हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 22 ☆ संगति का असर होता है ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “संगति का असर होता है”‘आज तक न कांटों को महकने का सलीका आया और न फूलों को चुभना आया’, इस कथन में जो विरोधाभास है उस के इर्द गिर्द यह विमर्श अत्यंत विचारणीय है एवं आपको निश्चित ही विचार करने के लिए बाध्य कर देगा। आलेख के मूल में हम पाते हैं  कि हमें अच्छी या बुरी संगति की पहचान  होनी चाहिए एवं अपने स्वभाव को बदलने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। इस महत्वपूर्ण  एवं सकारात्मक तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 22 ☆

 

☆ संगति का असर होता है 

झूठ कहते हैं, संगति का असर होता है। ‘आज तक न कांटों को महकने का सलीका आया और न फूलों को चुभना आया’ कितना विरोधाभास निहित है इस कथन में…यह सोचने पर विवश करता है, क्या वास्तव में संगति का प्रभाव नहीं होता? हम बरसों से यही सुनते आए हैं कि अच्छी संगति का असर अच्छा होता है।सो! बुरी संगति से बचना ही श्रेयस्कर है। जैसी संगति में आप रहेंगे, लोग आप को वैसा ही समझेंगे। बुरी संगति मानव को अंधी गलियों में धकेल देती है, जहां से लौटना नामुमक़िन होता है। वैसे ही उसे दलदल-कीचड़ की संज्ञा दी गयी है। यदि आप कीचड़  में कंकड़ फेंकेंगे, तो छींटे अवश्य ही आपके दामन को मैला कर देगे। सो! इनसे सदैव दूर रहना चाहिए। इतना ही क्यों ‘Better alone than a bad company.’ अर्थात् ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ हां! पुस्तकों को सबसे अच्छा मित्र स्वीकारा गया है जो हमें सत्मार्ग की ओर ले जाती हैं।
परंतु इस दलील का क्या… ‘आज तक न कांटों को महकने का सलीका आया, न फूलों को चुभना रास आया’ अंतर्मन में ऊहापोह की स्थिति उत्पन्न करता है और मस्तिष्क को उद्वेलित ही नहीं करता, झिंझोड़ कर रख देता है। हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि आखिर सत्य क्या है? इसके बारे में जानकारी प्राप्त करना उसी प्रकार असम्भव है, जैसे परमात्मा की सत्ता व गुणों का बखान करना। हम समझ नहीं पाते …आखिर सत्य क्या है? इसे भी परमात्मा के असीम  -अलौकिक गुणों को शब्दबद्ध करने की भांति असंभव है। शायद! इसीलिए उस नियंता के बारे में लोग नेति-नेति कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं।
परमात्मा निर्गुण, निराकार, अनश्वर व सर्वव्यापक है। उसकी महिमा अपरम्पार है। वह सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है और उसकी महिमा का बखान करना मानव के वश से बाहर है। यहां भी विरोधाभास स्पष्ट झलकता है कि जो निराकार है…जिसका रूप- आकार नहीं, जो निर्गुण है.. सत्, रज,तम तीनों गुणों से परे है, जो निर्विकार अर्थात् दोषों से रहित है तथा जिसमें शील, शक्ति व सौंदर्य का  समन्वय है…वह श्रद्धेय है, आराध्य है, वंदनीय है।
प्रश्न उठता है, जो शब्द ब्रह्म हमारे अंतर्मन में बसता है, उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं, उसे मन की एकाग्रता द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। एकाग्रता ध्यान की वह स्थिति है, जिस में मानव क्षुद्र व तुच्छ वासनाओं से ऊपर उठ जाता है। परन्तु सांसारिक प्रलोभनों व मायाजाल में लिप्त बावरा मन, मृग की भांति उस कस्तूरी को पाने के निमित्त इत-उत भटकता रहता है और अंत में भूखा-प्यासा, सूर्य की किरणों में जल का आभास  पाकर अपने प्राण त्याग देता है। वही दशा मानव की है, जो नश्वर भौतिक संसार व मंदिर-मस्जिदों में उसे तलाशता रहता है, परंतु निष्फल। मृग-तृष्णाएं उसे पग-पग पर आजीवन भटकाती हैं। वह बावरा इस मायाजाल से  आजीवन मुक्त नहीं हो पाता और लख चौरासी के बंधनों में उलझा रहता है। उसे कहीं भी सुक़ून व आनंद की प्राप्ति नहीं होती।
जहां तक  कांटों को महकने का सलीका न आने का प्रश्न है, यह प्रकाश डालता है, मानव की आदतों पर, जो लाख प्रयास करने पर भी नहीं बदलतीं, क्योंकि यह हमें पूर्वजन्म  के संस्कारों के रूप में प्राप्त होती हैं। कुछ संस्कार हमें  पूर्वजों द्वारा प्रदत्त होते हैं। यह विभिन्न संबंधों के रूप में  हमें प्राप्त होते हैं, जिन्हें  प्राप्त करने में  हमारा कोई योगदान नहीं होता। परंतु कुछ संस्कार हमें माता-पिता, गुरुजनों व हमारी संस्कृति द्वारा प्राप्त होते हैं, जो हमारे चारित्रिक गुणों को विकसित करते हैं।अच्छे संस्कार हमें आदर्शवादी बनाते हैं और बुरे संस्कार हमें पथ-विचलित करते हैं  … हमें  संसार में अपयश दिलाते हैं। इन कुसंस्कारों के कारण समाज में हमारी निंदा होती है और लोग हमसे घृणा करना प्रारंभ कर देते हैं। बुरे लोगों का साथ देने से, हम पर उंगलियां उठना  स्वाभाविक है। क्योंकि ‘यह मथुरा काजर की कोठरी,  जे आवहिं ते कारे’ अर्थात् ‘जैसा संग वैसा रंग’। संगति का रंग अपना प्रभाव अवश्य छोड़ता है। कबीर दास जी की यह पंक्ति’ कोयला होई ना उजरा,सौ मन साबुन लाय’  कोयला सौ मन साबुन से धोने पर भी कभी उजला नहीं हो सकता अर्थात् मानव की जैसी प्रकृति-प्रवृत्ति होती है, सोच होती है, आदतें होती हैं, उनसे वह आजीवन वैसा ही व्यवहार करता है।
इंसान अपनी आदतों का गुलाम होता है और सदैव उनके अंकुश में रहता है तथा उनसे मुक्ति पाने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए कहा जाता है कि इंसान की आदतें, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। सो! प्रकृति के विभिन्न उपादान फूल, कांटे आदि अपना स्वभाव कैसे परिवर्तित कर सकते हैं? फूलों की प्रकृति है हंसना, मुस्कराना, बगिया के वातावरण को महकाना, आगंतुकों के हृदय को आह्लादित व उन्मादित करना। सो! वे कांटो के चुभने के दायित्व का वहन कैसे कर सकते हैं? इसी प्रकार शीतल, मंद, सुगंधित वायु याद दिलाती है प्रिय की, जिसके ज़ेहन में आने के परिणाम-स्वरूप समस्त वातावरण आंदोलित हो उठता है तथा मानव अपनी सुधबुध खो बैठता है।
यह तो हुआ स्वभाव, प्रकृति व आदतों के न बदलने का चिंतन, जो सार्वभौमिक सत्य है।  परंतु अच्छी आदतें सुसंस्कृत व अच्छे लोगों की संगति द्वारा बदली जा सकती है। हां! हमारे शास्त्र व अच्छी पुस्तकें इसमें बेहतर योगदान दे सकती हैं…उचित मार्गदर्शन कर जीवन की दिशा  बदल सकती हैं। जो मनुष्य नियमित रूप से ध्यान-मग्न रहता है…केवल अध्ययन नहीं, चिंतन-मनन करता है,आत्मावलोकन करता है, चित्तवृत्तियों पर अंकुश लगाता है, इच्छाओं की दास्तान स्वीकार नहीं करता। वह दुष्प्रवृत्तियों के इस मायाजाल से स्वत: मुक्ति प्राप्त कर सकता है… संस्कारों को धत्ता बता सकता है और अपने स्वभाव को बदलने में समर्थ हो सकता है।
सो! हम उक्त कथन को मिथ्या सिद्ध कर सकते हैं कि सत्संगति प्रभावहीन होती है क्योंकि फूल और कांटे अपना सहज स्वभाव-प्रभाव हरगिज़ नहीं छोड़ते। कांटे अवरोधक होते हैं, सहज विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं, सदैव चुभते हैं, पीड़ा पहुंचाते हैं, दूसरे को कष्ट में देखकर आनंदित होते हैं। दूसरी ओर फूल इस तथ्य से अवगत होते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है, फिर भी वे निराशा का दामन कभी नहीं थामते… अपना महकने व मुस्कुराने का स्वभाव नहीं त्यागते। इसलिए मानव को इनसे संदेश लेना चाहिए तथा जीवन में सदैव हंसना-मुस्कुराना चाहिए,क्योंकि खुश रहना जीवन की अनमोल कुंजी है, जीवन जीने का सलीका है।इसलिए हमें सदैव प्रसन्न रहना चाहिए ताकि दूसरे लोग भी हमें देखकर उल्लसित रह सकें और अपने कष्टों के चंगुल से मुक्ति प्राप्त कर सकें।
अंतत: मैं कहना चाहूंगी कि परमात्मा ने सबको समान बनाया है।इंसान कभी अच्छा-बुरा नहीं हो सकता…उसके कर्म-दुष्कर्म ही उसे अच्छा व बुरा बनाते हैं…उसकी सोच को सकारात्मक व नकारात्मक बनाते हैं। अपने सुकर्मों से ही प्राणी सब का प्रिय बन सकता है। जैसे प्रकृति अपना स्वभाव नहीं बदलती, धरा, सूर्य, चंद्र, नदियां, पर्वत, वृक्ष आदि निरंतर कर्मशील रहते हैं, नियत समय पर अपने कार्य को अंजाम देते हैं, अपने स्वभाव को विषम परिस्थितियों में भी नहीं त्यागते…सो! हमें इनसे प्रेरणा प्राप्त कर सत्य की राह का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि इनमें परार्थ की भावना निहित रहती है…ये किसी को आघात नहीं पहुंचाते, किसी का बुरा नहीं चाहते। हमारा स्वभाव भी वृक्षों की भांति होना चाहिए। वे धूप, आतप, वर्षा, आंधी आदि के प्रहार सहन करने के पश्चात् भी तपस्वी की भांति खड़े रहते हैं, जबकि वे जानते हैं कि उन्हें अपने फलों का स्वाद नहीं चखना है। परंतु वे परोपकार हित सबको शीतल छाया व मीठे फल देते हैं, भले ही कोई  इन्हें कितनी भी हानि पहुंचाए। इसी प्रकार सूर्य की स्वर्णिम रश्मियां सम्पूर्ण विश्व को आलोकित करती हैं, चंद्रमा व तारे अपने निश्चित समय पर दस्तक देते हैं तथा थके-हारे मानव को निद्रा देवी की आग़ोश में सुला देते हैं ताकि वे ताज़गी का अनुभव कर सकें तथा पुन:कार्य में तल्लीन हो सकें। इसी प्रकार वर्षा से होने से धरा पर हरीतिमा छा जाती है, जीवनदायिनी फसलें लहलहा उठती हैं सबसे बढ़कर ऋतु-परिवर्तन जीवन की एकरसता को मिटाता है।
मानव का स्वभाव चंचल है। वह एक-सी मन:स्थिति में रहना पसंद नहीं करता। परंतु जब हम प्रकृति से छेड़छाड़ करते हैं, तो उसका संतुलन बिगड़ जाता है, जो भूकंप, सुनामी, भयंकर बाढ़, पर्वत दरकने आदि के रूप में समय-समय पर प्रकट होते हैं।यह कोटिशः सत्य है कि जब प्रकृति के विभिन्न उपादान अपना स्वभाव नहीं बदलते,तो मानव क्यों अपना स्वभाव बदले…जीवन में बुरी राहों का अनुसरण करे तथा दूसरों को व्यर्थ हानि पहुंचाए? सो! जैसा व्यवहार आप दूसरों से करते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिये सदैव अच्छा सोचिए,अच्छा बोलिए, अच्छा कीजिए, अच्छा दीजिए व अच्छा लीजिए। यदि दूसरा व्यक्ति आपके प्रति दुर्भावना रखता है, दुष्कर्म करता है, तो कबीर दास जी के दोहे का स्मरण कीजिए ‘जो ताको  कांटा  बुवै, ते बूवै ताको फूल अर्थात् आपको फूल के बदले फूल मिलेंगे और कांटे बोने वाले को शूल ही प्राप्त होंगे। इसलिए इस सिद्धांत को जीवन में धारण कर लीजिए कि शुभ का फल शुभ अथवा कल्याणकारी होता है। यह भी शाश्वत सत्य है कि कुटिल मनुष्य कभी भी अपनी कुटिलता का त्याग नहीं करता,जैसे सांप को जितना भी दूध पिलाओ, वह काटने का स्वभाव नहीं त्यागता। इसलिए ऐसे दुष्ट लोगों से सदैव सावधान रहना चाहिए… उनकी फ़ितरत पर विश्वास करना स्वयं को संकट में डालना है तथा उनका साथ देना अपने चरित्र पर लांछन लगाना है, कालिख़ पोतना है। सो! मानव के लिए, दूसरों के व्यवहार के प्रतिक्रिया-स्वरूप अपना स्वभाव न बदलने में ही अपना व सबका हित है, सबका मंगल है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 1.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  कल स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

