(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – वादा
अपनी समस्याएँ लिए प्रतीक्षा करता रहा वह। उससे समाधान का वादा किया गया था। व्यवस्था में वादा अधिकांशतः वादा ही रह जाता है। अबकी बार उसने पहले के बजाय दूसरे के वादे पर भरोसा किया। प्रतीक्षा बनी रही। तीसरे, चौथे, पाँचवें, किसीका भी वादा अपवाद नहीं बना। वह प्रतीक्षा करता रहा, समस्या का कद बढ़ता गया।
आज उसने अपने आपसे वादा किया और खड़ा हो गया समस्या के सामने सीना तानकर।…समस्या हक्की-बक्की रह गई।..चित्र पलट गया। उसका कद निरंतर बढ़ता गया, समस्या लगातार बौनी होती गई।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “छाता और बरसात…“।)
अभी अभी # 432 ⇒ छाता और बरसात… श्री प्रदीप शर्मा
उधर आसमान को पता ही नहीं कि सावन आ गया है, लोग बेसब्री से बारिश का इंतजार कर रहे हैं और इधर एक हम हैं जो पंखे के नीचे बैठकर छाते की बात कर रहे हैं। याद आते हैं वे बरसात के दिन, जब उधर आसमान से रहमत बरसती थी और इधर हम बंदूक की जगह छाता तानकर उसका सामना करते थे। आज हमने सीख लिया, जब रहमत बरसे, तो कभी छाता मत तानो, बस रहमत की बारिशों में भीग जाओ।
जब हमारा सीना भी छप्पन सेंटीमीटर था, तब हम भी बरसती बारिश में सीना तानकर सड़क पर निकल जाते थे, क्योंकि तब घर में कोई नहीं था, जो हमारे लिए बिनती करता, नदी नारे ना जाओ श्याम पैंया पड़ूं। तबीयत से भीगकर आते थे, मां अथवा बहन टॉवेल लेकर हमारा इंतजार करती थी, कपड़े बदलो, और गर्मागर्म दूध पी लो।।
तब कहां आज की तरह सड़कों पर इतनी कारें और दुपहिया वाहन थे। इंसान बड़ी दूरी के लिए साइकिल और कम दूरी के लिए ग्यारह नंबर की बस से ही काम चला लेता था। शायद ही कोई ऐसा घर हो, जिसमें तब छाता ना हो। खूंटी पर टोपी, कुर्ते के साथ आम तौर पर एक छाता भी नजर आता था, काले रंग का। जी हां हमने तो पहले पहल काले रंग का ही छाता देखा था।
एक छाते में दो आसानी से समा जाते थे, और साथ में आगे छोटा बच्चा भी। उधर बच्चा बड़ा हुआ, उसके लिए भी एक बेबी अंब्रेला, यानी छोटा छाता।
अपने छाते से बारिश का सामना करना, तब हमारे लिए बच्चों का ही तो खेल था।
छाता भी क्या चीज है, खुलते ही छा जाता है, हमारे और बरसात के बीच, और छाते से छतरी बन जाता है। एक थे गिरधारी, जिन्होंने अपनी उंगली पर इंद्रदेव को नचा दिया था, छाते की जगह पर्वत ही उठा लिया था।
कलयुग में गलियन में गिरधारी ना सही, छाताधारी ही सही।।
समय के साथ, साइकिल की तरह छाते भी लेडीज और जेंट्स होने लग गए।
रंगबिरंगे फैशनेबल छाते, जापानी गुड़िया और मैं हूं पेरिस की हसीना ब्रांड छाते। हमें अच्छी तरह याद है, छातों में ताड़ी होती थी, जिससे बटन दबाते ही छाता तन जाता था और काले मोट कपड़े पर शायद धन्टास्क लिखा रहता था।
छाता कभी आम आदमी का उपयोग साधन था। कामकाजी संभ्रांत पुरुष डकबैक की बरसाती, हेट और गमबूट पहना करते थे, जेम्स बॉन्ड टाइप। कामकाजी महिलाओं के लिए भी लेडीज रेनकोट उपलब्ध होते थे। हर स्कूल जाने वाले बच्चे के पास बारिश के दिनों में बरसाती भी होती थी।।
समाज में एक तबका ऐसा भी है, जो पन्नी(पॉलिथीन) ओढ़कर ही बारिश का सामना कर लेता है। हमने कई बूढ़ी औरतों को गेहूं की खाली बोरी ओढ़कर जाते देखा है।
आज भी छाते की उपयोगिता कम नहीं हुई है। जो पैदल चलते हैं, उनकी यह जरूरत है। जो कार में चलते हैं, उन्हें भी बरसते पानी में, कार में बैठते वक्त और उतरते वक्त छाते का सहारा लेना ही पड़ता है।।
क्या विडंबना है, नीली छतरी वाले और हमारे बीच भी एक छतरी। रहमत बरसा, लेकिन छप्पर तो मत फाड़। कुंए, नदी, तालाब, पोखर, लबालब भरे रहें, लेकिन हमारे सब्र के बांध की परीक्षा तो मत ले। अब तो हमें तेरी तारीफ के लिए बांधे पुलों पर भी भरोसा नहीं रहा, बहुत झूठी तारीफ की हमने तेरी अपने स्वार्थ और खुदगर्जी की खातिर। हमें माफ कर।।
छाते का एक मनोविज्ञान है, एक छाते में दो प्रेमी बड़ी आसानी से समा जाते हैं।
