हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 380 ⇒ दिनदहाड़े… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दिनदहाड़े।)

?अभी अभी # 380 ⇒ दिनदहाड़े? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सुनने में यह शब्द अजीब भले ही लगे, लेकिन इसका मतलब सब जानते हैं। अक्सर दोपहर और शाम के स्थानीय समाचार पत्रों में ऐसी खबरें अधिक प्रकाशित होती हैं। ये खबरें सनसनीखेज होती हैं, जिनमें दिनदहाड़े लूट, हत्या, डाका और नकबजनी जैसी आपराधिक घटनाएं शामिल होती हैं।

ईश्वर ने रात सोने के लिए बनाई हैं, फिर भी आसुरी शक्तियां रात को ही उत्पात करती हैं, लेकिन जब ये शक्तियां दिन में भी अपनी काली करतूतों से बाज नहीं आती, तो प्रचंड अग्निपुंज आदित्य नारायण का मन बड़ा क्षुब्ध हो जाता है, दिन अपनी वेदना किससे कहे, उसका दिल ऐसे कुकृत्यों को देख दहाड़ उठता है, और हम लाचार ऐसी दिनदहाड़े घटनाओं को फटी आंखों से देखते रह जाते हैं। शायद इसी को कलयुग कहते हों।।

व्याकरण का ऐसा कोई नियम नहीं है, किस शब्द का कब, कहां और कैसे प्रयोग किया जाए। दिनदहाड़े शब्द में प्रमुख दिन है। जो शब्द प्रचलन में आ गया, वह हमें भा गया। अगर भरी दोपहर में कोई आपसे घर मिलने आए, तो आप यही कहेंगे न, अरे भरी दोपहरी में कैसे कष्ट किया, आइए, थोड़ा सुस्ताइए, ठंडा गरम लीजिए। क्या आप यह कह सकते हैं, दिनदहाड़े कैसे तशरीफ लाए। अगर कह भी दिया, तो इसमें क्या गलत है।

जो काम दिनदहाड़े हो रहे हैं, उनको हम स्वीकार क्यों नहीं करते। क्यों हमने दिनदहाड़े शब्द को गलत अर्थ में ही स्वीकार किया है। और अगर किया भी है, तो आप खुलकर उसका दिनदहाड़े प्रयोग क्यों नहीं करते।।

दुनिया में हर काम आपकी मनमर्जी से नहीं होते। दिनदहाड़े लूट चल रही है, आप क्या कर सकते हैं।

दिनदहाड़े इतनी गर्मी पड़ रही है, आप स्वीकार क्यों नहीं करते। हमारी आज की परिभाषा तो यही है, जो भी काम दिन में चल रहा है, वह दिनदहाड़े चल रहा है, और धड़ल्ले से चल रहा है। सही गलत का फैसला करने वाले आप कौन होते हैं।

आईआईटी और आईआईएम में मोटिवेशन स्पीच, और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के साथ साथ ध्यान और पूजा अर्चना के कोर्स भी रखे जाएंगे, क्योंकि एक निरुत्तर योगी आज वहां इसका लाइव डिमॉन्सट्रेशन (सजीव प्रदर्शन) कर रहा है। ध्यान रात में किया जाए, अथवा दिनदहाड़े चमत्कार तो साक्षात् नजर आ ही जाता है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 243 – असार का सार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 243 ☆ असार का सार ?

मनुष्य के मानस में कभी न कभी यह प्रश्न अवश्य उठता है कि उसका जन्म क्यों हुआ है? क्या केवल जन्म लेने, जन्म को भोगने और जन्म को मरण तक ले जाने का माध्यम भर है मनुष्य?

वस्तुत: जीवन समय का साक्षी बनने के लिए नहीं है अपितु समय के पार जाने की यात्रा है। अपार सृष्टि के पार जाने का, मानव देह एकमात्र अवसर है, एक मात्र माध्यम है। यह सत्य है कि एक जीवन में कोई बिरला ही पार जा पाता है, तथापि एक जीवन में प्रयास कर अगले तिरासी लाख, निन्यानवे हजार, नौ सौ निन्यानवे जन्मों के फेरे से बचना संभव है। मानव देह में मिले समय का उपयोग न हुआ तो कितना लम्बा फेरा लगाकर लौटना पड़ेगा!

जीवन को क्षणभंगुर कहना सामान्य बात है। क्षणभंगुरता में जीवन निहारना, असामान्य दर्शन है। लघु से विराट की यात्रा, अपनी एक कविता के माध्यम से स्मरण हो आती है-

जीवन क्षणभंगुर है,

सिक्का बताता रहा,

समय का चलन बदल दिया,

उसने सिक्का उलट दिया,

क्षणभंगुरता में ही जीवन है,

अब सिक्के ने कहा,

शब्द और अर्थ के बीच,

अलख दृष्टि होती है,

लघु से विराट की यात्रा

ऐसे ही होती है.. !

ज्ञान मार्ग का जीव मनुष्येतर जन्मों को अपवाद कर देता है, एक छलांग में इन्हें पार कर लौट आता है फिर मनुज देह को धारण करने, फिर पार जाने के लिए।

मनुष्य जाति का आध्यात्मिक इतिहास बताता है कि ज्ञानशलाका के स्पर्श से शनै:-शनै: अंतस का ज्ञानचक्षु खुलने लगता हैं। अपने उत्कर्ष पर ज्ञानचक्षु समग्र दृष्टिवान हो जाता है महादेव-सा। यह दर्शन सम्यक होता है। सम्यक दृष्टि से जो दिखता है, अद्वैत होता है विष्णु-सा। अद्वैत में सृजन का एक चक्र अंतर्निहित होता है ब्रह्मा-सा। ज्ञान मनुष्य को ब्रह्मा, विष्णु, महेश-सा कर सकता है। सर्जक, सम्यक, जागृत होना, मनुष्य को त्रिदेव कर सकता है।

जिसकी कल्पना मात्र से शब्द रोमांचित हो जाते हैं, देह के रोम उठ खड़े होते हैं, वह ‘त्रिदेव अवस्था’ कैसी होगी! भीतर बसे त्रिदेव का साक्षात्कार, द्योतक है सृष्टि के पार का।

