हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #5 – वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

इस आलेख को हम देवशयनी (आषाढ़ी) एकादशी के पावन पर्व पर साझा करना चाहते थे। किन्तु, मुझे पूर्ण विश्वास है कि- आपको यह आलेख निश्चित ही आपकी वारी से संबन्धितसमस्त जिज्ञासाओं की पूर्ति करेगा। आज के  विशेष आलेख के बारे में मैं श्री संजय भारद्वाज जी के शब्दों को ही उद्धृत करना चाहूँगा।)

??  मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि वारी पर बनाई गई फिल्म और इस लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

– संजय  भारद्वाज  ????

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 5 ☆

 

☆ वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा ☆

 

 

भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है-पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि  तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।

स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।

पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले  महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के  विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।

पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।

वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।

अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।

अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।

हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और  कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार। 

वारी में सहभागी होने के लिए दूर-दराज के गाँवों से लाखों भक्त बिना किसी निमंत्रण के आलंदी और देहू पहुँचते हैं। चरपादुकाएँ लेकर चलने वाले रथ का घोड़ा आलंदी मंदिर के गर्भगृह में जाकर सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन करता है। ज्ञानेश्वर महाराज को माउली याने चराचर की माँ भी कहा गया है। माउली को अवतार पांडुरंग अर्थात भगवान का अवतार माना जाता है। पंढरपुर की यात्रा आरंभ करने के लिए चरणपादुकाएँ दोनों मंदिरों  से बाहर लाई जाती हैं। उक्ति है-‘ जब चराचर भी नहीं था, पंढरपुर यहीं था।’

चरण पादुकाएँ लिए पालकी का छत्र चंवर डुलाते एवं निरंतर पताका लहराते हुए चलते रहना कोई मामूली काम नहीं है। लगभग 260 कि.मी.  की 800 घंटे की पदयात्रा में लाखों वारकरियों की भीड़ में पालकी का संतुलन बनाये रखना, छत्र-चंवर-ध्वज को टिकाये रखना अकल्पनीय है।

वारी स्वप्रेरित अनुशासन और श्रेष्ठ व्यवस्थापन का अनुष्ठान है। इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ आंकड़े जानना पर्याप्त है-

  • विभिन्न आरतियों में लगनेवाले नैवेद्य से लेकर रोजमर्रा के प्रयोग की लगभग 15 हजार वस्तुओं (यहाँ तक की सुई धागा भी) का रजिस्टर तैयार किया जाता है। जिस दिन जो वस्तुएँ इस्तेमाल की जानी हैं, नियत समय पर वे बोरों में बांधकर रख दी जाती हैं।
  • 15-20 हजार की जनसंख्या वाले गाँव में 10 लाख वारकरियों का समूह रात्रि का विश्राम करता है।  ग्रामीण भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अद्वैत भाव के बिना गागर में सागर समाना संभव नहीं।
  • सुबह और शाम का भोजन मिलाकर वारी में प्रतिदिन 20 लाख लोगों के लिए भोजन तैयार होता है।
  • रोजाना 10 लाख लोग स्नान करते हैं, कम से कम 30 लाख कपड़े रोज धोये और सुखाये जाते हैं।
  • रोजाना 50 लाख कप चाय बनती है।
  • हर दिन लगभग 3 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होता है।
  • एक वारकरी दिन भर में यदि केवल एक हजार बार भी हरिनाम का जाप करता है तो 10 लाख लोगों द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले कुल जाप की संख्या 100 करोड़ हो जाती है। शतकोटि यज्ञ भला और क्या होगा?
  • वारकरी दिनभर में लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलता है। विज्ञान की दृष्टि से यह औसतन 26 हजार कैलोरी का व्यायाम है।
  • जाने एवं लौटने की 33 दिनों की  यात्रा में पालकी के दर्शन 24 घंटे खुले रहते हैं। इस दौरान लगभग 25 लाख भक्त चरण पादुकाओं के दर्शन करते हैं।
  • इस यात्रा में औसतन 200 करोड़ का आर्थिक   व्यवहार होता है।
  • हर दिंडी के साथ दो ट्रक, पानी का एक टेंकर, एक जीप, याने कम से कम चार वाहन अनिवार्य रूप से होते हैं। इस प्रकार 500 अधिकृत समूहों के साथ कम से कम 2 हजार वाहन होते हैं।
  • एकत्रित होने वाली राशि प्रतिदिन बैंक में जमा कर दी जाती है।
  • रथ की सजावट के लिए पुणे से रोजाना ताजा फूल आते हैं।

हर रात 7 से 8 घंटे के कठोर परिश्रम से रथ को विविध रूपों में सज्जित किया जाता है।

  • एक पंक्ति में दिखनेवाली भक्तों की लगभग 15 किलोमीटर लम्बी ‘मूविंग ट्रेन’ 24 घंटे में चार बार विश्रांति के लिए बिखरती है और नियत समय पर स्वयंमेव जुड़कर फिर गंतव्य की यात्रा आरंभ कर देती है।
  • गोल रिंगण अर्थात अश्व द्वारा की जानेवाली वृत्ताकार परिक्रमा हो, या समाज आरती, रात्रि के विश्राम की व्यवस्था हो या प्रातः समय पर प्रस्थान की तैयारी, लाखों का समुदाय अनुशासित सैनिकों-सा व्यवहार करता है।
  • नाचते-गाते-झूमते अपने में मग्न वारकरी…पर चोपदार का ‘होऽऽ’  का एक स्वर और संपूर्ण नीरव …… इस नीरव में मुखर होता है-वारकरियों का अनुशासन।

वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है।

वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।

राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला। राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।

वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है। प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवणकुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं  तो संत   जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।

वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है। ‘जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत……’, हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियाँ अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये ,पता ही नहीं चलता। संत कबीर कहते हैं-

कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर

पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर

भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि  स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।

भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति भी जुटते हैं।  ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।

वारी भारत के धर्मसापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओसकणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।

  • आनंद का असीम सागर है वारी..
  • समर्पण की अथाह चाह है वारी…
  • वारी-वारी, जन्म-मरणा ते वारी..
  • जन्म से मरण तक की वारी…
  • मरण से जन्म तक की वारी..
  • जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी……

वस्तुतः वारी देखने-पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है।  विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में -महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

 

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #7 – जीवन एक परीक्षा☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज छठवीं कड़ी में प्रस्तुत है “जीवन एक परीक्षा ”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 7 ☆

 

☆ जीवन एक परीक्षा ☆

 

परीक्षा जीवन की एक अनिवार्यता है. परीक्षा का स्मरण होते ही याद आती है परीक्षा की शनैः शनैः तैयारी. निर्धारित पाठ्यक्रम का अध्ययन, फिर परीक्षा में क्या पूछा जायेगा यह कौतुहल, निर्धारित अवधि में हम कितनी अच्छी तरह अपना उत्तर दे पायेंगे यह तनाव. परीक्षा कक्ष से बाहर निकलते ही यदि कुछ समय और मिल जाता या फिर अगर मगर का पछतावा..और फिर परिणाम घोषित होते तक का आंतरिक तनाव. परिणाम मिल जाने पर भी असंतुष्टि या पुनर्मूल्यांकन की चुनौती..हम सब इस प्रक्रिया से किंचित परिवर्तन के साथ कभी न कभी कुछ न कुछ मात्रा में तनाव सहते हुये गुजरे ही है. टी वी के रियल्टी शोज में तो इन दिनों प्रतियोगी के सम्मुख लाइव प्रसारण में ही उसे सफल या असफल घोषित करने की परंपरा चल निकली है.. परीक्षा और परिणाम के इस स्वरूप पर प्रतियोगी की दृष्टि से सोचकर देखें.