 ☆ संजय दृष्टि  –  1.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका

लोक अर्थात समाज की इकाई। समाज अर्थात लोक का विस्तार। यही कारण है कि ‘इहलोक’, ‘परलोक’ ‘देवलोक’, ‘पाताललोक’, ‘त्रिलोक’ जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ। गणित में इकाई के बिना दहाई का अस्तित्व नहीं होता। लोक की प्रकृति भिन्न है। लोक-गणित में इकाई अपने होने का श्रेय दहाई कोे देती है। दहाई पर आश्रित इकाई का अनन्य उदाहरण है, ‘उबूंटू!’

दक्षिण अफ्रीका के जुलू  आदिवासियों की बोली का एक शब्द है ‘उबूंटू।’ सहकारिता और प्रबंधन के क्षेत्र में ‘उबूंटू’ आदर्श बन चुका है। अपनी संस्था ‘हिंदी आंदोलन परिवार’ में अभिवादन के लिए हम ‘उबूंटू’ का ही उपयोग करते हैं। हमारे सदस्य विभिन्न आयोजनों में मिलने पर परस्पर ‘उबूंटू’ ही कहते हैं।

इस संबंध में एक लोककथा है। एक यूरोपियन मनोविज्ञानी अफ्रीका के आदिवासियों के एक टोले में गया। बच्चों में प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के भाव से उसने एक टोकरी में मिठाइयाँ भर कर पेड़ के नीचे रख दी। उसने टोले के बच्चों के बीच दौड़ का आयोजन किया और घोषणा की कि जो बच्चा दौड़कर सबसे पहले टोकरी तक जायेगा, सारी मिठाई उसकी होगी। जैसे ही मनोविज्ञानी ने दौड़ आरम्भ करने की घोषणा की, बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा, एक साथ टोकरे के पास पहुँचे और सबने मिठाइयाँ आपस में समान रूप से वितरित कर लीं। आश्चर्यचकित मनोविज्ञानी ने जानना चाहा कि यह सब क्या है तो बच्चों ने एक साथ उत्तर दिया,‘उबूंटू!’ उसे बताया गया कि ‘उबूंटू’ का अर्थ है,‘हम हैं, इसलिए ‘मैं’ हूँ। उसे पता चला कि आदिवासियों की संस्कृति सामूहिक जीवन में विश्वास रखता है, सामूहिकता ही उसका जीवनदर्शन है।

‘हम हैं, इसलिए मैं हूँ’ अनन्य होते हुए भी सहज दर्शन है। सामूहिकता में व्यक्ति के अस्तित्व का बोध तलाशने की यह वृत्ति पाथेय है। मछलियों की अनेक प्रजातियाँ समूह में रहती हैं। हमला होने पर एक साथ मुकाबला करती हैं। छितरती नहीं और आवश्यकता पड़ने पर सामूहिक रूप से काल के विकराल में समा जाती हैं।

