हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 24 – आज  की नारी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर  आलेख   “आज  की नारी ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 24 ☆

☆ लेख – आज  की नारी ☆

कविवर जयशंकर प्रसाद की रचना है –

” नारी तुम केवल श्रद्धा हो

विश्वास रजत नग पग तल में,

पीयूष स्रोत सी बहा करो

जीवन के सुंदर समतल में।”

यूं तो सबके जीवन में कोई ना कोई कहानी अवश्य ही होती है। किसी की लंबी, किसी की छोटी  कोई रोचक, भाव प्रद, तो कोई हृदयस्पर्शी। कोई बहुत ही आक्रमक, तो कोई आकर्षण से परिपूर्ण। कोई ममता से सरोकार तो कोई हृदय विहीन। परंतु यह सब भावनाएं, कहानियाँ जिसके आसपास होती हैं वो है नारी।

परमात्मा ने हमको इस मानवीय काया के रूप में जो अनुपम उपहार दिया है। उसकी तुलना किसी भी अन्य अनुदान से कर पाना संभव नहीं है। वो जीवन जिसे प्राप्त करने के लिए देवी-देवता भी लालायित रहते हैं वह है मनुष्य जीवन। मनुष्य जीवन के रूप में मिले अवसर को यदि सौभाग्य का नाम दिया जाए तो उसे ही नारी कहा जाता है।

*यत्र नारी पूज्यंते रमंते तत्र देवता*

अर्थात जहां नारी (सृष्टि) की पूजा होती है। वहां देवता अपने आप निवास करते हैं। और नारी की गरिमा को आज सहज ही स्वीकारा जाता है। धरती माता से लेकर भारत माता, मां गंगा से लेकर मां गायत्री देवी तक नारी शक्ति का ही चित्रण और पूजन होता है। यदि कोई जीवन चाहता है और इस पृथ्वी पर उसे आना है तो बिना मां (नारी) के कृपा पात्र के बिना यह संभव नहीं हो सकता है।

नारी भारतीय संस्कृति का आधार स्तंभ है। अपने प्राणों कि न्योछावर कर उन्होंने संपूर्ण सृष्टि में अपना स्थान देवी के रूप में स्थापित कर लिया है। तभी शास्त्रों में पूजनीय है। इतिहास साक्षी है जब-जब घोर संकट का सामना करना पड़ा है, नारी शक्ति ही सामने आकर उनका संहार करती है।जब-जब उनकी परीक्षा लेनी चाही तब-तब उन्होंने पुरुष बल को ही अपना हथियार बना लिया। याद करिए माता अनुसूया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने स्वयं ब्रह्मा  विष्णु और शिव जी आए। मां अनुसूया ने अपने पतिव्रत धर्म और अपने पति की ताकत का वास्ता देकर तीनों भगवान को बाल रूप में कर लिया था। और अपने धर्म का पालन किया था। नारी शक्ति संपूर्ण ब्रह्मांड को हिला सकती है। आज भारतीय समाज को ऐसे ही संकल्प की धनी नारी की आवश्यकता है। जिसके संकल्प बल से त्रिमूर्ति को झुकना पड़े।

नारी सृष्टि निर्माता की आदित्य रचना है। नारी के अभाव में सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह एक ऐसा छायादार वृक्ष है जिसकी छाया के अभाव में मनुष्य अपनी आशा- आकांक्षाओं के विषय में उदासीन ही रहेगा। प्रत्येक माता-पिता की इच्छा होती है कि उनके यहां संतान उत्पन्न हो। संतान के अभाव में परिवार अपूर्ण रहता है। जिस घर के आंगन में बच्चों की किलकारियां नहीं गूंजती, वह घर बिना सुगंधी के पुष्प के समान दिखाई देता है। यह संतान रूपी धन दो रूपों में प्राप्त होता है:-पुत्र  अथवा पुत्री। पहले हमेशा से देखा जाता रहा कि माता-पिता पुत्र की कामना करते थे। पर अब समय बदल गया है बेटा हो या बेटी माता पिता अपने बच्चे के लिए सुंदर स्वस्थ और स्वावलंबी जीवन की कामना करते हैं। पुराने समय से कुछ तो अंतर आ गया है। अब समाज में यह कहा जाने लगा कि “मेरी बेटी मेरा अभिमान” मेरा गर्व और क्यों ना हो वर्तमान स्वरूप में आज हम देख रहे हैं कि राजनीति के क्षेत्र में, शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में, समाज सेवा के क्षेत्र में, हवाई सेवा से लेकर रेल सेवा और अन्य उद्योग धंधों के विकास में भी नारी अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। किसी ने सच ही कहा है :-

 “एक कदम जो मेरा बढाओगे

दस कदम स्वयं आगे बढ़ा लूंगी मैं,

प्रोत्साहन व सहयोग जो दोगे

अंतरिक्ष कर दिखा दूंगी मैं”

अक्सर हमें ज्ञान मिलता है कि दो रूपों को जाना जाता है। (1)आकृति (2)प्रकृति। आकृति को समझना बड़ा ही आसान है कि बाहरी वातावरण, एक रूप, रंग, बनावट जिस की संरचना हो, इसी को आकृति कहते हैं। और जब प्रकृति कहा जाता है तब इसकी आंतरिक रचना जिसमें सारा सृष्टि समाया हुआ है और इसी सृष्टि का नाम ही *नारी* है, जिसके लिए स्वयं ब्रह्मदेव ने भी कहे हैं:-

 “देख जिसकी शक्ति को।

भयभीत होता दुष्ट दल हो।।

नारी तुम ही कल।

आज और कल हो।।

संगठन की शक्ति।

विचारों का मंथन हो।।

नारी तुम ही इस सृष्टि में।

नव पल्लव हो।।”

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – शैली ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  शैली 

…हरेक की अपनी विशिष्ट शैली होती है। आपकी अपनी दृष्टि में आपकी शैली की कौन सी विशेषता उसे अन्य शैलियों से अलग करती है?

…यह शैली ज़िंदगी के मर्सिया नहीं पढ़ती बल्कि मौत के सोहर गाती है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(31.10.2013)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #24 – जबाबदार कौन नेतृत्व ? या नीतियां ? ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “जबाबदार कौन नेतृत्व ? या नीतियां ?  ”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 24 ☆

☆ जबाबदार कौन नेतृत्व ? या नीतियां ?

कारपोरेट मैनेजर्स की पार्टीज में चलने वाला जसपाल भट्टी का लोकप्रिय व्यंग है, जिसमें वे कहते हैं कि किसी कंप,नी में सी एम डी के पद पर भारी भरकम पे पैकेट वाले व्यक्ति की जगह एक तोते को बैठा देना चाहिये, जो यह बोलता हो कि “मीटिंग कर लो”, “कमेटी बना दो” या  “जाँच करवा लो “. यह सही है कि सामूहिक जबाबदारी की मैनेजमेंट नीति के चलते शीर्ष स्तर पर इस तरह के निर्णय लिये जाते हैं, पर विचारणीय है कि  क्या कंपनी नेतृत्व से कंपनी की कार्यप्रणाली में वास्तव में कोई प्रभाव नही पड़ता ? भारतीय परिवेश में यदि शासकीय संस्थानो के शीर्ष नेतृत्व पर दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि नौकरी की उम्र के लगभग अंतिम पड़ाव पर, जब मुश्किल से एक या दो बरस की नौकरी ही शेष रहती है, तब व्यक्ति संस्थान के शीर्ष पद पर पहुंच पाता है. रिटायरमेंट के निकट इस उम्र के टाप मैनेजमेंट की मनोदशा यह होती है कि किसी तरह उसका कार्यकाल अच्छी तरह निकल जाये, कुछ लोग अपने निहित हितो के लिये पद का दोहन करने की कार्य प्रणाली अपनाते हैं, कुछ शांति से जैसा चल रहा है वैसा चलने दिया जावे और अपनी पेंशन पक्की रखी जावे की नीति पर चलते हैं. वे नवाचार को अपनाकर विवादास्पद बनने से बचते हैं. कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो मनमानी करने पर उतर आते हैं, उनकी सोच यह होती है कि कोई उनका क्या कर लेगा ?  उच्च पदों पर आसीन ऐसे लोग अपनी सुरक्षा के लिये राजनैतिक संरक्षण ले लेते हैं, और यहीं से दबाव में गलत निर्णय लेने का सिलसिला चल पड़ता है. भ्रष्टाचार के किस्से उपजते हैं. जो भी हो हर हालत में नुकसान तो संस्थान का ही होता है.

