हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #232 ☆ गुण और ग़ुनाह… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख गुण और ग़ुनाह। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 232 ☆

गुण और ग़ुनाह… ☆

‘आदमी के गुण और ग़ुनाह दोनों की कीमत होती है। अंतर सिर्फ़ इतना है कि गुण की कीमत मिलती है और ग़ुनाह की उसे चुकानी पड़ती है।’ हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। गुणों की एवज़ में हमें उनकी कीमत मिलती है; भले वह पग़ार के रूप में हो या मान-सम्मान व पद-प्रतिष्ठा के रूप में हो। इतना ही नहीं,आप श्रद्धेय व वंदनीय भी बन सकते हैं। श्रद्धा मानव के दिव्य गुणों को देखकर उसके प्रति उत्पन्न होती है। यदि हमारे हृदय में उसके प्रति श्रद्धा के साथ प्रेम भाव भी जाग्रत होता है तो वह भक्ति का रूप धारण कर लेती है। शुक्ल जी भी श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति स्वीकारते हैं। सो! आदमी को गुणों की कीमत प्राप्त होती है और जहां तक ग़ुनाह का संबंध है,हमें ग़ुनाहों की कीमत चुकानी पड़ती है; जो शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना रूप में हो सकती है। इतना ही नहीं,उस स्थिति में मानव की सामाजिक प्रतिष्ठा भी दाँव पर लग सकती है और वह सबकी नज़रों में गिर जाता है। परिवार व समाज की दृष्टि में वह त्याज्य स्वीकारा जाता है। वह न घर का रहता है; न घाट का। उसे सब ओर से प्रताड़ना सहनी पड़ती है और उसका जीवन नरक बन कर रह जाता है।

मानव ग़लतियों का पुतला है। ग़लती हर इंसान से होती है और यदि वह उसके परिणाम को देख स्वयं की स्थिति में परिवर्तन ले आता है तो उसके ग़ुनाह क्षम्य हो जाते हैं। इसलिए मानव को प्रतिशोध नहीं; प्रायश्चित करने की सीख दी जाती है। परंतु प्रायश्चित मन से होना चाहिए और व्यक्ति को उस कार्य को दोबारा नहीं करना चाहिए। बाल्मीकि जी डाकू थे और प्रायश्चित के पश्चात् उन्होंने रामायण जैसे महान् ग्रंथ की रचना की। तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली के प्रति बहुत आसक्त थे और उसकी दो पंक्तियों ने उसे महान् लोकनायक कवि बना दिया और वे प्रभु भक्ति में लीन हो गए। उन्होंने रामचरित मानस जैसे महाकाव्य की रचना की, जो हमारी संस्कृति की धरोहर है। कालिदास महान् मूर्ख थे, क्योंकि वे जिस डाल पर बैठे थे; उसी को काट रहे थे। उनकी पत्नी विद्योतमा की लताड़ ने उन्हें महान् साहित्यकार बना दिया। सो! ग़ुनाह करना बुरा नहीं है,परंतु उसे बार-बार दोहराना और उसके चंगुल में फंसकर रह जाना अति- निंदनीय है। उसे इस स्थिति से उबारने में जहां गुरुजन, माता-पिता व प्रियजन सहायक सिद्ध होते हैं; वहीं मानव की प्रबल इच्छा-शक्ति,आत्मविश्वास व दृढ़-निश्चय उसके जीवन की दिशा को बदलने में नींव की ईंट का काम करते हैं।

इस संदर्भ में, मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहूंगी कि यदि ग़ुनाह किसी सद्भावना से किया जाता है तो वह निंदनीय नहीं है। इसलिए धर्मवीर भारती ने ग़ुनाहों का देवता उपन्यास का सृजन किया,क्योंकि उसके पीछे मानव का प्रयोजन द्रष्टव्य है। यदि मानव में दैवीय गुण निहित हैं;  उसकी सोच सकारात्मक है तो वह ग़लत काम कर ही नहीं सकता और उसके कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर नहीं हो सकते। हाँ! उसके हृदय में प्रेम,स्नेह,सौहार्द,करुणा, सहनशीलता,सहानुभूति,त्याग आदि भाव संचित होने चाहिए। ऐसा व्यक्ति सबकी नज़रों में श्रद्धेय,उपास्य,प्रमण्य  व वंदनीय होता है। ‘जाकी रही भावना जैसी,प्रभु तिन मूरत देखी तैसी’ अर्थात् मानव की जैसी सोच,भावना व दृष्टिकोण होता है; उसे वही सब दिखाई देता है और वह उसमें वही तलाशता है। इसलिए सकारात्मक सोच व सत्संगति पर बल दिया जाता है। जैसे चंदन को हाथ में लेने से उसकी महक लंबे समय तक हाथों में बनी रहती है और उसके बदले में मानव को कोई भी मूल्य नहीं चुकाना पड़ता। इसके विपरीत यदि आप कोयला हाथ में लेते हो तो आपके हाथ काले अवश्य हो जाते हैं और आप पर कुसंगति का दोष अवश्य लगता है। कबीरदास जी का यह दोहा तो आपने सुना होगा, ‘कोयला होय न ऊजरा,सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन लाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। परंतु बार-बार अभ्यास करने से मूर्ख भी विद्वान बन सकता है। इसलिए मानव को निराश नहीं होना चाहिए और अपने सत् प्रयास अवश्य जारी रखने चाहिए। यह कथन कोटिश: सत्य है कि यदि व्यक्ति ग़लत संगति में पड़ जाता है तो उसको लिवा लाना अत्यंत कठिन होता है,क्योंकि ग़लत वस्तुएं अपनी चकाचौंध से उसे आकर्षित करती हैं–जैसे माया रूपी महाठगिनी अपनी हाट सजाए  सबका ध्यान आकर्षित करने में प्रयासरत रहती है।