प्रेम भाई बहन का भी हो सकता है और पति पत्नी का भी। साथ में भीगना भी, और भीगने से बचना भी, तब ही तो प्रेम छाता है। किसी अनजान व्यक्ति को भीगते देख उसे अपनी छतरी में जगह भी वही देगा, जिसके दिल में जगह होगी। हर इंसान तो नेमप्लेट लगाकर नहीं घूम सकता न ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चिन्तामणि…“।)
अभी अभी # 430 ⇒ चिन्तामणि… श्री प्रदीप शर्मा
सरकारी स्कूल में पढ़ने का एक लाभ यह भी हुआ कि सभी प्रमुख हिंदी लेखकों से परिचय हो गया। प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, महादेवी और हजारीप्रसाद द्विवेदी। सुमित्रानंदन पंत को व्यक्तित्व के आधार पर महिला समझने की भूल हम भी कर बैठे थे। लेकिन सबसे अधिक हमें जिसने प्रभावित किया, वे थे, आचार्य रामचंद्र शुक्ल।
हिंदी साहित्य का इतिहास तो हमने बाद में पढ़ा, लेकिन मनोभाव और विकारों पर चिंतामणि में संकलित उनके निबंधों ने हमें अधिक प्रभावित किया। हमने अंग्रेजी निबंधकार फ्रांसिस बेकन को भी पढ़ा, लेकिन उनमें वह बात नहीं थी, जो चिंतामणि में हमने पाई। । दूसरा हमारा उनकी ओर झुकाव उनके व्यक्तित्व के कारण था, विदेशी पहनावा, गले में टाई, घनी विशिष्ट प्रकार की मूंछ और आंखों पर मोटा चश्मा। ।
तब से आज तक, उनकी शायद एक ही तस्वीर उपलब्ध है। हमारी उनकी केवल एक ही समानता रही है, मैं भी बचपन से ही उनकी तरह मोटा चश्मा लगाता आ रहा हूं। उनका मोटा चश्मा जहां उनके ज्ञान के आगार, तीक्ष्ण बुद्धि और विद्वत्ता का प्रतीक है, वहीं मेरा मोटा चश्मा मेरी मोटी बुद्धि का प्रतीक। हाथ कंगन को आरसी क्या, आप एक तरफ चिंतामणि रख दीजिए और दूसरी ओर अभी अभी। अंतर स्पष्ट हो जाएगा।
मनोभाव हमारे विचारों का ही तो प्रकटीकरण है। अगर चित्त शुद्ध है तो विचार भी शुद्ध ही होंगे और अगर चित्त विकार युक्त है तो वे विचार मनोविकार कहलाएंगे।
चिंता और चिंतन से भी बेहतर एक मार्ग स्वाध्याय का है, जहां चिंतन, मनन, के साथ अध्यात्म चिंतन भी संभव है। चिंतामणि है तो हमारे अंदर ही, उसे बाहर नहीं खोजा जा सकता ..!!
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 94 ☆ देश-परदेश – मेरे दोस्त पिक्चर अभी बाकी है ☆ श्री राकेश कुमार ☆
इस नाम से भी एक पिक्चर बन चुकी हैं। पिक्चर कितनी प्रसिद्ध हुई ? ये जानकारी हमें तो नहीं है, लेकिन इसका उपयोग डायलॉग के रूप में खूब चल रहा हैं।
आडंबर विवाह की चर्चा अभी चल ही रही हैं। सामाजिक मंच कह रहे है, पूरी दुनिया पर राज करने वाले देश की राजधानी लंदन में भी एक बड़े आयोजन की सुगबुघाट जोरों पर हैं।
उनको क्या अंतर पड़ता है, कोई बहुत बड़ा होटल उन्होंने कुछ समय से लीज पर लिया हुआ हैं। वहीं आयोजन हो जाएगा। अंतर तो उनको पड़ेगा, जिनके पास “पार्टी वियर” का सीमित प्रावधान हैं। प्रत्येक कार्यक्रम में भाग लेने वाले के लिए तो धर्म संकट की स्थिति बन गई हैं। एक वर्ष के आसपास से तो विवाह चल रहा हैं। देश में सबसे लंबी आम चुनाव की प्रक्रिया भी पूरी हो गई हैं। नीट का मामला भी सुप्रीम कोर्ट ने सुलटा दिया है। विश्व के अनेक जोड़ों का भी “आडंबर विवाह वर्ष” के दौरान हुआ है, उनके यहां तो नए मेहमान के आने की घोषणा भी हो चुकी हैं। इनमें से कुछ के विवाह विच्छेद की तैयारी में हैं।
पिक्चर अभी बहुत सारी बाकी हो सकती है, क्या पता अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों में कोई आयोजन प्रस्तावित हों ?बड़े लोग बड़ी बातें, पेरिस ओलंपिक के उद्घाटन में शिरकत करने के समय, फ्रांस के राष्ट्रपति से मुलाकात भी हुई है। हो सकता है, फ्रांस भी चाहता हो, एक वैवाहिक कार्यक्रम उनके देश में भी आयोजित होना चाहिए।
हम भी चाहते हैं, ये दावतें, खुशियां हमेशा गुलज़ार रहें, ताकि हमें भी कुछ लिखने का मौका मिलता रहे।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि…“।)