इन स्थितियों से बचने के लिये सरकार की दवा स्वरूप सरकारी व अर्धसरकारी संस्थानो का नेतृत्व आई ए एस अधिकारियों को सौंप दिया जाता है. संस्थान के वरिष्ठ अधिकारियों में यह भावना होती है कि ये नया लड़का हमें भला क्या सिखायेगा ? युवा आई ए एस अधिकारी को निश्चित ही संस्थान से कोई भावनात्मक लगाव नही होता, वह अपने कार्यकाल में कुछ करिश्मा कर अपना स्वयं का नाम कमाना  चाहता है, जिससे जल्दी ही उसे कही और बेहतर पदांकन मिल सके. जहां तक भ्रष्टाचार के नियंत्रण का प्रश्न है, स्वयं रेवेन्यू डिपार्टमेंट जो आई ए एस अधिकारियों का मूल विभाग है, पटवारी से लेकर ऊपर तक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा अड्डा है, फिर भला आई ए एस अधिकारियों के नेतृत्व से किसी संस्थान में भ्रष्टाचार नियंत्रण कैसे संभव है ? आई ए एस अधिकारियों को प्रदत्त असाधारण अधिकारों, उनके लंबे विविध पदों पर संभावित सेवाकाल के कारण, संस्थान के आम कर्मचारियों में भय का वातावरण व्याप्त हो जाता है. मसूरी के आई ए एस अधिकारियों के ट्रेनिंग स्कूल की, अंग्रेजो के समय की एक चर्चित ट्रेनिंग यह है कि एक कौए को मारकर टांग दो, बाकी स्वयं ही डर जायेंगे, मैने अनेक बेबस कर्मचारियों को इसी नीति के चलते बेवजह प्रताड़ित होते हुये देखा है, जिन्हें बाद में न्यायालयों से मिली विजय इस बात की सूचक है कि भावावेश में शीर्ष नेतृत्व ने गलत निर्णय ही लिया था. मजेदार बात है कि हमारे वर्तमान सिस्टम में शीर्ष नेतृत्व द्वारा लिये गये गलत निर्णयो हेतु उन्हे किसी तरह की कोई सजा का प्रवधान ही नही है. ज्यादा से ज्यादा उन्हें उस पद से हटा कर एक नया वैसा ही पद किसी और संस्थान में दे दिया जाता है. इसके चलते अधिकांश आई ए एस अधिकारियों की अराजकता सर्वविदित है. सरकारी संस्थानो के सर्वोच्च पदो पर आसीन लोगो का कहना यह होता है कि उनके जिम्में तो केवल इम्प्लीमेंटेशन का काम है नीतिगत फैसले तो मंत्री जी लेते हैं, इसलिये वे कोई रचनात्मक परिवर्तन नही ला सकते.

कार्पोरेट जगत के निजी संस्थानो की बात करें तो हम पाते हैं कि मध्यम श्रेणी के संस्थानो में मालिक का एकाधिकार व वन मैन शो हावी है, पढ़े लिखे टाप मैनेजर भी मालिक या उसके बेटे की चाटुकारिता में निरत देखे जाते हैं. एम एन सी अपनी बड़ी साइज के कारण कठनाई में हैं. शीर्ष नेतृत्व अंतर्राष्ट्रीय बैठकों, आधुनिकीकरण, नवीनतम विज्ञापन, संस्थान को प्रायोजक बनाने, शासकीय नीतियों में सेध लगाकर लाभ उठाने में ही ज्यादा व्यस्त दिखता है. वर्तमान युग में किसी संस्थान की छबि बनाने, बिगाड़ने में मीडीया का रोल बहुत महत्वपूर्ण है, हमने देखा है कि रेल मंत्रालय में लालू यादव ने अपने समय में खूब नाम कमाया, कम से कम मीडिया में उनकी छबि एक नवाचारी मंत्री की रही. आई सी आई सी आई के शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन से उस संस्थान के दिन बदलते भी हमने देखा है. शीर्ष नेतृत्व हेतु आई आई एम जैसे संस्थानो में जब कैम्पस सेलेक्शन होते हैं तो जिस भारी भरकम पैकेज के चर्चे होते हैं वह इस बात का द्योतक है कि शीर्ष नेतृत्व कितना महत्वपूर्ण है.  किसी संस्थान में काम करने वाले लोग तथा संस्थान की परम्परागत कार्य प्रणाली भी उस संस्थान के सुचारु संचालन व प्रगति के लिये बराबरी से जवाबदार होते हैं. कर्मचारियों के लिये पुरस्कार, सम्मान की नीतियां उनका उत्साहवर्धन करती हैं. कर्मचारियों की आर्थिक व ईगो नीड्स की प्रतिपूर्ती औद्योगिक शांति के लिये बेहद जरूरी है, नेतृत्व इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है.

राजीव दीक्षित  भारतीय सोच के एक सुप्रसिद्ध विचारक हैं, व्यवस्था सुधारने के प्रसंग में वे कहते हैं कि “यदि कार खराब है तो उसमें किसी भी ड्राइवर को बैठा दिया जाये, कार तभी चलती है जब उसे  धक्के लगाये जावें.”  प्रश्न उठता है कि किसी संस्थान की प्रगति के लिये, उसके सुचारु संचालन के लिये सिस्टम कितना जबाबदार है? हमने देखा है कि विगत अनेक चुनावों में पक्ष विपक्ष की अनेक सरकारें बनी पर आम जनता की जिंदगी में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नही आ सके. लोग कहने लगे कि सांपनाथ के भाई नागनाथ चुन लिये गये. कुछ विचारक  भ्रष्टाचार जैसी समस्याओ को  लोकतंत्र की विवशता बताने लगे हैं, कुछ इसे वैश्विक सामाजिक समस्या बताते हैं. कुछ इसे लोगो के नैतिक पतन से जोड़ते हैं. आम लोगो ने तो भ्रष्टाचार के सामने घुटने टेककर इसे स्वीकार  ही कर लिया है, अब चर्चा इस बात पर नही होती कि किसने भ्रष्ट तरीको से गलत पैसा ले लिया, चर्चा यह होती है कि चलो इस इंसेटिव के जरिये काम तो सुगमता से हो गया. निजी संस्थानों में तो भ्रष्टाचार की एकांउटिग के लिये अलग से सत्कार राशि, भोज राशि, गिफ्ट व्यय आदि के नये नये शीर्ष तय कर दिये गये हैं. सेना तक में भ्रष्टाचार के उदाहरण देखने को मिल रहे हैं. क्या इस तरह की नीति स्वयं संस्थान और सबसे बढ़कर देश की प्रगति हेतु समुचित है ?