सामान्यतः परीक्षा लिये जाने के मूल उद्देश्य व दृष्टिकोण को हममें से ज्यादातर लोग सही परिप्रेक्ष्य में समझे बिना ही येन केन प्रकारेण अधिकतम अंक पाना ही परीक्षा का उद्देश्य मान लेते हैं. और इसके लिये अनुचित तौर तरीकों के प्रयोग तक से नही हिचकिचाते. या फिर असफल होने पर आत्महत्या रोग जैसे घातक कदम तक उठा लेते हैं.

प्रश्न है कि क्या परीक्षा में ज्यादा अंक पाने मात्र से जीवन में भी सफलता सुनिश्चित है ? जीवन की अग्नि परीक्षा में न तो पाठ्यक्रम निर्धारित होता है और न ही यह तय होता है कि कब कौन सा प्रश्न हल करना पड़ेगा ? परीक्षा का वास्तविक उद्देश्य मुल्यांकन से ज्ञानार्जन हेतु प्रोत्साहित करना होता है. जीवन में सफल वही होता है जो वास्तविक ज्ञानार्जन करता है न कि अंक मात्र प्राप्त कर लेता है. यह तय है कि जो तन्मयता से ज्ञानार्जन करता है वह परीक्षा में भी अच्छे अंक अवश्य पाता है. अतः जरूड़ी है कि परीक्षा के तनाव में ग्रस्त होने की अपेक्षा शिक्षा व परीक्षा के वास्तविक उद्देश्य को हृदयंगम किया जावे, संपूर्ण पाठ्यक्रम को अपनी समूची बौद्धिकता के साथ गहन अध्ययन किया जावे व तनाव मुक्त रहकर परीक्षा दी जावे. याद रखें कि सफलता कि शार्ट कट नही होते. परीक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन को अंकों के मापदण्ड पर उतारना मात्र है. ज्ञानार्जन एक तपस्या है. स्वयं पर विश्वास करें. विषय का मनन चिंतन, अध्ययन करें, व श्रेष्ठतम उत्तर लिखें, परिणाम स्वयमेव आपके पक्ष में आयेंगे.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #4 – मैराथन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  चौथी  कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 4  ☆

 

☆ मैराथन ☆

 

मैं यह काम करना चाहता था पर उसने अड़ंगा लगा दिया।…मैं वह काम करना चाहती थी पर इसने टांग अड़ा दी।…उसमें है ही क्या, उससे बेहतर तो इसे मैं करता पर मेरी स्थितियों के चलते..!!  ….अलां ने मेरे खिलाफ ये किया, फलां ने मेरे विरोध में यह किया…।

स्वयं को अधिक सक्षम, अधिक स्पर्द्धात्मक बनानेे का कोई प्रयास न करना, आत्मावलोकन न कर व्यक्तियों या स्थितियों को दोष देना, हताशाग्रस्त जीवन जीनेवालों से भरी पड़ी है दुनिया।

वस्तुतः जीवन मैराथन है। अपनी दौड़ खुद लगानी होती है। रास्ते, आयोजक, प्रतिभागी, मौसम किसी को भी दोष देकर पूरी नहीं होती मैराथन।

कवि निदा फाज़ली ने लिखा है,‘रास्ते को भी दोष दे, आँखें भी कर लाल/ चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल।’ 

अधिकांश लोग जीवन भर ये कील नहीं निकाल पाते। कील की चुभन पीड़ा देती है। दौड़ना तो दूर, चलना भी दूभर हो जाता है।

जिस किसीने यह कील निकाल ली, वह दौड़ने लगा। हार-जीत का निर्णय तो रेफरी करेगा पर दौड़ने से ऊर्जा का प्रवाह तो शुरू हुआ।

प्रवाह का आनंद लेने के लिए इसे पढ़ने या सुनने भर से कुछ नहीं होगा। इसे अपनाना होगा।

उम्मीद करता हूँ अपनी-अपनी चप्पल सबके हाथ में है और कील के निष्कासन की कार्यवाही शुरू हो चुकी है।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #6 – खुशी की तलाश ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज छठवीं कड़ी में प्रस्तुत है “खुशी की तलाश”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 6 ☆

☆ खुशी की तलाश ☆

 