लोक इसी भूमिका का निर्वाह करता है। वहाँ ‘मैं’ होता ही नहीं। जो कुछ हैे, ‘हम’ है। राष्ट्र भी ‘मैं’ से नहीं बनता। ‘हम’ का विस्तार है राष्ट्र। ‘देश’ या ‘राष्ट्र’ शब्द की मीमांसा इस लेख का उद्देश्य नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मानकों ने राष्ट्र (देश के अर्थ में) को सत्ता विशेष द्वारा शासित भूभाग  माना है। इस रूप में भी देखें तो लगभग 32, 87, 263 वर्ग किमी क्षेत्रफल का भारत राष्ट्र्र है। सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो इस भूमि की लोकसंस्कृति कम या अधिक मात्रा में अनेक एशियाई देशों यथा नेपाल, थाइलैंड, भूटान, मालदीव, मारीशस, बाँग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, तिब्बत, चीन तक फैली हुई है। इस रूप में देश भले अलग हों, एक लोकराष्ट्र है। लोकराष्ट्र भूभाग की वर्जना को स्वीकार नहीं करता। लोकराष्ट्र को परिभाषित करते हुए विष्णुपुराण के दूसरे स्कंध का तीसरा श्लोक  कहता है-

उत्तरं यत समुद्रस्य हिमद्रेश्चैव दक्षिणं
वर्ष तात भारतं नाम भारती यत्र संतति।

अर्थात उत्तर में हिमालय और दक्षिण में सागर से आबद्ध भूभाग का नाम भारत है। इसकी संतति या निवासी ‘भारती’ (कालांतर में ‘भारतीय’) कहलाते हैं।

……….क्रमशः

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ सरदार वल्लभ भाई पटेल जन्मदिवस विशेष ☆ विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति ‘स्टैचू ऑफ़ यूनिटी’ ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(आज प्रस्तुत है प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी  द्वारा रचित स्व वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिवस पर विशेष आलेख  “विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति ‘स्टैचू ऑफ़ यूनिटी'”।)

 

☆ विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति ‘स्टैचू ऑफ़ यूनिटी’☆

 

पंद्रह अगस्त 1947 को जब देश अंग्रेजो से आजाद हुआ तो, भारत की राजनैतिक व सामाजिक स्थिति अत्यंत छिन्न भिन्न थी. देश का धर्म के आधार पर बंटवारा हो चुका था, पाकिस्तान का निर्माण मुस्लिम देश के रूप में हुआ था. किन्तु, सारे भारत में छोटे बड़े शहरो, कस्बों व गांवो में बसी हुई मुसलमान आबादी न तो इतनी सुशिक्षित थी और न ही इतनी सक्षम कि वह इस विभाजन को समझ सके और स्वयं के पूर्वी या पश्चिमी पाकिस्तान में विस्थापन के संबंध में कोई निर्णय ले सके. तब  संचार व आवागमन के पर्याप्त संसाधन भी नही थे. पीढ़ियों से  बसे हुये परिवार भी नेताओ के इशारो पर, घबराहट में पलायन कर रहे थे. सारे देश में आपाधापी का वातावरण बन गया था.

अंग्रेजी सरकार के पास जो भूभाग था उसका सत्ता हस्तांतरण तो हो गया किन्तु, भारतीय भूभाग में तब लगभग 565 छोटी-बड़ी रियासतें भी थी जिनमें राजा राज्य कर रहे थे. यहाँ रहने वाली बड़ी आबादी मानसिक रूप से अंग्रेजो के विरुद्ध भारत के साथ आजादी के आंदोलन में साथ थी और देश की आजादी के बाद लोकतांत्रिक सपने देख रही थी किन्तु क्षेत्रीय राजा महाराजा अपने व्यैक्तिक हितों के चलते जनता की आवाज को अनसुना करने के यत्न भी कर रहे थे.

देश आजाद तो हो गया था पर न तो कोई संविधान था न विधि सम्मत समुचित शासन व्यवस्था बन पाई थी. ऐसे दुरूह राजनैतिक, सामाजिक संधिकाल में आपाधापी और अराजकता के वातावरण में शासन के सीमित संसाधनो के बीच भारत के पहले उप प्रधान मंत्री के रूप में गृह, रियासत व सूचना मंत्री की कौशलपूर्ण जबाबदारी सरदार पटेल ने संभाली. और उन्होने जो करिश्मा कर दिखाया वह आज तो नितांत अविश्वसनीय ही लगता है. सरदार पटेल ने छोटी बड़ी सारी रियासतो का भारत के गणतांत्रिक राज्य में संविलयन कर दिखाया. राजाओ से प्रिविपर्स की शर्ते तय करना जटिल चुनौती भरा कार्य था. देश के धार्मिक आधार पर विभाजन के चलते हिन्दू मुस्लिम  कटुता भी वातावरण में थी, जिन रियासतो के शासक मुस्लिम थे, विशेष रूप से  भोपाल के नवाब, जूनागढ़ या हैदराबाद के निजाम उन्हें भारत में मिलाना किसी भी अन्य नेता के बस में नही था. इतिहास के जानकार बताते हैं कि काश्मीर के राजा यद्यपि हिन्दू थे  व वहां बहुत बड़ी आबादी हिदुओ की ही थी किन्तु फिर भी चूंकि पंडित नेहरू ने सरदार पटेल को वहां हस्तक्षेप नही करने दिया इसीलिये काश्मीर आज तक समस्या बना हुआ था.

सरदार पटेल ने न केवल भारत के संघीय नक्शे को अपनी कार्य कुशलता से एकीकृत रूप दिया वरन देश के धार्मिक आधार पर विभाजन से उपजी हिन्दू मुस्लिम वैमनस्यता को समाप्त कर सामाजिक समरसता का वातावरण पुनर्स्थापित करने के ऐसे महत्वपूर्ण कार्य किये हैं कि उन कार्यो के स्मरण स्वरूप कृतज्ञ राष्ट्र का “स्टेच्यू आफ यूनिटी” के रूप में उनकी विश्व की सबसे उंची मूर्ति स्थापना का कार्य  उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली है. युगो युगो तक हर नई पीढ़ी इस भव्य विशाल मूर्ति के माध्यम से उनके राष्ट्र के एकीकरण के असाधारण कार्य का स्मरण करेगी और उनसे राष्ट्रीय एकता व अखण्डता की प्रेरणा लेती रहेगी.

वर्तमान में विश्व की सबसे ऊँची स्टैच्यू या मूर्ती 152 मीटर की चीन में स्प्रिंग टैम्पल बुद्ध की मूर्ति है. मूर्ति की ऊँचाई की दृष्टि से दूसरे स्थान पर सन् 2008 में म्याँमार सरकार की बनवाई गई 120 मीटर ऊंची बुद्ध के तथागत रूप की प्रतिमा  और विश्व की तीसरी सबसे ऊँची मूर्ती भी  भगवान बुद्ध की ही है,जो जापान में है इसकी ऊँचाई 116 मीटर हैं. अमेरिका की सुप्रसिद्ध स्टेच्यू आफ लिबर्टी की ऊँचाई 93 मीटर है. रूस की सुप्रसिद्ध ऊंची प्रतिमा मदर लैंड काल्स की ऊंचाई 85 मीटर तथा ब्राजील की प्रसिद्ध प्रतिमा क्राइस्ट द रिडीमर की ऊँचाई 39.6 मीटर है. इस तरह 182  मीटर ऊँची यह स्टेच्यू आफ यूनिटी अर्थात एकता की प्रतिमा भारत में दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति है.