असार है संसार। असार का सार है मनुष्य होना। सार का स्वयं से साक्षात्कार कहलाता है चमत्कार। यह चमत्कार दही में अंतर्निहित माखन-सा है। माखन पाने के लिए बिलोना तो पड़ेगा। माँ यशोदा ने बिलोया तो साक्षात श्याम को पाया।

संभावनाओं की अवधि, हर साँस के साथ घट रही है। अपनी संभावनाओं पर काम आरंभ करो आज और अभी। असार से केवल ‘अ’ ही तो हटाना है। साधक जानता है कि अ से ‘आरंभ’ होता है। आरंभ करो, सार तुम्हारी प्रतीक्षा में है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

निमंत्रण- 🕉️ रामोत्सव

रविवार दि. 2 जून 2024, प्रात: 10:30 बजे, स्थान- श्रीराम मंदिर, खडकी, पुणे

सद्मार्ग मिशन के पाँचवें वर्ष में प्रवेश के अवसर पर रामोत्सव आयोजित किया जा रहा है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित आयोजन होंगे-

1) राम, राम-सा।

प्रभु श्रीराम के विभिन्न आयामों पर ज्ञानमार्ग के पथिक संजय भारद्वाज का संगीतमय प्रबोधन।

2) सामूहिक श्रीरामरक्षास्तोत्रम् पाठ। 3) सामूहिक श्रीराम स्तुति। 4) सामूहिक हनुमान चालीसा।

आप सब रामोत्सव में सादर आमंत्रित हैं। कृपया अपनी उपस्थिति की पुष्टि करें। इससे व्यवस्था में सुविधा रहेगी। साधुवाद।

संयोजक, सद्मार्ग मिशन, 9890122603

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 379 ⇒ अथ श्री महाभारत कथा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अथ श्री महाभारत कथा।)

?अभी अभी # 379 ⇒ अथ श्री महाभारत कथा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भारत की यह कथा आजादी से शुरू होती है।  सन् १९४७ में भारत आजाद हुआ, बंटवारे के साथ। नेहरू गांधी जिम्मेदार, कुबूल, आगे बढ़ें। भारत को इंडिया भी कहा जाता था।  एक ही सिक्के के दो पहलू थे, भारत और इंडिया।  केवल सिक्के पर ही नहीं, हर भारतीय मुद्रा पर हिंदी में भारत और अंग्रेजी में India, आज भी अंकित है, और साथ में गांधी जी का चित्र भी।  

जग में सुंदर हैं दो नाम,

चाहे कृष्ण कहो या राम

की तर्ज पर चाहे इंडिया कहो या भारत, दोनों शब्दों में करोड़ों भारतीयों का दिल बसता है।  बड़े गर्व से याद आता है, मेक इन इंडिया, शाइनिंग इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया और डिजिटल इंडिया। भारत माता की जय और आय लव माय इंडिया।।

लोकतंत्र में राजा नहीं होता, सत्ता पक्ष और विपक्ष होता है। पहले देश का बंटवारा, और अब नाम का बंटवारा।  स्वार्थ की राजनीति ने, और सत्ता के मोह ने, एक नया इंडिया राजनीतिक गठबंधन खड़ा कर दिया, और बेचारा भारत देखता ही रह गया।  भारत और इंडिया के नाम पर धर्म और अधर्म की राजनीति भी शुरू हो गई।

सत्ता के लिए एक और महाभारत।

महाभारत के समय में तो कौरव पांडव भी भाई भाई थे, लेकिन वहां भी धर्म अधर्म की लड़ाई थी।  एक तरफ महाराज धृतराष्ट्र – गांधारी पुत्र दुर्योधन और उसके सौ भाई और दूसरी ओर पांच कुंती पुत्र पांडव।  आज के महाभारत में हमें धृतराष्ट्र, दुर्योधन, दानवीर कर्ण, शकुनि, द्रोणाचार्य और कई कृपाचार्य तो नजर आते हैं, लेकिन धर्मराज युधिष्ठिर, वीर अर्जुन, महात्मा विदुर, ज्ञानी उद्धव और सारथी श्रीकृष्ण कहीं नजर नहीं आते।।

इतिहास साक्षी है, जब भी राम रावण युद्ध हुआ है, अथवा महाभारत हुआ है, सदा सत्य की और धर्म की ही विजय हुई है।  जो सनातन सत्य है, वह कभी बदल नहीं सकता।  देवासुर संग्राम में भी सदा देवताओं की ही विजय हुई है।  

आज एक स्वयंभू श्रीकृष्ण हमें कलयुग और द्वापर की जगह वापस त्रेता युग में ले जाने को तत्पर हैं।  राम और कृष्ण की तरह वे ही भारत और इंडिया के प्रतीक हैं, भारत फिर एक बार चैन की बंसी बजाएगा, अधर्म का नाश होगा, रामराज्य फिर से आएगा।  इंडिया इज भारत, भारत इज इंडिया।  नो मोर महाभारत।  

मेरा भारत महान।  

जय भारत..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 378 ⇒ सनातन में संशोधन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सनातन में संशोधन ।)

?अभी अभी # 378 ⇒ सनातन में संशोधन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सनातन कोई संविधान नहीं, जिसमें संशोधन किया जा सके। संविधान के निर्माता होते हैं,  वह लिखित में होता है, इसलिए समय और परिस्थिति के अनुसार उसमें संशोधन किया जा सकता है। सनातन के साथ ऐसा कुछ नहीं। जो सत्य है, वही सनातन है। सनातन शब्द सत् और तत् से मिलकर बना हुआ है। हमारे देश में वैदिक धर्म का इतिहास बहुत पुराना है। जो शाश्वत है, वही सनातन है।

जो सत्य है, शाश्वत है, वही सनातन है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता को धर्म से लिंक करना बहुत जरूरी है, क्योंकि हिंदू धर्म के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही इस सृष्टि के जन्मदाता, पालक और संहारक हैं।।

हमने पहले राजनीति को धर्म से लिंक किया और फिर धर्म को सनातन से लिंक कर दिया। जिस तरह आपके बैंक अकाउंट को आधार और पैनकार्ड से लिंक करना जरूरी है, उसी तरह धर्म का राजनीति और सनातन से लिंक करना भी उतना ही जरूरी है।

आज सनातन से सत्य गायब है, क्योंकि उसे धर्म और राजनीति से जोड़ दिया गया है। जो सत्य है वह सनातन नहीं, जो सनातन है वही सत्य है।

