हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 21 ☆ मूर्खों के पांच लक्षण ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख  मूर्खों के पांच लक्षण . मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ  और दूसरों की बात का अनादर..। डॉ मुक्ता  जी  ने व्हाट्सएप्प  पर प्राप्त एक  सन्देश से प्रेरित  इस आलेख की रचना की है। यह निश्चित ही  सोशल मीडिया पर प्राप्त संदेशों  पर  सार्थक साहित्य  की रचना एक सकारात्मक  कदम है  इस महत्वपूर्ण तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 21 ☆

 

☆ मूर्खों के पांच लक्षण

 

मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ  और दूसरों की बात का अनादर..। व्हाट्सएप के इस संदेश ने मुझे इस विषय पर लिखने को विवश कर दिया, क्योंकि सत्य व यथार्थ सदैव मन के क़रीब होता है.भावनाओं को झकझोरता है और चिंतन-  मनन करने को विवश करता है। सामान्यत: यदि कोई भी अटपटी बात करता है, अपना पक्ष रखने के लिए व्यर्थ की दलीलें देता है, अपनी विद्वत्ता का अकारण बखान करता है, बात-बात पर क्रोधित  होता है, दूसरों की पगड़ी उछालने में पल भर भी नहीं लगाता..उसे अक्सर मूर्ख की संज्ञा दी जाती है, क्योंकि कि वह दूसरों की बातों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देता…सदैव अपनी-अपनी हांकता है। नास्तिक व्यक्ति परमात्म-सत्ता में विश्वास नहीं करता और वह स्वयं को सर्वज्ञानी व सर्वश्रेष्ठ समझता है। वास्तव में ऐसा प्राणी करुणा का पात्र होता है। आइए! विचार करें, मूर्खों के पांचों लक्षणों पर…परंतु जो इन दोषों से मुक्त हैं, ज्ञानी हैं, विद्वान हैं, उपास्य है।

गर्व, घमण्ड, अभिमान मानव के सर्वांगीण विकास में बाधक हैं और अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो परमात्म-प्राप्ति में बाधक है। वास्तव में गर्व-सूचक है … आत्म-प्रवंचना व आत्म-श्लाघा का,जो मानव की नस-नस में व्याप्त है अर्थात् वह परमात्मा द्वारा प्रदत्त नहीं है। दूसरे शब्दों में आप उन सब गुणों-खूबियों का बखान करते हैं, जो आप में नहीं हैं और जिसके आप योग्य नहीं है। इसका दूसरा भयावह पक्ष भी है, जो आपके पास है, उसके कारण आप स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, दूसरों को नीचा दिखलाते हैं, उन पर आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं, जो सर्वथा अनुचित है। अहंभाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है और वह एकांत की त्रासदी झेलता रहता है। सब उसे शत्रु-सम भासते हैं और जो भी उसको सही राह दिखलाने की चेष्टा करता है, जीवन के कटु यथार्थ अर्थात् उसकी कारस्तानियों से अवगत कराना चाहता है, वह उस पर ज़ुल्म ढाने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करता। जब इस पर भी उसे संतोष नहीं होता, वह उसके प्राण लेकर ही अहंतुष्टि करता है। अपने अहंभाव के कारण वह आजीवन सत्मार्ग पर नहीं चल पाता।

अपशब्द अर्थात् बुरे शब्द अहंनिष्ठता का परिणाम हैं, क्योंकि क्रोध व आवेश में वह मर्यादा को ताक पर रख व सीमाओं को लांघ कर, अपनी धुन में ऊल- ज़लूल बोलता है…सबको अपशब्द कहता है। जब उसे इससे भी संतोष नहीं होता, वह गाली-गलौच पर उतर आता है। वह भरी सभा में किसी पर भी झूठे आक्षेप-आरोप लगाने व वह नीचा दिखाने के लिए, हिंसा पर उतारू हो जाता है। जैसा कि सर्वविदित है कि बाणों के घाव तो कुछ समय पश्चात् भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव नासूर बन आजीवन रिसते हैं। द्रौपदी का ‘अंधे की औलाद अंधी’ वाक्य महाभारत के युद्ध का कारण बना। ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है इतिहास… सो! ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ को सिद्धांत रूप में अपने जीवन में उतार लेना ही श्रेयस्कर है। आप किसी को अपशब्द बोलने से पूर्व स्वयं को उसके स्थान पर तराजू में रखकर तौलिए और यदि वह उस कसौटी पर खरा उतरता है, तो उचित है, वरना उन शब्दों का प्रयोग कदाचित् मत कीजिए। वह आपके गले की फांस बन सकता है।

प्रश्न उठता है कि अपशब्द का मूल क्या है? किन परिस्थितियों व कारणों से, ये उत्पन्न होते हैं, अस्तित्व में आते हैं। इनका जनक है क्रोध और क्रोध चांडाल है, जो बड़ी से बड़ी  आपदा का आह्वान करता है। वह सबको एक नज़र से देखता है, सबको एक लाठी से लांघता है, सभी सीमाओं का अतिक्रमण करता है। मर्यादा शब्द तो उसके शब्द कोश के दायरे बाहर रहता है। परशुराम का क्रोध सर्वविदित है। क्रोध के परिणाम सदैव भयंकर होते हैं। सो! मानव को इसके चंगुल से बाहर रहने का सदैव प्रयास करना चाहिए।

हठ…हठ का प्रणेता है क्रोध। बालहठ से तो आप सब अवगत होंगे। बच्चे  किसी पल, कुछ भी करने  का हठ कर लेते हैं, जो असंभव होता है। परंतु उन्हें बहलाया जा सकता है। इससे किसी की भी हानि नहीं होती, क्योंकि बालमन कोमल होता है …राग-द्वेष से परे होता है। परंतु  यदि कोई मूर्ख व्यक्ति हठ करता है, तो वह उसे विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। उसे समझाने की किसी में सामर्थ्य नहीं होती क्योंकि हठी व्यक्ति जो ठान लेता है,उससे कभी भी टस-से-मस नहीं होता। अंत में वह उस मुक़ाम पर पहुंच जाता है, जहां वह अपनी सल्तनत को जला कर तमाशा देखता है और स्वयं को हरदम नितांत अकेला अनुभव करता है। उसके सपने जलकर राख हो जाते हैं।

मूर्ख व्यक्ति दूसरों का अनादर करने में पल भर भी नहीं लगाता, क्योंकि वह अहं व क्रोध के शिकंजे में इस क़दर जकड़ा होता है कि उससे मुक्ति पाना उस के वश में नहीं होता। वह सृष्टि-नियंता के अस्तित्व को नकार, स्वयं को बुद्धिमान व सर्वशक्तिमान स्वी- कारता है और उसके मन में यह प्रबल भावना घर कर जाती है कि उससे अधिक ज्ञानवान इस संसार में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। सो! वह अपनी अहं- पुष्टि हेतु क्रोध  के आवेश में हठपूर्वक अपनी बात मनवाना चाहता है, जिसके लिए वह अमानवीय कृत्यों का सहारा भी लेता है। ‘बॉस इज़ ऑलवेज़ राइट ‘ अर्थात् बॉस/ मालिक सदैव ठीक कर्म करता है। गलत शब्द उसके शब्द कोश की सीमा से बाहर रहता है।वह निष्ठुर प्राणी कभी भी, कुछ भी कर गुज़रता है, क्योंकि उसे अंजाम की परवाह नहीं होती।

