हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 110 – देश-परदेश – धूम्रपान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 110 ☆ देश-परदेश – धूम्रपान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त चित्र को देखकर कई मित्र तो माचिस ढूंढने लग गए होंगे। साठ से नब्बे के दशक तक सिगरेट के भी खूब ठाठ हुआ करते थे। खैनी से बीड़ी पर पहुंचे लोग, सिगरेट की तरफ बढ़ चुके थे।

फिल्मी हीरो, फिल्मों और पत्र पत्रिकाओं के विज्ञापन में सिगरेट का सेवन करते हुए अतिरिक्त राशि भी अर्जित करते थे। सस्ते ब्रांड में पनामा और चारमीनार प्रचलित हुआ करते थे।

सिगार का चलन बड़े वाले अमीर परिवार या अंग्रेजी फिल्मों में होता था। हमने भी फिल्मों में ही इसके दर्शन किए थे, क्योंकि अमीर लोग हमारे परिचय में नहीं थे।

सिगरेट के असली शौकीन तो पाउच वाली सिगरेट बना कर पीते थे। इसका लाभ ये होता था, कि सिगरेट कम पी जाती थी। स्वयं पाउच से कागज में तंबाकू भरने के बाद चिपका कर सिगरेट का सेवन, समय और पेशेंस मांगता है, जो बहुत कम लोगों के पास होता था। साधारण पान की दुकानों में पाउच मिलता भी नहीं था।

इंडियन टोबैको और गोल्डन टोबैको बहुत बड़े विख्यात नाम हुआ करते थे, सिगरेट उद्योग के लिए। केंद्रीय बजट में हर वर्ष सिगरेट महंगी होती थी। सिगरेट की लंबाई भी इसकी कीमत तय करने का पैमाना हुआ करता था।

कॉलेज के दिनों में हम भी जेब में माचिस रखा करते थे, ताकि किसी शौकीन को आवश्यकता पड़े, तो काम आ सकें। हमारी माचिस के एवज में कुछ सुट्टे या एक आध सिगरेट का सेजा हो ही जाता था। ऐसे मौके यात्रा के समय बस और ट्रेन में अधिक मिलते थे।

सिगरेट के धुएं से छल्ले बनाकर हवा में उड़ाने से लड़कियां भी आकर्षित हो जाया करती थी, ऐसा हमने बॉलीवुड की फिल्मों में खूब देखा था। हमने भी प्रयास किया था, लेकिन असफल रहे थे।

टाइम पास के लिए भी सिगरेट एक अच्छा साधन हुआ करता था, जैसे आजकल मोबाइल भी हैं। सिगरेट आपके फेफड़ों को छलनी कर देता है, तो मोबाइल आपके दिमाग को छलनी कर रहा है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 538 ⇒ यह घर मेरा नहीं ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “यह घर मेरा नहीं।)

?अभी अभी # 538 ⇒ यह घर मेरा नहीं ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं यहां हरि ओम शरण की बात नहीं कर रहा, जो कह गए हैं, ना ये तेरा, ना ये मेरा, मंदिर है भगवान का। मै जिक्र कर रहा हूं, राग दरबारी वाले श्रीलाल शुक्ल का, जिनकी एक कृति है, यह घर मेरा नहीं। जिस इंसान ने पहले मकान जैसे उपन्यास की रचना कर दी हो, वह अगर कहे कि यह घर मेरा नहीं, तो बात कुछ गले नहीं उतरती।

घर बनाए ही जाते हैं, रहने के लिए, और किराए से उठाने के लिए ! जो किराए के मकान में रहता है, वह भी अक्सर यही कहता है, यह घर मेरा है। लेकिन जब पहली तारीख को किराया देना पड़ता है, तब वह भी सोचता है, काश मेरा भी खुद का घर होता।।