अभी अभी # 430 ⇒ नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि… श्री प्रदीप शर्मा
बच्चे धर्म और संस्कृति नहीं समझते, वे तो जो सीखते हैं, वही उनका संस्कार हो जाता है। बच्चा जब बोलना सीखता है, तो तोते की तरह हम भी उससे राम राम, और जय श्री कृष्ण बुलवाते हैं। हमारी ही देखादेखी जब वह हाथ भी जोड़ता है और झुककर सबके पांव छूता है, तो हम बहुत खुश होते हैं। लोग भी कहते हैं, बड़ा संस्कारी बच्चा है। जो हमने उसे सिखाया, वही तो उसने सीखा।
बचपन में हमने भी वही सीखा जो हमारा माहौल था। मोहल्ले में एक ही उम्र के बच्चे ही बच्चे, अधिकतर मराठी भाषी। हम आपस में लड़ते खेलते उनकी भाषा भी समझते गए। मोहल्ले के पीछे ही एक मैदान था, जिसे हम ग्राउंड कहते थे, आज जहां अर्चना का कार्यालय है, वहीं कभी शाखा भी लगती थी। खेलते खेलते हम भी शाखा में पहुंच जाते थे, नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि कहते हुए।।
स्कूल में भी मैदान में सबसे पहले सर्व धर्म प्रार्थना होती थी, और उसके बाद पीटी। पीटी को फिजिकल ट्रेनिंग कहते हैं, यह हमें बहुत बाद में पता चला। सर्व धर्म प्रार्थना हमें आज भी याद है, ॐ तत्सत् श्री नारायण तू, पुरुषोत्तम गुरु तू।
घर के सामने ही वैदिकाश्रम था, जहां कथा, कीर्तन, सत्संग, गणेशोत्सव के सांस्कृतिक कार्यक्रम और विवाह भी संपन्न होते थे। मंदिर की आरती की घंटी हमें आकर्षित करती थी, और हम भागकर, आंख मूंदे, हाथ जोड़कर खड़े हो जाते थे। प्रसाद आते ही, आंखें खुल जाती थी, और प्रसाद के लिए हाथ पसर जाता था।।
तब हम कहां धर्म, संस्कृति और राजनीति समझते थे।
आज हम शाखा का मतलब भी समझते हैं और आरएसएस का भी।
आपने याद दिलाया तो हमें याद आया, कि आज से पहले सरकारी कर्मचारी आरएसएस के कार्यक्रमों में भाग नहीं ले सकते थे।
यह तो यही बात हुई कि मछली को पानी में घुसने की इजाजत नहीं दी जाए। अगर सैंया ही कोतवाल हो, तो फिर डर काहे का।।
हिंदू राष्ट्र, धर्म संस्कृति और सनातन धर्म की बात करना कोई अपराध नहीं, हाथी तो कब का निकल गया था, लेकिन पूंछ लगता है, सन् १९६६ से दबी पड़ी थी। अब सनातन का हाथी अपनी चाल चलेगा, कोई पांव तो रखकर देखे अब पूंछ अथवा मूंछ पर।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 250 ☆ शिवोऽहम्
।। चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।
गुरु द्वारा परिचय पूछे जाने पर बाल्यावस्था में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य द्वारा दिया गया उत्तर निर्वाण षटकम् कहलाया। वेद और वेदांतों का मानो सार है निर्वाण षटकम्। इसका पहला श्लोक कहता है,
मनोबुद्ध्यहङ्कार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥
मैं न मन हूँ, न बुद्धि, न ही अहंकार। मैं न श्रवणेंद्रिय (कान) हूँ, न स्वादेंद्रिय (जीभ), न घ्राणेंद्रिय (नाक) न ही दृश्येंद्रिय (आँखें)। मैं न आकाश हूँ, न पृथ्वी, न अग्नि, न ही वायु। मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ।
मनुष्य का अपेक्षित अस्तित्व शुद्ध आनंदमय चेतन ही है। आनंद से परमानंद की ओर जाने के लिए, चिदानंद से सच्चिदानंद की ओर जाने के लिए साधन है मनुष्य जीवन।
सर्वसामान्य मान्यता है कि यह यात्रा कठिन है। असामान्य यथार्थ यह कि यही यात्रा सरल है।
इस यात्रा को समझने के लिए वेदांतसार का सहारा लेते हैं जो कहता है कि अंत:करण और बहि:करण, इंद्रिय निग्रह के दो प्रकार हैं। मन, बुद्धि और अहंकार अंत:करण में समाहित हैं। स्वाभाविक है कि अंत:करण की इंद्रियाँ देखी नहीं जा सकतीं, केवल अनुभव की जा सकती हैं। संकल्प- विकल्प की वृत्ति अर्थात मन, निश्चय-निर्णय की वृत्ति अर्थात बुद्धि एवं स्वार्थ-संकुचित भाव की वृत्ति अर्थात अंहकार। इच्छित का हठ करनेवाले मन, संशय निवारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली बुद्धि और अपने तक सीमित रहनेवाले अहंकार की परिधि में मनुष्य के अस्तित्व को समेटने का प्रयास हास्यास्पद है।