शेक्सपीयर भी यही कहते हैं कि जो दिखाई देता है; वह सदैव सत्य नहीं होता और हमें छलता है। सो! सुंदर चेहरे पर विश्वास करना स्वयं को छलना व धोखा देना है। इक्कीसवीं सदी में सब धोखा है, छलना है,क्योंकि मानव की कथनी- करनी में बहुत अंतर होता है। लोग अक्सर मुखौटा धारण कर जीते हैं। इसलिए रिश्ते भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहे। रिश्ते खून के हों या अन्य भौतिक संबंध–भरोसा करने योग्य नहीं हैं। संसार में हर इंसान एक-दूसरे को छल रहा है। इसलिए रिश्तों की अहमियत रही नहीं; जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा मासूम बच्चियों को भुगतना पड़ रहा है। अक्सर आसपास के लोग व निकट के संबंधी उनकी अस्मत से खिलवाड़ करते पाए जाते हैं। उनकी स्थिति बगल में छुरी ओर मुंह में राम-राम जैसी होती है। वे एक भी अवसर नहीं चूकते और दुष्कर्म कर डालते हैं,क्योंकि उनकी रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई जाती। वास्तव में उनकी आत्मा मर चुकी होती है,परंतु सत्य भले ही देरी से उजागर हो; होता अवश्य है। वैसे भी भगवान के यहां सबका बही-खाता है और उनकी दृष्टि से कोई भी नहीं बच सकता। यह अकाट्य सत्य है कि जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का फल मानव को किसी भी जन्म में भोगना अवश्य पड़ता है।

आइए! आज की युवा पीढ़ी की मानसिकता पर दृष्टिपात करें, जो ‘खाओ पीयो,मौज उड़ाओ’ में विश्वास कर ग़ुनाह पर ग़ुनाह करती चली जाती है निश्चिंत होकर और भूल जाती है ‘यह किराये का मकाँ है/ कौन कब तक ठहर पायेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’ यही संसार का नियम है कि इंसान कुछ भी अपने साथ नहीं ले जा सकता। परंतु वह आजीवन अधिकाधिक धन-संपत्ति व सुख- सुविधाएं जुटाने में लगा रहता है। काश! मानव इस सत्य को समझ पाता और देने में विश्वास रखता तथा परहितार्थ कार्य करता तो उसके ग़ुनाहों की फेहरिस्त इतनी लंबी नहीं होती। अंतकाल में केवल कर्मों की गठरी ही उसके साथ जाती है और कृत-कर्मों के परिणामों से बचना सर्वथा असंभव है।

मानव के सबसे बड़े शत्रु है अहं और मिथ्याभिमान; जो उसे डुबा डालते हैं। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को हेय मानता है। इसलिए वह कभी दयावान् नहीं हो सकता। वह दूसरों पर ज़ुल्म ढाने में विश्वास कर सुक़ून पाता है और जब तक व्यक्ति स्वयं को उस तराजू में रखकर नहीं तोलता; वह प्रतिपक्ष के साथ न्याय नहीं कर पाता। सो! कर भला, हो भला अर्थात् अच्छे का परिणाम अच्छा व बुरे का परिणाम सदैव बुरा होता है। शायद! इसीलिए शुभ कर्मण से कबहुं न टरौं’ का संदेश प्रेषित है। गुणों की कीमत हमें आजीवन मिलती है और ग़ुनाहों का परिणाम भी अवश्य भुगतना पड़ता है; उससे बच पाना असंभव है। यह संसार क्षणभंगुर है,देह नश्वर है और मानव शरीर पृथ्वी,जल,वायु, अग्नि व आकाश तत्वों से बना है। अंत में इस नश्वर देह को पंचतत्वों में विलीन हो जाना है; यही जीवन का कटु सत्य है। इसलिए मानव को ग़ुनाह करने से पूर्व उसके परिणामों पर चिन्तन-मनन अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने के पश्चात् ही आप ग़ुनाह न करके दूसरों के हृदय में स्थान पाने का साहस जुटा पाएंगे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 196 ☆ आ पहुँचा था एक अकिंचन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना आ पहुँचा था एक अकिंचन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 196 ☆ आ पहुँचा था एक अकिंचन

अक्सर हम अपने विचारों में बदलाव उनके लिए करते हैं जो कुछ नहीं करते  क्योंकि हर  व्यक्ति आखिरी क्षण तक जीत के लिए प्रयास करता है उसे लगता है शायद ऐसा करने से कोई अंतर आए। सत्य तो यही है कि मूलभूत स्वभाव किसी का नहीं बदलता, हाँ इतना अवश्य होता है कि परिस्थितियों के आगे  घुटने टेकने  पड़ जाते हैं।

ऐसे लोग जो निरन्तर अपने लक्ष्य के प्रति संकल्पबद्ध होकर परिश्रम करते हैं उनसे भले ही कुछ गलतियाँ जाने- अनजाने क्यों न हो जाएँ अंत में वे विजयमाल वरण करते ही हैं। ऐसी जीत जिससे कई लोगों को फायदा हो वो वास्तव में स्वागत योग्य होती है।

व्यक्ति के अस्तित्व की पहचान उसका व्यक्तित्व होता है। जैसे परिवेश में हम रहते हैं वैसा ही हमारा व्यवहार होने लगता है। संगत का असर हमेशा से ही लोगों के आचरण को प्रभावित करता है। हमारे व्यवहार से ही हमारी पहचान  होती है, जो हम लोगों के साथ करते हैं।

कुछ लोग अकारण  ही क्रोध करते हैं, हर बात पर चीखना चिल्लाना ही उनकी आदत बन जाती है। झूठ बोलने वाले अक्सर नजरें झुका कर ऊँची- ऊँची बातें करते हैं  और पकड़े जाने पर अपशब्दों के प्रयोग से बात को ढाँकने की नाकामयाब कोशिश करते हैं।

हमारे कार्यकलापों का मूल्यांकन लोगों द्वारा किया जाता है इसलिए हमेशा सत्य के साक्षी बन मीठे वचनों के प्रयोग की कोशिश होनी चाहिए। ये बात अलग है कि कार्य क्षेत्रों में कटु शब्दों का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि  बिना डाँट- फटकार अधीनस्थों से कार्य करवाना मुश्किल होता है। कहते हैं न जब घी सीधी उँगली से न निकले तो उँगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है।

कुल मिलाकर कार्यों का उद्देश्य यदि सार्थक हो,  सबके हित में  हो तो ऐसे व्यक्ति सबके प्रिय बन जाते हैं। देर सवेर ही सही  उसकी कार्यकुशलता व व्यक्तित्व से सभी प्रभावित होते हैं व उसके अनुयायी बन पद चिन्हों पर चल पड़ते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 362 ⇒ अब की बार? … ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अब की बार?।)

