हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ हरिशंकर परसाई… व्यंग्य से करते ठुकाई…!! ☆ – सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’

सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  नरसिंहपुर मध्यप्रदेश की वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’ जी का हृदय से आभार।)

✍  हरिशंकर परसाई… व्यंग्य से करते ठुकाई…!! ✍ 

सबसे गहरा घाव वो होता जो शब्दों से दिया जाता कि उसका कोई इलाज़ नहीं वो तो सीधा जाकर मर्म पर ही वार करता और ऐसा जख्म देता कि अगला टीस को न सह ही पाता और न कुछ कह पाता कि शब्द-बाण तो रह-रहकर चुभते कुछ इस तरह से हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा को स्थापित करने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी मध्यप्रदेश का गौरव कहलाने वाले और हर एक विषयवस्तु पर तिरछी नजर रखने वाले साहित्य शिरोमणि ‘हरिशंकर परसाई’ ने कलम रूपी हथियार की मदद से समाज की कुरीतियों ही नहीं हर एक विसंगति पर सटीक प्रहार करते हुये देश व समाज की देह में होने वाले पुराने से पुराने दर्द को भी मिटाने का सतत प्रयास किया कि ताकि इस तरह से वे एक ऐसा भारत बना सके जिसे देखकर कोई उसकी किसी भी प्रथा, सनातन परंपरा या किसी जात-पांत पर कोई ऊँगली उठा न सके कि ये इस विविध संस्कृति के पोषक धर्म-निरपेक्ष देश की वैश्विक पहचान हैं ।

इसलिये उन्होंने अपनी चाँद रूपी मातृभूमि पर धब्बे के समान दिखाई देने वाली छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी असमानता पर चुटीला कटाक्ष किया जिससे कि वो इन दाग़-धब्बों को आसमान की तरह फैली अपनी श्वेत चादर से विलग कर दाग़रहित होकर उभरे तो आजीवन हर विषय, हर परिस्थिति, हर व्यक्ति, हर नीति, हर घटना, हर प्रसंग, हर तीज-त्यौहार, हर सम-सामयिक मुद्दे, हर कमी, हर विशेषता और हर एक विचित्र दिखाई देने वाली बात को अपनी तेज-तर्रार कलम का निशाना बनाकर हंसी-हंसी में वो सब कह दिया जिसे यदि गुस्से में कहा या लिखा जाता तो शायद, उसका वो सर्वकालिक असर नहीं हो पाता कि मज़ाक तो बर्दाश्त किया जा सकता हैं लेकिन, क्रोध से क्रोध ही उपजता जिसके कारण उनका उद्देश्य बाधित हो जाता तो अपने हाथों में थामी हुई कलम को मीठी छूरी बनाकर ऐसा झटका दिया जैसे कोई कसाई किसी जानवर की गर्दन को एक झटके में ही हलाल कर देता हैं ।

कभी वो किसी धोबी की तरह समाज के उपर पड़े मटमैले आवरण को पटक-पटक कर धो उसे उजला बनाने का प्रयास करते तो कभी किसी डॉक्टर की तरह बड़ी निर्दयता से उसके घाव की चीर-फाड़ करते जिससे कि उसमें भरा हुआ सड़ी-गली कुरीतियों का मवाद बहर निक जाये तो समय-समय पर वे साहित्यकार से समाज सेवक बन एक जागरूक नागरिक होने के अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते यही वजह हैं कि उनका लिखा हुआ आज भी प्रासंगिक हैं कि कहने को भले ही समाज व समय में परिवर्तन हो गया लेकिन उसके भीतर अब भी बहुत गंदगी भरी हुई हैं जिसके दिखाई देने पर अक्सर उनका लिखा कोई वाक्य या व्यंग्य याद आ जाता और उनकी दूरदर्शिता का अहसास होता कि किस तरह से वे समय के पार देख लेते थे और आने वाली परिस्थितियों को महसूस कर उसका व्यंग्य में वर्णन कर देते थे तभी तो भ्रष्टाचार हो या फिर धर्मांतरण बहस या फिर राजनीति सब पर उनका लिखा हुआ कोई न कोई आदर्श लेखन जेहन में तैरने लगता हैं ।

 

साहित्य व समाज के ऐसे मर्मज्ञ और ज्ञानी आज ही के दिन अपने व्यंग्य से हम सबको एक अनूठा ज्ञान देने हम सबके बीच आये थे तो आज उनकी जन्मतिथि पर हम उनको ये शब्दांजलि अर्पित करते हैं और ये प्रयास करे कि जिस तरह के भारत का वे स्वपन देखते था या जिस तरह का वो इसे दुनिया के मानचित्र पर स्थापित करना चाहते थे वैसा ही कुछ सचमुच में कर पाये तो उनके शब्दों को वास्तविक मान-सम्मान दे पायेंगे ।

 

© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’*

नरसिंहपुर (म.प्र.)

 

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ सच्चे मानव परसाई जी ☆ – डॉ महेश दत्त मिश्र

डॉ महेश दत्त मिश्र

(डॉ महेश दत्त मिश्र महात्मा गांधी जी के निजी सचिव एवं पूर्व सांसद थे। जबलपुर विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग के प्रमुख भी रहे। मेरे अनुरोध पर परसाई के व्यक्तित्व एंव कृतित्व पर उन्होंने 1991 में ये लेख लिखा था। उनकी हस्तलिपि में मूल प्रति मेरे पास सुरक्षित है। – श्री जय प्रकाश पाण्डेय )

 

✍ परसाई जी के जन्मदिन पर विशेष – सच्चे मानव परसाई जी  ✍

 

मुझे लगता है श्रीमान हरिशंकर परसाई जब इस दुनिया में आने लगे तो उन्होंने विधाता से एक ही चीज मांगी कि हमें इन्सानियत दे दो, बाकी चीजें हम अपने बल पर हासिल कर लेंगे। उनको यह भी पता था कि जिस जमीन पर वे जन्म ले रहे हैं वह गुलाम देश की है इसलिए वहां जिंदगी कांटों भरी होगी, इसलिए स्वतंत्रता संग्राम में किशोरावस्था के कारण जूझे नहीं पर जुझारूपन उनमें बढ़ता चला गया और आगे चलकर तो सामाजिक और कौटुम्बिक मुसीबतों की बाढ़ सी आती रही। यह शेर उन पर ही लागू होता है….

“इलाही कुछ न दे लेकिन ये सौ देने का देना है,

अगर इंसान के पहलू में तू इंसान का दिल दे,

वो कुव्वत दे कि टक्कर लूं हरेक गरदावे से,

जो उलझाना है मौजों में,

न कश्ती दे न साहिल दे।”

परसाई के जीवन की गाथा हर प्रकार के लंबे संघर्ष की है। हर लड़ाई में उन्होंने मानवता और पैनी संवेदनशीलता से काम लिया और उन्हीं दिनों जब कलम उठाई तो वहां भी संघर्ष पैदा हो ही गया। कविता लिखते, ललित साहित्य लिखते या आलोचना के क्षेत्र में उतर पड़ते तो इतना विवाद नहीं होता। उन्होंने मुख्यतः व्यंग्य का सहारा लिया जिसको बरसों साहित्य ही नहीं माना गया, पर वे क्या करते ? उन्हें आसपास और दूर तक सभी क्षेत्रों में विकृतियां, विसंगतियां, पाखंड दुहरापन,  व्यक्तिवाद, निपट स्वार्थ दिखाई दे रहे थे। जिन मूल्यों और परंपराओं पर यह देश सदियों से टिका हुआ था उनका ढिंढोरा पीटकर भी उन्हें किस तरह तोड़ मरोड़ दिया जाए यह क्रम चल पड़ा था। राजनीति में यह ज्यादा हो रहा था पर उसका असर सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व्यवहार पर पड़ना ही था, इन्हीं सब को लेकर परसाई जी ने व्यंग्य किए, पाठकों के मनोरंजन के साथ उनके अंदर तिलमिलाहट भरी, सब को हंसाया भी खूब….. पर उन सब फब्तियों की तह में छुपा हुआ और संवेदनशील पाठक को झकझोरता हुआ एक यथार्थ भी है जो हंसी को क्षणिक बनाकर दिमाग को बेचैन कर देता है और सामाजिक रूप से अति निष्क्रिय को भी यह चेतना देता है कि ये हालत बदलने चाहिए। परसाई जी को वामपंथी माना गया, कम्युनिस्ट भी कहा गया इसलिए दूसरे खेमे में उन्हें नकारने की तरकीबें चलतीं रहीं पर उनका लेखन आमतौर पर साम्यवादी लेखन से भिन्न रहा। उनके लेखन में जो मानवीयता और संवेदनशीलता थी और हर व्यंग्य में से कुछ दिशा बोध का संकेत था उससे उनका साहित्य किसी खेमे से बंध नहीं पाया, वह व्यापक होता गया, समय के साथ उसमें प्रौढ़ता आई और आजकल तो वह व्यंग्य के साथ साथ सामयिक सवालों पर जो चर्चा कर रहे हैं इसलिए वे दूसरे व्यंग्यकारों से कितना अलग हैं, सैद्धांतिक सूझबूझ के धनी हैं और समन्वयात्मक दृष्टिकोण लेकर चल रहे हैं यह सब स्पष्ट होता जा रहा है।

 

एक स्मृति

(जय प्रकाश पाण्डेय के सम्पादन में प्रकाशित परसाई पर केंद्रित पुस्तक का विमोचन करते हुए महात्मा गाँधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डाक्टर महेश दत्त मिश्र और गया से पधारे प्रसिद्ध आलोचक श्री सुरेंद्र चौधरी ।बाजू में भारतीय स्टेट बैंक उप महाप्रबंधक सुरजीत बांगा साथ में प्रसिद्ध चित्रकार डॉ राम मनोहर सिन्हा)

 

राजनीति पर धार्मिक एवं सांप्रदायिक कट्टरता के असर के बारे में सबसे पहले उन्होंने मोर्चा लिया। अभी कुछ दिन पहले ही महात्मा गांधी का प्रभाव कैसे व्यापक हो रहा है इस पर लिखकर उन्होंने अपनी निष्पक्ष और बेबाक बात कह डाली। पिछले जमाने में कभी सर्वोदय के वातावरण में देखी गई कुछ बातों पर उन्होंने कटाक्ष करके गांधी भक्तों को नाराज कर दिया था। स्वर्गीय पंडित भवानी प्रसाद मिश्र से बातचीत में मैंने परसाई का पक्ष लिया भी। भवानी बाबू साम्यवाद विरोधियों से घिरे रहते थे इसलिए मेरी बात कितनी उनके गले उतरी, पता नहीं, पर परसाई जी के व्यंग्य के महत्व को मानते थे।

बहुत लोग व्यंग्य लिख रहे हैं अच्छा भी है इसलिए स्थान बन गया है मैं इनमें तुलना नहीं करूंगा। मैं लेखन को साहित्यकार के जीवन से जोड़कर उसका मूल्यांकन करता हूं। मैंने परसाई जी को ही ज्यादा पढ़ा है इसलिए किसी लेख में लिख भी दिया है कि परसाई की संवेदनशीलता उनकी कौटुम्बिक संवेदनशीलता में से निकली है और मार्क्सवादी प्रभाव में वह व्यापक हुई है क्योंकि मार्क्सवाद के सिद्धांत और अमल में आप चाहे जो दोष या कमियां ढूँढ लें उसका विश्लेषण बहुत सही है और समतावादी दृष्टिकोण शाश्वत हो गया है।

परसाई को समझना है तो उनके कौटुम्बिक जीवन में जरूर झांको, इसके साथ ही उनके आत्मीयों का बढ़ता हुआ समुदाय उनके सच्चे मानव होने का सबूत देता है। एक सहज स्वाभाव का जिस्म जो बिस्तर पर पड़े रहकर भी स्वस्थ मन से लगातार कलम चला रहा है, आज के विक्षुब्ध वातावरण की नब्ज टटोल रहा है यह क्यों ?