बहि:करण की दस इंद्रियाँ हैं। इनमें से चार इंद्रियों आँख, नाक, कान, जीभ तक मनुष्य जीवन को बांध देना और अधिक हास्यास्पद है।
सनातन दर्शन में जिसे अपरा चेतना कहा गया है, उसमें निर्वाण षटकम् के पहले श्लोक में निर्दिष्ट आकाश, भूमि, अग्नि, वायु, मन, बुद्धि, अहंकार जैसे स्थूल और सूक्ष्म दोनों तत्व सम्मिलित हैं। अपरा प्रकृति केवल जड़ पदार्थ या शव ही जन सकती है। परा चेतना या परम तत्व या चेतन तत्व या आत्मा का साथ ही उसे चैतन्य कर सकता है, चित्त में आनंद उपजा सकता है, चिदानंद कर सकता है।
आनंद प्राप्ति में दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। दृष्टिकोण में थोड़ा-सा परिवर्तन, जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन लाता है। मनुष्य का अहंकार जब उसे भास कराने लगता है कि उसमें सब हैं, तो यह भास, उसे घमंड से चूर कर देता है। दृष्टिकोण में परिवर्तन हो जाए तो वह धन, पद, कीर्ति पाता तो है पर उसके अहंकार से बचा रहता है। वह सबमें खुद को देखने लगता है। सबका दुख, उसका दुख होता है। सबका सुख, उसका सुख होता है। वह ‘मैं’ से ऊपर उठ जाता है।
यूँ विचार करें करें कि जब कोई कहता है ‘मैं’ तो किसे सम्बोधित कर रहा होता है? स्वाभाविक है कि यह यह ‘मैं’ स्थूल रूप से दिखती देह है। तथापि यदि आत्मा न हो, चेतन स्वरूप न हो तो देह तो शव है। शव तो स्वयं को सम्बोधित नहीं कर सकता। चिदानंद चैतन्य, शव को शिव करता है और जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के शब्द सृष्टि में चेतनस्वरूप की उपस्थिति का सत्य, सनातन प्रमाण बन जाते हैं।
इसीलिए कहा गया है, ‘शिवोहम्’, … मैं शिव हूँ.. ‘मैं’ से शव का नहीं शिव का बोध होना चाहिए। यह बोध मानसपटल पर उतर आए तो यात्रा बहुत सरल हो जाती है।
यात्रा सरल हो या जटिल, इसमें अभ्यास की बड़ी भूमिका है। अभ्यास के पहले चरण में निरंतर बोलते, सुनते, गुनते रहिए, ‘शिवोऽहम्।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घराना…“।)
अभी अभी # 429 ⇒ घराना… श्री प्रदीप शर्मा
मेरा नाम राजू, घराना अनाम,
बहती है गंगा, जहां मेरा धाम …
लेकिन सभी जानते हैं, कपूर खानदान के इस चिराग का भी एक सेमी क्लासिकल फिल्म संगीत का घराना था, जिसमें शंकर जयकिशन, शैलेंद्र हसरत और मुकेश ने मिलकर जो गीतों की बरसात शुरू की थी, उसने मेरा नाम जोकर तक थकने का नाम नहीं लिया था। और जहां तक नाम का सवाल है, तो पृथ्वी थिएटर से शुरू इस कपूर परिवार के अभिनय का करिश्मा आज भी कायम है।
घराना गर्व और गौरव का विषय है, अच्छे घराने की बहू के लिए ही गृह लक्ष्मी जैसे विशेषणों का प्रयोग किया जाता था। राजघरानों में आज हम भले ही केवल होलकर और सिंधिया राजघरानों तक ही सिमटकर रह गए हों, लेकिन शास्त्रीय संगीत के घरानों की बात तो कुछ और ही है।।
नृत्य और संगीत हमें स्वर्ग की नहीं, गंधर्व लोक की देन हैं, सवाई गंधर्व और कुमार गंधर्व इनके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। आप मानें या ना मानें, संगीत के घरानों और राजघरानों का आपसी संबंध बहुत पुराना है। आइए कुछ संगीत घरानों की चर्चा करें।
भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य की वह परंपरा है जो एक ही श्रेणी की कला को कुछ विशेषताओं के कारण दो या अनेक उप श्रेणियों में बाँटती है।।
घराना (परिवार, कुटुंब), हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की विशिष्ट शैली है, क्योंकि हिंदुस्तानी संगीत बहुत विशाल भौगोलिक क्षेत्र में विस्तृत है, कालांतर में इसमें अनेक भाषाई तथा शैलीगत बदलाव आए हैं। घराना शब्द हिंदी शब्द ‘घर’ से आया है जिसका अर्थ है ‘घर’। यह आमतौर पर उस स्थान को संदर्भित करता है जहां संगीत विचारधारा की उत्पत्ति हुई; उदाहरण के लिए, ख्याल गायन के लिए प्रसिद्ध कुछ घराने हैं: दिल्ली, आगरा, ग्वालियर, इंदौर, अतरौली-जयपुर, किराना और पटियाला।
