हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 201 ☆ सुषुम सेतु पर खड़ी… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना सुषुम सेतु पर खड़ी। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 201 ☆ सुषुम सेतु पर खड़ी

अहम,वहम, सहम, रहम और हम के बीच में उलझा हुआ इंसान सही गलत के बीच अंतर को अनदेखा करता है। सभी का मूल्यांकन एक न एक दिन अवश्य होता है, कोई देखे या न देखे हमें सत्य के मार्ग का चयन करना चाहिए। अपने तय किए गए रास्ते पर चलते हुए मंजिल की ओर जाना आसान होता है। अक्सर देखने में आता है कि बच्चे डिजिटल दुनिया से सब कुछ सीखने का प्रयास करते हैं। यहाँ उन्हें एक क्लिक पर बिना रोकटोक, बिना किचकिच प्रश्नों के उत्तर आसानी से मिलते हैं। पर माता- पिता की सशंकित नजर हमेशा घबराती है। बच्चों के भटकने का डर स्वाभाविक है। लगभग सभी माँ अपने बच्चे से कहती हुई मिलेंगी…

कितनी बार कहा कि इस आकर्षण से निकलो ये तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा, इस इंटरनेट की चमक – दमक भरी दुनिया से सिवा धोखे के कुछ नहीं मिलने वाला विनीता ने अपनी बेटी से कहा।

इस पर उसकी बेटी नैना ने कहा माँ ऐसी बात नहीं है। जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू होते हैं वैसे ही इस डिजिटल दुनिया से लाभ और हानि दोनों हैं। आज के समय में केवल किताबी ज्ञान से काम चलने वाला नहीं है, हमें समय के साथ तेजी से भागना होगा और उपयोगी व अनुपयोगी वस्तुओं के बीच अंतर भी सीखना होगा।

विनीता ने धीरे से सहमति की मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा वो तो ठीक है बेटा पर माँ का मन है हमेशा इसी चिन्ता में लगा रहता है कि कहीं तुम भटक न जाओ। अच्छी आदतों को सीखने में वक्त लगता है पर बुरी आदतों का मोहजाल ऐसा भयानक होता है कि उसकी गिरफ्त में कोई कब आ जाए कहा नहीं जा सकता।

नैना ने विनीता की आँखों में झाँकते हुए कहा आप की बात एकदम सही है, जब आप मेरे साथ साये की तरह हो तो मुझे घबराने की कोई जरुरत ही नहीं है जहाँ भी ऐसा लगे कि मैं अपने लक्ष्य से भटक रहीं हूँ तो अवश्य टोक दीजियेगा।

हाँ, ये तो है बेटा, जब लक्ष्य निर्धारित हो और उसे पाने के लिए परिश्रम की राह चुन ली गयी हो तो भटकने का खतरा बहुत कम हो जाता है, तथा व्यक्ति अनावश्यक के आकर्षण से भी स्वतः बच जाता है।आज आवश्यकता है सजग रहने की तो जागिए और जगाइए साथ ही डिजिटल दुनिया की ओर कदम से कदम मिलाते हुए आगे बढ़िए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 396 ⇒ कीट नियंत्रण – (Pest Control) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कीट नियंत्रण – (Pest Control)।)

?अभी अभी # 396 कीट नियंत्रण – (Pest Control) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

तब हमने ना तो स्वच्छ भारत अभियान का नाम सुना था और ना ही पेस्ट कंट्रोल जैसी बीमारी का नाम। शाम होते ही अचानक मोहल्ले में भगदड़ मच जाती, धुंए वाली मशीन आ रही है, खाने का सामान ढांककर रख दो, अपने मुंह पर कपड़ा बांध लो। और थोड़ी ही देर में एक वाहन वातावरण में धुंआ फैलाता गुजर जाता। डीडीटी की बदबू सांसों में भर जाती, आंखों के आगे अंधेरा छा जाता।

तब कहां घर घर कमोड था, खुली नालियां थीं, और घरों में डब्बे वाले शौचालय थे, पीछे गली रहती थी, और इंसान सिर पर मैला ढोता था। तब और अब में जमीन आसमान का अंतर है, लेकिन मक्खी, मच्छर और काक्रोच आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं।।

स्वास्थ्य और हाइजीन के प्रति आम नागरिक और प्रशासन कल की तुलना में आज बहुत अधिक मुस्तैद और जागरूक है, स्वच्छ भारत अभियान अपनी बुलंदियों पर है और घर घर हार्पिक, एसिड, डेटॉल और लायज़ॉल की खुशबू से घर महकता रहता है। मच्छरों के लिए ऑल आउट और काला हिट, काला जादू का काम करता है। फिर भी सावधानी के लिए समय समय पर घरों में पेस्ट कंट्रोल की सलाह दी जाती है।

एक तरह का व्हाइट वाॅश ही तो होता है पेस्ट कंट्रोल। घर के कोने कोने में कीट प्रजाति के प्राणियों को जड़ से खत्म किया जाता है। एक तरह से उनके वंश का नाश किया जाता है। किसे पसंद है उनका मधुर संगीत, और वह भी रात के अंधेरे में।।

बारिश के आते ही, सड़कों पर और मैदानों के ठहरे हुए पानी में मेंढक अपना राग अलापना शुरू कर देते हैं, एक अदबी महफिल शुरू हो जाती है, जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। लगते होंगे किसी को दूर के ढोल सुहाने, लेकिन इस तरह का गीत जब बज रहा हो, और आपके घर में गायक झींगुर महोदय स्वयं उपस्थित हों, तो आप क्या करेंगे ;

सुनो तो ज़रा, झींगर बोले चीकीमीकी चीकीमीकी रिमझिम के ये प्यारे प्यारे गीत लिए …

भाई साहब, हमसे तो कंट्रोल नहीं होता और हम एक पेस्ट कंट्रोल वाले को फोन लगा ही देते हैं। उधर पेस्ट कंट्रोल वाले आते हैं और इधर कोई परिचित मेहमान फोन द्वारा टपकने की सूचना देते हैं। फोन धर्मपत्नी उठाती है, और उन्हें साफ मना कर देती है, सभी घर में गेस्ट कंट्रोल चल रहा है, आप बाद में पधारिए। भले ही जबान अनजाने में फिसली हो, गेस्ट को नाराज तो होना ही था।

आप पेस्ट कंट्रोल करवाएं, ना करवाएं, लेकिन ये सामान्य सावधानियां तो रख ही सकते हैं ;

खुद करें घर में पेस्ट कंट्रोल

रात को जूठे बरतन सिंक में न छोड़ें. इस से कौकरोच और चींटियों को खाना मिलता है. …

बचे खाने को फ्रिज में रखें. …

डस्टबिन ढकी होनी चाहिए.

कमरे के फर्श को दिन में 1 या 2 बार साबुन के पानी से साफ करें.साबुन के घोल में हमने केंचुए को मरते देखा है।

बाथरूम और किचन की नियमित सफाई करें.