विकास में विचार एवं नीति का महत्व सर्वविदित है, इस सबसे महत्वपूर्ण हिस्से को हमने जनप्रतिनिधियों को सौंप रखा है. एक ज्वलंत समस्या बिजली की है इसे ही लें, आज सारा देश बिजली की कमी से जूझ रहा है, परोक्ष रूप से इससे देश की सर्वांगीण प्रगति बाधित हुई है. बिजली, रेल की ही तरह राष्ट्रव्यापी सेवा व आवश्यकता है बल्कि रेल से कहीं बढ़कर है, फिर क्यों उसे टुकड़े टुकड़े में अलग अलग बोर्ड, कंपनियों के मकड़ जाल में उलझाकर रखा गया है, क्यों राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय विद्युत सेवा जैसी कोई व्यवस्था अब तक नही बनाई गई ? समय से भावी आवश्यकताओ का सही पूर्वानुमान लगाकर क्यों नये बिजली घर नही बनाये गये ? इसका कारण बिजली व्यवस्था का खण्ड खण्ड होना ही है, जल विद्युत निगम अलग है, तापबिजली निगम अलग, परमाणु बिजली अलग, तो वैकल्पिक उर्जा उत्पादन अलग हाथों में है, उच्चदाब वितरण, निम्नदाब वितरण अलग हाथों में है. एक ही देश में हर राज्य में बिजली दरों व बिजली प्रदाय की  स्थितयों में व्यापक विषमता है. केंद्रीय स्तर पर  राष्ट्रीय सुरक्षा व आतंकी गतिविधियों के समन्वय में जिस तरह की कमियां उजागर हुई हैं ठीक उसी तरह बिजली के मामले में भी  केंद्रीय समन्वय का सर्वथा अभाव है. जिसका खामियाजा हम सब भोग रहे हैं. नियमों का परिपालन केवल अपने संस्थान के हित में किये जाने की परंपरा गलत है. यदि शरीर के सभी हिस्से परस्पर सही समन्वय से कार्य न करे तो हम नही चल सकते, विभिन्न विभागों की परस्पर राजस्व, भूमि या अन्य लड़ाई के कितने ही प्रकरण न्यायालयों में हैं, जबकि यह एक जेब से दूसरे में रुपया रखने जैसा ही है. इस जतन में कितनी सरकारी उर्जा नष्ट हो रही है, ये तथ्य विचारणीय है. पर्यावरण विभाग के शीर्ष नेतृत्व के रूपमें टी एन शेषन जैसे अधिकारियों ने पर्यावरण की कथित रक्षा के लिये तत्काकलीन पर्यावरणीय नीतियों की आड़ में बोधघाट परियोजना जैसी जल विद्युत उत्पादन परियोजनाओ को तब अनुमति नही दी, निश्चित ही इससे उन्होने स्वयं अपना नाम तो कमा लिया पर इससे बिजली की कमी का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ वह अब तक थमा नही है. बस्तर के जंगल सुदूर औद्योगिक महानगरों का प्रदूषण किस स्तर तक दूर कर सकते हैं यह अध्ययन का विषय हो सकता है, पर हां यह स्पष्ट दिख रहा है कि आज विकास की किरणें न पहुंच पाने के कारण ये जंगल नक्सली गतिविधियो का केंद्र बन चुके हैं. आम आदमी भी सहज ही समझ सकता है कि प्रत्येक क्षेत्र का संतुलित, विकास होना चाहिये. पर हमारी नीतियां यह नही समझ पातीं.  मुम्बई जैसे नगरो में जमीन के भाव आसमान को बेध रहे हैं. प्रदूषण की समस्या, यातायात का दबाव बढ़ता ही जा रहा है. आज देश में जल स्त्रोतो के निकट नये औद्योगिक नगर बसाये जाने की जरूरत है, पर अभी इस पर कोई काम नही हो रहा !

आवश्यकता है कि कार्पोरेट जगत, व सरकारी संस्थान अपनी सोशल रिस्पांस्बिलिटि समझें व देश के सर्वांगीण हित में नीतियां बनाने व उनके इम्प्लीमेंटेशन में शीर्ष नेतृत्व राजनेताओ के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपनी भूमिका निर्धारित करें, देश के विभिन्न संस्थानों की प्रगति देश की प्रगति की इकाई है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #21 – गिद्ध को उड़ाने की कोशिश में ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
(We present an English Version of this Hindi Article “गिद्ध को उड़ाने की कोशिश में ”  as ☆ In an attempt to scare away the vulture ☆.  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 20☆

☆ गिद्ध को उड़ाने की कोशिश में ☆

कहानियों के पात्र प्राय: हमारे इर्द-गिर्द होते हैं, हमारे परिवेश में होते हैं। पात्र की पड़ताल कीजिए तो संबंधित साहित्यकार बताएगा/गी कि यह पात्र उसके मोहल्ले में रहता था। फलां पात्र के बारे में एक मित्र ने बताया था, अर्थात कहानियों के पात्र वास्तविक जीवन से कागज़ पर उतरते हैं। पात्र, पाठक की संवेदना के साथ जुड़ जाता है। पात्र के जीवन की घटनाओं पर आह और वाह, पाठक की  अभिव्यक्ति का माध्यम बनते हैं।

विसंगति है कि कहानी के पात्र के साथ संवेदना रखने वाला अपितु संवेदना जीने वाला वास्तविक जीवन में पात्रों की दुर्दशा में यह कहकर दख़लअंदाज़ी करने से मना कर देता है कि यह सम्बंधित पात्र का निजी मामला है।

इस संदर्भ में प्रतिभाशाली पर दुर्भाग्यवान फोटोग्राफर केविन कार्टर का याद आना स्वाभाविक है। केविन 1993 में सूडान में भुखमरी की ‘स्टोरी'(!) कवर करने गए थे। भुखमरी से मरणासन्न एक बच्ची के पीछे बैठकर उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे गिद्ध की फोटो उन्होंने खींची थी। (विचलित करने वाली यह तस्वीर मैं साझा नहीं कर रहा हूँ।) इस तस्वीर ने दुनिया का ध्यान सूडान की ओर खींचा। केविन को इस फोटो के लिए पुलित्जर सम्मान भी मिला। बाद में एक टीवी शो के दौरान जब केविन इस गिद्ध के बारे में बता रहे थे तो एक दर्शक की टिप्पणी ने उन्हें भीतर तक हिला कर रख दिया। उस दर्शक ने कहा था, ‘ उस दिन वहाँ दो गिद्ध थे। दूसरे के हाथ में कैमरा था।’ माना जाता है कि बाद में ग्लानिवश केविन अवसाद में चले गए। एक वर्ष बाद उन्होंने आत्महत्या कर ली। यद्यपि अपने आत्महत्या से पूर्व लिखे पत्र में केविन ने इस बात का उल्लेख किया था कि इस फोटो के कारण ही सूडान को संयुक्त राष्ट्रसंघ से बड़े स्तर पर सहायता मिली।

इस दुर्भाग्यजनक कहानी के विविध पहलुओं पर चर्चा हो सकती है। सहमति, असहमति हो सकती है पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि साहित्यकार, पत्रकार, कुछ भी होने से पहले हम मनुष्य हैं। मनुष्यता बची रहेगी तभी मनुष्य से जुड़े सरोकार भी बचे रहेंगे। साथ ही कालातीत सत्य का एक पहलू यह भी है कि हम सबके भीतर एक गिद्ध है। हो सकता है कि हम उस गिद्ध को समाप्त न कर सकें पर दूर भगाने या उड़ाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं न!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

22.10.2019, प्रात: 6.19 बजे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 17 – मन की इन्द्रियों पर विजय ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “मन की इन्द्रियों पर विजय।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 17 ☆

 

☆ मन की इन्द्रियों पर विजय

 

सबसे पहले इंद्रजीत ने लक्ष्मण की ओर वरुण पाश (पानी के देवता वरुण का फंदा) चलाया। यह किसी भी प्राणी को हवा में लटकाकर उसके प्राण हर सकता था, चाहे वह देवता, असुर या मानव कोई भी हो। इस अस्त्र के फंदे से बचना असंभव था, उत्तर में, लक्ष्मण ने कुम्भ अस्त्र का प्रयोग किया जो संग्रह पात्र की तरह कार्य करता था, और इंद्रजीत द्वारा वरुण पाश को कुम्भ अस्त्र ने अपने अंदर एकत्रित करना शुरू कर दिया और जल्द ही वरुण पाश आकाश में लुप्त हो गया ।

तब इंद्रजीत ने कंकालम अस्त्र चलाया यह एक भरी मूसल नुमा अस्त्र था इसका उत्तर  लक्ष्मण ने धर्म पाश (अर्थ : सच्चाई का हथियार)से दिया ।