नया साल आ गया, हमने पार्टियां मनाई, एक दूसरे को बधाई दी  नये संकल्प लिये, अपनी पुरानी उपलब्धियो का मूल्यांकन और समीक्षा भी की. खुशियाँ मनाई. दरअसल हम सब हर पल खुशी की तलाश में व्यथित हैं. खुशी की तलाश के संदर्भ में यहाँ एक दृष्टांत दोहराने और चिंतन मनन करने योग्य है. एक जंगल में एक कौआ सुख चैन से रह रहा था. एक बार उड़ते हुये उसे एक सरोवर में हंस दिखा, वह हंस के धवल शरीर को देखकर बहुत प्रभावित हुआ. उसे लगा कि वह इतना काला क्यो है ? कौआ हीन भावना से ग्रस्त हो गया. उसे लगा कि धवल पंखी हंस सबसे अधिक सुखी है. कौए ने हंस से जाकर अपने मन की बात कही, तो हंस ने जवाब दिया कि मित्र तुम सही कह रहे हो मैं स्वयं भी अपने आप को सबसे अधिक भाग्यशाली और सुखी मानता था पर कल जब मैने तोते को देखा तो मुझे लगा कि मेरे पंखो का तो केवल एक ही रंग है वह भी सफेद, जबकि तोता कितना सुखी पंछी है उसके पास तो लाल और हरा दोनो रंग हैं, और वह मधुर आवाज में बोल भी सकता है. जब से मैं तोते से मिला हूँ मुझे लगने लगा है कि तोता मुझसे कही ज्यादा भाग्यशाली और सुखी पक्षी है. हंस के मुँह से ऐसी बातें सुनकर कौआ तोते के पास जा पहुँचा और उससे सारी कथा कह सुनाई. तोते ने कौए से कहा कि यह तो ठीक है पर सच यह है कि मैं बहुत दुखी हूँ क्योंकि कल ही मेरी मुलाकात मोर से हुई थी और उसे देखकर मुझे लगता है कि भगवान ने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है, मुझे केवल दो ही रंग दिये हैं जबकि मोर तो सतरंगा है, वह सुंदर नृत्य भी कर पाता है. तोते से यह जानकर कि वह भी सुखी नहीं है, कौआ बड़ा व्यथित हुआ, उसने मोर से मिलने की ठानी. वह मोर से मिलने पास के चिड़ियाघर जा पहुँचा. वहाँ उसने देखा कि मोर बच्चो की भीड़ से घिरा हुआ था, उसे देखकर सभी बहुत प्रसन्न हो रहे थे. कौ॓ए ने मन ही मन सोचा कि वास्तव में मोर से सुखी और कोई दूसरा पक्षी हो ही नहीं सकता. वह सोचने लगा कि  काश उसके पास भी मोर की तरह सतरंगे पंख होते तो वह कितना सुखी होता. जब मोर के पिंजड़े के पास से लोगों की भीड़ समाप्त हुई तो कौआ मोर के पास जा पहुँचा और उसने मोर को अपनी पूरी कथा सुना डाली कि कैसे वह हंस से मिला फिर तोते से और अब खुशी की तलाश में उस तक पहुँचा है. कौए की बातें सुनने के बाद मोर ने उससे कहा मैं सोचा करता था कि सचमुच मैं ही सबसे सुंदर और सुखी पक्षी हूं, पर जब मुझे कल मौका मिला तो मैने सारे चिड़ियाघर का निरीक्षण किया. मैने देखा कि यहाँ हर पक्षी छोटे या बड़े पिंजड़े में कैद करके रखा गया है. मेरी सुंदरता ही मेरी दुश्मन बन गई है और मैं यहां इस पिंजड़े में कैद करके रखा गया हूं. मोर ने कहा कि तब से मैं यही सोचता हूं कि काश मैं कौआ होता तो खुले आसमान में मन मर्जी से उड़ तो सकता, क्योंकि केवल कौआ ही एकमात्र ऐसा पक्षी है जिसे यहां चिड़ियाघर में किसी पिंजड़े में कैद नही रखा गया है. मोर के मुँह से यह सुनकर कौआ सोच में पड़ गया कि वास्तव में सुखी कौन है?

हमारी स्थितियां भी कुछ ऐसी ही हैं, हम अपने परिवेश में व्यर्थ ही किसी से स्वयं की तुलना कर बैठते हैं और फिर स्वयं को दुखी मान लेते हैं. उस जैसे सुख पाने के लिये तनाव ग्रस्त जीवन जीने लगते हैं. सचाई यह है कि हर व्यक्ति स्वयं में विशिष्ट होता है, जरूरत यह होती है कि हम अपनी विशिष्टता पहचानें और उस पर अभिमान करें न कि किसी दूसरे से व्यर्थ की तुलना करके दुखी हों. आत्म सम्मान के साथ अपनी विशेषता को निखारना हमारा उद्देश्य होना चाहिये. अपनी उस विशेषता को अपने परिवेश में सकारात्मक तरीके से फैलाकर समाज के व्यापक हित में उसका सदुपयोग करने का हमको प्रयत्न करना चाहिये. आइये नये साल के मौके पर हम सब यह निश्चित करें कि हम दूसरो से व्यर्थ ही ईर्ष्या नही करेंगे, अपने गुणो का जीवन पर्यंत  निरंतर सकारात्मक विकास करेंगे और स्वयं के व व्यापक जन हित में अपने सद्गुणो का भरपूर उपयोग करेंगे.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #3 – मोक्ष …. ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  तृतीय कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 3 ☆

☆ मोक्ष… ☆

 

मोक्ष.., ऐसा शब्द जिसकी चाह विश्व के हर मनुष्य में इनबिल्ट है। बढ़ती आयु के साथ यह एक्टिवेट होती जाती है। स्वर्ग-सी धरती पर पंचसिद्ध मनुष्य काया मिलने की उपलब्धि को भूलकर प्रायः जीव  अलग-अलग पंथों की पोशाकों, प्रार्थना पद्धति, लोकाचार आदि में मोक्ष गमन के मार्ग तलाशने लगता है। तलाश का यह सिलसिला भटकाव उत्पन्न करता है।

एक घटना सुनाता हूँ। मोक्ष के राजमार्ग की खोज में अपने ही संभ्रम में शहर की एक सड़क पर से जा रहा था। वातावरण में किसी कुत्ते के रोने का स्वर रह-रहकर गूँज रहा था पर आसपास कुत्ता कहीं दिखाई नहीं देता था। एकाएक एक कठोर वस्तु पैरों से टकराई। पीड़ा से व्यथित मैंने देखा यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। गेंद मेरे पैरों से टकराकर कुछ आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई।

आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। गेंद उठाता कि कुत्ते के रोने का स्वर फिर गूँजा। उसने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और शायद मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गंवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।

मैं बच्चे से कुछ पूछता कि एकाएक उसकी टोली में से किसी ने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।

संभ्रम छँट गया था। मोक्ष की राह मिल गई थी।

धरती के मोक्ष का सम्मान करो, आकाश का परमानंद मोक्षधाम तुम्हारा सम्मान करेगा।

©  संजय भारद्वाज , पुणे

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मज़दूरी / मजबूरी वाली ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  उनका आलेख  “मज़दूरी / मजबूरी वाली”।   यह एक आलेख ही नहीं अपितु, आह्वान है, यह हमें हमारे समाज के प्रति मानवीय एवं सामाजिक दायित्व को भी याद दिलाता है।  यह हमें  प्रोत्साहित करता है कि यदि प्रत्येक व्यक्ति कम से कम एक ऐसे बच्चे का दायित्व उठा ले जो “मजबूरी में बाल मजदूरी” कर रहा हो तो  हम  न जाने कितने ही बच्चों को सम्मानजनक जीवन देने में सफल हो सकते हैं।  बाल मजदूरी के साथ  ही उन्होने और भी कई सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डाला है। इस दिशा में कई गैर सरकारी संगठन भी कार्य कर रहे हैं।  किन्तु, एक मनुष्य अथवा एक नागरिक के रूप में हमारा भी तो कुछ कर्तव्य बनता है? जरा सोचें…. । 

 

☆ मज़दूरी / मजबूरी वाली

 

मज़दूरी इनकी मजबूरी एक विवादास्पद विषय है तथा अनेक प्रश्नों व समस्याओं को जन्म देता है। अनगिनत पात्र मनोमस्तिष्क में दस्तक देते हैं, क्योंकि  लम्बे समय तक मुझे अंग-संग रहने का अवसर प्राप्त हुआ है। यह पात्र कभी लुकाछिपी का खेल खेलते हैं तो कभी करुणामय नेत्रों से निहारते हैं, मानो विधाता के न्याय पर अंगुली उठा रहे हों। —कैसा न्याय है यह? जब सृष्टि-नियंता ने सबको समान बनाया है— सब में एक-सा रक्त प्रवाहित है तो हमसे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों? एक ओर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में रहने वाले लब्ध-प्रतिष्ठित धनी लोग और दूसरी ओर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले, खुले आकाश के नीचे ज़िन्दगी बसर करने वाले लोग क्यों? हमारे देश में इंडिया और भारत में वैषम्य क्यों?