भीगे कपड़ों को बाथरूम में अधिक देर तक न रखें।।

विज्ञान और माइक्रोबायोलॉजी जिन्होंने पढ़ी है, वे जानते हैं, मक्खी जहां बैठती है, वहीं अंडे दे देती है। बरसात में धूप के अभाव में मक्खी हमारे आसपास अधिक घूमती है। हमारे पहले वह कहां कहां आसन जमाकर आई होगी, कौन जानता है।

जब वह मेरी नाक पर बैठती होगी तो वहां भी अवश्य अंडे देती होगी।

जनसंख्या नियंत्रण जब होगा तब होगा, अपने घर और परिवार को स्वस्थ व तंदुरुस्त रखने के लिए अपने स्तर पर कीट नियंत्रण अर्थात् पेस्ट कंट्रोल तो आपको करना ही होगा। इसी बहाने कुछ समय के लिए गेस्ट कंट्रोल भी अपने आप ही हो जाएगा। कृपया मेहमान बुरा ना मानें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #175 – एकांकी – छत्रपति शिवाजी की सूझबूझ… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक एकांकी – “छत्रपति शिवाजी की सूझबूझ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 175 ☆

☆ एकांकी–छत्रपति शिवाजी की सूझबूझ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

स्थान- घर का एक बरामदा की धूप का परिदृश्य

पात्र-

पिता– छत्रपति शिवाजी की सेना का एक वीर सैनिक

मां- इस वीर सैनिक की पत्नी

पुत्र- वीर सैनिक का पुत्र

पुत्री- वीर सैनिक की पुत्री

(दृश्य – घर के बरामदे में धूप में बैठी सैनिक की पत्नी उसकी पुत्री की चोटी गूंथ रही है।)

पुत्री- मां धीरे करो। दर्द होता है। (बालिका मुंह बनाते हुए)

मां- मैं तो धीरे ही चोटी गूंथ रही हूं। थोड़ा तो दर्द होगा ही। (माता उसके माथे पर एक हाथ से झटका देते हुए) थोड़ी देर तो चुप रहा कर।

पुत्री-वही तो कर रही हूं।

(मां चुपचाप चोटी गूंथने लगती है।)

(अचानक बालिका कुछ सुनते हुए अपनी गर्दन हिलाती है।)

पुत्री- मां! देखो तो।

मां- क्या देखूं? (मां इधर-उधर देखते हुए)

पुत्री- नहीं मां। देखो नहीं। ध्यान से सुनो।

मां- बेटी, घोड़े की टॉप की आवाज आ रही है।

(पास से घोड़े की टापों की आवाज पहले धीरे-धीरे आती है। और तेजी से बढ़ने लगती है। जैसे घोड़े धीरे-धीरे पास आ रहे हो।)

पुत्री- मां, लगता है बप्पा आ गए हैं।

मां- घोड़े की टॉप से तो ऐसा ही लगता है।

पुत्री- मां। क्या भैया की मांग पूरी हुई होगी?

मां- पता नहीं बेटी। (मां ने कहा और ध्यान से टापों की आवाज सुनाने लगी।)

पुत्री- हां मां, ध्यान से सुनो।

मां- तू सही कहती है पुत्री। यह एक नहीं दो घोड़े की टॉपों की आवाज आ रही है। (कहते हुए मां पुत्री को हाथों से धक्का देकर उठाते हुए कहती है) अंदर जा। स्वागत की थाली लेकर आ जा।

(पुत्री कमरे के अंदर जाकर स्वागत का थाल ले आती है। मां सिर पर अपना पल्लू सजाते हुए खड़ी हो जाती है।)

मां- लो। वे आ गए। (मां पुत्री के हाथ से स्वागत का थाल ले लेती है।)

पुत्री– हां मां। दोनों के चेहरे खिले हुए हैं।

मां– लगता है काम बन गया हैं। (कह कर मां दो कदम आगे बढ़ती है।) आपका हार्दिक स्वागत है!

पुत्र- हां मां! आपका आशीर्वाद फलीभूत हो गया है। (पुत्र मां के चरण स्पर्श करता हैं। तभी मां के हाथ आशीर्वाद के लिए ऊपर उठ जाते हैं।) तुम अपने पिता की तरह ही इस माटी का नाम रोशन करो।

पिता- आखिर बेटा किसका है? (तभी साथ आया हुआ आंगुतक पिता अपनी मूंछो पर ताव देते हुए कहता है।)

मां- बहादुर शेर पिता की तरह बहादुर शेर संतान है।

(मां आंगुतक पिता के तिलक लगा देती है। दोनों चारपाई पर बैठ जाते हैं। मगर पुत्र इधर-उधर घूमता रहता है। वह अधीरता से कहता है।)

पुत्र- मां! जानती हो मां दरबार में क्या हुआ था?

मां- हां बेटा। बता। मगर इस चारपाई पर बैठकर।

पुत्री- हां भैया! बताओ ना। वहां क्या हुआ था?

पुत्र- जानती हो मां, जब हम दरबार में पहुंचे तब क्या हुआ?

मां- क्या हुआ मेरे शेर। बता तो।

पुत्र- महाराज छत्रपति शिवाजी महाराज ने मेरी ओर देखकर कहा- इस बालक के मुख से एक अलौकिक तेज झलक रहा है।

मां- अच्छा बेटा। हमारे प्रिय महाराज ने ऐसा कहा था।

पुत्र- हां मां। मुझे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। महाराज शिवाजी ने कहा- बोलो वीर पुत्र! क्या चाहिए?

मां– अच्छा। उन्हें स्वयं ही पता चल गया कि तुम कुछ मांगने आए हो?

पुत्र- हां मां। महाराज छत्रपति शिवाजी जितने बहादुर, वीर और कुशल शासक हैं उतने ही दूसरे की मंशा पकड़ने में माहिर है। (कहते हुए पुत्र ने अपनी बहन की ओर देखा। वह वह अपलक अपने भाई को निहारे जा रही थी।)

मां– फिर?

पुत्र- मैंने कहा- महाराज छत्रपति शिवाजी की जय हो! वे सदा विजयी रहे! जिसे सुनकर महाराज छत्रपति शिवाजी मुस्कुरा दिए।

मां-अच्छा!

कब से चुपचाप बैठे हुए पिता ने कहा- सत्य कहता है हमारा पुत्र।

मां- फिर क्या हुआ?

पुत्र- मैंने कहा- महाराज आपका हौसला बुलंद हो। मुझे नाचीज को एक उम्दा किस्म का घोड़ा चाहिए।

मां- फिर?

पुत्र- फिर क्या मां। दरबार में सन्नाटा छा गया। इस वक्त एक मंत्री ने खड़े होकर कहा- महाराज गुस्ताखी माफ हो हुजूर!

मां- फिर?

