हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 402 ⇒ तमाशबीन (Spectator)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तमाशबीन (Spectator)।)

?अभी अभी # 402 ⇒ तमाशबीन (Spectator)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम जिसे साधारण भाषा में दर्शक कहते हैं, उसे ही अगर गाजे बाजे के साथ पेश किया जाए, तो वह तमाशबीन हो जाता है।

दूर की चीज देखने वाला उपकरण जैसे दूरबीन कहलाता है, ठीक उसी प्रकार दूर से तमाशा देखने वाला तमाशबीन कहलाता है। तमाशबीन कभी एक गंभीर दर्शक नहीं होता।

वह तो सिर्फ मनोरंजन और नाच गाने में विश्वास रखता है।

तमाशा भी देखा जाए तो एक तरह का हल्का फुल्का नाटक अथवा मनोरंजन ही है। मराठी में लोकनाट्य को तमाशा कहते हैं। रंगमंच पर संगीत और नृत्य की मिली जुली प्रस्तुति भी तमाशा ही कहलाती है।।

“तमाशा” फ़ारसी का एक उधार शब्द है, जिसने इसे अरबी से उधार लिया है, जिसका अर्थ है किसी प्रकार का शो या नाटकीय मनोरंजन। इसी तरह

तमाशागर = तमाशा करनेवाला। तमाशागाह= क्रीड़ा- स्थल। कौतुकागार। तमाशबीन = तमाशा देखनेवाला।

हम भारतीय तमाशा प्रेमी हैं। चौराहे पर दो सांडों की लड़ाई हमारे लिए तब तक तमाशा बनी रहती है, जब तक एक सांड द्वारा किसी तमाशबीन को पटक नहीं दिया जाता। जिस घर से भी पति पत्नी अथवा सास बहू के लड़ने की आवाज सुनाई देती है, पहले तो पड़ौसी दीवार में कान लगाकर सुनते हैं, लेकिन जब मामला हाथापाई और मारपीट पर आ जाता है, तो न जाने कहां से तमाशबीन घर के बाहर, बारिश बाद के केंचुए की तरह जमा हो जाते हैं।

हमारे तमाशेबाजों की एक भाषा होती है, जहां भी दो पक्षों में लड़ाई हो रही है, अपना जूता उल्टा कर दिया जाए और “उल्टा जूता चेत भवानी” मंत्र का जाप किया जाए। अगर कहीं भवानी नहीं चेतती, तो एक हारे हुए नेता की तरह, मुंह लटकाकर परास्त भाव से, वहां से पतली गली से निकल लेते हैं।।

तमाशबीन वह होता है, जो कहीं से भी तमाशा बीन निकालता है। ऐसे कई तमाशबीन आपको किसी भी नाले अथवा पुलिया के पास प्रचुर मात्रा में नजर आ जाएंगे। चार लोगों की भीड़ में हमें तमाशा नजर आने लगता है। एक जिज्ञासा, देखें क्या हो रहा है, एक राहगीर को साइकल अथवा स्कूटर रोकने को बाध्य करती है।

वह फुसफुसाहट से भांप लेता है, मामला कितना संगीन है। सबकी कल्पना में एक सांप होता है। कभी नजर आता है, कभी नहीं।

हमारे लिए सबसे बड़ा तमाशा कोई दुर्घटना है।

जहां धुंआ होगा, वहां आग भी होगी। आजकल तो गंभीर हादसों और दुर्घटनाओं को भी मोबाइल पर रेकॉर्ड कर उनका तमाशा बनाया जा रहा है। ऐसे कई टीवी पत्रकार, खोजी पत्रकारिता की आड़ में, बोरवेल में गिरे बच्चे की लाइव रेकॉर्डिंग आज तक पर प्रसारित कर देते हैं।।

जो जिंदगी कभी नाटक थी, आज तमाशा बन गई है। हर जगह सस्पेंस और रोमांच ढूंढना ही तमाशबीन होना है। यह सकारात्मकता से नकारात्मकता की तरफ बढ़ता हुआ एक खतरनाक कदम है। हमने राजनीति, पढ़ाई, साहित्य, धर्म और नैतिकता सबको तमाशा बना दिया है।

सड़कों का तमाशा आजकल घरों में भी प्रवेश कर गया है। बुद्धू बक्से का बाप यानी स्मार्ट फोन और लैपटॉप आज आपकी मुट्ठी में है। सेल्फी एक बीमारी हो गई है और सभी तमाशबीन व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के छात्र हो गए हैं। झूठ के साये में अफवाह और पाखंड पनप रहे हैं। अफसोस, तमाशा जारी है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 107 – जीवन यात्रा : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  जीवन यात्रा

☆ कथा-कहानी # 106 –  जीवन यात्रा : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

वो एक्स और वाई क्रोमोसोम से बनता है तो प्रकृति अपनी प्रचलित विधा के अनुसार उसे एक आवास अलॉट करती है, तरल द्रव्य और अंधकारमय. वो अंधेरे से, अकेलेपन से घबराकर ईश्वर से फरियाद करता है तो सांत्वना मिलती है ईश्वर और उसके बीच की ब्रम्हांडीय भाषा में  ” डरने की जरूरत नहीं है अंकुरित वत्स, ये तुम्हारी जीवनयात्रा की सबसे सुरक्षित जगह है जिसे तुम बाद में हमेशा मिस करोगे. तुम्हारी सारी जरूरतें आटोमेटिकली पूरी होती रहेंगी और तुम यहां अकेले नहीं हो. जो इंसान तुम्हारे साथ है और तुम्हें अगले कुछ महीनों carry करेगा, वो तुम्हारे जीवन का, जीवन में और जीवन के लिये सबसे ज़्यादा caring, loving, sacrificing, friendly companionship होगी. ये मेरी ही रचना है पर तुम सौभाग्यशाली हो कि मैं जिससे महरूम हूँ, वह कंपनी तुम्हें मिल रही है. इसके लिये नश्वरता आवश्यक है जो मेरे नसीब में नहीं है. मैं तो जन्म मरण के चक्र से दूर अविनाशी हूँ, अपने ब्रम्हांडीय संचालन के कर्तव्य बोध से बंधा हूं वरना कौन नहीं चाहता कि ये साथ उसे मिले. तुम अभी अंकुरित हुये हो, लगभग अचल हो, गतिशीलता के गुण  धीरे धीरे विकसित होंगे प्रकृति के नियमानुसार. पहले तुम उसके साथ और वह तुम्हारे साथ रहना समझेगी,तुम्हारे साथ तारतम्यता का प्रादुर्भाव होगा जो बाद में ममता के नाम से जानी जायेगी. तुमसे साक्षात्कार की कल्पना, उसे शारीरिक मोह, सुंदरता और दर्द सबसे विरक्त कर देगी. तुम्हें तो खैर क्या मालुम पर जब पहचानने और पोषण की प्रक्रिया से गुजरते हुये तुम ध्वनि से जुड़ी अभिव्यक्ति के द्वार तक पहुंचोगे तो वह पहला ध्वनि युक्त शब्द होगा “मां “ तो डरने की जरूरत नहीं है मेरे अंकुरित अंश, मैं तो रहूंगा ही तुम्हारे साथ पर तुम मुझे महसूस नहीं कर पाओगे पर जो पहला स्पर्श तुम जानोगे, वही मां है, ये जरूर जान लेना.तुमसे गर्भनाल द्वारा linked गर्भाशय रूपी आवास ही तुम्हें जीवन और पोषण की चिंता से मुक्त रखेगा. यही वह वक्त भी है जब हर समय वो तुम्हारे साथ रहेगी.तुम्हारी जीवनयात्रा का ये सबसे सुरक्षित और चिंतामुक्त काल है.तुम्हारे landlord को तुम्हारी चिंता रहेगी पर तुम्हें पाने का एहसास, उसके अंदर प्रकृति की वह शक्ति देगा, जिसके सामने साहस, वेदना, भय, सहनशीलता बहुत बौने हो जाते हैं.तो जो तुम्हारी हलचल से मुदित होकर तुम्हें बाहर से स्पर्श करे, वह तुम्हारी जीवनदायिनी है “मां ” है ,चाहे कुछ भी हो जाये पर इस रिश्ते को गंवाना नहीं.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 401 ⇒ घर का जोगी जोगड़ा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घर का जोगी जोगड़ा।)