उक्त कथन बहुत चिंतनीय है, विचारणीय है। जब हम मासूम बच्चों को मज़दूरी करते देखते हैं तो आत्मग्लानि होती है। ढाबे पर बर्तन धोते या चाय व खाना परोसते बच्चे, रैड लाइट पर गाड़ी साफ करते व फूल, खिलौने खरीदने का अनुरोध करते बच्चे, सड़क किनारे अपने छोटे भाई-बहिन का ख्याल रखते, जूठन पर टूटते नंग-धड़ंग बच्चे, अधिक पाने के लिए एक-दूसरे से झगड़ते, मरने-मारने पर उतारू बच्चे,  रेलवे स्टेशन पर बूट-पालिश करते, ट्रेन में अपनी कमीज़ से कंपार्टमेंट की सफाई करते या अखबार व मैगज़ीन बेचते बच्चों की ओर हमारा ध्यान स्वतः आकर्षित हो जाता है और हम उनकी मज़बूरी के बारे में जानने को आतुर हो, उन पर प्रश्नों की बौछार लगा देते हैं। परन्तु सहानुभूति प्रकट करने के अतिरिक्त कुछ कर पाने में, स्वयं को असमर्थ पाते हैं।

मुझे स्मरण हो रही है वह घटना, जब मैं गुवाहाटी की ट्रेन की प्रतीक्षा में दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बैठी थी। अपनी ड्रेस बदलते और स्वयं को मिट्टी से लथपथ करते, घाव दर्शाने हेतु मरहम लगाते, एक जैसी टोपियां डालते देख, मैं एक बच्चे से वार्तालाप कर बैठी। वह मौन रहा और इसी बीच एक व्यक्ति उन सब के लिए भोजन लेकर आया। भोजन करने के पश्चात् वे अपने-अपने गंतव्य की ओर बढ़ गए। उस बच्चे ने मेरी जिज्ञासा के बारे में अपने मालिक को जानकारी दी। वह मुझे घूरता रहा मानो देख लेने की धमकी दे रहा हो।

बच्चे ट्रेन के अलग-अलग डिब्बों में सवार हो गए परंतु उस गैंग के बाशिंदों ने मुझे नहीं चढ़ने दिया। उन्होंने रास्ता रोके रखा और चार-पांच लोग ए•सी• कंपार्टमेंट के दरवाज़े में खड़े हो गए और अपने मिशन में सफल हो गए। मेरा मोबाइल व पैसे पर्स से गायब हो चुके थे। ट्रेन के चलने के कारण मैं कोई कार्यवाही भी नहीं कर सकती थी। वे लोग उस डिब्बे से उतर चुके थे।

मैं सारा रास्ता यही सोचती रही, कितने शातिर हैं यह लोग…वे इन बच्चों से भीख मांगने का धंधा करवाते हैं और यह बच्चे शायद डर के मारे उनके इशारों पर नाचते रहते हैं। यह भी हो सकता है कि इनके माता- पिता इन कारिंदों से रात को बच्चों की एवज़ में पैसा वसूलते हों। वैसे भी छोटे बच्चों को तो स्त्रियां किराए पर ले लेती हैं …अपना धंधा चलाने के निमित्त और रात को उनके माता-पिता को लौटा देती हैं, दिहाड़ी के साथ।

जहां तक दिहाड़ी का संबंध है, बच्चों व महिलाओं को कम पैसे दिए जाते हैं। बाल मज़दूरी कानूनी अपराध है। परंतु  बच्चों के बिना तो इनका काम ही नहीं चलता।

सुबह जब बच्चे, कंधे पर बैग लटका कर, स्कूल बस या कार में यूनिफॉर्म पहनकर जाते हैं, तो इनके हृदय का आक्रोश सहसा फूट निकलता है और वे अपने माता-पिता को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देते हैं। वे उन्हें स्कूल भेजने की अपेक्षा, उनके हाथ में कटोरा थमाकर क्यों भेज देते हैं? उनके साथ यह दोगला व्यवहार क्यों? माता पिता के उत्तर से उन्हें संतोष नहीं होता। उनके कोमल मन में समानाधिकारों व  व्यवस्था-परिवर्तन की बात उठती है और वे उन्हें आग़ाह करते हैं कि वे भविष्य में कूड़ा बीनने व भीख मांगने नहीं जायेंगे, न ही मेहनत मज़दूरी करेंगे।

चलिए! रुख करते हैं, घरों में काम करने वाली बाइयों की ओर…जिन्हें उनके परिचित सब्ज़बाग दिखला कर दूसरे प्रदेशों से ले आते हैं और इन नाबालिग लड़कियों को दूसरों के घरों में काम पर लगा देते हैं, जिसकी एवज़ में वे मोटी रकम वसूलते हैं। 11 महीने तक वे उस घर में दिन रात काम करती हैं। जब वे घर  छोड़ कर आती हैं तो उदास होती हैं और काम करना इनकी मजबूरी। परंतु धीरे-धीरे वे मालकिन की भांति व्यवहार करने लगती हैं। आजकल वे बहुत भाव खाती हैं

परंतु कई घरों में तो उनका शोषण किया जाता है। दिन रात काम करने के पश्चात् इन्हें पेट भर खाना भी नहीं मिलता। साथ ही उन्हें बंधक बनाकर रखा जाता है, मारा-पीटा जाता है व शारीरिक शोषण भी किया जाता है। यह मासूम अपनी मनोव्यथा किसी से नहीं कह सकतीं। कई बार जुल्म सहते-सहते तंग आकर वे भाग निकलती हैं या आत्महत्या कर लेती हैं।

आजकल तो एजेंटों का यह धंधा खूब पनप रहा है। वे लड़की को किसी के घर छोड़ कर साल भर का एडवांस ले जाते हैं और चंद घंटों बात वह लड़की अपने साथ कीमती सामान लेकर भाग निकलती है। वे बेचारे पुलिस स्टेशन के चक्कर लगाते रह जाते हैं। वहां जाकर उन्हें आभास होता है कि वे ठगी के शिकार हो चुके हैं।

परंतु बहुत से बच्चों को मज़दूरी करनी पड़ती है विषम पारिवारिक परिस्थितियों के कारण, किसी अनहोनी के घटित हो जाने के कारण, उन मासूमों के कंधों पर परिवार का बोझ आन पड़ता है और वे उम्र से पहले बड़े हो जाते हैं। यदि इन्हें मज़दूरी न मिले तो असामान्य परिस्थितियों में परिवार खुदक़ुशी करने को विवश हो जाता है और भीख मांगने के अतिरिक्त उनके सम्मुख दूसरा विकल्प शेष नहीं रहता।