इंद्रजीत का क्रोध सभी असफल अस्त्रों के साथ बढ़ रहा था। क्रोध में इंद्रजीत ने लक्ष्मण की ओर त्रिशूल फेंक दिया, भगवान शिव का विनाशक अस्त्र । यह अचूक है और किसी के द्वारा रोका नहीं जा सकता है। इसे बिना किसी समानांतर के सबसे शक्तिशाली हथियार कहा जाता है । परन्तु जैसे ही यह इंद्रजीत के हाथ से त्रिशूल निकला, लक्ष्मण ने अपने दोनों हाथों को उसकी ओर जोड़ दिया, और त्रिशूल आकाश में उड़ गया और सीधे कैलाश गया, और भगवान शिव के बायीं ओर बर्फ की जमीन पर  गड  गया। बिना भगवान शिव की अनुमति के लक्ष्मण पर शक्ति का उपयोग किया गया था, जिससे शिव जी  इंद्रजीत से नाराज थे तो ऐसा लगा की जैसे उनका त्रिशूल भी इंद्रजीत से नाराज है ।

त्रिशूल एक परंपरागत भारतीय हथियार है। यह एक हिन्दु चिन्ह की तरह भी प्रयुक्त होता है। यह एक तीन चोंच वाला धात्विक सिर का भाला या हथियार होता है, जो कि लकडी़ या बांस के डंडे पर भी लगा हो सकता है। यह हिन्दु भगवान शिव के हाथ में शोभा पाता है। यह शिव का सबसे प्रिय अस्त्र हैं शिव का त्रिशूल पवित्रता एवं शुभकर्म का प्रतीक है। इसके तीन सिरों के कई अर्थ लगाए जाते हैं: –यह त्रिगुण मयी सृष्टि का परिचायक है, –यह तीन गुण सत्व, रज, तम का परिचायक है

इन तीनों के बीच सांमजस्य बनाए बगैर सृष्ट‌ि का संचालन कठ‌िन हैं, इसल‌िए श‌िव ने त्रिशूल रूप में इन तीनों गुणों को अपने हाथों में धारण क‌िया। यह त्रिदेव का परिचायक है। भगवान शिव के त्रिशूल के बारे में कहा जाता है कि यह त्रिदेवों का सूचक है यानि ब्रम्हा, विष्णु, महेश के अनुसार ही इसे रचना, पालक और विनाश के रूप में देखा जाता है। इसे भूत, वर्तमान और भविष्य के साथ धऱती, स्वर्ग तथा पाताल का भी सूचक माना जाता हैं। यह दैहिक, दैविक एवं भौतिक ये तीन दुःख, के नाश के रूप में त्रिताप के रूप में जाना जाता है। यह हिन्दु देवी दुर्गा के हाथों में भी शोभा पाता है। खासकर उनके महिषासुर मर्दिनी रूप में, वे इससे महिषासुर राक्षस को मारती हुई दिखाई देतीं हैं। विभिन्न देवी दुर्गा के मंदिरो की प्रतिमा में त्रिशूल सोने चाँदी या पीतल के देखे जा सकते हैं । मनुष्य शरीर में भी त्रिशूल, जहाँ तीन नाड़ियां मिलती हैं, उपस्थित है और यह ऊर्जा स्त्रोतों, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना को दर्शाता है। सुषुम्ना जो कि मध्य में है, को सातवां चक्र और ऊर्जा का केंद्र कहा जाता है ।

अगर तत्त्वमीमाँसा की दृष्टि से देखे तो इंद्रजीत और लक्ष्मण के बीच का संग्राम क्या सूचित करता है ? इंद्रजीत अर्थात जिसने अपनी इन्द्रियों पर काबू पा लिया हो या जिसकी कर्म इन्द्रियाँ और ज्ञान इन्द्रियाँ भोग विलास की वस्तुओं को स्वीकार ना करती हो। ये दस, पाँच कर्म इन्द्रियाँ और पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ वाह्य मुखी होती है पर एक आंतरिक इन्द्रिय भी होती है जिसे मन कहते है मन वह इन्द्रिय  है जो मस्तिष्क में बाहरी वासनाओं के प्रति आने वाली पहली लहर की प्रतिक्रिया देता है । तो  भले ही कोई मनुष्य दस बाहरी इन्द्रियों पर काबू कर ले तो भी उसकी वासनाएँ जीवित रहेंगी जब तक कि उसका मन संतुलित ना हो। दूसरी ओर लक्ष्मण का अर्थ है जिसका मन सदैव अपने लक्ष्य पर रहे और किसी भी वासना के प्रति तनिक भी ना डिगे। अगर मन स्थिर हो तो बाहरी इन्द्रियाँ आपने आप काबू में आ जाती है। तो इंद्रजीत की बाहरी इन्द्रियाँ भले ही उसके नियंत्रण में हो लकिन उसका मन लंका और उसके पिता के अहंकार की वासनाओं से जुड़ा हुआ था जबकि लक्ष्मण का मन सदैव भगवान राम की भक्ति में लगा था इसी लिए लक्ष्मण इंद्रजीत को मार पाए ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शब्द सामर्थ्य ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  शब्दों के सामर्थ्य पर आधारित आलेख  “शब्द सामर्थ्य ”।)

 

☆ शब्द सामर्थ्य ☆

भाषा व्याकरण की दृष्टि से देखा जाये तो ज्ञात होताहै, कि अक्षरों के समूह से शब्द बनते हैं। पहला सार्थक, दूसरा निरर्थक निरर्थक शब्दों का प्रयोग भाषा लिपि की आवश्यकता के अनुसार किया जाता है। वाक्य रचना, तथा काव्य रचना में उद्देश्य की आवश्यकता के अनुसार एकही शब्द अनेक अर्थो में प्रयुक्त होते हैं। नीचे उदाहरण से लेखक के मन्तव्यों को समझें।

दोहा—-

चरण धरत चिंता करत, चितवत चारिउ ओर।
सुबरन  को खोजत  फिरत, कवि, ब्यभिचारी, चोर।।

यहां सुबरन का अर्थ कवि के लिए सुन्दर वर्ण, व्याभिचारी के लिए सुन्दर स्त्री, तथा चोर के अर्थ में सोना है।

अथवा

रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गये न उबरे, मोती मानुष चून।

यहां पानी शब्द का प्रयोग, मोती मानुष चून (पक्षी) के लिए  किया गया है जो अलग अलग परिपेक्ष में है। इस प्रकार परिस्थिति जन्य परिपेक्ष की आवश्यकता अनुसार शब्दों के अर्थ तथा। भाव बदलते ही रहते हैं। शब्द ही साहित्य विधा के लेखन की  प्राण चेतना है।

शब्द ही हृदय के भावों  एवं मन के विचारों का प्रस्तोता (प्रस्तुत ) करने वाला है। साहित्यिक विधा में शब्दों से अलंकारिक भाषा का  सौन्दर्य बोध, रस छंद अलंकार के सुन्दर भावों की उत्पत्ति होती है। शब्दों में ही मंत्रो की शक्ति बसती है। जिनके विधि पूर्वक अनवरत जाप के बड़े चमत्कृत कर देने वाले परिणाम देखे  गये हैं। और निर्धारित उद्देश्यो की सफलता  भी।

शब्दों का प्रभाव सीधे सीधे मन मस्तिष्क तथा हृदय पर होता है। शब्दों से ही दुख के समय संवेदना, सुख के समय प्रसन्नता, तथा आक्रोश के समय में क्रोध प्रकट होताहै। जो हजारों किलोमीटर बैठे। मानव के मन को सुख दुःख पीड़ा का एहसास करा जाता है, इसका अनुभव मुझे आपको तथा सभी को होगा। तथा वे शब्द ही तो है जो सामनेवाले के आचार विचार तथा व्यवहार पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। कहा भी गया है कि गोली के घाव तो भर जाते हैं, बोली के घाव जो शब्दों से मिलते हैं वो जल्दी नहीं भरते।

शब्दों से ही स्तुति गान प्रशस्तिगान है क्योंकि उसमें बहुत जान है। शब्द ही बोलचाल भाषा तथा अभिव्यक्ति के माध्यम के मूलाधार है। वाणी से शब्द प्राकट्य तथा लेखन से उसका स्वरूप बनता है।