?अभी अभी # 401 ⇒ घर का जोगी जोगड़ा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब तक कोई गांव का व्यक्ति ग्लोबल नहीं होता, वह प्रसिद्ध नहीं हो सकता। आज का जमाना सिद्ध होने का नहीं, प्रसिद्ध होने का है। हमारे अपने अपने कूप हैं, जिन्हें हमने गांव, तहसील, जिला, शहर, महानगर और स्मार्ट सिटी नाम दिया हुआ है। इंसान डॉक्टर, प्रोफेसर, अफसर,

वैज्ञानिक, सी एम, पी एम, और महामहिम तो दुनिया के लिए होता है, उसका भी एक घर होता है, वह किसी का बेटा, और किसी का बाप और किसी का पति भी होता है। घर में न तो नेतागीरी झाड़ी जाती है और न अफसरी।

उज्जैन से कोई मुख्यमंत्री बन गया, तब हमें इतना आश्चर्य नहीं हुआ, जितना सन् १९६८ में, विक्रम विश्वविद्यालय के एक वैज्ञानिक डाॅ हरगोविंद खुराना को संयुक्त रूप से विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिलते वक्त हुआ। ।

तब हम कहां सन् २०१४ के नोबेल पुरस्कार विजेता, विदिशा के श्री कैलाश सत्यार्थी को जानते थे। लेकिन इनका नाम होते ही हम इन्हें जान गए। यही होता है जोगड़ा से जोगी होना।

प्रतिभाओं को कहां घर में पहचाना जाता है। कहीं कहीं तो घर से पलायन के पश्चात् ही प्रतिभा में निखार आता है तो कहीं कहीं पलायन के पश्चात् ही प्रतिभा को पहचान मिलती है। ब्रेन ड्रेन होगी कभी एक गंभीर समस्या आज इसे एक उपलब्धि माना गया है। ।

आज के जोगड़े भी बड़े चालाक हैं, जोगी बनते ही अपने गांव, शहर और देश को ही भूल जाते हैं। एक जोगड़े थे राजनारायण, जो रातों रात इंदिरा गांधी को हराकर आन गांव में सिद्ध हो गए थे। उनकी पत्नी को आज तक, कभी कोई नहीं जान पाया। वाह रे जोगी। इसी तरह मां बाप और परिवार को छोड़ कई जोगड़े आज विदेशों में नाम कमा रहे हैं। आजकल बुढ़ापे की लाठी, वैसे भी बच्चे नहीं, पैसा ही तो है, भिजवा देते हैं गांव में।

जोगड़े से जोगी बनना इतना आसान भी नहीं। कभी अपनों को छोड़ना पड़ता है, तो कभी अपनों के कंधों पर पांव रखकर आगे निकलना पड़ता है। स्वार्थ, मतलब, महत्वाकांक्षा के बिना आजकल कहां प्रतिभा में निखार आता है। व्यापम घोटाले से आज NET और NEET तक का सफर तो यही कहानी कहता नजर आता है। इन घोटालों की आड़ में गांव के बेचारे कई योग्य जोगड़े, कहीं जोगड़े ही ना रह जाए, और जो जुगाड़ और राजनीतिक प्रभाव वाले हैं, कहीं वे बाजी ना मार जाएं। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 89 – देश-परदेश – सुनो सुनो और सुनो ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 89 ☆ देश-परदेश – सुनो सुनो और सुनो ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन से वृद्धावस्था तक सुनते ही तो आ रहें हैं। कब तक सुनते रहेगें,हम उनकी ? ये वाक्य यादा कदा दिन मे उपयोग हो ही जाता हैं।

पुराने समय में पत्नियां भी अपनी सहेलियों से अक्सर ये शिकायत करती रहती थी, कि “हमारे ये तो सुनते ही नहीं हैं”, वो समय कुछ और था,जब अर्धांगनियां पति को संबोधन में कहती थी “अजी सुनते हो” अब समय शट अप से गेट लॉस्ट से भी आगे जा चुका हैं।

हमारे बॉलीवुड की सफलतम और एक अच्छे व्यक्तित्व की धनी श्रीमती अलका याग्नियक जी विगत कुछ दिनों से अपनी श्रवण शक्ति खो चुकी हैं।उनकी मधुर आवाज़ ही उनकी पहचान हैं।उन्होंने सभी से अपील की है, कि कान में हेडफोन (यंत्र नुमा) के अत्याधिक उपयोग से ऐसा हुआ हैं।

आजकल विशेषकर युवा पीढ़ी के लोग इयरफोन या हेडफोन से ही संगीत सुनना या कुछ भी सुनना पसंद करती हैं।पैदल सड़क पर,रेलपटरी, भोजन खाते समय,गाड़ी चलाते हुए या कुछ भी करते हुए इसका प्रचालन बहुत अधिक बढ़ गया हैं।परिणाम सामने है,दुर्घटनाएं और सुनने की क्षमता का कम होना,इस बात का प्रमाण हैं।

ये तो अच्छा हुआ कि व्हाट्स ऐप/ मेल आदि आ गए वरना ये सब फोन से बात करके ही संभव हो पता, कानों की क्या हालत होती ?

हमारे एक मित्र की बात भी सुन लेवें,उनके परिवार ने अब इयरफोन से तौबा कर ली है।घर में कुल अलग अलग रंग/डिजाइन के दस पुराने इयरफोन को जोड़ कर उसकी कपड़े सुखाने के लिए उपयोग कर रहे हैं। आप ने इसके रीयूज के लिए क्या विचार किया हैं ?

