(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “काव्य शास्त्र विनोदेन…“।)
अभी अभी # 566 ⇒ काव्य शास्त्र विनोदेन.. श्री प्रदीप शर्मा
बचपन में काहे का काव्य और काहे का शास्त्र ! हाँ, विनोद और प्रमोद मेरे दो दोस्त ज़रूर थे। विनोद बड़ा पढ़ाकू और गंभीर किस्म का छात्र था। उसकी माँ ने शायद उसे कभी उसके नाम का अर्थ नहीं बतलाया होगा। प्रमोद बड़ा प्रमादी किस्म का लड़का था। स्कूल में सिर्फ सोने आता था।
बचपन में लोगों की याददाश्त बड़ी अच्छी होती है। भले ही पढ़ाई का सबक कभी याद न हुआ हो, लेकिन आज तक यह याद है कि हिस्ट्री जॉग्रफी बड़ी बेवफ़ा, रात को रटो, दिन में सफा !सितोलिया, अण्टा-पेली, खो-खो, लंगड़ी और गिल्ली-डंडा के अलावा संस्कृत की अभिनवा: पाठावलि के कुछ सुभाषित आज तक याद हैं।।
खेलते-खेलते अथवा नहाते वक्त अगर कुछ गुनगुनाते रहो तो वह अवचेतन में बैठ जाता है। फिर चाहे वह फिल्मी गाना हो, या संस्कृत का कोई सुभाषित ! ऐसा ही एक सुभाषित था –
काव्यशास्त्रविनोदन कालोगच्छति घीमताम् !
व्यसनेन तू मूर्खाणां निद्रये कलहेन वा।।
यह काव्यशास्त्र का विनोद क्या है, अब इस उम्र में जाकर समझ में आया। मूर्ख लोग व्यसन और कलह में उलझे रहते हैं, वह तो आज की राजनीति से साबित हो ही गया है, काव्यशास्त्र की चर्चा कर स्वयं को विद्वान साबित करने की कोशिश में लोग आपको बुद्धिजीवी समझने की भूल भी कर सकते हैं। मालूम है न आज की बुद्धिजीवी की परिभाषा ! इसलिए काव्यशास्त्र से भी तौबा। हम तो मूर्ख ही भले।
कैसे होते हैं ये काव्यशास्त्र के विद्वान, एक बानगी देखिये !
अच्छी फर्राटेदार अंग्रेज़ी में एक दो श्लोक संस्कृत के घुसेड़ दीजिये, संदर्भ और अर्थ तो श्रोता निकालता बैठेगा। जिसका अंग्रेज़ी और संस्कृत पर समान अधिकार हो, वह आपको हर एंगल से विद्वान ही नज़र आएगा।।
एक और तरीका है, विद्वानीयत झाड़ने का ! फलां फलां की क्लिष्ट और अभिजात्य हिंदी में शेक्सपियर और कीट्स के साथ-साथ सामवेद के कुछ श्लोकों का तड़का, और नागार्जुन/धूमिल का मात्र स्मरण ही काफी है। फिलहाल उर्दू से परहेज़ करें।
साहिर और गुलज़ार तक तो ठीक है, लेकिन किसी और को कभी भूलकर भी quote न करें ! बड़ा सेक्युलर बना फिरता है।
बुद्धू बक्से को तिलांजलि दे दें। केवल ट्विटर और फेसबुक पर ही ध्यान दें। विद्वानों की विशेष रात-पाली चलती है यहाँ। रात को एक बजे गुड मॉर्निंग पोस्ट कर, तानकर सो जाते हैं और सुबह 9 बजे की चाय के साथ आपका अभिवादन स्वीकार करते हैं।।
आजकल के विद्वान उल्लू की तरह रात-भर जागते हैं, और दिन में अमेज़ॉन पर अपनी पुस्तकें बेचते हैं। समझदार इंसान कोउल्लू, कुत्ते, चौकीदार और एक विद्वान में फर्क करते आना चाहिए। वैसे आज के युग में एक विद्वान के अलावा सभी अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभा रहे हैं। आपने सुना नहीं ! काव्यशास्त्र केवल विनोद और पुरस्कार के लिए होता है …!!!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आज का दिन…“।)
अभी अभी # 565 ⇒ आज का दिन श्री प्रदीप शर्मा
आज का दिन सभी उगा नहीं, लेकिन कल, चला गया। रात अभी बाकी है, लेकिन एक नई सुबह हो ही गई। क्या एक रात में वक्त बदल जाता है, तारीख बदल जाती है, बरस बदल जाता है। अगर नहीं बदलता, तो बस इंसान नहीं बदलता।
आज के दिवाकर के उदय होने के पूर्व ही, कल सोशल मीडिया पर दिनकर चले, और खूब चले ! दिनकर चले गए, उनकी कविता चलती रही। विचार एक धारा है, विचार में धार होती है, चाकू में धार होती है, तलवार में धार होती है। चाकू से सब्ज़ी काटी जाती है, तलवार से इंसानों को भी गाजर मूली की तरह काटा जाता था। इसलिए बंदर के हाथ में आजकल तलवार नहीं दी जाती, उसे एक विचारधारा पकड़ा दी जाती है। वह जीवन भर उसकी ही धार तेज करता रहता है।।
यह आज तो मेरा है, पर यह बरस मेरा नहीं ! केवल दिनकर का ही नहीं, कइयों का नया वर्ष, चैत्र वर्ष प्रतिपदा, २१ जनवरी से २१ फरवरी के बीच हिन्दू कैलेंडर के अनुसार, गुड़ी पड़वा से शुरू होता है। हम हर जगह तेरा मेरा तो कर सकते हैं, अपनी मान्यता अनुसार नया वर्ष भी निर्धारित कर सकते हैं लेकिन वक्त को नहीं बदल सकते।
पुरुषार्थ क्या नहीं कर सकता। क्या आपने देखा नहीं, पहले कैसा वक्त था और हमने वक्त के पहिए बदल दिए, वक्त की चाल बदल दी, जंग लगी तलवार बदल दी, ढाल बदल दी। बस नहीं बदल पाए तो दुनिया की तकदीर नहीं बदल पाए। कोरोना काल की कसैली यादें आज भी दिल को झकझोर देती हैं। वक्त सहमा सहमा सा गुजरता रहा। कारवां अभी गुजरा नहीं, गुबार के बीच केवल वक्त गुजरा है।।
शुभ दिन का इंतज़ार नहीं किया करते। अगर बहारें मुहूर्त देखती तो चौघड़िए आड़े आ जाते। फूल को रोज खिलना है। कुदरत का हर पल, हर लम्हा, एक मुहूर्त है। प्रकृति भी अपने उत्सव मनाती है। उसके लिए पतझड़ भी एक उत्सव है। उसे आप कायाकल्प भी कह सकते हैं।
हमें भी बहारों का इंतज़ार है।
हमारा भी कायाकल्प होना है। क्यों न आज ही वह शुभ घड़ी साबित हो। शुभ संकल्प के लिए मुहूर्त नहीं तलाशे जाते, सिर्फ कृत – संकल्प होने से ही काम चल जाता है। मत मानें दिनकर की तरह आप भी इस आज के दिन को वर्ष का पहला दिन, लेकिन एक अच्छा दिन तो मान ही सकते हैं। सूरज अभी उगा नहीं,
अगर हमारे इरादें नेक हैं तो उम्मीद का सूरज भी आज ही निकलेगा जो कल से बेहतर होगा। आज का आपका दिन शुभ हो। वर्ष २०२५ मानवता के लिए मंगलमय हो।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचारों की गति…“।)
अभी अभी # 564 ⇒ विचारों की गति श्री प्रदीप शर्मा
जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि, जिसने भी कहा हो, सोच समझकर ही कहा होगा। सभी जानते हैं, रॉकेट की तरह कवि भी हवा में ही उड़ते हैं। वैज्ञानिकों ने प्रकाश और ध्वनि की गति को तो आसानी से जान लिया है, किसी ने शायद विचारों की गति को भी नाप लिया हो।
इस ब्रह्माण्ड की खगोलीय गणना इतनी आसान नहीं। प्रकाश और ध्वनि को इंच टैप से नापने से तो रहे। सूर्य के प्रकाश को हम तक पहुंचने में अगर 8.40 आठ मिनिट और चालीस सेकंड लगते हैं तो चंद्रमा का प्रकाश हमारी पृथ्वी तक मात्र 1.30 सेकंड में ही पहुंच जाता है।।
विचारों का क्या है ! सितारों के आगे जहान और भी है। आओ हुजूर तुमको सितारों में ले चलूं !