आपने सुना नहीं,  सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं।।

वैसे भी आजकल सत्य को कौन परेशान कर रहा है।

सारे मनोरथ जब झूठ के सहारे पूरे हो रहे हों, तो सत्य को परेशान नहीं किया जाता। हमने फिर भी सत्य को सम्मान देने के लिए उसे राम नाम से जोड़ दिया है। राम नाम सत्य है, और यह निर्विवाद सत्य है।

हमें जब भूख लगती है, तो हम सच की सौगंध खा लेते हैं, थाने में हमें सच उगलवाना आता है। सच उगलवाने के लिए हमने मशीन भी इजाद की है।

पद और गोपनीयता की शपथ तो हमने कई बार खाई है, जब जब भी दल बदला है, पार्टी बदली है।।

सत्य सनातन नहीं, सनातन धर्म ही सत्य है। बस इसे राजनीति से लिंक करवाना जरूरी है। उसी से धर्म की रक्षा संभव है, सनातन सुरक्षित है। हमने सनातन में सिर्फ इतना संशोधन जरूर कर दिया है,  सत्य सनातन नहीं, सनातन धर्म ही सत्य है। जाओ सत्य, तुम आजाद हो..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #234 ☆ सुनना और सहना… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सुनना और सहना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 234 ☆

☆ सुनना और सहना… ☆

‘हालात सिखाते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह ही होता है’ गुलज़ार इस कथन के माध्यम से समय व परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हैं। वैसे यह तथ्य महिलाओं पर अधिक लागू होता है, क्योंकि ‘औरत को सहना है, कहना नहीं और यही उसकी नियति है।’ उसे तो अपना पक्ष रखने का अधिकार भी प्राप्त नहीं है। वैसे कोर्ट-कचहरी में भी आरोपी को अपना पक्ष रखने की हिदायत ही नहीं दी जाती; अवसर भी प्रदान किया जाता है। परंतु औरत की नियति तो उससे भी बदतर है। बचपन से उसे समझा दिया जाता है कि यह घर उसका नहीं है और पति का घर उसका होगा। परंतु पहले तो उसे यह सीख दी जाती थी कि ‘जिस घर से डोली उठती है, उस घर से अर्थी नहीं उठती। इसलिए तुम्हें इस घर में अकेले लौट कर नहीं आना है।’ सो! वह मासूम आजीवन उस घर को अपना समझ कर सजाती-संवारती है, परंतु अंत में उस घर से उस अभागिन को दो गज़ कफ़न भी नसीब नहीं होता और उसके नाम की पट्टिका भी कभी उस घर के बाहर दिखाई नहीं पड़ती।

परंतु समय के साथ सोच बदली है और आठ से दस प्रतिशत महिलाएं सशक्त हो गई हैं– शेष वही ढाक के तीन पात। कुछ महिलाएं समानता के अधिकारों का दुरुपयोग भी कर रही हैं। वे ‘लिव इन व मी टू’ के माध्यम से हंसते-खेलते परिवारों में सेंध लगा रही हैं तथा दहेज व घरेलू हिंसा आदि के झूठे इल्ज़ाम लगा पति व परिवारजनों को सीखचों के पीछे पहुंचा अहम् भूमिका वहन कर रही हैं। यह है परिस्थितियों के परिर्वतन का परिणाम, जैसा कि गुलज़ार ने कहा है कि समानता का अधिकार प्राप्त करने के पश्चात् महिलाओं की सोच बदली है। वे अब आधी ज़मीन ही नहीं, आधा आसमान लेने पर  आमादा हो रही हैं। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘मौसम भी बदलते हैं, हालात बदलते हैं/ यह समाँ बदलता है, जज़्बात बदलते हैं/ यादों से महज़ मिलता नहीं, दिल को सुक़ून/  ग़र साथ हो सुरों का, नग़मात बदलते हैं।’ जी हां! यही सत्य है जीवन का– समय के साथ- साथ व्यक्ति की सोच भी बदलती है। वैसे स्मृतियों में विचरण करने से दिल को सुक़ून नहीं मिलता। परंतु यदि सुरों अथवा संगीत का साथ हो, तो उन नग़मों की प्रभाव-क्षमता भी अधिक हो जाती है।

‘संसार में मुस्कुराहट की वजह लोग जानना चाहते हैं; उदासी की वजह कोई नहीं जानना चाहता।’ यहां ‘सुख के सब साथी, दु:ख में ना कोय।’ सो! इंसान सुखों को इस संसार के लोगों से सांझा नहीं करना चाहता, परंतु दु:खों को बांटना चाहता है। उस स्थिति में वह आत्म- केंद्रित रहते हुए दूसरों से संबंध-सरोकार रखना पसंद नहीं करता। अक्सर लोग सत्ता व धन- सम्पदा व सम्मान वाले व्यक्ति का साथ देना पसंद करते हैं; उसके आसपास मंडराते हैं, परंतु दु:खी व्यक्ति से गुरेज़ करते हैं। यही है ‘दस्तूर- ए-दुनिया।’