परन्तु कुछ बच्चों में आत्म सम्मान का प्रभाव अत्यंत प्रबल होता है। वे मेहनत-मज़दूरी करना चाहते हैं क्योंकि भीख मांगना उनकी फ़ितरत नहीं होती और उनके संस्कार उन्हें झुकने नहीं देते।

चंद लोग क्षणिक सुख के निमित्त अपनी संतान को जन्म देकर सड़कों पर भीख मांगने को छोड़ देते हैं। अक्सर वे बच्चे नशे के आदी होने के कारण अपराध जगत् की अंधी गलियों में अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। वे समाज में अव्यवस्था व दहशत फैलाने का उपक्रम करते हैं तथा यह बाल अपराधी रिश्तों को दरक़िनार कर अपने माता-पिता व परिवार-जनों की जान लेने में भी संकोच नहीं करते। लूटपाट, हत्या, बलात्कार, अपहरण आदि को अंजाम देना इनकी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। मुझे ऐसे बहुत से बच्चों के संपर्क में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। लाख प्रयास करने पर भी मैं उन्हें इन बुरी आदतों से सदैव के लिए मुक्त नहीं करवा पाई। ऐसे लोग वादा करके अक्सर भूल जाते हैं और फिर उसी दलदल में लौट जाते हैं। इनके चाहने वाले दबंग लोग इन्हें सत्मार्ग पर चलने नहीं देते क्योंकि इससे उनका धंधा चौपट हो जाता है।

मज़दूरी इनकी मजबूरी पर भी विश्वास करना कठिन हो गया है क्योंकि आजकल तो सब मुखौटा धारण किए हैं। अपनी मजबूरी को दर्शा कर लोगों को लूटना इनका पेशा बन गया है। वे बच्चे जिन्हें मजबूरी के कारण मज़दूरी करनी है, सचमुच सहानुभूति के पात्र हैं। समाज के लोगों व सरकार के नुमाइंदों को उनकी सहायता-सुरक्षा के लिए हाथ बढ़ाने चाहिएं ताकि एक स्वस्थ समाज की संरचना हो सके और हर बच्चे को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त हो सके। मानव-मूल्यों का संरक्षण हो तथा संबंधों की गरिमा बनी रहे। स्नेह, प्रेम, सौहार्द, सहयोग, सहनशीलता, सहानुभूति आदि दैवीय गुणों का अस्तित्व कायम रहे। इंसान के मन में दूसरे की मजबूरी का लाभ उठाने का भाव कभी भी जाग्रत न हो और समाज में समन्वय, सामंजस्य व समरसता का साम्राज्य हो। मानव स्व पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ एक अच्छा इंसान बन जाये।

अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, यदि हम सब मिलकर प्रयासरत रहें और एक बच्चे की शिक्षा का दायित्व वहन कर लें, तो हम 10 में से 1 बच्चे को एक अच्छा प्रशासक, एक अच्छा इंसान व एक अच्छा नागरिक बना पाने में सफलता प्राप्त कर सकेंगे और शेष बच्चे भले ही जीवन की सुख-सुविधाएं जुटाने में सक्षम न हों, अपराध जगत की अंधी गलियों में भटकने से बच जायेंगे। निरंतर अभ्यास व प्रयास से हम अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। हमें इस मुहिम को आगे बढ़ाना होगा, जैसाकि हमारी सरकार इन मासूम बच्चों के उत्थान के लिये नवीन योजनाएं ला रही है, जिसके अच्छे परिणाम हमारे समक्ष हैं। हमें जाति विशेष को आरक्षण न देकर, अच्छी शिक्षा के निमित्त उन्हें सुख-सुविधाएं प्रदान करनी होंगी ताकि उनमें हीन भावना न पनपे। प्रतिस्पर्धात्मक युग में वे अपनी योग्यता के मापदंड पर वे खरे उतर सकें और सिर उठा कर कह सकें, ‘हम किसी से कम नही।’

इन्हीं शुभकामनाओं व अपेक्षाओं के साथ…

शुभाशी,

डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो•न• 8588801878

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #5 – जैसा खाओ अन्न, वैसा रहे मन ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज   पाँचवी कड़ी में प्रस्तुत है “जैसा खाओ अन्न, वैसा रहे मन”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  #-5 ☆

☆ जैसा खाओ अन्न, वैसा रहे मन ☆

स्वस्थ्य तन में ही स्वस्थ्य मन का निवास होता है. जीवन में सात्विकता का महत्व निर्विवाद है.संस्कारों व विचारो में पवित्रता मन से आती है, मन में शुचिता भोजन से आती है.इसीलिये निरामिष भोजन का महत्व है. बाबा रामदेव ने भी फलाहार तथा शाक सब्जियों के रस को जीवन शैली में अपनाने हेतु अभियान चला रखा है. किन्तु पिछले दिनों सी एस आई आर दिल्ली के एक वैज्ञानिक की लौकी के रस के सेवन से ही मृत्यु हो गई. लौकी के उत्पादन को व्यवसायिक रूप से बढ़ाने के लिये लौकी के फलों में प्रतिबंधित आक्सीटोन के हारमोनल इंजेक्शन लगाया जा रहे हैं.

कम से कम समय में फसलों के अधिकाधिक उत्पादन हेतु रासायनिक खाद का बहुतायत से उपयोग हो रहा है, फसल को कीड़ों के संभावित प्रकोप से बचाने के लिये रासायनिक छिड़काव किया जा रहा है. विशेषज्ञों की निगरानी के बिना किसानो के द्वारा जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिये व किसी भी तरह फसल से अधिकाधिक आर्थिक लाभ कमाने के लिये आधुनिकतम अनुसंधानो का मनमानी तरीके से प्रयोग किया जा रहा है. इस सब का दुष्प्रभाव यह हो रहा है कि पौधों की शिराओ से जो जीवन दायी शक्ति फल, सब्जियों, अन्न में पहुंचनी चाहिये, उसमें नैसर्गिकता का अभाव है,हरित उत्पादनो में रासयनिक उपस्थिति आवश्यकता से बहुत अधिक हो रही है. यही नही खेतों की जमीन में तथा बरसात के जरिये पानी में घुलकर ये रसायन नदी नालों के पानी को भी प्रदूषित कर रहे हैं.

यातायात की सुविधायें बढ़ी हैं, जिसके चलते काश्मीर के सेव, रत्नागिरी के आम, या भुसावल के केले सारे देश में खाये जा रहे हैं,यही नही विदेशों से भी फल सब्जी का आयात व निर्यात हो रहा है. इस परिवहन में लगने वाले समय में फल सब्जियां खराब न हो जावें इसलिये उन्हें सुरक्षित रखने के लिये भी रसायनो का धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है.

विक्रेता भी फल व सब्जियां ताजी दिखें इसलिये उन्हें रंगने से नही चूक रहे, फल व सब्जियों की प्राकृतिक चमक तो इस लंबे परिवहन में लगे समय से समाप्त हो जाती है किन्तु उन्हें वैसा दिखाने हेतु क्लोरोफार्म जैसे रसायनो का उपयोग किया जा रहा है. व्यवसायिक लाभ के लिये आम आदि, कच्चे फलों को जल्दी पकाने के लिये कार्बाइड का उपयोग धड़ल्ले से हो रहा है. इथेफान नामक रसायन से केले समय से पहले पकाये जा रहे हैं.