परसाई जी 67 के हो गए हैं उनके लंबे जीवन की कामना करते हुए यह भी कहूंगा कि 80-85 तक वे इतने ही स्वस्थ रह गए तो महात्मा गांधी पर बड़ा उपकार होगा जो मैं उनका चेला होकर भी नहीं कर पा रहा हूँ जबकि विश्व शांति आंदोलन से शुरू से जुड़ा होकर मैं जब तब सम्मेलनों में गांधी का जिक्र करके साम्यवादी मित्रों के मुंह बनाने को भुगतता रहा हूं। अपनी बात को ज्यादा तफसील में नहीं कह पाया न लिख पाया कि विश्व शांति क्या सभी तरह की प्रगति बिना अहिंसात्मक संघर्ष के नहीं आएगी। संघर्ष तो लाजिमी दिख रहा पर उसका तरीका गांधी महराज से ही सीखना होगा, भविष्य में ये सच्चे मानव परसाई ही लिख पायेंगे, इसी कामना के साथ छोटे भाई परसाई का जय-जयकार।

 

साभार:  श्री जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ परसाई को जानने के ख़तरे ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी   का हृदय से आभार।)

✍  परसाई स्मृति  – परसाई को जानने के ख़तरे ✍ 

 

सोचता हूँ, सुखी रहे वे जो परसाई के ज़्यादा नज़दीक नहीं आये। अपनी अपनी दुनिया में मगन रहे। शीशा सामने रखकर अपने पर रीझते रहे। कुछ ऐसे लोग भी रहे जो परसाई के दर्शन को जीवन का एक ज़रूरी काम समझकर उनसे मिले और उन्हें ज़्यादा पढ़े-गुने बिना गदगद भाव से चले गये। लेकिन जिसने सचमुच परसाई को पढ़ा-गुना वह निश्चय ही पहले जैसा नहीं रह गया होगा। परसाई उम्र भर अपनी शर्तों पर जिये, मुफ़लिसी को उन्होंने जानबूझकर गले लगाया, अपने शहर के लगभग सभी नामचीन लोगों के सामने दर्पण रखकर उन्हें अपना शत्रु बनाया, विचारधारा और आस्था के मामले में कभी कोई समझौता नहीं किया। दुख और परेशानी से स्थायी दोस्ती होने के बावजूद उन्होंने मेरी जानकारी में कोई कंधा नहीं तलाशा। भीतर से उन पर जो भी गुज़री हो, ऊपर से शायद ही किसी ने उन्हें दुखी या परेशान देखा हो, सिवा उन दिनों के जब वे असामान्य हो गये थे। ‘गर्दिश के दिन’ में उन्होंने ‘छाती कड़ी कर लेने’ की बात कही थी। उसे उन्होंने अन्त तक निभाया।

ऐसे व्यक्ति से ज़्यादा रब्त-ज़ब्त रखना मुसीबत बुलाना ही हो सकता है। मुझे विश्वास है जिसने परसाई के जीवन को ठीक से पढ़ा होगा वह जीवन में क्षुद्रता, स्वार्थपरता, कायरता, चाटुकारिता, अन्याय और शोषण के काबिल नहीं रहा होगा। मुश्किल यह है कि ये सभी आज सिद्धि की सीढ़ियाँ मानी जाती हैं। इसलिए परसाई को जानना सरल राजमार्ग को छोड़कर मुश्किलों वाले रास्ते को अपनाना है। मुझे विश्वास है कि यही संकट उनके सामने आया होगा जिन्होंने सतत जागने और रोने वाले कबीर के नज़दीक आने की कोशिश की होगी।

मुझे याद है मेरी एक कहानी, लेखन के शुरुआती दिनों में एक प्रतिष्ठित पत्रिका में छपी थी। मैं काफी खुश था। कहानी का मुख्य पात्र एक सामन्त था जो बुरे दिनों से गुज़र रहा था, लेकिन अपनी ग़ुरबत के बावजूद उसने वे कीमती ग़लीचे वापस लेने से इनकार कर दिया जो गाँव की एक लड़की की शादी में माँग कर ले जाए गये थे। सामन्त का तर्क सिर्फ यह था कि लड़की की शादी के लिए दी गयी चीज़ वापस नहीं ली जा सकती थी। कहानी सच्ची घटना पर आधारित और खूब भावुकता पूर्ण थी। लोगों ने पढ़ा और और भरपूर प्रशंसा की। कहानी की भावुकता पाठकों को बहा ले गयी। परसाई जी से मिला। वे उस कहानी को पढ़ चुके थे। अपने से छोटों के प्रति उनका भाव स्नेह का रहता था, बशर्ते कि व्यक्ति उन ‘गुणों’ से मुक्त हो जिनसे उन्हें ‘एलर्जी’ थी। उन्होंने सहज भाव से एक दो वाक्यों में कहानी की कमज़ोरी बता दी। बात मेरी समझ में आ गयी। मेरा दृष्टिकोण सन्तुलित नहीं था। नतीजा यह हुआ कि वह कहानी मेरे किसी संग्रह में नहीं आ सकी। परसाई के निकट आने के ऐसे ही दुष्परिणाम होते थे। आज मेरे कई मित्र परेशान हैं कि वह कहानी कहाँ गुम हो गयी।

परनिन्दा में परसाई की कभी रुचि नहीं रही। एक बार मैंने अपने एक मित्र के बारे में, जो उनके भी निकट थे, उनसे शिकायत की कि वे अपनी अच्छी-खासी प्रतिभा का सही उपयोग नहीं कर रहे हैं और अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं। परसाई जी ने तुरन्त मुझसे प्रश्न किया कि मैं कैसे कह सकता हूँ कि मेरे वे मित्र अपना जीवन नष्ट कर रहे थे। मैं अपनी भूल समझ गया। सही जीवन का पैमाना क्या है? क्या सामान्य-स्वीकृति प्राप्त जीवन ही सही जीवन है? मैं अपनी नासमझी के एहसास के साथ मौन हो गया।

अपने आत्मसम्मान के प्रति परसाई जी बहुत संवेदनशील थे। एक बार महाराष्ट्र के एक व्यंग्यकार उनसे मिलने आये थे। उनका स्वास्थ्य देखकर उन्होंने लौटकर  एक साप्ताहिक पत्रिका में पत्र प्रकाशित करवाया कि परसाई जी का स्वास्थ्य बहुत खराब है, शासन को उन्हें इमदाद देना चाहिए। परसाई जी ने तुरन्त उसी पत्रिका को पत्र दिया कि वे अपनी देखभाल करने में समर्थ हैं और उन्हें किसी प्रकार की सहायता की ज़रूरत नहीं है।
पैर खराब न होता तो शायद परसाई जी सामाजिक जीवन में ज़्यादा हस्तक्षेप कर सकते, उनका जीवन एक ‘एक्टिविस्ट’ का होता, क्योंकि खाने और सोने वाला जीवन उनका हो नहीं सकता था। अपनी असमर्थता के बावजूद अपनी सक्रियता और प्रासंगिकता को बनाये रखना उनके ही बूते का काम था

परसाई अपने पीछे जीवन और लेखन के बड़े मानदंड छोड़ गये, जिनके सामने व्यक्ति और लेखक बौना हो जाता है। सुखी और संतुष्ट जीवन के लिए ज़रूरी है कि परसाई के जीवन पर ज़्यादा देर तक नज़र न टिकायी जाये।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

(‘वसुधा’ के जून 1998 के अंक से)

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ वर्तमान परिदृश्य में परसाई की प्रासंगिकता ☆ – सुश्री अलका अग्रवाल सिग्तिया

सुश्री अलका अग्रवाल सिग्तिया

 

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  मुंबई की वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री अलका अग्रवाल सिग्तिया जी का हृदय से आभार।)

 

✍ वर्तमान परिदृश्य में परसाई की प्रासंगिकता। ✍

 

“जो अपने समय के प्रति ईमानदार नहीं वह अनन्त के प्रति कैसे ईमानदार हो सकता है।” परसाई अगर ऐसा लिखते हैं, तो उसके पीछे बहुत बड़ा मानवीय और सामाजिक सरोकार प्रतिबिम्बित होता है। वे ईमानदार रहे अपने लेखन अपनी प्रतिबद्धता को लेकर। हमेशा खड़े रहे परचम लेकर शोषितों के पक्ष में। व्यंग्य स्पिरिट की तरह ही मानकर लिखा, पर उनके व्यंग्य का फलक इतना विशाल है, कि वह एक विधा बन गया। विश्वगत, देशगत, सामाजिक, व्यक्तिगत कोई भी विद्रूप या विसंगति उनकी माइक्रोस्कोपी दृष्टि से छूट नहीं सके। स्थूल यथार्थ के पीछे छिपे कारणों का हमेशा उन्होंने विश्लेषण किया। उनके इसी विशेष यथार्थ बोध ने उन्हें व्यंग्य के शीर्ष पर स्थापित किया। परसाई के समूचे लेखन में राजनीतिक, आर्थिक सामाजिक, धार्मिक विसंगतियाँ जैसे दो मुँहापन, भाई-भतीजावाद, अवसरवाद, भ्रष्टाचार पर प्रहार है। कहीं मखमल की चादर में ढका हुआ, तो कहीं, वज्र की मार करने वाला, स्तुलस की धार सा। उन्हें पढ़कर पाठक वो नहीं रह पाता जो पढ़ने से पहले था, क्योंकि परसाई ने हमेशा बदलाव के लिए लिखा। इसलिए स्वतंत्रता के बाद जो मोहमंत्र की स्थिति बनी थी, अब तक रूप बदलकर बनी हुई है। “आजादी की घास”, “उखड़े खम्भें”, “अकाल-उत्सव'”जैसी अनकों रचनाऐं, आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी आज से बरसों पहले थीं।

आधुनिक पूंजीवादी युग में मध्यमवर्ग कुकुरमुत्ते की तरह उगा है। यह वर्ग परसाई के लेखन का प्रमुख विषय होने से इस वर्ग की विवशता, आडंबर ओढ़ा हुआ चरित्र, पद-लोलुपता कुछ भी तो उनकी पैनी दृष्टि से छिपा नहीं रह सका। परसाई ने पारिवारिक आर्थिक और जीवन के उन संदर्भों को रेखांकित किया है जो मध्यमवर्गीय नैतिकता के साथ ही मध्यमवर्गीय व्यामोह को तोड़ने में सहायक है। मध्यमवर्गीय त्रस्त मानवता उनके साहित्य में नए सदर्भों में प्रस्तुत हुई है  “किसी भी तरह” में आस्था रखने वाले इस वर्ग और नौकरशाही की अपंगता को उन्होंने विस्तार के साथ चित्रित किया है। “असुविधाभोगी”, “सज्जन दुर्जन”, “काँग्रेसजन”, “बुद्धिवादी”, “दो नाक वाले लोग” आदि रचनाएं दोहरा जीवन जी रहे लोगों के चेहरे पर चढ़े नकाब को उतारती है। लेखक व नौकरशाह आज भी  दोहरे मापदंड की जीवन शैली को अपनाते है। दृष्टव्य है – ‘साहित्यजीवी की आमदनी’ जब 1500 रुपए महीना हुई, तो उसने पहली बार एक लेख में लिखा – “इस देश के लेखक सुविधा भोगी हो गए हैं। वे अपने समाज की समस्याओं में कटे रहते हैं। आमदनी 4000 रुपए होने पर, कमेटी जीवी, पेपर जीवी, परीक्षा जीवी होने पर वह बार-बार यह बात दोहराने लगा।”