इसके अलावा शास्त्रीय संगीत की गुरु-शिष्य परंपरा में प्रत्येक गुरु व उस्ताद अपने हाव-भाव अपने शिष्यों की जमात को देता जाता है। घराना किसी क्षेत्र विशेष का प्रतीक होने के अलावा, व्यक्तिगत आदतों की पहचान बन गया है, यह परंपरा ज़्यादातर संगीत शिक्षा के पारंपरिक तरीके तथा संचार सुविधाओं के अभाव के कारण फली-फूली, क्योंकि इन परिस्थितियों में शिष्यों की पहुँच संगीत की अन्य शैलियों तक बन नहीं पाती थी।
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गायन के लिये प्रसिद्ध घरानों में से निम्न घराने शामिल होते हैं: आगरा, ग्वालियर, इंदौर, जयपुर, किराना, और पटियाला।
सबसे पुराना ग्वालियर घराना है। तानसेन भी ग्वालियर से ही आए थे। हस्सू हद्दू खाँ के दादा नत्थन पीरबख्श को इस घराने का जन्मदाता कहा जाता है। दिल्ली के राजा ने इनको अपने पास बुला लिया था।।
जरा इन गायकों और उनके घरानों पर भी गौर कर लिया जाए ;
१. मेवाती घराना पंडित जसराज
२.पटियाला घराना
उस्ताद बड़े गुलाम अली खां, बेगम अख्तर, निर्मला देवी और परवीन सुल्ताना
३. जयपुर अंतरौली घराना ;
मल्लिकार्जुन मंसूर
किशोरी अमोनकर और
अश्विनी भिड़े।
४. भीमसेन जोशी किराना घराना,
५. आगरा घराना जितेंद्र अभिषेकी
इन घरानों की शुद्धता, मर्यादा और अनुशासन का पालन शिष्यों को भी करना पड़ता है। गुरु शिष्य परम्परा यूं ही फलीभूत नहीं होती। ना मिलावट ना खोट यही शास्त्रीय संगीत की पहचान है। एक भी सुर गलत नहीं।
धारवाड़, कर्नाटक से आए, घराने की बंदिश से अपने को मुक्त रखते हुए, लोक संगीत को शास्त्रीय संगीत की ऊंचाईयों तक पहुंचाने वाले कुमार गंधर्व स्वयं अपने आपमें एक घराना हैं।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी पसंद…“।)
अभी अभी # 428 ⇒ ✓ मेरी पसंद… श्री प्रदीप शर्मा
मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना
कुंडे कुंडे नवं पयः।
जातौ जातौ नवाचाराः
नवा वाणी मुखे मुखे।।
मेरी आपकी पसंद एक हो ही नहीं सकती, पसंद एक होते ही हम एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं। परिचय पसंद की पहली कड़ी है, जिसमें बच्चे हमसे कई गुना आगे हैं। जितनी जल्दी वे आपस में घुल मिल जाते हैं, उतनी जल्दी हम बड़े लोग नहीं।
कहीं कहीं तो परिचय में ही फिल्म खत्म हो जाती है, पसंद नापसंद का तो सवाल ही नहीं, जब पता चलता है कि वह तो उन सक्सेना जी का बेटा है, जिनसे आपका छत्तीस का आंकड़ा है। कहां की पसंद नापसंद कहां तक असर कर डालती है। इसे आप दुराग्रह अथवा पूर्वाग्रह भी कह सकते हैं।।
कहीं कहीं तो पसंदगी का कोई कारण नहीं होता और इसी प्रकार नापसंदगी का कोई कारण नहीं होता। आप चाहें तो इसे माइंड सेट अथवा कंडीशनिंग भी कह सकते हैं। एक विशिष्ट अखबार, पत्रिका अथवा लेखक आपकी पसंद का हो सकता है। सालों से एक ही दर्जी, एक ही नाई, एक ही अखबार वाला, दूध वाला और किराने वाला, एक ही पेस्ट, एक ही ऑयल और बालों की एक ही स्टाइल। क्या कर सकते हैं, पसंद अपनी अपनी।
समझ और जानकारी होते हुए भी खानपान और रहन सहन में अपनी पसंद हमें एक दूसरे से अलग बनाती है। क्या हमारी पसंद हमारा जुनून अथवा आदत बन जाती है। सुबह की चाय हमारी पसंद है, मजबूरी है, अथवा आदत, हम खुद ही नहीं जानते। जरूर सुबह की चाय का संबंध आपकी जुबां के साथ साथ पेट से भी है।।
किसी को घूमना फिरना पसंद है तो किसी को पढ़ना लिखना। किसी को अधिक बात करना पसंद है तो किसी को कम बात करना। अगर समय के साथ अगर समझौता नहीं किया जाता तो आपकी पसंद किसी को अखर भी सकती है। मुझे अखबार के फ्रंट पेज पर न्यूज पसंद है, लेकिन मुझे अक्सर वहां विज्ञापन नजर आता है। इसलिए मैने अखबार पढ़ना ही छोड़ दिया। लोग मुझे सनकी कहें तो कहें। मैं जानता हूं, अखबार सिर्फ मेरे लिए नहीं छपता।
पसंद से ही तो रुचि शब्द बना है। वैसे तो रुचि को taste भी कहते हैं और सुरुचि को good taste.
