हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 185 ☆ कहन कहन कहने लगे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “कहन कहन कहने लगे…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 185 ☆ कहन कहन कहने लगे

अच्छी शुरुआत अर्थात आधा कार्य पूर्ण,  पर देखने में आता है कि अधिकांश लोग देखा देखी प्रारंभ तो जोर – शोर से करते हैं किंतु बाद में उन्हें समझ आता है कि अमुक कार्य  उनकी रुचि का  नहीं है, और यहीं से गति धीमी हो जाती है। विचारों की उदासीनता से व्यक्ति बड़बोलेपन का शिकार हो जाता है। नया करने में  डर लगने लगता है। जैसे जोरशोर से कार्य आरंभ करते हैं उससे कहीं अधिक हमें उसे पूर्ण करने की ओर ध्यान देना चाहिए। सही प्रक्रिया अपनाते हुई  गुणवत्ता पूर्ण कार्यों की ओर अग्रसर होना सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है।

जब हम पूरे मन से कार्य को करेंगे तो अवश्य ही सकारात्मक विचारों के साथ उसे पूर्णता तक पहुँचायेंगे। योग्य मार्गदर्शक के निर्देशन में  शुभ परिणाम मिलते हैं। इस संदर्भ में एक बात और विचारणीय है कि यात्रा के बहाने लोगों से जुड़ने का अच्छा माध्यम मिलता है किंतु विचारहीन व्यक्ति सही संप्रेषण नहीं कर पाता। भाषा पर पकड़ यदि मजबूत नहीं होगी तो लोगों के बीच अपने मनोभावों को व्यक्त करना कठिन होगा। शब्दों को अटक – अटक कर बोलने से चेहरे की भाव – भंगिमा भंग होती है जिससे जो कहना है उसे बीच में रोक कर कुछ अनचाहा बोलना पड़ता है।

जो भी हो होते रहना चाहिए ताकि लोगों को  ये तो पता लगे कि आप मैदान में हैं। धूप – छाया, दिन – रात, धरती – आकाश, जल- थल, मीठा-कड़वा सभी जरूरी हैं। सो स्वयं को उपयोगी बनाने की दिशा में जुटे रहें। जनमानस के साथ संवाद हो विवाद नहीं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 264 ☆ आलेख – भगत सिंह का लाहौर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – भगत सिंह का लाहौर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 264 ☆

? आलेख – भगत सिंह का लाहौर ?

 भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर अमृतसर और लाहौर के बीच है. हर शाम यहाँ बीटिंग रिट्रीट परेड का आयोजन होता है. भारत और पाकिस्तान दोनो ही ओर से हजारों दर्शक सैनिकों की चुस्त दुरुस्त फुर्तीली परेड के गवाह बनते हैं. कभी  लाहौर भगत सिंह की प्रमुख कर्मभूमि था. शहीद भगतसिंह १९४७ में होते तो क्या वे आजादी के जश्न को जश्न कह पाते ? कथित आजादी से शहीद भगत सिंह के सपने के टुकड़े हुये हैं. क्या हजारों की तरह दिल में विभाजन का दर्द समेटे अपने लाहौर को पाकिस्तान के हवाले कर भगत सिंह को भी लाहौर छोड़ना पड़ता ?  विभाजन के दिनो में लाहौर गवाह रहा है दोनो ओर से पलायन करते हजारो परिवारों के विस्थापन का.  सैकड़ो लाशें भी ढ़ोई हैं, इधर उधर होती रेलों ने.  कितना वीभत्स्व था वह विभाजन जिसे लोग आजादी का जश्न कहते हैं. बर्लिन की दीवार ढ़हाकर पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का पुनर्मिलन हुआ है.  यदि कभी इतिहास ने करवट ली और पाकिस्तान को शहीदे आजम भगतसिंह की क्रांतिकारी विचारों ने प्रभावित किया और पुनः दोनो देश मिलकर एक हुये तो तय है भगत सिंह का लाहौर ही उस विलय का गवाह बनेगा. आज का आतंकवाद को प्रश्रय देता पाकिस्तान संकुचित साम्प्रदायिक विचारधारा से मुक्त हो, सपूत शहीदे आजम भगत सिंह के सामाजिक समरसता के दिखाये रास्ते पर भारत का अनुगामी बने. यदि पाकिस्तान मजहबी चश्में से ही देखना चाहे तो ‘अशफ़ाक़ उल्लाह खान’ की याद करे जिन्होंने मजहब के नाम पर देश की आजादी और बंटवारे की स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी.  शाह अब्दुल अज़ीज़  ने १७७२ मे ही १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम से ८५ बरस पहले ही अंग्रेज़ो के खिलाफ जेहाद का फतवा देकर हिन्दुस्तानियो के दिलों मे आजादी की लौ जलाने का काम किया था,  उन्होंने कहा था  अंग्रेज़ो को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो. बहादुर शाह जफर, ग़दर पार्टी के संस्थापकों में से एक भोपाल के बरकतुल्लाह थे जिन्होंने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था, गदर पार्टी का हैड क्वार्टर सैन फ्रांसिस्को में स्थापित किया गया था, खुदाई खिदमतगार मूवमेंट,  अलीगढ़ मुस्लिम आन्दोलन के सर सैय्यद अहमद खां  जिन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया. अजीज़न बाई, बेगम हजरत महल जैसी महिलाओ सहित, बैरिस्टर आसिफ अली, डॉ.मुख़्तार अहमद अंसारी,  वगैरह वगैरह की बहुत लम्बी फेहरिस्त है.  भगत सिंह आजादी की उसी मशाल के उनके समय और उनके हिस्से की दौड़ के ध्वज वाहक हैं.  हिन्दू मुस्लिम भेद भाव के बगैर भगत सिंह जैसे आजादी के परवानो ने लगातार अपनी जान की आहुतियों से इस मसाल को जलाये रखा.  आज भी इस मशाल की आग बुझी नही है, क्योकि भगत सिंह ने कहा था कि पूरी आजादी का मतलब अंग्रेजो को हटाकर हिंदुस्तानियो को कुर्सियो पर बिठा देना भर नहीं, सर्वहारा को राजसत्ता देना है और  सच्चे अर्थो में  यह काम अभी भी जारी है. शायद कभी इस मशाल के प्रकाश में ही अखण्ड भारत का सपने साकार हों.
माना जाता है कि लाहौर की स्थापना भगवान श्री राम के पुत्र लव ने की थी. आज भी इसके प्रमाण मिलते हैं.  लव मंदिर की दीवारों को लाहौर ने संभाल रखा है. लव का पंजाबी उच्चारण लह भी किया जाता है, जिससे कि लाहौर शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है. कृष्णा मंदिर और वाल्मीकि मंदिर, गुरुद्वारा डेरा साहब, गुरुद्वारा काना काछ, गुरुद्वारा शहीद गंज, जन्मस्थान गुरु राम दास, समाधि महाराजा रणजीत सिंह जैसे स्थान लाहौर में आज भी जीवंत हैं. मेरी उस विविधता की संस्कृति के गवाह हैं, जिसका सपूत था अमर शहीद भगत सिंह.