?अभी अभी # 362 ⇒ अब की बार? ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

देखिए, हम राजनीतिक रूप से कितने समझदार और परिपक्व हो गए हैं, जो मैंने नहीं लिखा, वह भी आपने पढ़ लिया होगा।

किसी ने गलत नहीं कहा, समझदार को इशारा काफी होता है, यानी हमने आपको समझदार भी बना दिया। शायद अब की बार हमारी पोस्ट की रीच कुछ बढ़ जाए, क्या करें, हथकंडों का जमाना है।

जो, अब की बार, कभी एक तकिया था, वह आजकल नारा बन गया है, एक ऐसा नारा जिसमें नेता सिर्फ हमारा नेता कैसा हो, ही कहता है, वाक्य पूरा तो जनता ही करती है। वे सिर्फ भारत माता की, कहते हैं, बाकी सब देशवासी संभाल लेते हैं।।

विविध भारती पर सुबह सवेरे, भक्ति संगीत के कार्यक्रम वंदनवार में, अक्सर छाया गांगुली के स्वर में, सूरदास जी का एक भजन प्रसारित होता है ;

नाथ मोहे अबकी बेर उबारो।

तुम नाथन के नाथ स्वामी

दाता नाम तिहारो।।

तीन लोक के तुम प्रतिपालक

मैं हूँ दास तिहारो।

क्षुद्र पतित तुम तारे रमापति

अब ना करो जिया डारो।।

नाथ मोहे…

यही अबकी बेर, आगे चलकर, अबकी बार हो गया है। हर व्यक्ति निन्यानवे के फेर में पड़ा है। आज की पीढ़ी के बच्चों से फिर भी माता पिता 100 % की अपेक्षा रखते हैं। पापा पिछली बार मेरे अस्सी प्रतिशत आए थे, इस बार 88 परसेंट आए हैं। जहां कल 93 % था, वहां अबकी बार 98 की उम्मीद है, बेटा दुनिया कहां जा रही है, बहुत प्रतिस्पर्धा है।

अबकी बार, ये दिल मांगे मोर। यहां कौन सूरदास की तरह इस भवसागर से पार जाना चाहता है। उसे उबरना नहीं, आगे बढ़ना है, बहुत आगे निकलना है, सबसे आगे निकलना है। चारों तरफ मोटिवेशनल स्पीच और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ही छाए हुए हैं। अबकी बार अगर टॉप करा, तो iPhone पक्का।।

जिनके इरादे बुलंद होते हैं, उनकी मुट्ठी छोटी नहीं होती। पिछली बार बड़ी मुश्किल से 2BHK का फ्लैट लिया था, अबकी बार अपना खुद का बंगला होगा। बिटिया का पैकेज भी अबकी बार डबल हो गया है। जीवन में बहुत संघर्ष किया, पसीना बहाया, अबकी बार छुट्टियां विदेश में ही बिताएंगे बच्चों के साथ।

सबके अपने अपने, अबकी बार हैं, जहाँ प्रयत्न और पुरुषार्थ है, वहां बेड़ा पार है। कहां विरक्त भक्त सूरदास और कहां हम विभक्त संसारी जीव, लेकिन अबकी बेर हमें भी इस पोस्ट पर नहीं जाना चार सौ पार। हमारी भी नाथों के नाथ से यही टेर है ;

नाथ मोहे ..

अबकी बेर उबारो..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 282 ☆ आलेख – व्यंग्य पत्रिकाओं का व्यंग्य के विकास में योगदान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक आलेख व्यंग्य पत्रिकाओं का व्यंग्य के विकास में योगदान। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 282 ☆

? आलेख – व्यंग्य पत्रिकाओं का व्यंग्य के विकास में योगदान ?

अब तो जाने कितनी ई पत्रिकाएं निकल रही हैं, पर पुरानी हार्ड कापी व्यंग्य पत्रिकाओं का तथा अन्य पत्रिकाओं में व्यंग्य स्तंभों का व्यंग्य के विकास में योगदान निर्विवाद है।

मेरे घर में “मतवाला” के कुछ अंक थे, जो पिछली सदी में 1923 में कोलकाता से छपी प्रमुख व्यंग्य पत्रिका थी। जिसके संपादक मंडल के सभी चार प्रमुख सदस्य युवा लेखक थे जो बाद में युग प्रवर्तक लेखक बने। इनमें एक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला थे जो बीसवीं सदी के सबसे बड़े कवि माने गए, इनमे दूसरे शिवपूजन सहाय थे जो हिंदी के गद्य निर्माता और साहित्यकार निर्माता माने गए,इनमें तीसरे पांडेय बेचन शर्मा जैसे अद्भुत लेखक भी थे यद्यपि वे बाद में जुड़े और सबसे उम्रदराज लेखक पत्रकार नवजादिक लाल श्रीवास्तव थे जो अल्पायु में चल बसे। इस पत्रिका के मालिक महादेव प्रसाद सेठ थे जो खुद भी एक लेखक थे। आठ पन्नों की यह साप्ताहिक समाचार पत्र नुमा पत्रिका बंगला की हास्य व्यंग्य पत्रिका “अवतार” की प्रेरणा से निकली थी।

1968 में हैदराबाद से शुरू हुआ, शुगूफ़ा मज़ेदार पत्रिका थी। इसका नाम मुहावरे “शगूफे छोड़ना” (कुछ नया और मजेदार कहना) से लिया गया है, इसकी स्थापना अकादमिक डॉ. सैयद मुस्तफा कमाल ने की थी। यह देश की (किसी भी भाषा में) कुछ पत्रिकाओं में से एक है जो पूरी तरह से हास्य को समर्पित है।

अट्टहास और व्यंग्य यात्रा तो सुस्थापित हैं ही, व्यंग्यम, जयपुर से गुपचुप या ऐसे ही किसी नाम से व्यंग्य पत्रिकाएं छपी। सुरेश कांत जी ने हेलो का एक अंक प्रायोगिक रूप से हाल ही निकाला था।

पुरानी नियमित पत्रिकाओं की याद करूं तो मधुर मुस्कान, दीवाना, धर्मयुग, कादंबिनी, सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान,चंपक,लोटपोट, नंदन,माधुरी, मनोरमा, सरिता, मुक्ता सब में व्यंग्य, कार्टून के स्तंभ होते थे।