यह थे मूर्खों के पांच लक्षण…वैसे तो इंसान गलतियों का पुतला है। परंतु यह वे संचारी भाव हैं जो स्थायी भावों के साथ-साथ,समय-समय पर उठते हैं, परंतु शीघ्र ही इनका शमन हो जाता है। यह कटु सत्य है कि जो भी इन्हें धारण कर लेता है, उसे मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। वह घर-परिवार के लोगों का जीना भी दूभर कर देता है। वह विपरीत  पक्ष के व्यक्ति को अपना पक्ष रखने का अधिकार देता ही कहां है। अपने पूर्वजों की धरोहर के रूप में रटे हुए, चंद वाक्यों का प्रयोग-उपयोग वह हिटलर की भांति धड़ल्ले से करता है। हां! घर से बाहर वह प्रसन्नचित्त रहता है, सदैव अपनी-अपनी हांकता है और चंद लम्हों में  लोग उसके चारित्रिक गुणों से वाक़िफ़ हो जाते हैं और उससे  निज़ात पाना चाहते हैं ताकि कोई अप्रत्याशित हादसा घटित न हो जाए। वैसे परिवारजनों को सदैव यह आशंका बनी रहती है कि उस द्वारा बोला गया कोई वाक्य उनके लिए भविष्य में संकट व जी का जंजाल न बन जाये। वैसे ‘बुद्धिमान को इशारा काफी’ अर्थात् जो लोग उसके साथ  रहने को विवश होते हैं, उनकी ज़िंदगी नरक बन जाती है। परंतु गले पड़ा ढोल बजाना उनकी विवशता होती है… नियति बन जाती है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – जीवाश्म ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – जीवाश्म

 

‘उनके शरीर का खून गाढ़ा होगा। मुश्किल से थोड़ा बहुत बह पाएगा। फलत: जीवन बहुत कम दिनों का होगा। स्वेद, पसीना जैसे शब्दों से अपरिचित होंगे वे। देह में बमुश्किल दस प्रतिशत पानी होगा। चमड़ी खुरदरी होगी। चेहरे चिपके और पिचके होंगे। आँखें बटन जैसी और पथरीली होंगी। आँसू आएँगे ही नहीं। धनवान दिन में तीन बार एक-एक गिलास पानी पी सकेंगे। निर्धन को तीन दिन में एक बार पानी का एक गिलास मिलेगा। यह समाज रस शब्द से अपरिचित होगा। गला तर नहीं होगा, आकंठ कोई नहीं डूबेगा। डूबकर कभी कोई मृत्यु नहीं होगी। पेड़ का जीवाश्म मिलना शुभ माना जाएगा।’

..पर हम हमेशा ऐसे नहीं थे। हमारे पूर्वजों की ये तस्वीरें देखो। सुनते हैं उनके समय में हर घर में दो बाल्टी पानी होता था।

..हाँ तभी तो उनकी आँखों में गीलापन दिखता है।

…ये सबसे ज्यादा पनीली आँखोंवाला कौन है?

…यही वह लेखक है जिसने हमारा आज का सच दो हजार साल पहले ही लिख दिया था।

…ओह! स्कूल की घंटी बजी और 42वीं सदी के बच्चों की बातें रुक गईं।

आँख में पानी बचा रहे।…आमीन!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 2:17 बजे, 30.8.2019

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 1 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि  पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का प्रथम आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 1  – हिन्द स्वराज से  ☆ 

यह वर्ष गांधीजी के 150वें जन्मोत्सव का वर्ष है। शासकीय और अशासकीय स्तरों पर अनेक कार्यक्रम हो रहे हैं और देश विदेश में लोग  अपनी अपनी तरह से महामानव का जन्मोत्सव मना रहे हैं, उन्हें याद कर रहे हैं, श्रद्धांजली दे रहें है, उनके विचारों पर अमल करने की प्रतिज्ञा ले रहे हैं। मेरे स्टेट बैंक के साथी श्री जय प्रकाश पांडे ने मेरा परिचय श्री हेमन्त बावनकर के रचनात्मक कार्य, उनके ‘साहित्यिक ब्लॉग  ई- अभिव्यक्ति’ से अभी सितम्बर माह में ही करवाया और गांधीजी पर एक लेख इस पत्रिका को देने का आग्रह किया। मुझे प्रसन्नता हुयी कि श्री बावनकर ने मेरे लेख ‘चंपारण सत्याग्रह : एक शिकायत की जाँच’ को ‘ई- अभिव्यक्ति’ के गांधी विशेषांक में स्थान दिया । कुछ ही दिनों बाद उनका प्रेम भरा  आग्रह था कि इस पूरे वर्ष  ‘साहित्यिक ब्लॉग  ई- अभिव्यक्ति’ में गांधी चर्चा का स्थायी कालम शुरू करने हेतु मैं कुछ लिख कर भेजूं। नेकी और पूंछ-पूंछ, मुझे उनका यह कहना तो मानना ही था अत: मैं वर्ष पर्यंत, हर बुधवार कुछ न कुछ गांधीजी पर लिखकर प्रकाशन हेतु भेजूंगा और यह सिलसिला 02 अक्टूबर 2020 तक सतत चलता रहेगा।

महात्मा गांधी का चिंतन उनके लिखे अनेक लेखों, संपादकीयों, पत्राचारों, पुस्तकों में वर्णित है। इन्हें पढ़ पाना एक सामान्य जन के लिए असंभव है। मैंने भी इस दिशा में कुछ किताबे पढने का प्रयास कर गांधीजी को समझने की कोशिश की है। फिर मैं कोई बड़ा लेखक या चिन्तक भी नहीं हूँ जो यह दावा कर सके कि गांधीजी के विचारों को पूर्णत: समझ लिया है। फिर भी मैं कोशिश कर रहा  हूँ कि आगामी कुछ सप्ताहों तक मैं गांधीजी द्वारा लिखित कुछ पुस्तकों ‘हिंद स्वराज’, ‘सत्य के प्रयोग अथवा आत्म कथा’, ‘मेरे सपनो का भारत’, ‘ग्राम स्वराज’, ‘अनासक्ति योग’, ‘आश्रम भजनावली’ आदि   के माध्यम से गांधीजी द्वारा व्यक्त विचारों से ‘साहित्यिक ब्लॉग  ई- अभिव्यक्ति’ के पाठकों को परिचित कराने का प्रयास करूं। यह भी सत्य है कि ‘हिंद स्वराज’ में लिखी कई बातें मुझे आसानी से समझ में नहीं आती और कई विचार मेरे गले भी नहीं उतरते  हैं। मुझे गांधी जी की लिखी दूसरी पुस्तक मेरे “सपनों का भारत” पढ़ना ज्यादा पसंद है। समय समय पर मुझे गांधीजी से जुड़े अनेक संस्मरण पढने का अवसर मिलता रहता है, मैंने उन्हें भी संकलित करने का प्रयास किया है। मैं इनसे भी गांधी चर्चा के दौरान अपने मित्रों को ‘ई- अभिव्यक्ति’ के माध्यम से परचित कराने का प्रयास करूंगा।

हिंद स्वराज जिसे 1909 में लिखा गया था, जिसके अनेक संस्करण समय-समय पर प्रकाशित हुये, उनकी प्रस्तावना लिखते समय बापू ने अनेक रहस्योद्घाटन किये हैं।

प्रथम बार जब उन्होंने  22.11.2009 को किलडोनन कैसल समुद्री जहाज में  बैठकर  इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी तब उन्होंने  सबसे पहले कहा कि “इस विषय पर मैंने जो बीस अध्याय लिखे हैं, उन्हें मैं पाठकों के सामने रखने की हिम्मत करता हूँ ।”

आगे वे लिखते हैं कि “उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का और उसके मुताबिक बरतने का है। इसलिए अगर मेरे विचार गलत साबित हों तो उन्हें पकड़ रखने का मेरा आग्रह नहीं है। अगर वे सच साबित हों तो दूसरे लोग भी उनके मुताबिक़ बरतें, ऐसी देश के भले के लिए साधारण तौर पर मेरी भावना रहेगी।”

जनवरी 1921 यंग इंडिया में वे लिखते हैं कि –

“इस किताब में ‘आधुनिक सभ्यता’ की सख्त टीका की गई है। यह 1909 में लिखी गई थी। इसमें मेरी जो मान्यता प्रकट की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है। मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तान ‘आधुनिक सभ्यता’ का त्याग करेगा तो उससे उसे लाभ ही होगा।”

सेवाग्राम से 14.07.1938 को उन्होंने संदेश दिया कि ” पाठक इतना ख्याल रखें कि कुछ कार्यकर्ताओं के साथ, जिनमें एक कट्टर अराजकतावादी थे, मेरी जो बातें हुई थी, वे जैसी की तैसी मैंने इस पुस्तक में दे दी हैं। पाठक इतना भी जान लें कि दक्षिण अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों में जो सड़न दाखिल होने ही वाली थी, उसे इस पुस्तक ने रोका था”।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #20 – कैमरो की निगरानी ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “ घरेलू बजट” ।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 20 ☆

 

☆ कैमरो की निगरानी 

 

हर क्राइम का अपराधी अंततोगत्वा पकड़ ही लिया जाता है. पोलिस के हाथ बहुत लम्बे होतें हैं. बढ़ती आबादी, बढ़ते अपराध पोलिस के प्रति खत्म होता डर, अपराध की बदलती स्टाइल अनेक ऐसे कारण हैं जिनके चलते अब इलेक्ट्रानिक संसाधनो का उपयोग करके पोलिस को भी अपराधियो को खोजने तथा अपराधो के विश्लेषण में मदद लेना समय की जरूरत बनता जा रहा है.