जनसामान्य का नैतिक स्तर इतना गिर चुका है कि केवल धनार्जन के उद्देश्य की पूर्ति हेतु अप्रत्यक्ष रूप से यह जो रासायनिक जहर शनैः शनैः हम तक पहुंच रहा है उसके लिये किसी के मन में कोई अपराधबोध नहीं है. सरकार इतनी पंगु है कि उसका किसी तरह कोई नियंत्रण इस सारी कुत्सित व्यवस्था पर नहीं है. आबादी बढ़ रही है, येन केन प्रकारेण इस बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओ की पूर्ति हेतु हम उत्पादन बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे हुये हैं, किसी को भी इस प्रदूषण के दूरगामी परिणामों की कोई चिंता नहीं है, व्यवस्थायें कुछ ऐसी हैं कि हम बस आज में जीने पर विवश हे.

आर्गेनिक उत्पाद के नाम पर जो लोग नैसर्गिक तरीको से उत्पादित फल व सब्जियां बाजार में लेकर आ रहे हैं वे भी लोगों की इस भावना का अवांछित नगदीकरण ही कर रहे हैं.कथित नैसर्गिक उत्पादो के मूल्य नियंत्रण हेतु कोई व्यवस्था नही है, आर्गेनिक उत्पाद का उपयोग अभिजात्य वर्ग के बीच स्टेटस सिंबाल हो चला है.

बीटी बैगन का मसला

पहली जेनेटिकली मोडिफाइड खाद्य फसल बीटी बैगन के जरिए पैदा हुए विवाद ने ऐसी फसल के बारे में कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाये हैं. देश विदेश में अनेक कृषि अनुसंधान हो रहे हैं, जेनेटिकली मोडिफाइड खाद्य फसलें बनाई जा रही हैं. बीटी बैगन को महिको ने अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो के साथ मिलकर विकसित किया है. बीटी बैगन में मिट्टी में पाया जाने वाला “क्राई 1 एसी” नामक जीन डाला गया है, इससे निकलने वाले जहरीले प्रोटीन से बैगन को नुकसान पहुंचाने वाले फ्रूट एंड शूट बोरर नामक कीड़े मर जाएंगे. दरअसल, बीटी बैगन को लेकर आशकाएं कम नहीं हैं. सामान्यतया एक ही फसल की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती हैं लेकिन जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी अन्य पौधे या जंतु का जीन का किसी पौधे या जीव में प्रवेश कराया जाता है जैसे सूअर का जीन मक्का में, इसी कारण यह उपलब्धि संदिग्ध व विवादास्पद बन गई है. बिना किसी जल्दबाजी या अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के दबाव के बहुत समझदारी से विशेषज्ञों की राय के अनुसार इस मसले पर निर्णय लिये जाने की जरूरत है.

जैविक खेती ही एक मात्र समाधान

आखिर इस समस्या का निदान क्या है ? भारत की परंपरागत धरती पोषण की नीति को अपनाकर गोबर, गोमूत्र और पत्ते की जैविक खाद के प्रयोग को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है. हम भूलें नहीं कि भारत की लंबी संस्कृति लाखों साल की जानी-मानी परखी हुई परंपरा है. इससे धरती की उपजाऊ शक्ति कभी कम नहीं हुई. पिछले कुछ हीं दशकों में रासायनिक खाद का प्रचार-प्रसार किया गया और इसका आयात अंधाधुंध ढंग से हुआ. यदि हम इसी वर्तमान नीति पर चलते रहे तो भारत की खेती का वही हाल होगा जो आज चीन की खेती का हो रहा है. जैविक खेती करने के लिए किसानो को गायों का पालन करना होगा ताकि खेत में ही गोबर और गोमूत्र की उपलब्धि हो सके जिससे जैविक खाद बनाई जावे. महात्मा गांधी की ग्राम स्वायत्तता की परिकल्पना आज भी प्रासंगिक बनी हुई है. “है अपना हिंदुस्तान कहाँ वह बसा हमारे गाँवों में”.. भारत का प्रमुख उद्योग कृषि ही है, अतः देश व समाज के दीर्घकालिक हित में सरकार को तथा स्वयं सेवी संस्थानो को जनजागरण अभियान चलाकर भावी पीढ़ी के लिये इस दिशा में यथाशीघ्र निर्णायक कदम उठाने की जरूरत है.

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #2 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

( “साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  द्वितीय  कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 2 ☆

 

मनुष्य चंचलमना है। एक काम निरंतर नहीं कर सकता। उत्सवधर्मी तो होना चाहता है पर उत्सव भी रोज मना नहीं पाता।

वस्तुतः वासना अल्पजीवी है। उपासना शाश्वत है। कुछ क्षण, कुछ घंटे, कुछ दिन, महीने या धन की हो तो जीवन का एक कालखंड, इससे अधिक नहीं ठहर पाती मनुष्य की वासना। उपासना जन्म-जन्मांतर तक चल सकती है।

उपासना अर्थात धूनि रमाना भर नहीं है। सच्ची धूनि रमाना बहुत बड़ी बात है, हर किसीके बस की नहीं।

उपासक होने का अर्थ है-जिस भी क्षेत्र में काम कर रहे हो अथवा जिस कर्म के प्रति रुचि है, उसमे डूब जाओ, उसके लिए समर्पित हो जाओ। अपने क्षेत्र में अनुसंधान करो। उसमें नया और नया तलाशो, उसे अधिक और अधिक आनंददायी करने का मार्ग ढूँढ़ो।

हमारी हाउसिंग सोसायटी में हर घर से कूड़ा एकत्र कर सार्वजनिक कूड़ेदान में फेंकने का काम करनेवाला स्वच्छताकर्मी अपने साथ गत्ते के टुकड़े लेकर चलता है। डस्टबिन में नीचे गत्ता या मोटा कागज़ लगाता है। कुछ दिनों में कचरे से गत्ता या कागज़ जब गल जाता है, उसे बदलता है। यह उसके निर्धारित काम का हिस्सा नहीं है पर धूनि ऐसे भी रमाई जाती है।

उपासना ध्यानस्थ करती है। ध्यान आत्मसाक्षात्कार कराता है। स्वयं से साक्षात्कार परिष्कार करता है। परिष्कार चिंतन को दिशा देता है। चिंतन, चेतना में रूपांतरित होता है। चेतना, दिव्यता का आविष्कार करती है। दिव्यता जीवन को सच्चे उत्सव में बदलती है। साँस-साँस उत्सव मनाने लगता है मनुष्य।

आज संकल्प करो, न करो। बस उपासना के पथ पर डग भरो। आवश्यक नहीं कि इस जन्म में उत्सव तक पहुँचो ही। पर जो राह उत्सव तक ले जाए, उस पर पाँव रखना क्या किसी उत्सव से कम है?