हमारी बातें भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देवें, इसी में मज़े हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ कुडोज़ टू कविता ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ आलेख ☆ कुडोज़ टू कविता ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

कल एक कार्यक्रम में गयी थी। अपने शहर आने के बाद एक बात अच्छी यह हुई है कि यहाँ अकादमिक कार्यक्रम होते रहते हैं और मन खुश रहता है। कल ऐसे ही एक कार्यक्रम में गयी और मन प्रसन्न हो गया। कविता और सूरों का सुंदर मिलन! कार्यक्रम था तो कविता पाठ का लेकिन जिस नाटकियता के साथ प्रस्तुत किया गया वह अपनी एक नवीनता लिए था। वैसे महाराष्ट्र में साहित्य और कला का जो मेल हमें देखने मिलता है वह बहुत ही न्यारा है। खैर, कल का जो कार्यक्रम था उसका शीर्षक ही मन को भा गया.. भाई.. एक कवितेचा शोध। अर्थात भाई मतलब पु, ल देशपांडे।  मराटी साहित्य के दिगज्ज साहित्यकार!मराठी साहित्य जगत में उनका संबोधन पु. ल ही है। इस कार्यक्रम की थीम भी अनुठी थी। इसमें पु. ल. और उनकी पत्नी सुनिताबाई,  दोनों ने मिलकर कविता की जो खोज अपने पुस्तकों के बीच करते है और उस खोज में वे दोनों किसतरह अपनी स्मृति यात्रा में खो जाते हैं उसका लेखा जोखा कविता के माध्यम से करते हैं..इसकी अप्रतिम प्रस्तुति की गई थी। कार्यक्रम की प्रस्तुति, मुक्ता बर्वे का कविता पाठ और उसकी अभिनेयता दिल को खुश कर गयी। कविता हमारे जीवन का अहम हिस्सा है यह बात कितनी सहजता से स्वाभाविकता से इन कलाकारों ने रसिकों तक पहुँचायी… इसके लिए कलाकारों को कुडोज़!! रादर कुडोज़ टू कविता!

पिछले कुछ दिनों से गुलज़ार की जीवनी पढ़ रही हूँ.. और उनके के साथ उनकी नज़्मों की दुनिया में पहुँच रही हूँ। इसलिए मन का विश्व कविता और नज़्मों से सराबोर है। कलवाले कार्यक्रम के कारण कविता मेरे दिलो दिमाग पर लहरा रही है। आज के इस आपाधापि के जीवन में अंतर्मुख करने के लिए कविता एक बहुत बड़ा माध्यम है, जिसका एक सिरा लेकर हम बहुत दूर की यात्रा कर आते है। पता ही नहीं होता कि वह हमें कहाँ कहाँ ले जाती है। पता नहीं किस क्षितिज की यात्रा करा देती है। सुबह शाम के रंग दिखा देती है और दोपहर की कड़ी धूप में हमें ठडंक भी पहुँचाती है। एक अच्छी कविता दिन बना देती है।

कल वॉटसअप पर आयी एक लंबी कविता मेरे भाई ने मुझे फॉरवर्ड की थी और बार बार पूछ रहा था कि क्या, ‘तुमने कविता सुनी’? उसके कहने पर सुनी भी। कविता अच्छी ही नहीं बेहतर भी थी। कविता-पाठ भी बढ़िया था। कविता का भाव यही था कि हमारे जीवन की किताब का पहला पन्ना और आखरी पन्ना तो पहले से लिखा गया है पर इसके मध्य के सारे पन्ने हमें लिखने होते हैं। कितना निरिह है मेरा भाई, मुझे कह रहा था तुम लिख दो वह सारे खाली पन्ने!  मैं! दरअसल हमारे जीवन के सारे खाली पन्ने हमें खुद ही लिखने होते हैं, क्रिएट करने होते हैं। कोई किसी के जीवन का खालीपन भले ही थोड़ी देर के लिए भर दे पर उसके जीवन के कोरे कागज़ पर लिखता तो वही है। खैर, जहाँ तक क्रिएशन … रचनात्मकता की बात है तो सोशल मीडिया से लोग रचनात्मकता से अवगत हो रहे हैं। युवा कलाकारों को, जिनके अंदर एक रचयिता छूपा बैठा है उनको अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का अच्छा प्लैटफॉर्म मिला है।  इक्कीसवीं सदी में तंत्रज्ञान इतना विस्तार पा गया है कि कुछ लोगों का मानना है कि अब हमारे भीतर का निर्झर सूखता चला जा रहा है। हर उठती उँगली के साथ एक रील देखना और देखते चले जाना यह प्रवृत्ति रचनात्मकता को रिप्लेस करती जा रही है। यह बात सही होने है पर भी इसके साथ ही एक और सच्चाई यह भी है कि इसी तंत्रज्ञान का उपयोग कर आज की युवा पीढ़ि अपनी रचनात्मकता को आगे भी ला रही है। उनकी ‘स्टैंडअप कविता’ मन को छू जाती है। आज युवा वर्ग अपने तईं  अपनी रचनात्मकता बनाए रख रहा है। भले ही उनके प्रतीक, बींब, शैली शिल्प अलग है.. और होने भी चाहिए… नया प्रयोग तो होता ही आया है और साहित्य का कहन तो समय के रहते बदलता ही है और बदलता आ ही रहा है… किंतु वे जुड़े तो है ना लेखन से और लेखनी से…अगर मैं खुद को करेक्ट करूँ तो की-बोर्ड पर अपने फिंगर टीप से…या उससे भी आगे जाकर कहें तो मोबाइल पर अपनी उंगलियाँ चलाकर क्रिएशन करने में। हाँ और एक बात ..अब तो वह ज़माना भी लद गया जह क़ॉपि, डायरी या पेपर लेकर कविता पढ़ी जाती थी… अब तो मोबाइल के स्क्रीन के माध्यम से कविता पाठ होता है….क्यों न हो… यंत्रों का किया जानेवाला सहज उपयोग है यह! आज पुरानी पीढ़ी भी तो उसका महत्व समझ रही है… कागज़ का उपयोग भी कम ही है…। खैर,

यहाँ एक उदीयमान युवा कवियों का मंच है, जहाँ तक मुझे पता है यह बच्चे कुल बीस पच्चीस साल के होंगे जो कविता का पाठ करते है.. खुद की… हिंदी, मराठी, कन्नड और अंग्रेजी भाषा में अपने भाव पिरो देते है… और अपना कविता की प्रस्तुति करते हैं…अच्छा है न…। मुझे खुशी इस बात की है कि कविता आज भी इस यंत्र विश्व में अपना स्थान लिए है… आखिर इन्सान को अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त तो करनी ही होती है न… उसके लिए शब्दों की आवश्यकता है ही… इसलिए चाहे कुछ भी हो जाए कविता लुप्त नहीं होगी…इसका भरोसा है। कविता हमारे हाथों से छूटती चली जा रही है यह कहना ही सही नहीं है.. भले ही हम कितने ही खिन्न, अकेले या व्यस्त क्यों न हो कविता ही हमारे भीतर उत्साह  भर देती है। आज के व्यस्ततापूर्ण जीवन में अंजुली में जुही के फूलों को लेकर सुंघने का भी समय नहीं है पर ऐसे में भी कविता हमें अंदर से संपन्न बना देती है, उसके मात्र स्पर्श से मन खिल जाता है।