कितने प्रकाश वर्ष लगेंगे, किस उड़न खटोले अथवा पुष्पक विमान में बैठकर जाओगे, कुछ पता नहीं। अगर ऐसे विचार ही हमारे मन में नहीं आते, तो क्या हम इस तरह हवा में बातें कर रहे होते।
एक सुर होता है, जिसकी साधना परमेश्वर की साधना होती है। उसके बारे में एक सुर साधक भी सिर्फ यही कह पाया है ;
सुर की गति मैं क्या जानूं।
एक भजन करना जानूं।।
सुर में शब्द है, ध्वनि है। प्रकाश में अगर किरणें हैं तो ध्वनि में तरंगें हैं। जब रसोईघर में कोई बर्तन अचानक फर्श पर गिर जाता है, तो उसकी आवाज इतनी आसानी से शांत नहीं होती। क्या ध्वनि की तरंगों के साथ आवाज (साउंड) भी शांत हो जाती है। सुर की तरह ही मंत्र की भी साधना है।
शब्द अक्षरों का समूह है।
अक्षर को परम ब्रह्म माना गया है। जिसका कभी क्षरण अर्थात् क्षय ना हो वही तो अक्षर है। शब्द भी कहां मरता है। मंदिर में जब एक घण्टा बजता है तो उसकी ध्वनि को शांत होने में समय लगता है।।
किसी गीत की जब धुन बनाई जाती है, जब एकांत में बैठकर कोई गीत अथवा रचना का सृजन होता है, तब सबसे पहले हमारा मन एकाग्र होता है। मन का एकाग्र होना ही धारणा है, जो ध्यान का पहला चरण है। हमें कभी लगता है, कुछ हमारे अंदर से आ रहा है और कुछ कुछ ऊपर से भी उतर रहा है। यह उतरना ही वास्तविक सृजन है, ध्यान धारणा और समाधि है।
मतलब हमने यूं ही हवा में ही नहीं कहा था, सितारों के आगे जहान और भी है। मत मानिये आप शनि की साढ़े साती को, राहु और केतु के दुष्प्रभाव को, अपने विचारों के दुष्प्रभाव को तो मानिये। हमारी बुद्धि भ्रष्ट क्यों होती है। क्यों कभी कभी हमारी अक्ल घास चरने जाती है। और क्यों कभी हमारा मन किसी अच्छी फिल्मी धुन पर नाच उठता है।।
एक और हमारे विचारों की गति है और दूसरी ओर मन की गति। मन संकल्प विकल्प करता रहता है।
मन में भेद बुद्धि होती है। अगर भेद बुद्धि ना हो तो हम अच्छे बुरे, लाभ हानि और अपने पराए में भेद ही नहीं कर पाएं। हमारी ज्ञानेंद्रियां ही तो यह तय करती हैं, हम क्या देखें, क्या सुनें, क्या बोलें और क्या खाएं।
एक हमारी मति भी होती है, जिसे आप बुद्धि भी कह सकते हैं। जब बुद्धि भ्रष्ट होती है तो रावण की भी मति मारी जाती है। हमारी मति ही हमारे विचारों को सही दिशा देती है। अगर विचारों को सही दिशा और गति मिल जाए तो वे आसमान छू लें।।
हमारे विचारों को सही दिशा और गति देने के लिए ही तो अन्य लोकों की रचना हुई है। गंधर्व लोक के कारण सुर, स्वर और संगीत कायम है, जिन्हें स्वर्ग नहीं जाना उनके लिए वैकुंठ लोक भी है। गोलोक और पितृलोक का भी ऑप्शन है। विचारों का मामला है। खिचड़ी अपनी ही है जितना चाहें घी डाल लें। बस इतना जरूर जान लें, समय और विचारों का सदुपयोग कर लें, क्योंकि ये जिन्दगी ना मिलेगी दोबारा ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रतिभा और पलायन…“।)
अभी अभी # 563 ⇒ प्रतिभा और पलायन श्री प्रदीप शर्मा
BRAIN DRAIN
यह समस्या आज की नहीं है, आज से ६० वर्ष पुरानी है, जब शिक्षाविद् और देश के प्रबुद्ध चिंतक विचारक युवा प्रतिभाओं की ब्रेन ड्रेन समस्या से अत्यधिक चिंतित थे, और उनकी सारी चिंता वह हम कॉलेज के फुर्सती छात्रों पर छोड़ दिया करते थे। निबंध और वाद विवाद प्रतियोगिताओं में एक ही विषय, “प्रतिभाओं का पलायन, यानी ब्रेन ड्रेन”।
हम लोगों में तब इतना ब्रेन तो था कि हम ड्रेन का मतलब आसानी से समझ सकें। तब हमने स्वच्छ भारत का सपना नहीं देखा था, क्योंकि हमारा वास्ता शहर की खुली नालियों से अक्सर पड़ा करता था, जिसे आम भाषा में गटर कहते थे। हमारे देश की प्रतिभाओं का दोहन विदेशों में हो और हम देखते रहें।।
परिसंवाद में इस विषय पर पक्ष और विपक्ष दोनों अपने अपने विचार रखते और निर्णायक महोदय बाद में अपने अमूल्य विचार रखते हुए किसी वक्ता को विजयी घोषित करते। सबको समस्या की जड़ में भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, नौकरशाही और राजनीति ही नजर आती।