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #5 – आँसू ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश  “स्मृतियाँ/Memories”।  आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक  अत्यन्त  भावुक एवं मार्मिक  संस्मरण “आँसू ”।)

(कल के अंक में पढ़िये श्री आशीष कुमार जी की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘पूर्ण विनाशक’ की पृष्ठभूमि जो कि उनके रहस्यमयी जीवन यात्रा से किसी न किसी रूप से जुड़ी हुई है। श्री आशीष कुमार की जीवन यात्रा भी किसी रहस्यमयी उपन्यासिका से कम नहीं है।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #5 ☆

 

☆ आँसू 

 

इंसान जब विद्यालय की पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी की तलाश में बहार किसी नए शहर में जाता है तो बहुत कुछ सीखता है उसे अलग अलग प्रान्त और धर्म के लोगो के साथ घुलना पड़ता है तब वह समझता है की सब अपने ही भाई है और सबकी जिंदगी में दिक्कते (problems) है । पुणे में मुझे भी कई अलग अलग तरह के दोस्तों का साथ मिला किसी का खान पान अलग था, किसी की सोच, किसी की दिनचर्या आदि आदि । पुणे में काफी समय तक मुझे दिल्ली के एक साथी रोहित गुप्ता के साथ भी रहने का सौभाग्य मिला रोहित की सोच और शौक मेरे से बिलकुल ही अलग थे पर फिर भी हम अच्छे मित्र थे । मैं और मेरे बाकी दो कमरा साथियो ने रोहित गुप्ता का नाम U.G. रख रखा था U.G. का मतलब अंकल जी क्योकि वो बेटा बेटा बोल कर बहुत बात करते थे तो हमने सोचा वो हमे बेटा बोलते है तो हम उनको अंकल जी या छोटे रूप में U.G. बोलेंगे ।

हम लोग रात का खाना कभी बाहर खा लेते थे, कभी टिफ़िन कमरे पर ही मंगवा लिया करते थे बाद में जब केवल मैं और गुरु (जयदीप, जिसके बारे में आप लोग कहानी नंबर 3 mystery में पढ़ चुके है) ही कमरा साथी रह गए थे तब हमने एक अम्मा को खाना बनाने के लिए लगा लिया था । एक रात जब हम चारो मित्र चाट सेंटर पर पराठे खा रहे थे तब U.G. का फ़ोन आया, वो फ़ोन पर एकदम से ही तेज आवाज़ में बात करने लगे और बोलने लगे ‘क्या आपको पता नहीं अभी ऑफिस से आया हूँ, फ़ोन कर कर के परेशान कर दिया’

मैने काफी हल्के मन से कहा  ‘अरे भाई किसको आप अपने गंदे वचनो से नवाज़ रहे है ?’ U.G. बोले ‘कुछ नहीं यार ये पापा ने परेशान कर के रख दिया जैसे उन्हें पता ही नहीं की मैं ऑफिस से कितना थक कर आता हूँ’ । मुझे तो जैसे सदमा ही लग गया ये सुनकर कि U.G. अपने पापा से इतनी गन्दी तरह बात कर रहे थे । मैने U.G. से कहा ‘यार बड़ी हैरानी की बात है कि आप अपने पापा से इतनी गन्दी तरह से बात कर रहे थे । कितनी उम्मीद के साथ उन्होंने आपको फ़ोन किया होगा केवल ये जानने के लिए कि  मेरा बेटा ठीक है या नहीं, उसने खाया या नहीं।  अरे उन्होंने तो ये सोचकर फ़ोन किया होगा कि अपने बेटे से थोड़ी देर बात करके उसकी सारी थकान और पेरशानी मिटा देता हूँ  पर क्या बीती होगी उनपर आपकी बातें सुनकर।  सोचो अगर आप परेशान हो भी तो आपकी बातें सुनकर आपके पापा कितने परेशान हो गए होंगे? अरे आप माँ बाप के बाकी सब एहसान तो भूल ही जाओ केवल ये एहसान कि उन्होंने आपको जन्म दिया है, उतारने के लिए आपकी जिंदगी भी कम है, क्योकि ना वो आपको जन्म देते ना ही वो एक भी पल आपकी जिंदगी मे आता जिसमे आप जरा भी हँसे हैं  सोचो आपने अपने पापा से कितनी गन्दी तरह बात की है।  उनके दिमाग में जो आपसे हुई आखरी बाते है उनकी स्मृति कितनी गन्दी होगी और वो स्मृति हमेशा के लिए उनके दिमाग में बस गयी होगी।’

फिर उस रात U.G. ज्यादा कुछ नहीं बोले ।

दो दिनों बाद मैने देखा की U.G. किसी से फ़ोन पर बात कर रहे हैं डॉक्टर और हॉस्पिटल आदि की । इन दो दिनों में U.G. ने मेरे से कोई बात नहीं की थी । मैंने U.G. से पूछा ‘क्यों भाई कौन हॉस्पिटल में है?’ U.G. ने बस इतना कहा ‘पापा’ और मेरे से ज्यादा बात नहीं की । अगले दिन मुझे जयदीप ने बताया की U.G. घर गया है क्योकि उसके पापा हॉस्पिटल में है और गंभीर अवस्था में है । दो दिन बाद U.G. घर से वापस आ गए मैने पूछा की ‘अंकल का स्वास्थ्य अब कैसा है ?’ तो वो बोले ‘यार वो बेहोश जैसे है मैं बस उन्हें देख पाया पर उनसे बात नहीं हो पायी, यार पापा का बचना मुश्किल है’ मैं थोड़ा हैरान था और मन में सोच रहा था की U.G. भावनात्मक रूप से बहुत मजबूत है और बिलकुल भी विचलित नहीं है । दो दिन बाद की सुबह, मेरे तीनो कमरा साझा करने वाले मित्र अपने काम पर गए थे वो लोग करीब सुबह 9:00 बजे जाते थे और मैं करीब सुबह 10:00 बजे । करीब सुबह 9:30 पर मुझे जयदीप का फ़ोन आया उस समय मैं नहा रहा था । जयदीप ने बोला ‘यार तुरंत एक टैक्सी यहाँ से मुंबई एयरपोर्ट तक बुक कर दो और हो सके तो तुम उसमें बैठकर हिंजेवाड़ी फ्लाईओवर तक आ जाओ’ मैंने पूछा ‘क्यों क्या हुआ?’ तो जयदीप बोला ‘यार U.G. के पापा गुजर गये है उनकी 3:30 घंटे बाद मुंबई से फ्लाइट है समय बहुत कम है तुम उधर से टैक्सी लेकर आओ मैं U.G. को बाइक से लेकर हिंजेवाड़ी फ्लाईओवर तक आता हूँ’।  करीब 30 मिनट बाद हम तीनो हिंजेवाड़ी फ्लाईओवर के नीचे खड़े थे । टैक्सी और जयदीप की मोटर साइकिल एक तरफ खड़े थे हम लोग U.G. को सांत्वना देने की कोशिश कर रहे थे । U.G. अब भी बिना विचलित हुए खड़े थे और बिना एक भी आँसू के बात कर रहे थे । फिर मैंने U.G. को कहा ‘ठीक है यार ध्यान रखना अब जाओ वरना फ्लाइट छूट जायगी’ U.G. ने टैक्सी का दवाजा खोला मेरी तरफ देखा और भागकर मेरे गले लग गये उनकी आँखों के आंसू से मेरा कन्धा थोड़ा गीला हो गया था बस वो इतना बोले ‘ यार तेरी बात सच हो गयी मेरी जो पापा से आखरी बात हुई वो बहुत गन्दी थी अब मुझे कभी अपने पापा से बात करने का मौका नहीं मिलेगा’