गुलज़ार कहते हैं,

मुझसे एक नज्म का वादा है, मिलेगी मुझको

डूबती नब्जों में जब दर्द को नींद आने लगे।

दर्द और कविता का पता नहीं क्या रिश्ता है। कितना बड़ा सवाल है कि कविता का जन्म कैसे होता है… पंत तो कहकर गए वियोगी होगा पहला कवि…और शेले ने टी ए स्काईलार्क कविता में कहा है कि  ‘हमारे सबसे मधुर गीत वे हैं जो सबसे दुखद विचार बताते हैं।’ कितना विरोधाभास है न कि तीव्र दुख अक्सर तीव्र खुशी से पहले होता है, और हमारी सबसे गहरी भावनात्मक अभिव्यक्तियाँ अक्सर हमारे सबसे गहरे दुखों से निकलती हैं। मुझे अक्सर लगता है कि कविता के माध्यम से हम खुद से बात करते हैं..अपनी भावनाएँ उतार देते हैं.. पंक्ति दर पंक्ति… और कहीं अपनी ही  भावनाओं के बोझ से रिक्त भी होते जाते हैं… धूमिल ने एक जगह बहुत अच्छी बात कही है, …

कविता

घेराव में

किसी बौखलाए हुए आदमी का

संक्षिप्त एकालाप है।

तो रघुवीर सहाय को कविता को हलफनामा कहते हैं,

कविता शब्दों की अदालत में

मुज़रिम के कटघरे में खडें

बेकसूर आदमी का

हलफनामा है।

वास्तव में कविता एक हलफनामा ही है, जहाँ हम अपने मनन, चिंतन और  रुदन भी शब्दबद्ध कर देते हैं। कुछ पांच छह साल पहले प्रसून जोशी की एक कविता पढ़ी थी.. उसका शीर्षक ही था,.. क्या है कविता.. प्रसून लिखते हैं, “कविता एक दृष्टि देती है। जो दूसरों को नहीं दिख रहा, उसके पार देख लेना कविता है।” कविता क्या है इसको समझाते हुए उन्होंने एक बेहद उम्दा कविता लिखी है। उस कविता की अंतिम पंक्तियाँ मुझे अच्छी लगी थी… 

दो घड़ी ठहर कर 

जीवन की नदी को 

बहते देखना है 

कविता वहीं कहीं है। 

कविता क्या है के बारे में हर रचनाकार सोचता है कि क्या है वह? हर एक के लिए वह कुछ न कुछ होती है.. बहुत कुछ होती है..शायद उससे अधिक कुछ। मेरे लिए वह एक संवाद है….खुद से…उसके माध्यम से ही मैं बात करती हूँ… कभी खुद से तो कभी तुम से। इसलिए एकालाप कहूँ या फिर संवाद!  पर वह है इसलिए मन का संतुलन भी है। इसलिए प्रिय कविते! कुडोज़!!

*********                          

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 400 ⇒ सदा दिवाली संत की… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सदा दिवाली संत की।)

?अभी अभी # 400 ⇒ सदा दिवाली संत की? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या आपने कभी संतों को दीवाली मनाते देखा है, अथवा किसी भूखे को उपवास करते देखा है। आम आदमी ना तो रोज दशहरा दिवाली मना सकता है और ना ही सप्ताह में चार चार दिन व्रत उपवास रख सकता है। एक भूखे का तो यूं ही रोज उपवास रहता है, ठीक उसी तरह संतों की भी रोज दिवाली रहती है।

कबीर हमें यूं ही नहीं याद आ जाते ;

सदा दिवाली संत की, बारह मास बसंत।

प्रेम रंग जिन पर चढ़े, उनके रंग अनंत।।

आप मानें या ना मानें, जबसे हमारी मध्यप्रदेश सरकार ने लोकसभा में शत प्रतिशत सफलता 29/29 पाई है, उस पर होली और दिवाली दोनों का रंग एक साथ चढ़ गया है। हम एम पी वाले अपनी खुशी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। कबीर की मस्ती हम पर दिन रात छाई रहती है और हमारी इसी स्थिति को देखकर हमारी सरकार ने रात को भी दिन में बदलने का निर्णय लिया है, अब एम पी के कुछ शहर 24×7 जागते रहेंगे।

वैसे तो स्मार्ट शहर कभी सोते नहीं। अब तक तो हमने केवल बंबई(मुंबई) को ही रात की बाहों में देखा था, अब हमारे इंदौर सहित कुछ प्रदेश भी आपका रात की जगमगाती रोशनी में बाहें फैलाकर आपका स्वागत करेंगे।।

हमें इंदौर के वे पुराने दिन अनायास ही याद आ गए, जब कपड़ा मिलों की चिमनियां लगातार धुंआ उगलती थी, और मिलों के सांचे कभी रुकने का नाम नहीं लेते थे। मिल मजदूरों के कारण पूरा इंदौर रात भर जागता रहता था। होटलें और चाय की दुकानें कभी बंद ही नहीं हो पाती थी।

दिवाली की रोशनी और होली और रंग पंचमी की रंगारंग हुड़दंग छोड़िए, गणेशोत्सव का दस दिन का उत्साह अपनी जगह, और अनंत चतुर्दशी के रोज तो पूरा इंदौर रात भर जागता रहता था। आसपास के शहर, गांव और कस्बों की भीड़ की भीड़ मिलों की झांकियां और अखाड़ों के प्रदर्शन के लिए दौड़ी पड़ती थी। इंदौर के छविगृह भी सुबह से देर रात तक विशेष शोज़ चलाते थे। प्रदेश का एकमात्र शहर था इंदौर जहां उस दिन रतजगा रहता था।।

घरों में तो लोग रात रात भर जाग ही रहे हैं, टीवी मोबाइल और इंटरनेट कहां किसी को आजकल सोने देता है। आज की युवा पीढ़ी रात को तीन बजे सोती है, कभी किसी का जन्मदिन तो कभी रात रात भर पढ़ाई। घर घर रात भर डीजे की आवाज सुनी जा सकती है और बेचारा जोमैटो वाला रात को बारह बजे तक होम डिलीवरी किया करता है, पिज्जा, पास्ता, केक, पेस्ट्री और मन्च्युरियन की। देशी विदेशी का अपना अपना नशा है।

अब घरों में शांति रहेगी, बाहर जाइए रात भर एन्जॉय कीजिए, जो लोग घरों में आठ घंटे चैन की नींद सीना चाहते हैं, उनके लिए यह खुशखबर है।

सरकार भी खुश आप भी खुश। संत और आज की युवा पीढ़ी अपने अपने हिसाब से दिवाली और वसंत मना रहे हैं। इधर हम भी दोनों नावों में सवार होना चाहते हैं, झूठ क्यूं बोलें ;

साक़िया, आज मुझे नींद नहीं आयेगी।

सुना है तेरी महफ़िल में

रतजगा है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 246 – साधो देखो जग बौराना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 246साधो देखो जग बौराना ?