रावी एवं वाघा नदी के तट पर भारत पाकिस्तान सीमा पर आज मैं पाकिस्तान के प्रांत पंजाब की राजधानी हूं. आज मैं पाकिस्तान का दिल हूं.इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा में मेरा योगदान विशिष्ट है. मुझे बाग बगीचो के शहर के रूप में भी जाना जाता है. मेरा स्थापत्य मुगल कालीन एवं औपनिवेशिक ब्रिटिश काल का है जिसे मैंने आज भी धरोहर के रूप में अपनी थाथी बनाकर छाती से लगा रखा है. आज भी लाहौर में बादशाही मस्जिद, अली हुजविरी शालीमार बाग, लाहौर फोर्ट, अकबरी गेट, कश्मीरी गेट, चिड़ियाघर, वजीर खान मस्जिद एवं नूरजहां तथा जहांगीर के मकबरे मुगलकालीन स्थापत्य की जीवंत उपस्थिति है. महत्वपूर्ण ब्रिटिश कालीन भवनों में लाहौर उच्च न्यायलय, जनरल पोस्ट ऑफिस जैसे भवन मुगल एवं ब्रिटिश स्थापत्य का मिलाजुला नमूना हैं. पंजाबी की  तड़के वाली मिठास जिसके चलते लाहौरी बोली को “लाहौरी पंजाबी” कहा जाता है. लाहौर में वही पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी भी सुनने मिलती है,  जो भगतसिंह की आजादी के आंदोलन की जुबान थी. इन दिनो बदलते वैश्विक समीकरणो से भगत सिंह के लाहौर में चीनी भाषा भी सुनने के मौके मिल रहे हैं.

भारत और पाकिस्तान में कितनी भी वैचारिक दुश्मनी क्यो न हो, पर दोनो देशो की जनता निर्विवाद रूप से शहीद भगत सिंह के प्रति बराबरी से श्रद्धा नत है.

भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर अमृतसर और लाहौर के बीच है. हर शाम यहाँ बीटिंग रिट्रीट परेड का आयोजन होता है. भारत और पाकिस्तान दोनो ही ओर से हजारों दर्शक सैनिकों की चुस्त दुरुस्त फुर्तीली परेड के गवाह बनते हैं. कभी  लाहौर भगत सिंह की प्रमुख कर्मभूमि था. शहीद भगतसिंह १९४७ में होते तो क्या वे आजादी के जश्न को जश्न कह पाते ? कथित आजादी से शहीद भगत सिंह के सपने के टुकड़े हुये हैं. क्या हजारों की तरह दिल में विभाजन का दर्द समेटे अपने लाहौर को पाकिस्तान के हवाले कर भगत सिंह को भी लाहौर छोड़ना पड़ता ?  विभाजन के दिनो में लाहौर गवाह रहा है दोनो ओर से पलायन करते हजारो परिवारों के विस्थापन का.  सैकड़ो लाशें भी ढ़ोई हैं, इधर उधर होती रेलों ने.  कितना वीभत्स्व था वह विभाजन जिसे लोग आजादी का जश्न कहते हैं. बर्लिन की दीवार ढ़हाकर पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का पुनर्मिलन हुआ है.  यदि कभी इतिहास ने करवट ली और पाकिस्तान को शहीदे आजम भगतसिंह की क्रांतिकारी विचारों ने प्रभावित किया और पुनः दोनो देश मिलकर एक हुये तो तय है भगत सिंह का लाहौर ही उस विलय का गवाह बनेगा. आज का आतंकवाद को प्रश्रय देता पाकिस्तान संकुचित साम्प्रदायिक विचारधारा से मुक्त हो, सपूत शहीदे आजम भगत सिंह के सामाजिक समरसता के दिखाये रास्ते पर भारत का अनुगामी बने. यदि पाकिस्तान मजहबी चश्में से ही देखना चाहे तो ‘अशफ़ाक़ उल्लाह खान’ की याद करे जिन्होंने मजहब के नाम पर देश की आजादी और बंटवारे की स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी.  शाह अब्दुल अज़ीज़  ने १७७२ मे ही १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम से ८५ बरस पहले ही अंग्रेज़ो के खिलाफ जेहाद का फतवा देकर हिन्दुस्तानियो के दिलों मे आजादी की लौ जलाने का काम किया था,  उन्होंने कहा था  अंग्रेज़ो को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो. बहादुर शाह जफर, ग़दर पार्टी के संस्थापकों में से एक भोपाल के बरकतुल्लाह थे जिन्होंने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था, गदर पार्टी का हैड क्वार्टर सैन फ्रांसिस्को में स्थापित किया गया था, खुदाई खिदमतगार मूवमेंट,  अलीगढ़ मुस्लिम आन्दोलन के सर सैय्यद अहमद खां  जिन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया. अजीज़न बाई, बेगम हजरत महल जैसी महिलाओ सहित, बैरिस्टर आसिफ अली, डॉ.मुख़्तार अहमद अंसारी,  वगैरह वगैरह की बहुत लम्बी फेहरिस्त है.  भगत सिंह आजादी की उसी मशाल के उनके समय और उनके हिस्से की दौड़ के ध्वज वाहक हैं.  हिन्दू मुस्लिम भेद भाव के बगैर भगत सिंह जैसे आजादी के परवानो ने लगातार अपनी जान की आहुतियों से इस मसाल को जलाये रखा.  आज भी इस मशाल की आग बुझी नही है, क्योकि भगत सिंह ने कहा था कि पूरी आजादी का मतलब अंग्रेजो को हटाकर हिंदुस्तानियो को कुर्सियो पर बिठा देना भर नहीं, सर्वहारा को राजसत्ता देना है और  सच्चे अर्थो में  यह काम अभी भी जारी है. शायद कभी इस मशाल के प्रकाश में ही अखण्ड भारत का सपने साकार हों.