‘हौसले भी किसी हक़ीम से कम नहीं होते/ हर तकलीफ़ में ताकत की दवा देते हैं।’ मानव का साहस, धैर्य व आत्मविश्वास किसी वैद्य से कम नहीं होता। वे मानव को मुसीबतों में उनका सामना करने की राह सुझाते हैं। जैसे एक छोटी-सी दवा की गोली रोग-मुक्त करने में सहायक सिद्ध होती है, वैसे ही  संकट काल में सहानुभूति के दो मीठे बोल संजीवनी का कार्य करते हैं। ‘मैं हूं ना’ यह तीन शब्द से उसे संकट-मुक्त कर देते हैं। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए तथा हार होने से पहले पराजय को नहीं स्वीकारना चाहिए। दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला कहते हैं ‘हिम्मतवान् वह नहीं, जिसे डर नहीं लगता, बल्कि वह है जो डर को जीत लेता है’ तथा वैज्ञानिक मैडम क्यूरी का मानना है कि ‘जीवन डरने के लिए नहीं: समझने के लिए है। सकारात्मक संकल्प से ही हम मुश्किलों से बाहर निकल सकते हैं।’ सो! संसार में वीर पुरुष ही विजयी होते और कायर व्यक्ति का जीना प्रयोजनहीन होता है। इसके साथ हम सकारात्मक सोच व दृढ़-संकल्प से कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। नैपोलियन का यह संदेश अनुकरणीय है कि ‘समस्याएं भय व डर से उत्पन्न होती हैं। यदि डर की जगह विश्वास ले ले, तो वे अवसर बन जाती हैं। वे विश्वास के साथ आपदाओं का सामना कर उन्हें अवसर में बदल डालते थे।’ इसलिए हर इंसान को अपने हृदय से डर को बाहर निकाल फेंकना चाहिए। यदि आप साहस-पूर्वक यह पूछते हैं–’इसके बाद क्या’ तो प्रतिपक्ष के हौसले पस्त हो जाते हैं। जिस दिन मानव के हृदय से भय निकल जाता है; वह आत्मविश्वास से आप्लावित हो जाता है और आकस्मिक आपदाओं का सामना करने में स्वयं को समर्थ पाता है। हमारे हृदय का भय का भाव ही हमें नतमस्तक होने पर विवश करता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यही संदेश दिया है कि ‘अन्याय करने वाले से अधिक दोषी अन्याय सहन करने वाला होता है।’ हमारी सहनशीलता ही उसे और अधिक ज़ुल्म करने को प्रोत्साहित करती है। जब हम उसके सम्मुख डटकर खड़े हो जाते हैं, तो वह अपनी झेंप मिटाने के लिए अपना रास्ता बदल लेता है। यह अकाट्य सत्य है कि हमारा समर्पण ही प्रतिपक्ष के हौसलों को बुलंद करता है।

मौन नव निधियों की खान है; विनम्रता आभूषण है। परंतु जहां आत्म-सम्मान का प्रश्न हो, वहाँ उसका सामना करना अपेक्षित व श्रेयस्कर है। ऐसी स्थिति में मौन को कायरता का प्रतीक स्वीकारा जाता है। सो! वहाँ समझौता करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। भले ही सुनना व सहना हमें हालात सिखाते हैं, परंतु उन्हें नतमस्तक हो स्वीकार कर लेना पराजय है।

‘यदि तुम स्वयं को कमज़ोर समझते हो, तो कमज़ोर हो जाओगे। यदि ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो ताकतवर’– स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। हमारी सोच ही हमारा भविष्य निर्धारित करती है। इसलिए जीवन में नकारात्मकता को जीवन में कभी भी घर न बनाने दो। रोयटी बेनेट  के अनुसार चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें हमारा साक्षात्कार कराने हेतु आती हैं कि हम कहां हैं? तूफ़ान हमारी कमज़ोरियों पर आघात करते हैं, लेकिन तभी हमें अपनी शक्तियों का आभास होता है। समाजशास्त्री प्रौफेसर कुमार सुरेश के शब्दों में ‘अगर हमारा परिवार साथ है, तो हमें मनोबल मिलता है और हम हर संकट का सामना करने को तत्पर रहते हैं।’ अरस्तु के शब्दों में ‘श्रेष्ठ व्यक्ति वही बन सकता है, जो दु:ख और  चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा मानकर आगे बढ़ता है।’ सो! मानव को उन्हें प्रभु-प्रसाद व अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल स्वीकारना चाहिए। माता देवकी व वासुदेव को 14 वर्ष तक काराग़ार में रहना पड़ा। देवकी के कृष्ण से प्रश्न करने पर उसने उत्तर दिया कि इंसान को अपने कृत-कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। आप त्रेतायुग में माता कैकेयी व पिता वासुदेव दशरथ थे। आपने मुझे 14 वर्ष का वनवास दिया था। इसलिए आपकी मुक्ति भी 14 वर्ष पश्चात् ही संभव थी। सो! ‘जो हुआ, जो हो रहा है और जो होगा, अच्छा ही होगा। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए और हर परिस्थिति का खुशी से स्वागत् करना चाहिए। समय कभी थमता नहीं; निरंतर गतिशील रहता है। इसलिए मन में कभी मलाल को मत आने दो। यह समाँ भी गुज़र जाएगा और उलझनें भी समयानुसार सुलझ जाएंगी। उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला दें, तो सब अच्छा ही होगा। औचित्य-अनौचित्य में भेद करना सीखें और विपरीत परिस्थितियों में प्रसन्न रहें, क्योंकि शरणागति ही शांति पाने का सर्वोत्तम साधन है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 377 ⇒ खिलना और खुलना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खिलना और खुलना।)

?अभी अभी # 377 ⇒ खिलना और खुलना? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बिना खुले भी कभी कोई खिला है। एक कली अपने अंदर पूरे फूल को समेटे रहती है, पहले कली खिलती है, फिर फूल खिलता है। लेकिन यह सब

इतनी आसानी से नहीं हो जाता। धूप, हवा और पानी के अलावा उस पौधे की जड़ें भी जमीन में होती है।

एक फूल रातों रात नहीं खिलता। कई रातों की तपस्या के बाद, कई दिनों तक किसी पौधे को सींचने के बाद जब उसमें एक कली मुस्काती है, तब लगता है, तपस्या पूरी हो गई है।

फूल का खिलना उसका शबाब है। फूल कभी अधूरा नहीं खिलता। कभी गुड़हल के फूल को खिलते देखिए, वह कहां जाकर रुकेगा, कहा नहीं जा सकता। गुलाब की एक कली में खिलने की कितनी संभावना है, यह गुलाब ही तय करता है, उसकी भी अपनी प्रजाति होती है।।

फूल सब बगिया खिले हैं

मन मेरा खिलता न क्यूं।

फूल तो खुशबू बिखेरे

मैं रहा बदबूएं क्यूं।।

फूल खुशी का प्रतीक है।

फूल की खुशी भले ही पल दो पल की हो, लेकिन एक फूल में पूरी कायनात मुस्कुराती है। बद्रीनाथ के मार्ग में एक स्थान गोविंदघाट है, जहां से कुछ दूरी पर फूलों की घाटी स्थित है। उस घाटी का कोई माली नहीं, कोई मालिक नहीं। कोई देखे, ना देखे, कोई तारीफ करे ना करे, बर्फ के पिघकते ही यहां मानो स्वर्ग उतर आता है।