इस मूर्ति स्थापना का कार्य नर्मदा नदी पर बने विशालकाय सरदार सरोवर बांध के जलाशय में बांध से लगभग 3.5 किलोमीटर दूर साधु बेट नाम के टापू पर अंतिम स्थिति में है. इसकी नींव 31 अक्तूबर 2013 को राखी गई थी एवं 31 अक्टूबर 2018 को सरदार पटेल के जन्मदिन पर इस गौरवशाली स्मारक का उद्घाटन प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया।

होना है.  स्मारक की कुल ऊँचाई आधार से लेकर शीर्ष तक 240 मीटर है, जिसमें आधार तल की ऊँचाई 58 मीटर  और सरदार पटेल की प्रतिमा 182 मीटर ऊँची है. प्रतिमा का निर्माण इस्पात के फ्रेम, प्रबलित सीमेण्ट कंक्रीट और इस तरह निर्मित मूर्ति के ढ़ांचे पर काँसे की परत चढ़ाकर किया गया. तकनीकी निर्माण की दृष्टि से इस मूर्ति का निर्माण जलाशय के बीच एक ऊँची इमारत के निर्माण की तरह ही तकनीकी चुनौती का कार्य है. यही नही चुंकि इस प्रतिमा के साथ विश्व पटल पर  देश का सम्मान भी जुड़ा है अतः यह निर्माण  इंजीनियर्स के लिये और भी चुनौती भरा कार्य था. समय बद्ध निर्माण, वैश्विक परियोजना के रूप में  पूरा किया गया. व्हेदरिंग के बीच स्टेच्यू की आयु अनंत समय की होगी अतः निर्माण की गुणवत्ता के समस्त मापदण्डो के परिपालन व संरक्षण व अनुरक्षण की समुचित सुरक्षात्मक व्यवस्थायें वैश्विक स्तर पर सुनिश्चित की गई हैं. ऐसी परियोजनाओ में तड़ित के निस्तारण,तीव्र गामी हवाओ, तूफान, आंधी, चक्रवात, बादल फटने जैसी प्राकृतिक आपदाओ के बीच मूर्ति को निरापद बनाये रखने हेतु समुचित उपाय किये जाना अति आवश्यक होता है, जिस हेतु अतिरिक्त फैक्टर आफ सेफ्टी का विशेष प्रावधान रखा गया है.

स्टेच्यू आफ यूनिटी सही अर्थो में एकता की प्रतिमूर्ति है क्योकि इसका निर्माण शासन के साथ जन भागीदारी से किया गया है.  न केवल आर्थिक सहयोग वरन मूर्ति हेतु उपयोग किये जाने वाला लोहा भी आम किसानो से उनके कृषि उपकरणो से जन आंदोलन के रूप में एकत्रित किया गया, इसके पीछे भावना यह थी कि आम किसानो व नागरिको का भावनात्मक लगाव मूर्ति के साथ सुनिश्चित हो सके,  चूंकि सरदार पटेल एक किसान पुत्र थे अतः गांवो से एकत्रित लोहे के रूप में उस लौह पुरुष के प्रति सम्मान व्यक्त करने का भी यह एक अभियान था. जन अभियान के रूप में “रन फार यूनिटी” तथा “डिजिटल कैंपेन” चलाकर भी जन सामान्य को दुनियाभर में इस एकता के अभियान में जोड़ा गया है. परियोजना पूरी होने पर श्रेष्ठ भारत भवन, म्यूजियम व ध्वनि संगीत गैलरी, लेजर शो, व अनुसंधान केंद्र के रूप में पर्यटको के बहुमुखी आकर्षण केन्द्र के रूप में स्थल विकास किया गया है. फेरी के द्वारा सरदार सरोवर में पर्यटको के भ्रमण की नियमित व्यवस्थायें की गई हैं. यह परियोजना देश के सम्मान, एकता, फ्रीडम का संयुक्त व बहुआयामी केंद्र है जहाँ पहुंचना प्रत्येक भारतवासी के लिये गौरवशाली क्षण बन चुका है.

 

इंजी विवेक रंजन श्रीवास्तव

फैलो आफ इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स

ए 1, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर 482008

मो 7000375798

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 3. दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

गतवर्ष दीपावली के समय लिखे तीन संस्मरण आज से एक लघु शृंखला के रूप में साझा कर रहा हूँ। आशा है कि ये संस्मरण हम सबकी भावनाओं के  प्रतिनिधि सिद्ध होंगे।  – संजय भरद्वाज

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप 

☆ आज तीसरा शब्ददीप ☆

आज भाईदूज है। प्रातःभ्रमण पर हूँ। हर तरफ सुनसान, हर तरफ सब कुछ चुप। दीपावली के बाद शहर अलसाया हुआ है। सोसायटी का चौकीदार भी जगह पर नहीं है। इतनी सुबह दुकानें अमूमन बंद रहती हैं पर अख़बार वालों, मंडी की ओर जाते सब्जीवालों, कुछ फलवालों, जल्दी नौकरी पर जाने वालों और स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों से सड़क ठसाठस भरी रहती है। आज सार्वजनिक छुट्टी है। नौकरीपेशा, विद्यार्थी सब अपने-अपने घर पर हैं। सब्जी मंडी भी आज बंद है। अख़बारों को कल प्रतिपदा की छुट्टी थी। सो आज अख़बार विक्रेता भी नहीं हैं। वातावरण हलचल की दृष्टि से इतना शांत जैसे साइबेरिया में हिमपात के बाद का समय हो।

वातावरण का असर कुछ ऐसा कि लम्बे डग भरने वाला मैं भी कुछ सुस्ता गया हूँ। डग छोटे हो गये हैं और कदमों की गति कम। देह मंथर हो तो विचारों की गति तीव्र होती है। एकाएक इस सुनसान में एक स्थान पर भीड़ देखकर ठिठक जाता हूँ। यह एक प्रसिद्ध पैथालॉजी लैब का सैम्पल कलेक्शन सेंटर है। अलसुबह सैम्पल देने के लिए लोग कतार में खड़े हैं। उल्लेखनीय है कि इनमें वृद्धों के साथ-साथ मध्यम आयु के लोग काफी हैं। मुझे स्मरण हो आता है, ‘ शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धनसम्पदा।’

सबसे बड़ी सम्पदा स्वास्थ्य है। हम में से अधिकांश  अपनी जीवन शैली और लापरवाही के चलते प्रकृति प्रदत्त इस सम्पदा की भलीभाँति रक्षा नहीं कर पाते हैं। चंचल धन और पार्थिव अधिकार के मद ने आँखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि हम त्योहार या उत्सव की मूल परम्परा ही भुला बैठे हैं। आद्य चिकित्सक धन्वंतरी की त्रयोदशी को हमने धन की तेरस तक सीमित कर लिया। रूप की चतुर्दशी, स्वरूप को समर्पित कर दी। दीपावली, प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने, मूल्यों की विजय एवं अर्चना का प्रतीक न होकर केवल द्रव्यपूजन का साधन हो गई।

उत्सव और त्योहारों को उनमें अंतर्निहित उदात्तता के साथ मनाने का पुनर्स्मरण हमें कब होगा? कब हम अपने जीवन के अंधकार के विरुद्ध एक दीप प्रज्ज्वलित करेंगे?  अपनी सुविधा के अर्थ ग्रहण करने की अंधेरी मानसिकता के आगे जिस दिन एक भी दीपक सीना ठोंक कर खड़ा हो गया, यकीन मानिए, अमावस्या को दीपावली होने में समय नहीं लगेगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 2 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि  पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 2  – हिन्द स्वराज से  ☆ 

 

गांधी जयन्ती 02 अक्टूबर 2019, को महात्मा गांधी पूरे 150 वर्ष के हो गए। उनके विचारों की झांकी हमें ‘हिन्द स्वराज’ से मिलती है। अपने सार्वजनिक जीवन में आगे चलकर गांधीजी  इन्ही विचारों पर अडिग रहे और समय समय पर उसकी व्याख्या करते रहे। यह पुस्तक उन्होंने कैसे लिखी इसकी कहानी सुनिए ;

गांधीजी और सावरकर 1906 में पहली बार लन्दन में मिले, उसके बाद दुबारा 1909 में फिर मिले जब गांधीजी दूसरी बार दक्षिण अफ्रीका से इंग्लॅण्ड आये। 24 अक्टूबर 1909 को दशहरे के अवसर पर इंडिया हाउस में हुए एक कार्यक्रम में गान्धीजी  व सावरकर ने मंच साझा किया। गांधीजी ने रामायण को ऐसा ग्रन्थ बताया जो सच्चाई के लिए कष्ट सहने की सीख देता है। गांधीजी ने कहा कि सच्चाई के लिए इस तरह का त्याग और तपस्या ही भारत को स्वतन्त्रता दिला सकती है। इस मंच से सावरकर ने रामायण को दमन और अन्याय के प्रतीक रावण के वध से जोड़ा। गांधीजी के आग्रह के अनुरूप दोनों ने विवादस्पद राजनीति की चर्चा न करते हुए अपने अपने मत व नीतियों की चर्चा इस मंच से की। चूँकि हिंसा प्रेमी क्रांतिकारियों के विचारों से गान्धीजी दुखी थे, दूसरे बहुत से विवादास्पद राजनीतिक विषयों पर चर्चा इस मंच पर न करने का उनका आग्रह था अत: उन्होंने ऐसे सभी विषयों के प्रश्नों का उत्तर ‘हिन्द स्वराज’ में दिया है।