माना जाता है कि लाहौर की स्थापना भगवान श्री राम के पुत्र लव ने की थी. आज भी इसके प्रमाण मिलते हैं.  लव मंदिर की दीवारों को लाहौर ने संभाल रखा है. लव का पंजाबी उच्चारण लह भी किया जाता है, जिससे कि लाहौर शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है. कृष्णा मंदिर और वाल्मीकि मंदिर, गुरुद्वारा डेरा साहब, गुरुद्वारा काना काछ, गुरुद्वारा शहीद गंज, जन्मस्थान गुरु राम दास, समाधि महाराजा रणजीत सिंह जैसे स्थान लाहौर में आज भी जीवंत हैं. मेरी उस विविधता की संस्कृति के गवाह हैं, जिसका सपूत था अमर शहीद भगत सिंह.

रावी एवं वाघा नदी के तट पर भारत पाकिस्तान सीमा पर आज मैं पाकिस्तान के प्रांत पंजाब की राजधानी हूं. आज मैं पाकिस्तान का दिल हूं.इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा में मेरा योगदान विशिष्ट है. मुझे बाग बगीचो के शहर के रूप में भी जाना जाता है. मेरा स्थापत्य मुगल कालीन एवं औपनिवेशिक ब्रिटिश काल का है जिसे मैंने आज भी धरोहर के रूप में अपनी थाथी बनाकर छाती से लगा रखा है. आज भी लाहौर में बादशाही मस्जिद, अली हुजविरी शालीमार बाग, लाहौर फोर्ट, अकबरी गेट, कश्मीरी गेट, चिड़ियाघर, वजीर खान मस्जिद एवं नूरजहां तथा जहांगीर के मकबरे मुगलकालीन स्थापत्य की जीवंत उपस्थिति है. महत्वपूर्ण ब्रिटिश कालीन भवनों में लाहौर उच्च न्यायलय, जनरल पोस्ट ऑफिस जैसे भवन मुगल एवं ब्रिटिश स्थापत्य का मिलाजुला नमूना हैं. पंजाबी की  तड़के वाली मिठास जिसके चलते लाहौरी बोली को “लाहौरी पंजाबी” कहा जाता है. लाहौर में वही पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी भी सुनने मिलती है,  जो भगतसिंह की आजादी के आंदोलन की जुबान थी. इन दिनो बदलते वैश्विक समीकरणो से भगत सिंह के लाहौर में चीनी भाषा भी सुनने के मौके मिल रहे हैं.

भारत और पाकिस्तान में कितनी भी वैचारिक दुश्मनी क्यो न हो, पर दोनो देशो की जनता निर्विवाद रूप से शहीद भगत सिंह के प्रति बराबरी से श्रद्धा नत है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

लंदन से 

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 303 ⇒ पैसा और प्रेम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पैसा और प्रेम।)

?अभी अभी # 303 ⇒ पैसा और प्रेम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम प्रेमी, प्रेम करना जानें।

अभी कुछ दिनों पहले ही हमने एक पैसे वाले का पशु प्रेम देखा, और उसके तुरंत ही बाद अन्य पैसे वालों का उस पैसे वाले इंसान के प्रति प्रेम भी देखा। पैसे से प्रेम तो खैर सभी करते हैं, लेकिन पशुओं से प्रेम में यह व्यक्ति हमसे बहुत आगे निकल गया।

ईश्वर ने जिसे मुंह दिया है, उसे दाना भी वही देता है। आज के युग में जहां इंसान केवल अपना पेट भरने में लगा है, वहीं एक इंसान ऐसा भी है जो अस्सी करोड़ लोगों के पेट की चिंता पाल रहा है।

लेकिन उस व्यक्ति को क्या कहें जो मूक अशक्त और बूढ़े बीमार पशुओं की ना केवल चिंता करे, उनके भोजन की भी व्यवस्था करे।।

हम किंकर्तव्यविमूढ़ हों, इस व्यक्ति के प्रति नतमस्तक हों, उसके पहले ही हमारा ध्यान जामनगर की ओर चला गया। वहां हमने पैसे वालों का इस व्यक्ति के प्रति जो प्रेम देखा, तो हमें भी पैसे की भूख लग गई। भले ही पैसा खाने की चीज ना हो, लेकिन दिखाने की तो है।

हमने कहीं सुना है, देख पराई चूपड़ी, मत ललचावै जीव। हमारे पास पैसा ना सही, हम पशु प्रेमी ना सही, लेकिन भोजन प्रेमी तो हैं ही। जब भी हमें लार टपकती है, हम कुछ अच्छा सा खा लेते हैं, मन तृप्त और संतुष्ट हो जाता है और कुछ समय के लिए, पैसे की भूख भी शांत हो जाती है।।

भोजन किसे प्रिय नहीं। सबका अपना अपना प्रिय भोजन होता है, कहीं दाल रोटी तो कहीं हलवा पूरी।

कहीं बिरयानी तो कहीं इडली वड़ा और डोसा। ब्राह्मण को तो भोजन प्रिय होता ही है। छककर खाने के बाद डकार के साथ जो आशीर्वाद निकलता है, वह बड़ी दूर तक जाता है।

हम भारतीय अगर अच्छा खाते हैं तो अच्छा खिलाते भी हैं। मेहमाननवाजी कोई हमसे सीखे। जामनगर में तो प्री वेडिंग सेरेमनी में ही पूरी दुनिया मुट्ठी में समा गई थी। भाई साहब, अंबानी परिवार ने जामनगर के 51000 मेहमानों को आग्रहपूर्वक अपने हाथों से परोस परोसकर भोजन कराया।

भगवान ने जब सीलिंग तोड़ पैसा दिया है, तो उतना ही बड़ा दिल भी तो दिया है। इसे ही तो कहते हैं, सभ्यता और संस्कार।।

सिर्फ एक हजार करोड़ की शादी। एक भोजन प्रेमी तो ईश्वर से इनके लिए यही दुआ करेगा ;

साईं इतना दीजिए,

जा में वसुधैव कुटुंब समाय।

मैं भी भूखा ना रहूं

बिल गेट्स भी ना भूखा जाय।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 302 ⇒ सहमत का बहुमत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सहमत का बहुमत।)