मैं बहुत शांत था ।

रस : शांत

 

© आशीष कुमार  

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #4 – मस्तिष्क-दृष्टि ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  चौथी कड़ी में प्रस्तुत है “मस्तिष्क-दृष्टि”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  #-4  ☆

 

☆ मस्तिष्क-दृष्टि ☆

 

हमारी सबसे बड़ी योग्यता क्या  है ? जीवन के विहंगम दृश्य को देखने की हमारी दृष्टि ? गीत और भाषा की ध्वनियाँ सुनने की शक्ति ? भौतिक संसार का आनंद अनुभव करने की क्षमता ? या शायद समृद्घ प्रकृति की मधुरता और सौंदर्य का स्वाद व गंध लेने की योग्यता ? दार्शनिको व मनोवैज्ञानिको का मत है कि हमारी सबसे अधिक मूल्यवान अनुभूति है हमारी ‘‘मस्तिष्कदृष्टि’’ (mindsight) . जिसे छठी इंद्रिय के रूप में भी विश्लेषित किया जाता है । यह एक दिव्यदृष्टि । हमारे जीवन की कार्ययोजना भी यही तय करती है। यह एक सपना है और उस सपने को हक़ीक़त में बदलने की योग्यता भी । यही मस्तिष्क दृष्टि हमारी सोच निर्धारित करती है और  सफल सोच से  ही हमें व्यावहारिक राह सूझती है, मुश्किल समय में हमारी सोच ही हमें  भावनात्मक संबल देती है। अपनी सोच के सहारे ही हम अपने अंदर छुपी शक्तिशाली कथित ‘‘छठी इंद्रिय’’ को सक्रिय कर सकते हैं और जीवन में उसका प्रभावी प्रयोग कर सकते हैं। हममें से बहुत कम लोग जानते हैं कि दरअसल हम अपने आप से चाहते क्या हैं ?  यह तय है कि जीवन लक्ष्य निर्धारित कर सही दिशा में चलने पर हमारा जीवन जितना रोमांचक, संतुष्टिदायक और सफल हो सकता है, निरुद्देश्य जीवन वैसा हो ही नहीं  सकता।  हम ख़ुद को ऐसी राह पर कैसे ले जायें, जिससे हमें स्थाई सुख और संतुष्टि मिले। सफलता व्यक्तिगत सुख की पर्यायवाची है। हम अपने बारे में, अपने काम के बारे में, अपने रिश्तों के बारे में और दुनिया के बारे में कैसा महसूस करते हैं, यही  तथ्य हमारी  व्यक्तिगत सफलता व संतुष्टि का निर्धारक होता है।

सच्चे सफल लोग  हर नये दिन का स्वागत उत्साह, आत्मविश्वास और आशा के साथ करते हैं। उन्हें ख़ुद पर भरोसा होता है और उस जीवन शैली पर भी, जिसे जीने का विकल्प उन्होंने चुना है। वे जानते हैं कि जीवन में  कुछ पाने के लिए उन्हें अपनी सारी शक्ति एकाग्र कर लगानी पड़ेगी । वे अपने काम से प्रेम करते हैं। वे लोग दूसरों को प्रेरित करने में कुशल होते हैं और दूसरों की उपलब्धियों पर ख़ुश होते हैं। वे दूसरों का ध्यान रखते हैं, उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं स्वाभाविक रूप से प्रतिसाद में उन्हें भी अच्छा व्यवहार मिलता है। मस्तिष्क-दृष्टि द्वारा हम जानते हैं, कि मेहनत, चुनौती और त्याग जीवन के हिस्से हैं। हम हर दिन  को व्यक्तिगत विकास के अवसर में बदल सकते हैं। सफल व्यक्ति डर का सामना करके उसे जीत लेते हैं और दर्द को झेलकर उसे हरा देते हैं। उनमें अपने दैनिक जीवन में सुख पैदा करने की क्षमता होती है, जिससे उनके आसपास रहने वाले  लोग भी सुखी हो जाते हैं। उनकी निश्छल मुस्कान, उनकी आंतरिक शक्ति और जीवन की सकारात्मक शैली का प्रमाण होती है।

क्या आप उतने सुखी हैं, जितने आप होना चाहते हैं ? क्या आप अपने सपनों का जीवन जी रहे हैं या फिर आप उतने से ही संतुष्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, जो आपके हिसाब से आपको मिल सका है ? क्या आपको हर दिन सुंदर व संतुष्टिदायक अनुभवों से भरे अद्भुत अवसर की तरह दिखता है ? अगर ऐसा नहीं है, तो सच मानिये कि व्यापक संभावनाये आपको निहार रही हैं। किसी को भी संपूर्ण, समृद्ध और सफलता से भरे जीवन से कम पर समझौता नहीं करना चाहिये। आप अपनी मनचाही ज़िंदगी जीने में सफल हो पायेंगे या नहीं, यह पूरी तरह आप पर ही निर्भर है .आप सब कुछ कर सकते हैं, बशर्तें आप ठान लें। अपने जीवन के मालिक बनें और अपने मस्तिष्क में निहित अद्भुत संभावनाओं को पहचानकर उनका दोहन करें। अगर मुश्किलें और समस्याएँ आप पर हावी हो रही हैं तथा आपका आत्मविश्वास डगमगा रहा है, तो जरूरत है कि आप समझें कि आप अपनी समस्या का सामना कर सकते हैं .आप स्वयं को प्रेरित कर, आत्मविश्वास अर्जित कर सकते हैं, आप अपने डर भूल सकते हैं, असफलता के विचारों से मुक्त हो सकते हैं, आप में नैसर्गिक क्षमता है कि आप चमत्कार कर सकते हैं, आप अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से लाभ उठा कर अपना जीवन बदल सकते हैं, आप शांति से और हास्य-बोध के साथ खुशहाल जीवन जी  सकते हैं, शिखर पर पहुँचकर वहाँ स्थाई रूप से बने रह सकते हैं, और इस सबके लिये आपको अलग से कोई नये यत्न नही करने है केवल अपनी मस्तिष्क-दृष्टि की क्षमता को एक दिशा देकर विकसित करते जाना है।

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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