हमारे घर में इन पत्रिकाओ को पढ़ने की होड़ लगा करती थी। तब टीवी नही केवल रेडियो था या बड़ी मोटी सेल वाला ट्रांजिस्टर भी आ गया था।

कस्बा उझानी के सुप्रसिद्ध कवि-लेखक टिल्लन वर्मा द्वारा रचित-प्रकाशित हास्य-व्यंग्य पत्रिका ” होली का हुड़दंग ” अपने जीवन के 54वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। इसे चमत्कार ही कहा जायेगा कि आज जब अनेक नामचीन पत्रिकाएँ बीच रास्ते में ही दम तोड़ गई हैं, तब टिल्लन जी की यह 54 वर्ष लम्बी रचनात्मक यात्रा पूरी तरह वनमैन-शो रहा।

प्रायः होली के मौके पर कई स्थानों से हास्य व्यंग्य पत्रिकाये निकलती थी। निवास जिला मंडला से मनोज जैन ऐसा ही एक प्रयास करते हैं। प्रमुख लोगो को टाइटिल बांटने में इन पत्रिकाओं का स्थान अब सोशल मीडिया ने ले लिया है।

व्यंग्य विविधा, हास्यम व्यंग्यम, रंग चक्कलस, विदूषक, कार्टून वाच, नई गुदगुदी भी उल्लेखनीय पत्रिकाएं रहीं या हैं।

व्यंग्य विविधा इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण इन अर्थों में रही कि उसने व्यंग्य आलोचना और व्यंग्य पर वैचारिक विमर्श की शुरुआत की, जिसे व्यंग्य यात्रा ने और विस्तार दिया।

अस्तु व्यंग्य पत्रिकाओं को हल्के फुल्के मारक तंज के लिए जाना जाता है।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ साहित्य के बदलते “आयाम”!… जन जन तक पहुँचती “कलम”! ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

श्री आशीष गौड़

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री आशीष गौड़ जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है।

आपका साहित्यिक परिचय आपके ही शब्दों में “मुझे हिंदी साहित्य, हिंदी कविता और अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का शौक है। मेरी पढ़ने की रुचि भारतीय और वैश्विक इतिहास, साहित्य और सिनेमा में है। मैं हिंदी कविता और हिंदी लघु कथाएँ लिखता हूँ। मैं अपने ब्लॉग से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ मैं विभिन्न विषयों पर अपने हिंदी और अंग्रेजी निबंध और कविताएं रिकॉर्ड करता हूँ। मैंने 2019 में हिंदी कविता पर अपनी पहली और एकमात्र पुस्तक सर्द शब सुलगते ख़्वाब प्रकाशित की है। आप मुझे प्रतिलिपि और कविशाला की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। मैंने हाल ही में पॉडकास्ट करना भी शुरू किया है। आप मुझे मेरे इंस्टाग्राम हैंडल पर भी फॉलो कर सकते हैं।”

आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय आलेख साहित्य के बदलते “आयाम”!… जन जन तक पहुँचती “कलम”!

☆ साहित्य के बदलते “आयाम”!… जन जन तक पहुँचती “कलम”! ☆ श्री आशीष गौड़

साहित्य क्या है? साहित्य लैटिन शब्द साहित्य से बना जिसका अर्थ है ‘अक्षर’| इसका शब्दिक अर्थ है अक्षरो का उपयोग।साहित्य, पश्चिम में, सुमेर के दक्षिणी मेसोपोटामिया क्षेत्र (लगभग 3200 BC) में उरुक शहर में उत्पन्न हुआ और मिस्र में, बाद में ग्रीस में (लिखित शब्द फिलीशियनों से शुरू हुआ था) और वहां से रोम में फला-फूला। .दुनिया में साहित्य की पहली कृति, जिसे इसी नाम से जाना जाता है, उर के उच्च-पुरोहित एनहेदुआना (2285-2250 ईसा पूर्व) जहां, सुमेरियन देवी इन्ना की स्तुति में भजन लिखे गए थे।

मध्यकाल में, कन्नड़ और शास्त्रीय में साहित्य क्रमशः 9वीं और 10वीं शताब्दी में सामने आया। बाद में मराठी, गुजराती, बंगाली, असमिया, उड़िया और मैथिली में साहित्य सामने आया। इसके बाद हिंदी, फ़ारसी और उर्दू की विभिन्न बोलियों में भी साहित्य छपने लगा।

हिंदी भाषा का पहला साहित्य था पृथ्वीराज रासो जो 1170 ई. में आया |हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखन का गंभीर एवं उल्लेखनीय प्रयास पं. रामचन्द्र शुक्ल ने किया था। उनके द्वारा लिखित—हिन्दी साहित्य का इतिहास, यह विषय एक शास्त्रीय पुस्तक है। इसकी शुरुआत में उनकी एक और महत्वपूर्ण कृति-हिंदी शब्द सागर की भूमिका लिखी गई थी।

पहले साहित्य लिखने वाले लोग भाषा के और व्याकरण के प्रकांड पंडित थे |साहित्यकार अनेक लेख और कथा कहानियां लिखते थे जो पुराणिक भारत की, इतिहास से जुड़े या धर्म से मेल खाती कहानी लिखते थे | ये साहित्य सर्व व्यापी नहीं था | साहित्य उस समय सिर्फ उन्ही लोगों ने ही पढ़ा था जो या तो साहित्य से जुड़े थे, साहित्य पढ़ते थे फिर साहित्य पढाते थे | जन साधारण में साहित्य इतना सर्वव्यापी नहीं रहा | जन साधारण सिर्फ धर्म और पौराणिक रीतियों से जुड़ी कहानियाँ ही पढ़ता रहा |इसका एक पहलू यह भी हो सकता है कि पुराण बहिरवर्ती थे और वेद अंतरवर्ती थे | जब सामाजिक सोच बहिर्वर्ती से अंतरवर्ती हुई तभी साहित्य ने भी नई राह पकड़ी |