पुत्र- तभी छत्रपति शिवाजी महाराज ने कहा- बोलिए मंत्री जी। क्या कहना चाहते हो? तब मंत्री जी ने कहा- महाराज! एक बालक को घोड़े देने में घोड़े की क्या उपयोगिता रहेगी?

मां-फिर क्या हुआ बेटा?

पुत्र- तब कुछ देर दरबार में सन्नाटा छाया रहा। तब छत्रपति शिवाजी महाराज ने मेरी और देखा- वीर बालक! इस बारे में तुम्हारी राय क्या है?

(कहते हुए बालक पिताजी के पास खड़ा हो गया) -पिता श्री! यही हुआ था ना?

पिता- हां पुत्र। कहते रहो। बहुत ठीक कह रहे हो।

पुत्र-तब मां मैंने कहा- महाराज की जय हो! यदि मंत्रीवार घोड़े की उपयोगिता जानना चाहते हो तो मुझे तलवार के दो-दो हाथ कर लें। तब उन्हें पता चल जाएगा कि मेरे लिए इस घोड़े की क्या उपयोगिता है?

मां- अच्छा! फिर?

पुत्र- फिर क्या मां, वह मंत्री यही चाहता था। वह तलवार लेकर मेरे पास आ गया- चलो बालक! तुम्हारी इस तमन्ना को पूरी कर देता हूं। कह कर वह इस तरह खड़ा हो गया जैसे किसी नादान बालक के सामने खड़ा हो।

मां- फिर क्या हुआ पुत्र?

पुत्र- होना क्या था मां, मैंने इस तरह तलवार चलाई कि वह चकित रह गया। तब वह सावधान होकर तलवार चलाने लगा। उसने कई दांवपेच चले। ताकि मुझे धूल चटा सके।

मां- फिर?

पुत्र- फिर क्या था मां। दरबार व महाराज छत्रपति शिवाजी भी मेरे तलवार कौशल को देखते रह गए। मंत्रीवर ने हारता देखकर अपना पैंतरा दिखाने की कोशिश की। मगर उनके सब पैंतरे फेल हो रहे थे।

पुत्री- फिर क्या हुआ भैया?

पुत्र-होना क्या था बहन। मैंने उसकी नजर बचाकर तलवार का एक पैंतरा लगाया। तलवार सीधे दोनों पैर के बीच से होकर कमर की ओर जाने लगी। यह देखकर उनके होश उड़ गए। तब मैंने तलवार पैर के ऊपर जोड़ के पास ले जाकर रोक दी।

(कब से चुप बैठे पिता ने कहा)

पिता- भाग्यवान! वह दृश्य देखने लायक था। दरबार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। महाराज छत्रपति शिवाजी अपने सिंहासन से उठकर नीचे आ गए।

मां- फिर?

पुत्र- उन्होंने आते ही मुझे अपने सीने से लगा लिया। शाबाश! मेरे वीर बालक! तुमने अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी है। हमारे मंत्रीवर को हरा दिया।

मां- अच्छा! उन्होंने ऐसा कहा!

पुत्र- हां मां। 

पुत्री-अच्छा भैया!

पुत्र- हां बहन।

माँ- फिर?

पुत्र- फिर मैंने कहा- महाराज! मंत्रीवर हारे नहीं है। उन्होंने मुझे जीता दिया। तब महाराज ने चौक कर कहा- क्या मतलब है वीर बालक आपका?

मां- हूं।

पुत्र-तब मैंने कहा- महाराज! मंत्रीवर का अभ्यास छूटा हुआ है। इस कारण उन्होंने मुझे जीतने दिया। अन्यथा मैं कभी नहीं जीतता।

मां-अच्छा।

पुत्र- हां मां। तब महाराज छत्रपति शिवाजी ने कहा- बेटा! तुम बहादुर नहीं बल्कि बुद्धिमान बालक भी हो। तब सभी मंत्री जोर से बोल पड़े- वीर बालक की, जय हो!

मां- अच्छा!

पुत्र- हां मां। यह कहते हुए छत्रपति शिवाजी ने कहा- यदि धरती पर सभी लाल इसी तरह बुद्धिमान व बहादुर हो जाए तो यह देश कभी गुलाम नहीं हो सकता।

(मां यह सुनकर गर्व से खड़ी हो जाती है।)

मां-आखिर लाल किसका है?

पुत्री- मेरा भैया!

पिता- ऐसा पुत्र सबको मिले। ताकि सब माता-पिता उस पर गर्व कर सके।

(यह सुनकर सभी खिलखिला कर हंस पड़ते हैं और पर्दा गिर जाता है)

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

30-12-2024

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 395 ⇒ बात करने की कला… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बात करने की कला।)

?अभी अभी # 395 ⇒ बात करने की कला? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ज्यादा बात वे ही करते हैं, जिन्हें बेफिजूल बात करने की आदत नहीं होती। Everything is an art. हर चीज एक कला है, बोलना भी तो एक कला ही है। कहीं आवाज, तो कहीं लहज़ा और स्टाइल। बचपन में रेडियो से एक आवाज गूंजती थी, ये आकाशवाणी है, और हम समझ जाते थे, अब आप देवकीनंदन पांडे से समाचार सुनिए।

उसके बाद सालों एक आवाज पहचान बन गई अमीन सायानी की, बहनों और भाइयों। आज बहनों और भाइयों को किसी और आवाज ने ही टेक ओवर कर लिया है। वह आवाज अब गारंटी बनकर पूरे देश में छा चुकी है।।

कुछ वक्ता अच्छे नेता होते हैं, और कुछ नेता सिर्फ अच्छे वक्ता होते हैं। राजनीति के अलावा विज्ञापन की दुनिया में भी बच्चों बड़ों को मोह लेने वाली कुछ आवाजें होती हैं। ललिता जी को कोई शायद ही कभी भूल पाए, भाई साहब, सर्फ़ की खरीददारी में ही अधिक समझदारी है।

आम जीवन में कोई स्क्रिप्ट राइटर अथवा सलीम जावेद जैसा डायलॉग राइटर नहीं होता, फिर भी हमारी घरेलू महिलाएं बातों में पुरुषों से बाजी मार ले जाती हैं। जिसके हाथ में कैंची होती है, उसकी जबान वैसे भी ज्यादा ही चलती है। कढ़ाई, सिलाई और बुनाई भी कभी बिना बातों के संभव हुई है। एक जमाना था, जब पापड़ बेलना अथवा चक्की पीसना जैसे काम महिलाएं मिल जुलकर, बातों बातों में ही निपटा देती थी।

वैसे बातों में किसी का एकाधिकार नहीं है। बात बनाने में, और बात का बतंगड़ बनाने में पुरुष भी पीछे नहीं। ऊंची ऊंची हांकने में अक्सर पुरुष ही बाजी मार ले जाता है। “हमारे जमाने में”, हर पुरुष का तकिया कलाम होता है लेकिन घर की स्त्री के आगे उसकी एक नहीं चलती। सौ सुनार की और एक लोहार की।।