तब वैसे भी विदेश जाता ही कौन था, सिर्फ डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और उद्योगपति। मुझे अच्छी तरह याद है, इक्के दुक्के हमारे अंग्रेजी के प्रोफेसर चंदेल सर जैसे शिक्षाविद् जब रोटरी क्लब के सौजन्य से विदेश जाते थे, तो उनकी तस्वीर अखबारों में छपती थी।
नईदुनिया में आसानी से यह शीर्षक देखा जा सकता था, विदेश और उस व्यक्ति की तस्वीर सहित जानकारी। आप उच्च शिक्षा के लिए विदेश प्रस्थान कर रहे हैं।।
लेकिन हमें तो आज कहीं भी प्रतिभा के पलायन अथवा ब्रेन ड्रेन जैसी परिस्थिति नजर नहीं आती। क्योंकि हमारा आधा देश तो विदेश में ही बसा हुआ हैं। जिस पुराने दोस्त को देखो, उसके बच्चे विदेश में, और हमारे अधिकांश मित्र भी आजकल विदेशों में ही रहते हैं और कभी कभी अपने घरबार और संपत्ति की देखरेख करने चले आते हैं। बच्चे भी जब आते हैं, शहर के आसपास कुछ इन्वेस्ट करके ही जाते हैं। हम इसे ब्रेन ड्रेन नहीं मानते, यह तो अपनी प्रतिभा का सदुपयोग कर विदेशी मुद्रा भारत में लाने का एक सराहनीय प्रयास ही है न।
प्रतिभा के पलायन जैसे शब्द से हम घोर असहमति प्रकट करते हैं। स्वामी विवेकानंद जैसी कई प्रतिभाएं समय समय पर विदेश गई और संपूर्ण विश्व को हमारे भारत का लोहा मनवा कर ही वापिस आई। ओशो और कृष्णमूर्ति ने तो पूरी दुनिया में ही अपना डंका बजाया। आज भारतीय प्रतिभा के बिना दुनिया का पत्ता नहीं हिल सकता। क्या माइक्रोसॉफ्ट और क्या गूगल। विदेशी कंपनियां हमारे आयआयटी के प्रतिभाशाली छात्रों को करोड़ों के पैकेज पर उठाकर ले जाती हैं, यह हमारे देश के लिए गर्व की बात है।।
भारत विश्व गुरु, फिर भी चिंता तो है ही भाई। धर्म और अध्यात्म की दूकान भी तो विदेशों में ही अधिक अच्छी चलती है। और इधर हम जैसे कुछ वोकल फॉर लोकल के लिए प्रयासरत हैं।
अमेज़न और बिग बास्केट वाले आज हमारे घर घर चक्कर लगा रहे हैं। यानी देखा जाए तो गंगा उल्टी ही बह रही है। प्रतिभा का क्या है, वह तो जहां है, वहां दूध ही नहीं, घी मक्खन भी देगी।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – “ केन बेतवा लिंक परियोजना बहुउपयोगी…” ।)
पानी जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है. सारी सभ्यतायें नैसर्गिक जल स्रोतो के तटो पर ही विकसित हुई हैं. बढ़ती आबादी के दबाव में, तथा ओद्योगिकीकरण से पानी की मांग बढ़ती ही जा रही है. इसलिये भूजल का अंधाधुंध दोहन हो रहा है और परिणाम स्वरूप जमीन के अंदर पानी के स्तर में लगातार गिरावट होती जा रही है. नदियो पर हर संभावित प्राकृतिक स्थल पर बांध बनाये गये हैं. बांधो की ऊंचाई को लेकर अनेक जन आंदोलन हमने देखे हैं. बांधो के दुष्परिणाम भी हुये, जंगल डूब में आते चले गये और गांवो का विस्थापन हुआ. बढ़ती पानी की मांग के चलते जलाशयों के बंड रेजिंग के प्रोजेक्ट जब तब बनाये जाते हैं.
रहवासी क्षेत्रो के अंधाधुन्ध सीमेंटीकरण, पालीथिन के व्यापक उपयोग तथा कचरे के समुचित डिस्पोजल के अभाव में, हर साल तेज बारिश के समय या बादल फटने की प्राकृतिक घटनाओ से शहर, सड़कें बस्तियां लगातार डूब में आने की घटनायें बढ़ी हैं. विगत वर्षो में चेन्नई, केरल की बाढ़ हम भूले भी न थे कि इस साल पटना व अन्य तटीय नगरो में गंगा जी घुस आई. मध्यप्रदेश के गांधी सागर बांध का पावर हाउस समय रहते बांध के पानी की निकासी के अभाव में डूब गया.
बाढ़ की इन समस्याओ के तकनीकी समाधान क्या हैं?
नदियो को जोड़ने के प्रोजेक्टस की परिकल्पना स्व अटल बिहारी बाजपेई जी ने की थी, जिसका क्रियान्वयन अब मोदी जी ने प्रारंभ किया है। केन बेतवा लिंक से बड़ी तब्दीली देखने मिलेगी ।अन्य ढेरों इस तरह के प्रोजेक्ट अब तक धनाभाव में मैदानी हकीकत नही बन पाये हैं. उनमें नहरें बनाकर बेसिन चेंज करने होंगे, पहाड़ो की कटिंग, सुरंगे बनानी पड़ेंगी, ये सारे प्रोजेक्टस् बेहद खर्चीले हैं, और फिलहाल सरकारो के पास इतनी अकूत राशि नही है.
बाढ़ की त्रासदी के इंजीनियरिंग समाधान क्या हो सकते हैं ?