ऐसे लोग शासन को नाराज नहीं करते, छद्म क्रांतिकारिता की बात करते हैं। खुद शासन की सुविधाओं का लाभ उठाते हैं, पर दूसरे लेखकों पर इसी व्यवहार के लिए तानाकशी करते है। ये मध्यमवर्गीय लोग त्रिशंकु बन जाते हैं। उच्चवर्गीय चरित्र इन पर हावी होने लगता है। अपने आपको निम्मवर्ग का हितैषी भी बताते हैं। “बुद्धिवादी” ऐसा ही चरित्र है – “35 डिग्री सर घुमाकर सोफे पर कोहनी टिकाकर हथेली पर ढुड्डी साधकर वे जब भर नजर हमें देखते हैं तो हम उनके बौद्धिक आतंक से डूब जाते हैं।”

कोहेन बैंडी और प्रोफेसर मार्क्यूज के स्टूडेण्ट पावर बात करते हुए वह युवा वर्ग को स्वतंत्रता देने की बात करता है, पर खुद की बेटी के अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता देने को कतई तैयार नहीं। प्रकट तौर पर धर्म-निरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता की बात करता है, पर जातीय भेदभाव और सांप्रदायिकता की बातें भी करता है, गोरक्षा आंदोलन की आग भी फैलाता है। आज भी शत-प्रतिशत यही स्थितियाँ परिस्थितियाँ है। ऐसे में परसाई बहुत ही प्रासंगिक है।

वर्तमान परिदृष्य में चारों ओर अराजकता फैली हैं। पूंजीवाद, साम्राज्यवाद पूरे विश्व को अपनी गिरफ्त में ले चुके हैं। और ऐसा नहीं है कि व्यक्ति पर देश-विदेश की परिस्थिति का प्रभाव नहीं पड़ता। आज वर्तमान में पूरा विश्व एक गांव बन चुका है। मुक्ति बोध में बहुत सटीक निरीक्षण करके लिखा – “परसाई जी का लेखन दुनिया की मौजूदा समकालीन जटिलता में एक साहसिक सफर, एक हरावल दस्ता और एक कुतुबनुमा की शक्ल एक साथ अख़्तियार कर लेता है। वह ऐसा रचनात्मक साहित्य है जिसे ज्ञानात्मक साहित्य की तरह सही और गलत की कसौटी पर भी परखा जा सकता है। और जो ईमानदारी और प्रामाणिकता की अन्तर्किया की आधुनिक अवधारणा पर भी खरा उतरता है।”

अमेरीका पूरे विश्व पर हमेशा से शासन करना चाहता है। तेल पर अपना कब्जा करने के लिए गल्फ देशों का विनाश, अब सीरिया में दादागिरी कर रहा है। सब बर्दाश्त भी करते हैं। क्यों?…परसाई लिखते हैं – “अमेरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं। बम बरसते हैं, तो मरने वाले सोचते हैं सभ्यता बरस रही हैं।” वही परिदृश्य आज भी है। परसाई का लेखन स्वतंत्रता के बाद के भारत का ऐसा विश्वसनीय ऐतिहासिक दस्तावेज है, जिसमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश उनसे जुड़े व्यक्ति और उनमें पनपता भ्रष्टाचार दूरदर्शी दृष्टि के आलोक में उजागर हुए हैं। अमानवीय अर्थविश्व या पूंजीवाद के अंतर्राष्ट्रीय दुष्टचक्रों, प्रभावों और इस व्यवस्था के वर्ग स्वार्थों को व्यापक तौर पर पहचानकर इस तरह शब्दों में निबद्ध किया है, कि वो अपनी सार्थकता के साथ वर्तमान परिदृश्य में आज भी उतने ही सामायिक हैं। उनके स्तंभ `कबिरा खड़ा बाजार में’ तत्कालीन वैश्विक परिदृश्य पर भी कटाक्ष हैं। “राष्ट्रपति निक्सन से भेंट” में परसाई के भीतर बैठा कबीर लिखता है – “अमेरिका में योगी, साधु, सन्त, फकीर की बड़ी पूछ है। अमेरिकी बड़ा विचित्र आदमी होता है। वह भीतरी व्यक्तिगत शांति तो चाहता है, पर बाहर सरकार को अशांति फैलाने देता है।” कबीर अमेरिकी गुप्तचर विभाग के आदमी से कहता है – “दुनिया भर में तुम्हारी जासूसी का जाल फैला है।” कबीर ने निक्सन से पूछा – “एशिया में आपका क्या स्वार्थ है?”

निक्सन ने कहा – “बिग पावर का यह कर्तव्य है कि वह कहीं शांति ना रहने दे। सब डर के साये में जिंदा रहें। इसीलिए कहीं हमारा सातवां बेड़ा है, कहीं हमारा छठवां बेड़ा है। शांति ही रही तो हमें महाशक्ति कौन मानेगा? फिर इतना पैसा, इतना हथियार, इनका भी तो कुछ करना पड़ेगा। हर महाद्वीप में हमारे चमचे देश हैं, उन्हें दिखाने के लिए, कुछ तो करते रहना चाहिए। कुछ सरफिरे लोग यानी कम्यूनिस्ट इसे `अमेरिकी साम्राज्यवाद’ कहते हैं – पर सही अर्थ में यह `अमेरिकी मजबूरी हैं।” आज भी अमेरिका मजबूर हो दूसरों के फटे तो फटे, जुड़े हुए में भी टांग अड़ाने को।

राजनीति, समाज, शिक्षा, मेडिकल देश ही नहीं विदेश भी सबकुछ चित्रित है, उनके रचना संसार में। मेडिकल क्षेत्र में व्याप्त धांधली बहोत आम हो गयी है। इलाज इतना महँगा हो गया है कि आम आदमी प्राइवेट अस्पताल में भरती होने की औकात नहीं रहता। सरकारी अस्पताल में सुविधाएं नहीं हैं। अभी हाल ही में मुंबई के एक अस्पताल में मरीज को आंखों पर चूहे ने काट लिया। निजी अस्पताल में उसके इलाज पर 10 लाख खर्च हो चुके थे, और पैसे नहीं थे तब सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। कोमा के उस मरीज को चूहे ने काट लिया उसकी मौत हो गई। एक अस्पताल में एक युवक जो अपनी किसी रिश्तेदार का एम.आर.आई. कराने अस्पताल गया था। वहाँ किसी ने नहीं बताया कि ऑक्सीजन-सिलेंडर के साथ अंदर नहीं जाना। मशीन भी संभवत: कुछ खराब थी। बीमार रिश्तेदार को मशीन ने अंदर खींचा तो यह युवक उन्हें बचाने के लिए दौड़ा, हुआ यह मशीन ने उसे अंदर खींच लिया, जहा दम घुटने से उसकी मौत हो गई। डॉक्टरों ने मेडिकल को भी एक व्यापार बना लिया है।

कई बार मृत आदमी को भी वैंटिलेटर पर रखकर अस्पताल पैसे बनाते हैं। परसाई का कबीर जब डॉक्टरों से भेंट करता है मेडिकल क्षेत्र में व्याप्त धांधलियों को अनावृत करता है। कबीर गरीब रामदास के इलाज का इंतजाम कराना चाहता है। कनछेदी उसे कहता है –  “अरे रोग से आदमी बच जाता है, पर डॉक्टरों से नहीं बचता। – पिछले साल मेरे चचेरे भाई बीमार पड़े, डॉक्टर को बुलाया, भाई मर चुके थे पर डॉक्टर उस मुर्दे को ही एक इंजेक्शन दे दिया और 35 रुपए ले लिए रामदास पेड़ के नीचे पड़ा है डॉक्टर उसे एडमिट नहीं कर रहे, यह कहककर कि बैड खाली नहीं है। कबीर के यह कहने पर बैड खाली है डॉक्टर कहता है, “उसे जिस बैड पर डालो वही उछालकर फेंक देता है” अभी शत-प्रतिशत यही हालात है।  जिनका भी वास्ता आज अस्पतालों या डॉक्टरों से पड़ता है, उनमे से ज्यादातर लोगों अनुभव अच्छा नहीं है।

ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां परसाई की पड़ताली दृष्टि नहीं पड़ी। उनकी कलम हर परिस्थिति का सूक्ष्म भेदन कर गहरे पैठ कर, करती है। `वॉक आउट, स्लीप आउट ईट आउट’ संसद में सांसदों के बर्ताव पर जो व्यंग्य सालों-पहले लिखा गया था, आज भी उतना ही सटीक है। उनकी कितनी रचनाएँ ऐसी हैं, जो आज के परिदृष्य को वर्षों पहले रेखांकित कर चुकी हैं। सर्वे और सुंदरी में उन्होंने लिखा – “जब से खबर पढ़ी है कि सर्वे ऑफ इंडिया के किसी दफ्तर में दो पाकिस्तानी सुंदरियाँ एक अफसर के साथ रात भर रही और सुबह नक्शे लेकर फरार हो गईं। तब से मन डाँवाडोल है। मैंने आज तक नहीं सोचा था इस भद्दे अभागे दफ्तर में इतनी कोमल सम्भावनाएँ छिपी हैं कि इसमें इतने दूर पाकिस्तान से आकर सुन्दरी रात बिताती है। यह दफ्तर बड़ा प्यारा लगने लगा है।” वर्षों पहले परसाईजीने हनी ट्रैप पर अपनी कलम चलाई थीं और इधर इसी साल समाचारपत्र और मीडिया कई नए हनी ट्रैप का खुलासा कर रहे हैं। 15 फरवरी 2018 के समाचार पत्र में समाचार छपा था एक अौर हनी ट्रैप, जबलपुर के एक लेफ्टिनेंट कर्नल को पकड़ा गया। पाकिस्तान की सुंदरियों का निशाना बने थे। सर्वे और सुंदरी में साहब कहता है, “पाकिस्तान से हमारे रिश्ते इतने अच्छे हो गए कि टैंकों के बदले सुन्दरी भेजता है।” सर्वे साहब सुंदरियों को आमंत्रित करता है लड़ाई के वक्त काम आनेवाले नक्शे देखकर वे पूछती हैं – साहब हम ले लें?” “साहब कहते हैं – जितने चाहे ले लीजिए। आप चाहें तो पूरा देश ही उठा कर दे सकता हूँ।….”  रात गुजाकर सवेरे सुंदरियाँ नक्शे लेकर चलीं। साहब ने कहा, “आज और रुके जातीं तो मैं कुछ नक्शे और दे देता।”