?अभी अभी # 302 ⇒ सहमत का बहुमत? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब कलयुग में सतयुग प्रवेश करता है तो बहुमत भी मूर्खो का नहीं सहमतों का हो जाता है, जीवन में नकारात्मकता की जगह सकारात्मकता का प्रवेश हो जाता है। पैसा ही धर्म हो जाता है, और सनातन संस्कृति का पोषक हो जाता है। जिंदगी बोझ नहीं रह जाती, दुख भरे दिन बीत जाते हैं, अचानक ही अच्छे दिनों का जीवन में प्रवेश हो जाता है।

एक समय ऐसा भी था जब बहुमत से असहमत होने का मन करता था, अच्छाई मुट्ठी भर थी और चारों तरफ बुराई का ही साम्राज्य था, और असंतुष्ट लोग उसे कांग्रेस का राज कहते थे। ऐसी कैसी साढ़े साती जो साठ साल तक उतरने का नाम ही ना ले।

लेकिन ईश्वर के यहां देर भले ही है, अंधेर नहीं और जो आशा का दीपक कभी भारतीय जनसंघ ने जलाया था, समय के साथ वह कमल की तरह खिल उठा और भारत माता के चेहरे पर अचानक मुस्कान आ गई। सबसे पहले इसे ज्ञानपीठ से पुरस्कृत आचार्य गुलजार ने अपने शब्दों में इस तरह व्यक्त भी किया ;

जंगल जंगल पता चला है।

चड्डी पहन के फूल खिला है।।

तब से अब तक तो सरयू में बहुत पानी बह चुका है। कई लोग बहती गंगा में हाथ धो बैठे हैं, और सभी के मन भी चंगे हो चुके हैं।

जो कभी भारत रत्न लता का कोकिल स्वर था, वह करोड़ों सनातन प्रेमी भक्तों का स्वर हो गया ;

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।

वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु

किरपा कर अपनायो।।

हर गरीब की झोपड़ी में राम ही नहीं पधारे, महलों में भी सनातन संस्कृति का बोलबाला हो गया। २२ जनवरी की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा क्या हुई, राष्ट्र कवि कुमार विश्वास भी बागेश्वर धाम पहुंच गए और भक्ति और ज्ञान की अलख जगा दी। कविता में भी एक और दिनकर का उदय हो गया।

अब यह सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं, कि भारत विश्व गुरु है अथवा नहीं, बस जरा जामनगर की ओर रुख कर लीजिए।

ऐश्वर्य, सुख वैभव और सनातन संस्कार के अगर साक्षात् दर्शन करने हों तो एक अंबानी परिवार में ही सब कुछ समाया हुआ प्रतीत होता है। क्या आपको नहीं लगता कुछ दिनों के लिए जामनगर रामनगर नहीं बन गया जहां राम जी अपने ही रामराज्य का विस्तार कर रहे हों।।

दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए। हरि अनंत हरि कथा अनंता। आज अनंत की कथा का सर्वत्र गुणगान हो रहा है, और नव अंबानी दंपति को आशीर्वाद देने पूरी दुनिया उमड़ पड़ी है। जामनगर ने ना केवल बिल गेट्स सहित दुनिया के कई धन कुबेरों के लिए द्वार खोले, कल सतगुरु जग्गी वासुदेव भी वहां प्रकट हो गए। इतने बॉलीवुड सितारों को एक साथ एक जगह नचाना इतना आसान भी नहीं होता। यहां सब अपनी खुशी से आए हैं, यह कोई राजनीतिक रोड शो नहीं है, यहां लोगों को धीरू भाई अंबानी परिवार का परिश्रम और पसीना नजर आ रहा है। यह परिवार वाद नहीं राष्ट्र वाद है। असंतुष्ट अपने चश्मे का नंबर चेक कराएं।

यह वक्त है बहुमत से सहमत होने का, असंतुष्ट से संतुष्ट होने का, विपक्ष का साथ छोड़ सत्ता पक्ष का साथ देने का, विकास की गति को आगे बढ़ाने का,

स्मार्ट फोन के बाद हर शहर की स्मार्ट सिटी बनाने का, स्वदेशी की अलख जगाने का।।

अंबानी का प्री वेडिंग जश्न कोई पैसे की फिजूल खर्ची अथवा झूठा दिखावा नहीं, इसमें राष्ट्र का गौरव और वैभव नजर आता है, जहां संस्कार भी है और सादगी भी, भक्ति भी और समर्पण भी। राधिका अनंत देश की युवा पीढ़ी के प्रेरणा स्त्रोत हैं। कल देश की बागडोर ऐसे ही हाथों में आनी है।

आज से सहमत हों, संतुष्ट हों। जब झोपड़ी के भाग भी जाग गए, तो आप तो इंसान हो। इससे और अच्छे दिन क्या होंगे। आज का आयुष्मान भारत ही वह रामराज्य है जहां ;

दैहिक दैविक भौतिक तापा।

राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 301 ⇒ विचार विमर्श… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचार विमर्श ।)

?अभी अभी # 301 ⇒ विचार विमर्श ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बड़ा साधारण सा असाहित्यिक और घरेलू टाइप शब्द है यह विचार विमर्श। घर गृहस्थी, बच्चों के स्कूल, घर, मकान, दुकान, नौकरी दफ्तर और बड़ी हो रही बिटिया के ब्याह की चिंता के बारे में, अक्सर परिवार के सदस्यों और परिजनों के बीच विचार विमर्श चला ही करता है।

फुरसत के क्षणों में, यार दोस्तों के बीच और कॉफी हाउस में राजनीतिक और बौद्धिक चर्चाएं होना भी आम ही है लेकिन जब यह विमर्श साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश करता है तो इसका स्वरूप कुछ निराला ही हो जाता है।।

बात निराला की वह तोड़ती पत्थर से शुरू होती है और नीर क्षीर विवेक के चिंतन से गुजरती हुई, राजेंद्र यादव के हंस में वह स्त्री विमर्श का रूप धारण कर लेती है। नारी अस्मिता और पश्चिम के विमेन्स लिब से शुरू होकर लिव इन रिलेशन पर भी वह रुकने का नाम नहीं लेती। कितनी चिंता है पुरुष को स्त्री के अधिकारों की, जिसके लिए वह स्त्री के कंधे से कंधा मिलाकर उसे एक नई पहचान दिलाना चाहता है। उसे अपने पांवों पर खड़ा होते देखना चाहता है।