कल कबीर जयंती थी। यूँ कहें तो कबीर याने फक्कड़ फ़कीर, यूँ समझें तो कबीर याने दुनिया भर का अमीर। वस्तुत: कबीर को समझने के लिए पहले आवश्यक है यह समझना कि वस्तुतः हमें किसे समझना है। पाँच सौ साल पहले निर्वाण पाए एक व्यक्ति को या कबीर होने की प्रक्रिया को? दहन किये गए या दफ़्न किये गए या विलुप्त हो गये  दैहिक कबीर को पाँच सदी की लम्बी अवधि बीत गई। अलबत्ता आत्मिक कबीर को समझने के लिए यह समयावधि बहुत कम है।

प्रश्न तो यह भी है कि कबीर को क्यों समझें हम? छोटे मनुष्य की छोटी सोच है कि कबीर से हमें क्या हासिल होगा? कबीर क्या देगा हमें? कबीर जयंती पर इस प्रश्न का स्वार्थ अधिक गहरा जाता है।

कबीर को समझने में सबसे बड़ा ऑब्सटेकल या बाधा है कबीर से कुछ पाने की उम्मीद। कबीर भौतिक रूप से कुछ नहीं देगा बल्कि जो है तुम्हारे पास, उसे भी छीन लेगा। पाने नहीं छोड़ने के लिए तैयार हो तो कबीर आत्मिक रूप से तुम्हें मालामाल कर देगा।

आत्मिक रूप से मालामाल कर देने का एक अर्थ कबीर का ज्ञानी, पंडित, आचार्य, मौलाना, फादर या प्रीस्ट होना भी है। इन सारी धारणाओं का खंडन खुद कबीर ने किया, यह कहकर,

‘मसि कागद छूयौ नहिं, कलम नहिं गहि हाथ।

कबीर दीक्षित है, शिक्षित नहीं।

कबीर अंगूठाछाप है। ऐसा निरक्षर जिसके पास  अक्षर का अकूत भंडार है। कबीर कुछ सिखाता नहीं। अनसीखे में बसी सीख, अनगढ़ में छुपे शिल्प को देखने-समझने की आँख है कबीर। हासिल होना कबीर होना नहीं है, हासिल को तजना कबीर है। भरना पाखंड है, रीत जाना आनंद है। पाना रश्क है, खोना इश्क है,

हमन से इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या

रहे।

आज़ाद या जग से, हमन को  दुनिया से यारी क्या।

और जब इश्क या प्रेम हो जाए तो अनसीखा आत्मिक पांडित्य तो जगेगा ही,

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।

कबीर सहज उपलब्ध है। कबीर होने के लिए, उसकी संगत काफी है। ओशो ने सहक्रमिकता के सिद्धांत या लॉ ऑफ सिंक्रोनिसिटी का उल्लेख कबीर के संदर्भ में किया है। किसी वाद्य के दो नग मंगाये जाएँ। कमरे के किसी कोने में एक रख दिया जाए। दूसरे को संगीत में डूबा हुआ संगीतज्ञ ( ध्यान रहे, ‘डूबा हुआ’ कहा है, ‘सीखा हुआ’ नहीं) बजाए। सिंक्रोनिसिटी के प्रभाव से कोने में रखा वाद्य भी कसमसाने लगता है। उसके तार अपने आप कसने लगते हैं और वही धुन स्पंदित होने लगती है।

कबीर का सान्निध्य भीतर के वाद्य को स्पंदित करता है। भीतर का स्पंदन मनुष्य में मानुषता का सोया भाव जाग्रत कर देता है। जाग्रत अवस्था का मनुष्य, सच्चा मनुष्य हो जाता है और बरबस कह उठता है,

साँची कहौ तो मारन धावै झूँठे जग पतियाना।

साधो, देखो जग बौराना।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 399 ⇒ एक दिन पिता का… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक दिन पिता का।)

?अभी अभी # 399 ⇒ एक दिन पिता का? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक दिन पिता का (father’s day)

माता पिता का बराबरी का सौदा होता है, अगर मदर्स डे है तो फादर्स डे भी।  महिला दिवस की तर्ज पर पुरुष दिवस कब मनाया जाता है, शायद इन तथाकथित “days” यानी “दिनों” का कोई कैलेंडर उपलब्ध हो, क्योंकि कभी कभी तो एक ही दिन में दो दो days टपक जाते है।

खैर हमें इससे क्या, जिस तरह सुबह होती है, शाम होती है, इसी तरह कोई ना कोई day आता है, और चला जाता है।  ऐसे ही पितृ दिवस यानी फादर्स डे कब आया और कब चला गया, हमें पता ही नहीं चला।  हम भी कभी पिता थे, अब तो लोगों ने हमें अंकल से नाना जी और दादाजी बना दिया है। ।

हमने पिता को तो देखा है, लेकिन कभी परम पिता को नहीं देखा।  पिता का और हमारा साथ 33 वर्ष का ही रहा।  उसके बाद एक दिन हमारे पिता, परम पिता में विलीन हो गए, यानी हमारे सर से पिता का साया छिन गया और पिछले 42 वर्ष से हमें पिता का प्यार नहीं मिला।  तब से हमने परम पिता को ही अपना पिता मान लिया है।

ईश्वर एक है, आप उसे खुदा कहें अथवा परम पिता परमेश्वर।  लेकिन जिन अभागों ने अपने बाप को बाप नहीं माना, वे किसी पत्थर की मूरत को भगवान कैसे मान लेंगे।  वास्तव में सबका मालिक एक का मतलब भी यही है, सबका बाप एक। ।

जिस तरह ईश्वर एक है, उसी तरह माता -पिता एक इकाई है, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, और शायद इसीलिए उन्हें सम्मिलित रूप से पालक का दर्जा दिया गया है और साफ साफ शब्दों में कह दिया गया है, “त्वमेव माता च पिता त्वमेव”।  अंग्रेजी में एक शब्द है spouse, जिसका प्रयोग पति पत्नी दोनों के लिए किया जाता है, यानी दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।

पिताजी के गुजर जाने के बाद, जब तक माता का साया सर पर रहा, पिताजी का अभाव इतना नहीं खला, लेकिन मां के गुजर जाने के बाद महसूस हुआ, एक अनाथ किसे कहते हैं, और तब केवल नाथों के नाथ जगन्नाथ की शरण में जाना ही पड़ा।  क्योंकि वही तो पूरे जगत का नाथ है। ।

जिंदगी तो ठहरती नहीं, लेकिन वक्त ठहर सा जाता है।  अतीत में झांकने से अब क्या हासिल होना है, हां एक पछतावा जरूर होता है, क्योंकि हमने भी माता पिता की कदर जानी ना, हो कदर जानी ना।  

शायद इसीलिए हमारी संस्कृति में पितृ पक्ष की व्यवस्था भी है।  उस पखवाड़े में श्रद्धा के प्रतीक स्वरूप ही श्राद्ध कर्म किया जाता है।  श्रद्धा का अर्पण ही वास्तविक तर्पण है।  पछतावे की भरपाई है।  भूल चूक लेनी देनी का सत्यापन है।  उनके प्रति नतमस्तक होना, उस परम पिता परमेश्वर के समक्ष नतमस्तक होने के बराबर है।  आज की पीढ़ी के लिए ही शायद यह गीत लिखा गया है ;