भारत में साहित्य का इतिहास अत्यंत समृद्ध और विविध है। साहित्य इतिहास , भारतीय संस्कृति, साध्य, लोक कथाएँ और रीति रिवाज़ के साथ गहरा जुड़ा हुआ है। यह अनेक वर्णमाला में लिखी गई है, जैसे कि संस्कृत, हिंदी, अरबी, तमिल, जनजाति, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, आदि।

साहित्य एक ऐसा साधन है जो समय के साथ बदलता रहता है, और इसमें समाज, संस्कृति और व्यक्तित्व के मानक आयाम हैं। हिंदी के भाषा साहित्य समाज  इसी दिशा में साहित्य को नए आयामों तक ले गए हैं। प्राचीन काल की उत्पत्ति से लेकर आधुनिकता और विज्ञान के युग तक, हिंदी साहित्य में समाज के लोकतंत्र का चित्रण किया गया है।

जैसी जैसी भाषा बदली और भाषा में नए प्रयोग किए गए वैसे वैसे साहित्य भी बदलता गया|साहित्य धार्मिक और इतिहास कथाओं से बदल कर अब सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक विषयों पर लिखा जाने लगा | बदलते समाज की नई तस्वीर साहित्य का हिस्सा बानी और कथाकारो ने अपने हिसाब से नवीन समय के समाज को सार्थक दिशा की तरफ मोड़ने के लिए जो प्रयोग किया वह भी साहित्य का हिस्सा बन गया |

धीरे धीरे साहित्य बदल रहा था |

प्राचीन काल के साहित्यकार जैसे कबीर, सूर दास और तुलसीदास जी ने जहां भक्ति काल का साहित्य रचा | वही उनके आगे आए रहीम जिन्होंने सत्य, प्रेम और मानवता के मुद्दे को अपने साहित्य में उकेरा | प्रेमचंद के लेखन ने गाव , देहात और समाज के गरीब और पिछड़े वर्ग की रोज़ मर्रा की जीवन गाथा को कहानियों में पिरोया। तो वही निराला, बच्चन, और मुक्ति बोध ने नई धारा को प्रवाह दिया |

आज के युग का साहित्य |

आज के समय के अनुभव, सामाजिक समीक्षा, तकनीकी बदलाव और तरक्की आज के साहित्य के बदलते चेहरे की वजह है |आज की राजनीतिक हवा और क्षेत्रीय समीक्षा भी आज के साहित्य का बड़ा हिस्सा है |आज का साहित्य सर्वव्यापी है | आज के साहित्य और काव्य की लिपि निजी है, और उसका मुख्य कारण कला का विकेंद्रीकरण और कैनवास का लोकतंत्रीकरण है |कविता की लोकप्रियता, लेख में तिरोहित विचारधारा और साहित्य में राजनीति और सामाजिक जागरूकता की खिचड़ी सबके घर परोसी जाए और सबका स्वाद वापस फिर रसोई घर और रसोईये को पता लगे इसका पूरा श्रेय है हैशटैग # की ताकत |

कला का विकेंद्रीकरण और कैनवास का लोकतंत्रीकरण

आज का साहित्य और कला दोनों ही समाज के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त करने का एक माध्यम हैं। कला के विकेंद्रीकरण ने आधुनिक कला और साहित्य को नए और अनूठे रूपों में प्रस्तुत किया है, जो समाज में गैहरा परिवर्तन और प्रभाव लाया है।लेखन, फोटोग्राफी, चित्रकला, फिल्म, और ऑडियो-विजुअल मीडिया का एक संगम साहित्य को और भी रोचक और बौद्धिक बना रहा है।

डिजिटल साहित्य इंटरनेट का उपयोग करते हुए, लेखकों और कलाकारों को अपनी रचनाओं और कला को आसानी से व्यक्त करने का अवसर मिलता है। इलेक्ट्रॉनिक साहित्य या डिजिटल साहित्य एक ऐसी शैली है जहां डिजिटल क्षमताएँ जैसे अन्तरक्रियाशीलता, बहु-तौर-तरीके और अलोगोरिदम पाठ का सौंदर्यपूर्ण उपयोग किया जाता है। इलेक्ट्रॉनिक साहित्य के कार्यों को आमतौर पर कंप्यूटर, टैबलेट और मोबाइल फोन जैसे डिजिटल उपकरणों पर पढ़ा जाता है।

ब्लॉग, सोशल मीडिया, और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स के माध्यम से, साहित्य और कला विभिन्न लोगों तक पहुंच रही हैं।आज के युग में, साहित्यिक आदान-प्रदान भी नए और विविध रूपों में हो रहा है। लेखकों, कवियों, और कलाकारों के बीच विचारों और विचारों का दिमागी तूफान , उन्हें साझा करना और उनके संदेश को बढ़ावा देना आम हो गया है।इस प्रकार, कला के विकेंद्रीकरण और आज का साहित्य एक साथ काम करके, समाज को नए और अनूठे रूपों में सोचने और अनुभव करने का अवसर प्रदान कर रहे हैं। यह उत्कृष्ट साधन है जो विभिन्न पहलुओं को समाहित करता है और समाज के विकास में महत्वपूर्ण योगदान करता है।

हैशटैग # की ताकत

आज के युग में हैशटैग की शक्ति ने साहित्य को फैलाने में बड़ी भूमिका निभाई है। हैशटैग सोशल मीडिया का एक महत्वपूर्ण तत्व है जो किसी भी विषय को वायरल करने और उसे बढ़ाने में मदद करता है। साहित्य के क्षेत्र में भी, हैशटैग एक प्रभावशाली और शक्तिशाली उपकरण है।हैशटैग का प्रयोग करके लेखक और कवि अपने ब्लॉग को सार्वजनिक रूप से साझा कर सकते हैं। यह उन्हें अपने वैज्ञानिक कार्यों को बड़े पैमाने पर लोगों तक पहुंचाने का एक अच्छा माध्यम प्रदान करता है।

इसके अलावा, हैशटैग के माध्यम से लेखक और कवि अपने विचार और दृष्टिकोण को दुनिया के साथ साझा कर सकते हैं, जो शास्त्र समुदाय में वाद-विवाद और साझा दृष्टिकोण को दार्शनिक कर सकते हैं।सोशल मीडिया के दिग्गज जैसे कि ट्विटर, सोशल मीडिया और फेसबुक पर हैशटैग का प्रयोग साहित्य के प्रचार और इसके प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेखक, विचारक और कवि अपनी रचनाओ और दृष्टिकोण को हैशटैग के ज़रिये जन साधारण तक पहूचा सकता है ।इस प्रकार, हैशटैग आज के युग में साहित्य को नए आयामों तक पहुँचाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम बन गया है। यह आर्टिस्ट और पेंटिंग को अपने थिएटर के साथ साझा करने का एक उत्कृष्ट माध्यम प्रदान करता है।