Rich taste वालों को, ऊंचे लोग, ऊंची पसंद वाला कहा जाता है। कभी आपको गुलाबजामुन पसंद था, और अमिताभ बच्चन भी, लेकिन उम्र के साथ, अब दोनों से अरुचि हो गई है। एक समय था जब कपिल कपिल किया करते थे, अब तो धोनी धोनी कहते कहते भी थक गए। आप करते रहिए विराट विराट।।
अब काहे की अपनी पसंद, बस किसी तरह दिन काट रहे हैं। महंगाई को रोएं या भ्रष्टाचार को। ना आजकल पुरानी जैसी फिल्में बनती हैं और ना ही पुरानी फिल्मों जैसा संगीत। सहगल और रफी को छोड़ कौन बाबा सहगल और हिमेश रेशमिया को सुनेगा।
हमारी उम्र में जो मन करा खाया और जब मर्जी करी, साइकिल से घूमने निकल गए। जेब में अगर दो रुपए हुए तो हम शहंशाह। आज का पिज्जा, बर्गर और पास्ता मनचूरियन हम खाते नहीं, रात भर डीजे पर नाचते नहीं। लोग सोचते हैं, हमारी पसंद को क्या हो गया है, और हम सोचते हैं, आज की पीढ़ी को क्या हो गया है। पसंद अपनी अपनी, खयाल अपना अपना।।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सोच व संस्कार… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 242 ☆
☆ सोच व संस्कार… ☆
सोच भले ही नई रखो, लेकिन संस्कार पुराने ही अच्छे हैं और अच्छे संस्कार ही अपराध समाप्त कर सकते हैं। यह किसी दुकान में नहीं; परिवार के बुज़ुर्गों अर्थात् हमारे माता- पिता, गुरूजनों व संस्कृति से प्राप्त होते हैं। वास्तव में संस्कृति हमें संस्कार देती है, जो हमारी धरोहर हैं। सो! अच्छी सोच व संस्कार हमें सादा जीवन व तनावमुक्त जीवन प्रदान करते हैं। इसलिए जीवन में कभी भी नकारात्मकता के भाव को पदार्पण न होने दें; यह हमें पतन की राह पर अग्रसर करता है।
संसार में सदैव अच्छी भूमिका, अच्छे लक्ष्य व अच्छे विचारों वाले लोगों को सदैव स्मरण किया जाता है– मन में भी, जीवन में भी और शब्दों में भी। शब्द हमारे सोच-विचार व मन के दर्पण हैं, क्योंकि जो हमारे हृदय में होता है; चेहरे पर अवश्य प्रतिबिंबित होता है। इसीलिए कहा जाता है कि चेहरा मन का आईना है और आईने में वह सब दिखाई देता है; जो यथार्थ होता है। ‘तोरा मन दर्पण कहलाए/ भले-बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए।’ दूसरी ओर अच्छे लोग सदैव हमारे ज़ेहन में रहते हैं और हम उनके साथ आजीवन संबंध क़ायम रखना चाहते हैं। हम सदैव उनके बारे में चिन्तन-मनन व चर्चा करना पसंद करते हैं।
‘रिश्ते कभी ज़िंदगी के साथ नहीं चलते। रिश्ते तो एक बार बनते हैं, फिर ज़िंदगी रिश्तों के साथ चलती है’ से तात्पर्य घनिष्ठ संबंधों से है। जब इनका बीजवपन हृदय में हो जाता है, तो यह कभी भी टूटते नहीं, बल्कि ज़िंदगी के साथ अनवरत चलते रहते हैं। इनमें स्नेह, सौहार्द, त्याग व दैन्य भाव रहता है। इतना ही नहीं, इंसान ‘पहले मैं, पहले मैं’ का गुलाम बन जाता है। दोनों पक्षों में अधिकाधिक दैन्य व कर्त्तव्यनिष्ठा का भाव रहता है। वैसे भी मानव से सदैव परहिताय कर्म ही अपेक्षित हैं।
इच्छाएं अनंत होती है, परंतु उनकी पूर्ति के साधन सीमित हैं। इसलिए सब इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। सो! इच्छाओं की पूर्ति के अनुरूप जीने के लिए जुनून चाहिए, वरना परिस्थितियाँ तो सदैव मानव के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल रहती हैं और उनमें सामंजस्य बनाकर जीना ही मानव का लक्ष्य होना चाहिए। जो व्यक्ति इन पर अंकुश लगाकर जीवन जीता है, आत्म-संतोषी जीव कहलाता है तथा जीवन के हर क्षेत्र व पड़ाव पर सफलता प्राप्त करता है।
लोग ग़लत करने से पहले दाएँ-बाएँ तो देख लेते हैं, परंतु ऊपर देखना भूल जाते हैं। इसलिए उन्हें भ्रम हो जाता है कि उन्हें कोई नहीं देख रहा है और वे निरंतर ग़लत कार्यों में लिप्त रहते हैं। उस स्थिति में उन्हें ध्यान नहीं रहता कि वह सृष्टि-नियंता परमात्मा सब कुछ देख रहा है और उसके पास सभी के कर्मों का बही-खाता सुरक्षित है। सो! मानव को सत्य अपने लिए तथा सबके प्रति करुणा भाव रखना चाहिए – यही जीवन का व्याकरण है। मानव को सदैव सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए तथा उसका हृदय सदैव दया, करुणा, ममता, त्याग व सहानुभूति से आप्लावित होना चाहिए– यही जीने का सर्वोत्तम मार्ग है।