ले लो दुआएं

मां बाप की।

सर से उतरेगी

गठड़ी पाप की।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #237 ☆ सफलता प्राप्ति के मापदंड… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सफलता प्राप्ति के मापदंड… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 237 ☆

सफलता प्राप्ति के मापदंड… ☆

अमिताभ बच्चन का यह संदेश जीवन की आदर्श राह दर्शाता है कि यदि आप जीवन में सफलता पाना और आनंदपूर्वक जीवन बसर करना चाहते हैं, तो यह पांच चीज़ें छोड़ दीजिए …सब को खुश करना, दूसरों से ज़्यादा उम्मीद करना, अतीत में जीना, अपने आप को किसी से कम आंकना व ज़्यादा सोचना बहुत सार्थक है, अनमोल है, अनुकरणीय है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी यह कहा गया है कि अतीत के गहन अंधकार से बाहर निकल, वर्तमान में जीना सीखो। जो गुज़र गया, लौट कर कभी आयेगा नहीं। सो! उसकी स्मृतियों को अपने आज को, वर्तमान को नष्ट न करने दो। रात्रि के पश्चात् स्वर्णिम भोर का स्वागत करो; उसकी ऊर्जा को ग्रहण करो। उसकी लालिमा तुम्हें ओज, बल, शक्ति व उम्मीदों से आप्लावित कर देगी। वर्तमान सत्य है, हक़ीक़त है, उसे स्वीकार्य व उपास्य समझो। जो आज है; वह कल लौटकर नहीं आएगा, इसकी महत्ता को स्वीकारो। अतीत में की गई ग़लतियों से शिक्षा ग्रहण करो… उन्हें दोहराओ नहीं, यह सर्वश्रेष्ठ उपहार है।

जो इंसान अपने कृत-कर्मों से सीख लेकर अपने वर्तमान को सुंदर बनाता है– वह श्रेष्ठ मानव है और जो उनसे सीख नहीं लेता, पुन: वही ग़लतियां दोहराता है, निकृष्ट मानव है; त्याज्य है; निंदा का पात्र बनता है और जो दूसरों की ग़लतियों से सीख लेकर उनसे बचता है; दूर रहता है; उन्हें त्याग देता है … वह सब सर्वश्रेष्ठ मानव है। ऐसे महापुरुष महात्मा बुद्ध, महावीर भगवान, गुरु नानक, महात्मा गांधी व अब्दुल कलाम की भांति सदैव स्मरण किए जाते हैं; युग-युगांतर तक उनकी उपासना व आराधना की जाती है; उनकी शिक्षाओं का बखान किया जाता है तथा वे अनुकरणीय हो जाते हैं… क्योंकि वे सदैव सत्कर्म करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।

इसलिए ‘जो अच्छा है, श्रेष्ठ है, उसे ग्रहण करना उत्तम है और जो अच्छा नहीं है, उसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है।’ यदि हम उनकी आलोचना में अपना समय नष्ट कर देंगे, तो हमारा ध्यान उनके गुणों की ओर नहीं जाएगा और हम उस निंदा रूपी भंवर से कभी भी मुक्त नहीं हो पाएंगे। इस संदर्भ में मुझे एक महान् उक्ति का स्मरण हो रहा है, ‘यदि राह में कांटे हैं, तो उस पर रेड-कारपेट बिछाने का प्रयास करने की अपेक्षा अपने पांव में जूते पहनना बेहतर है। सो! हमें सदैव उसी राह का अनुसरण करना चाहिए, जो सुविधा- जनक हो; जिसमें कम समय व कम परिश्रम की आवश्यकता हो, न कि व्यवस्था व व्यक्ति विशेष की निंदा करना अर्थात् जो प्रकृति व परमात्मा द्वारा प्रदत्त है, उसमें से श्रेष्ठ चुनने की दरक़ार है। जो मिला है, उसमें संतोष करना अच्छा है, बेहतर है। इसके साथ-साथ गीता का निष्काम कर्म व कर्म-फल का संदेश हमारे भीतर नवीन ऊर्जा संचरित करता है तथा ‘शुभ कर्मण से कबहुं न टरूं’ का संदेश देता है। जीवन में निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, थककर बैठना नहीं चाहिए। जो लोग आत्म-संतोषी होते हैं, अर्थात् ‘जो मिला है, उसी में संतुष्ट रहते हैं, तो उन्हें  वही मिलता है, जो परिश्रमी लोगों के ग्रहण करने के पश्चात् शेष बच जाता है। अब्दुल कलाम का यह संदेश अनुकरणीय है कि जो लोग भाग्यवादी होते हैं, आलसी कहलाते हैं। वे नियति पर विश्वास कर संतुष्ट रहते हैं कि जो हमारे भाग्य में लिखा था, वह हमें मिल गया है।

यह नकारात्मक भाव जीवन में नहीं आने चाहिएं। यदि आप सागर के गहरे जल में नहीं उतरेंगे, तो अनमोल मोती कहां से लाएंगे? सो! साहिल पर बैठे रहने वाले उस आनंद व श्रेष्ठ सीपियों से वंचित रह जाते हैं। प्रथम सीढ़ी पर कदम न रखने वाले अंतिम सीढ़ी तक पहुंचने की कल्पना भी नहीं कर पाते, उनके लिए आकाश की बुलंदियों को छूने की कल्पना बेमानी है। मुझे याद आ रही हैं, कवि दुष्यंत की वे पंक्तियां, ‘कौन कहता है/ आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’ सकारात्मकता का संदेश देती हैं। हमें मंज़िल पर पहुंचने से पहले थककर नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि बीच राह से लौटने में उससे भी कम समय लगेगा और आप अपनी मंज़िल पर पहुंच जाएंगे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘एकला चलो रे’ कविता हमें यह संदेश देती है… जीवन की राह पर अकेले आगे बढ़ने का, क्योंकि ज़िंदगी के सफ़र में साथी तो बहुत मिलते हैं और छूट जाते हैं। उनका साथ देने के लिए बीच राह में रुकना श्रेयस्कर नहीं है और न ही उनकी स्मृतियों में अवगाहन कर अपने वर्तमान को नष्ट करने का कोई औचित्य है।

एकांत सर्वश्रेष्ठ उपाय है– आत्मावलोकन का, अपने अंतर्मन में झांकने का, क्योंकि मौन नव-निधियों को अपने आंचल में समेटे है। मौन परमात्मा तक पहुंचने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है और मौन रूपी साधना द्वारा हृदय के असंख्य द्वार खुलते हैं; अनगिनत रहस्य  उजागर होते हैं और आत्मा-परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है… यह ‘एकोहम्-सोहम्’ की स्थिति कहलाती है, जिससे मानव बाहर नहीं आना चाहता। यह कैवल्य की स्थिति है, जीते जी मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।