गांधीजी ने हिन्द स्वराज लन्दन से लौटते वक्त लिखी थी। 13 नवम्बर 1909 को गांधीजी इंग्लॅण्ड का अपना मिशन पूरा कर पानी के जहाज से जब दक्षिण अफ्रीका लौट रहे थे, तो लन्दन में रहकर भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे भारतीय नौजवानों की मानसिकता उनके मन में हिंसा की अनिवार्यता और अनेक क्रांतिकारी हिंसक विचारों के समर्थक नेतृत्व, जिनमे वीर सावरकर भी शामिल थे, से मिल रहा दिशा निर्देश, सबका गहरा बोझ उनके मन पर था। वे बेहद व्यथित थे। ऐसी ही मनोदशा में, एस एस किन्दोनन कासल नामक समुद्री  जहाज पर बैठकर दस दिनों के सतत लेखन से उन्होंने यह ऐतिहासिक किताब लिखी। इसे लिखते हुए उनके मन में विचारों का बदल उमड़ रहा था। वे जैसे किसी जूनून के साथ लिखते जा रहे थे। जब दाहिना हाथ थक जाता तो वे बाए हाथ से लिखने लगते थे और जब बायाँ हाथ थकता तो वे हाथ बदल लेते थे। हिन्द स्वराज अहिंसा के रास्ते आज़ादी पाने का गांधीजी का मौलिक घोषणा पत्र था। स्वराज का मतलब उनके लिए पश्चिमी सभ्यता से आज़ादी थी, जिसे वे ‘हिन्द स्वराज’ में शैतानी सभ्यता कहते हैं। और उनका निष्कंप निष्कर्ष यह बना कि ऐसी आज़ादी अहिंसा के रास्ते ही संभव है।

‘हिंद स्वराज’, में जगह जगह बिखरे मोतियों मे से कुछ मोती मैं लिखता हूँ, जो हमें यह बताने पर्याप्त हैं कि इस महामानव के विचार आज से 110 वर्ष पूर्व कैसे थे।

“ मेरे विचार सब लोग तुरंत मान लें ऐसी आशा मैं नहीं रखता। मेरा फर्ज इतना ही है कि आपके जैसे लोग जो मेरे विचारों को जानना चाहते हैं, उनके सामने अपने विचार रख दूं। यह विचार उन्हें पसंद आयेंगे या नहीं आयेंगे, यह तो समय बीतने पर ही मालूम होगा।“

“हिन्दुस्तान की सभ्यता का झुकाव नीति को मजबूत करने की ओर है; पश्चिमी सभ्यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है, इसलिए मैंने उसे हानिकारक कहा। पश्चिम की सभ्यता निरीश्वरवादी है, हिन्दुस्तान की सभ्यता ईश्वर में मानने वाली है।“

“ अंग्रेज जैसे डरपोक प्रजा हैं वैसे बहादुर भी हैं। गोला बारूद का असर उनपर तुरंत होता है, ऐसा मैं मानता हूँ। संभव है, लार्ड मार्ले ने हमें जो कुछ दिया वह डर से दिया हो। लेकिन डर से मिली हुई चीज जबतक डर बना रहता है तभी तक टिक सकती है।“

“ अच्छे नतीजे लाने के लिए अच्छे ही साधन चाहिए। और नहीं तो ज्यादातर मामलों में हथियार बल से दयाबल ज्यादा ताकतवर साबित होता है। हथियार में हानि है, दया में कभी नहीं।“

“अर्जी के पीछे के बल को चाहे दयाबल कहें, चाहे आत्मबल कहें, या सत्याग्रह कहें। यह बल अविनाशी है और इस बल का उपयोग करने वाला अपनी हालत को बराबर समझता है। इसका समावेश हमारे बुजुर्गों ने ‘एक नहीं सब रोगों की दवा में किया है। यह बल जिसमे है उसका हथियार बल कुछ नहीं बिगाड़ सकता।“

“ हिंदुस्तान को असली रास्ते पर लाने के लिए हमें ही असली रास्ते पर आना होगा। बाकी करोड़ों लोग तो असली रास्ते पर ही हैं। उसमे सुधार बिगाड़, उन्नति, अवनति समय के अनुसार होते रहेंगे। पश्चिम की सभ्यता को निकाल बाहर करने की हमें कोशिश करनी चाहिए। दूसरा सब अपने आप ठीक हो जाएगा”

“ अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरा बढे हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है।“

“अब ऊँची शिक्षा को लें। मैंने  भूगोल-विद्या सीखा,खगोल-विद्या सीखा, बीज गणित  भी मुझे आ गया, रेखागणित का ज्ञान भी मैंने हासिल किया भूगर्भ-विद्या को मैं पी गया। लेकिन उससे क्या? उससे मैंने अपना कौन सा भला किया? अपने आसपास के लोगों का क्या भला किया? किस मकसद से वह भला किया? किस मकसद से वह ज्ञान हासिल किया? उससे मुझे क्या फ़ायदा हुआ?”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – विश्व बचत दिवस विशेष ☆ उज्ज्वल भविष्य के लिए धन की बचत कैसे करें? ☆ – श्री कुमार जितेंद्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(विश्व बचत दिवस के अवसर पर श्री कुमार जितेंद्र जी  का विशेष आलेख “उज्ज्वल भविष्य के लिए धन की बचत कैसे करें?” विश्व भर में यह दिवस 31 अक्टूबर को मनाया जाएगा । भारत में यह 30 अक्टूबर को मनाया जायेगा।

☆विश्व बचत दिवस विशेष ☆ उज्ज्वल भविष्य के लिए धन की बचत कैसे करें? ☆

 

वर्तमान समय में धन कमाने के स्त्रोत तो बहुत अधिक है। कोई बेरोजगार नहीं बैठ सकता है। परन्तु बचत बहुत कम लोग ही कर पाते हैं । क्योंकि बचत करने की जानकारी प्रत्येक इंसान के पास नहीं है। आजकल बढ़ती महंगाई के चलते धन की बचत करना एक चुनौती बनी हुई हैं पर भविष्य के लिए बचत करना भी बहुत जरूरी है । यदि समय रहते धन की  सही जगह पर बचत की जाये तो भविष्य सुनहरा एवं राह आसान होगी परन्तु वर्तमान समय में धन को सुरक्षित रखना मुश्किल हो गया है। न घर में धन को सुरक्षित रखा जा सकता है और नहीं बाहर।  किसी व्यक्ति को ब्याज पर देने से ब्याज के चक्कर में मूल धन भी खोने का डर रहता हैं। तथा समय पर भुगतान नहीं होने का भी खतरा रहता है। दूसरी ओर वर्तमान में बहुत से निजी बैंक भी मेहनत से कमाया हुआ धन को लूटने से  पीछे नहीं रहते हैं। निजी बैंक विभिन्न प्रकार से अधिक ब्याज का लालच देने का विज्ञापन जारी कर लोगों को गुमराह कर देते हैं। तथा वर्तमान में लोग अधिक ब्याज के चक्कर में आकर अपने धन को जमा करा देते हैं। कुछ समय के लिए तो निजी बैंक लोगों के साथ अच्छा संबध बनाए रखते हैं। परन्तु मौका मिलते ही पलायन कर लेते हैं। वर्तमान समय में लाखो लोगो का धन ब्याज के चक्कर में डूब गया है। इसलिए मेहनत के धन को सही जगह पर सुरक्षित रखना जरूरी है। बचत कैसे करें आज के लेख में बताने वाले हैं तो आइए जानें :-