साहित्य का बदलता आयाम और जन-जन तक पहुंचति कलम का आधार है कला का विकेंद्रीकरण, कैनवास का लोकतंत्रीकरण और हैशटैग की ताकत | इन्ही तीन करणों के साथ आज के लेखक की नई अस्थिर निज्जी लिपि और व्याकरणहिंता के बावजुद साहित्य सर्व व्याप्त है |

©  श्री आशीष गौड़

वर्डप्रेसब्लॉग : https://ashishinkblog.wordpress.com

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 361 ⇒ जी और जान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जी और जान।)

?अभी अभी # 361 ⇒ जी और जान? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या जी और जान एक ही ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसमें जान है,वह ही तो जीव है। जान से ही तो प्राणियों का जीवन है।

जी और जान को जानने,समझने के लिए,आप चाहें तो जी को मन और जान को प्राण

भी कह सकते हैं।

जी का दायरा बड़ा विस्तृत है,जब कि बेचारी जान तो नन्हीं सी है,लेकिन इसी जान से तो यह जहान है। जी का विस्तार जिजीविषा तक है और अगर इस दुनिया से जी भर जाए तो ,अब जी के क्या करेंगे,जब दिल ही टूट गया।।

उधर दूसरी ओर यह हालत है,वो देखो मुझसे रूठकर मेरी जान जा रही है। साफ साफ क्यों नहीं कहते कि किसी ने आपका जी चुरा लिया है। यह जी ही कभी जिया बन जाता है,तो कभी हिया। लागे ना मोरा जीया।

ये कवि और शायर लोग शब्दों से खेलते हैं,अथवा इंसान के जज़्बातों से,कुछ पता ही नहीं चलता। जरा इन महाशय को देखिए ;

जान चली जाए

जिया नहीं जाए।

जिया जाए तो फिर

जिया नहीं जाए।।

जीवन की कड़वी सच्चाई तो यही है कि जी जान एक करके ही जीवन में आगे बढ़ा जाता है। सफलता यूं ही किसी के पांव नहीं चूम लेती। लेकिन यह भी सच है कि निराशा और अवसाद के क्षणों में यही जी इतना भारी हो जाता है, कि इंसान को कुछ भी नहीं सूझता।

यही जी कभी खास बन जाता है,तो कभी आम। जब जी करता है,मन की जगह विराजमान हो जाता है। कभी राग द्वेष में उलझ जाता है,तो कभी मौज मस्ती में डूबा रहता है।।

यही जी कभी मन है तो कभी दिल और जब मूड में आ जाए तो फिर यह किसी के वश में नहीं। कभी किसी को जी भर के गालियां दे दी तो कभी किसी को जी भर के आशीर्वाद। फिलहाल तो राजनीति में एक दूसरे को,जी भर के कोसने का चलन जोरों पर है।

कौन नहीं चाहता,जी भर के जिंदगी जीना। क्या चाहत से कभी किसी का जी भरा है। जी लो,जी भर के जिंदगी,कल किसने देखा है। इस जान के रहते ही आप कुछ जान सकते हो। इसलिए अगर जी को लगाना ही है तो कुछ जानने में लगाएं,जान सके तो जान। और कुछ तो हमारे बस में नहीं जानना,जी और जान के बारे में,बस ;

जी चाहता है,

खींच लूं तस्वीर आपकी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 83 – देश-परदेश – रिंकल्स अच्छे है! ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 83 ☆ देश-परदेश – रिंकल्स अच्छे है! ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में किसी वस्तु या अन्य पदार्थ के विज्ञापन की टैग लाइन जब प्रसिद्धि के उच्चतम शिखर पर पहुंच जाती है,तो लोग लंबे समय तक जनमानस के दिलों में अपना स्थान बना लेती हैं। “दाग अच्छे है” टैग लाइन भी उन प्रसिद्धि पा चुके में से एक हैं।

हमारे देश की सी एस आई आर जोकि एक वैज्ञानिक संस्था है,ने अपने कर्मचारियों का अव्वाहन किया है, कि प्रत्येक सोमवार के दिन वो बिना स्त्री(प्रेस) किए हुए वस्त्र पहनकर कार्बन की खपत में कटौती कर जन मानस को एक उदहारण प्रस्तुत कर जुगरूकता पैदा करें। हमारा देश विश्व के सबसे अधिक कार्बन खपत करने वाले देशों में अग्रणी हैं।

बचपन में हम पाठशाला गणवेश को सोते समय तकिए के नीचे या लोहे के संदूक के नीचे रखकर उसके रिंकल्स दूर कर लिया करते थे। धन के अपव्यय के साथ ही साथ कार्बन की खपत कम होती थी। बिजली से चलने वाली प्रेस सभी घरों में उपलब्ध है। आजकल एक नए प्रकार की स्टीम प्रेस भी आ गई है, जिसमें हैंगर पर टंगे हुए कपड़े भी प्रेस किए जा सकते हैं। प्रेस के कार्य में संलग्न धोबी आजकल जुगाड द्वारा एल पी जी गैस से भी कपड़े प्रेस करते हैं। कच्चे कोयले के उपगोग कर प्रेस का चलन कम हो गया हैं।

कपड़ो की सलवटे तो प्रेस से दूर हो जाती हैं। बिस्तर पर पड़ी हुई सलवटें, रात्रि नींद न आने पर करवट बदलने की गवाह बन जाती हैं। हमारे फिल्म वाले इस बात को अनेक गीतों के माध्यम से भुना चुके हैं।

कुछ समय पूर्व हमारे एक मित्र ने एक महंगी कमीज़ खरीदी थी, जिसकी वकालत विक्रेता ने ये कहकर की थी, ये “रिंकल फ्री” कमीज़ हैं। इसको प्रेस करने की आवश्यकता नहीं है, वो तो बाद में ज्ञात हुआ कि कमीज़ के साथ रिंकल्स फ्री में दिए जा रहे हैं।