परसाई आगे व्यंग्य की धार और तीव्र करते हैं, संसद में कितना शोर हुआ। इतनी दूर से सुन्दर स्त्री आशा लगाकर आए, और हमारा अफसर इतना हृदयहीन हो जाए, कि दो चार नक्शे भी न दें। इस रचना के अंत में परसाई लिखते हैं – हर हिन्दू देशभक्त है, – सुन्दरी के आने तक।” चीन, पाकिस्तान, अन्य देश अब भी आदम की इस कमजोरी को समझते है हौवा को भेजकर गुप्त सूचना निकलवाते हैं।

कहां बदला परसाई का देश इतने सालों में भी। यदि बदला होता, तो पुल बनते हुए या बनने के बाद धाराशायी न होते। भ्रष्टाचारी ठेकेदार, कितने कमजोर पुल बनाते हैं। बनारस में चैकाघाट-लहरपारा फ्लायओवर कि दो बीमें गिरी, कई लोग मर गये। कलकत्ता में पुल गिर गया ऐसी घटनाओं को देखकर परसाई की रचना “पहला पुल” अनायास ही ज़हन में कौंध गई। लोककर्म विभाग के बाबू रामसेवक ने हनुमान जी की आज्ञा से नौकरी छोड़कर नए संदर्भों में राम कथा अपने ऑफिस से लाए खाली मेमो फॉर्म्स् पर लिखनी आरंभ की। सेतुबंध की कथा कुछ यूं लिखी। जिस पुल पर से राम लंका गए थे, वह दूसरा पुल था, पहला पुल उससे पहले बन चुका था।

“जब पुल तैयार हो गया, तब नल-नील रामचंद्र के पास आए, साष्टांग दण्डवत करके बोले प्रभु पुल बनकर तैयार हो गया है।” राम ने उनकी और आश्चर्य से देखा और कहा – क्या कहते हो? पुल बन गया?…अभी तो मैंने उसका शिलान्यास किया है। जिसका शिलान्यास हो, वह इतनी जल्दी नहीं बनता, बल्कि बनता ही नहीं है। जिन्हें बनना होता है, उनका शिलान्यास नहीं होता।” राम ने सुग्रीव से कहा, “बन्धु पुल बन गया है कल ही सेना को उस पर चलने का आदेश दो। सुग्रीव ने चौंककर कहा, प्रभु कैसी अनहोनी बात करते हैं, अभी पुल का उद्घाटन तो हुआ नहीं है।” राम ने कहा, “एक दिन की देर से भी सीता का अहित हो सकता है। उद्घाटन वाली प्रथा पालना आवश्यक नहीं।”

“सुग्रीव तो आसमान से गिरते-गिरते ही बचा। उसने कहा महाराज कितने पुल वर्षों से बने पड़े हैं, पर उन पर कोई नहीं चलता क्योंकि उनका उद्घाटन नहीं हो सका है। महाराज पुल पार उतरने के लिए नहीं बल्कि उद्घाटन के लिए बनाए जाते हैं। पार उतरने के लिए उनका उपयोग हो जाता है, प्रासंगिक बात है।” राजा जनक को उद्घाटन के लिए सुग्रीव के खर्च पर बुलाया गया, उनके आने में जितना खर्च हुआ, उसमें दो पुल और बन सकते थे। राजा जनक ने अपने भाषण में कहा राम ने मुझे बुलाकर उचित ही किया, वे आखिर मेरे दामाद है, वे और किसे बुलाते।

वही राष्ट्र प्रगति कर सका, जिसके पास काफी पुल थे इसलिए हमारे देश को भी पुलों से पाट दो। “भूमि पर, नदियों पर, सागरों, महासागरों पर पुल बनें। हवा में भी पुल बने, जैसे हवा महल बनते हैं।” भाषण देकर जैसे ही जनक अपने आसन पर बैठें, पुल भरभराकर गिर गया। अंत में परसाई जब लिखते हैं – “उस पुल के संबंध में जो जांच-कमीशन बैठाया था, उसकी रिपोर्ट कलियुग के इस चौथे चरण तक तैयार नहीं हुई।” कौन-सा पाठक आज के संदर्भ में इस रचना को नहीं पढ़ेगा?

परसाई की रचनाएँ वर्तमान में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, क्योंकि वे युग साक्षी थे। वे जानते थे कि पूंजीवादी व्यवस्था में तो व्यंग्य के मुद्दे हैं ही, अपितु समाजवादी व्यवस्था में भी व्यक्ति व समाज दोनों में विसंगतियाँ रहेंगी। ज्ञानरंजन जी को  दिये  साक्षात्कार में भी वे कहते हैं – “योजना आयोग न्यायपालिक, शिक्षा पद्धति आदि खामियाँ पूंजीवादी तंत्र की हैं, समाजवाद की नहीं इसलिए 33 वर्ष बाद भी कुछ परिवर्तन नहीं हुआ।” साक्षात्कार को वर्षों बीत गए अब भी स्थितियाँ जस की तस है, बल्कि, और बदत्तर हुई हैं। इसलिए आज भी उनका लेखन, पग-पग पर याद आता है।

अनेकों मुद्दे हैं जो परसाई की कलम से निकले और वर्तमान परिदृश्य पर आज भी उतने ही फिट है उदाहरण के तौर पर तथाकथित बाबा और माताऐं जनता को अब भी मूर्ख बना रहे हैं तब भी बना रहे थे जब परसाई थे। “टॉर्च बेचने वाले”, “सत्यसाधक मंडल” जैसी अनेक रचनाऐं उन्होंने इसी विसंगति पर लिखीं है। राजनीति धर्म को किस तरह से मोहरा बनाती है, परसाई ने हमें बहोत अच्छी तरह से समझाया हैं और इसीलिए परसाई की रचना कि परिस्थितियों हम आज भी उतना ही “रिलेट” कर पाते हैं। उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता के कारण ही पाठकों में सही वैज्ञानिक चेतना का विकास होता है। तभी तो उनके लेखन से तब भी कट्टरपंथी भयाकांत थे, अब भी है और भविष्य में भी होंगे। “मेरी कैफियत” में उन्होंने लिखा भी है – “मैं लेखक छोटा मगर संकट बड़ा हूँ।…मैं संकट उनके लिए भी हूँ, जो राजनैतिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक, सामाजिक, व्यावसायिक या किन्हीं दूसरे रूपों में मानव विरोधी हरकतें करते हैं।” इन मानव विरोधी हरकतों के खिलाफ परसाई का लेखन हमेशा विरोध दर्ज करता रहेगा।

परसाई की कलम ने आजादी के बाद के मोहभंग, शासक वर्ग के नैतिक पतन, दोगलेपन, भ्रष्टाचार, पाखण्ड, झूठे आचारण, छल, कपट, स्वार्थपरता, सिद्धांतविहीन विचारधारा और गठबंधन सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाना, सत्ता का उन्माद और इन सब में आम आदमी का पग-पग पर ठगा जाना सबको अपना विषय बनाया। इसीलिए उनका लेखन आज भी उतना ही मारक है क्योंकि सरेआम यही तो हो रहा है।

उनकी अनेक रचनाएं इन सब पर वर्तमान में भी आघात करती हैं। व्यक्ति तथा समाज के भीतर के अंतर्विरोध को अनावृत्त करती है। क्योंकि वे कबीर को अपना गुरू मानते थे और कबीर की तरह व्यक्ति और समाज की बेहतरी चाहते थे। इस समाज के बेहतरी के लिए कट्टरपंथी ताकतों से उन्होंने मार भी खाईं लोगों का विरोध भी सहा लेकिन अपना घर फूँक कर अपने समय के साथ आगे के समय को भी लिखते रहे।

सुखिया सब संसार है खावै और सोवै

दुखिया दास कबीर है, जागे और रौवै।

वे लिखते है, कि व्यक्ति और समाज आत्मसाक्षात्कार और आत्मालोचन करे, कमजोरियाँ, बुराइयाँ, विसंगतियाँ त्यागकर, जैसा वह है, उससे बेहतर बने। वर्तमान में कितने लोग हिन्दी की दुकान खोलकर बैठ गए हैं। एक दो उदाहरण मैंने ऐसे देखे हैं जिन्होंने हिन्दी साहित्य का कखग भी नहीं पढ़ा। हिन्दी को माँ का दर्जा दिलाने में लगे हैं। उसके लिए  अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सहायता ले रहे हैं। अपने घर भर रहे हैं। पर उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ते हैं। परसाई कि एक रचना में भी हम ऐसा ही देखते हैं।

परसाई भी लिखते है – “मैंने देखा कि हिन्दी से रोटी और यश कमाने वाला पिता बाहर हिन्दी के लिए हाय-हाय करता है।…और हिन्दी से अनभिज्ञ, भारतीयता से शून्य अपने बच्चों को देखकर गर्व से कहता है,  हमारे बच्चे गंवारों की तरह हिन्दी नहीं सीखते”

वर्तमान में परसाई की प्रासंगिकता और अधिक है, इस पर कोई दो मत हो ही नहीं सकते। बाजार में कबीर की तरह खड़े होकर, गुहार लगाकर जब आधुनिक युग के कबीर कहते हैं, सुनो भाई साधो और अरस्तु उनके साथ पड़ताल करते हैं, साधारण जन के पारिवारिक और सामाजिक परिवेश के साथ संपूर्ण राष्ट्रीय परिदृश्य व अन्तर्राष्ट्रीय विश्वसंदर्भ की तब समूची विसंगतियाँ त्राहि-त्राहि कर उठती हैं। परसाई का लेखन ऐसा ही, जो अनंत काल तक प्रासंगिक रहेगा। अंत परसाई की वर्तमान में प्रासंगिकता को नमन करते हुए बाबा नागार्जुन की दो पंक्तियों के साथ –

छूटने लगे अविरल गति से

जब परसाई के व्यंग्य बाण

सरपट भागे धर्म ध्वजी,

दुष्टों के कंपित हुए प्राण।

 

©  अलका अग्रवाल सिग्तिया, मुंबई

मोबाईल : 9869555194

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ युग पुरुष परसाई ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(“परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   का हृदय से आभार।)

✍ परसाई जी के जन्मदिन पर विशेष – युग पुरुष परसाई  ✍

 

तब परसाई जी उस जमाने में मेट्रिक में प्रथम श्रेणी में पास हुए, उस जमाने में प्रथम श्रेणी में पास होना बड़ी बात होती थी। अभावग्रस्त पिता झुमक्क लाल कोयले की दलाली करते थे, जंगल विभाग के एक डी एफ ओ से थोड़ा सा परिचय था, सो झुमक्क लाल अपने बेटे हरिशंकर को डीएफओ से मिलाने ले गए। हरिशंकर परसाई की पर्सनालिटी शुरू से प्रभावित करने वाली रही, अच्छी नाक -नक्श, गोरे और ऊपर से मेट्रिक में प्रथम श्रेणी…… सो उन परिचित डीएफओ ने परसाई को ‘केसला’ के जंगल में वन विभाग की छोटी सी नौकरी दे दी।

परसाई ‘केसला’ के जंगल में गए तो उनके अंडर में दो कर्मचारी मिले  दोनों शुद्ध मुसलमान। जब ये बात परसाई के रिश्तेदारों को पता चली तो रिश्तेदारों को चिंता हुई कि परसाई तो शुद्ध ब्राम्हण और दोनों कर्मचारी मुसलमान,   जंगल में बेचारे अकेले कैसे रहेंगे।  कुछ ने कुछ कहा….. कुछ ने अलग तरह की बात कही तो कुछ डरे डरे संकेत की भाषा में बोले। कुछ दिन बाद चिंताग्रस्त रिश्तेदारों को परसाई ने बताया कि वे मुसलमान हैं तो क्या हुआ…. वे अच्छे मानव तो हैं, रही बात मांसाहारी की…. तो वे दोनों शुद्ध शाकाहारी हैं जब वे दोनों शाकाहारी हैं तो मैं मांसाहारी कैसे बनूंगा ?