जो लोग धाराप्रवाह बोलते हैं, वे अक्सर बिना सोचे समझे ही बोलते हैं, लेकिन उनकी बातों के जाल में श्रोता ऐसा उलझ जाता है कि उसकी बोलती बंद हो जाती है। आपको वे बीच में बोलने का मौका ही नहीं देते। आपका बीच में बोलना उन्हें टोका टोकी लगता है, लेकिन जब आप अपनी बात कहते हैं, तो आपको टोककर पुनः अपना राग अलापना शुरू कर देते हैं।

बातों का शब्द जाल, जिसे लच्छेदार भाषा कहते हैं, कुछ विरलों की ही जागीर होती है। सामने वाले को बातों में उलझाना सबके बस का नहीं होता। हमेशा बेचारा समय ही घुटने टेक देता है, लेकिन बातें खत्म होने का नाम नहीं लेती।।

बहनों और सहेलियों के पास कितना बातों का स्टॉक होता है और कितना उनका टॉकटाइम यह तो शायद ईश्वर भी नहीं जानता। मेरे घर में तो रॉन्ग नम्बर होने पर भी फोन एंगेज ही रहता है। रॉन्ग नंबर था, किसी अस्पताल को लगाया था, गलती से यहां लग गया। थोड़ी सुख दुख की बात कर ली, तो क्या गलत किया।

आपस में जितनी चाहें बात करें, लेकिन जब फोन अनावश्यक रूप से बातों में उलझा रहता है, तो बड़ी कोफ़्त होती है। कितने ही जरूरी कॉल्स लग नहीं पाते। कोई इमरजेंसी है, कोई घर आने की सूचना देना चाहता है, कुछ भी

अप्रत्याशित घट सकता है, बातों का क्या है, बातें तो बाद में भी हो सकती हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 394 ⇒ हम लिखते क्यूं हैं ?  ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हम लिखते क्यूं हैं ?।)

?अभी अभी # 394 ⇒ हम लिखते क्यूं हैं? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यह एक ऐसा ही प्रश्न है, मानो किसी जीते जागते व्यक्ति से पूछा जाए, वह जिंदा क्यूं है, अथवा किसी खाते पीते इंसान से पूछा जाए, वह खाता क्यूं है। लेकिन कभी कभी भरे पेट, अथवा खाली दिमाग, ऐसे प्रश्न पूछने में आ ही जाते हैं।

जिंदगी तो जीना है, और जिंदा रहने के लिए खाना भी जरूरी है, लेकिन इसके अलावा क्या जरूरी है और क्या नहीं, यह हर व्यक्ति की परिस्थिति, प्राथमिकता और पसंद पर निर्भर करता है। भोजन करने से पहले कोई व्यक्ति यह नहीं सोचता, वह क्यूं खा रहा है, और पेट भरने के बाद कहां ऐसे खयाल आते हैं।।

लेखन का भी ऐसा ही है, लिखने के पहले कभी ऐसा खयाल नहीं आता कि हम क्यूं लिख रहे हैं, और लिखने के बाद तो ऐसे प्रश्न का सवाल ही पैदा नहीं होता। हर प्रसिद्ध लेखक से फिर भी इस तरह के प्रश्न किए जाते हैं, जिनके जवाब भी लाजवाब होते हैं।

मेरे सामने आज यह प्रश्न क्यूं पैदा हुआ, मैं कुछ समझ नहीं पाया, लेकिन जब से कल अनूप शुक्ल जी की जबानी दीपा की कहानी सुनी है, मेरे लेखन पर भी मेरी निगाह उठ गई है। हम साधारण इंसान हैं, कोई गोर्की, प्रेमचंद अथवा परसाई, त्यागी, शरद नहीं। लेकिन अगर आप एक साधारण इंसान के बारे में नहीं लिख पाते, तो आपके आदर्श आपके लेखन से कोसों दूर ही रहेंगे, और आप बार बार यह सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि आखिर आप लिखते ही क्यूं हैं।।

अनूप शुक्ल जी को पढ़ना, अपने आपको पढ़ना है, हर उस आम आदमी को पढ़ना है, जो हमारे आसपास मौजूद है, लेकिन हमारी लेखनी उससे कहीं कोसों दूर, कुछ और ही तलाश रही है। हम लिखना पढ़ना तो सीख गए, लेकिन लिखना कब सीखेंगे।

हम लिखते क्यूं है, इसका पूरा जवाब मुझे अनूप शुक्ल जी के कल के आलेख, दीपा से मुलाकात से मिल गया है। अक्सर इस विषय पर बहस हुआ करती है कि एक लेखक, साहित्यकार अथवा व्यंग्यकार कोई जननेता, समाज सेवी अथवा सामाजिक

कार्यकर्ता नहीं है। वह समाज को सिर्फ आईना दिखा सकता है, लेकिन शुक्ल जी जो साहित्य सेवा के अलावा शासकीय सेवा से भी जुड़े रहे हैं, आज सेवानिवृत्त होने के बाद भी सेवा से मुंह नहीं मोड़ रहे हैं।।

साहित्य सेवा के लिए तो साहित्यकारों और लेखकों को पुरस्कृत किया ही जाता है, लेकिन साहित्य के साथ साथ अगर अपने आसपास के असली पात्रों और चरित्रों पर निगाह डाली जाए, उनसे करीबी रिश्ता दीपा की तरह बनाया जाए, उनके चेहरे पर मुस्कान लाई जाए तो यह सेवा साहित्य सेवा से कई गुना श्रेष्ठ है।

जीवन जितना सहज और सरल हो, वह उतना ही सुंदर होता है। खाली कॉपियों पर हमने बहुत सुंदर लेखन किया, लेकिन फिर भी लेखनी में वह सुंदरता और सहजता नहीं आई जो अनूप शुक्ल जी के लेखन में झलकती है।

उनकी सहजता और सरलता कब सेवा में परिवर्तित हो जाती होगी, शायद वे भी नहीं जान पाते होंगे। एक अच्छा लेखक यूं ही नहीं लिखता।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 88 – देश-परदेश – पिता के संस्कार और परंपरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 88 ☆ देश-परदेश – पिता के संस्कार और परंपरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पिता शब्द सुनते ही अनुशासन का बोध होने लगता हैं। ऐसा हम इस दावे के साथ कह सकते है, कि पिताजी के पिता यानी हमारा दादा जी के समक्ष पिता जी की भी चूं नहीं निकलती थी।

पिता जी पच्चास वर्ष से ऊपर की आयु के होंगे, लेकिन दादा जी के समक्ष छोटे से युवा के समान पेश आते थे। दादा जी की दृष्टि भी बहुत कमजोर हो चुकी थी। प्रतिदिन जब देर रात्रि पिताजी दुकान को बढ़ा /मंगल कर घर आते तो दुकान की चाबियां और धन राशि की पोटली दादा जी को सम्मान पूर्वक दे दिया करते थे।