कपड़े, बिस्तर आदि के रिंकल्स तो आप ठीक कर लेते हैं। हमारे जीवन के अंतिम पायदान के समय शरीर पर विकसित हो गई झुर्रियां शायद ये बयां करती हैं,” समय जिन  राजपथों से होकर गुजरता है, बोलचाल की भाषा में उन्हें ही झुर्रियां कहते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 359 ⇒ तिल धरने की जगह… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तिल धरने की जगह।)

?अभी अभी # 359 ⇒ तिल धरने की जगह? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारी भाषा इतनी संपन्न है कि हम इसके साथ कलाबाजियां भी कर सकते हैं, और खिलवाड़ भी। अलंकारों, मुहावरों, लोकोक्तियों की तो छोड़िए, अतिशयोक्ति तो इतनी कि, बस पूछिए मत।

पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था, कहीं तिल धरने की भी जगह नहीं थी। वैसे तो श्रोता खचाखच के प्रयोग से ही निहाल हो गया था, बेचारा एक तिल, यानी तिल्ली का दाना, अब उसके रखने की जगह भी हॉल में नहीं बची। हुई न यह, तिल से ताड़ बनाने वाली बात।।

अब सबसे पहले तो हॉल में आपको तिल लाने की आवश्यकता ही क्या थी। चलो अगर आप एक तिल का दाना ले भी आए, तो उसे कहां रखकर लाए थे, किसी माचिस की डिबिया में अथवा भानुमति के पिटारे में। अगर लाते तो पर्स में तिल गुड़ के दो तीन लड्डू ही ले आते आराम से खा तो सकते थे। खुद भी खाते और पड़ोसी श्रोता को भी ऑफर कर देते।

वह तो गनीमत है कि वहां कोई सिक्योरिटी चेक अथवा हाय अलर्ट नहीं था वर्ना एक तिल हॉल में लाना आपको बहुत भारी पड़ जाता। कहीं मेटल डिटेक्टर आपकी तिल में कोई खुफिया माइक्रो चिप अथवा सेल्यूलर बम, ना ढूंढ निकालता। ऐसे गैर जिम्मेदाराना, बेवकूफी भरे बयानों से बचकर रहा कीजिए, साइबर और डिजिटल क्राइम का जमाना है।।

हो सकता है, दुश्मनों ने टाइम बम की तरह कोई विस्फोटक तिल बम ईजाद कर लिया हो, और आतंकवाद निरोधक दस्ता, खुफिया रिपोर्ट के आधार पर, वहां पहले से ही मौजूद हो। और आपकी यह तिल तक रखने की जगह नहीं, वाली बात उन्होंने सुन ली हो। पहले तो आप अंदर, आतंकवादी और देशद्रोही गतिविधियों में लिप्त पाए जाने के आरोप में। तिल को तिल बम बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। पहले पूरा हॉल खाली कराया जाता, आपकी तिल तिल की तलाशी ली जाती, हॉल का चप्पा चप्पा छान मारा जाता, और अगर कहीं गलती से, तिल गुड़ वाला तिल का टुकड़ा किसी कुर्सी के नीचे से बरामद हो जाता तो क्या उसे हाथ कोई लगाता।

उसे सुरक्षित तरीके से कब्जे में ले लिया जाता, प्रेस, पत्रकार और इलेक्ट्रिक मीडिया के सौजन्य से आपकी तस्वीर भी सनसनीखेज तरीके से कैद कर ली जाती। उधर कोई भी आतंकवादी संगठन अपनी पब्लिसिटी के लिए आपको उस गिरोह का सदस्य घोषित कर देता।।

क्या यह सब बेसिर पैर की बातें हैं अथवा अतिशयोक्ति की पराकाष्ठा ! तो बताइए, तिल की बात शुरू किसने की थी। खुद को आसानी से बैठने की जगह मिल गई थी, लेकिन नहीं, इन्हें अपने तिल को रखने की भी जगह चाहिए थी। अब तिल तिल पुलिस कस्टडी में सड़ो।

ऐसी बददुआ सुबह सुबह हम अपने दुश्मन को भी नहीं देते। बस एक तिल की बात को लेकर दिमाग का दही हो गया था, तो हमने अनजाने में ही रायता फैला दिया।।

सुबह सुबह इस गुस्ताखी के लिए हम आपसे करबद्ध माफी मांगते हैं, लेकिन आपसे गुजारिश है, तिल देखो, तिल की साइज देखो, पहले अपने मुंह में तिल धरने की जगह तो तलाशो, फिर उसके बाद मुंह खोलो। अतिशयोक्ति सदा बुरी ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 240 – छह बजेंगे अवश्य..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 240 ☆ छह बजेंगे अवश्य..! ?

सोसायटी की पार्किंग में लगभग चार साल का एक बच्चा खेल रहा है। वह ऊपरी मंज़िल पर रहने वाले आयु में अपने से बड़े किसी मित्र को आवाज़ लगा रहा है, “…भैया खेलने आओ।”…”अभी पढ़ रहा हूँ “…, मित्र बच्चे का स्वर सुनाई देता है।…” अच्छा कब आओगे?”… ” छह बजे…”, …”ठीक है, छह बजे आओ..।” वह फिर से खेलने में मग्न हो गया।

यह छोटू अभी घड़ी देखना नहीं जानता। छह कब बजेंगे, इसका कोई अंदाज़ा भी नहीं है पर उसका अंतःकरण शुद्ध है, विश्वास दृढ़ है कि छह बजेंगे और भैया खेलने आएगा।

विचारबिंदु यहीं से विस्तार पाता है। जीवन में ऐसा कब- कब हुआ कि कठिनाइयाँ हैं, हर तरफ अंधेरा है पर दृढ़  विश्वास है कि अंधेरा छँटेगा, सूरज उगेगा। इस विश्वास को फलीभूत करने के लिए कितना डूबकर कर्म  किया? कितने शुचिभाव से ईश्वर को पुकारा? ईश्वर को मित्र माना है तो शत-प्रतिशत समर्पण से  पुकार कर तो देखो।