जीवन भले ही क्षणभंगुर हो, फूल कभी खिलना नहीं छोड़ता, एक कली कभी मुस्कुराना नहीं छोड़ती। आप फूल को तोड़ो, पांव तले कुचलो, उसको सुई चुभो चुभोकर हार बनाओ, उसे गुलदस्ते में सजाओ, वह उफ नहीं करता। मंदिर हो या किसी की कब्र, उसके सब्र का कोई इम्तहान नहीं ले सकता। जो सदा कांटों में खिलता हो, फिर भी मुस्कुराता हो, वह एक फूल ही हो सकता है, इंसान नहीं।।

कभी आपने बैलून यानी गुब्बारा फुलाया है। उसमें जितनी हवा हमारे मुंह से जाती है, वह फूलता जाता है,  बैलून फुलाने में बच्चों को बड़ा मजा आता है, और कभी कभी एक स्थिति ऐसी भी आ जाती है,  कि फुग्गा फूट जाता है। बच्चा पहले तो डरता है, और फिर रोने लग जाता है। एक गुब्बारा तक अपना शत प्रतिशत देने की कोशिश करता है।

तवे की रोटी को ही ले लीजिए, जब उसे सेंकने के बाद फुलाया जाता है, तो वह फूलकर कुप्पा हो जाती है, उसकी संपूर्णता ही उसकी गुणवत्ता की चरम सीमा है। एक खिला हुआ फूल, फूला हुआ गुब्बारा और फूली हुई रोटी हमें बहुत कुछ कहती है।

अपना श्रेष्ठ इस संसार को अर्पित करो, बिना किसी स्वार्थ अथवा प्रशंसा की भूख के।।

एक गायक का जब गला खुलता है, तो कहीं सहगल, तलत और रफी की तान गूंजती है तो कहीं लता, नूरजहां और शमशाद

अपनी आवाज के जलवे बिखेरती हैं। कितना कुछ खुलकर निखरता है, जब उस्ताद अल्ला रक्खा और पंडित रविशंकर की जुगलबंदी होती है।

कहीं कहीं, कुछ ऐसा है, जो अंदर दबा बैठा है, वह खुलकर बाहर नहीं आ रहा। बिना खुले, कुछ खुलता नहीं, खिलखिलाता नहीं। कहीं मन में गांठ है तो कहीं कोईदबा हुआ तूफान। इसके पहले कि सब्र का बांध टूटे, कुछ ऐसा जतन हो, कि मन का गुबार कम हो, दिल की बात जुबां तक आ जाए, सारे सायफन एक साथ खुल जाएं, और मन का कमल खिल उठे। बरसों से भारी मन, एकाएक फूल की तरह हल्का हो जाए और होठों पर यह गीत उतर आए ;

मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को

बेला महका हो,

बेला महका रे महका,  आधी रात को।

किसने बँसी बजाई आधी रात को

जिसने पलकें, हो

जिसने पलकें,  चुराई आधी रात को।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 198 ☆ तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 198 ☆ तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण

कई दिनों से राई का पहाड़ देख रहीं हूँ, जैसे दाना गिरा वैसे  लोग झपटकर उसे उठा लेते हैं। बात का बतंगड़ बनाना और चीख चिल्लाहट करते हुए शांति की अपील करने का नाटक भला कब तक रास आएगा। कोई न कोई मुद्दा बना रहना चाहिए जिससे लोगों में उत्साह रहे।

कोई दस शीष लगा संकेतों में कुटिलता से हँस रहा है, कोई  धैर्यवान बन  पहाड़ टूट कर बिखरने का इंतजार कर रहा है। कोई कुछ भी न करते हुए बस दोषारोपण की राजनीति करता रहता। जिसको जैसा समझ में आयेगा वो वही तो करेगा।अपने – अपने तरकश से विष बुझे तीर चलाने में सभी उस्ताद हैं। जब भी युद्ध होता है परेशान निरीह प्राणी  होते हैं क्योंकि कोई जीते कोई हारे वे तो वही रहेंगे।  क्रोध की दशा में व्यक्ति की मनोवृत्ति का पता चलता है। पर कर्म योगी केवल कर्म को देखते हुए अराजक तत्वों को भी पुनः अपने स्नेह का पात्र बना लेते हैं।

सारी गड़बड़ियों की जड़ को पुनः अपना हिस्सा बना नए हिस्सों को जन्म देने लग जाते हैं।जब मन से मनुष्यता समाप्ति की ओर हो तो सब कुछ कैसे सही होगा।वैसे  ये घटनाक्रम तो  युग- युगान्तर से चल रहा है और इसके दोषी वही होते हैं जो गलतियाँ माफ़ करते हैं कोई कितना भी जरूरी क्यों न हो उसे  उसकी गलती का दंड मिलना चाहिए जैसे रावण, कंस, दुर्योधन व दुशासन को मिला।आवश्यकता इस बात की है कि सत्य को स्वीकार कर, सर्वधर्म सद्भाव को बढ़ावा मिले, अच्छी भावनाओं को फैलाते हुए नेकी करने वालों का सम्मान हो।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 376 ⇒ जोर से बोलने वाला… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जोर से बोलने वाला।)

?अभी अभी # 376 ⇒ जोर से बोलने वाला? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जोर से बोलने वाला (loud speaker)

ईश्वर ने बोलने की शक्ति केवल इंसान ही को प्रदान की है, बाकी सभी प्राणी बिना बोले ही अपना काम चला लेते हैं। कुछ लोग कम बोलते हैं, तो कुछ लोग ज्यादा। फिल्म शोले में बसंती को ज्यादा बोलने की आदत नहीं थी। ऐसी कम बोलने वाली बसंतियां हमें घर घर में आसानी से नजर आ जाती हैं।

जो धीरे बोलते हैं, उन्हें अंग्रेजी में स्पीकर कहते हैं, और जो जोर से बोलते हैं, उन्हें लाउड स्पीकर। बच्चा जब पैदा होता है, तब सबसे पहले वह खुलकर रोता है। रोना स्वस्थ बच्चे की निशानी मानी जाती है। बच्चों की किलकारी किसी पक्षी की आवाज से कम मधुर नहीं होती। ।

आवाज हमारे गले के जिस स्थान से निकलती है, उसे कंठ (vocal chord) कहते हैं। आवाज कम ज्यादा, मोटी भारी, अथवा मधुर और कर्कश भी हो सकती है। कोकिल कंठी लता के गले में अगर सरस्वती विराजमान है, तो वाणी जयराम की आवाज में मानो रविशंकर की सितार बज रही हो। वीणा मधुर मधुर बोल।