दादा जी परिवार के किसी भी सदस्य को बुला कर धन राशि और चाबियां घर की एक अलमारी में रख कर उसकी चाबी को अपने पास सहेज कर रख लेते थे।

हम सब भाई/ बहिनों ने वर्षों तक ये क्रम देखा और महसूस भी किया कि बड़े बुजर्गों का सम्मान और इज्ज़त कैसे की जाती है।

पिताजी की इन आदतों को देख कर हमारे में भी ये संस्कार कब आ गए, ज्ञात ही नहीं हुआ। ये सब संभव हुआ हमारे पिताजी के कारण, उनका अनुशासन पालन एक मिसाल हैं।

पिताजी की बराबरी तो नहीं कर सकते, परंतु उनके द्वारा स्थापित परंपराएं और परिवार के प्रति कर्तव्य प्रयंता के निर्वहन को जारी रखने के लिए कटिबद्ध हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 393 ⇒ आम सभा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आम सभा।)

?अभी अभी # 393 ⇒ आम सभा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भले ही आम चुनाव संपन्न हो गए हों, सरकारों का गठन भी शुरू हो गया हो, लेकिन मेरा आम चुनाव अभी भी जारी है। लोग आम चुनाव में पार्टी चुनते हैं, मैं चुनाव में अपनी पसंद का आम चुनता हूं।

जिस तरह राजनीति में आम आदमी की अपनी पसंदीदा पार्टी होती है, उसी तरह आम में भी मेरी पसंद होती है। आम के चुनाव के मौसम में मुझे किसी एक आम को नहीं चुनना, कभी लंगड़ा, कभी बदाम, कभी दशहरी तो कभी देसी आम को ही चूसना।

असली आम चुनाव तो वही है, जिसमें आदमी आम को चूसे, लेकिन यह कैसा आम चुनाव, जिसमें एक चुना हुआ आदमी, आम आदमी को काटे, छीले, चूसे और फेंके।।

आमों की सभा में से अक्सर मुझे अपनी पसंद का आम चुनना पड़ता है, आम मीठा भी हो, रसदार भी हो, और सस्ता भी हो। आम आदमी की पसंद अगर आम होती है, तो खास की कुछ खास। बदाम, तोतापरी, और दशहरी अगर आम है, तो बनारस का लंगड़ा, चौसा, गुजरात का केसर, और रत्नागिरी का अल्फांसो खास। जिनके घरों में अल्फांसो की पेटी आती है, वे आम नहीं, खास किस्म का आम खाते हैं।

एक आम देसी भी होता है, जो काटा नहीं, चूसा जाता है। आम चूसना, गन्ना चूसना जितना मुश्किल भी नहीं। लेकिन देसी आम धीरे धीरे बड़े शहरों से दूर होता चला जा रहा है। वैसे भी देसी आम चूसने से बेहतर है, अल्फांसो आम को काटकर खाया जाए और आम आदमी को चूसा जाए।।

हमें आम सभा में देसी आम कहीं नजर नहीं आता। इसलिए हमारा आम चुनाव भी एक तरह का गठबंधन ही होता है, कभी बनारस का लंगड़ा तो कभी गुजरात का केसर। बादाम ना सही, बदाम आम ही सही।

बरसों बाद हमारी देसी आम चूसने की मुराद पूरी हुई, जब अचानक हमारी बहन के सौजन्य से हमारे घर में देसी आम का प्रवेश हुआ। किसी परिचित के बगीचे के देसी आम थे। बस फिर क्या था, तबीयत से धोया, और टूट पड़े सब मिलकर। आम को पहले नर्म यानी पिलपिला करना, फिर उसका ढक्कन खोलकर मुंह से लगाना।

चूसते जाओ, चूसते जाओ, जैसे भ्रष्ट नेता, अफसर और व्यापारी आपको चूसता है, तब तक, जब तक गुठली बाहर ना आ जाए, लेकिन अपना दामन बचाकर, क्योंकि आम आदमी का आक्रोश कभी भी फूट सकता है। हम भी मनोयोग से मिल जुलकर आम चूसते रहे, जब तक आख़री आम ना चुक गया। अहा, क्या आम सभा थी और हम सबके चेहरों पर वही भाव था, जो आम चुनाव के बाद, बहुमत से जीतने के बाद किसी नेता का होता है। देसी आम चुनाव सम्पन्न, आम सभा समाप्त।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 245 – पुनरपि जननं पुनरपि मरणं.. ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 245 ☆ पुनरपि जननं पुनरपि मरणं.. ?

श्मशान में हूँ। देखता हूँ कि हर क्षेत्र की तरह यहाँ भी भारी भीड़ है। लगातार कोई ना कोई निष्प्राण देह लाई जा रही है। देह के पीछे सम्बंधित मृतक के परिजन और रिश्तेदार हैं।

दहन के लिए चितास्थल खाली मिलना भी अब भाग्य कहलाने लगा है। दो देह प्रतीक्षारत हैं। कुछ समय बाद दो खाली चितास्थलों पर  चिता तैयार की जाने लगी हैं। मृतक के परिजन और रिश्तेदार केवल ज़बानी निर्देश तक सीमित हैं। सारा काम तो श्मशान के कर्मचारी कर रहे हैं।

पुरोहित अंतिम संस्कार कराने में जुटे हैं। हर संस्कार की भाँति यहाँ भी उनसे शॉर्टकट की अपेक्षा है। मृतक के पुत्र, पौत्र, निकटवर्ती अपने केश अर्पित कर रहे हैं। उपस्थित लोगों में से अधिकांश के चेहरे पर घर या काम पर जल्दी जाने की बेचैनी है। ज़िंदा रहने के लिए महानगर की शर्तें, संवेदनाओं को मुर्दा कर रही हैं। इन मृत संवेदनाओं की तुलना में मरघट मुझे चैतन्य लगता है। यूँ भी देखें तो महानगरों के मरघट की अखंड चिताग्नि ‘मणिकर्णिका’ का विस्तार ही है।

मानस में जच्चा वॉर्ड के इर्द-गिर्द भीड़ का दृश्य उभरता है। अलबत्ता वहाँ आनंद और उल्लास है, चेहरों पर प्रसन्नता है। प्रसूतिगृह में जीव के आगमन का हर्ष है, श्मशान मेंं जीव के गमन का शोक है।

बार-बार आता है, बार-बार जाता है, फिर-फिर लौट आता है। जीव अन्यान्य देह धारण करता है। चक्र अनवरत है। विशेष बात यह कि जो शोक या आनन्द मना रहे हैं, वे भी उसी परिक्रमा के घटक हैं। आना-जाना उन्हें भी उसी रास्ते है। जीवन का रंगमंच, पात्रोंं से निरंतर भूमिकाएँ बदलवाता रहता है। आज जो कंधा देने आए हैं, कल उन्हें भी कंधों पर ही आना है।