अब समय आ गया है कि जलाशयो, वाटर बाडीज, शहरो के पास नदियो को ऊंचा नही गहरा किया जावे. यांत्रिक सुविधाओ व तकनीकी रूप से विगत दो दशको में हम इतने संपन्न हो चुके हैं कि समुद्र की तलहटी पर भी उत्खनन के काम हो रहे हैं. समुद्र पर पुल तक बनाये जा रहे हैं बिजली और आप्टिकल सिग्नल केबल लाइनें बिछाई जा रही है. तालाबो, जलाशयो की सफाई के लिये जहाजो पर माउंटेड ड्रिलिंग, एक्सकेवेटर, मडपम्पिंग मशीने उपलब्ध हैं. कई विशेषज्ञ कम्पनियां इस क्षेत्र में काम करने की क्षमता सम्पन्न हैं. मूलतः इस तरह के कार्य हेतु किसी जहाज या बड़ी नाव, स्टीमर पर एक फ्रेम माउंट किया जाता है जिसमें मथानी की तरह का बड़ा रिग उपकरण लगाया जाता है, जो जलाशय की तलहटी तक पहुंच कर मिट्टी को मथकर खोदता है, फिर उसे मड पम्प के जरिये जलाशय से बाहर फेंका जाता है. नदियो के ग्रीष्म काल में सूख जाने पर तो यह काम सरलता से जेसीबी मशीनो से ही किया जा सकता है. नदी और बड़े नालो मे भी नदी की ही चौड़ाई तथा लगभग एक किलोमीटर लम्बाई में चम्मच के आकार की लगभग दस से बीस मीटर की गहराई में खुदाई करके रिजरवायर बनाये जा सकते हैं. इन वाटर बाडीज में नदी के बहाव का पानी भर जायेगा, उपरी सतह से नदी का प्रवाह भी बना रहेगा जिससे पानी का आक्सीजन कंटेंट पर्याप्त रहेगा. २ से ४ वर्षो में इन रिजरवायर में धीरे धीरे सिल्ट जमा होगी जिसे इस अंतराल पर ड्रोजर के द्वारा साफ करना होगा. नदी के क्षेत्रफल में ही इस तरह तैयार जलाशय का विस्तार होने से कोई भी अतिरिक्त डूब क्षेत्र जैसी समस्या नही होगी. जलाशय के पानी को पम्प करके यथा आवश्यकता उपयोग किया जाता रहेगा.
अब जरूरी है कि अभियान चलाकर बांधो में जमा सिल्ट ही न निकाली जाये वरन जियालाजिकल एक्सपर्टस की सलाह के अनुरूप बांधो को गहरा करके उनकी जल संग्रहण क्षमता बढ़ाई जाने के लिये हर स्तर पर प्रयास किये जायें. शहरो के किनारे से होकर गुजरने वाली नदियो में ग्रीष्म काल में जल धारा सूख जाती है, हाल ही पवित्र क्षिप्रा के तट पर संपन्न उज्जैन के सिंहस्थ के लिये क्षिप्रा में नर्मदा नदी का पानी पम्प करके डालना पड़ा था. यदि क्षिप्रा की तली को गहरा करके जलाशय बना दिया जावे तो उसका पानी स्वतः ही नदी में बारहो माह संग्रहित रहा आवेगा . इस विधि से बरसात के दिनो में बाढ़ की समस्या से भी किसी हद तक नियंत्रण किया जा सकता है. इतना ही नही गिरते हुये भू जल स्तर पर भी नियंत्रण हो सकता है क्योकि गहराई में पानी संग्रहण से जमीन रिचार्ज होगी, साथ ही जब नदी में ही पानी उपलब्ध होगा तो लोग ट्यूब वेल का इस्तेमाल भी कम करेंगे. इस तरह दोहरे स्तर पर भूजल में वृद्धि होगी. नदियो व अन्य वाटर बाडीज के गहरी करण से जो मिट्टी, व अन्य सामग्री बाहर आयेगी उसका उपयोग भी भवन निर्माण, सड़क निर्माण तथा अन्य इंफ्रा स्ट्रक्चर डेवलेपमेंट में किया जा सकेगा. वर्तमान में इसके लिये पहाड़ खोदे जा रहे हैं जिससे पर्यावरण को व्यापक स्थाई नुकसान हो रहा है, क्योकि पहाड़ियो की खुदाई करके पत्थर व मुरम तो प्राप्त हो रही है पर इन पर लगे वृक्षो का विनाश हो रहा है, एवं पहाड़ियो के खत्म होते जाने से स्थानीय बादलो से होने वाली वर्षा भी प्रभावित हो रही है.
नदियो की तलहटी की खुदाई से एक और बड़ा लाभ यह होगा कि इन नदियो के भीतर छिपी खनिज संपदा का अनावरण सहज ही हो सकेगा. छत्तीसगढ़ में महानदी में स्वर्ण कण मिलते हैं, तो कावेरी के थले में प्राकृतिक गैस, इस तरह के अनेक संभावना वाले क्षेत्रो में विषेश उत्खनन भी करवाया जा सकता है.
पुरातात्विक महत्व के अनेक परिणाम भी हमें नदियो तथा जलाशयो के गहरे उत्खनन से मिल सकते हैं, क्योकि भारतीय संस्कृति में आज भी अनेक आयोजनो के अवशेष नदियो में विसर्जित कर देने की परम्परा हम पाले हुये हैं. नदियो के पुलो से गुजरते हुये जाने कितने ही सिक्के नदी में डाले जाने की आस्था जन मानस में देखने को मिलती है. निश्चित ही सदियो की बाढ़ में अपने साथ नदियां जो कुछ बहाकर ले आई होंगी उस इतिहास को अनावृत करने में नदियो के गहरी करण से बड़ा योगदान मिलेगा.
पन बिजली बनाने के लिये अवश्य ऊँचे बांधो की जरूरत बनी रहेगी, पर उसमें भी रिवर्सिबल रिजरवायर, पम्प टरबाईन टेक्नीक से पीकिंग अवर विद्युत उत्पादन को बढ़ावा देकर गहरे जलाशयो के पानी का उपयोग किया जा सकता है.