वीडियो कैमरे की रिकार्डिंग इस दिशा में बहुत बड़ा कदम है. यही कारण है कि चुनाव आदि में वीडियो कवरेज किया जाने लगा है.  उन्नत पाश्चात्य देशो में जहाँ बड़े बड़े माल, सड़के आदि सतत वीडियो कैमरो की निगरानी में होते हैं, अपराध बहुत कम होते हैं क्योकि सबको पता होता है कि वे वीडियो सर्विलेंस में हैं. अति न्यून मानवीय शक्ति का उपयोग करते हुये भी इलेक्ट्रानिक कैमरो की मदद से बड़ी भीड़ पर नजर रखी जा सकती है. आवश्यक है कि अब पोलिस इस बात को बहु प्रचारित करे कि हम सब अधिकांशतः वीडियो कवरेज के साये में हैं. इस भय से किंचित अपराध कम हों. हमारे जैसे देश में यदि सरकार ही सारी आबादी पर वीडियो कवरेज करने की व्यवस्था करे तो चौबीसों घंटे वीडीयो निगरानी की रिकार्डिंग पर भारी व्यय होगा. अभी सरकार की प्राथमिकता में यह नही है.

निजी तौर पर प्रायः मध्यम वर्गीय लोग भी घरो व अपने कार्यस्थलो पर वीडीयो कैमरे स्थापित कर रहे हैं, जिनकी मदद से वे अपने घरो की सुरक्षा, अपने व्यापारिक प्रतिष्ठानो में कामगारो पर नजर, तथा अपनी दूकान आदि में ग्राहको को कवर कर रहे हैं. गाहे बगाहे पोलिस भी इन्ही रिकार्डिंग्स की मदद से अपराधियो को पकड़ पाती है. पर अब तक आधिकारिक रूप से इन आम लोगो के द्वारा करवाई गई रिकार्डिंग पर सरकार का कोई नियंत्रण या अधिकार नही है.

अपराध नियंत्रण हेतु पोलिस द्वारा निजी सी सी कैमरो की वीडियो फुटिंग्स का उपयोग आधिकारिक रूप से कभी भी कर सकने हेतु कानून बनाया जाना चाहिये. जिससे पोलिस सौजन्य नही, अधिकारिक रूप से किसी भी सी सी टीवी की फुटिंग प्राप्त कर सके. सार्वजनिक स्थलो सड़को, चौराहों, नगर प्रवेश द्वारो, पार्कों, बस स्टेंड, आदि स्थलो पर नगर संस्थाओ द्वारा सी सी टी वी बढ़ाये जाने चाहिये. किसी भी अपराध में पोलिस को दिग्भ्रमित करने वाले अपराधियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही तथा अर्थदण्ड लगाये जाने के कानून भी जरूरी हैं.  पोलिस की सक्रिय भूमिका, मोबाइल व वीडीयो कैमरो की मदद से ही सही पर अपराध मुक्त वातावरण एक आदर्श समाज के लिये आवश्यक है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #17 – देहरी, चौखट और स्रष्टा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 17☆

 

☆ देहरी, चौखट और स्रष्टा ☆

 

घर की देहरी पर खड़े होकर बात करना महिलाओं का प्रिय शगल है। कभी आपने ध्यान दिया कि इस दौरान अधिकांश मामलों में संबंधित महिला का एक पैर देहरी के भीतर होता है, दूसरा आधा देहरी पर, आधा बाहर।  अपनी दुनिया के विस्तार की इच्छा को दर्शाता चौखट से बाहर का रुख करता पैर और घर पर अपने आधिपत्य की सतत पुष्टि करता चौखट के अंदर ठहरा पैर। मनोविज्ञान में रुचि रखनेवालों के लिए यह गहन अध्ययन का विषय हो सकता है।

अलबत्ता वे चौखट का सहारा लेकर या उस पर हाथ टिकाकर खड़ी होती हैं। फ्रायड कहता है कि जो मन में, उसीद की प्रचिति जीवन में। एक पक्ष हो सकता है कि घर की चौखट से बँधा होना उनकी रुचि या नियति है तो दूसरा पक्ष है कि चौखट का अस्तित्व उनसे ही है।

इस आँखों दिखती ऊहापोह को नश्वर और ईश्वर तक ले जाएँ। हम पार्थिव हैं पर अमरत्व की चाह भी रखते हैं। ‘पुनर्जन्म न भवेत्’ का उद्घोष कर मृत्यु के बाद भी मर्त्यलोक में दोबारा और प्रायः दोबारा कहते-कहते कम से कम चौरासी लाख बार लौटना चाहते हैं।

स्त्रियों ने तमाम विसंगत स्थितियों, विरोध और हिंसा के बीच अपनी जगह बनाते हुए मनुष्य जाति को नये मार्गों से परिचित कराया है। नश्वर और ईश्वर के  द्वंद्व से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें पहल करनी चाहिए। इस पहल पर उनका अधिकार इसलिए भी बनता है क्योंकि वे जननी अर्थात स्रष्टा हैं। स्रष्टा होने के कारण स्थूल में सूक्ष्म के प्रकटन की अनुभूति और प्रक्रिया से भली भाँति परिचित हैं। नये मार्ग की तलाश में खड़ी मनुष्यता का सारथ्य महिलाओं को मिलेगा तो यकीन मानिए, मार्ग भी सधेगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना-‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 13 – महासंग्राम ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “महासंग्राम ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 13 ☆

 

☆ महासंग्राम 

 

रावण की ओर से एक के बाद एक, महान राक्षस योद्धा युद्ध के मैदान में आ रहे थे। किमकारा राक्षस के अंत के बाद, सेना का संचालन रावण के पुत्र ‘देवान्तक’ के हाथ में दिया गया, कुछ लोगों का कहना था कि उसके नाम का अर्थ ‘देव’ ‘अंत’ ‘तक’ या देवो के अंत तक वह पराजित नहीं होगा है ।

लेकिन वास्तव में देवान्तक का अर्थ है, कि वह देवताओं के आने तक नहीं मरेगा । भगवान राम की सेना भगवानों और देवताओं के अवतारों से भरी थी। भगवान राम स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे, भगवान हनुमान भगवान शिव के अवतार थे, सुग्रीव सूर्य देवता के और अन्य कई अन्य देवताओं के।

देवान्तक अपने रथ में भगवान राम की ओर जा रहा था लेकिन भगवान हनुमान रास्ते में उनके रथ के आगे आ गए और उनका रथ रोक दिया। तब देवान्तक ने कहा, “हे ताकतवर हनुमान ! तुम मुझे नहीं जानते, मैं देवान्तक हूँ – रावण का पुत्र, और मुझे यह नाम भगवान ब्रह्मा से तब मिला जब मैंने तुम्हारे पिता, वायु के देवता को हराया था।तो ब्रह्मा ने मुझे यह नाम दिया है, इसका अर्थ है कि मैं सभी देवताओं के अंत तक जीवित रहूँगा। तो मेरे रास्ते से दूर जाओ अन्यथा मैं तुम्हें मार दूँगा”