‘भज गोविंदम्’ के 21वें पद में आदिशंकराचार्य जी महाराज कहते हैं-

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।

इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥

भावार्थ है कि बार-बार जन्म होता है‌। बार-बार मृत्यु आती है। बार-बार माँ के गर्भ में शयन करना होता है। बार-बार का यह चक्र अनवरत है। यही कारण है कि संसार रूपी महासागर पार करना दुस्तर है। वस्तुत: काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, राग-द्वेष, निंदा सभी तरह के राक्षसी विषयों का यह संसार महासागर है। यह अपरा है, यहाँ किनारा मिलता ही नहीं। ऐसे राक्षसों के अरि अर्थात मुरारि, भवसागर पार करने की शक्ति प्रदान करें।

श्मशान से श्मशान तक की यात्रा से मुक्त होने का पहला चरण है भान होना। भान रहे कि सब श्मशान की दिशा में यात्रा कर रहे हैं। यह पंक्तियाँ  लिखनेवाला और इन्हें पढ़नेवाला भी। श्मशान पहुँँचने के पहले निर्णय करना होगा कि पार होने का प्रयास करना है या फेरा लगाते रहना है। ..इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 392 ⇒ नंगे पाॅंव (Bare foot) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नंगे पाॅंव (Bare foot)।)

?अभी अभी # 392 ⇒ नंगे पाॅंव (Bare foot) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर कुछ विशेष अवसरों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश समय हम पांव में कुछ ना कुछ पहने ही रहते हैं। वस्त्र की तरह जूते चप्पल से भी हमारा चोली दामन का साथ है।

महल हो या कुटिया, अमीर हो या गरीब, पांव में कुछ ना कुछ तो पहने ही रहता है।

द्वापर में जब बचपन के सखा सुदामा द्वारकाधीश श्रीकृष्ण से मिलने उनके महल पहुंचे, तो द्वारपाल गवाह हैं, ठाकुरजी अपने परम मित्र से मिलने नंगे पांव ही दौड़ पड़े। महल कोई हमारे घरों की तरह 2BHK तो नहीं होता। आप जब भी अपने आराध्य को पुकारेंगे, वे इसी तरह नंगे पांव दौड़ते चले आएंगे, आखिर उन्हें भी तो अपने भक्त की लाज बचानी है।।

एक हम हैं, दरवाजे पर घंटी बजी, कोई आया है, हम पहले अपनी अवस्था देखते हैं, यूं ही मुंह उठाकर द्वार नहीं खोल देते, चश्मा, चप्पल, कुर्ता सब तलाशना पड़ता है। यह मामला लाज, शर्म का नहीं, तमीज, तहजीब और एटिकेट्स का है।

हमारे घर में हम नंगे पांव रहें, अथवा नंगे बदन, क्या फर्क पड़ता है। इनवर्टर रहित घर में जब गर्मियों के मौसम में अचानक बिजली गुल हो जाती है, तो शर्ट उतारकर उससे ही पंखा करना पड़ता है। लेकिन जब घर से बाहर कदम रखते हैं, तो कौन नंगे पांव और नंगे बदन जाता है।।

वैसे भी घरों में नंगे बदन की छूट भी केवल पुरुषों के लिए ही है, महिलाओं की अपनी मर्यादा होती है, फिर भी इसकी क्षतिपूर्ति वे, घर से बाहर, फैशन की आड़ में, नंगी बाहें और नंगी पीठ से कर लेती हैं, लेकिन नंगे पांव चलना तो उन्हें भी शोभा नहीं देता।

आपने गालियां तो सुनी होंगी लेकिन भारतीय व्यवहार कोश में नंगी नंगी गालियां भी हैं, सज्जन पुरुष उन्हें शालीन तरीके से भद्दी भद्दी अथवा गंदी गंदी गालियां कहते हैं।

कड़वा सच तो खैर होता ही है, क्या आप जानते हैं, नंगा सच भी होता है। Bare foot की तरह bare truth.

हमें यह बात कभी हजम नहीं हुई कि हमाम में सब नंगे होते हैं। हमें तो हमाम का मतलब ही पता नहीं था, क्योंकि घर में बाथरूम ही नहीं था। एक पत्थर पर बैठकर नहाते थे, और हमाम साबुन बार बार हाथ से फिसल जाता था। मुंह पर साबुन का झाग, टटोलते रहो हमाम, अपनी इज्जत बचाते हुए।

जिस देश में सन् २०१४ तक अधिकांश जनता खुले में शौच जाती थी, वह घर भी नहाकर ही आती थी, नदी नाले, तालाब, कुंए बावड़ी बहुत होंगे उस जमाने में। आपने सुना नहीं ;

मोहे पनघट पे,

नंदलाल छेड़ गयो

रे मोहे पनघट पे ….

हमाम में सब नंगे नहीं होते। यह हमारी भारतीय सनातन संस्कृति को विकृत तरीके से पेश करने का एक कुत्सित प्रयास है, हम इसकी कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हैं।।

पुराने रसोई घर और चौकों चूल्हों के पास जूते चप्पल नहीं ले जाए जाते थे, और मंदिर में तो कतई नहीं। आज भी गुरुद्वारों और वैष्णव मंदिरों में केवल जूते चप्पल ही नहीं, मोजे पहनकर जाना भी मना है। वैसे हाथ धोकर ही मंदिर और गुरुद्वारे में प्रवेश किया जाता है। नंगे पांव, लेकिन नंगे सिर नहीं। सिर पर कुछ भी, ओढ़नी, टोपी, रूमाल सब चलेगा। रब के आगे मत्था यूं ही नंगे सिर नहीं टेका जाता।

आपने सुना नहीं, राधे राधे बोलो, चले आएंगे बिहारी ! जैसे हैं, वैसे ही दौड़े दौड़े चले आते हैं ठाकुर जी, नंगे पांव। जब किसी आत्मीय का जब द्वार पर स्वागत करें, तो नंगे पांव करें और विदाई भी नंगे पांव ही। कहीं कहीं तो जीवन में सहजता हो, स्वाभाविकता हो, अनन्य प्रेम हो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #236 ☆ कलम से अदब तक… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख कलम से अदब तक। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 236 ☆

☆ कलम से अदब तक… ☆

‘अदब सीखना है तो कलम से सीखो; जब भी चलती है, सिर झुका कर चलती है।’ परंतु आजकल साहित्य और साहित्यकारों की परिभाषा व मापदंड बदल गए हैं। पूर्वोत्तर परिभाषाओं के अनुसार…साहित्य में निहित था…साथ रहने, सर्वहिताय व सबको साथ लेकर चलने का भाव, जो आजकल नदारद हो गया है। परंतु मेरे विचार से तो ‘साहित्य एहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है; भावों और संवेदनाओं का झरोखा है और समाज के कटु यथार्थ को उजागर करना साहित्यकार का दायित्व है।’