तभी तो श्री कबीर साहेब कहते हैं—–

ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।

और इन्हीं भावों के समर्थन में वाणी की महत्ता बताते हुए श्री तुलसी दास जी कह उठते हैं—–

तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजै चंहुओर।
मधुर बचन इक मंत्र है, तजि दे बचन कठोर।।

इस प्रकार मधुर शब्दों से सराबोर वाणी जो मंत्र सा चमत्कारिक प्रभाव छोड़ती है। और सामने वाले को अपने प्रभाव मे ले लेती है।

ऐसे अनुभव आप सभी के पास होंगे जहां कठोर वाणी। अपनो से भी दूर कर देती है, वही मृदु वाणी सबको ही अपना बना लेती है।

शब्दों में समाये भावों का बड़ा ही सकारात्मक अथवा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मेरे अपने विचारों से शब्द ही भाषा ,भाव व वाणी के मूल श्रोत है तो साहित्य सृजन के सौन्दर्य बोध भी।  जहाँ अक्षर शब्दो के जनक है, तो शब्द ही गीत संगीत विधा के माधुर्य भी, जिसके सम्मोहन से आदमी तो क्या जानवर भी नहीं  बचते। ऐसा पौराणिक कथाओं में मिलता है जब कृष्ण की बांसुरी ने सबके मन को मोहा था।

अपनी गरिमा मय प्रभाव एवं स्वभाव से शब्द प्रतिपल मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। शब्दकोश  बढ़ने से ही मानव कवि, लेखक, रचनाकार, पत्रकार बन जाता है। तथा आदर्श अभिव्यक्ति कर भावों का चितेरा बन जाता है।

बिना अक्षरों के ज्ञान के भी शब्द ज्ञान संभव है, तभी तो बिना पढ़े लिखे छोटे बच्चे भी तो अपनी भाषा में बात कर पाते हैं। अक्षर ज्ञान शब्द ज्ञान प्राथमिक पाठशाला के प्रथम कक्षा के छात्रों की नींव की ईंट है। प्रत्येक शब्द में असीम सामर्थ्य है।

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 24 ☆ पुरुष वर्चस्व और नारी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “पुरुष वर्चस्व और नारी”.  इस महत्वपूर्ण तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने  अपनी बेबाक राय बड़े ही सहज तरीके से रखी है।  यह एक ऐसा विषय है जिसके विभिन्न  पहलुओं पर  किसी भी प्रकार की विवेचना कोई स्त्री ही कर सकती हैऔर इस दायित्व को उन्होंने बड़ी बखूबी निभाया है। इस सशक्त रचना में  धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक, आपराधिक और ऐसा शायद ही कोई  तथ्य छूटा हो जिसकी विवेचना उन्होंने सोदाहरण प्रस्तुत न की हो।  डॉ मुक्त जी की कलम को सदर नमन।  ) . 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 24 ☆

☆ पुरुष वर्चस्व और नारी 

पितृसत्तात्मक युग के पुराने कायदे-कानून आज भी धरोहर की भांति सुरक्षित हैं और उनका प्रचलन बदस्तूर जारी है। हमारे पूर्वजों ने पुरूष को सर्वश्रेष्ठ समझ सारे अधिकार प्रदान किए और नारी के हिस्से में शेष बचे… मात्र कर्त्तव्य, जिन्हें गले में पड़े ढोल की भांति उसे आज तक बजाना पड़ रहा है। उसे घर की चारदीवारी में कैद कर लिया गया कि वह गृहस्थ के सारे दायित्वों का वहन करेगी…यथा प्रजनन से लेकर पूरे परिवारजनों की हर इच्छा, खुशी व मनोरथ को पूर्ण करेगी,उनके इशारों पर कठपुतली की भांति ताउम्र नाचेगी, उनके हर आदेश की सहर्ष अनुपालना करेगी और पति के समक्ष सदैव नतमस्तक रहेगी… जहां उसकी इच्छा का कोई मूल्य नहीं होगा। नारी के लिए निर्मित आदर्श-संहिता में ‘क्यों’ शब्द नदारद है, क्योंकि उसे तो हुक्म बजाना है दासी की तरह और गुलाम की भांति ‘जी हां ‘कहना है। इसके लिए सीता का उदाहरण हमारे समक्ष है। वह पतिव्रता नारी थी, जिसने पति के साथ बनवास झेला और लक्ष्मण-रेखा पार करने पर क्या हुआ उसका अंजाम..सीता-हरण हुआ और आगे की कथा से तो आप परिचित हैं। ज़रा स्मरण कीजिए…शापित अहिल्या का, जिसे पति के श्राप स्वरूप वर्षों तक शिला रूप में स्थित रहना पड़ा, क्योंकि इंद्र ने उसकी अस्मत पर हाथ डाला था। महाभारत की पात्रा द्रौपदी के इस वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ ने बवाल मचा दिया और उस रज:स्वला नारी को केशों से खींच कर भरी सभा में लाया गया, जहां उसका चीर-हरण हुआ। प्रश्न उठता है, किसने दुर्योधन व दु:शासन को दुष्कृत्य करने से रोका, उनकी निंदा की। सब बंधे थे मर्यादा से, समर्पित थे राज्य के प्रति..अंधा केवल धृतराष्ट्र नहीं, राज सभा  में उपस्थित हर शख्स अंधा था। गुरू द्रौण, भीष्म व विदुर जैसे वरिष्ठ-जन, पुत्रवधु की अस्मत लुटते हुए देखते रहे…आखिर क्यों? क्या उनका अपराध क्षम्य था?

आइए! लौट चलते हैं सीता की ओर, जिसे रावण की अशोक-वाटिका में प्रवास झेलना पड़ा और लंका- दहन के पश्चात् अयोध्या लौटने पर, सीता को एक धोबी के कहने पर विश्वामित्र के आश्रम में धोखे से छुड़वाया गया… वहां लव कुश का जन्म होना और अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर, राम से भेंट होना…राम को उसकी संतति सौंप पुन: धरती में समा जाना.. क्या  संदेश देता है मानव समाज को? नारी को कटघरे में खड़ा कर इल्ज़ाम लगाने के पश्चात्, उसे अपना पक्ष रखने का अधिकार न देना क्या न्यायोचित है? यही सब हुआ था, अहिल्या के साथ… गौतम ऋषि ने कहां हक़ीक़त जानने का प्रयास किया? उसे अकारण अपराधिनी समझ शिला बनने का श्राप दे डालना क्या अनुचित नहीं था?  इसमें आश्चर्य क्या है… आज भी यही प्रचलन जारी है। नारी पर इल्ज़ाम लगाकर उसे बेवजह सज़ा दी जाती है, जबकि कोर्ट-कचहरी में भी मुजरिम को अपना पक्ष रखने का अवसर प्रदान किया जाता है। परंतु नारी को जिरह करने का अधि- कार कहां प्रदत है? वह हाड़-मांस की पुतली…जिसे भावहीन व संवेदनविहीन समझा जाता है, फिर उसमें हृदय व मस्तिष्क होने का प्रश्न ही कहां उठता है? वह तो सदियों से दोयम दर्जे की प्राणी स्वीकारी जाती है, जिसे संविधान द्वारा मौलिक अधिकारों की एवज़ में एक ही अधिकार प्राप्त है ‘सहना’ और ‘कुछ नहीं कहना।’  यदि अपना पक्ष रखने का साहस जुटाती है तो उसे ज़लील किया जाता है अर्थात् सबके सम्मुख प्रताड़ित कर कुलटा, कलंकिनी, कुलनाशिनी आदि विशेषणों द्वारा अलंकृत कर, घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है। और उसके साथ ही हमारे समाज में पग-पग पर जाल बिछाए बैठे दरिंदे, उसकी अस्मत लूट किस नरक में धकेल देते हैं… यह सब तो आप जानते हैं। जुर्म के बढ़ते ग्रॉफ़ से तो आप सब परिचित हैं। सो! आप अनुमान लगा सकते हैं कि कितनी शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ता होगा उस मासूम, बेकसूर, निर्दोष महिला को .. कितने ज़ुल्म सहने पड़ते होंगे उसे…कारण दहेज हो या पति के आदेशों की अवहेलना,उसके असीमित दायरों की कारस्तानियों की कल्पना तो आप कर ही सकते हैं।