भगवान हनुमान मुस्कुराते हैं और रावण के पुत्र देवान्तक को संस्कृत भाषा के कुछ बुनियादी सिद्धांत सिखाते है। भगवान हनुमान ने कहा, “हे रावण के महान योद्धा! क्या तुम अपने नाम का अर्थ भी नहीं जानते हो। यहाँ तक ​​कि तुम्हारे पिता रावण, जो स्वयं को संस्कृत भाषा का ज्ञानी बोलता है, उसने भी तुम्हें यह नहीं बताया है कि संस्कृत भाषा के नियम के अनुसार तुम्हारा नाम देवान्तक है, इसमें ‘ना’ धातु शामिल है, जो कुछ समय अवधि को परिभाषित करता है, और तुम्हारी स्थिति में वह समय की अवधि तब तक है जब तक देवता तुम्हारे साथ लड़ने नहीं आते हैं और तुम्हें शायद नहीं पता की हमारी सेना देवताओं के अवतारों से भरी है। तुमने कभी मेरे पिता को हराया होगा, तो अब यह मेरा समय की मैं तुमसे अपने पिता की हार का बदला लूँ तो अब मैं तुम्हें मारने जा रहा हूँ।”

भगवान हनुमान पूर्ण गति से देवान्तक के रथ की ओर दौड़ते हैं और उसके रथ को अपने शरीर की मजबूत टक्कर से नष्ट कर देते हैं। फिर देवान्तक को अपनी बाहों में उठाते हैं और पृथ्वी पर वापस पटक देते हैं। और इस तरह देवान्तक के जीवन का अंत हो जाता है ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 20 ☆ उम्मीद: दु:खों की जनक ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख  उम्मीद: दु:खों की जनक. यह जीवन का कटु सत्य है कि हमें जीवन में किसी से भी कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए. हम अपेक्षा रखें और पूरी न हो तो मन दुखी होना स्वाभाविक है. इस महत्वपूर्ण तथ्य पर डॉ मुक्त जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है. ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 20 ☆

 

☆ उम्मीद: दु:खों की जनक ☆

 

यदि शांति चाहते हो तो कभी दूसरों से उनके बदलने की अपेक्षा मत रखो बल्कि स्वयं को बदलो। जैसे कंकर से बचने के लिए जूते पहनना उचित है, न कि पूरी धरती पर रैड कार्पेट बिछाना… यह वाक्य अपने भीतर कितना गहरा अर्थ समेटे है। यदि आप शांति चाहते हो तो अपेक्षाओं का दामन सदैव के लिए छोड़ दो..अपेक्षा, इच्छा, आकांक्षा चाहे किसी से कुछ पाने की हो अथवा दूसरों को बदलने की…सदैव दु:ख,पीड़ा व टीस प्रदान करती हैं।मानव का स्वभाव है कि वह मनचाहा होने पर ही प्रसन्न रहता है। यदि परिस्थिति उसके विपरीत हुई, तो उसका उद्वेलित हृदय तहलका मचा देता है,जो मन के भीतर व बाहर हो सकता है। यदि मानव बहिर्मुखी होता है, तो वह अहंतुष्टि हेतू उस रास्ते पर बढ़ जाता है… जहां से लौटना असंभव होता है। वह राह में आने वाली बाधाओं व इंसानों को रौंदता चला जाता है तथा विपरीत स्थिति में वह धीरे-धीरे अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है… सब उससे रिश्ते-नाते तोड़ लेते हैं और वह  नितांन अकेला रह जाता है। एक अंतराल के पश्चात् वह अपने परिवार व संबंधियों के बीच लौट जाना चाहता है, परंतु तब वे उसे स्वीकारने को तत्पर नहीं होते। वह हर पल इसी उधेड़बुन में रहता है कि यदि वे लोग ज़िन्दगी की डगर  पर उसके साथ कदम-ताल मिला कर आगे बढ़ते तो अप्रत्याशित विषम परिस्थितियां उत्पन्न न होतीं। उन्होंने उसकी बात न मान कर बड़ा ग़ुनाह किया है। इसलिए ही उसने सब से संबंध विच्छेद कर लिए थे।

इससे स्पष्ट होता है कि आप दूसरों से वह अपेक्षा मत रखिए जो आप स्वयं उनके लिए करने में असक्षम-असमर्थ हैं। जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है। मानव को पग-पग पर परीक्षा देनी पड़ती है। यदि उसमें आत्म-संतोष है तो वह निर्धारित मापदंडों पर खरा उतर सकता है, अन्यथा वह अपने अहं व क्रोध द्वारा आहत होता है और अपना आपा खो बैठता है। अक्सर वह सबकी भावनाओं से खिलवाड़ करता… उन्हें रौंदता हुआ अपनी मंज़िल की ओर बेतहाशा भागा चला जाता है और कुछ समय के पश्चात् उसे ख्याल आता है कि जैसे कंकरों से बचने के लिए रेड कार्पेट बिछाने की की आवश्यकता नहीं होती, पांव में जूते पहनने से मानव उस कष्ट से निज़ात पा सकता है। सो! मानव को उस राह पर चलना चाहिए जो सुगम हो, जिस पर सुविधा-पूर्वक चलने व अपनाने में वह समर्थ हो।

यदि आप शांत रहना चाहते हैं, तो अपनी इच्छाओं- आशाओं, आकांक्षाओं-लालसाओं को वश में रखिए  उन्हें पनपने न दीजिए…क्योंकि यही दु:खों का मूल कारण हैं। सीमित साधनों द्वारा जब हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं, तो अवसाद होता है और अक्सर हमारे कदम गलत राहों की ओर अग्रसर हो जाते हैं। हम अपने मन की भड़ास दूसरों पर निकालते हैं और सारा दोषारोपण भी उन पर करते हैं। यदि वह ऐसा करता अर्थात्  उसकी इच्छानुसार आचरण करता, तो ऐसा न होता। वह इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है कि उसके कारण ही ऐसी अवांछित-अपरिहार्य परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं।

प्रश्न उठता है कि यदि हम दूसरों से अपेक्षा न रख कर, अपने लक्ष्य पाने की राह पर अग्रसर होते हैं तो हमारे हृदय में उनके प्रति यह मलिनता का भाव प्रकट नहीं होता। सो ! जिस व्यवहार की अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं, वही व्यवहार हमें उनके प्रति करना चाहिए। सृष्टि का नियम है कि’ एक हाथ दो, दूसरे हाथ लो’ से गीता के संदेश की पुष्टि होती है कि मानव को उसके कर्मों के अनुसार फल अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए उसे सदैव शुभ कर्म करने चाहिए तथा गलत राहों का अनुसरण नहीं करना चाहिए। गुरूवाणी में ‘शुभ कर्मण ते कबहुं ना टरहुं’ इसी भाव की अभिव्यक्ति करता है। सृष्टि में जो भी आप किसी को देते हैं या किसी के हित में करते हो, वही लौटकर आपके पास आता है। अंग्रेज़ी की कहावत ‘डू गुड एंड हैव गुड’ अर्थात् ‘कर भला हो भला’ भी इसी भाव का पर्याय-परिचायक है।

महात्मा बुद्ध व भगवान महावीर ने अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाने का संदेश देते हुए इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि ‘आवश्यकता से अधिक संचित करना, दूसरों के अधिकारों का हनन है। इसलिए लालच को त्याग कर, अपरिग्रह दोष से बचना चाहिए। आवश्यकताएं तो सुविधापूर्वक पूर्ण की जा सकती हैं, परन्तु अनंत इच्छाओं की पूर्ति सीमित साधनों द्वारा संभव नहीं है। यदि इच्छाएं सीमित होंगी तो हमारा मन इत-उत भटकेगा नहीं, हमारे वश में रहेगा क्योंकि मानव देने में अर्थात् दूसरे के हित में  योगदान देकर आत्म-संतोष का अनुभव करता है।

संतोष सबसे बड़ा धन है। रहीम जी की पंक्तियां ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ में निहित है जीवन-दर्शन अर्थात् जीवन जीने की कला। संतुष्ट मानव को दुनिया के समस्त आकर्षण व धन-संपत्ति धूलि सम नज़र आते हैं क्योंकि जहां संतोष व संतुष्टि है, वहां सब इच्छाओं पर पूर्ण विराम लग जाता है… उनका अस्तित्व नष्ट हो जाता है।