विमर्श तो विमर्श है। अगर स्त्री विमर्श की चिंता पुरुष कर रहा है तो पुरुष विमर्श की चिंता कौन करे। नारी अगर कोमल है तो पुरुष कठोर। उसे मर्द कहो तो उसका सीना फूल जाता है और नामर्द कहो, तो चहरा उतर जाता है। मातृत्व अगर नारी की पहचान है तो पितृत्व पुरुष की अस्मिता। किसी भी महिला को बांझ अथवा डायन कहना उसकी अस्मिता पर चोट पहुंचाना है। इस पर कानून कितना सजग है, इस पर भी विमर्श जरूरी है।।

एक सनातन शब्द हमारे प्रयोग में अक्सर आता है जिसे पुरुषार्थ कहते हैं। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष को ही पुरुषार्थ कहा गया है। यहां पुरुषार्थ का अर्थ अथवा मतलब मानव मात्र के कर्तव्य से है। खूब लड़ी मर्दानी, जब हम कहते हैं तब भी उसकी तुलना मर्द से ही तो करते हैं। अंग्रेजी में आप चाहें तो उसे manly कह सकते हैं।

काश हम स्त्री विमर्श और पुरुष विमर्श से ऊपर उठकर सिर्फ विचार विमर्श करें। स्वस्थ संवाद हमें खेमेबाजी से बचाता है।

विचार विमर्श पत्नी बच्चों और बड़े बूढ़ों के साथ ही सार्थक होता है, जहां बदलते समय के साथ संस्कार और मान्यताओं में बदलाव भी लाया जा सकता है। गृहस्थी की गाड़ी भी दो पहियों पर ही चलती है। परिवार से ही समाज बनता है और समाज से ही देश। हमारा साहित्य आज भी समाज का ही दर्पण है इसे स्त्री और पुरुष के विमर्श से बचाकर रखें। आइए, विचार विमर्श करें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 73 – देश-परदेश – मौसम के रंग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 73 ☆ देश-परदेश – मौसम के रंग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

गिरगिट को रंग बदलने में हमेशा प्रथम श्रेणी में गिना जाता था। कुछ वर्षों से भारतीय राजनेताओं ने गिरगिट से उसका ये खिताब अपने नाम कर लिया हैं।

मौसम भी अपने रंग दिखाने में अग्रणी रहता हैं। मानव जाति ने प्रकृति से पंगा ले लिया तो प्रकृति भी मौसम के माध्यम से अपने रंग बदलने लगी हैं।

अब पहले जैसे मौसम नहीं रहता है, ऐसा विगत कुछ वर्षों से हमारे सयाने सुनाते आ रहे हैं। अब प्रकृति की संपदा वनस्पति, जल और नभ में विष भरेंगे तो प्रकृति भी बदला तो लेती रहेगी।

देसी हिसाब से होली तक ठंडक रहती है, लेकिन मौसम को मानने का  हमारा पैमाना अलग अलग रहता हैं। गीजर के गर्म पानी का उपयोग तो अभी करते रहेंगे, लेकिन पंखे, एसी जैसे नकली ठंडक देने वाले यंत्रों का प्रयोग भी आरंभ कर चुके हैं। घर में गीजर सुविधा बंद करने पर ही पंखे चालू होने चाइए।

आज हमारे पड़ोसी शर्मा जी डॉक्टर के यहां से दवा लेकर तीन घंटे समय लगा कर आए, डॉक्टर और केमिस्ट का तो सीजन चल रहा हैं। बच्चों की शिकयत करते हुए बोले खाने के टेबल पर खाते हुए बच्चे पंखा चला देते है, उसी की वजह से आज समय, स्वास्थ्य और धन की हानि हुई।

शर्मा जी, चर्चा करते हुए  पूछने लगे इन सब से कैसे बचना चाइए। हमे अपने पिताश्री जी की याद आ गई, वो प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त छूटी के दिन घर के एक मात्र पंखे पर पुरानी अख़बार से लपेट कर उसके उपयोग को बाधित कर दिया करते थे। 13 अप्रैल (वैशाखी) के दिन अखबार को पंखों से हटा कर गर्मी  की घोषणा की जाती थी।

हमारे एक परिचित ने कमरे में लगे हुए एसी के ऊपर भी कपड़े के कवर से ढांक दिया है, ऐसे में एसी भी सुरक्षित और उपयोग भी बंद हो गया। स्वास्थ्य और बिजली दोनो की बचत भी हो गई।

अनुशासन/ नियम का पालन करने के लिए कुछ सख्त कदम लेने पड़ते हैं।

“भय बिनु होय ना प्रीत”

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # 2 ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

☆ कहाँ गए वे लोग # 2 ☆

डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

(24.10.38- 27.02.24)

यादों में सुमित्र जी

स्वयं की यश-कीर्ति बढ़ाने, स्वयं को स्थापित करने, पुरस्कार-सम्मान प्राप्त करने के प्रयत्न में तो सभी लगे रहते हैं किंतु अपने मित्रों को, आने वाली पीढ़ी को निःस्वार्थ प्रोत्साहित करने, उनके कार्य में सुधार करने, उनको उचित मार्गदर्शन देने के लिए अपना समय और शक्ति खर्च करने वाले लोग बिरले ही होते हैं। वरिष्ठ शिक्षाविद्, पत्रकार, साहित्यकार डॉ.राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ऐसे ही बिरले लोगों में से एक थे। डॉ.”सुमित्र” ने श्रम और साधना से न सिर्फ स्वयं “सिद्धि” प्राप्त की वरन प्रेरणा और मार्गदर्शन देकर न जाने कितने लोगों को गद्य-पद्य लेखन में पारंगत कर प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचाया। मुझे याद है जब मैं कक्षा दसवीं का छात्र था तब एक कविता लिखकर उसे प्रकाशित कराने नवीन दुनिया प्रेस गया था। “सुमित्र जी” ने मेरी कविता प्रकाशित कर मुझे और और लिखने की प्रेरणा दी थी। 50 वर्ष पूर्व “सुमित्र जी” से वह मेरा पहला परिचय था। उन दिनों और उसके बाद भी सुमित्र जी के पास पहुँच कर उनका समय बर्बाद करने वाला मैं अकेला नहीं था, मुझ जैसे अनेक लोग थे, किन्तु सुमित्र जी सबसे बहुत आत्मीयता से मिलते उन्हें पर्याप्त समय देते। मुझे लगता है कि यदि सुमित्र जी स्वार्थी होते, उन्होंने नई पीढ़ी को प्रोत्साहित करने में अपने जीवन का कीमती समय खर्च न करके उसका उपयोग सिर्फ  स्वयं के लिए किया होता तो शायद उन्होंने लिखने-पढ़ने का जितना काम अब तक किया है उससे कहीं दस गुना ज्यादा कर लिया होता, किन्तु वे ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि वे “सुमित्र” हैं और अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो सम्भवतः इतनी संख्या में पढ़ने-लिखने वाले लोग तैयार न होते। साहित्यकारों की नई पीढ़ी तैयार करने में जितना योगदान सुमित्र जी का है उतना उनके समकालीन साहित्यकारों में शायद ही किसी का हो।

हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, पत्रकारिता एवं शिक्षण में पत्रोपाधि प्राप्त करके सुमित्र जी ने पी.एच डी. की उपाधि प्राप्त की। डॉ सुमित्र जी ने अपना जीवन स्कूल शिक्षक के रूप में प्रारम्भ किया फिर खालसा कॉलेज में अध्यापन किया। उन्होंने दैनिक नवीन दुनिया में संपादन कार्य कर पत्रकारिता में यश-कीर्ति प्राप्त की। वे दैनिक जयलोक के सलाहकार संपादक थे, पत्रिका “सनाढ्य संगम” के परामर्शदाता थे। उन्होंने अपने संपादन से अनेक पुस्तकों-स्मारिकाओं को स्मरणीय-संग्रहणीय बना दिया। वे शासन द्वारा अधिमान्य वरिष्ठ पत्रकार माने जाते थे। डॉ.सुमित्र ने अनेक छात्र-छात्राओं को शोध कार्य हेतु सहयोग एवं परामर्श प्रदान किया।

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त वि वि के अकादमिक सलाहकार एवं कोयला व खान मंत्रालय हिंदी सलाहकार समिति तथा आकाशवाणी सलाहकार समिति के पूर्व सदस्य डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था “मित्रसंघ” के संस्थापक सदस्य भी रहे हैं उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में मित्रसंघ ने बहुत यश कमाया था। देश भर की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में डॉ.सुमित्र की सैकड़ों गद्य-पद्य रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। उनकी रचनाओं, आलेखों, रेडियो रूपकों का प्रसारण आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से  जब-तब होता रहता था। डॉ. सुमित्र की संभावनाओं की फसल, यादों के नागपाश (काव्य संकलन), बढ़त जात उजियारो (बुन्देली काव्य), खूंटे से बंधी गाय-गाय से बंधी स्त्री (व्यंग्य संग्रह) सहित काव्य, कथा, चिंतन परक गद्य निबंध, रेडियो रूपक, व्यंग्य एवं उपन्यास सहित 40 से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। भारत भारती, श्रेष्ठ गीतकार एवं शंकराचार्य पत्रकारिता पुरस्कार से सम्मानित-अलंकृत डॉ.सुमित्र को श्रेष्ठ साहित्य सृजन पर साहित्य दिवाकर, साहित्य मनीषी, साहित्य श्री, साहित्य भूषण, साहित्य महोपाध्याय, पत्रकार प्रवर, विद्यासागर (डी.लिट्.), व्याख्यान विशारद, हिंदी रत्न, साहित्य प्रवीण, साहित्य शिरोमणि, साहित्य सुधाकर आदि सम्मान/ उपाधियां प्राप्त हो चुकी हैं। सुमित्र जी ने साहित्य समारोहों में शामिल होने न्यूयार्क (अमेरिका), इंग्लैंड, रूस आदि देशों की यात्राएं कीं थीं और सम्मानित होकर नगर का गौरव बढ़ाया। अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने डॉ. सुमित्र के व्यक्तित्व-कृतित्व पर आलेख प्रकाशित किये गये हैं। देश के अनेक छोटे-बड़े नगरों में उन्हें सम्मानित-अलंकृत किया गया था। वे पाथेय संस्था और पाथेय प्रकाशन के संस्थापक-निदेशक रहे हैं। उल्लेखनीय है कि पाथेय द्वारा अब तक स्थानीय एवं देश-प्रदेश के साहित्यकारों की 700 से अधिक कृतियों का प्रकाशन किया जा चुका है जो एक कीर्तिमान है। डॉ.राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी की धर्म पत्नी स्मृति शेष डॉ.गायत्री तिवारी समर्पित शिक्षिका और श्रेष्ठ कथाकार थीं। उनके सुपुत्र डॉ. हर्ष तिवारी  अपने यू ट्यूब चैनल “डायनेमिक संवाद” के माध्यम से साहित्य, कला, संस्कृति और सेवा में रत लोगों को प्रभावशाली ढंग से समाज के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं।

अपने सदव्यवहार, आशीष वचनों, शुभकामनाओं और सहयोग से लोगों के ह्रदय में बसने वाले डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी हम सबको छोड़कर 27 फरवरी को अनंत यात्रा की तरफ चले गए। ईश्वर अपने चरणों में उनको स्थान दे। विनम्र श्रद्धांजलि….

© प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # 3 ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

श्री यशोवर्धन पाठक

 

☆ कहाँ गए वे लोग # 3 ☆

डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री यशोवर्धन पाठक

(24.10.38- 27.02.24)

यादों में सुमित्र जी

आज जब मैं अपने अजातशत्रु अग्रज सुमित्र जी को शब्दों के माध्यम से अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूं तो मेरे मानस पटल पर  मेरी पांच दशक की साहित्यिक यात्रा की वे सारी मधुर स्मृतियां जीवंत हो उठीं हैं जो मेरे स्मृति कोष में अमूल्य धरोहर बन गई हैं। इस सुदीर्घ यात्रा में वे  हमेशा मेरा संबल बने रहे। संरक्षक, दिशा दर्शक और मार्ग दर्शक के ‌रूप में मुझे हमेशा अपने सिर पर उनका वरदहस्त होने का अहसास होता रहा। उन्होंने मुझे न तो कभी थकने दिया और रुकने दिया, निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहे। मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं नहीं है कि मैं अपनी पांच दशक की साहित्यिक यात्रा में आज जिस मुकाम पर पहुंच सका हूं, सुमित्रजी  के आशीर्वाद के बिना मैं उसकी  कल्पना भी नहीं कर सकता था। मेरे स्मृति कोष की किताब के हर पृष्ठ पर सुमित्रजी के अमिट हस्ताक्षर हैं।