मेरे इस आमूल मौलिक विचार पर भूवैज्ञानिक, राजनेता, नगर व ग्राम स्थानीय प्रशासन, केद्र व राज्य सरकारो को तुरंत कार्य करने की जरुरत है, जिससे महाराष्ट्र जैसे सूखे से देश बच सके कि हमें पानी की ट्रेने न चलानी पड़े, बल्कि बरसात में हर क्षेत्र की नदियो में बाढ़ की तबाही मचाता जो पानी व्यर्थ बह जाता है तथा साथ में मिट्टी बहा ले जाता है वह नगर नगर में नदी के क्षेत्रफल के विस्तार में ही गहराई में साल भर संग्रहित रह सके और इन प्राकृतिक जलाशयो से उस क्षेत्र की जल आपूर्ति वर्ष भर हो सके. इन दिनों जलवायु परिवर्तन से फ्लैश फ्लड का बचाव इस तरह संभव हो सकेगा।
केन बेतवा लिंक परियोजना का जितना स्वागत किया जाए कम है, इससे रोजगार, जल प्रबंधन, ग्राउंड वाटर लेवल में वृद्धि, बाढ़ से बचाव, वर्षा जल का सदुपयोग, बेसिन चेंज से पर्यावरण नियंत्रण जैसे बड़े कार्य होंगे ।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय आलेख “इंटरनेट बधाई”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 212 ☆
🌻आलेख 🌻 इंटरनेट बधाई🌻
आधुनिक, वैज्ञानिक युग, या सोशल मीडिया युग कह लिजिये। कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सोशल मीडिया ने अपना वर्चस्व बना कर रखा हुआ है। गूगल महाधिपति ज्ञान का भंडार बांट रहा है। बधाईयों के सुंदर शब्द, पिरोये गये पुष्पहार, सजे गुलदस्ते, चाहे जैसा इमेज निकालना, यहाँ तक के कि मृत्यु श्रद्धांजलि की तस्वीरें भी अनेक दिखाई देती है।
परंतु क्या? इनमें आदमी के आत्मिय, श्रद्धा भाव शामिल हो पता है। फेसबुक फ्रेंड की भरमार, परंतु दैनिक जीवन में जब वह अकेला किसी चीज के लिए परेशान खड़ा है, तब वह केवल वही अकेला होता है।
सोशल मीडिया केवल नयन सुख है। आत्मा की संतुष्टि नहीं आपको कई उपदेश और कई ज्ञान की बातें मिलेगी परंतु कोई आपकी आत्मा को संतुष्टि के पल नही दे सकता। क्षण भर की खुशी तो पहुँचा सकता है। परन्तु जो अपनों के बीच होता है,जिसकी यादें बरसों मन को गुदगुदाती रहती है। वह न जाने कहाँ खतम हो गया।
आज घर परिवार को याद करते-करते वह भाव विभोर हो रहा था। एक समय ऐसा था कि जब पूरा परिवार इकट्ठा हो, तो पता चला कि परिवार किसे कहा जाता है।
कहाँ का सामान कहाँ कब पहुंच जाए। किसी को पता नहीं रहता था। हर बच्चे को एक साथ बिठाकर नाश्ता कराना, एक स्नान का काम तो दूसरा सबको तैयार कर दिया। कब भोजन बना और तब तक न जाने खेल-खेल में क्या हो जाता।
पता चलता था किसी के बदले किसी को दो-चार थप्पड़ ज्यादा लग गए। फिर भी किसी को कोई शिकायत नहीं। भोजन की थाली पड़ोसी के घर तक पहुँच जाती। भोजन एक साथ। बच्चों में होड़ किसी का मुँह इधर किसी का मुँह उधर। कोई किसी की थाली से खा रहा है और कोई कुछ गिर रहा, परंतु सभी खुश। दादा जी या ताऊ जी एक-एक बाइट सबको खिला देते।
घर परिवार में ऐसा समय आया कि सब कुछ नष्ट होता चला गया। सभी ज्यादा समझदार जो हो गए थे। बड़े चुपचाप और छोटों का मुँह कुछ ज्यादा खुल गया। बूढ़े माँ पिताजी की सेवा भी वही करें जो केवल सुनता है, कुछ कहता नहीं है।
और चुपचाप पैसा देता रहे। राम तो सभी बनना चाहे परंतु लक्ष्मण न बनना पड़े। बिना कमाए माँ-बाप की जायदाद मिल जाए और जो बाहर है वह केवल पैसा भेज दे।
बोलचाल आना-जाना बातचीत सब बंद। वर्षों से अलग-अलग।
परंतु जाते-जाते अंग्रेजी साल का अंतिम दिन, जैसे ही मोबाइल उठाया फेसबुक फ्रेंड रिक्वेस्ट पर अचानक नजर गई। एक नाम जो बरसों से तो अलग, परंतु हृदय के करीब होते हुए भी मीलों दूर।
संवेदना खत्म हो चुकी थी, परंतु हृदय के कोने में अब भी अपनेपन का एहसास था। मन प्रसन्नता से भर उठा। चलो आज फ्रेंड रिक्वेस्ट में नाम तो शामिल हो गया।
आत्मीय ना सही सोशल मीडिया फ्रेंड बनकर ही वह जुड़ा रहेगा, घर परिवार से। फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर वह नव वर्ष की सोशल मीडिया (इंटरनेट बधाईयाँ) शुभकामनाएँ भेज, आज बहुत खुश हो रहा था।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 114 ☆ देश-परदेश – तथाकथित टीवी के कला कार्यक्रम के निर्णायक और जमूरे ☆ श्री राकेश कुमार ☆
मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता, नग्नता और अश्लीलता का प्रदर्शन देखते, सुनते जीवन के कई दशक व्यतीत हो चुके हैं।
प्रतियोगिता मुख्य रूप से नृत्य और गायन कला में ही होती हैं। कभी कभी विभिन्न कलाओं को लेकर भी कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं।
इन कार्यक्रमों को “जमूरों” के माध्यम से चलाया जाता हैं। टीवी चैनल वालों के पास कुल आठ दस जमूरे सभी कार्यक्रम को संचालित कर सकने के काबिल हैं। कार्यक्रम गायन कला का हो या पाक कला जैसे विषय की, ये जम्मूरे सब काम कर लेते हैं। प्रतियोगियों के निर्णायकों को अपनी हाजिर जवाबी या ठिठोलेपन से दर्शकों का दिल बहलाने के लिए फूहड़ता का प्रदर्शन करते हुए ये जमूरे पाए जाते है।
इन कार्यक्रमों के निर्णायक फिल्मी पृष्ठभूमि से होते हैं।गायन और नृत्य क्षेत्र में कुछ अच्छे और मंजे हुए कलाकार भी होते हैं। अधिकतर निर्णायक शालीनता की हदों को पार कर नग्नता का प्रदर्शन करते हैं। इनमें से अधिकतर तलाक शुदा या निजी जीवन में कुछ अनैतिक कार्यों में लिप्त परिवारों से होते हैं।
हमारे बच्चे जो इन कार्यक्रमों में प्रतियोगी बनकर भाग लेते है, उनके साथ भी कार्यक्रम के निर्माता तरह तरह के निजी संबंध बनाने की झूठी कहानियां भी चलाते हैं। कभी कभी तो इन झूठी कहानियों में बच्चों के परिवार वालों को भी जबरदस्ती शामिल किया जाता हैं।
देश के करोड़ों बच्चे जो इन कार्यक्रमों को टीवी पर देखते है, क्या उस कला के बारे में ज्ञान की वृद्धि होती होगी ? सिवाय घटिया नग्न और अश्लील बातों के वो शायद ही कुछ और अर्जित कर पाते हैं।