आइए! हम चर्चा करते हैं… स्वयं को किसी से कम नहीं आंकने व अधिक सोचने की, जो आत्मविश्वास को सर्वोत्तम धरोहर स्वीकार उस पर प्रकाश डालता है, क्योंकि अधिक सोचने का रोग हमें पथ-विचलित करता है। व्यर्थ का चिंतन, एक ऐसा अवरोध है, जिसे पार करना कठिन ही नहीं, असंभव है। आत्मविश्वास वह शस्त्र है, जिसके द्वारा आप राह की आपदाओं को भेद सकते हैं। इसके लिए आवश्यकता है, प्रबल इच्छा-शक्ति की… यदि आपका निश्चय दृढ़ है और आप में अपनी मंज़िल पर पहुंचने का जुनून है, तो लाख बाधाएं भी आपके पथ में अवरोधक नहीं बन सकतीं। इसके लिए आवश्यकता है…एकाग्रता की; एकचित्त से उस कार्य में जुट जाने की और लोगों के व्यंग्य-बाणों की परवाह न करने की, क्योंकि ‘कुछ तो लोग कहेंगे/ लोगों का काम है कहना’ अर्थात् दूसरों को उन्नति की राह पर अग्रसर होते देख, उनके सीने पर सांप लोटने लग जाते हैं और वे अपनी सारी शक्ति, ऊर्जा व समय उस सीढ़ी को खींचने व निंदा कर नीचा दिखाने में लगा देते हैं। ईर्ष्या-ग्रस्त मानव इससे अधिक और कर भी क्या सकता है? उस सामर्थ्यहीन इंसान में इतनी शक्ति, ऊर्जा व सामर्थ्य तो होती ही नहीं कि वह उनका पीछा व अनुकरण कर उस मुक़ाम तक पहुंच सके। सो! वह उस शुभ कार्य में जुट जाता है, जो उसके लिए शुभाशीष के रूप में फलित होता है। परंतु यह तभी संभव हो पाता है, यदि उसकी सोच सकारात्मक हो। इस स्थिति में वह जी-जान से अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुट जाता है। अगर वह अधिक बोलने वाला प्राणी है, तो उसका सारा ध्यान व्यर्थ की बातों की ओर केंद्रित होगा तथा वह मायाजाल में उलझा रहेगा। यदि परिस्थितियां उसके अनुकूल न रहीं, तो वह क्या करेगा और उसके परिवार का क्या होगा और यदि उसे बीच राह से लौटना पड़ा, तो…तो क्या होगा…वह इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने में स्वयं को असमर्थ पाता है। सो! अधिक सोचना आधि अथवा मानसिक रोग है, जिससे मानव अपनी प्रबल इच्छा-शक्ति व ऊर्जा के बिना लाख प्रयास करने पर भी उबर नहीं पाता।

जहां तक स्वयं को कम आंकने का प्रश्न है… वह आत्मविश्वास की कमी को उजागर करता है। मानव असीमित शक्तियों का पुंज है, जिससे वह अवगत नहीं होता। आवश्यकता है, उन्हें पहचानने की, क्योंकि घने अंधकार में एक जुगनू भी पथ आलोकित कर सकता है… एक दीपक में क्षमता है; अमावस के निविड़ अंधकार का सामना करने की, परंतु मूढ़ मानव न जाने इतनी जल्दी अपनी पराजय क्यों स्वीकार कर लेता है। विषम परिस्थितियों में वह थक-हार कर, निष्क्रिय होकर बैठ जाता है। अक्सर तो वह साहस ही नहीं जुटाता और उस राह पर अपने कदम बढ़ाता ही नहीं, क्योंकि वह अपनी आंतरिक शक्तियों व सामर्थ्य से परिचित नहीं होता। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वरचित काव्य- संग्रह अस्मिता की पंक्तियां ‘औरत! तुझे इंसान किसी ने माना नहीं/ तू जीती रही औरों के लिए/ तूने आज तक/ स्वयं को पहचाना नहीं’ के साथ-साथ मैंने ‘नारी! तू नारायणी बन जा, कलयुग आ गया है/ तू दुर्गा, तू काली बन जा/ कलयुग आ गया है’ के माध्यम से अपनी शक्तियों को पहचानने के साथ-साथ नारी को दुर्गा व काली बनकर शत्रुओं का मर्दन करने का संदेश दिया है। इसलिए मानव को कभी स्वयं को दूसरों से कम नहीं आंकना चाहिए। यदि हम इस रोग से मुक्ति पा लेंगे, तो हम सब को खुश करने व दूसरों से ज़्यादा उम्मीद करने के चक्कर में उससे मुक्त हो जाएंगे।

‘यदि किसी व्यक्ति के शत्रु कम है या नहीं हैं, तो उसने जीवन में बहुत से समझौते किए होंगे’ उक्त भाव की अभिव्यक्ति करता है। हमें दूसरों की खुशी का ध्यान तो रखना चाहिए, परंतु अपनी भावनाओं- इच्छाओं को अपने हाथों रौंद कर अथवा मिटाकर नहीं, क्योंकि हमारे लिए आत्म-सम्मान को बरक़रार रखना अपेक्षित है। वास्तव में जो स्वार्थ हित दूसरों की खुशी के लिए कुछ भी कर गुज़रते हैं, वे चाटुकार कहलाते हैं। हमें रीतिकालीन कवियों बिहारी, केशव आदि की भांति केवल आश्रयदाताओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन नहीं करना है, बल्कि उन्हें उनके कर्तव्य-पथ से अवगत कराना है … ‘नहीं पराग नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो,आगे कौन हवाल’ के द्वारा बिहारी ने राजा जयसिंह को अपने दायित्व के प्रति सजग रहने का संदेश दिया था। साहित्य में जहां सबको साथ लेकर चलने का भाव समाहित है; वहीं साहित्य का सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् भाव से आप्लावित होना भी अपेक्षित है।  वास्तव में यही सामंजस्यता है।