सुमित्रजी मेरे पूज्य पिताजी स्व. पं.भगवती प्रसाद पाठक के बहुत बड़े प्रशंसक थे। पिताजी के साथ शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्रों में पिताजी के योगदान ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था। कालांतर में स्थानीय नवीन दुनिया समाचार पत्र में साहित्य संपादक के रूप में सुमित्रजी ने मेरे अग्रज हर्षवर्धन, सर्वदमन और प्रियदर्शन जी के मार्गदर्शक सहयोगी की भूमिका का निर्वाह किया। इसी अवधि में मेरे जीवन में वह दुर्लभ क्षण आया जब मुझे उन्होंने जीवन भर के लिए अपने मोहपाश में जकड़ लिया। 1977 में अपने अनुजवत् मित्र  राजेश पाठक प्रवीण  के साथ मिलकर जब मैंने ‘उदित लेखक संघ’ संस्था की नींव रखी तो सुमित्रजी जी ही मुख्य परामर्शदाता और मार्गदर्शक थे। इस संस्था का प्रथम आयोजन स्थानीय जानकीरमण महाविद्यालय के सभागार में हुआ था जिसमें विशिष्ट अतिथि के रूप में हम लोगों ने स्व हरिकृष्ण त्रिपाठी और सुमित्रजी को आमंत्रित किया था। उस अविस्मरणीय  ऐतिहासिक आयोजन से ही राजेश पाठक प्रवीण ने कार्यक्रम संचालन के क्षेत्र में अपना पहला कदम रखा और आज एक कुशल संचालक के रूप में उनकी ख्याति इस महादेश की सीमाओं को भी पार कर चुकी है। राजेश पाठक का कुशल मंच संचालन आज हर साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजन की सफलता की गारंटी बन चुका है। मेरे समान ही राजेश पाठक प्रवीण भी यह मानते हैं कि आज वे जिस मुकाम पर हैं वहां तक पहुंचने में सुमित्रजी का प्रोत्साहन और मार्गदर्शन हमेशा उनका संबल बना है।

सुमित्रजी तपस्वी, मनस्वी, यशस्वी साहित्यकार थे। उन्होंने चालीस से अधिक कालजयी कृतियों का सृजन किया। उन्हें उनकी सुदीर्घ साहित्य साधना के लिए देश विदेश में अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से विभूषित किया गया। संस्कारधानी के बहुसंख्य साहित्यकारों की कृतियों के लिए आशीर्वचन और भूमिकाएं लिखकर सुमित्रजी ने उन्हें गौरवान्वित किया। किसी भी पुस्तक के लिए सुमित्रजी की कलम से लिखी गई भूमिका उस पुस्तक पर सुमित्रजी की मुहर मानी जाती थी। सुमित्रजी की मुहर मतलब उस पुस्तक की सफलता की गारंटी। लगभग दो दशक पूर्व प्रकाशित मेरे प्रथम व्यंग्य संग्रह ‘ जांच पड़ताल ‘ की सफलता भी सुमित्रजी की मुहर ने पहले ही सुनिश्चित कर दी थी। सुमित्रजी लंबे समय तक हिंदी पत्रकारिता से जुड़े रहे। संस्कारधानी से प्रकाशित सांध्य दैनिक जयलोक के संपादक के रूप में सुमित्रजी ने हिंदी पत्रकारिता को नयी दिशा प्रदान की। जबलपुर जिला पत्रकार संघ में भी उन्होंने महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का  हुए कुशलता पूर्वक निर्वहन किया। वास्तविक अर्थों में सुमित्रजी अपने आप में एक संपूर्ण संस्था थे जिसके अंदर संवेदनशील कवि, विद्वान लेखक, सजग पत्रकार, शिक्षाविद, प्रखर वक्ता आदि सब एक साथ समाए हुए थे।

सुमित्रजी  सैकड़ों साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं के संरक्षण और मार्गदर्शक और नयी पीढ़ी के साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्रोत  थे। संस्कारधानी में कला साहित्य की अनूठी संस्था पाथेय कला अकादमी के संस्थापक थे। सुमित्रजी साहित्य जगत का वट वृक्ष थे जिसकी शाखाएं दूर दूर तक फैली हुई थीं। उनका अपना एक युग था। सुमित्रजी के देहावसान ने उस युग का अवसान कर दिया है। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि सुमित्रजी साहित्य जगत में एक ऐसा शून्य छोड़कर  गए हैं  जिसे  सुमित्रजी ही पुनर्जन्म लेकर भर सकते हैं।

© श्री यशोवर्धन पाठक

संपर्क – डॉ. मिली गुहा हॉस्पिटल के पीछे, गुप्तेश्वर, जबलपुर, फोन – 0761-2341338, 9407059752

संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 229 – सदाहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 229 सदाहरी ?

किसी आयोजन से लौटा हूँ। हाथ में आयोजन में मिला पुष्पगुच्छ है। पुष्पगुच्छ घर में नियत स्थान पर रख देता हूँ।

दैनिक आपाधापी में ध्यान ही नहीं रहा और तीन दिन बीत गए। चौथे दिन गुच्छ पर दृष्टि पड़ी। गुच्छ लगभग सूख चुका है। देखता हूँ कि छोटे-छोटे श्वेत पुष्पों के समूह के बीचो-बीच कुछ गुलाब फँसा कर रखे गए थे। वे पूरी तरह पुष्पित हुए बिना ही सूखने की कगार पर हैं। पुष्पों को एक जगह एक आकार में टिकाए रखने के लिए कसकर टेप चिपकाया गया है। टेप के बंधन से मुक्त कर गुच्छ के पुष्पों को एक छोटे खाली गमले में रखकर थोड़ा जल छिड़कता हूँ। खुली हवा में साँस लेने के साथ धूप और जल मिलने से संभवत: उनका जीवन दो-तीन दिन और बढ़ जाए।

विचार शृंखला यही से आरंभ हुई। कितने लोगों का जीवन प्रतिकूलता में ही बीत जाता है। उनके बंधन भी इस टेप की तरह उन्हें बांधे रखते हैं। इनमें थोपे हुए, मानसिक, वैचारिक सभी प्रकार के बंधन होते हैं। स्त्री, पुरुष दोनों इस प्रतिकूलता के शिकार हैं। तथापि अन्यान्य  कारणों से स्त्रियों को प्रतिकूलता का दंश अधिक भोगना पड़ता है।