निर्णायक जितनी घटिया हरकते करता है, उसको देश के बड़े बड़े विज्ञापन करने को भी मिल जाते हैं। बदनाम है, तो क्या हुआ, चर्चा भी तो हमारी ही होती हैं।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 271 ☆ एकोऽहम् बहुस्याम्…
शहर में ट्रैफिक सिग्नल पर बल्ब के हरा होने की प्रतीक्षा में हूँ। लाल से हरा होने, ठहराव से चलायमान स्थिति में आने के लिए संकेतक 28 सेकंड शेष दिखा रहा है। देखता हूँ कि बाईं ओर सड़क से लगभग सटकर पान की एक गुमटी है। दोपहर के भोजन के बाद किसी कार्यालय के चार-पाँच कर्मी पान, सौंफ आदि खाने के लिए निकले हैं। एक ने सिगरेट खरीदी, सुलगाई, एक कश भरा और समूह में सम्मिलित एक अपने एक मित्र से कहा, ‘ले।’ सम्बंधित व्यक्ति ने सिगरेट हाथ में ली, क्षण भर ठिठका और मित्र को सिगरेट लौटाते हुए कहा, “नहीं, आज सुबह मैंने अपनी छकुली (नन्ही बिटिया) से प्रॉमिस की है कि आज के बाद कभी सिगरेट नहीं पीऊँगा।” मैं उस व्यक्ति का चेहरा देखता रह गया जो संकल्प की आभा से दीप्त हो रहा था। बल्ब हरा हो चुका था, ठहरी हुई ऊर्जा चल पड़ी थी, ठहराव, गतिमान हो चुका था।
वस्तुत: संकल्प की शक्ति अद्वितीय है। मनुष्य इच्छाएँ तो करता है पर उनकी पूर्ति का संकल्प नहीं करता। इच्छा मिट्टी पर उकेरी लकीर है जबकि संकल्प पत्थर पर खींची रेखा है। संकल्प, जीवन के आयाम और दृष्टि बदल देता है। अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,
कह दो उनसे,
संभाल लें
मोर्चे अपने-अपने,
जो खड़े हैं
ताक़त से मेरे ख़िलाफ़,
कह दो उनसे,
बिछा लें बिसातें
अपनी-अपनी,
जो खड़े हैं
दौलत से मेरे ख़िलाफ़,
हाथ में
क़लम उठा ली है मैंने
और निकल पड़ा हूँ
अश्वमेध के लिए…!
संकल्प अपनी साक्षी में अपने आप को दिया गया वचन है। संकल्प से बहुत सारी निर्बलताएँ तजी जा सकती हैं। संकल्प से उत्थान की गाथाएँ रची जा सकती हैं।
संकल्प की सिद्धि के लिए क्रियान्वयन चाहिए। क्रियान्वयन के लिए कर्मठता चाहिए। संकल्प और तत्सम्बंधी क्रियान्वयन के अभाव में तो सृष्टि का आविष्कार भी संभव न था। साक्षात विधाता को भी संकल्प लेना पड़ा था, ‘एकोऽहम् बहुस्याम्’ अर्थात मैं एक से अनेक हो जाऊँ। एक में अनेक का बल फूँक देता है संकल्प।
संकल्प को सिद्धि में बदलने के लिए स्वामी विवेकानंद का मंत्र था, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक मत रुको।
संकल्प मनोबल का शस्त्र है, संकल्प, असंभव से ‘अ’ हटाने का अस्त्र है। उद्देश्यपूर्ण जीवन की जन्मघुट्टी है संकल्प, मनुष्य से देवता हो सकने की बूटी है संकल्प।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जावेगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “व्यग्रता…“।)
अभी अभी # 562 ⇒ व्यग्रता (Anxiety) श्री प्रदीप शर्मा
यह एक ऐसी मानसिक अवस्था होती है, जिसमें व्यक्ति बड़ा अस्त व्यस्त और असमंजस में रहता है । किसी भी कार्य में उसे ना तो रुचि रहती है और ना ही
मन में कोई उमंग । मन हमेशा अशांत और चिड़चिड़ा रहता है । आशा से कोसों दूर, हमेशा निराशा के बादल मन में छाए रहते हैं ।
वह सन् ७० का दौर था । इसी दौर में एक लेखक हुए हैं, गुलशन नंदा, जिनका गुलशन से कोई लेना देना नहीं था ।
जरा उनके प्रेरणादायक शब्द तो देखिए, फिल्म कटी पतंग से, जो उनके ही उपन्यास पर आधारित थी ;
ना कोई उमंग है,
ना कोई तरंग है
मेरी ज़िंदगी है क्या,
इक कटी पतंग है ।।
वह पीढ़ी अमरीकन उपन्यासकार हेमिंग्वे की भाषा में lost generation कहलाती थी, कामू, काफ्का और ज्यां पॉल सार्त्रे के अवसाद भरे साहित्य का शिकार थी ।।
आशावाद ही आस्तिकता है और निराशावाद ही नास्तिकता । जीवन की व्यर्थता और खोखलेपन का बोध व्यक्ति को पलायनवादी बना देता है ।
इधर प्रेम में धोखा खाया, उधर एक देवदास निकल आया ।
इधर फिल्मी पर्दे पर राजेश खन्ना की रोमांटिक फिल्में और उधर लुगदी साहित्य की भरमार । कौन कॉलेज पढ़ने जाता था । जिन्हें सिर्फ प्रेम और राजनीति करनी होती थी, वे तो कॉलेज छोड़ना ही नहीं चाहते थे । भटकी और भ्रमित तब की युवा पीढ़ी भाग भागकर मुंबई निकल जाती थी, फिल्मों में एक्टर बनने ।।
जो उस दौर के इस कुंठा और संत्रास की बीमारी से बच गया, उसने आत्म विश्वास, आस्तिकता और सकारात्मकता की राह पकड़ ली, और अपनी जीवन नैया को आसानी से पार लगा ली । जो उसमें डूब गए, दुनिया उन्हें भुला बैठी ।।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री आशीष गौड़ जी का साहित्यिक परिचय श्री आशीष जी के ही शब्दों में “मुझे हिंदी साहित्य, हिंदी कविता और अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का शौक है। मेरी पढ़ने की रुचि भारतीय और वैश्विक इतिहास, साहित्य और सिनेमा में है। मैं हिंदी कविता और हिंदी लघु कथाएँ लिखता हूँ। मैं अपने ब्लॉग से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ मैं विभिन्न विषयों पर अपने हिंदी और अंग्रेजी निबंध और कविताएं रिकॉर्ड करता हूँ। मैंने 2019 में हिंदी कविता पर अपनी पहली और एकमात्र पुस्तक सर्द शब सुलगते ख़्वाब प्रकाशित की है। आप मुझे प्रतिलिपि और कविशाला की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। मैंने हाल ही में पॉडकास्ट करना भी शुरू किया है। आप मुझे मेरे इंस्टाग्राम हैंडल पर भी फॉलो कर सकते हैं।”
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं संस्मरणात्मक आलेख अस्तित्वगत विडंबना।
☆ आलेख ☆ अस्तित्वगत विडंबना ☆ श्री आशीष गौड़ ☆
क्या एक ही जगह पर दोबारा जाने का एहसास समय और उम्र के साथ बदलता रहता है?