हमारी लोकसभा और विधान सभा में अध्यक्ष महोदय होते हैं। न जाने क्यों, उन्हें स्पीकर महोदय कहा जाता है। वे खुद तो बेचारे कम बोलते हैं, सदन के सदस्यों को अधिक बोलने का मौका देते हैं। हर सदस्य के स्थान पर, बोलने के लिए स्पीकर लगा होता है, फिर भी वे जोर जोर से चिल्ला चिल्लाकर अपनी बात आसंदी तक पहुंचाते हैं।

कभी कभी तो ऐसा लगता है, मानो सदन में सिर्फ एक स्पीकर है और बाकी सभी लाउड स्पीकर। एक साथ कई लाउड स्पीकर की आवाज से स्पीकर महोदय परेशान हो जाते हैं और कुछ लाउड स्पीकर्स को सदन से बाहर कर देते हैं। ।

जब कोई आपकी बात शांति से नहीं सुनता, तब जोर से ही बोलना पड़ता है। बहुत कम घरों में ऐसे पति होते हैं, जो अपनी पत्नी की बात शांति से सुनते हैं। बेचारी पत्नी शांति से, सुनते हो, सुनते हो, करा करती है, लेकिन अखबार, टीवी और मोबाइल में एक साथ आंखें गड़ाए पति महोदय के कानों में जूं तक नहीं रेंगती। तब मजबूरन धर्मपत्नी को लाउड स्पीकर का प्रयोग करना पड़ता है। जिसका अक्सर एक ही जवाब होता है, पति महोदय के पास, चिल्लाती क्यूं हो, मैं बहरा नहीं हूं। बोलो क्या बात है।

ज्यादा बोलने से गले की रियाज होती रहती है, जो कम बोलते हैं, कभी कभी तो उनकी आवाज वे खुद ही नहीं सुन पाते। एक रिश्ता वक्ता श्रोता का भी होता है। कुछ ओजस्वी वक्ता अटल बिहारी, जगन्नाथ राव जोशी, लोहिया और लाड़ली मोहन निगम जैसे भी होते थे, जिन्हें सुनने सत्ता, हो अथवा विपक्ष, सभी श्रोता जाते थे। अगर वक्ता ढंग का ना हो, तो वक्ता बकता रहता है, और श्रोता, सोता रहता है। केवल लाउड स्पीकर पर चिल्ला चिल्लाकर भीड़ इकट्ठी नहीं होती, आजकल भाड़े के टट्टू भी सभा में लाने पड़ते हैं। ।

आप स्पीकर हैं, अथवा लाउड स्पीकर, यह तो आप स्वयं ही बेहतर जानते हैं। अगर मोटिवेशनल स्पीकर हैं, स्कूल कॉलेज में पढ़ाते हैं तो अलग बात है, अन्यथा सामान्य वार्तालाप ऐसा हो कि आपकी आवाज से किसी तीसरे को व्यवधान ना हो। वॉल्यूम कम करना, बढ़ाना जब हमारे हाथ में है, तो अनावश्यक ध्वनि प्रदूषण क्यों फैलाया जाए। जो हमारी बात नहीं सुनना चाहता, उसे क्यों व्यर्थ मजबूर किया जाए।

कथा कीर्तन, महिला संगीत, और जन्मदिन की पार्टी, कहां नहीं आजकल डीजे। और राजनीतिक सभाओं और रोड शो के शोर से हमें कौन बचाएगा। जब कानफोड़ू संगीत ही मधुर लगने लगे, तो आप सिर्फ अपना सिर ही धुन सकते हैं। भूल जाइए सुन साहिबा सुन, प्यार की धुन। क्योंकि जगह जगह तो यही आवाज गूंज रही है ;

डीजे वाले बाबू

मेरा गाना बजा दो ..!!

केवल ध्वनि विस्तारक यंत्रों से ही नहीं, ध्वनि विस्तारक मित्रों से भी दूरी बनाए रखें। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 375 ⇒ अपना देस… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपना देस ।)

?अभी अभी # 375 ⇒ अपना देस ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे राष्ट्र में महाराष्ट्र भी है और गुजरात प्रदेश में सौराष्ट्र भी ! एक देश के वासी होते हुए भी सबका अपना अपना देस है। बरसों से लोग रोजी रोटी के लिए, देस को छोड़ परदेस जाते रहे हैं। जिसे हम आज प्रदेश कहते हैं, उसका ही अपभ्रंश है यह देस।

जब लड़की की शादी के बाद बिदाई होती है तो अमीर खुसरो का यह विदाई गीत महिलाएं गाती हैं ;

काहे को ब्याहे बिदेस,

अरे लखिय बाबुल मोरे,

काहे को ब्याहे बिदेस

‌आखिर तब देस होता ही कितना छोटा था !

‌ये गलियां ये चौबारा

यहां आना ना दोबारा।

पनघट और अमराई और सावन के झूले बचपन के संगी साथी जब छूटते थे, तो मन बरबस कह उठता था;

ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना

ये घाट, ये बाट कहीं भूल न जाना।

निरगुन कौन देस को बासी !

देस वह स्थान है, जहां हम पैदा हुए, बड़े हुए, खेले कूदे। हम जिस नदी में नहाए, हमने जिस कुएं का पानी पीया, ज़िन्दगी भर आप चाहो तो उसे भूल जाओ, आखरी समय वह जरूर याद आता है।

ऐसा माना गया है कि जब हम देह त्यागते हैं तो हमें अपने बचपन की तस्वीरें खुली आंखों से दिखाई देती हैं। हमारे परिवार के वे वरिष्ठ जन, जिनकी गोद में आपने बचपन गुज़ारा है, आपको पुकार रहे हैं। लोग समझते हैं, आप भावुक होकर प्रलाप कर रहे हैं। लेकिन अंतिम समय में अतीत ही साथ जाता है, वर्तमान से नाता टूट जाता है।

उड़ जाएगा हंस अकेला।

जग दर्शन का मेला। ।

हम कितना भी देश विदेश में प्रवास कर लें। रोजी रोटी किस इंसान को कहां फेंकती है, कुछ कहा नहीं जाता। होते हैं कई बदनसीब, जो वापस अपने देस नहीं लौट पाते। जिन्हें अपनी माटी से लगाव होता है, वे हमेशा उस पल की तलाश में रहते हैं, जब वे एक बार फिर अपने जन्म स्थान के दर्शन कर लें।