परसाई को जंगल में रहते हुए आगे न पढ़ पाने की पीड़ा परेशान किए हुए थी सो एक दिन उन परचित डीएफओ से मिलकर अनुनय विनय किया कि उनका ट्रांसफर पास के कोई छोटे शहर तरफ कर दिया जाय ताकि आगे की पढ़ाई भी कर सकें। डीएफओ ने एक न सुनी कहा – ‘जंगल की नौकरी जंगल में ही हो सकती है और कहीं नहीं’…… परसाई निराश हुए और आगे पढ़ने के चक्कर में उन्होंने जंगल की नौकरी को ‘ जै राम जी  ‘कह दी।

आगे की पढ़ाई के लिए वे खण्डवा आ गए, उन्हें खण्डवा के एक स्कूल में नौकरी मिल गई, प्रतिभाशाली होने के नाते कुछ दिन बाद उनका जबलपुर के नार्मल स्कूल में ट्रेनिंग हेतु सिलेक्शन हो गया, इस तरह नार्मल स्कूल की ट्रेनिंग हेतु वे जबलपुर आ गए। नार्मल स्कूल ट्रेनिंग में टाॅप करने पर उनकी पोस्टिंग स्थानीय माडल हाईस्कूल में हो गई, तब परसाई ने मालवीय चौक की श्याम टाकीज के पास एक छोटा सा कमरा किराए में लिया जो बरसात में टपका मारता था, साथ में भाई भी रहने आ गए।

कुछ दिन बाद परसाई जी ने अपनी पहली रचना “पहला पुल” लिखी। सरकार की नीतियों के खिलाफ लिखी इस रचना ने परसाई की सरकारी नौकरी खा ली।  परसाई जी गरीबी के साथ भूखे पेट उसी कमरे में रहे आये, उनकी लिखी छुट-पुट रचनाएँ छपतीं तो कभी एक आना तो कभी दो आना मिल जाते, परसाई और उनके भाई भूखे पेट सो जाते, कभी-कभी चना-फूटा चबाकर संतोष कर लेते। कुछ दिनों बाद साहित्यिक मित्रों के प्रयास से उन्हें डी एन जैन स्कूल में नौकरी मिली। उस समय स्कूल वाले  ‘साठ रूपये ‘ में दस्तखत करवाते और  ‘चालीस रूपये’ देते। परसाई ने विरोध किया, उनका कहना था कि  ‘साठ रूपये ‘ में दस्तखत होते हैं तो  ‘साठ रूपये ‘ ही मिलने चाहिए, सो उन्होंने एक  ‘टीचर यूनियन ‘ बना ली, ये मध्यप्रदेश प्रदेश की पहली  टीचर्स यूनियन थी। उन्हें फिर नौकरी से निकाल दिया गया। उनके दोस्तों ने समझाया कि परसाई यदि नौकरी करना है तो लिखने के काम को छोड़ना पड़ेगा.. क्योंकि लिखने के काम के साथ पेट भूखा रहेगा तो पेट के साथ काहे को अन्याय कर रहे हो, भूखे पेट कब तक लिखते रहोगे पर परसाई ने संघर्ष करते हुए लिखने का रास्ता पकड़ लिया।

विधवा बहन और उसके चार बच्चों के साथ  जबलपुर के नेपियर टाऊन के पास एक किराए का मकान लेकर रहने लगे……अभावों में रहते हुए आज तक परसाई के अपने नाम पर उनका अपना घर नहीं बना, न कभी बैंक बेलेंस रहा। गरीबी के साथ अक्खड़ और फक्कड़ जीवन जीते रहे और लगातार लिखते रहे…… संघर्ष करते रहे…….. कोई टांग तोड़ गया…… कोई दिल तोड़ गया…… कोई गाली-गलौज करके आगे बढ़ गया पर वे लिखते रहे……… लगातार लिखते रहे। लिखने से उनके पास धीरे-धीरे थोड़ा पैसा आने लगा, बहन और उसके बच्चों की मदद करते रहे और लगातार लिखते रहे……. फिर एक दिन दस अगस्त उन्नीस सौ पन्चानबे में चुपचाप शरीर छोड़कर इस धरती से न जाने कहाँ चले गए…….. ।

परसाई जी कभी-कभी कहते थे कि मेरे पास जब पैसा नहीं था तब मैं ज्यादा सुखी था। लिखने से थोड़ा बहुत पैसा आने पर सुखों में कमी सी आ गई। पैसा आने से हर कोई मुझसे पैसा ऐंठने के चक्कर में रहता। मैं था संवेदनशील…. मुझे दुख होता कि इतना पैसा मेरे पास नहीं आता था कि मैं उनकी वैसी मदद कर पाता जैसा वे चाहते थे।

अपने बारे में स्वयं परसाई जी ने लिखा है कि “कुछ लोग इस उम्मीद से मिलने आते हैं कि मैं उन्हें ठिलठिलाता, कुलांचे मारता, टहलता मिलूंगा और उनके मिलते ही जो मजाक शुरू करूंगा तो हम सारा दिन  हँसते और दाँत निकालते ही गुजार देंगे”   पर नितान्त गम्भीर, छै फुटे और रोबीले परसाई से मिलने पर यह भ्रम टूट जाता था। उनके रोबीले व्यक्तित्व को लेकर किसी ने परसाई जी से कहा था कि आपने साहित्य में आकर एक पुलिस अफसर की पर्सनेल्टी का नुकसान किया है आपको तो कहीं थानेदार होना था। तब परसाई जी ने कहा था – “यहां भी मैं थानेदारी कर रहा हूं” व्यंग्य लेखन शरीफ किस्म का लाठी ही तो है। जनता में विजेता का आत्मविश्वास पैदा करने के लिए उन्होंने व्यंग्य का सहारा लिया, वे व्यंग्य को गहरा, ट्रेजिक और करुणामय मानते थे यही वजह है कि उनकी रचनाओं में आवेश या क्रोध करुणा के सहारे उभरता है।

प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक परसाई जी हैं। वे छठवें दशक से अभी तक सबसे बड़े जन-लेखक माने जाते हैं, परसाई ने जन जन के बीच सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की समझ और तमीज पैदा की । इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि परसाई जी ने व्यंग्य के माध्यम से जितना विशाल लोक शिक्षण किया है वह हमारे समकालीन रचना जगत में आश्चर्यजनक घटना है, परसाई के जीवन की पाठशाला में उनके अनुभव की विविधता और वैज्ञानिक सोच ने इस लोक शिक्षण में बड़ा काम किया है, अपनी कलम से दुनिया को बदलने के संघर्ष में वे जीवनपर्यंत लगे रहे। उन्होंने व्यंग्य को नई दिशा दी उसमें ताजगी के साथ और लीक से हटकर लेखन किया जिससे पाठक बड़ी व्यग्रता से उनकी रचनाओं की प्रतीक्षा करता हुआ हर जगह पाया गया। गांव का मामूली किसान हो चाहे गांव के स्कूल से लौटता हुआ विद्यार्थी हो चाहे फैक्ट्री या मिल से लौटता हुआ मजदूर हो या युनिवर्सिटी की क्लास में परसाई की रचना पर चलती बहस हो सब जगह परसाई जी की रचनाओं ने जीवन मूल्यों के प्रति सचेत किया, समाज – राजनीति में भिदे हुए पाखंड को उद्घाटित किया। इसलिए हम कह सकते हैं कि परसाई, प्रेमचंद की परंपरा को बढ़ाने वालों की पंक्ति में सबसे आगे खड़े दिखते हैं। आज उनका जन्मदिन है उन्हें शत शत नमन।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ कबीर के ध्वज वाहक हरिशंकर परसाई ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने परसाई   स्मृति पर अपना विशेष आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा कर हमें प्रोत्साहित किया।)

 

✍ कबीर के ध्वज वाहक हरिशंकर परसाई  ✍

 

पिछली अर्धशती में हास्य और व्यंग एक नयी साहित्यिक विधा के रूप में स्थापित हुआ है. हास्य और व्यंग में एक सूक्ष्म अंतर है, जहां हास्य लोगो को गुदगुदाकर छोड़ देता है वहीं व्यंग हमें सोचने पर विवश करता है. व्यंग के कटाक्ष हमें तिलमिलाकर रख देते हैं. व्यंग्य लेखक के, संवेदनशील और करुण हृदय के असंतोष की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है. शायद व्यंग, उन्ही तानो और कटाक्ष का  साहित्यिक रचना स्वरूप है , जिसके प्रयोग से सदियो से सासें नई बहू को अपने घर परिवार के संस्कार और नियम कायदे सिखाती आई हैं और नई नवेली बहू को अपने परिवार में घुलमिल जाने के हित चिंतन के लिये तात्कालिक रूप से बहू की नजरो में स्वयं बुरी कहलाने के लिये भी तैयार रहती हैं. कालेज में होने वाले सकारात्मक मिलन समारोह जिनमें नये छात्रो का पुराने छात्रो द्वारा परिचय लिया जाता है, भी कुछ कुछ व्यंग, छींटाकशी, हास्य के पुट से जन्मी मिली जुली भावना से नये छात्रो की झिझक मिटाने की परिपाटी रही है और जिसका विकृत रूप अब रेगिंग बन गया है.

प्राचीन कवियो में कबीर की प्रायः रचनाओ में  व्यंग्य है, पर उनका यह कटाक्ष  किसी का मजाक उड़ाने या उपहास करने के लिए नहीं, बल्कि उसे सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने के लिए ही होता है. कबीर का व्यंग्य करुणा से उपजा है, अक्खड़ता तो केवल उसकी ढाल है.

बात उन दिनो की है जब मैं किशोरावस्था में था, शायद हाई स्कूल के प्रारंभिक दिनो में. हम मण्डला में रहते थे.घर पर कई सारे अखबार और पत्रिकायें खरीदी जाती थी. साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, सारिका, नंदन आदि पढ़ना मेरा शौक बन चुका था. नवीन दुनिया अखबार के संपादकीय पृष्ठ का एक कालम सुनो भाई साधो और नवभारत टाइम्स का स्तंभ प्रतिदिन मैं रोज बड़े चाव से पढ़ता था. पहला परसाई जी का और दूसरा शरद जी का कालम था यह बात मुझे बहुत बाद में ध्यान में आई. छात्र जीवन में जब मैं इस तरह का साहित्य पढ़ रहा था और इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर का नाट्यरूपांतरण देख रहा था शायद तभी मेरे भीतर अवचेतन में एक व्यंगकार का भ्रूण आकार ले रहा था. बाद में संभवतः इसी प्रेरणा से मैने डा देवेन्द्र वर्मा जो मण्डला में पदस्थ एक अच्छे व्यंगकार थे व वहां संयुक्त कलेक्टर भी रहे, की व्यंग संग्रह  का नाम “जीप पर सवार सुख” रखा जो स्कूल के दिनो में पढ़ी शरद जोशी की जीप पर सवार इल्लियां से अभिप्रेरित रहा होगा. मण्डला से छपने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र मेकलवाणी में मैने ” दूरंदेशी चश्मा ”  नाम से एक व्यंग कालम भी कई अंको में निरंतर लिखा. फिर मेरी किताबें रामभरोसे, कौआ कान ले गया तथा मेरे प्रिय व्यंग लेख पुस्तकें छपीं, तथा पुरस्कृत हुईं.