  1. सरकारी बैंक – वर्तमान में धन को सुरक्षित रखना है तो सरकारी बैंको पर विश्वास करना जरूरी है। सरकारी बैंकों में जमा धन के नुकसान होने की बिल्कुल भी संभावना नहीं होती है। सरकारी बैंक भी समय – समय अच्छा ब्याज उपलब्‍ध करवाती है। गरीब और आम लोगों का सहयोग भी करती है। समय – समय पर विभिन्न शिविर लगा कर लोगों को सूचनाओं की जानकारी भी प्रदान करवाती है। तथा अपने धन को सुरक्षित रखने की जानकारी भी देती है। तथा सरकारी बैंक में धन जमा करवाने से किसी प्रकार के बाहरी रूप से नुकसान होने की संभावना बहुत कम होती है। तथा बैंक में एक अच्छी साख जमी रहती है। जिससे भविष्य में किसी आवश्यक कार्य के बैंक से ऋण समय पर मिल सके। इसलिए भविष्य के कदमो को सुरक्षित जगहों पर पहुँचाना है तो अपने धन को सरकारी बैंको में सुरक्षित रखना होगा।
  2. सरकारी डाक घर – वर्तमान में धन को लंबे समय तक सुरक्षित रखना है तो सरकारी डाक घर भी एक अच्छा मित्र हो सकता है। वर्तमान में डाक घर में विभिन्न प्रकार की योजनाओ संचालन हो रहा है। जिससे अपने धन को एक दीर्घ अवधि तक सुरक्षित रखा जा सकता है। डाक घर में धन जमा रखने से विभिन्न प्रकार की पॉलिसी के प्रीमियम के अंतर्गत भविष्य में अच्छा धन प्राप्‍त हो सकता है। डाक घर में छोटे बच्चों से लेकर बड़े बुजुर्गों तक विभिन्न प्रकार की योजनाओं के उपयोग से धन को भविष्य के जमा किया जा सकता है।
  3. अनावश्यक खर्च पर नियंत्रण – वर्तमान समय में व्यक्ति धन के प्रति इतना लापरवाह हो गया है कि वह सह निर्णय नहीं ले पाता कि धन को किन जगहों पर खर्च करना है और किन जगहो पर नहीं। वर्तमान में देखा जाए तो व्यक्ति विवाह के अवसर पर आँख बंद करके आधुनिक दुनिया के भौतिक संसाधनों पर अनावश्यक रूप धन को इतना खर्च करता है जिसका आंकलन करना मुश्किल हो जाता है। दूसरा कारण मृत्यु भोज – वर्तमान में अनावश्यक धन खर्च का मुख्य कारण मृत्यु भोज भी प्रमुख हैं। वर्तमान परिस्थितियों में एक नजर से देखा जाए तो किसी इंसान की मृत्यु हो जाने के बाद पीछे समाज के कुछ ठेकेदार लोग उस परिवार पर मृत्यु भोज करने का इतना दबाव देते हैं कि वह परिवार मृत्यु भोज करने के लिए मजबूर हो जाता है। मृत्यु भोज पर वर्तमान में इतना धन खर्च करते हैं कि बाद में वह पीड़ित परिवार को आजीवन आर्थिक स्थिति से ऊपर नहीं उठ पाता है। वह उस उधार लिए धन को चुकाने के लिए जिंदगी लगा देता है। अगर वर्तमान में मनुष्य को अपने धन को सुरक्षित रखना है तो अनावश्यक खर्च पर नियंत्रण रखना जरूरी है।
  4. नशीले पदार्थों पर नियंत्रण – पौराणिक काल में देखा जाए तो इंसान नशीले पदार्थों का सेवन बहुत ही कम मात्रा में करता था। जिससे उसके धन की बचत आसानी से हो जाती थी। परन्तु वर्तमान में देखा जाए तो नशीले पदार्थों की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि जिसकी कल्पना करना नामुमकिन हो जाता है। नशीले पदार्थों की बढ़ती मात्रा के कारण वर्तमान में छोटे से लेकर बड़े बुजुर्गों तक नशीले पदार्थों का अधिक सेवन किया जा रहा है। दिन भर की पूरी कमाई का आधा हिस्सा शाम तक नशीले पदार्थों में खर्च लेते हैं। जिससे परिवार की आर्थिक स्थिति हमेशा – हमेशा के लिए कमजोर हो रही है। जो एक चिंता का विषय है। वर्तमान समय में युवा वर्ग में नशीले पदार्थों के सेवन से होने वाले नुकसान के बारे में जागरूक कर धन को अनावश्यक रूप खर्च होने से सुरक्षित रखा जा सकता हैl
  5. प्रतिस्पर्धा की भावना पर नियंत्रण – प्राचीन समय लोगो की जीवन शैली एक अलग तरह की थी। लोगों में रहने – खाने – पीने की सभी व्यवस्थाओं पर अपना एक नियंत्रण था। किसी से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी। कौन क्या कर रहा है। किसी से कोई मतलब नहीं था। परन्तु आधुनिकीकरण ने मनुष्य जीवन की परिभाषा ही बदल डाली है। वर्तमान में लोगों में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। किसी ने अच्छा घर बना लिया है या किसी मशीनरी को खरीद लिया है। दूसरे व्यक्ति भी उसकी तुलना सबके सामने करते हैं कि इसने ऎसा किया… इतना खरीदा… अपने को भी करना चाहिए। जबकि अपने पास आय के इतने स्त्रोत भी नहीं हो सकते हैं। इसलिए वर्तमान समय में मनुष्य को भविष्य के लिए धन को सुरक्षित रखना है। तो प्रतिस्पर्धा की भावना का त्याग करना होगा। तभी धन सुरक्षित हो पाएगा। बचत किये हुआ धन से भविष्य की राह में सुनहरे पंख लगेंगे। राही को अच्छी मंजिल मिल पाएंगी। और राही  को मुस्कराती जिंदगी मिल सके।

 

©  कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 2. दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

गतवर्ष दीपावली के समय लिखे तीन संस्मरण आज से एक लघु शृंखला के रूप में साझा कर रहा हूँ। आशा है कि ये संस्मरण हम सबकी भावनाओं के  प्रतिनिधि सिद्ध होंगे।  – संजय भरद्वाज

 

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप 

☆ आज दूसरा शब्ददीप ☆

आज बलि प्रतिपदा है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि। देश के अनेक भागों में बोलचाल की भाषा में इसे पाडवा कहते हैं।

शाम के समय फिर बाज़ार में हूँ। बाज़ार के लिए घर से अमूमन पैदल निकलता हूँ। दो-ढाई किलोमीटर चलना हो जाता है, साथ ही पात्र-परिस्थिति का अवलोकन और खुद से संवाद भी।

दीपावली यानी पकी रसोई के दिन। सोचता हूँ फल कुछ अधिक ले लूँ ताकि पेट का संतुलन बना रहे। मंडी से फल लेकर मेडिकल स्टोर की ओर आता हूँ। एक आयु के बाद फलों से अधिक बजट दवाइयों का होता है।

सड़क खचाखच भरी है। दोनों ओर की दुकानों ने सड़क को अपने आगोश में ले लिया है या सड़क दुकानों में प्रवेश कर गई है, पता ही नहीं चलता। दुकानदार मुहूर्त की बिक्री करने में और ग्राहक उनकी बिक्री करवाने में व्यस्त हैं। जहाँ पाँव धरना भी मुश्किल हो उस भीड़ में एक बाइक पर विराजे ट्रिप्सी ( ट्रिपल सीट का यह संक्षिप्त रूप आजकल खूब चलन में है)  मतलब तीन नौजवान गाड़ी आगे ले जाने की नादानी करना चाहते हैं। कोलाहल में हॉर्न की आवाज़ खो जाने से कामयाबी कोसों दूर है और वे बुरी तरह झल्ला रहे हैं। भीड़ मंथर गति से आगे बढ़ रही है। देह की भीड़ में मन का एकांत मुझे प्रिय है। मन खुद से बातें करने में तल्लीन है और देह भीड़ के साथ कदमताल।