साहित्य और समाज का चोली-दामन का साथ है। साहित्य केवल समाज का दर्पण ही नहीं, दीपक भी है और समाज की विसंगतियों- विश्रृंखलताओं का वर्णन करना, जहां साहित्यकार का नैतिक दायित्व है; उसके लिए समाधान सुझाना व उपयोगिता दर्शाना भी उसका प्राथमिक दायित्व है। परंतु आजकल साहित्यकार अपने दायित्व का निर्वाह कहां कर रहे है…अत्यंत चिंतनीय है, शोचनीय है। महान् लेखक मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य की उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि ‘कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है.. ताक़तवर होती है’ अर्थात् जो कार्य तलवार नहीं कर सकती, वह लेखक की कलम की पैनी धार कर गुज़रती है। इसीलिए वीरगाथा काल में राजा युद्ध-क्षेत्र में आश्रयदाता कवियों को अपने साथ लेकर जाते थे और उनकी ओजस्विनी कविताएं सैनिकों का साहस व उत्साहवर्द्धन कर उन्हें विजय के पथ पर अग्रसर करती थीं। रीतिकाल में भी कवियों व शास्त्रज्ञों को दरबार में रखने की परंपरा थी तथा उनके बीच अपने राजाओं को प्रसन्न करने हेतु अच्छी कविताएं सुनाने की होड़ लगी रहती थी। श्रेष्ठ रचनाओं के लिए उन्हें स्वर्ण मुद्राएं भेंट की जाती थी। बिहारी का दोहा ‘नहीं पराग, नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल’ द्वारा राजा जयसिंह को बिहारी ने सचेत किया गया था कि वे पत्नी के प्रति आसक्त होने के कारण, राज-काज में ध्यान नहीं दे रहे, जो राज्य के अहित में है और विनाश का कारण बन सकता है। इसी प्रकार भक्ति काल में कबीर व रहीम के दोहे, सूर के पद, तुलसी की रामचरितमानस के दोहे- चौपाइयां गेय हैं, समसामयिक हैं, प्रासंगिक हैं और प्रात:-स्मरणीय हैं। आधुनिक काल को भी भक्तिकालीन साहित्य की भांति विलक्षण और समृद्ध स्वीकारा गया है।

सो! सत्-साहित्य वह कहलाता है, जिसका प्रभाव दूरगामी हो; लम्बे समय तक बना रहे तथा वह  परोपकारी व मंगलकारी हो; सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् के विलक्षण भाव से आप्लावित हो। प्रेमचंद, शिवानी, मनु भंडारी, मालती जोशी, निर्मल वर्मा आदि लेखकों के साहित्य से कौन परिचित नहीं है? आधुनिक युग में भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, नीरज, भारती आदि का सहित्य अद्वितीय है, शाश्वत है, समसामयिक है, उपादेय है। आज भी उसे भक्तिकालीन साहित्य की भांति उतनी तल्लीनता से पढ़ा जाता है; जिसका मुख्य कारण है…साधारणीकरण अर्थात् जब पाठक ब्रह्मानंद की स्थिति तक पहुंचने के पश्चात् उसी मन:स्थिति में रहना पसंद करता है तथा उस स्थिति में उसके भावों का विरेचन हो जाता है…यही भाव-तादात्म्य ही साहित्यकार की सफलता है।

साहित्यकार अपने समाज का यथार्थ चित्रण करता है; तत्कालीन  समाज के रीति-रिवाज़, वेशभूषा, सोच, धर्म आदि को दर्शाता है…उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का दिग्दर्शन कराता है… वहीं समाज में व्याप्त बुराइयों को प्रकाश में लाना तथा उनके उन्मूलन के मार्ग दर्शाना…उसका प्रमुख दायित्व होता है। उत्तम साहित्यकार संवेदनशील होता है और वह अपनी रचनाओं के माध्यम से, पाठकों की भावनाओं को उद्वेलित व आलोड़ित करता है। समाज में व्याप्त बुराइयों की ओर उनका ध्यान आकर्षित कर जनमानस  के मनोभावों को झकझोरता, झिंझोड़ता व सोचने पर विवश कर देता है कि वे ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं, दिग्भ्रमित हैं। सो! उन्हें अपना रास्ता बदल लेना चाहिए। सच्चा साहित्यकार मिथ्या लोकप्रियता के पीछे नहीं भागता; न ही अपनी कलम को बेचता है; क्योंकि वह जानता है कि कलम का रुतबा संसार में सबसे ऊपर होता है। कलम सिर झुका कर चलती है, तभी वह इतने सुंदर साहित्य का सृजन करने में समर्थ है। इसलिए मानव को उससे अदब व सलीका सीखना चाहिए तथा अपने अंतर्मन में विनम्रता का भाव जाग्रत कर, सुंदर व सफल जीवन जीना चाहिए…ठीक वैसे ही जैसे फलदार वृक्ष सदैव झुक कर रहता है तथा मीठे फल प्रदान करता है। इन कहावतों के मर्म से तो आप सब अवगत होंगे… ‘अधजल गगरी, छलकत जाए’ तथा ‘थोथा चना, बाजे घना’ मिथ्या अहं भाव को प्रेषित करते हैं। इसलिए नमन व मनन द्वारा जीवन जीने के सही ढंग व महत्व को प्रदर्शित दिया गया है। मन से पहले व मन के पीछे न लगा देने से विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न नहीं होती, बल्कि नमन व मनन एक- दूसरे के पूरक हो जाते हैं। वैसे भी इनका चोली-दामन का साथ है। एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है। यह सामंजस्यता के सोपान हैं और सफल जीवन के प्रेरक व आधार- स्तंभ हैं।

प्रार्थना हृदय का वह सात्विक भाव है; जो ओंठों तक पहुंचने से पहले ही परमात्मा तक पहुंच जाती है… परंतु शर्त यह है कि वह सच्चे मन से की जाए। यदि मानव में अहंभाव नहीं है, तभी वह उसे प्राप्त कर सकता है। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है, केवल अपनी-अपनी हांकता है तथा दूसरे के अस्तित्व को नकार उसकी अहमियत नहीं स्वीकारता। सो! वह आत्मजों, परिजनों व परिवारजनों से बहुत दूर चला जाता है। परंतु एक लंबे अंतराल के पश्चात् समय के बदलते ही वह अर्श से फ़र्श पर पर आन पड़ता है और लौट जाना चाहता है…अपनों के बीच, जो सर्वथा संभव नहीं होता। अब उसे प्रायश्चित होता है… परंतु गुज़रा समय कब लौट पाया है? इसलिए मानव को अहं को त्याग, किसी भी हुनर पर अभिमान न करने की सीख दी गई है, क्योंकि पत्थर की भांति अहंनिष्ठ व्यक्ति भी अपने ही बोझ से डूब जाता है, परंतु निराभिमानी मनुष्य संसार में श्रद्धेय व पूजनीय हो जाता है।