कुछ लोग घर बनाते हैं, कुछ खरीदते हैं, और कुछ बांधते हैं ! जो खरीदते हैं, उन्हें सिर्फ पैसे का या लोन का इंतजाम करना पड़ता है, लेकिन जो बनाते हैं, वे ही जानते हैं, मकान बनाना, लड़की की शादी निपटाने जैसा काम है। आज जैसी सुविधाएं पहले नहीं थी। न मकान बनाने में, न लड़की की शादी करने में।

एक ज़माना था, खुद के मकान को तो छोड़िए, पड़ोसी और दोस्तों, रिश्तेदारों के मकानों की भी तरी करनी पड़ती थी। कहीं की ईंट, कहीं का पत्थर, पैसा पैसा बचाकर मकान बनाया जाता था। तब न मल्टी बनती थी, न बिल्डर होते थे। किसी पहचान के ठेकेदार को लिया, और मकान शुरू।।

कुछ लोग घर बांधते थे। कैसे बांधते थे, मैं कभी समझ नहीं पाया। फिर किसी ने समझाया, कुछ नहीं, जिस बैंक से लोन लेते हैं, वह इसे बंधक रख लेता है, जब तक आखरी किस्त अदा नहीं हो जाती।

घर को ही मकान कहते हैं ! मकान दो तरह के होते हैं, एक किराए का मकान, और एक घर का मकान। धर्मवीर भारती ने जिस बंद गली के आखरी मकान का जिक्र किया है, मैं उसमें 35 वर्ष रह चुका हूं। लेकिन वह मेरा घर नहीं था, किराए का मकान था।।

इंसान चाहे झोपड़ी में रह ले, वह उसका घर होता है ! जिस घर में चैन है, और चैन की नींद है, वही घर है। ईंट पत्थरों के भी कहीं घर होते हैं। बच्चा स्कूल से घर आता है, आदमी दफ्तर, दुकान से शाम को घर आता है। जब भी हम घर से दूर होते हैं, घर बहुत याद आता है।

घर- परिवार को आप अलग नहीं कर सकते। पहले इंसान घर बनाता है, फिर घर चलाता है। महिलाएं घर गृहस्थी साथ लेकर चलती हैं। लड़कियां बचपन से ही घर घर खेलती हैं। हर लड़की के दो घर होते हैं, एक पीहर, एक ससुराल। आदमी की तो बस, पूछिए ही मत ! कभी घर का, तो कभी घाट का।।

महल हो या झोपड़ी, घर घर होता है। कहीं महल में कैकई होती है, क्लेश होता है, तो कहीं किसी कुटिया मे महात्मा विदुर का स्थान होता है, जहां वासुदेव कृष्ण और साग होता है। घर में मां, बहन, बेटी, बहू हो, चैन हो, सुकून हो ! ईश्वर करे, ऐसा कभी ना हो, कि किसी को कहना पड़े, यह घर मेरा नहीं।

कहने को तो शैलेन्द्र भी कह गए हैं, तुम्हारे महल चौवारे, यहीं रह जाएंगे प्यारे ! कुंदनलाल भी कहते कहते थक गए, बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए। साहिर भी तो कहते हैं, ये दुनिया मेरे बाबुल का घर, वो दुनिया ससुराल। क्या फर्क पड़ता है, दोनों ही घर अपने है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 537 ⇒ ठंड और रजाई ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ठंड और रजाई।)

?अभी अभी # 537 ⇒ ठंड और रजाई ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब मौसम करवट लेता है, और ठंड दस्तक देती है, तो सबसे पहले रजाई बाहर आती है। अचानक चादर छोटी पड़ने लग जाती है, और इंसान सोचता है, चादर अचानक इतनी ठंडी क्यों हो गई है।

वैसे चादर दो होती है, एक ओढ़ने की और एक बिछाने की। लेकिन जहां गरीबी में आटा गीला हो, वहां इंसान क्या तो ओढ़े और क्या बिछाए। कई बार तो अचानक ठंड पड़ने पर, हमने बिछाई हुई चादर भी ऊपर से ओढ़ी है।।