आइए! इसी से जुड़े दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात कर लें, यदि हम बात करें कि ‘हमें दूसरों से ज़्यादा उम्मीद नहीं रखनी चाहिए क्योंकि इच्छाएं,आकांक्षाएं व  लालसाएं तनाव की जनक हैं। उम्मीद सुंदर भाव है; हमें प्रेरित करता है; परिश्रम करने का संदेश देता है तथा हमारे अंतर्मन में ऊर्जस्वित करता है तथा असीमित शक्तियों को संचरित करता है। इसके साथ ही वह स्वयं से अपेक्षा रखने का संदेश देता है, क्योंकि यदि मानव दूसरों से अधिक उम्मीद रखता है, तो उसके एवज़ में उसे अपने आत्मसम्मान का अपने हाथों से क़त्ल कर, उसके कदमों में बिछ जाना पड़ता है और कठपुतली की भांति उसके इशारों पर नाचना पड़ता है; उसके दोषों पर परदा डाल उसका गुणगान करना होता है। अनेक बार हर संभव प्रयास करने के पश्चात् भी जब हमें मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो हम चिन्ता व अवसाद के व्यूह से बाहर आने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। अर्थशास्त्र का नियम भी यही है कि ‘अपनी इच्छाओं को सीमित रखो और उन पर अंकुश लगाओ।’ इसके साथ यह भी आवश्यक है कि दूसरों से कभी भी उम्मीद मत रखो, क्योंकि मनचाहा न मिलने पर निराशा का होना स्वाभाविक है। मुझे याद आ रहा है वह प्रसंग, जब एक संत प्रजा के हित में राजा से कुछ मांगने के लिए गया और वहां उसने राजा को सिर झुकाए इबादत करते हुए देखा, तो वह तुरंत वहां से लौट गया। राजा उस संत के लौटने की खबर सुन उससे मिलने कुटिया में गया और उसने वहां आने का प्रयोजन पूछा। संत ने स्पष्ट शब्दों में कहा’ जब मैंने आपको ख़ुदा की इबादत में मस्तक झुकाए इल्तिज़ा करते देखा, तो मैंने सोचा– आपसे क्यों मांगूं, उस दाता से सीधा ही क्यों न मांग लूं।’ यह दृष्टांत मानव की सोच बदलने के लिए काफी है। सो! मानव का मस्तक सदैव ख़ुदा के दर पर ही झुकना चाहिए; व्यक्ति की अदालत में नहीं, क्योंकि वह सृष्टि-नियंता ही सबका दाता है, पालनहार है। इसी संदर्भ में गुरु नानक देव जी का यह संदेश भी उतना ही सार्थक है ‘जो तिद् भावे,सो भली कार’…ऐ! मालिक वही करना, जो तुझे पसंद हो, क्योंकि तू ही जानता है; मेरे हित में क्या है? यह है सर्वस्व समर्पण की स्थिति, जिसमें मानव में मैं और तुम का भाव समाप्त हो जाता है। उसे केवल ‘तू और तेरा ही’ नज़र आता है। यह है तादात्म्य की मनोदशा, जहां अहं विगलित हो जाता है… केवल उस नियंता का अस्तित्व शेष रह जाता है। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए हठयोगी हजारों वर्ष तक एक ही मुद्रा में तपस्या करते हैं और मानव इस स्थिति को पाने के लिए लख चौरासी योनियों में भटकता रहता है।

अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि बच्चन जी का यह संदेश सफलता पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है; शांत मन से जीवन जीने की कला है; मैं से तुम हो जाने का सर्वोत्तम ढंग है… उपरोक्त पांच चीज़ो का त्याग कर आप आनंदमय जीवन बसर कर सकते हैं। सो! इसमें निहित हैं–समस्त दैवीय गुण। यदि आप इस मार्ग को जीवन में अपना लेते हैं, तो शेष सब पीछे-पीछे स्वत: चले आते हैं। ‘एक के साथ एक फ्री’ का प्रचलन तो आधुनिक युग में भी प्रचलित है। यहां तो आप उस नियंता की शरण में अपना अहं विसर्जित कर दीजिए; जीवन की सब समस्याओं-इच्छाओं का स्वत: शमन हो जाएगा और मानव  ‘मैं व मेरा भाव’ से विमुक्त हो जाएगा और ‘तू ही तू और तेरा भाव में परिवर्तित हो जाएगा, जिसकी चाहत हर इंसान को आजीवन रहती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 397 ⇒ सेवारत और निवृत्त… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सेवारत और निवृत्त”।)

?अभी अभी # 397 ⇒ सेवारत और निवृत्त ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम सभी की कमोबेश एक ही स्थिति है, कोई सेवारत है तो कोई सेवानिवृत्त। सेवा को अंग्रेजी में सर्विस कहते हैं, और सेवक को सर्वेंट। सेवा और सेवक कितने सुंदर शब्द हैं जब कि सर्विस और सर्वेंट जैसे शब्दों में वह सम्मान और गरिमा कहां। वही मजबूरी जो नौकर और नौकरी जैसे शब्दों में है। आज एक करोड़ के पैकेज को कोई विरहन दो टकियां दी नौकरी कहने की जुर्रत नहीं कर सकती।

आप भले ही चपरासी को भृत्य कह लें और नाच को नृत्य, लिपिक, बाबू और क्लर्क आपको एक ही कतार में खड़े मिलेंगे। जहां सेवा के साथ परिश्रमिक जोड़ दिया जाता है, उसमें सेवा की जगह पेशेवर दृष्टिकोण उजागर हो जाता है। फिर भी अफसरी और एंप्लॉयर में जो रौब और रुतबा है वह एक अदद बाबू अथवा साधारण एम्प्लॉई में नहीं।।

क्या सेवानिवृत्त होते से ही हमें काम के साथ सेवा से भी निवृत्त कर दिया जाता है। खेल खतम, पैसा हजम। भाई आपने नौकरी छोड़ी है, सेवा करने से आपको कौन रोक रहा है। सेवा शब्द तो काम धंधे और नौकरी पर सोने चांदी की पॉलिश है जो सेवानिवृत्त होते ही उतर जाती है। हां पैंशन डकारते वक्त कभी कभी शासकीय सुविधा, भत्ते, दौरे और ऊपरी इनकम जरूर याद आ जाती है।

जिन्होंने जीवन भर ईमानदारी से सेवा की है, वे आज भी कहीं ना कहीं, कुछ ना कुछ रचनात्मक कार्य से अपने समय का सदुपयोग कर रहे होंगे। सेवा का क्षेत्र और दायरा बड़ा विस्तृत और विशाल है। कार्य से निवृत्ति तो संभव है, लेकिन सेवा से निवृत्ति इतनी आसान नहीं। माया तो आपको मिल ही गई जब आप सेवारत थे, अब अपने राम, निः स्वार्थ सेवा अथवा परमार्थ से जुड़ जाएं, तो शायद राम भी मिल जाएं।।

केवल कवि की ही दृष्टि रवि से भी अधिक दूर की नहीं होती, एक सच्चे सेवक प्रशासक की दूर दृष्टि से कोई सेवा कार्य बच नहीं सकता। रिटायर होते ही कई सामाजिक संस्थाएं, यानी NGO’s अपने द्वार उनके लिए खोल देती हैं। योग्य और काबिल इंसान की कहां कद्र नहीं।

सेवानिवृत्ति उन्हें पुनः निष्काम सेवा की ओर प्रवृत्त करती है। सेवा में भी इनबिल्ट पैकेज होता है, करोगे सेवा, तो पाओगे मेवा। निष्काम कर्म में भले ही फल की आशा ना करें, लेकिन सेवा कभी निष्फल नहीं जाती। यश, कीर्ति और सम्मान अगर मिलता रहे, तो सेवानिवृत्ति का कोई मलाल नहीं रह जाता।।

सच्ची सेवा तो ईश्वर की सेवा होती है, लेकिन ईश्वर है कि कहीं नजर ही नहीं आता। जो कार्य सेवारत रहते हुए नहीं कर पाए, अगर वही कार्य सेवा समझकर सेवा निवृत्ति के बाद कर लिया जाए, तो क्या बुरा है।

अब तो सेवा भी कंज्यूमर आइटम हो गई है। सभी सुविधाएं आजकल सेवा ही कहलाने लग गई है। पूरा बाजार आपकी सेवा के लिए 24×7 तत्पर है। सरकार सबसे बड़ी सेवा, हम पर जीएसटी लगाकर कर रही है। सेवा के द्वार खुले हैं, आप भी सेवा कीजिए, पैसा और पुण्य दोनों कमाइए। देश को समृद्ध, मजबूत और एक विकसित राष्ट्र बनाइए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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