(ट्रू मीडिया द्वारा प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ पर केंद्रित विशेषांक का आवरण पृष्ठ )

१९४८ में सरस्वती पत्रिका में पिताजी की पहली रचना प्रकाशित हुई. निरंतर पत्र पत्रिकाओ में कविताये, लेख, छपते रहे हैं.आकाशवाणी व दूरदर्शन से अनेक प्रसारण होते रहे हैं. दूरदर्शन भोपाल ने एक व्यक्तित्व ऐसा नाम से उन पर फ़िल्म बनाई है । ट्रू मीडिया ने उन पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित किया है । ईशाराधन, वतन को नमन,अनुगुंजन,नैतिक कथाये,आदर्श भाषण कला,कर्म भूमि के लिये बलिदान,जनसेवा, अंधा और लंगड़ा, मुक्तक संग्रह,अंतर्ध्वनि,  समाजोपयोगी उत्पादक कार्य, शिक्षण में नवाचार  मानस के मोती, अनुभूति, रघुवंश हिंदी भावानुवाद, भगवत गीता हिंदी काव्य अनुवाद, मेघदूतम, हाल ही प्रकाशित शब्दधारा आदि साहित्यिक व शैक्षिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. संस्कृत तथा मराठी से हिन्दी भावानुवाद के क्षेत्र में आपने उल्लेखनीय कार्य किया है. संस्कृत न जानने वाली युवा पीढ़ी के लिये भगवत गीता का हिन्दी पद्यानुवाद, महा कवि कालिदास के अमर ग्रंथो मेघदूतम् का हिन्दी पद्यानुवाद तथा रघुवंशम् पद्यानुवाद एवं मराठी से हिन्दी अनुवादित प्रतिभा साधन प्रमुख अनुवादित पुस्तकें हैं. समसामयिक घटनाओ पर वे नियमित काव्य विधा में अपनी अभिव्यक्ति करते रहते हैं. उन्हें दूरदर्शन देखना ही भरोसेमंद लगता है. उनके कमरे से आस्था व उस जैसे चैनलो की आवाजें ही हमें सुनने मिलती हैं. अखबार बहुत ध्यान से देर तक दोपहर में पढ़ा करते हैं. उनके सिराहने किताबो, पत्रिकाओ का ढ़ेर लगा रहता है. रात में भी कभी जब उनकी नींद खुल जाती है, पढ़ना उनका शगल है. मेरी पत्नी कभी कभी मुझसे कहा करती है कि यदि पापा जी जितना पढ़ते हैं उतना कोई बच्चा पढ़ ले तो कई बार आई ए एस पास हो जाये . वे व्यवहार में इतने सदाशयी हैं कि आदर पूर्वक बुला लिया तो आयोजन में समय से पहुंच जायेंगे, साहित्य ही नही किसी भी जोड़ तोड़ से हमेशा से बहुत दूर रहते हैं. जबलपुर आने के बाद से उम्र के चलते व हमारे रोकने से अब वे स्वयं तो बागवानी नही करते किंतु पेड़ पौधो में उनकी बड़ी रुचि है. उनकी बागवानी के शौक को मेरी पत्नी क्रियान्वयन करती दिखती है ।मण्डला में वे नियमित एक घण्टे प्रतिदिन सुबह घर पर बगीचे में काम करते, व इसे अपना व्यायाम कहते. युवावस्था में वे हाकी, बालीबाल, खेला करते थे, उनके माथे पर हाकी स्टिक से लगा गहरा कट का निशान आज भी है. वे अपने परिवेश में सदैव साहित्यिक वातावरण सृजित करते रहे, जिस भी संस्थान में रहे वहां शैक्षणिक पत्रिका प्रकाशन, साहित्यिक आयोजन करवाते रहे. उन्होने संस्कृत के व हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिये राष्ट्र भाषा प्रचार समिति वर्धा, तथा बुल्ढ़ाना संस्कृत साहित्य मण्डल के साथ बहुत कार्य किये. अनेक पुस्तकालयो में लाखो की किताबें वे दान दे चुके हैं. प्रधानमंत्री सहायता कोष, उदयपुर के नारायण सेवा, तारांशु व अन्य संसथानो में घर के किसी सदस्य की किसी उपलब्धि, जन्मदिन आदि मौको पर नियमित चुपचाप दान राशि भेजने में उन्हें अच्छा लगता है. वे आडम्बर से दूर सरस्वती के मौन साधक हैं. मुझे लगता है कि वे गीता को जी रहे हैं.

 

संप्रति..

प्रो चित्र भूषण  श्रीवास्तव  विदग्ध

बंगला नम्बर ए १

विद्युत मंडल कालोनी, रामपुर, जबलपुर म.प्र.

[email protected]

मो. 7000375798

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