आत्म-परिष्कार शांति पाने का सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम उपाय है। दूसरों को सुधारने की अपेक्षा, अपने अंतर्मन में झांकना बेहतर है,इससे हमारी दुष्प्रवृत्तियों काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार पर स्वयंमेव ही अंकुश लग जाता है। परिणाम-स्वरूप इच्छाओं का शमन हो जाने के उपरांत मन कभी अशांत होकर इत-उत नहीं भटकता क्योंकि इच्छा व अपेक्षा ही सब दु:खों का मूल है। शांति पाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है…जो हमें मिला है, उसी में संतोष करना तथा उन नेमतों के लिए उस अलौकिक सत्ता का धन्यवाद करना।

भोर होते ही हमें एक नयी सुबह देखने का अवसर प्रदान करने के लिए, मालिक का आभार व्यक्त करना हमारा मुख्य दायित्व है। वह कदम-कदम पर हमारे साथ चलता है, हमारी रक्षा करता है और हमारे लिए क्या बेहतर है, हमसे बेहतर जानता है। इसलिए तो जो ‘तिद् भावे सो भलि कार’ अर्थात् जो तुम्हें पसंद है, वही करना, वही देना…हम तो मूढ़-मूर्ख हैं। गुरुवाणी का यह संदेश उपरोक्त भाव को प्रकट करता है। मुझे स्मरण हो रहा है सुधांशु जी द्वारा बखान किया  गया वह प्रसंग…’जब मैं विपत्ति में आपसे सहायता की ग़ुहार लगा रहा था,उस स्थिति में आप मेरे साथ क्यों नहीं थे? इस पर प्रभु ने उत्तर दिया कि ‘मैं तो सदैव साये की भांति अपने भक्तों के साथ रहता हूं। निराश मत हो, जब तुम भंवर में फंसे आर्त्तनाद कर रहे थे, बहुत हैरान-परेशान व आकुल- व्याकुल थे—मैं तुम्हें गोदी में उठाकर चल रहा था— इसीलिए तुम मेरा साया नहीं देख पाए’…दर्शाता है कि परमात्मा सदैव हमारे साथ रहते हैं, हमारा मंगल चाहते हैं, परंतु माया-मोह व सांसारिक आकर्षणों में  लिप्त मानव उसे देख नहीं पाता। आइए!अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा, दूसरों से अपेक्षा करना बंद करें…परमात्म सत्ता को स्वीकारते हुए, दूसरों से किसी प्रकार की अपेक्षा न करें तथा उसे पाने का हर संभव प्रयास करें, क्योंकि उसी में अलौकिक आनंद है और वही है जीते जी मुक्ति।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ पानी कहीं कहानी ना बन जाए ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।  आज प्रस्तुत है जल की महत्ता पर आधारित श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  का आलेख  पानी कहीं कहानी ना बन जाए.)

 

पानी कहीं कहानी ना बन जाए ☆

 

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून

पानी बिना ना ऊबरे मोती मानुष चून।।

 

बचपन से पढते आए हैं और पानी के महत्व को समझकर भी नासमझी का ढोंग करते आए हैं। मगर आज ग्लोबल वार्मिंग की विभीषिका और उससे होने वाले दुष्प्रभावों ने  सोचने पर मजबूर कर दिया है कि “पानी कहीं कहानी ना बन जाए”कुछ उसी तरह जिस तरह आज वह ” पानी” भी लुप्तप्राय है – – भारत से ही नहीं पूरी पृथ्वी पर से – – – वह है इंसानियत का पानी, सद्भाव का पानी, निःस्वार्थ भाव- विभाव – अनुभाव का पानी, एक दूसरे के लिए मर मिटने की लगन का पानी, मानवता के नाम निष्ठा का पानी, सृष्टि के प्रति नैतिक जिम्मेदारी का पानी- – – और जिस दिन उपरोक्त सारे आब उर्फ पानी को हम बचा लेंगे निःसंदेह गले की प्यास बुझाने वाला पानी स्वयंमेव हमारे आंगनों, हमारे घरों और हमारे होठों की पहुंच में होगा।

भौतिकता की दौड़ में मानव-जाति जिस तरह कांक्रीट के जंगल निर्माण कर रही है – -पेड़ों की अंधाधुंध कटाई चल रही है कि–

कटी हुई हर शाख से, चीखा एक कबीर!

मूरख आज इस आरी से, अपना कल मत चीर।!

कबीर की सीखों पर चलते हुए समाज में बहुत सकारात्मक बदलाव आए हैं अतः आज कबीर के नाम पर पुनः इस ईश सीख को अपना लें तो इस धरती पर  पानी कहानी नहीं जीवन की रवानी बन कर प्रवाहित रहेगा— हमेशा हमेशा हमेशा– आदि से अनादि तक, शून्य से अनंत तक, अणु से विराट तक, कण से ब्रम्हांड तक – और जल है तो जीवन है  की कहानी चलती रहेगी, चलती रहेगी अनवरत मानव जाति के साथ क्योंकि पंचभूतात्मक सत्य है – – कि क्षिति जल पावक गगन समीरा पंचतत्व विधि रची सरीरा!!—“और पानी कभी कहानी नहीं बनेगा “

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 18 ☆ मन ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  का  एक अतिसुन्दर आलेख  “मन”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 18  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ मन

 

“मन” क्या है?

मन का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है. जैसे भी विचार हमारे मन में विचरण करते है उसी प्रकार का हमारा शरीर भी ढल जाता है. मन शब्द में इतना प्रवाह है की वो किसी प्रभाव को नहीं रोक सकता. मन के पंख इतने फड़फड़ाते हैं कि वो जब भी जहाँ चाहे उड़ सकता है.

मन नहीं है, तो किसी से नहीं मिलो. मन है तो मिलते ही रहो. मन में यदि कुछ पाने की तमन्ना है और आशावादी विचार हैं, तो मन के मुताबिक कार्य भी संभव हो जाता है.

सब कुछ मन पर निर्भर है जैसे कहा गया है… “मन के हारे हार है मन के जीते जीत “ यानि मन रूपी चक्की में शुद्ध विचार रूपी गेहूं डालो तो परिणाम अच्छा ही मिलेगा.

जैसे सूरदास जी लिख गये … उधौ मन न भय दस बीस ….मन तो एक ही है.  एक ही को दिया जा सकता है …और जो लोग मन को भटकाते फिरते हैं, उनकी चिंतन शक्ति में कुछ कमी है.

कहा भी गया है… “नर हो न निराश करो मन को ….जब मनुष्य का मन मर जाता है तो उसके लिए सब कुछ व्यर्थ है, अर्थरहित है और जब मन क्रियाशील रहता है तब हम मन से कुछ भी कर सकते है.

कबीरदास जी  का यह कथन याद आता है  .. “मन निर्मल होने पर आचरण निर्मल होगा और आचरण निर्मल होने से ही आदर्श मनुष्य का निर्माण हो सकेगा। किन्तु, आज के इस परिवेश में मन निर्मल तो बहुत दूर की बात है.

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधीजी के सिद्धांत और आज की युवा पीढी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों के अध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है. हम प्रयास करेंगे कि आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें. )

 

☆ गांधीजी के सिद्धांत और आज की युवा पीढी ☆

 

मध्य प्रदेश राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, भोपाल प्रतिवर्ष हिंदी भवन के माध्यम से प्रतिभा प्रोत्साहन राज्य स्तरीय वाद विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करता है और श्री सुशील कुमार केडिया अपने माता पिता स्व. श्री महावीर प्रसाद केडिया व स्व. श्रीमती पन्ना देवी केडिया की स्मृति में पुरस्कार देते हैं। इस वर्ष भी यह आयोजन दिनांक 12.10.2019 को हिंदी भवन में हुआ और महात्मा गांधी के 150वें जन्मोत्सव के सन्दर्भ में  वाद विवाद का विषय था  ‘जीवन की सार्थकता के लिए गांधीजी के सिद्धांतों का अनुकरण आवश्यक है’।