वह जगह जो आपके बचपन को दिलों में समेटे हुए है और जहाँ आप भावनात्मक रूप से गहराई से जुड़े हुए हैं? हाल ही में मैं अपने गृह नगर श्री गंगानगर गया था। क्या ट्रेन एक माँ की तरह नहीं है जो आपको अपनी गोद में उठाकर अपने घर ले जाने की कोशिश कर रही है। ट्रेन वही पुरानी है जो उन्हीं पुरानी पटरियों पर चल रही है, उन्हीं पुरानी जगहों से गुज़र रही है जैसे यादें ताज़ा हो रही हैं। जब मैंने गहरी रातों में उन पुरानी और शारीरिक रूप से खराब हो चुकी खिड़कियों के बाहर देखा, तो मुझे बाहर ठंड का एहसास हुआ। मैंने खुद से पूछा, क्या मैं यहाँ के तापमान के बारे में सोच रहा हूँ? या वे पेड़ अब मेरी मौजूदगी के प्रति शत्रुतापूर्ण थे, मेरी लंबी अनुपस्थिति और विस्मृति के कारण। जैसे ही ट्रेन एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन के लिए फिर से चली, वे पेड़ मुझसे दूर जाने लगे, मानो वे मुझसे नाराज़ होकर मुझसे दूर भागने की कोशिश कर रहे हों। ठीक वैसे ही जैसे हम अपनी मातृभूमि से, अपने पुराने शहरों से, उन पुरानी गलियों से भागे थे, जहाँ आज भी हमारे बचपन के निशान हैं।
मैंने मन ही मन सोचा, जब मैं इतने सालों से दूर था, उन बड़े भीड़-भाड़ वाले शहरों में खुद को समझने की कोशिश कर रहा था, तो वे दुकानदार दिन-रात अपनी दुकानें खोले रहते थे, ग्राहकों का इंतज़ार करते हुए। वे कभी भी उन सांसारिक दिनचर्या से ऊबते नहीं थे। मैं अब उन दुकानदारों का ग्राहक जैसा महसूस करता हूँ जो मुझे अपने मोटे लेंसों से देखते हैं जो उन पुराने मोतियाबिंद कॉर्निया को ढकने के लिए हैं।
वे बगीचे अभी भी उसी मिट्टी को बरकरार रखे हुए हैं और वे मिट्टी उन्हीं पौधों का पोषण कर रही हैं जो अब पेड़ बन गए हैं। मैं उन घास के मैदानों में खेला करता था। वहाँ कोई पेड़ नहीं थे। मैं उन रेतीले कीचड़ भरे घास के मैदानों में खुला घूमता था। जब मैं घास के मैदानों, उन निचले इलाकों में घूमता था, तो मैं खाने से पहले फलों के बीज फेंक देता था। वही फल अब उन गहरी जड़ों वाले पेड़ों के रूप में मेरी ज़मीन को थामे हुए हैं। मैं उन पेड़ों का ऋणी हूँ जो हर मौसम में मेरी ज़मीन को मिट्टी से भर देते हैं। मैं उस फल विक्रेता का ऋणी हूँ जिसने मुझे वे फल बेचे। मैं अपनी माँ का ऋणी हूँ जिसने मुझे वे फल दिए। मैं जीवन का ऋणी हूँ, क्योंकि चीज़ों को फेंकने की मेरी आदत के बावजूद, उन्होंने मेरी ज़मीन, मेरी मिट्टी, मेरे चरागाह और मेरी निचली ज़मीन को मेरी अनुपस्थिति में भी बरकरार रखा और आबाद रखा। मैं उन सभी का ऋणी हूँ, मिट्टी, भूमि, पेड़, फल और बीज जिन्होंने मेरे घर को आश्रय दिया और मेरा “अस्तित्व” बनाया।
संतुष्टि स्वयं में है। मेरे मित्र अमन ने इस पंक्ति का उल्लेख किया जब हम इस बात पर बहस कर रहे थे कि एक अच्छा आत्मनिर्भर व्यवसाय कैसे खोला और बनाया जाए। हम संतुष्टि के लिए एक आदर्श परिभाषा का पता लगाने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने मुझे बताया कि सड़क पर रोटी बेचने वाला संतुष्ट है क्योंकि वह अपने व्यवसाय का असली मालिक है, क्योंकि वह किसी ग्राहक को मना करने का फैसला कर सकता है। उसने कहा कि वह ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि वह अपने व्यवसाय के लाभ और भविष्य के लिए चिंतित था। वह एक बड़ा लकड़ी व्यापारी होने के नाते कहा कि वह उस सड़क किनारे विक्रेता से छोटा महसूस करता है जो भविष्य की संभावनाओं को अस्वीकार करने की इच्छा और क्षमता का प्रयोग करता है।
जीवन उन विकल्पों और संभावनाओं का एक समूह है जो फलित होते हैं। संभावना या विकल्प चुनने की संभावना हमारे हाथ में नहीं है। हमारे पास विकल्प हैं लेकिन हम प्रत्येक विकल्प या प्रत्येक संभावना की सफलता वहन क्षमता के बारे में सुनिश्चित नहीं हैं। यह सब फिर से एक संभावना है कि आप शायद अनंत विकल्पों में से एक संभावना का चयन करें जो शायद आपके भविष्य को रोशन कर सके। अनिश्चितता है न?