किर्रररर .. किसी प्राणी के एकाएक आगे आ जाने से कोई बस ड्राइवर जैसे ब्रेक लगाता है, वैसे ही भीड़ की गति पर विराम लग गया। कौतुहलवश आँखें उस स्थान पर गईं जहाँ से गति शून्य हुई थी। देखता हूँ कि दो फर्लांग आगे चल रही लगभग अस्सी वर्ष की एक बूढ़ी अम्मा एकाएक ठहर गई थीं। अत्यंत साधारण साड़ी, पैरों में स्लीपर, हाथ में कपड़े की छोटी थैली। बेहद निर्धन परिवार से सम्बंध रखने वाली, सरकारी भाषा में ‘बीपीएल’ महिला। हुआ यों कि विपरीत दिशा से आती उन्हीं की आयु की, उन्हीं के आर्थिक वर्ग की दूसरी अम्मा उनके ठीक सामने आकर ठहर गई थीं। दोनों ओर का जनसैलाब भुनभुना पाता उससे पहले ही विपरीत दिशा से आ रही अम्मा भरी भीड़ में भी जगह बनाकर पहली के पैरों में झुक गईं। पूरी श्रद्धा से चरण स्पर्श किये।

पहली अम्मा के चेहरे पर मान पाने का नूर था।  स्मितहास्य दोनों गालों पर फैल गया था। हाथ उठाकर पूरे मन से आशीर्वाद दिया। प्रणाम करने वाली ने विनय से ग्रहण किया। दोनों अपने-अपने रास्ते बढ़ीं, भीड़ भी चल पड़ी।

दीपावली की धोक देना, प्रतिपदा को मिलने जाना, प्रणाम करने की परम्पराएँ जाने कहाँ लुप्त हो गईं! पश्चिम के अंधानुकरण ने सामासिकता की चूलें ही हिलाकर रख दीं। ‘कौवा चला हंस की चाल’.., कौवा हो या हंस हो, हरेक की दृष्टि में दोनों का संदर्भ भिन्न-भिन्न हो सकता है पर संदर्भ से अधिक महत्वपूर्ण है  दोनों का होना।

वर्तमान में सर्वाधिक युवाओं का देश, भविष्य में सर्वाधिक वृद्धों का होगा। परम्पराओं की तरह उपेक्षित वृद्ध या वृद्धों की तरह उपेक्षित परम्पराएँ!  हम अपनी परम्पराओं को धोक देंगे, उनका चरणस्पर्श करेंगे, उनसे आशीर्वाद ग्रहण करेंगे या ‘हाय’ कहकर ‘बाय’ करते रहेंगे?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #21 – महिलायें समाज की धुरी ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “महिलायें समाज की धुरी”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 21 ☆

 

☆ महिलायें समाज की धुरी 

 

एक अदृश्य शक्ति, जिसे आध्यात्मिक दृष्टि से हम परमात्मा कहते हैं, इस सृष्टि का निर्माण कर्ता, नियंत्रक व संचालक है. स्थूल वैज्ञानिक दृष्टि से इसी अद्भुत शक्ति को प्रकृति के रूप में स्वीकार किया जाता है. स्वयं इसी ईश्वरीय शक्ति या प्रकृति ने अपने अतिरिक्त यदि किसी को नैसर्गिक रूप से जीवन देने तथा पालन पोषण करने की शक्ति दी है तो वह महिला ही है. अतः समाज के विकास में महिलाओ की महति भूमिका निर्विवाद एवं अति महत्वपूर्ण है. समाज, राष्ट्र की इकाई होता है और समाज की इकाई परिवार, तथा हर परिवार की आधारभूत अनिवार्य इकाई एक महिला ही होती है. परिवार में पत्नी के रूप में, महिला पुरुष की प्रेरणा होती है. वह माँ के रूप में बच्चों की जीवन दायिनी,ममता की प्रतिमूर्ति बनकर उनकी परिपोषिका तथा पहली शिक्षिका की भूमिका का निर्वाह करती है. इस तरह परिवार के सदस्यों के चरित्र निर्माण व बच्चों को सुसंस्कार देने में घर की महिलाओ का प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष योगदान स्वप्रमाणित है.

विधाता के साकार प्रतिनिधि के रूप में महिला सृष्टि की संचालिका है, सामाजिक दायित्वों की निर्वाहिका है, समाज का गौरव है। महिलाओं ने अपने इस गौरव को त्याग से सजाया और तप से निखारा है, समर्पण से उभारा और श्रद्धा से संवारा है. विश्व इतिहास साक्षी है कि महिलाओं ने सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विभिन्न क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास किया है, एवं निरंतर योगदान कर रहीं हैं. बहुमुखी गुणों से अलंकृत नारी पर ही समाज का महाप्रासाद अविचल खड़ा है. नारी चरित्र, शील, दया और करूणा का समग्र सवरूप है.

कन्या भ्रूण हत्या, स्तनपान को बढ़ावा देना, दहेज की समस्या, अश्लील विज्ञापनों में नारी अंग प्रदर्शन, स्त्री शिक्षा को बढ़ावा, घर परिवार समाज में महिलाओ को पुरुषों की बराबरी का दर्जा दिया जाने का संघर्ष, सरकार में स्त्रियों की अनिवार्य भागीदारी सुनिश्चित करना आदि वर्तमान समय की नारी विमर्श से सीधी जुड़ी वे ज्वलंत सामाजिक समस्यायें हैं, जो यक्ष प्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ी हैं. इनके सकारात्मक उत्तर में आज की पीढ़ी की महिलाओ की विशिष्ट भूमिका ही उस नव समाज का निर्माण कर सकती है, जहां पुरुष व नारी दो बराबरी के घटक तथा परस्पर पूरक की भूमिका में हों.

पौराणिक संदर्भो को देखें तो दुर्गा, शक्ति का रूप हैं. उनमें संहार की क्षमता है तो सृजन की असीमित संभावना भी निहित है. जब देवता, महिषासुर से संग्राम में हार गये और उनका ऐश्वर्य, श्री और स्वर्ग सब छिन गया तब वे दीन-हीन दशा में भगवान के पास पहुँचे। भगवान के सुझाव पर सबने अपनी सभी शक्तियॉं (शस्त्र) एक स्थान पर रखे. शक्ति के सामूहिक एकीकरण से दुर्गा उत्पन्न हुई. पुराणों में दुर्गा के वर्णन के अनुसार, उनके अनेक सिर हैं, अनेक हाथ हैं. प्रत्येक हाथ में वे अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुये हैं. सिंह, जो साहस का प्रतीक है, उनका वाहन है. ऐसी शक्ति की देवी ने महिषासुर का वध किया. वे महिषासुर मर्दनी कहलायीं. यह कथा संगठन की एकता का महत्व प्रतिपादित करती है. शक्ति, संगठन की एकता में ही है. संगठन के सदस्यों के सहस्त्रों सिर और असंख्य हाथ हैं. साथ चलेंगे तो हमेशा जीत का सेहरा बंधेगा. देवताओं को जीत तभी मिली जब उन्होने अपनी शक्ति एकजुट की. दुर्गा, शक्तिमयी हैं, लेकिन क्या आज की महिला शक्तिमयी है ? क्या उसका सशक्तिकरण हो चुका है? शायद समाज के सर्वांगिणी विकास में सशक्त महिला और भी बेहतर भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं. वर्तमान सरकारें इस दिशा में कानूनी प्रावधान बनाने हेतु प्रयत्नशील हैं, यह शुभ लक्षण है. प्रतिवर्ष ८ मार्च को समूचा विश्व महिला दिवस मनाता है, यह समाज के विकास में महिलाओं की भूमिका के प्रति समाज की कृतज्ञता का ज्ञापन ही है.

कवि ने कहा है….