हरिशंकर परसाई और शरद जोशी दो सुस्थापित लगभग समानान्तर व्यंगकार हुये. दोनो ही मूलतः मध्यप्रदेश के थे. जहां जबलपुर को परसाई जी ने अपनी कर्मभूमि बनाया वही शरद जी मुम्बई चले गये. उनके समय तक साहित्य में व्यंग को विधा के रूप में स्वीकार करने का संघर्ष था. व्यंग्य संवेदनशील एवं सत्यनिष्ठ मन द्वारा विसंगतियों पर की गई प्रतिक्रिया है,  एक ऐसी प्रतिक्रिया जिसमें ऊपर से कटुता और हास्य की झलक मिलती है, पर उसके मूल में करुणा और मित्रता का भाव  होता है।  व्यंग्य यथार्थ के अनुभव से ही पैदा होता है, यदि  कल्पनाशीलता से जबरदस्ती व्यंग्य पैदा करने की कोशिश की जावे तो  रचना खुद ही हास्यास्पद हो जाती है.इशारे से गलती करने वाले को उसकी गलती का अहसास दिलाकर  सच को सच कहने का साहस ही व्यंगकार की ताकत है. व्यंगकार बोलता है तो लोग कहते हैं “बहुत बोलता है “, पर यदि उसके बोलने पर चिंतन करें तो हम समझ सकते हैं कि वह तो हमारे ही दीर्घकालिक हित के लिये बोल रहा था.

हरिशंकर परसाई (२२ अगस्त, १९२४ – १० अगस्त, १९९५) का जन्म जमानी, होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में हुआ था। उन्होंने 18 वर्ष की उम्र में जंगल विभाग में नौकरीशुरू की.  खंडवा में ६ महीने अध्यापन का कार्य किया. दो वर्ष (१९४१-४३) जबलपुर में स्पेंस ट्रेनिंग कालिज में शिक्षण की उपाधि ली, 1942 से वहीं माडल हाई स्कूल में अध्यापन भी किया . तब के समय में अभिव्यक्ति की वैचारिक स्वतंत्रता का वह स्तर नही रहा होगा शायद तभी १९५२ में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ी। १९५३ से १९५७ तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की .१९५७ में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरूआत उन्होने की, तत्कालीन परिस्थितियों में साहित्य को जीवकोपार्जन के लिये चुनना एक दुस्साहसिक कदम ही था. जबलपुर से ‘वसुधा’ नाम की साहित्यिक मासिक पत्रिका निकाली, नई दुनिया में ‘सुनो भइ साधो’, नयी कहानियों में ‘पाँचवाँ कालम’ और ‘उलझी-उलझी’ तथा कल्पना में ‘और अन्त में’ इत्यादि कहानियाँ, उपन्यास एवं निबन्ध-लेखन के बावजूद वे मुख्यत: व्यंग्यकार के रूप में विख्यात हुये. उन्होंने अपने व्यंग के द्वारा बार-बार पाठको का ध्यान व्यक्ति और समाज की  कमजोरियों और विसंगतियो की ओर आकृष्ट किया. परसाई जी जबलपुर व रायपुर से प्रकाशित अखबार देशबंधु में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। स्तम्भ का नाम था-पूछिये परसाई से। पहले पहल हल्के, इश्किया और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे। धीरे-धीरे परसाई जी ने लोगों को गम्भीर सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया, दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया मेरे जैसे लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिये अखबार का इंतजार करते थे.

सरकारे और साहित्य अकादमीयां उनके नाम पर पुरस्कार स्थापित किये हुये हैं पर स्वयं अपने जीवन काल में उन्होने संघर्ष किया जीवन यापन के लिये भी और वैचारिक स्तर पर भी. उन पर प्रहार हुये, विकलांग श्रद्धा का दौर तो इसी से जन्मी कृति है.उन पर अनेकानेक शोधार्थी विभिन्न विश्वविद्यालयो में डाक्टरेट कर रहे हैं. आज भी परसाई जी की कृतियो के नाट्य रूपांतरण मंचित हो रहे हैं, उन पर चित्रांकन, पोस्टर प्रदर्शनियां, लगाई जाती हैं,  और इस तरह साहित्य जगत उन्हें जीवंत बनाये हुये है. वे अपने साहित्य के जरिये और व्यंग को साहित्य में विधा के रूप मे स्वीकार करवाने के लिये सदा जाने जाते रहेंगे.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – इस पल ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

???⌚ संजय दृष्टि  – इस पल ⌚???

काश जी पाता फिर से वही पुराना समय…! समय ने एकाएक घुमा दिया पहिया।…आज की आयु को मिला अतीत का साथ…बचपन का वही  पुराना घर, टूटी खपरैल,  टपकता पानी।…एस.यू. वी.की जगह वही ऊँची सायकल जिसकी चेन बार-बार गिर जाती थी.., पड़ोस में बचपन की वही सहपाठी अपने आज के साथ…दिशा मैदान के लिए मोहल्ले का सार्वजनिक शौचालय…सब कुछ पहले जैसा।..एक दिन भी निकालना दूभर हो गया।..सोचने लगा, काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।
काश भविष्य में जी पाऊँ किसी धन-कुबेर की तरह!…समय ने फिर परिवर्तन का पहिया घुमा दिया।..अकूत संपदा.., हर सुबह गिरते-चढ़ते शेयरों से बढ़ती-ढलती धड़कनें.., फाइनेंसरों का दबाव.., घर का बिखराव.., रिश्तों के नाम पर स्वार्थियों का जमघट।..दम घुटने लगा उसका।..सोचने लगा, काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।
बीते कल, आते कल की मरीचिका से निकलकर वह गिर पड़ा इस पल के पैरों में।
आपके जीवन में इस पल का आनंद सर्वदा बना रहे।
✍????

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #13 – कम्प्यूटर सिखाये  जीवन जीने की कला ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  तेरहवीं कड़ी में प्रस्तुत है “कम्प्यूटर सिखाये  जीवन जीने की कला”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 13 ☆

 

☆ कम्प्यूटर सिखाये  जीवन जीने की कला☆

 

जीवन अमूल्य है! इसे सफलता पूर्वक जीना भी एक कला है. किस तरह जिया जावे कि एक सुखद,शांत, सद्भावना पूर्ण जीवन जीते हुये, समय की रेत पर हम अपने अमिट पदचिन्ह छोड सकें ? यह सतत अन्वेषण का रोचक विषय रहा है.अनेकानेक आध्यात्मिक गुरु यही आर्ट आफ लिविग सिखाने में लगे हुये हैं. आज हमारे परिवेश में यत्र तत्र हमें कम्प्यूटर दिखता है. यद्यपि कम्प्यूटर का विकास हमने ही किया है किन्तु लाजिकल गणना में कम्प्यूटर हमसे बहुत आगे निकल चुका है. समय के साथ बने रहने के लिये बुजुर्ग लोग भी आज कम्प्यूटर सीखत दिखते हैं. मनुष्य में एक अच्छा गुण है कि हम सीखने के लिये पशु पक्षियों तक से प्रेरणा लेने में नहीं हिचकते विद्यार्थियों के लिये काक चेष्टा, श्वान निद्रा, व बको ध्यानी बनने के प्रेरक श्लोक हमारे पुरातन ग्रंथों में हैं. समय से तादात्म्य स्थापित किया जावे तो हम अब कम्प्यूटर से भी जीवन जीने की कला सीख सकते हैं. हमारा मन,शरीर, दिमाग भी तो ईश्वरीय सुपर कम्प्यूटर से जुडा हुआ एक पर्सनल कम्प्यूटर जैसा संस्करण ही तो है. शरीर को हार्डवेयर व आत्मा को  सिस्टम साफ्टवेयर एवं मन को एप्लीकेशन साफ्टवेयर की संज्ञा दी जा सकती है. उस परम शक्ति के सम्मुख इंसानी लघुता की तुलना की जावे तो हम सुपर कम्प्यूटर के सामने एक बिट से अधिक भला क्या हैं ? अपना जीवन लक्ष्य पा सकें तो शायद एक बाइट बन सकें.आज की व्यस्त जिंदगी ने हमें आत्म केंद्रित बना रखा है पर इसके विपरीत “इंटरनेट” वसुधैव कुटुम्बकम् के शाश्वत भाव की अविरल भारतीय आध्यात्मिक धारा का ही वर्तमान स्वरूप है. यह पारदर्शिता का श्रेष्ठतम उदाहरण है.

स्व को समाज में समाहित कर पारस्परिक हित हेतु सदैव तत्पर रखने का परिचायक है. जिस तरह हम कम्प्यूटर का उपयोग प्रारंभ करते समय रिफ्रेश का बटन दबाते हैं, जीवन के दैननंदिनी व्यवहार में भी हमें एक नव स्फूर्ति के साथ ही प्रत्येक  कार्य करने की शैली बनाना चाहिये.

कम्प्यूटर हमारी किसी कमांड की अनसुनी नहीं करता किंतु हम पत्नी, बच्चों, अपने अधिकारी की कितनी ही बातें टाल जाने की कोशिश में लगे रहते हैं, जिनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष, खिन्नता,कटुता पैदा होती है व हम अशांति को न्योता देते हैं.

क्या हमें कम्प्यूटर से प्रत्येक को समुचित रिस्पांस देना नहीं सीखना चाहिये ? समय समय पर हम अपने पी.सी. की डिस्क क्लीन करना व्यर्थ की फाइलें व आइकन डिलीट करना नहीं भूलते, उसे डिफ्रिगमेंट भी करते हैं.  यदि हम रोजमर्रा के जीवन में भी यह साधारण सी बात अपना लें और अपने मानस पटल से व्यर्थ की घटनायें हटाते रहें तो हम सदैव सबके प्रति सदाशयी व्यवहार कर पायेंगे, इसका प्रतिबिम्ब हमारे चेहरे के कोमल भावों के रूप में परिलक्षित होगा,जैसे हमारे पी.सी. का मनोहर वालपेपर. कम्प्यूटर पर ढ़ेर सारी फाइलें खोल दें तो वे परस्पर उलझ जाती हैं, इसी तरह हमें जीवन में भी रिशतो की घालमेल नहीं करना चाहिये, घर की समस्यायें घर में एवं कार्यालय की उलझने कार्यालय में ही निपटाने की आदत डालकर देखिये, आपकी लोकप्रियता में निश्चित ही वृद्धि होगी. हाँ एक बात है जिसे हमें जीवन में कभी नहीं अपनाना चाहिये, वह है किसी भी उपलब्धि को पाने का शार्ट कट. कापी,कट पेस्ट जैसी  सुविधायें कम्प्यूटर की अपनी विशेषतायें हैं. जीवन में ये शार्ट कट भले ही  त्वरित क्षुद्र सफलतायें दिला दें पर स्थाई उपलब्धियां सच्ची मेहनत से ही मिलती हैं.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों?? ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का विचारोत्तेजक आलेख  “नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों ?”।)