जब मैं ठंडी सर्दियों की रात में अपना समय पी रहा था, मैंने खुद से पूछा – खून गाढ़ा है या जमीन? कौन सा रिश्ता गहरा है खून या जमीन? कौन सी भावना गहरी है? हम जैसे कई लोग, मेरे जैसे कई लोग, हरियाली भरे चरागाहों की तलाश में अपने वतन से बहुत दूर आ गए हैं। हम उन जानवरों की तरह हैं जो घास खाने आए थे लेकिन हमारे दांतों और होठों पर खून लगा हुआ था। हर बार जब हम घर वापस जाने के बारे में बोलने की कोशिश करते हैं, तो हमारे खून से सने होंठ आपस में चिपक जाते हैं और हमें बोलने नहीं देते। मानो उन चरागाहों को खाते हुए जीभ से खून बह रहा हो, और उन चरागाहों को खाने की वजह से हमारी जीभ से हमारा ही खून बह रहा हो, चरागाह और हरी-भरी ज़मीन जिसके लिए हम आए थे, हमारी फँसने की वजह बन गई है।
हमारे माता-पिता भी हमेशा के लिए हमारे साथ नहीं जाना चाहते, अपना वतन छोड़कर। वे अपनी मातृभूमि और धरती माँ से बहुत जुड़े हुए हैं और उनकी गहरी भावनात्मक जड़ें हैं। हमारे साथ भी ऐसी ही स्थिति है लेकिन हमारे हरे चरागाहों ने हमारी जीभ को घायल कर दिया है, हमारा खून बह रहा है, हमने खून का स्वाद चखा है और हमारे होंठ चिपक गए हैं। वे वापस जाने के बारे में नहीं बोल सकते। जमीन उनके लिए खून से ज्यादा गाढ़ी है और ज्यादा प्रासंगिक भी है। और हम… हम अब शाकाहारी नहीं हैं, हमारे घास के मैदानों ने हमें मांसाहारी बना दिया है। हमारी प्रकृति बदल गई है। हमारा विकास गलत हो गया है। जब एक शाकाहारी मांसाहारी बन जाता है, तो यह सभ्यता का अंत है। इसलिए यह गलत बयान नहीं होगा और यह कम करके नहीं आंका जाएगा जब कहा जाता है – खून जमीन से ज्यादा गाढ़ा नहीं होता। हम मरते हैं और हम जमीन के लिए जीते हैं न कि अपनी संतानों के लिए। जमीन के रिश्ते और भावनाओं का खून से ज्यादा गहरा प्रभावपूर्ण अर्थ होता है वे ईंटें हमारे लिए हमारे खून से भी ज्यादा मायने रखती हैं।
मैं भी घास के मैदानों के प्रति अपनी धारणा और अपनी ईंटों के प्रति अपने भावनात्मक रुख में खुद को उतना ही चयनात्मक रखता हूँ। क्योंकि जब समय आएगा, तो शायद मैं भी अपनी ईंट को अपने दिल से लगा लूँगा, बजाय इसके कि मैं अपनी घास खाऊँ।
क्या समय सापेक्ष नहीं है? जब आप नहीं चाहते कि यह रेंगे, तो यह बहुत तेज़ी से गुज़रता है और जब आप चाहते हैं कि यह रेंगता रहे और रेंगता रहे, तो यह तेज़ी से उड़ता है। सापेक्षता के विशेष सिद्धांत में, आइंस्टीन ने निर्धारित किया कि समय सापेक्ष है – दूसरे शब्दों में, जिस दर से समय बीतता है वह आपके संदर्भ के ढांचे पर निर्भर करता है। आइंस्टीन के यह जानने से पहले हम आइंस्टीन थे। काश आइंस्टीन सापेक्षता के बजाय ईंट और खून के सिद्धांत को समझ पाते… है न?
जब हम अपने गृह नगर के लिए निकलते हैं, तो समय हमारी इच्छाओं और हमारी धारणा से कहीं ज़्यादा तेज़ी से यात्रा करता है। इसके विपरीत जब हम घर वापस जाने के लिए ट्रेन पकड़ने से सिर्फ़ दो दिन दूर होते हैं, तो समय ऐसे चलता है जैसे हर घंटा घड़ी के एक मिनट बजने के बराबर हो। और इससे पहले कि आप समझ पाएं, आप अपने फीते वापस बांध रहे हैं।
वापस यात्रा करते समय, मैं गहरी नींद में सो जाना चाहता था ताकि मैं अपना घर, अपनी ज़मीन मुझसे दूर न देखूं। मैं सीधे दूसरे शहर में जागना चाहता था जैसे कि मैं सपने में हूँ और नींद में चल रहा हूँ।
घर की ओर यात्रा करते समय मैं पूरी रात सो रहा था जब मैं जागना चाहता था और उन सभी स्टेशनों और उन पेड़ों को गिनना चाहता था जो घर की ओर मील के पत्थर के रूप में काम करते हैं। लेकिन जीवन एक विरोधाभास है।
अपनी मातृभूमि की ओर वापस जाने और खून बहने वाली जीभ से दूर जाने, मांसाहारी से शाकाहारी बनने का सिद्धांत वही है जो आइंस्टीन ने सापेक्षता के बारे में कहा था। और यह अस्तित्व के विरोधाभास के बारे में भी है।
जब हम मातृभूमि के बारे में गहराई से बात करते हैं तो ऐसी कई चीजें हमारे विचारों में उलझ जाती हैं। हस्ताक्षर करने से पहले, एक आखिरी विचार जो मेरे दिमाग में आया, उसे साझा करूँगा।
मेरे करीबी दोस्त जो वहां एक बड़े व्यवसाय के मालिक हैं, ने मुझे रिश्तों की पेचीदगियों के बारे में बताया, साथ ही मैंने यह भी सीखा कि कैसे एक रिश्ता जटिल हो सकता है और कैसे एक रिश्ता जीवन के अर्थ के लिए एक बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए जटिल हो सकता है। दार्शनिक रूप से कहें तो यह यात्रा मात्र जीवविज्ञान से परे है। यह पहचान और अपनेपन की खोज बन जाती है। प्रत्येक बच्चा अतीत और भविष्य के मिश्रण का प्रतिनिधित्व करता है, आशाओं और सपनों का एक मूर्त रूप जो व्यक्ति से परे फैला हुआ है। पुरुष संतान की इच्छा को सांस्कृतिक मूल्यों के प्रतिबिंब के रूप में देखा जा सकता है – पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं को बनाए रखने की लालसा। फिर भी, यह मूल्य और पहचान की प्रकृति के बारे में भी सवाल उठाता है: वास्तव में विरासत को क्या परिभाषित करता है? क्या यह किसी के बच्चों का लिंग है या वे मूल्य जो वे आगे ले जाते हैं?
जब हम अपने 40 के दशक के मध्य में होते हैं, तो हमारे माता-पिता सहित हमारे अधिकांश करीबी रिश्तेदार 75 वर्ष की आयु के होते हैं। उन झुर्रियों वाले चेहरों को अलविदा कहने से ज़्यादा दर्दनाक कुछ नहीं है। जब हम वापस लौटते हैं तो उन्हें देखने की संभावना हमारे दिमाग में बनी रहती है। ऐसा लगता है कि भगवान बहुत क्रूर है। यह सब हमारे जीवन में सुलझाया जा सकता है। लेकिन ऐसा नहीं है, ऐसा कभी नहीं होगा। ऐसा क्यों नहीं होगा? इसे कौन रोकता है?