आइए! चर्चा करते हैं पुरूष-वर्चस्व की…जन्म लेने से पूर्व कन्या-भ्रूण को नष्ट करने के निमित्त ज़ोर- ज़बर्दस्ती करना, जन्म के पश्चात् प्रसव पीड़ा का संज्ञान न लेते हुए पत्नी पर ज़ुल्म करना और दूसरे ही दिन प्रसूता को घर के कामों में झोंक देना या घर से बाहर का रास्ता दिखला देना, दूसरे विवाह के स्वप्न संजोना… सामान्य-सी बात है, घर-घर की कहानी है। बेटे-बेटी में आज भी अंतर समझा जाता है। पुत्र को कुल-दीपक समझ उसके सभी दोष अक्षम्य अपराध स्वीकारे जाते हैं और पुत्री की अवहेलना, पुत्र की उतरन व जूठन पर उसका पालन-पोषण, हर पल मासूम पर दोषारोपण, व्यंग्य-बाणों की बौछार व उसे दूसरे घर जाना है… न जाने किस जन्म का बदला लेने आई है… ऐसे जुमलों का सामना उसे आजीवन करना पड़ता है।

विवाह के पश्चात् पति हर पल उस निरीह पर निशाना  साधता है। वैसे भी हर कसूर के लिए अपराधिनी तो औरत ही कहलाती है, भले ही वह अपराध उसने किया हो, या नहीं…क्योंकि उसे तो विदाई की वेला में समझा दिया जाता है कि अब उसे अपने ससुराल में ही रहना है, कभी अकेले इस चौखट पर पांव नहीं रखना है… आजीवन एकपक्षीय समझौता करना है, बापू के तीन बंदरों के समान आंख, कान, मुंह बंद करके अपना जीवन बसर करना है। इसलिए वह नादान सब ज़ुल्म सहन करती है, कभी कोई शिकवा -शिकायत नहीं करती। अक्सर सभी हादसों का मूल कारण होता है… गैस के खुला रह जाने पर उसका जल जाना, कभी नदी किनारे पांव फिसल जाना, तो कभी बिजली की नंगी तारों को छू जाना, मिट्टी के तेल, पेट्रोल या तेज़ाब से ज़िंदा जलने की यातना से कौन अपरिचित है? प्रश्न उठता है कि यह सब हादसे उनकी पुत्रवधु के साथ ही क्यों होते हैं? उस घर की बेटी इन हादसों का शिकार क्यों नहीं होतीं? यदि वह इन सबके चलते ज़िंदा बच निकलती है, तो ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव पर, पिता के दायित्वों का वहन बखूबी करती है। केवल चेहरा बदल जाता है, क़िरदार नहीं और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।

आधुनिक युग में नारी को प्राप्त हुए हैं समानाधिकार … उसे स्वतंत्रता प्राप्त तो हुई है और वह मनचाहा भी कर सकती है, अपने ढंग से जी सकती है तथा कोई भी ज़ुल्म व अनहोनी होने पर, उसकी शिकायत कर सकती है। मन में यह प्रश्न कुलबुलाता है … आखिर कहां हैं वे कायदे-कानून, जो महिलाओं के हित में बनाए गए हैं?  शायद! वे फाइलों के नीचे दबे पड़े हैं। कल्पना कीजिए, जब एक मासूम बच्ची के साथ दुष्कर्म होने के पश्चात्, उस के माता-पिता रिपोर्ट दर्ज कराने जाते हैं…तो वहां कैसा व्यवहार होता है उनके साथ…’ जब संभाल नहीं सकते, तो पैदा क्यों करते हो? क्यों छोड़ देते हो उन्हें, किसी का निवाला बनने हित ? शक्ल देखी है इसकी… कौन इसका अपहरण कर, दुष्कर्म करने को ले जायेगा… कितना चाहिए …इससे कमाई करना चाहते हो न… ले जाओ! इस मनहूस को… अपने घर संभाल कर रखो ‘ और न जाने कैसे-कैसे घिनौने प्रश्न पूछे जाते हैं… पहले पुलिस स्टेशन और उसके पश्चात् कचहरी में… यह सब सुनकर वे ठगे-से रह जाते हैं और लंबे समय तक इस सदमे से उबर नहीं पाते।यह सुनकर कलेजा मुंह को आता है… उस मासूम के माता-पिता को बोलने का अवसर कहां दिया जाता है और वे निरीह प्राणी लौट आते हैं … प्रायश्चित भाव के साथ…क्यों उन्होंने वहां का रूख किया। उम्रभर वह मासूम कहां उबर पाती है उस हादसे से।वे दुष्कर्मी, सफेदपोश रात के अंधेरे में अपनी हवस शांत कर, सूर्योदय से पूर्व लौट जाते हैं और दिन के उजाले में पाक़-साफ़ व दूध के धुले कहलाते हैं।

कार्यस्थल पर यौन हिंसा की शिकायत करने वाली महिलाओं को जो कुछ झेलना पड़ता है, कल्पनातीत है। सब उसे हेय दृष्टि से देखते हैं, कुलटा-कुलनाशिनी समझ उसकी निंदा करते हैं… यहां तक कि उसके लिए नौकरी करना भी दुष्कर हो जाता है।15अक्टूबर 2019 के ट्रिब्यून को पढ़कर आप हक़ीक़त से रू-ब -रू हो सकते हैं। तमिलनाडु की महिला पुलिस अधीक्षक द्वारा महानिरीक्षक-स्तरीय अधिकारी पर कार्यस्थल पर उत्पीड़न के आरोपों की जांच को उच्च न्यायालय द्वारा दूसरे राज्य में भेजने का मामला प्रश्नों के घेरे में है, जिनके उत्तर सुप्रीम कोर्ट तलाश रहा है। परंतु इससे क्या होने वाला है? उच्च न्यायालय अपनी अधीनस्थ अदालतों में लंबित किसी मामले या अपील को निष्पक्ष व स्वतंत्र जांच तथा सुनवाई के लिए मुकदमे या प्रकरण अपने अधिकार-क्षेत्र में आने वाले किसी भी अन्य ज़िले में स्थानांतरित कर सकता है। और स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच के लिए उसे तमिलनाडु से तेलंगाना स्थानांतरित कर दिया गया।

अक्सर कार्यस्थल पर यौन हिंसा के मामलों में महिला व उसके परिवार को हानि पहुंचाने की बात कही जाती है। उस पीड़िता पर समझौता करने का दबाव बनाया जाता है और उसे तुरंत कार्यालय से बर्खास्त कर दिया जाता है तथा हर पहलू से उसे बदनाम करने की कोशिश की जाती है। क्या यह पुरूष वर्चस्व नहीं है,जो समाज में कुकुरमुत्तों की भांति अपनी पकड़ बनाता जा रहा है।

आइए! इसके दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात करें … आजकल ‘लिव-इन व मी-टू’ का बोलबाला है। चंद  स्वतंत्र प्रकृति की उछृंखल महिलाएं सब बंधनों को तोड़, विवाह की पावन व्यवस्था को नकार, ‘लिव-इन’   को अपना रही हैं। अक्सर इसका खामियाज़ा भी महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है, जब पुरूष साथी  उसे यह कहकर छोड़ देता है… ‘तुम्हारा क्या भरोसा …जब तुम अपने माता-पिता की नहीं हुई, कल किसी ओर के साथ रहने लगोगी ? ‘इल्ज़ाम फिर उसी महिला के सर’…वैसे भी चंद महीनों बाद महिला को दिन में तारे दिखाई देने लगते हैं और वह धरती पर लौट आती है। कोर्ट का ‘लिव-इन’ के साथ, पुरुष को पर-स्त्री के साथ, संबंध बनाने की स्वतंत्रता ने हंसते- खेलते परिवारों की खुशियों में सेंध लगा दी है। इसके साथ ही ‘मी-टू’ अर्थात् पच्चीस वर्ष में अपने साथ घटित किसी हादसे को उजागर कर, पुरूष को सीखचों के पीछे पहुंचाने का औचित्य समझ से बाहर है। इसके परिणाम-स्वरूप हंसते-खेलते परिवार उजड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, महिलाओं की  साख पर भी तो आंच आती है, परंतु वे ऐसा सोचती कब हैं… कि इसका अंजाम उन्हें भविष्य में अवश्य भुगतना पड़ेगा। परंतु पुरूष महिला पर पूर्ण अधिकार चाहता है… उसका अहं फुंकारने पर, वह उसे घर-परिवार व ज़िन्दगी से बेदखल करने में तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करता। अंततः मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि वह पहले भी गुलाम थी और सदा रहेगी।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 3 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 3 – हिन्द स्वराज से  ☆ 