 

??‍♀️नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों? ??‍♀️

 

यह तो सर्वविदित है कि सृष्टि निर्माण के लिए नियंता ने आदम और हव्वा की कल्पना की तथा दोनों को इसका उत्तरदायित्व सौंपा। हव्वा को उसने प्रजनन क्षमता प्रदान की तथा दैवीय गुणों से संपन्न किया। शायद!इसलिये ही मां बच्चे की प्रथम गुरु कहलायी।  जन्म के पश्चात् उसका अधिक समय मां के सान्निध्य में गुज़रा। सो! मां के संस्कारों का प्रभाव उस पर सर्वाधिक पड़ा। वैसे तो पिता की अवधारणा के बिना बच्चे के जन्म की कल्पना निर्रथक थी। पिता पर परिवार के पालन-पोषण तथा सुरक्षा का दायित्व  था। इसलिए सांस्कृतिक परिवेश उसे विरासत में मिला, जो सदैव पथ-प्रदर्शक के रूप में साथ रहा।

प्राचीन काल से स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। परन्तु सभ्यता के विकास के साथ-साथ पितृ सत्तात्मक परिवार अस्तित्व में आये। वैसे कानून- निर्माता तो सदैव पुरुष ही रहे हैं। सो! स्त्री व पुरुष के लिए सदैव अलग-अलग कानून बनाये गये। सभी कर्त्तव्य नारी के दामन में डाल दिए गए और अधिकार पुरुष को प्राप्त हुए। औरत को चूल्हे-चौंके में झोंक दिया गया और घर की चारदीवारी ने उसके लिए लक्ष्मण रेखा का कार्य किया। जन्म के पश्चात् वह पिता के साए में अजनबी बनकर रही तथा उसे हर पल यह अहसास दिलाया गया कि ‘यह घर तेरा नहीं है। तू यहां के लिए पराई है, अजनबी है। तुझे तो पति के घर-आंगन की शोभा बनना है। सो! वहां जाने के पश्चात् तुम्हें उस घर की चौखट को नहीं लांघना है। हर विकट परिस्थिति का सामना अकेले ही करना है। तुम्हारे लिये यह समझ लेना आवश्यक है कि जिस घर से डोली उठती है, अर्थी वहां से कभी नहीं उठती। इसलिए तुम्हें यहां अकेले लौट कर कभी नहीं आना है’।

वह मासूम लड़की पिता के घर में इसी अहसास से जीती है कि वह घर उसका नहीं है। सो! वहां उस पर अनेक अंकुश लगाए जाते हैं। पहले दिन से ही बेटी- बेटे का फ़र्क उसे समझ आ जाता है। माता-पिता का व्यवहार दोनों से अलग-अलग किस्म का होता है।

बचपन से खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने में भी भेदभाव किया जाता है, पढ़ाई जारी रखने के लिए भी उनकी सोच व मापदंड अलग-अलग होते हैं। उसे आरंभ से ही घर के कामों में झोंक दिया जाता है कि उसे तो ससुराल जाकर नया घर संभालना है। उसके लिए सारे कायदे-कानून भाई से अलग होते हैं। उसके रोम-रोम में परिवार की इज़्ज़त व मान-मर्यादा इस क़दर घर कर जाती है… रच-बस जाती है, जिसे वह चाहकर भी भुला नहीं पाती। अनेक बार उसका हृदय चीत्कार कर उठता है, परन्तु पिता व भाई के क्रूर व्यवहार को स्मरण कर वह सहम जाती है। उस के मन में विचारों के बवंडर उठते हैं कि नारी अस्मिता ही प्रश्नों के दायरे में क्यों?

क्या बेटे द्वारा दुष्कर्म के हादसों से परिवार की मान- मर्यादा पर आंच नहीं आती…उनकी भावनाएं आहत नहीं होती? जब उसे हर प्रकार की स्वतंत्रता प्रदत्त है, तो वह उससे वंचित क्यों? हर कसूर के लिए वह ही दोषी क्यों? ऐसे अनगिनत प्रश्न उसके  मन को सालते हैं तथा उसके गले की फांस बन जाते हैं। परन्तु वह लाख प्रयत्न करने पर भी उनका विरोध कहां कर पाती है।

हां! नए घर की सुंदर कल्पना कर, रंगीन स्वप्न संजोए वह मासूम ससुराल में कदम रखती है। परन्तु वहां भी, उस माहौल में वह अकेली पड़ जाती है। उसकी नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरे की मानिंद उस नादान की हर गतिविधि पर लगी रहती हैं। पहले दिन से ही शुरू हो जाती है— उसकी अग्नि-परीक्षा। ससुराल के लोग उसे प्रताड़ित करने का एक भी स्वर्णिम अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहते। वह कठपुतली की भांति उनके आदेशों की अनुपालना करती है…अपनी आकांक्षाओं का गला घोंट नत- मस्तक रहती है। परन्तु फिर भी वह कभी कम दहेज लाने के कारण, तो कभी परिवार को वंशज न दे पाने के कारण, केवल तिरस्कृत ही नहीं होती..उसके लिए  तैयार होता है, मिट्टी के तेल का डिब्बा,गैस का खुला स्टोव व दियासलाई, तंदूर की दहकती अग्नि, छत या नदी की फिसलन,बिजली  की नंगी तारों का करंट। सो! उसे सहन करनी पड़ती हैं,जीवन भर अमानवीय  यातनाएं, जिसे नियति स्वीकार उसे ढोना पड़ता है। वह जीवन भर इसी उहापोह में पल-पल जीती,पल- पल मरती है, परन्तु कभी उफ़् नहीं करती। प्रश्न उठता है कि यह सब हादसे उनकी बेटी के साथ क्यों घटित नहीं होते? इसका मुख्य कारण है, माता-पिता का अपनी पुत्रवधु में बेटी का अक्स न देखना। वास्तव  में वे भूल जाते हैं कि उनकी बेटी को भी  किसी के घर-आंगन की शोभा बनना है।

इस तथ्य से तो आप भली-भांति परिचित होंगे कि औरत को उपभोक्तावादी युग में, बढ़ते बाज़ारवाद के कारण वस्तु-मात्र समझा जाता है। जब तक उसकी उपयोगिता रहती है, उसे सहेज कर रखा जाता है, सिर आंखों पर बैठाकर, सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। परन्तु उसके पश्चात् खाली बोतल की भांति घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है।

हां! पति परमेश्वर है, जो कभी गलती कर ही नहीं सकता। उसका हर वचन, हर कर्म सत्य व अनु- करणीय समझा जाता है। वह अपनी पत्नी के रहते किसी दूसरी औरत से संबंध स्थापित कर, उसे अपने घर में स्थान दे सकता है और अपनी पत्नी को घर  से बेदखल करने में सक्षम है।आश्चर्य होता है यह देखकर, कि पत्नी की अर्थी उठने से पहले ही पति के लिए नये रिश्ते आने प्रारंभ हो जाते हैं और वह श्मशान तक की यात्रा में भी पत्नी का साथ नहीं देता…उसे अग्नि देने की बात तो बहुत दूर की है। वह तो उसी पल नई नवेली जीवन-संगिनी के सपनों- कल्पनाओं में खो जाता है।

परन्तु यथा स्थिति में पति के देहांत के बाद औरत को जीवन भर वैधव्य की त्रासदी को झेलना पड़ता है। इतना ही नहीं ससुराल वालों के दंश ‘यह मनहूस है, डायन है… हमारे बेटे को खा गई’ आदि झेलने पड़ते हैं । वे भूल जाते हैं कि उनका बेटा उसका पति भी था, जिसने उसे हमसफ़र बनाया था। वह उसका भाग्य-विधाता था, जो उसे बीच भंवर अकेला छोड़ चल दिया उन राहों पर, जहां से लौट कर कोई नहीं आता।

ज़रा! सोचिए, क्या उस निरीह पर विपत्तियों का पहाड़ नहीं टूटा होगा ? क्या उसे पति का अभाव नहीं खलता होगा ? वह अकेली अब जिंदगी के बोझ को कैसे ढोएगी? काश! वे उस मासूम की पीड़ा को अनुभव कर पाते और उसे परिवार का हिस्सा स्वीकार उसका मनोबल बढ़ाते, उसे आश्रय प्रदान करते और अहसास दिलाते कि वे हर असामान्य- विषम परिस्थिति में ढाल बनकर सदैव उसके साथ खड़े हैं। उसे अब किसी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं।

परन्तु होता उससे उलट है… परिवार के लोग उस पर बुरी नज़र डालना प्रारंभ कर देते हैं तथा उसे नरक में धकेल देते हैं। वह प्रतिदिन नये हादसे का शिकार बनती है। कई बार तो उनकी नज़रों में जायदाद हड़पने के लिए, उसे रास्ते से हटाना अवश्यंभावी हो जाता है। वे उस पर गलत इल्ज़ाम लगा, घर से बेघर कर अपनी शेखी बघारते नहीं थकते। फिर प्रारम्भ हो जाती है… उस पर ज़ुल्मों की बरसात।

यदि वह पुलिस स्टेशन रिपोर्ट लिखवाने जाती है, तो वहां उसका शोषण किया जाता है। कानून के कटघरे में उसके चरित्र पर ऐसी छींटाकशी की जाती है कि वह न्याय पाने का विचार त्याग, वहां से भाग जाने में ही अपनी बेहतरी समझती है। यहां भी लाभ प्रतिपक्ष को ही मिलता है। उनके हौंसले और बुलंद हो जाते हैं तथा वह मासूम ज़ुल्मों को नियति स्वीकार अकेली निकल पड़ती है… ज़िन्दगी की उन राहों पर,बढ़ जाती है, जो उसके लिए अनजान हैं। प्रश्न उठता है, नारी ही कटघरे में क्यों? पुरुष पर कभी कोई आक्षेप आरोप-प्रत्यारोप क्यों नहीं? क्या वह सदैव दूध का धुला होता है? जब किसी मासूम की इज़्ज़त लुटती है तो लोग उसे अकारण दुत्कारते हैं, लांछित करते हैं, दोषारोपण करते हैं और उस दुष्कर्मी को शक़ की बिनाह पर छोड़ दिया जाता है। वह दुष्ट सिर उठाकर जीता है, परन्तु वह निर्दोष समाज में सिर झुकाकर अपना जीवन ढोती है और उसके माता-पिता आजीवन ज़लालत भरी ज़िन्दगी ढोने को विवश होते हैं।

क्या अस्मिता केवल औरत की होती है, शील-भंग भी उसी का होता है। हां!पुरुष की तो इज़्ज़त होती ही नहीं… शायद!इसीलिये उस पर तो कभी, किसी प्रकार की तनिक आंच भी नहीं आती। हां! यदि औरत इन यातनाओं-यंत्रणाओं को सहन करते-करते अपना दृष्टिकोण व जीने की राह बदल लेती है, तो वह कुलटा, कुलक्षिणी, कुलनाशिनी व पापिनी कहलाती है।

जब से नारी ने समानाधिकारों की मांग की है,महिला  सशक्तीकरण के नारों की गूंज तो चारों ओर सुनाई पड़ती है, परन्तु उसके सुरक्षा के दायरे में सेंध लग गई है। आज नारी न घर के बाहर सुरक्षित है, न ही घर के प्रांगण व पिता व पति के सुरक्षा-दायरे में,और  लोग उसकी ओर गिद्ध नज़रें लगाए बैठे हैं।