वाद-विवाद में 26 जिलों के स्कूलों से पचास छात्र आये, 25 पक्ष में और 25 विपक्ष में। इन्होने  अपने विचार जोशीले युवा अंदाज में लेकिन मर्यादित भाषा में प्रस्तुत किए। विपक्ष ने भी कहीं भी महामानव के प्रति अशोभनीय भाषा का प्रयोग नहीं किया और अपनी बात पूरी शालीनता से रखी । विषय गंभीर था, विषय वस्तु व्यापक थी, चर्चा के केंद्र बिंदु में ऐसा व्यक्तित्व था जिसे देश विदेश सम्मान की दृष्टी से देखता है और भारत की जनता उन्हें  राष्ट्र पिता कहकर संबोधित करती है। गांधीजी के सिद्धांत भारतीय मनस्वियों के चिंतन पर आधारित हैं, समाज में नैतिक मूल्यों की वकालत करते हैं, विभिन्न धर्मों के सार से सुसज्जित हैं  और इन विचारों पर अनेक पुस्तकें भी उपलब्ध हैं, आये दिन पत्र-पत्रिकाओं में कुछ न कुछ  छपता रहता है। अत: पक्ष के पास बोलने को बहुत कुछ था और उनके तर्क भी जोरदार होने ही थे । दूसरी ओर विपक्ष के पास ऐसे नैतिक मूल्यों, जिनकी शिक्षा का  भारतीय समाज में व्यापक प्रभाव है, के विरोध में तर्क देना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य था, फिर उन्हें लेखों व पुस्तकों से ज्यादा सहयोग नहीं मिलना था अत: उन्हें  अपने तर्क स्वज्ञान व बुद्धि से प्रस्तुत करने थे।

हिन्दी भवन के मंत्री और संचालक श्री कैलाश चन्द्र पन्त ने मुझे, श्री विभांशु जोशी तथा श्री अनिल बिहारी श्रीवास्तव के साथ  निर्णायक मंडल में शामिल किया लेकिन जब  वाद विवाद की विषयवस्तु  मुझे पता चली तो मैं थोड़ा दुविधागृस्त भी हुआ क्योंकि गांधीजी के प्रति मेरी भक्तिपूर्ण आस्था है।  जब हमने छात्रों को सुना तो निर्णय लेने में काफी मशक्कत करनी पडी। विशेषकर कई विपक्षी  छात्रों के तर्कों  ने मुझे आकर्षित किया। आयशा कशिश ने रामचरित मानस से अनेक उद्धरण देकर गांधीजी के सिद्धांत सत्य व अहिंसा को अनुकरणीय मानने से नकारा तो बुरहानपुर की मेघना के तर्क अहिंसा को लेकर गांधीजी की बातों की पुष्टि करते नज़र आये। विपक्ष ने मुख्यत: गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत को आज के परिप्रेक्ष्य में आतंकवाद से लड़ने व सीमाओं की सुरक्षा के लिए अनुकरणीय नहीं माना और पक्ष के लोग इस तर्क का कोई ख़ास खंडन करते न दिखे। कुछ विपक्षी वक्ताओं ने तो तो 1942 में गांधीजी के आह्वान ‘करो या मरो’ को एक प्रकार से  हिंसा की श्रेणी में रखा। अनेक विपक्षी वक्ता  तो इस मत के थे कि हमें आज़ादी दिलाने  में हिंसक गतिविधियों का सर्वाधिक योगदान है।   ऐसे वक्ता कवि की इन पक्तियों  ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल´ से सहमत नहीं दिखे । उनके मतानुसार आज़ाद हिन्द फ़ौज के 26000 शहीद सैनिकों   और सरदार भगत सिंह जैसे अनेक  क्रांतिकारियों का बलिदान युक्त  योगदान देश को आज़ादी दिलाने में है जिसे नकारा नहीं जा सकता। विपक्ष ने गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत को भी अनुकरणीय नहीं माना, वक्ताओं के अनुसार इस सिद्धांत के परिपालन से लोगों में धन न कमाने की भावना बलवती होगी और यदि अमीरों के द्वारा कमाया गया धन गरीबों में बांटा जाएगा तो वे और आलसी बनेंगे। विपक्षी वक्ताओं को गांधीजी का ब्रह्मचर्य का सिद्धांत भी पसंद नहीं आया उन्होंने इसे स्त्री पुरुष के आपसी सम्बन्ध व उपस्थित श्रोताओं के इसके अनुपालन न करने से जोड़ते हुए अनुकरणीय नहीं माना। उनके अनुसार यह सब कुछ गांधीजी की कुंठा का नतीजा भी हो सकता है।  पक्ष ने गांधीजी के इस सिद्धांत के आध्यात्मिक पहलू पर जोर दिया और बताने की कोशिश की कि गांधीजी के ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोग हमें इन्द्रीय तुष्टिकरण से आगे सोचते हुए काम, क्रोध, मद व लोभ पर नियंत्रण रखने हेतु प्रेरित करते हैं।  अपरिग्रह को लेकर भी विपक्षी वक्ता मुखर थे वे वर्तमान युग में भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु संम्पति के अधिकतम संग्रहण को बुरा मानते नहीं दिखे। विपक्ष के कुछ वक्ताओं ने गांधीजी की आत्मकथा से उद्धरण देते हुए कहा कि वे कस्तुरबा के प्रति सहिष्णु नहीं थे और न ही उन्होंने अपने पुत्रों की ओर खास ध्यान दिया। हरिलाल का उदाहरण  देते हुए एक वक्ता ने तो यहाँ तक कह दिया कि गजब गांधीजी अपने पुत्र से ही अपने विचारों का अनुसरण नहीं करवा सके तो हम उनके विचारों को अनुकरणीय कैसे मान सकते हैं। औद्योगीकरण को लेकर भी विपक्ष मुखर था। आज उन्हें गांधीजी का चरखा आकर्षित करता नहीं दिखा। छात्र सोचते हैं कि चरखा चला कर सबका तन नहीं ढका जा सकता। वे मानते हैं की कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने से अच्छी आमदनी देने वाला रोजगार नहीं मिलेगा, स्वदेशी को बढ़ावा देने से हम विश्व के अन्य देशों का मुकाबला नहीं कर सकेंगे  और न ही हमें नई नई वस्तुओं के उपभोग का मौक़ा मिलेगा।

वादविवाद प्रतियोगिता में गांधीजी के सरदार भगत सिंह को फांसी से न बचा पाने, त्रिपुरी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ सहयोगात्मक  रुख न अपनाने  व अपना उत्तराधिकारी चुनने में सरदार पटेल की उपेक्षा कर  जवाहरलाल नेहरु का पक्ष लेने को लेकर भी विपक्ष के वक्ताओं ने मर्यादित भाषा में टिप्पणियां की।

पूरे वाद विवाद में पक्ष या विपक्ष ने गांधीजी के सर्वधर्म समभाव, साम्प्रदायिक एकता, गौरक्षा, आदि को लेकर कोई विचार  कोई चर्चा नहीं की शायद यह सब विवादास्पद मुद्दे हैं और छात्र तथा उनके शिक्षकों ने उन्हें इस प्रतियोगिता हेतु मार्गदर्शन दिया होगा इस पर न बोलने की सलाह दी होगी।

वाद विवाद से एक तथ्य सामने आया कि प्रतियोगी सोशल मीडिया में लिखी जा रही निर्मूल बातों से ज्यादा प्रभावित नहीं है। एकाध त्रुटि को अनदेखा कर दिया जाय तो अधिकाँश बाते तथ्यों व संदर्भों पर आधारित थी । पक्ष ने जो कुछ बोला उसे तो हम सब सुनते आये हैं लेकिन विपक्ष की बातों का समुचित समाधान देना आवश्यक है और यह कार्य तो गांधीजी के सिद्धांतों के अध्येताओं को करना ही होगा अन्यथा नई पीढी अपनी शंकाओं को लिए दिग्भ्रमित रही आयेगी। मैंने भी इन प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश अपने अल्प अध्ययन से की है ।