जो व्यक्ति जीवन में मस्त है; अपने कार्यों में तल्लीन रहता है; वह कभी ग़लत कार्य कर ही नहीं सकता, क्योंकि उसके पास किसी के विषय में सोचने का समय ही नहीं होता। इसलिए कहा जाता है कि खाली दिमाग़ शैतान का घर होता है अर्थात् ऐसा व्यक्ति इधर-उधर झाँकता है, दूसरों में दोष ढूंढता है, छिद्रान्वेषण करता है और उन्हें अकारण कटघरे में खड़ा कर सुक़ून पाता है। वैसे भी आजकल अपने दु:खों से अधिक मानव दूसरों को सुखी देखकर परेशान रहता है तथा यह स्थिति लाइलाज है। इसलिए जिसकी सोच अच्छी व सकारात्मक होती है, वह दूसरों को सुखी देखकर न परेशान होगा और न ही उसके प्रति ईर्ष्या भाव रखेगा। इसके लिए आवश्यक है प्रभु का नाम स्मरण– ‘जप ले हरि का नाम/ तेरे बन जाएंगे बिगड़े काम’ और ‘अंत काल यह ही तेरे साथ जाएगा’ अर्थात् मानव के कर्म ही उसके साथ जाते हैं।
‘प्रसन्नता की शक्ति बीमार व दुर्बल व्यक्ति के लिए बहुत मूल्यवान है’–स्वेट मार्टिन मानव मात्र को प्रसन्न रहने का संदेश देते हैं, जो दुर्बल का अमूल्य धन है, जिसे धारण कर वह सदैव सुखी रह सकता है। उसके बाद आपदाएं भी उसकी राह में अवरोधक नहीं बन सकती। कुछ लोग तो आपदा को अवसर बना लेते हैं और जीवन में मनचाहा प्राप्त कर लेते हैं। ‘जीवन में उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ यूं ही बेवजह न ग़िला किया कीजिए’ अर्थात् जो व्यक्ति आपदाओं को सहर्ष स्वीकारता है, वे उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। इसलिए बेवजह किसी से ग़िला-शिक़वा करना उचित नहीं है। ऐसा व्यवहार करने की प्रेरणा हमें अपनी संस्कृति से प्राप्त होती है और ऐसा व्यक्ति नकारात्मकता से कोसों दूर रहता है।
गुस्सा और मतभेद बारिश की तरह होने चाहिए, जो बरसें और खत्म हो जाएं और अपनत्व भाव हवा की तरह से सदा आसपास रहना चाहिए। क्रोध और लोभ मानव के दो अजेय शत्रु हैं, जिन पर नियंत्रण कर पाना अत्यंत दुष्कर है। जीवन में मतभेद भले हो, परंतु मनभेद नहीं होने चाहिएं। यह मानव का सर्वनाश करने का सामर्थ्य रखते है। मानव में अपनत्व भाव होना चाहिए, जो हवा की भांति आसपास रहे। यदि आप दूसरों के प्रति स्नेह, प्रेम तथा स्वीकार्यता भाव रखते है, तो वे भी त्याग व समर्पण करने को सदैव तत्पर रहेंगे और आप सबके प्रिय हो जाएंगे।
ज़िंदगी में दो चीज़ें भूलना अत्यंत कठिन है; एक दिल का घाव तथा दूसरा किसी के प्रति दिल से लगाव। इंसान दोनों स्थितियों में सामान्य नहीं रह पाता। यदि किसी ने उसे आहत किया है, तो वह उस दिल के घाव को आजीवन भुला नहीं पाता। इससे विपरीत स्थिति में यदि वह किसी को मन से चाहता है, तो उसे भुलाना भी सर्वथा असंभव है। वैसे शब्दों के कई अर्थ निकलते हैं, परंतु भावनाओं का संबंध स्नेह,प्यार, परवाह व अपनत्व से होता है, जिसका मूल प्रेम व समर्पण है।
इनका संबंध हमारी संस्कृति से है, जो हमारे अंतर्मन को आत्म-संतोष से पल्लवित करती है। कालिदास के मतानुसार ‘जो सुख देने में है, वह धनार्जन में नहीं।’ शायद इसीलिए महात्मा बुद्ध ने भी अपरिग्रह अर्थात् संग्रह ना करने का संदेश दिया है। हमें प्रकृति ने जो भी दिया है, उससे आवश्यकताओं की आपूर्ति सहज रूप में हो सकती है, परंतु इच्छाओं की नहीं और वे हमें ग़लत दिशा की ओर प्रवृत्त करती हैं। इच्छाएं, सपने, उम्मीद, नाखून हमें समय-समय पर काटते रहने का संदेश हमें दिया गया है अन्यथा वे दु:ख का कारण बनते हैं। उम्मीद हमें अनायास ग़लत कार्यों करने की ओर प्रवृत्त करती है। इसलिए उम्मीदों पर समय-समय पर अंकुश लगाते रहिए से तात्पर्य उन पर नियंत्रण लगाने से है। यदि आप उनकी पूर्ति में लीन हो जाते हैं, तो अनायास ग़लत कार्यों की ओर प्रवृत्त होते हैं और किसी अंधकूप में जाकर विश्राम पाते हैं।
ज्ञान धन से उत्पन्न होता है, क्योंकि धन की मानव को रक्षा करनी पड़ती है, परंतु ज्ञान उसकी रक्षा करता है। संस्कार हमें ज्ञान से प्राप्त होते हैं, जो हमें पथ-विचलित नहीं होने देते। ज्ञानवान मनुष्य सदैव मर्यादा का पालन करता है और अपनी हदों का अतिक्रमण नहीं करता। वह शब्दों का प्रयोग भी सोच-समझ कर सकता है। ‘मरहम जैसे होते हैं कुछ लोग/ शब्द बोलते ही दर्द गायब हो जाता है।’ उनमें वाणी माधुर्य का गुण होता है। ‘खटखटाते रहिए दरवाज़ा, एक