माटी से यह लगाव, माटी की उस खुशबू का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। आखिर यह तन ही तो हमारा वतन है। जिस माटी से पैदा हुआ है, उसे उसमें ही मिल जाना है। हम इस माटी का कर्ज चुका पाएं, उसे अंतिम प्रणाम कर पाएं, शायद इसीलिए माटी का मोह हर अमीर गरीब को, मजदूर किसान को अंतिम समय में, सैकड़ों मील दूर, अपने देस की ओर खींचता है, आकर्षित करता है। ।

आप एक नन्हे बालक से उसका खिलौना छीनकर देखिए। उसे पैसे का, सोने चांदी का लालच देकर देखिए। एक मिट्टी के खिलौने में उसकी जान बसी है। वह उसके साथ उठता, बैठता, सोता खाता है। उसका खिलौना टूटता है, वह मचल जाता है। उसकी दुनिया बिखर जाती है।

इंसान की दुनिया भी जब एक बार बिखर जाती है, तो उसे समेटना इतना आसान नहीं होता। आज हर जगह सब बिखरा बिखरा सा है। इसे समेटना, संभालना, संवारना बहुत ज़रूरी है। केवल भरोसा और विश्वास ही हमें वापस अपनी माटी से जोड़ सकता है, हमें बिखरने से बचा सकता है। शायद तब ही जो दर्द की सरगम हमें सुनाई दे रही है वह थमेगी। कहीं कोई अभागा फिर यह दर्द भरा गीत गाने को विवश ना हो ;

हम तो चले परदेश

हम परदेसी हो गए

छूटा अपना देस

हम परदेसी हो गए

ओ रामा हो ….!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार-विश्व – आद्य पत्रकार देवर्षि नारद ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार-विश्व – आद्य पत्रकार देवर्षि नारद ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

॥ श्री गणेशायनमः ॥

नारद उवाच –

प्रणम्यं शिरसा देव गौरीपुत्रं विनायकम।

भक्तावासं: स्मरै:नित्यंमायु:कामार्थसिद्धये ॥1॥

प्रथमं वक्रतुंडंच एकदंतं द्वितीयकम ।

तृतीयं कृष्णंपिङा्क्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम ॥2॥

लम्बोदरं पंचमंच षष्ठं विकटमेवच ।

सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्ण तथाष्टकम् ॥3॥

नवमं भालचन्द्रंच दशमंतु विनायकम ।

एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम ॥4॥ 

*

इति श्रीमतनारदपुराणे संकष्टनाशनं गणेशस्तोत्रं सम्पूर्णम्‌ ॥

लहानपणी रोज संध्याकाळी  प्रार्थना, श्लोक आणि पाढे म्हणताना सर्व प्रथम गणपती स्तोत्र म्हणायचो. मग मारुति स्तोत्र, रामरक्षा, इतर प्रार्थना, काही श्लोक, शेवटी पाढे म्हणायचे असे शिस्तीत ठरलेले असेल ते म्हणावेच लागे. हे सर्व म्हटल्याशिवाय जेवण नाही असा आजोबांचा नियम असे. त्याचा अर्था काय, ते कोणी लिहिले आहे किंवा असे कुठलेही प्रश्न त्या वयात पडत नव्हते. फक्त शिस्त पाळायची एव्हढं कळायचं. पण हे सर्व खूप मोठ्ठं झाल्यावर कळायला लागलं. नारद पुराणात लिहिलेलं हे गणपती स्तोत्र नारद मुनींनी लिहिलेलं आहे हे कळलं. नारद म्हणजे आम्हाला फक्त पौराणिक चित्रपट किंवा कथांमधून दिसले आहेत. पण पत्रकारितेचे उच्च शिक्षण घेताना चिपळ्या आणि वीणाधारी नारदांचे एक वेगळे रूप समजले. ते म्हणजे,आद्य पत्रकार नारद ऋषि. नारायण नारायण !

नारायण नारायण .. असे विणेच्या झंकाराच्या पार्श्वभूमीवर उद्गार ऐकले की नारद मुनींचा प्रवेश होणार हे लगेच कळायच. जणू काही एंट्रीला may i come in असेच विचारत असतील आणि ज्या लोकांमध्ये एंट्री घेतली ते सर्व लोक साहजिकच सावध होत असणार. आज पत्रकारांना ओळखपत्र/ अॅक्रिडिटेशन दाखवून प्रवेश घ्यावा लागतो. 

देव ऋषि नारद आणि त्यांची परंपरा –

भगवान विष्णुंचे परम भक्त, ब्रह्मदेवाचे मानसपुत्र  देवऋषि नारद. नारद मुख्यत: भक्ति मार्ग प्रवर्तक आणि कीर्तन संस्थेचे आद्य प्रवर्तक मानले जातात. तरी ते धर्मज्ञ, तत्वज्ञ, राजनीति तज्ञ आणि संगीतज्ञ होते. ते बृहस्पतीचे शिष्य होते.  

आपण पाहिलेल्या पौराणिक चित्रपटात एका हातात वीणा, दुसर्‍या हातात चिपळ्या घेऊन, नारायण नारायण असा उच्चार करणारे, स्वर्गलोक, पाताळलोक आणि मृत्यूलोक अशा त्रिलोकात मुक्तपणे  संचार करणारे  नारदमुनि यांच्याबद्दल खूप उत्सुकता वाटायची. यांना सगळं माहिती आहे, सगळीकडे यांचा वावर आहे, देव, दानव आणि मानव यांच्या जगात काय चाललय,  हे कसं काय याचं आश्चर्य वाटायचं. पण त्यांना वरदान मिळालं होतं ते कधीही कुठल्याही लोकांत संचार करू शकत. त्यामुळे ते सतत भ्रमण करत असायचे. तिथल्या सर्व सूचना आणि बित्तम बातम्या भगवान विष्णुपर्यन्त  पोहोचवायच्या. दानवांच्या कारवायांना आळा घालायचा, मानवांना दिशा द्यायची आणि देवांना माहिती द्यायची, सल्ला द्यायचा अशी लोककल्याणाबरोबर वार्ता प्रसाराची कामे नारदमुनी करत असत. शस्त्रांमध्ये त्यांना देवाचे मन असेच म्हटले आहे. म्हणून सगळीकडेच त्यांचं महत्वपूर्ण स्थान आहे. देवतांप्रमाणेच दानवांनी पण नारदांचा नेहमीच आदर केला आहे. भगवान श्रीकृष्णांनी सुद्धा हे महत्व मान्य केल्याचं भागवत पुराणात सांगितलं आहे.    