यह सत्य है कि गान्धीजी के सिद्धांतों में अहिंसा पर बहुत जोर है। उनकी अहिंसा कायरों का हथियार नहीं है और न ही डरपोक बनने हेतु प्रेरित करती है। गांधीजी की अहिंसा सत्याग्रह और हृदय परिवर्तन के अमोघ अस्त्र से सुसज्जित है। दक्षिण अफ्रीका में तो गांधीजी पर मुस्लिम व ईसाई समुदाय के लोगों ने अनेक बार  प्राणघातक हमले किये पर हर बार गान्धीजी ने ऐसे क्रूर मनुष्यों का ह्रदय परिवर्तन कर अपना मित्र बनाया। भारत की आजादी के बाद जब कोलकाता में साम्प्रदायिक दंगे हुए और अनेक हिन्दुओं के दंगों मे मारे जाने की खबरों में सुहरावर्दी का नाम लिया गया तो गांधीजी ने सबसे पहले उन्हें ही चर्चा के लिए बुला भेजा। दोनों के बीच जो बातचीत हुई उसने सुहरावर्दी को हिन्दू मुस्लिम एकता का सबसे बड़ा पैरोकार बना दिया। गांधीजी ने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए आत्म बलिदान की बातें कहीं, जब कबाइली कश्मीर में घुस आये तो तत्कालीन सरकार ने फ़ौज भेजकर मुकाबला किया। इस निर्णय से गांधीजी की भी सहमति थी। हम हथियारों का उत्पादन  राष्ट्र की रक्षा के लिए करें और उसकी अंधी खरीद फरोख्त के चंगुल में न फंसे यही गांधीजी के विचार आज की स्थिति में होते। आंतकवादियों, नक्सलियों, राष्ट्र विरोधी ताकतों की गोली का मुकाबला गोली से ही करना होगा लेकिन बोली का रास्ता भी खुला रहना चाहिए ऐसा कहते हुए मैंने अनेक विद्वान् गांधीजनों को सुना है। हमे 1962 की लड़ाई से सीख मिली और सरकारों ने देश की रक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए अनेक कदम उठाये। इसके साथ ही बातचीत के रास्ते राजनीतिक व सैन्य स्तर पर भी उठाये गए हैं इससे शान्ति स्थापना में मदद मिली है और 1971 के बाद देश को किसी  बड़े युद्ध का सामना नहीं करना पडा। सभी मतभेद बातचीत से सुलझाए जाएँ यही गांधीजी  का रास्ता है।  बातचीत करो, अपील करो, दुनिया का ध्यान समस्या की ओर खीचों। समस्या का निदान भी ऐसे ही संभव है। हथियारों से हासिल सफलता स्थाई नहीं होती। विश्व में आज तमाम रासायनिक व परमाणु हथियारों को खतम करने की दिशा में प्रगति हो रही है यह सब गांधीजी के शिक्षा का ही नतीजा है। भारत और चीन के बीच अक्सर सीमाओं पर सैनिक आपस में भिड़ते रहते हैं और यदा कदा  तो चीनी सैनिक हमारी भूमि में घुस आते हैं, पर इन सब घटनाओं को  आपसी बातचीत और समझबूझ से ही निपटाया गया है। युद्ध तो अंतिम विकल्प है।

देश की आज़ादी का आन्दोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में लम्बे समय तक चला। इस दौरान गरम दल , नरम दल, हिंसा पर भरोसा रखने वाले अमर शहीद भगत सिंह व आज़ाद सरीखे  क्रांतिकारी और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज ने अपने अपने तरीके से देश की आज़ादी के लिए संघर्ष किया। लगभग सभी विचारों के नेताओं ने  आज़ादी के  आन्दोलन में  महात्मा गांधी के नेतृत्व को स्वीकार किया। स्वयं महात्मा गांधी ने भी समय समय पर  इन सब क्रांतिवीरों के आत्मोत्सर्ग व सर्वोच्च बलदान की भावना की प्रसंशा की थी ।गांधीजी केवल यही चाहते थे कि युवा जोश में आकर हिंसक रास्ता न अपनाएँ। इस दिशा में उन्होंने अनथक प्रयास भी किये, वे स्वयं भी अनेक क्रांतिकारियों से मिले और उन्हें अहिंसा के रास्ते पर लाने में सफल हुए। वस्तुत: सरदार भगत सिंह की फांसी के बाद युवा वर्ग गांधीजी के रास्ते की ओर मुड़ गया इसके पीछे अंग्रेजों का जुल्म नहीं वरन गांधीजी की अहिंसा का व्यापक प्रभाव है।

गांधीजी ने देश के उद्योगपतियों के लिए ट्रस्टीशिप का  सिद्धांत प्रतिपादित किया था। जमना लाल बजाज, घनश्याम दास बिरला आदि ऐसे कुछ देशभक्त उद्योगपति हो गए जिन्होने  गांधीजी के निर्देशों को अक्षरक्ष अपने व्यापार में उतारा। गांधीजी  से प्रभावित इन उद्योगपतियोँ का उद्देश्य  केवल और केवल मुनाफा कमाना नहीं था। गांधीजी चाहते थे कि व्यापारी अनीति से धन न कमायें, नियम कानूनों का उल्लघन न करें, मुनाफाखोरी से बचें और समाज सेवा आदि की भावना के साथ कमाए हुए धन को जनता जनार्दन की भलाई के लिए खर्च करें। गांधीजी का यह सिद्धांत सुविधा-प्राप्त धनाड्य वर्ग को समाप्त करने के समाजवादी विचारों के उलट है। गांधीजी अमीरों के संरक्षण के पक्षधर हैं और मानते थे कि मजदूर और मालिक के बीच का भेद ट्रस्टीशिप के अनुपालन से मिट जाएगा और इससे पूंजीपतियों के विरुद्ध घृणा का भावना समाप्त हो जायेगी और यह सब अहिंसा के मार्ग को प्रशस्त करेगा। गांधीजी मानते थे कि ट्रस्टीशिप की भावना का विस्तार होने से शासन के हाथों शक्ति के केन्द्रीकरण रुक सकता है। आज अजीम प्रेमजी, रतन टाटा, आदि गोदरेज  या बिल गेट्स सरीखे अनेक उद्योगपति हैं जिन्होंने अपने जीवन में अर्जित सम्पति को  समाज सेवा और जनता जनार्दन की भलाई के लिए खर्च करने हेतु ट्रस्ट बनाए हैं।

गांधीजी के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने अपने पुत्रों की ओर ध्यान नहीं दिया। हरिलाल जो गांधीजी के ज्येष्ठ पुत्र थे उनका आचरण गांधीजी के विचारों के उलट था लेकिन गांधीजी के अनेक आन्दोलनों में, जोकि दक्षिण अफ्रीका में हुए, वे सहभागी थे। भारत में भी यद्दपि हरिलाल यायावर की जिन्दगी जीते थे पर अक्सर बा और बापू से भेंट करने पहुँच जाते। ऐसा ही एक संस्मरण कटनी रेलवे स्टेशन का है जहाँ उन्हें बा को संतरा भेंट करते हुए व बापू से यह कहते हुए दर्शाया गया है कि उनके महान बनने में बा का त्याग है। अपने ज्येष्ठ पुत्र के इस कथन से गांधीजी भी कभी असहमत नहीं दिखे ।  गांधीजी के अन्य तीन पुत्रों सर्वश्री मणिलाल, रामदास व देवदास ने तो बापू के सिद्धांतों के अनुरूप ही जीवन जिया। मणि लाल दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के आश्रमों की देखरेख करते रहे तो राम दास ने अपना जीवन यापन वर्धा में रहकर किया, देवदास गांधी तो हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक रहे। आज गांधीजी के पौत्र प्रपौत्र चमक धमक से दूर रहते हुए सादगी पूर्ण जीवन बिता रहे हैं और उनमे से कई तो अपने अपने क्षेत्र में विख्यात हैं। इन सबका विस्तृत विवरण गांधीजी की प्रपौत्री सुमित्रा कुलकर्णी ( रामदास गांधी की पुत्री ) ने अपनी पुस्तक ‘महात्मा गांधी मेरे पितामह’ में बड़े विस्तार से दिया है।