 

प्रश्न :- अब तो मुसलामानों,पारसियों, ईसाईयों की हिन्दुस्तान में बड़ी संख्या है। वे एक राष्ट्र नहीं हो सकते। कहा जाता है कि हिन्दू-मुसलमानों में कट्टर वैर है। हमारी कहावते भी ऐसी हैं । ‘मियां और महादेव की नहीं बनेगी’। हिन्दू पूर्व में ईश्वर को पूजता है तो मुस्लिम पश्चिम में पूजता है।  मुसलमान हिन्दू को बुतपरस्त – मूर्तिपूजक- मानकर उससे नफरत करता है। हिन्दू मूर्तिपूजक है, मुसलमान मूर्ति को तोडनेवाला है। हिन्दू गाय को पूजता है, मुसलमान उसे मारता है। हिन्दू अहिंसक है मुसलमान हिंसक है। यो पग-पगपर जो विरोध है, वह कैसे मिटे और हिन्दुस्तान एक कैसे हो?

उत्तर :- हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी लिखते हैं : “आपका आखरी सवाल बड़ा गंभीर मालुम होता है। लेकिन सोचने पर वह सरल मालुम होगा।  हिन्दुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं; उससे वह एक राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। जो नए लोग उसमे दाखिल होते हैं वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक-राष्ट्र माना जायेगा। ऐसे मुल्क में दूसरे लोगो का समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिन्दुस्तान ऐसा था और आज भी है। यों तो जितने आदमी उतने धर्म मान सकते हैं। एक राष्ट्र होकर रहने वाले लोग एक दुसरे के धर्म में दखल नहीं देते; अगर देते हैं तो समझना चाहिए कि वे एक राष्ट्र होने के लायक नहीं हैं। अगर हिन्दू माने कि सारा हिन्दुस्तान सिर्फ हिन्दुओं से भरा होना चाहिए, तो यह निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा माने कि उसमे सिर्फ मुसलमान रहें, तो उसे भी सपना ही समझिये। फिर भी हिन्दू, मुसलामान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक मुल्की हैं; वे देशी-भाई हैं; और उन्हें  एक दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पडेगा।“

“दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं किया गया है; हिन्दुस्तान तो ऐसा था ही नहीं।“

दोनों कौमों के कट्टर वैर पर महात्मा गांधी कहते हैं कि; ”कट्टर वैर दोनों के दुश्मन ने खोज निकाला है। जब हिन्दू मुसलमान झगड़ते थे तब वे ऐसी बातें भी करते थे। झगडा तो हमारा कब का बंद हो गया है। फिर कट्टर वैर काहे का? और इतना याद रखिये कि अंग्रेजों के आने के बाद ही हमारा झगडा बंद हुआ ऐसा नहीं है। हिन्दू लोग मुसलमान बादशाहों के मातहत और मुसलमान हिन्दू राजाओं के मातहत रहते आयें हैं। दोनों को बाद में समझ में आ गया कि झगड़ने से कोई फ़ायदा नहीं; लड़ाई से कोई अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे और कोई अपनी जिद भी नहीं छोड़ेंगे। इसलिए दोनों ने मिलकर रहने का फैसला किया। झगडे तो फिर अंग्रेजों ने शुरू करवाए।“

“मियां और महादेव की नहीं बनती इस कहावत का भी ऐसा ही समझिये। कुछ कहावतें हमेशा के लिए रह जाती हैं और नुकसान करती ही रहती हैं। हम कहावतों की धुन में इतना भी याद नहीं रखते कि बहुतेरे हिन्दुओं और मुसलामानों के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अन्दर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए? धर्म तो एक ही जगह पहुचने के अलग-अलग रास्ते हैं। हम दोनों अलग-अलग रास्ते लें, इससे क्या हो गया उसमे लड़ाई काहे की” ?

“और ऐसी कहावते तो शैव और वैष्णवों में भी चलती हैं; पर इससे कोई यह नहीं कहेगा कि वे एक राष्ट्र नहीं है। वेद्धर्मियों और जैनों के बीच बहुत फर्क माना जाता है; फिर भी इससे वे अलग राष्ट्र नहीं बन जाते। हम गुलाम हो गए इसलिए अपने झगड़े हम तीसरे के पास ले जाते हैं।“

“जैसे मुसलमान मूर्ति का खंडन करने वाले हैं, वैसे हिन्दुओं में भी मूर्ति का खंडन करने वाला एक वर्ग देखने में आता है। ज्यों-ज्यों सही ज्ञान बढेगा त्यों-त्यों हम समझते जायेंगे कि हमें पसंद न आने वाला धर्म दूसरा आदमी पालता हो, तो भी उससे वैर भाव रखना हमारे लिए ठीक नहीं; हम उस पर जबरदस्ती न करें।”

टिप्पणी : मैं इतना योग्य नहीं हूँ कि बापू के इस कथन पर कुछ कहूं। शुरुआत का वह हिस्सा जिसमे बापू हिन्दू मुसलमान की इस फसाद का दोष रेल वकील और डाक्टर को देते हैं। इसे मैंने नहीं लिखा और न इसे मैं समझ पाया हूँ। मैं नहीं मानता कि रेलगाड़ी आने से हिन्दू मुस्लिम के बीच या इंसान इंसान के बीच खाई पैदा हुई, वरन आवागमन के साधनों ने तो मेलजोल बढाने में मदद की है। कोई गांधी दर्शन का ज्ञानी इस पर अपने विचार विश्लेषण के साथ रखे, तो हमें बापू की यह बात समझने में मदद मिलेगी। महात्मा गांधी कई महत्वपूर्ण बातें हमें बताते हैं, कुछ तो मैंने रेखांकित की हैं। महात्माजी जो बातें ११० वर्ष पहले कह गए हैं और वही बातें हम आज भी हिन्दू संगठनों के नेतृत्व से भी सुनते हैं, दोनों में अंतर नहीं है। प्रश्न यह है कि फिर गांधीजी की बात मुसलमान क्यों मानते हैं उसका प्रतिवाद वे क्यों नहीं करते जबकि हिन्दू संगठनों की यही बाते उन्हें इतनी बुरी लगती हैं कि आज भे टीव्ही डिबेट के दौरान मरने मारने की बातें होने लगती हैं। ऐसा क्यों होता है कि सड़क पर कुछ लोग किसी धर्म विशेष के व्यक्ति को घेर लेते हैं और फिर दोनों पक्षों में फसाद शुरू हो जाता है। क्यों महात्मा गांधी नोआखाली में कोलकाता में शान्ति स्थापित करने में सफल हो जाते हैं और उधर पश्चिमी भारत में पुलिस की पर्याप्त व्यवस्था भी हिन्दू-मुसलमानों का कत्ले आम नहीं रोक पाती। यह बड़े प्रश्न हैं और इसका उत्तर यही है कि गांधीजी के हावभाव (body language)  सरल व सामान्य थे, वे धमकी की भाषा के जगह प्रेम की वाणी बोलते थे, उन्होंने लोगों का दिल जीता जहाँ कहीं लगा ह्रदय परिवर्तन का मार्ग अपनाया और कभी किसी पर जबरदस्ती नहीं की, अपनी बात थोपने का प्रयास नहीं किया। लोगों को उन्होंने समझाने का प्रयास किया, लोग अगर सत्य को समझ गए और मान गए तो ठीक अन्यथा उन्होंने सत्याग्रह का मार्ग अपनाया, अनशन कर लोगों से सत्य को स्वीकार करने प्रेरित किया। हमेशा वे सफल हुए ऐसा भी नहीं है पर असफलताएँ उन्हें उनके मार्ग से डिगा नहीं सकी।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सृजन और धन्यवाद ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  सृजन और धन्यवाद

 

सृजन तुम्हारा नहीं होता। दूसरे का सृजन परोसते हो। किसीका रचा फॉरवर्ड करते हो और फिर अपने लिए ‘लाइक्स’ की प्रतीक्षा करते हो। सुबह, दोपहर, शाम, अनवरत प्रतीक्षा ‘लाइक्स’ की।

सुबह, दोपहर, शाम अनवरत, आजीवन तुम्हारे लिए विविध प्रकार का भोजन, कई तरह के व्यंजन बनाती हैं माँ, बहन या पत्नी। सृजन भी उनका, परिश्रम भी उनका। कभी ‘लाइक’ देते हो उन्हें, कहते हो कभी धन्यवाद?