कुरुसभा के द्यूत में युधिष्ठिर अपने सहित सारे पांडव हार चुके। दाँव पर द्रौपदी भी लगा दी। दु:शासन केशों से खींचते हुए पांचाली को सभा में ले आया। दुर्योधन के आदेश पर सार्वजनिक रूप से वस्त्रहरण का विकृत कृत्य आरम्भ कर दिया। द्रुपदसुता ने पराक्रमी पांडवों की ओर निहारा।  पांडव सिर नीचा किये बैठे रहे। यथाशक्ति संघर्ष के बाद  असहाय कृष्णा ने अंतत: अपने परम सखा कृष्ण को पुकारा, ‘ अभयम् हरि, अभयम् हरि।’ मनसा, वाचा, कर्मणा जीवात्मा पुकारे, परमात्मा न आए, संभव ही नहीं। कृष्ण चीर में उतर आए। चीर, चिर हो गया। खींचते-खींचते आततायी दु:शासन का श्वास टूटने लगा, निर्मल मित्रता पर द्रौपदी का विश्वास जगत में बानगी हो चला।

इसी भाँति गजराज का पाँव  पानी में खींचने का प्रयास ग्राह ने किया। अनेक दिनों तक हाथी और मगरमच्छ का संघर्ष चला। मृत्यु निकट जान गजराज ने आर्त भाव से प्रभु को पुकारा। गजराज की यह पुकार ही स्तुति रूप में गजेन्द्रमोक्ष बनी।

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं

क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।

*

अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते

स आत्ममूलोवतु मां परात्परः।

अर्थात अपनी संकल्प शक्ति द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए, सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले, कार्य-कारणरूप जगत को जो निर्लिप्त भाव से साक्षी रूप से देखते रहते हैं, वे परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।…गज की न केवल रक्षा हुई अपितु भवसागर से मुक्ति भी मिली।

शुद्ध मन, निष्पाप भाव, दृढ़ विश्वास की त्रिवेणी भीतर प्रवाहित हो रही हो और आर्त भाव से ईश्वर से पूछ सको कि भैया कब आओगे, तो विश्वास रखना कि हाथ में घड़ी हो या न हो, समय देखना आता हो या न आता हो, तुम्हारे जीवन में भी छह बजेंगे अवश्य।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 358 ⇒ आइए डोरे डालें… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आइए डोरे डालें।)

?अभी अभी # 358 ⇒ आइए डोरे डालें? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या आपने कभी किसी पर डोरे डाले हैं, अथवा आप पर किसी ने डोरे डाले हैं ? आखिर क्या होता है यह डोरा! डोरा सूत के धागे अथवा तागे को कहते हैं। धागे में सुई से मोतियों अथवा फूलों को पिरोकर माला बनाई जाती है। याद है, फिल्म कच्चे धागे ;

कच्चे धागे के साथ जिसे बांध लिया जाये।

वो बंदी क्या छूटे वहीं पे जिये वहीं मर जाये।।

कहीं वह भाई बहन के बीच की प्रेम की डोर है तो कहीं उसी धागे में मंगलसूत्र के रूप में किसी पतिव्रता का सुहाग सुरक्षित है ;

जीवन डोर तुम्हीं संग बाँधी क्या तोड़ेंगे इस बन्धन को जग के तूफ़ाँ आँधी …

किसी को एक तरह से धागे में उलझाना अथवा बांधना ही डोरे डालना कहलाता है। हमने बचपन में , स्वेटर बुनते वक्त, फंदे डालना सीखा था, लेकिन खुद ही फंदे में उलझकर रह गए। धागा कमजोर होता है, जबकि डोर मजबूत। एक डोर प्रेम की भी होती है, जिसके आकर्षण में इंसान तो क्या भगवान भी खिंचे चले आते हैं।।

डोरे डालना भी एक कला है, जिस पार्टी अथवा व्यक्ति ने आप पर डोरे डाले होंगे, आपका वोट उधर ही तो होगा। कितनी बार विवाहित महिलाओं की आम शिकायत रहती है, कि फलाना औरत हमारे पति पर डोरे डालती है।

वह डोरे कहां से लाती है, और कब चोरी छुपे इनके पति पर डाल देती है कुछ पता ही नहीं चलता।

क्या ये डोरे अदृश्य होते हैं, और क्या इनको किसी जादू अथवा टोने टोटके से हटाया अथवा डिफ्यूज नहीं किया जा सकता। ऐसा कहा जाता है कि जब कोई आप पर डोरे डालता है, तब आपकी मति मारी जाती है। यह डोरा क्या कोई नजर है, नजर लागी राजा तोरे बंगले पर। ऐसे कई बंगलों पर इन डोरे डालने वालियों ने कब्जा कर रखा है।।

एक डोर होती है, जो पतंग को आसमान में उड़ाती है।

पतंग यूं ही डोर के सहारे आसमान में नहीं उड़ती, पतंग में पहले सूराख कर कन्नी डाली जाती है, जिसे जोते बांधना भी कहते हैं।

एक बार आसमान में उड़ने के बाद आप जितनी डोर खींचेंगे, पतंग उतनी ही आसमान में ऊंची उड़ती जाएगी।

ऊंचे उड़ने वालों को जमाने की बहुत जल्द नज़र लगती है। कोई दूसरी पतंग आसमान में आई, तो पेंच लड़ाने शुरू। खेल तो पूरा डोर का होता है, लेकिन किसी ना किसी की पतंग तो कट ही जाती है। होते हैं, कुछ लालची लुटेरे, जो कटी पतंग पर भी झपट पड़ते हैं।।

केवल चिकनी चुपड़ी बातों से ही नहीं, अदाओं और लटके झटकों से भी सामने वाले पर डोरे डाले जाते हैं। फिल्म नमूना(1949) का शमशाद बेगम द्वारा गाए इस खूबसूरत गीत को सुनकर आप अंदाज नहीं लगा सकते, रानी जी किसी पर डोरे डाल रही हैं, अथवा डाका ;

टमटम से झांको न रानी जी।

गाड़ी से गाड़ी लड़ जाएगी।।

तिरछी नज़र जो पड़ जाएगी।

बिजली सी दिल पे गिर जाएगी।।

अगर डोरे डालने की खुली प्रतियोगिता हो, तो उसमें इस तरह के गीत (फिल्म समाधि 1950) मोटिवेशन का काम कर सकते हैं ;

 ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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