वैसे कबीर ने सारा ज्ञान चादर पर ही बांटा है, रजाई पर कभी उसका ध्यान नहीं गया। जाता भी कैसे, जुलाहा होते हुए भी हमेशा बाबा बनकर ही तो घूमते रहते थे ;

दास कबीर जतन से ओढ़ी

ज्यों की त्यों

धर दीनी रे चदरिया।।

ठंड में हम भी कबीर बन जाते हैं। चादर को ज्यों की त्यों रख देते हैं और रजाई में घुस जाते हैं। ठंड में रजाई का विकल्प सिर्फ कंबल है। पहले खादी भंडार वाले कम्बल आते थे, जो शरीर को चुभते थे। उधर ठंड चुभ रही और इधर ठंड से बचने जाओ तो कम्बल चुभे। साथ में एक चादर भी ओढ़ना ही पड़ती थी।

समय के साथ गुदगुदे इंपोर्टेड कंबल भी आ गए और मोटी मोटी रजाई की जगह जयपुरी रजाई ने ले ली। जब हमारे घरों में पलंग नहीं थे तो हम सभी भाई बहन जमीन पर ही लाइन से सोते थे। जमीन पर गद्दे बिछते थे और चादर, कंबल, रजाई, जो जिसके हाथ आई। अधिक ठंड होने पर कौन किसकी रजाई खींच रहा है, कौन किसके कंबल में घुस रहा है, कुछ पता नहीं चलता था।।

आजकल कौन जमीन पर सोता है। गद्दे भी कैसे कैसे आ गए हैं, kurl on और sleep well. वैसे तो well का अर्थ कुंआ भी होता है, लेकिन कुंए में ठंड में कौन सोता है।

हमारा तो आज भी बीस किलो रूई वाला गद्दा है और भरी पूरी गदराई हुई रजाई। हम ना तो लग्ज़री सोफे के आदी हैं और ना ही स्लीप वैल वाले गद्दों के। जब कभी घर से बाहर, मजबूरी में, होटलों में ठहरते हैं, तो घर के गद्दे रजाई बहुत याद आते हैं। एक वह भी जमाना था, जब बाहर घूमने जाते थे, तो बिस्तरबंद यानी होलडॉल साथ ले जाते थे।

आज तो सुविधा ही सुविधा है।।

पूरी ठंड हमारी रजाई से यारी रहेगी। लेकिन यह हरजाई भी घुसने से पहले बहुत ठंडी रहती है। यकीन मानिए, रजाई को भी गर्म हम ही करते हैं, हमारे बिना कैसी ठिठुरती रहती है।

रजाई में घुसते ही पहले हम उसे गर्म करते हैं, फिर वह हमें रात भर गर्म रखती है। सुबह उसे छोड़ने का मन नहीं करता। लेकिन वह भी जानती है इंसान की फितरत, इधर सर्दी हवा हुई, उधर हमने दल बदला। रजाई को अलविदा कहा और चादर ओढ़कर सो गए। किसी ने कहा भी तो है ;

पल दो पल का साथ हमारा।

पल दो पल के याराने हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अतीत की स्मृतियों से… ☆ संकलन – सुश्री सुनीला वैशंपायन ☆

सुश्री सुनीला वैशंपायन 

☆ अतीत की स्मृतियों से… ☆ संकलन – सुश्री सुनीला वैशंपायन

 सोशल मीडिया में कई बार अज्ञात लोगों की अज्ञात लोगों द्वारा ऐसी पोस्ट साझा की जाती है जो सहज ही हमें अतीत की स्मृतियों में खोने के लिए विवश कर देती हैं। और उन्हें सहेजने की इच्छा से हम भी सोशल मीडिया पर ही अपने जाने अनजाने मित्रों से साझा कर लेते हैं। प्रस्तुत है ऐसी ही एक पोस्ट –