अपनी पत्नी कस्तूरबा को लेकर गांधीजी के विचारों में समय समय के साथ परिवर्तन आया है। कस्तूरबा तो त्यागमयी भारतीय पत्नी की छवि वाली अशिक्षित महिला थीं। विवाह के आरम्भिक दिनों से लेकर दक्षिण अफ्रीका के घर में पंचम कुल के अतिथि का पाखाना साफ़ करने को लेकर गांधीजी अपनी पत्नी के प्रति दुराग्रही दीखते हैं।  लेकिन पाखाना साफ़ करने के विवाद ने दोनों के मध्य जो सामंजस्य स्थापित किया उसकी मिसाल तो केवल कुछ ऋषियों के गृहस्त जीवन में ही दिखाई देती है। कस्तूरबा, बापू के प्रति पूरी तरह समर्पित थी। गांधीजी ने अपने जीवन काल में जो भी प्रयोग किये उनको कसौटी पर कसे जाने के लिए कस्तूरबा ने स्वयं को प्रस्तुत किया। गांधीजी के ईश्वर अगर सत्य हैं तो कस्तूरबा की भक्ति हिन्दू देवी देवताओं के प्रति भी थी। गांधीजी ने कभी भी उनके वृत, वार-त्यौहार में रोड़े नहीं अटकाए।  जब कभी कस्तूरबा बीमार पडी गांधीजी ने उनकी परिचर्या स्वयं की। चंपारण के सत्याग्रह के दौरान महिलाओं को शिक्षित करने का दायित्व गांधीजी ने अनपढ कस्तूरबा को ही दिया था। गांधीजी ने कस्तूरबा के योगदान को सदैव स्वीकार किया है।

छात्रों के मन में गांधीजी के यंत्रों व औद्योगीकरण को लेकर विचारों के प्रति भी अनेक आशंकाएं हैं।  कुटीर व लघु उद्योग धंधों के हिमायती गांधीजी को युवा पीढी  यंत्रों व बड़े उद्योगों का घोर विरोधी मानती है।  वास्तव मैं ऐसा है नहीं, हिन्द स्वराज में गांधीजी ने यंत्रों को लेकर जो विचार व्यक्त किये हैं और बाद में विभिन्न लेखों, पत्राचारों व साक्षात्कार  के माध्यम से अपनी बात कही है वह सिद्ध करती है कि गांधीजी ऐसी मशीनों के हिमायती थे जो मानव के श्रम व समय की बचत करे व रोजगार को बढ़ावा देने में सक्षम हो। वे चाहते थे कि मजदूर से उसकी ताकत व क्षमता से अधिक कार्य न करवाया जाय।

गांधीजी ने मशीनों का विरोध स्वदेशी को प्रोत्साहन देने के लिए नहीं वरन देश को गुलामी की जंजीरों का कारण मानते हुए किया था। वे तो स्वयं चाहते थे कि मेनचेस्टर से कपड़ा बुलाने के बजाय देश में ही मिलें लगाना सही कदम होगा। यंत्रीकरण और तकनीकी के बढ़ते प्रयोग ने रोज़गार के नए क्षेत्र खोले हैं। इससे पढ़े लिखे लोगों को रोजगार मिला है लेकिन उन लाखों लोगो का क्या जो किसी कारण उचित शिक्षा न प्राप्त कर सके या उनका कौशल उन्नयन नहीं हो सका। यंत्रीकरण का सोच समझ कर उपयोग करने से ऐसे अकुशल श्रमिकों की  आर्थिक हालत भी सुधरेगी। प्रजातंत्र में सबको जीने के लिए आवश्यक संसाधन और अवसर तो मिलने ही चाहिए।

अमर शहीद भगत सिंह की फांसी को लेकर हमें एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि स्वयं भगत सिंह अपने बचाव के लिए किसी भी आवेदन/अपील/पैरवी के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने अपने पिता किशन सिंह जी को भी दिनांक 04.10.1930 को कडा पत्र लिखकर अपनी पैरवी हेतु उनके द्वारा ब्रिटिश सरकार को दी गयी याचिका का विरोध किया था।दूसरी तरफ अंग्रेजों ने यह अफवाह फैलाई कि गांधीजी अगर वाइसराय से अपील करेंगे तो क्रांतिकारियों की फांसी की सजा माफ़ हो जायेगी। ऐसा कर अंग्रेज राष्ट्रीय आन्दोलन को कमजोर करना चाहते थे। गांधीजी ने लार्ड इरविन से व्यक्तिगत मुलाक़ात कर फांसी की सजा को स्थगित करने की अपील भी की थी और वाइसराय ने उन्हें आश्वासन भी दिया था  पर उनके इन प्रयासों को अंग्रेजों की कुटिलता के कारण सफलता नहीं मिली। नेताजी सुभाष बोस व गांधीजी के बीच बहुत प्रेम व सद्भाव था। नेताजी का झुकाव फ़ौजी अनुशासन की ओर शुरू से था। कांग्रेस के 1928 के कोलकाता अधिवेशन में स्वयंसेवकों को फ़ौजी ड्रेस में सुसज्जित कर नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष को सलामी दिलवाई थी, जिसे गांधीजी ने पसंद नहीं किया। त्रिपुरी कांग्रेस के बाद तो मतभेद बहुत गहरे हुए और नेताजी ने अपना रास्ता बदल लिया तथापि गांधीजी के प्रति उनकी श्रद्धा और भक्ति में कोई कमी न आई। महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहने वाले प्रथम भारतीय सुभाष बोस ही थे तो 23 जनवरी 1948 गांधीजी ने नेताजी के जन्मदिन पर उनकी राष्ट्रभक्ति व त्याग और बलिदान की भावना की भूरि भूरि प्रशंसा की थी।  पंडित जवाहरलाल नेहरु व सरदार वल्लभ भाई पटेल स्वाधीनता के अनेक पुजारियों में से ऐसे दो दैदीप्यमान नक्षत्र हैं जिन पर गांधीजी का असीम स्नेह व विश्वास था। जब अपना उत्तराधिकारी चुनने की बात आयी होगी तो गांधीजी भी दुविधागृस्त रहे होंगे। सरदार पटेल गांधीजी के कट्टर अनुयाई थे और शायद ही कभी उन्होंने गांधीजी की बातों का विरोध किया हो। सरदार पटेल कड़क स्वभाव के साथ साथ रुढ़िवादी परम्पराओं के भी विरोधी न थे। उनकी ख्याति अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भी कम ही थी। दूसरी ओर नेहरूजी मिजाज से पाश्चात्य संस्कृति में पले  बढे ऐसे नेता थे जिनकी लोकप्रियता आम जनमानस में सर्वाधिक थी।उनके परिवार के सभी सदस्य वैभवपूर्ण जीवन का त्याग कर स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े थे और अनेक बार जेल भी गए थे ।  वे स्वभाव से कोमल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते थे। उनका  अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के नेताओं से अच्छा परिचय था और स्वतंत्र भारत को, जिसकी छवि पश्चिम में सपेरों के देश के रूप में अधिक थी, ऐसे ही नेतृत्व की आवश्यकता थी । अपनी कतिपय असफलताओं के बावजूद पंडित नेहरु ने देश को न केवल कुशल नेतृत्व दिया, अनेक समस्याओं से बाहर निकाला और देश के विकास में दूरदृष्टि युक्त महती योगदान दिया। इसलिए उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता भी कहा जाता है।

मैंने छात्रों और युवाओं के मनोमस्तिष्क में गांधीजी को लेकर घुमड़ते  कुछ प्रश्नों का उत्तर खोजने  की  कोशिश की है। गांधीजी ने अपने विचारों को सबसे पहले हिन्द स्वराज और फिर सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा में लिखा। बाद के वर्षों में वे यंग इंडिया और हरिजन में भी लिखते रहे अथवा अपने भाषणों और पत्राचार के द्वारा स्वयं  के विचारों की व्याख्या करते रहे। गांधीजी के विचार, उनके प्रयोगों का नतीजा थे और अपने  विचारों तथा मान्यताओं पर वे आजीवन  दृढ़ रहे। गांधीजी पर अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय विद्वानों ने आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी हैं। इन सबको पढ़ पाना फिर उनका यथोचित विश्लेषण करना  सामान्य मानवी के बस में नहीं है। हमें आज भी गांधीजी के विचारों को बारम्बार पढने, उनका मनन और चिंतन करने की आवश्यकता है। विश्व की अनेक परेशानियों का हल आखिर गांधीजी सरीखे महामानव ही दिखा सकते हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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