त्यांच्यात देवत्व आणि ऋषित्व यांचा समन्वय होता असे म्हणतात. या तिन्ही लोकांत समन्वय साधायचा हे ही कार्य ते करत. म्हणून त्यांना आद्य पत्रकार म्हटले जाते. अध्यात्म, राजनीती, धर्म शास्त्र, यज्ञ प्रक्रिया, संगीत अशा अनेक विषयांचे त्यांना ज्ञान होते. त्यांना भूतकाळ, वर्तमानकाळ आणि भविष्यकाळ या तिन्ही काळांचे ज्ञान होते. देव आणि माणूस यांच्यातला दुवा म्हणजे नारद मुनि होते. सत्ययुग, त्रेतायुग आणि द्वापार युगातही नारदमुनि देव व मानव यांच्यातील संवादाचे माध्यम होते. त्यांनी वार्ता प्रसारित करताना सद्गुणांची कीर्ती सांगणे हे काम हेतुत: केले. मुख्य म्हणजे खडानखडा माहिती नारदांना असायची.

लोकांना न्याय मिळवून देण्याचीच त्यांची भूमिका असयची. पृथ्वी आणि पाताळ लोकातील भक्तांची खरी भक्ति भगवान विष्णु पर्यन्त पोहोचविणे, त्यांना न्याय मिळेल असा प्रयत्न करणे, लोकांवर होणार्‍या अन्यायाची माहिती देवांपर्यंत पोहोचविणे असे काम नारद करत असत. याचं आपल्याला माहिती असणारं उदाहरण म्हणजे भक्त प्रल्हाद,ध्रुव बाळ आणि अंबरीश यांच्या कथा. नारद मुनींनी या सर्वांचं म्हणणं अनेक वेळा नारायणापर्यन्त पोहोचविले होते. त्यांना न्याय मिळवून देण्यात मदत केली होती. एव्हढच नाही तर, दु:खी दरिद्री लोकांचे दु:ख निवारण करणे, दुष्ट, अभिमानी, लोभी आणि भ्रष्टाचारी लोकांचा नायनाट करण्याचे उपाय पण ते सांगत.       

हिन्दी पत्रकारितेच्या विश्वात पहिले हिन्दी वृत्तपत्र ‘उदंत मार्तंड’ हे जुगलकिशोर सुकुल यांनी ३० मे १८२६  रोजी साप्ताहिक स्वरुपात सुरू केले. त्यावर पहिल्या पानावर नारदांचा उल्लेख असे.

नारदमुनी ऋग्वेदातील एक सूक्तकार म्हटले जातात. त्यांच्या ठिकाणी देवत्व आणि ऋषित्व यांचा समन्वय झालेला होता म्हणून त्यांना देवर्षी म्हणतात. असं म्हणतात की वायु पुराणात एकूण आठ देवर्षी असल्याचा उल्लेख आहे, त्यापैकी नारद हे अग्रगण्य आहेत. देवर्षी नारद यांच्याबद्दल अनेक पुराण ग्रंथात माहिती आहे.  नारद पुराण हे नारदांनी रचलेले पुराण आहे . अठरा पुराणांमद्धे हे पुराण सर्व श्रेष्ठ मानले गेले आहे.  

देवर्षी नारद समजले की त्यांचं कार्य समजेल आणि त्यांना विश्वातला पहिला पत्रकार आणि पत्रकारीतेतला आदि पुरुष का म्हटलं आहे ते कळेल. लोकशाहीचा चौथा स्तंभ म्हणून जे पत्रकारिता क्षेत्राला संबोधले जाते, जे स्थान दिलं जातं, तसेच भारतीय देवतांमध्येही ब्रह्मा, विष्णु, महेश यांच्या नंतर नारद यांचंच स्थान आहे. 

देवर्षी नारद यांची गुण वैशिष्ठ्ये लक्षात घेतली तर आजच्या पत्रकारांचीच ती वैशिष्ठ्ये आहेत हे लक्षात येते म्हणूनच हे गुण कोणते आहेत हे आजच्या पत्रकारिता क्षेत्रात काम करणार्‍यांनी समजून घ्यायला हवेत. सर्वत्र संचार करता करता तिथल्या घटनांनी आपलं ध्येय विचलित होऊ न देता पत्रकाराने आपलं कर्तव्य पूर्ण केलं पाहिजे. सतत सत्याचा शोध घेतला पाहिजे,  चौकस दृष्टी, निरीक्षण शक्ति, जिज्ञासा, संवाद कौशल्य, बहुश्रुतता, याबरोबरच  मैत्री आणि वैर बाजूला ठेवून सत्य, न्याय आणि वस्तुनिष्ठता आंगीकारली पाहिजे. पत्रकारिता करताना ती प्रामाणिकपणे केली पाहिजे, निर्भयपणे केली पाहिजे.

त्यासाठी आज वर्तमानाचे भान ठेवणे, समस्या माहित असणे, संबंधित विषयाचे मूलभूत ज्ञान असणे, आपल्या जीवन मूल्यांची ओळख असणे आणि महत्वाचं म्हणजे आपली परंपरा, आपले प्राचीनत्व, आपली संस्कृती काय आहे याचही ज्ञान असणे आवश्यक आहे,  आपल्या मातृभाषा आणि राष्ट्रीय भाषा माहिती असणेही आवश्यक आहे. असे सर्व विशेष गुण नारद यांच्यामध्ये होते. आजच्या पत्रकारितेत काम करणार्‍या सर्व नव पत्रकारांनी /विद्यार्थ्यानी या नारद जयंती निमित्त ‘नारद- एक पत्रकार’ म्हणून समजून घ्यावेत आणि पत्रकारिता एक व्यवसाय म्हणून, नोकरी म्हणून न करता एक ध्येय म्हणून करावी, मग नक्कीच माध्यमांचे चित्र पालटेल .

© डॉ. नयना कासखेडीकर.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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