ममता है माँ की, साधना, श्रद्धा का रूप है

लक्ष्मी, कभी सरस्वती, दुर्गा अनूप है

नव सृजन की संवृद्धि की एक शक्ति है नारी

परमात्मा औ” प्रकृति की अभिव्यक्ति है नारी

नारी है धरा, चाँदनी, अभिसार, प्यार भी

पर वस्तु नही, एक पूर्ण व्यक्ति है नारी

आवश्यकता यही है कि नारी को समाज के अनिवार्य घटक के रूप में बराबरी और सम्मान के साथ स्वीकार किया जावे. समाज के विकास में महिलाओ का योगदान स्वतः ही निर्धारित होता आया है,रणभुमि पर विश्व की पहली महिला योद्धा रानी दुर्गावती हो, रानी लक्ष्मी बाई का पहले स्वतंत्रता संग्राम में योगदान हो, इंदिरा गांधी का राजनैतिक नेतृत्व हो या विकास का अन्य कोई भी क्षेत्र अनेकानेक उदाहरण हमारे सामने हैं. आगे भी समाज के विकास की इस भूमिका का निर्वाह महिलायें स्वयं ही करती रहेंगी……

“कल्पना” हो या “सुनीता” गगन में, “सोनिया” या “सुष्मिता”

रच रही वे पाठ, खुद जो, पढ़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां

बस समाज को नारी सशक्तिकरण की दिशा में प्रयत्नशील रहने, और महिलाओ के सतत योगदान को कृतज्ञता व सम्मान के साथ अंगीकार करने की जरूरत है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #18 – उपदेशक और समुपदेशक ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 18☆

☆ उपदेशक और समुपदेशक ☆

 

अपने दैनिक पूजा-पाठ में या जब कभी मंदिर जाते हो,  सामान्यतः याचक बनकर ईश्वर के आगे खड़ा होते हो। कभी धन, कभी स्वास्थ्य, कभी परिवार में सुख-शांति, कभी बच्चों का विकास तो कभी…, कभी की सूची लंबी है, बहुत लंबी।

लेकिन कभी विचार किया कि दाता ने सारा कुछ, सब कुछ पहले ही दे रखा है। ‘जो पिंड में, सोई बिरमांड में।’ उससे अलग क्या मांग लोगे? स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ब्रह्मांड की सारी शक्तियाँ पहले से हमारे भीतर है। अपनी आँखों को अपने ही हाथों से ढककर हम ‘अंधकार, अंधकार’ चिल्लाते हैं। कितना गहन पर कितना सरल वक्तव्य है। ‘एवरीथिंग इज इनबिल्ट।’…तुम रोज मांगते हो, वह रोज मुस्कराता है।

एक भोला भंडारी भगवान से रोज लॉटरी खुलवाने की गुहार लगाता था। एक दिन भगवान ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा,’बावरे! पहले लॉटरी का टिकट तो खरीद।’

तुम्हारा कर्म, तुम्हारा परिश्रम, तुम्हारा टिकट है। ये लॉटरी नहीं जो किसी को लगे, किसी को न लगे। इसमें परिणाम मिलना निश्चित है। हाँ, परिणाम कभी जल्दी, कभी कुछ देर से आ सकता है।

उपदेशक से समस्या का समाधान पाने के लिए उसके पीछे या उसके बताये मार्ग पर चलना होता है। उपदेशक के पास समस्या का सर्वसाधारण हल है।  राजा और रंक के लिए, कुटिल और संत के लिए, बुद्धिमान और नादान के लिए, मरियल और पहलवान के लिए एक ही हल है।

समुपदेशक की स्थिति भिन्न है। समुपदेशक तुम्हारी अंतस प्रेरणा को जागृत करता है कि अपनी समस्या का हल तलाशने का सामर्थ्य तुम्हारे भीतर है। तुम्हें अपने तरीके से अपना प्रमेय हल करना है। प्रमेय भले एक हो, हल करने का तरीका प्रत्येक की अपनी दैहिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है।

समुपदेशक तुम्हारे इनबिल्ट को एक्टिवेट करने में सहायता करता है। ईश्वर से मत कहो कि मुझे फलां दे। कहो कि फलां हासिल करने की मेरी शक्ति को जागृत करने में सहायक हो। जिसने ईश्वर को समुपदेशक बना लिया, उसने भीतर के ब्रह्म को जगा लिया….और ब्रह्मांड में ब्रह्म से बड़ा क्या है?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 14 – एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती ।)

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 14 ☆

 

☆ एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती 

 

विरुपक्ष (अर्थ : एक महीने के एक पक्ष अथार्त 15 दिनों के लिए वीर) को भगवान ब्रह्मा से वरदान मिला हुआ था कि वह ‘चंद्रमा’ का एक ‘पक्ष’ या चंद्रमा का पृथ्वी के चारो और पूरे चक्कर का आधा समय जो की करीब 15 दिन होते है को चुन सकता है या तो कृष्ण पक्ष (काला या अँधेरा आधा मार्ग) या शुक्ल पक्ष (उज्ज्वल आधा मार्ग), अपने चुने हुए आधे चक्र के दौरान, वह कभी भी किसी के भी द्वारा पराजित नहीं होगा, और यदि उसने अपनी पसंद के एक महीने का एक आधा भाग चुना, जिसमें वह पराजित नहीं हो सका, तो वह उस माह के अगले या दूसरे आधे भाग या 15 दिनों में पराजित हो सकता है। इसका अर्थ है कि अगर उसने किसी के साथ लड़ने के लिए चंदमा के चक्र का उज्जवल आधा भाग या शुक्ल पक्ष चुना है, तो वह कभी भी पूरे 15 दिनों के इस उज्ज्वल आधे भाग में किसी से पराजित नहीं होगा। लेकिन जब चंद्रमा का अगला चरण अर्थात अँधेरा आधे भाग या कृष्ण पक्ष आयेगा तो वह उसमे पराजित हो सकता है। इसी तरह अगर वह अँधेरा भाग या कृष्ण पक्ष चुनता है तो 15 दिनों तक पराजित नहीं होगा और 15 दिनों बाद जब उज्जवल भाग या शुक्ल पक्ष शुरू होगा तो उसमे पराजित हो सकता है ।

विरुपक्ष अपने चुने हुए अंधेरे आधे भाग में युद्ध भूमि में आया, इसलिए वह उस आधे भाग में पराजित नहीं हो सकता था। उसने वानरों को बुरी तरह से मारना शुरू कर दिया।जल्द ही भगवान हनुमान विरुपक्ष के रास्ते में आ गए। भगवान हनुमान ने बहुत कोशिश की और विरुपक्ष के साथ लगातार लड़ते रहे,लेकिन भगवान ब्रह्मा जी से मिले वरदान की वजह से वह उसे हराने में असमर्थ थे।

भगवान राम के समूह में हर कोई चिंतित था। तब विभीषण ने भगवान राम को सुझाव दिया कि, “हम विरुपक्ष को तब तक पराजित नहीं कर सकते जब तक चंद्रमा अपने आधे अंधेरे चक्र को आधे उज्ज्वल चक्र में बदलकर हमारी सहायता नहीं करेंगे”

उसी समय भगवान इंद्र आकाश में दिखाई दिए और कहा, “हे राम, आपका युद्ध मानवता के लिए है। मैं चंद्रमा को आदेश देता हूँ, ताकि वह अपने चरणों को बदल दे और दूसरे आधे चक्र में चला जाए”

कुछ देर बाद चंद्रमा ने अपने मासिक चक्र के आधे अंधेरे भाग, कृष्ण पक्ष को आधे चमकीले या उज्जवल, शुक्ल पक्ष भाग में बदल दिया, और जल्द ही विरुपक्ष का शरीर घटना शुरू हो गया। चूंकि अब विरुपक्ष का शरीर कमजोर हो गया, तो भगवान हनुमान ने उसे पकड़ लिया और फिर उसे मार डाला।ऐसा कहा जाता है कि तब से चंद्रमा पृथ्वी के इर्दगिर्द अपने सामान्य आधे चक्र से आधे चक्र के अंतराल से अपना मासिक क्रम दोहरा रहा है।

भगवान राम ने अपने हाथों को आकाश में चंद्रमा की ओर बढ़ा कर चंद्रमा को प्रणाम एवं धन्यवाद किया।

जल्द ही चंद्रमा के देवता भगवान राम के सामने प्रकट हुए और उनसे अनुरोध में कहा, “हे भगवान! आप मुझे धन्यवाद क्यों दे रहे है? मेरी चमक शक्ति और शीतलता, आपका ही प्रताप है।यदि आप वास्तव में मुझे धन्यवाद देना चाहते हैं, तो मुझे वचन दीजिये कि जैसे आप अपने इस युग के अवतार में सूर्य वंश में जन्मे है, वैसे ही अगले युग के अवतार में आप मेरे वंश अथार्त चंद्र वंश में जन्म लेंगे”

भगवान राम मुस्कुराये और चाँद से कहा, “यह मेरे लिए खुशी होगी। मैं आपको वचन देता हूँ कि मेरे अगले अवतार में मैं चंद्र वंश (चंद्रवंशी) में जन्म लूँगा ।

हम सभी जानते हैं कि अगले अवतार में, भगवान विष्णु का जन्म चंद्र वंश में भगवान कृष्ण के रूप में हुआ था ।

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares
image_print