‘विद्या ददाति विनयम्’ अर्थात् विनम्रता मानव का आभूषण है और विद्या हमें विनम्रता सिखलाती है… जिसका संबंध संवेदनाओं से होता है। संवेदना से तात्पर्य है… सम+वेदना… जिसका अनुभव वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके हृदय में स्नेह, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता, करुणा, त्याग आदि भाव व्याप्त हों…जो दूसरे के दु:ख की अनुभूति कर सके। परंतु यह बहुत टेढ़ी खीर है…दुर्लभ व दुर्गम मार्ग है तथा उस स्थिति तक पहुंचने के लिए वर्षों की साधना अपेक्षित है। जब तक व्यक्ति स्वयं को उसी भाव-दशा में अनुभव नहीं करता; उनके सुख-दु:ख में अपनत्व भाव व आत्मीयता नहीं दर्शाता …अच्छा इंसान भी नहीं बन सकता; साहित्यकार होना, तो बहुत दूर की बात है; कल्पनातीत है।

आजकल समाजिक व्यवस्था पर दृष्टिपात करने पर लगता है कि संवेदनाएं मर चुकी हैं, सामाजिक सरोकार अंतिम सांसें ले रहे हैं और इंसान आत्म-केंद्रित होता जा रहा है। त्रासदी यह है कि वह निपट स्वार्थी इंसान अपने अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में सोचता ही कहां है? सड़क पर पड़ा घायल व्यक्ति जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते हुए सहायता की ग़ुहार लगाता है, परंतु संवेदनशून्य व्यक्ति उसके पास से नेत्र मूंदे निकल जाता हैं। हर दिन चौराहों पर मासूमों की अस्मत लूटी जाती है और दुष्कर्म के पश्चात् उन्हें तेज़ाब डालकर जला देने के किस्से भी आम हो गए हैं। लूटपाट, अपहरण, फ़िरौती, देह-व्यापार व मानव शरीर के अंग बेचने का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। यहां तक कि चंद सिरफिरे अपने देश की सुरक्षा बेचने में भी कहां संकोच करते हैं?

परंतु कहां हो रहा है… ऐसे साहित्य का सृजन, जो समाज की हक़ीकत बयान कर सके तथा लोगों की आंखों पर पड़ा पर्दा हटा सके। आजकल तो सबको पद-प्रतिष्ठा, नाम-सम्मान व रूतबा चाहिए, वाहवाही सबकी ज़रूरत है; जिसके लिए वे सब कुछ करने को तत्पर हैं, आतुर हैं अर्थात् किसी भी सीमा तक झुकने को तैयार हैं। यदि मैं कहूं कि वे साष्टांग दण्डवत् प्रणाम तक करने को प्रतीक्षारत हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

सो! ऐसे आक़ाओं का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है, जो नये लेखकों को सुरक्षा प्रदान कर, मेहनताने के रूप में खूब सुख-सुविधाएं वसूलते हैं। सो! ऐसे लेखक पलक झपकते अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशित होते ही बुलंदियों को छूने लगते हैं, क्योंकि उन आक़ाओं का वरद्-हस्त नये लेखकों पर होता है। सो! उन्हें फर्श से अर्श पर आने में समय लगता ही नहीं। आजकल तो पैसा देकर आप राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय अथवा अपना मनपसंद सम्मान खरीदने को स्वतंत्र हैं। सो! पुस्तक के लोकार्पण करवाने की भी बोली लगने लगी है। आप पुस्तक मेले में अपने मनपसंद सुविख्यात लेखकों द्वारा अपनी पुस्तक का लोकार्पण करा कर प्रसिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। अनेक विश्व-विद्यालयों द्वारा पीएच•डी• व डी•लिट्• की मानद उपाधि प्राप्त कर, अपने नाम से पहले डॉक्टर लगाकर, वर्षों तक मेहनत करने वालों के समकक्ष या उनसे बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर उन्हें धूल चटा सकते हैं; नीचा दिखा सकते हैं। परंतु ऐसे लोग अहंनिष्ठ होते हैं। वे कभी अपनी ग़लती कभी स्वीकार नहीं करते, बल्कि दूसरों पर आरोप-प्रत्यारोप लगा कर अहंतुष्टि कर सुक़ून पाते हैं। यह सत्य है कि जो लोग अपनी ग़लती नहीं स्वीकारते, किसी को अपना कहां मानेंगे? सो! ऐसे लोगों से सावधान रहने में ही सब का हित है।

जैसे कुएं में उतरने के पश्चात् बाल्टी झुकती है और भरकर बाहर निकलती है…उसी प्रकार जो इंसान झुकता है; कुछ लेकर अथवा प्राप्त करने के पश्चात् ही जीवन में पदार्पण करता है। यह अकाट्य सत्य है कि संतुष्ट मन सबसे बड़ा धन है। परंतु ऐसे स्वार्थी लोग और…और…और की चाह में अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। वैसे बिना परिश्रम के प्राप्त फल से आपको क्षणिक प्रसन्नता तो प्राप्त हो सकती है, परंतु उससे संतुष्टि व स्थायी संतोष प्राप्त नहीं हो सकता। इससे भले ही आपको पद-प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाए; परंतु सम्मान नहीं मिलता। अंतत: सत्य व हक़ीक़त के उजागर हो जाने के पश्चात् आप दूसरों की नज़रों में गिर जाते हैं।

‘सत्य कभी दावा नहीं करता कि मैं सत्य हूं और झूठ सदा शेखी बघारता हुआ कहता है कि ‘मैं ही सत्य हूं। परंतु एक अंतराल के पश्चात् सत्य लाख परदों के पीछे से भी सहसा प्रकट हो जाता है।’ इसलिए सदैव मौन रह कर आत्मावलोकन कीजिए और तभी बोलिए; जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों। सो! मनन कीजिए, नमन स्वत: प्रकट हो जाएगा। जीवन में झुकने का अदब सीखिए; मानव-मात्र के हित के निमित्त समाजोपयोगी लेखन कीजिए…सब के दु:ख-दर्द की अनुभूति कीजिए। वैसे संकट में कोई नज़दीक नहीं आता, जबकि दौलत के आने पर दूसरों को आमंत्रण देना नहीं पड़ता…लोग आप के इर्दगिर्द मंडराने लगते हैं। इनसे बच के रहिए…प्राणी-मात्र के हित में सार्थक सृजन कीजिए…यही ज़िंदगी का सार है; जीने का मक़सद है। सस्ती लोकप्रियता के पीछे मत भागिए …इससे आप की हानि होगी। इसलिए सब्र व संतोष रखिए, क्योंकि वह आपको कभी भी गिरने नहीं देता… सदैव आपकी रक्षा करता है। ‘चल ज़िंदगी नयी शुरुआत करते हैं/ जो उम्मीद औरों से थी/ ख़ुद से करते हैं’… इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देती हूं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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