जैसे तुम्हें ‘लाइक’ अच्छा लगता है, उन्हें भी अच्छा लगता है।

….याद रहेगा न?

आपका दिन सार्थक बीते।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(भोर 5.09 बजे, 4.8.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभिभावक और अध्यापक ☆ डॉ सलिल समधिया

डॉ सलिल समधिया

( ई- अभिव्यक्ति में युवा विचारक एवं योगाचार्य डॉ सलिल समधिया जी का हार्दिक स्वागत है। संयोगवश डॉ सलिल जी के फेसबुक पेज पर आलेख “अभिभावक और अध्यापक” पढ़कर  स्तब्ध रह गया। डॉ सलिल जी ने  सहर्ष ई – अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ अपने इस आलेख को साझा करने  के आग्रह को स्वीकार कर लिया । इसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। यह आलेख मात्र अभिभावकों और अध्यापकों के लिए ही नहीं अपितु, उस प्रत्येक  मनुष्य के लिए है जो जीवन में अपने बच्चों के प्रति कई स्तर पर कई प्रकार के भ्रम पाल कर जी रहे हैं। एक बार पुनः डॉ सलिल जी का आभार एवं भविष्य में उनसे ऐसे ही और आलेखों की अपेक्षा रहेगी।)

 

☆ अभिभावक और अध्यापक ☆

 

“हमारे स्कूल में आईए और बच्चों को एक मोटिवेशनल लेक्चर दीजिए !”

बहुत से टीचर्स/प्रिंसिपल अक्सर ये आमंत्रण देते हैं !

मैं उनसे कहता हूँ कि बात करने की ज़रूरत बच्चों से नही, बल्कि अभिभावकों से  है !

और वो ये कि- बच्चों को लेक्चर देना बंद कीजिए !

आपके लेक्चर, आदेश और कमांड की ओवरडोज से बीमार हुए जा रहे हैं बच्चे !!

आपके ..उपदेशों का अतिरेक मितली पैदा कर रहा है उनमें  !

यह अति उपदेश,  विष बन कर  उनकी चेतना को निस्पंद किए दे रहा है !!

हर शिक्षक बच्चे को ज्ञान बांट रहा है !

प्रत्येक रिलेटिव, माता-पिता,  परिचित,  मित्र ..जिसे देखो ..बच्चों को प्रवचन सुना  रहा है !

..वो तॊ अच्छा है कि बच्चे हमें ध्यान से सुनते  नही, और हमारे कहे  को अनसुना  कर देते  है !

वर्ना अगर वह हमारे  हर उपदेश पर विचार करने लगें, तॊ गंभीर मस्तिष्क रोग से पीड़ित हो सकते हैं !

हम  जानते ही क्या हैं, जो बच्चे को बता रहे हैं ??

ज़्यादातर पिता और शिक्षक बच्चों के सामने सख़्ती से पेश आते हैं !

उन्हें डर होता है कि कहीं बच्चा मुँह न लग जाए !

अपना नकली रूआब क़ायम रखने की वज़ह से वे ,  ज़िंदगी भर उन बच्चों के मित्र नही बन पाते !

वे सदैव एक उपदेशक और गुरु की तरह पेश आते हैं !

अच्छे-बुरे की स्ट्रॉन्ग कमांड, ब्लैक एंड व्हाईट की तरह उसके अवचेतन में ठूंस देते हैं !

यही कारण है कि थोड़ा बड़ा होने पर बच्चा ..अगर शराब पीता है ..तॊ उन्हें नही बताता !

वह सिगरेट पी ले,  या किसी लड़की के प्रेम में पड़ जाए ..या अन्य किसी नए अनुभव से गुज़रा हो तॊ उनसे शेयर नही करता  !

इस तरह बच्चे में एक दोहरा व्यक्तिव पैदा होता है !

हम इतना भय और दिखावा उसमें कूट-कूट कर भर देते हैं कि वयस्क होते-होते बच्चा अपना  स्वतंत्र व्यक्तित्व खो बैठता है !

उसका  कैरियर तॊ बन जाता है मगर  व्यक्तित्व नही बन पाता !

हम सिर्फ उसके  शरीर और सामाजिक व्यवहार को पोषित करते  हैं , लेकिन आत्मिक स्तर पर उसके स्वतंत्र विकास की सारी संभावनाओं को मसल कर  ख़त्म कर देते हैं !

दरअसल, हम सब असुरक्षित और डरे हुए लोग हैं !

हम उनके बाल मन पर अपनी मान्यताओं, परंपराओं और नियम क़ानून का ऐसा पक्का लेप लगा देते हैं कि बच्चे की सारी मौलिकता ही ख़त्म हो जाती है !

और वो जीवनभर अपनी आत्मा का मूल स्वर नही पकड़ पाता !!

हम निपट स्वार्थी मां-बाप , अपने बच्चों को अपने आहत अहं , अतृप्त कामनाओं और अधूरी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का माध्यम बना लेते हैं !

और अंततः हमारा बच्चा एक आत्महीन किंतु मार्कशीट और डिग्रियों से सुसज्जित प्रोडक्ट बन जाता है ..जिसे सरकारी/प्राईवेट  संस्थान ऊंची से ऊंची क़ीमत पर खरीद लेते हैं !!

नही , डरें नही !!

बच्चे को इतना बांधकर न रखें !

उसका अपना अलग जीवन है, उसे अपने अनुभव लेने दें !

उसे अपने जीवन की एक्सटेंशन कॉर्ड नही बनाएं !

उसे ,  उसकी निजता में खिलने दें !

उसे तेज धूप, आंधी, बारिश, सूखा …हर मौसम की मार से जूझने दें !

वर्ना उसका दाना पिलपिला और पोचा रह जाएगा !

उसमें प्रखरता और ओज का आविर्भाव नही होगा !

बच्चे को बुढ़ापे की लाठी ना समझें  !

बुढ़ापे की लाठी अगर बनाना है तॊ  “बोध” और  “जागरण” को बनाएं !

क्योंकि पुत्र वाली लाठी तॊ आपसे पहले भी टूट सकती है !

और आप भी बूढ़े हुए बिना विदा हो सकते हैं !

इसलिए अपने बुढ़ापे की फ़िक्र न करें ,

अपने जागरण की फ़िक्र करें !!

अपने बच्चे पर बोझ न डालें बल्कि अपने “बोध” पर ज़ोर डालें !

बच्चे को समझाईश देने से पहले अपनी ‘अकड़’ और  ‘पकड़’ को समझाइश दें !

सिर्फ बच्चा पैदा करने से आप ‘अभिभावक’ नही हो जाते ….और सिर्फ पढ़ाने से आप ‘अध्यापक’ नही हो जाते !

आपका निर्माण ही बच्चे का निर्माण है ..और आपका निदिध्यासन ही बच्चे का अध्यापन है !

समझाइश की ज़रूरत बच्चों को नही, अभिभावकों को है !

 

© डॉ सलिल समधिया

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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