दूसरे के मन का/ मुलाकातें ना सही आहटें आनी चाहिए’ द्वारा राग-द्वेष व स्व-पर का भाव तजने का संदेश प्रदत्त है। सो! हमें सदैव संवाद की स्थिति बनाए रखनी चाहिए, अन्यथा दूरियाँ इस क़दर हृदय में घर बना लेती है, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। हमारी संस्कृति एकात्मकता, त्याग, समर्पण, समता, समन्वय व सामंजस्यता का पाठ पढ़ाती है। ‘सर्वेभवंतु सुखिनाम्’ में विश्व में प्राणी मात्र के सुख की कामना की गयी है। सुख-दु:ख मेहमान है, आते-जाते रहते हैं। सो! हमें निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए और निरंतर खुशी से जीवन-यापन करना चाहिए। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला’ के माध्यम से मानव को आत्मावलोकन करने व ‘एकला चलो रे’ का अनुसरण कर खुशी से जीने का संदेश दिया गया है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सारा आकाश…“।)
अभी अभी # 427 ⇒ सारा आकाश… श्री प्रदीप शर्मा
मुझे रात में तारे गिनने का शौक नहीं, लेकिन रात में आकाश को निहारने का शौक ज़रूर है। दिन का आकाश तो सब का है, क्योंकि हर तरफ़ सूरज का प्रकाश ही प्रकाश होता है, सूरज की पहली किरण से ही प्रकृति सूर्य नमस्कार करती प्रतीत होती है। कली कली खिलती है, फूल मुस्कुराते हैं, पक्षी चहचहाते हैं, अखबार और दूध घर घर हाजरी बजाते हैं, रसोई में उबलती चाय की खुशबू नींद की खुमारी को और बढ़ा देती है।
दिन सबका है, सुबह सबकी है। लेकिन मेरे लिए अभी रात बाकी है। रात का आकाश सिर्फ मेरा है, पूरा का पूरा, सारा का सारा ! मैं जिस कमरे में सोता हूं, वहां एक बड़ी सारी खिड़की है, जहां मच्छरों की जाली भी लगी है और काँच भी। लेकिन फिर भी खिड़की के आर पार का खुला आसमान पूरी रात मेरी आँखों के सामने रहता है। मैं जब चाहे, रात में आसमान से बातें कर सकता हूं।।
जब आसमान खुला होता है, मैं आसमान से खुलकर बात करता हूं। इस धरती की, यहाँ के लोगों की, अपने परायों की, उनके सुख दुख की। वह मेरी सभी बातें बड़े ध्यान से सुनता है। बहुत धैर्य है आसमान में। वह कभी टूटता नहीं, बिखरता नहीं, फटता नहीं। मुझमें इतना धीरज कहाँ। कभी अपनी परेशानियों से, तो कभी किसी और की तकलीफ़ से, फूट पड़ता हूं, फफक कर रो उठता हूं। आसमान पत्थर दिल नहीं, कभी कभी वह भी रोता है मेरे साथ। मेरी दास्तां उसे भी विचलित कर देती है, वह गरजता भी है, और बरसता भी है।
मैं नहीं जानता, इस आकाश में ऐसा क्या है, जो मुझे आकर्षित करता है। मैं जानता हूं, मैं आकाश को छू नहीं सकता। वहाँ तक कभी जा नहीं सकता। लेकिन बच्चों की कहानियों में सुना है, वहां परियां रहती हैं, फरिश्ते रहते हैं। आजकल के बच्चे इतने भोले नहीं। उन्हें परियों के नहीं, एलियंस के सपने आते हैं।।
इंसान जब भी परेशान होता है, उसके हाथ, आसमान की ओर उठ जाते हैं। वह किसी ऊपर वाले की बात करता है। जिस तरह राजा एक ऊंचे सिंहासन पर विराजमान होता है, शायद भगवान भी हमारी पहुंच से दूर, सातवें आसमान में, अपना दरबार सजाये बैठा रहता हो, कान से ऊँचा सुनता हो, या इतनी ऊंचाई तक, उस एक किसी की पुकार ही नहीं पहुंचती हो, और ज़नाब साहिर शिकायत कर उठते हैं ;
आसमां पे है खुदा
और ज़मीं पे हम
आजकल वो इस तरफ
देखता है कम।।
मेरी कभी उस ऊपर वाले से बात नहीं हुई। लेकिन एक बात की मुझे तसल्ली है, मेरी पहुंच आसमान तक है। आखिर यह आसमान भी हमारे ब्रह्मांड का हिस्सा ही तो है। चाँद, सूरज, ग्रह नक्षत्र, उल्का पिंड। हम भी आसमान से ही टूटकर बने हैं और जब भी हम टूटते हैं, हम आसमान की ओर ही उम्मीद भरी नजर से देखते हैं, क्योंकि ये दुनिया, ये महफिल, मेरे काम की नहीं। मेरे पास शब्द नहीं, लेकिन मेरा आकाश बहुत बड़ा है, इसी आकाश में ईश्वर तत्व और आकाश तत्व समाया हुआ है।
यही आकाश मेरे अंदर भी है। हर घट में ब्रह्म व्याप्त है। ॐ भुः, भवः, स्वः, तपः, मनः, जनः और सत्यं ! मतलब ये सातों लोक भी हमारे अंदर ही हैं। तभी कई बार हमारा पारा भी सातवें आसमान पर रहता है। यह शरीर तो मिट्टी से बना है, मिट्टी में मिल जाना है,
और हमें अगले सफर के लिए निकल जाना है। किसी ने सही कहा है ;
अगर ये ज़मीं नहीं वो मेरा वो आसमां तो है।
ये क्या है कम, कि कोई, मेरा मेहरबां तो है।।
जब तक आसमां मेरे सर पर है, मुझ पर बिजली नहीं गिरेगी। उस ऊपर वाले का हाथ जो मुझ पर है। मुझे कोई गम नहीं, क्योंकि सारा आकाश मेरा है …!!!