स्त्री मायके की माटी से निकालकर ससुराल की माटी में रोपी जाने वाली बेल है। अधिकांश समय नए  स्थान, नई  परिस्थितियों, नए क्षेत्र की माटी के तत्वों से संतुलन बैठाने का समय दिए बिना ही बेल से जड़ें जमाने और पल्लवित होते रहने की अपेक्षा कर ली जाती है। जबकि बहुधा उसकी जड़ें मिट्टी की तह तक पहुँच ही नहीं पातीं। पुष्पगुच्छ के गुलाब की तरह उसका विकास रुक जाता है।

दैनिक जीवन में ऐसी अनेक मुरझाई बेलों से आपका भी सामना हुआ होगा। एक ऐसी वरिष्ठ महिला मिलीं जिन्हें जीवन के छह दशक देख लेने के बाद भी सलवार-कुर्ता ना पहन सकने की कसक थी। उनके घोर रुढ़िवादी परिवार में इसकी अनुमति नहीं थी। अब उनकी बहू  इच्छित वस्त्रों में रहती है पर वे जाने-अनजाने एक मानसिक बंधन स्वयं पर लाद चुकी हैं। स्वयं ही उससे मुक्त नहीं हो पा रहीं पर  भीतर मुरझाई हुई इच्छा अब भी साँस ले रही है। स्त्रियों के संदर्भ को ही आगे बढ़ाएँ तो संभव है कि किसी स्त्री के मायके में भोजन में मिर्च- मसाला न के बराबर डाला जाता रहा हो। ससुराल में मिर्च मसाले के बिना भोजन की कल्पना ही नहीं की जाती। ऐसे में पहले कुछ महीने तो उसके लिए भोजन भी दूभर हो जाता है।

अपना परिवार छोड़कर एक नए परिवार में आई अकेली महिला की पसंद-नापसंद का सम्मान करना नए परिवार का दायित्व होता है। प्राय: होता उल्टा है और नए परिजनों की सारे आदतों का सम्मान करने का बोझ नवेली पर डाल दिया जाता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्त्रियाँ निरंतर संघर्ष करती दिखाई देती है। पारिवारिक दायित्वों के चलते अनेक बार वे नौकरी में पदोन्नति को ठुकरा देती हैं ताकि स्थानांतरण ना हो और परिवार बंधा रह सके।

कंटकाकीर्ण पथ पर चलती स्त्रियों के लिए सुगम पगडंडी बनाने में हाथ बँटाइए। पुष्पित- पल्लवित होने के लिए उन्हें उर्वरा माटी मुहैया कराइए। जिसे दूसरे घर से लाए हैं, उसे आपके घर की होने, इस घर को अपना बनाने के लिए समय दीजिए।

स्त्रियाँ सदाहरी बेल हैं। सृष्टि में मनुष्य प्रजाति के सातत्य का बीड़ा उन्होंने उठा रखा है। इस सप्ताह महिला दिवस भी है। भारी-भरकम शाब्दिक जंजालों से बचते हुए उनका मार्ग निष्कंटक करने और उन्हें विकास के समुचित अवसर देने के लिए प्रयास करें। आइए, इन सदाहरी बेलों का सदा समुचित सम्मान करें।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 299 ⇒ झोपड़ी और झुग्गी झोपड़ी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “झोपड़ी और झुग्गी झोपड़ी।)

?अभी अभी # 299 ⇒ झोपड़ी और झुग्गी झोपड़ी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कलयुग में सतयुग उतर आया था, जब राम और कृष्ण की इस भूमि पर हर झोपड़ी के भाग जाग चुके थे, क्योंकि अयोध्या के प्रभु श्रीराम वहां पधार चुके थे।

आशाओं के दीप जल उठे थे, खूबसूरत सांझ ढल चुकी थी।

जब मन खुशियों से झूम उठता है, तो गरीब की झोपड़ी भी महल नजर आती है और अगर रब रूठे तो महलों में भी वीरानी छा जाती है। हमें पूर्ण विश्वास है कि हर भारतवासी के अच्छे दिन आ चुके हैं और हर झोपड़ी के भाग अब जाग चुके हैं, क्योंकि हमारे मन की अयोध्या में भी प्रभु श्रीराम पधार चुके हैं।।

आजकल महानगरों और स्मार्ट सिटी में कहां झोपड़ी नजर आती है। एक समय था, जब गांवों में भी कच्चे मकान होते थे, छत की जगह पतरे और कवेलू होते थे। अमीरों और रईसों के बड़े मकान होते थे, और गरीब की झोपड़ी हुआ करती थी। वैसे आज भी झोपड़ी अगर गरीबी का प्रतीक है तो महल और आलीशान बंगले अमीरी के। कुटिया तो कभी महात्माओं की हुआ करती थी, जिन्हें भी आजकल आश्रम कहा जाने लगा है।

जब से मेरे देश की धरती सोना उगलने लगी है, बड़े बड़े शहरों में तो किसान की झोपड़ी के भी भाग जाग गए हैं। हर महानगर में जहां भी पॉश कॉलोनी है, उसके आसपास आपको अवेध झुग्गी झोपड़ी भी नज़र आ ही जाएगी जिनमें आपको चौकीदार, मजदूर और कई ऐसे बेरोजगार लोग नजर आ जाएंगे जो काम की तलाश में अपना देश छोड़ शहरों में आ बसे हैं।।

अवैध बस्तियां गरीबों की तकदीर की तरह बनती बिगड़ती रहती हैं। गरीबी यहां से उठाकर वहां धर दी जाती है। कभी जिसे बुल डोजर कहते थे, आज वही जेसीबी कहलाती है। गरीबों की अवैध बस्तियों को वह उजाड़ती भी है और रईसों के नए मकानों की नींव भी वही खोदती है।

अगर झोपड़ी के भाग जगे हैं तो अवश्य झुग्गी झोपड़ी की भी तकदीर जागी होगी। गरीबों को मुफ्त राशन, मुफ्त इलाज और सस्ते मकान क्या किसी रामराज्य से कम है। अब जब अगर हर घर और हर झोपड़ी में प्रभु राम का भी आगमन हो चुका है, तो फिर इस बार किसी को आने से कौन रोक सकता है।।

वैसे भी आजकल गारंटी का जमाना है। जब नेताओं के वादे और आश्वासन, गारंटी की शक्ल ले ले, तो समझ लें रामराज्य आ गया। तैयार रहें इस नए भजन के लिए ;

मेरी झोपडी के भाग आज खुल आयेंगे, … आएंगे।

….. आएंगे, आएंगे, चार सौ सीट लाएंगे..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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