यह बतलाते हुए मस्तिष्क शर्म से झुक जाता है कि आज तो कन्या भ्रूण रूप में भी सुरक्षित नहीं है। उससे तो जन्म लेने का अधिकार भी छिन गया है..अन्य सम्बन्धों की सार्थकता की तो बात करना ही व्यर्थ है। पति-पत्नी के सात जन्मों का पुनीत संबंध आज कल  लिव-इन रिलेशन में परिवर्तित हो गया है।’ तू नहीं और सही’ व ‘खाओ-पियो, मौज उड़ाओ’ की संस्कृति का हम पर आधिपत्य हो गया है। संयुक्त परिवार ही नहीं, अब तो एकल परिवार भी निरंतर टूट रहे हैं। एक छत के नीचे पति-पत्नी अजनबी बनकर अपना जीवन बसर कर रहे हैं। सामाजिक सरोकार समाप्त हो रहे हैं। इसकी सबसे अधिक हानि हो रही है…हमारी नई पीढ़ी को, जो स्वयं को सबसे अधिक असुरक्षित अनुभव कर रही है। पिता की अवधारणा का कोई महत्व शेष रहा ही नहीं, पति-पत्नी जब तक मन चाहता है, साथ रहते हैं और असंतुष्ट होने की स्थिति में, जब मन में आता है, एक-दूसरे से संबंध-विच्छेद कर लेते हैं। पश्चिमी समाज विशेष रूप से अमेरिका में पितृविहीन परिवारों के आंकड़े इस प्रकार हैं…1960 में 80% से अधिक बच्चे माता-पिता के साथ, उनकी सुरक्षा में रहते थे। 1990 में यह आंकड़ा 58% और और अब यह 50% से भी नीचे पहुंच गया है। इनमें से 25% बच्चे अनब्याही माताओं के साथ रहते हैं और करोड़ों बच्चे मां और सौतेले पिता के साथ, जिससे उनकी माता ने संबंध-विच्छेद के पश्चात् पुनर्विवाह कर लिया है या उसके साथ बिना विवाह के लिव-इन में रह रही हैं।

आज हमारा देश पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट का  लिव-इन को मान्यता प्रदान करना, तलाक़ की प्रक्रिया को सुगम बनाना और विवाहेत्तर संबंधों को हरी झंडी दिखलाना, समाज के लिये घातक ही नहीं, उसे बढ़ावा देने के लिए काफी है। वैसे भी आजकल तो इसे मान्यता प्रदान कर दी गई है। विवाह के मायने बदल गए हैं और विवाह संस्था दिन-प्रतिदिन ध्वस्त होती जा रही है। इसमें दोष केवल पुरुष का नहीं, स्त्री का भी पूरा योगदान है। एक लंबे अंतराल के पश्चात् औरत गुलामी  की ज़ंजीरें तोड़कर बाहर निकली है… सो! की मर्यादा की सीमाओं का अतिक्रमण होना तो स्वाभाविक है।

उसने भी जींस कल्चर को अपना लिया है और वह पुरुष की राहों को श्रेष्ठ मान उनका अनुकरण करना चाहती है। वह प्राचीन मान्यताओं को रूढ़ि स्वीकार, केंचुली सम त्याग देना श्रेयस्कर समझती है, भले ही इसमें उसका अहित ही क्यों ना हो। घर से बाहर निकल कर नौकरी करने से, जहां वह असुरक्षा के घेरे में आ गई है, वहीं उसे दायित्वों का दोहरा बोझ ढोना पड़ रहा है। घर-परिवार में उस से पूर्व अपेक्षा की जाती है। हर स्थिति में पुरुष अहं आड़े आ जाता है और वह उस पर व्यंग्यबाण चलाने  में एक भी अवसर नहीं चूकता। हरपल ज़लील करने  का हक़ तो उसे विरासत में मिला है, जिससे स्त्री के आत्मसम्मान पर चोट लगती है और उसे  मुखौटा धारण कर दोहरा जीवन  जीना पड़ता है। परन्तु कभी-कभी तो वह घर की चौखट लांघ स्वतंत्र जीवन जीने की राह पर निकल पड़ती है, जहां उसे कदम- कदम पर ऐसे वहशी दरिंदों का सामना करना पड़ता है, जो उसे आहत करने का एक भी अवसर नहीं चूकते। प्रश्न उठता है आखिर कब तक उसे माटी की गुड़िया समझ, उसकी भावनाओं से खिलवाड़ किया जाएगा…आखिर कब तक?

आश्चर्य होता है यह देखकर कि पश्चिमी देशों में भारतीय संस्कृति को हृदय से स्वीकारा जा रहा है, मान्यता प्रदान की जा रही है, जिसका स्पष्ट उदाहरण है भगवत्-गीता को मैनेजमेंट कोर्स में लगाना… निष्काम कर्म की महत्ता को स्वीकारना तथा जीवन संबंधित प्रश्नों का समाधान गीता में तलाशना, उनके हृदय की उदारता व सकारात्मक सोच का परिणाम है। परन्तु हम भगवत् गीता को इस रूप में मान्यता प्रदान नहीं कर पाए…यह हमारा दुर्भाग्य है। हमारी परिवार-व्यवस्था में गृहस्थ-जीवन को यज्ञ के रूप में स्वीकारा गया है। परिवार के बुज़ुर्गों को देवी-देवता सम स्वीकार उन्हें मान-सम्मान प्रदान करना, वट वृक्ष की छाया में संतोष व सुरक्षित अनुभव कर सुख- संतोष की सांस लेना… विदेशी लोगों को बहुत भाया है तथा उनकी आस्था घर-परिवार व संबंधों  में बढ़ी है। वे हमारे रीति-रिवाज़, धार्मिक मान्यताओं व ईश्वर में अटूट विश्वास की संस्कृति को स्वीकारने लगे हैं। परन्तु हम उन द्वारा परोसी गयी ‘लिव इन’ और ‘ओल्ड होम’ की जूठन को स्वीकार करने में अपनी शान समझते हैं।

आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन करने का परिणाम घातक होता है। यदि नमक का प्रयोग अधिक किया जाए, तो वह शरीर में अनेक रोगों को जन्म देता है। तनाव के भयंकर परिणामों से कौन परिचित नहीं है…वह सभी जानलेवा रोगों का जनक  है। अहं इंसान का सबसे बड़ा शत्रु है तथा संघर्ष का मूल है। यह सभी जानलेवा रोगों का जनक है। सो! हमें उससे कोसों दूरी बनाए रखनी चाहिए और सोच को सकारात्मक रखना चाहिए। काश! हर इंसान इस भावना, इस मंतव्य को समझ पाता, तो स्त्री अस्मिता का प्रश्न ही नहीं उठता। छोटे-बड़े मिल-जुलकर बुज़ुर्गों के साए में खुशी से रहते व स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते…एक-दूसरे के सुख-दु:ख सांझे करते भावनाओं को समझने का प्रयास करते हैंदं, हंसते-हंसाते, मस्ती में झूमते आनंद से उनका जीवन गुज़र जाता। मलय वायु के शीतल, मंद, सुगंधित वायु के झोंके मन को आंदोलित-आनंदित कर  उल्लासित कर, प्रसन्नता व प्रफुल्लता से आप्लावित करते।

 

डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो•न• 8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #10 – # No Abusing ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  नौवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 10 ☆

 

☆ # No Abusing ☆

रात चढ़ रही है, पास के मकान में हमेशा की तरह घनघोर कलह जारी है। सास-बहू के ऊँचे कर्कश स्वर गूँज रहे हैं, साथ ही किसी जंगली पशु की तरह पुरुष स्वर की गुर्राहट कान के पर्दे से बार-बार टकरा रही है। उनका स्कूल जानेवाला लड़का जन्म से यह सब देख, सुन रहा है। उसका कोई स्वर नहीं है। अनुमान लगाता हूँ कि वह घर के किसी कोने में सुन्न खड़ा होगा। छोटी नादान बिटिया जोर-जोर से रो रही है। बच्चों की मनोदशा और उनके मन पर अंकित होते प्रभाव को नज़रअंदाज़ कर असभ्यता का तांडव जारी है।

‘थिअरी ऑफ इवोल्युशन’ या ‘क्रमिक विकास का सिद्धांत’ आदमी के सभ्य और सुसंस्कृत होने की यात्रा को परिभाषित करता है। यह केवल एक कोशिकीय से बहु कोशिकीय होने की यात्रा भर नहीं है। संरचना के संदर्भ में विज्ञान की दृष्टि से यह सरल से जटिल की यात्रा भी है। ज्ञान या अनुभूति की दृष्टि से देखें तो संवेदना के स्तर पर यह सरलता से जटिलता की यात्रा है। विकास गलत सिद्ध हुआ है या उसे पुनर्परिभाषित करना है, इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।

लेकिन यहाँ चीखने-चिल्लाने के अस्पष्ट शब्दों में सबसे ज़्यादा स्पष्ट हैं पुरुष द्वारा बेतहाशा दी जा रही वीभत्स गालियाँ। माँ, पत्नी, बेटी की उपस्थिति में गालियों की बरसात। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह बरसात निम्न से लेकर उच्चवर्ग तक अधिकांश घरों में परंपरा बन चुकी है।

क्रोध के पारावार में दी जा रही गाली के अर्थ पर गाली देनेवाले के स्तर पर विचार न किया जाए, यह तो समझा जा सकता है। उससे अधिक यह समझने की आवश्यकता है कि घट चुकने के बाद भी उसी घटना की बार-बार, अनेक बार पुनरावृत्ति करनेवाले का बौद्धिक स्तर इतना होता ही नहीं कि वह विचार के उस स्तर तक पहुँचे।

वस्तुतः क्रोध में पगलाते, बौराते लोग मुझे कभी क्रोध नहीं दिलाते। ये सब मुझे मनोरोगी लगते हैं, दया के पात्र। बीमार, जिनका खुद पर नियंत्रण नहीं होता।

अलबत्ता गाली को परंपरा बनानेवालों के खिलाफ ‘मी टू’ की तरह एक अभियान चलाने की आवश्यकता है। स्त्रियाँ (और पुरुष भी) सामने आएँ और कहें कि फलां रिश्तेदार ने, पति ने, अपवादस्वरूप बेटे ने भी गाली दी थी।  अपने सार्वजनिक अपमान से इन गालीबाज पुरुषों को वही तिलमिलाहट हो सकती है जो अकेले में ही सही गाली की शिकार किसी महिला की होती होगी।

गाली शाब्दिक अश्लीलता है, गाली वाचा द्वारा किया गया यौन अत्याचार और लैंगिक अपमान है। सरकार ने जैसे ‘नो स्मोकिंग जोन’ कर दिये हैं, उसी तरह गालियों को घरों से बाहर करने, बाहर से भी सीमापार करने के लिए एक मुहिम की आवश्यकता है।

आइए, ‘नो एब्यूसिंग’ की शपथ लें। गाली न दें, गाली न सुनें। गाली का सम्पूर्ण निषेध करें।

मित्रो, मैं आज से # No Abusing शुरू कर रहा हूँ। इसमें मेरा साथ दें, शामिल हों।

# No Abusing

(इस पोस्ट का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करने का आप सबसे निवेदन है। इसे विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कर जन-आंदोलन बनाने का भी अनुरोध है। )
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©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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