हमारी यादें कभी भूल नहीं सकेगी। क्योंकि वो अच्छी ही नहीं थी बहुत अच्छी थी।

पहले भटूरे को फुलाने के लिये

उसमें ENO डालिये

 *

फिर भटूरे से फूले पेट को

पिचकाने के लिये ENO पीजिये

☆ जीवन के कुछ गूढ़ रहस्य – आप कभी नहीं समझ पायेंगे ☆

पांचवीं तक स्लेट की बत्ती को

जीभ से चाटकर कैल्शियम की

कमी पूरी करना हमारी स्थाई आदत थी

लेकिन

इसमें पापबोध भी था कि कहीं

विद्यामाता नाराज न हो जायें …!!!☺️

पढ़ाई का तनाव हमने

पेन्सिल का पिछला हिस्सा

चबाकर मिटाया था …!!!😀

☆ 

पुस्तक के बीच पौधे की पत्ती

और मोरपंख रखने से हम

होशियार हो जाएंगे …

ऐसा हमारा दृढ विश्वास था. 😀

कपड़े के थैले में किताब-कॉपियां

जमाने का विन्यास हमारा

रचनात्मक कौशल था …!!!☺️🙏🏻

हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते

तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना

अपने जीवन का वार्षिक उत्सव मानते थे …!!!☺️

माता – पिता को हमारी पढ़ाई की

कोई फ़िक्र नहीं थी, न हमारी पढ़ाई

उनकी जेब पर बोझा थी …☺️💕

सालों साल बीत जाते पर माता – पिता के

कदम हमारे स्कूल में न पड़ते थे …!!!😀

एक दोस्त को साईकिल के

बीच वाले डंडे पर और दूसरे को

पीछे कैरियर पर बिठा कर

हमने कितने रास्ते नापें हैं,

यह अब याद नहीं बस कुछ

धुंधली सी स्मृतियां हैं …!!!💕

स्कूल में पिटते हुए और

मुर्गा बनते हमारा ईगो

हमें कभी परेशान नहीं करता था

दरअसल हम जानते ही नहीं थे

कि, ईगो होता क्या है❓️💕

पिटाई हमारे दैनिक जीवन की

सहज सामान्य प्रक्रिया थी😰😀

पीटने वाला और पिटने वाला दोनों खुश थे,

पिटने वाला इसलिए कि हम कम पिटे

पीटने वाला इसलिए खुश होता था

कि हाथ साफ़ हुआ …!!!😀

हम अपने माता – पिता को कभी नहीं बता पाए

कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं, क्योंकि

हमें “आई लव यू” कहना आता ही नहीं था …!!!

😰😀💕

आज हम गिरते- सम्भलते, संघर्ष

करते दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं,

कुछ मंजिल पा गये हैं तो

कुछ न जाने कहां खो गए हैं …!!!😰

हम दुनिया में कहीं भी हों

लेकिन यह सच है,

हमें हकीकतों ने पाला है,

हम सच की दुनियां में थे …!!!

😰

कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना

और रिश्तों को औपचारिकता से

बनाए रखना हमें कभी आया ही नहीं …

इस मामले में हम सदा मूर्ख ही रहे …!!!

😰

अपना अपना प्रारब्ध झेलते हुए

हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं,

शायद ख्वाब बुनना ही

हमें जिन्दा रखे है वरना

जो जीवन हम जीकर आये हैं

उसके सामने यह वर्तमान कुछ भी नहीं …!!!

😰

हम अच्छे थे या बुरे थे

पर हम सब साथ थे काश

वो समय फिर लौट आए …!!!

😰😰

“एक बार फिर अपने बचपन के पन्नों

को पलटिये, सच में फिर से जी उठेंगे”…💕

और अंत में …

 हमारे पिताजी के समय में दादाजी गाते थे …

 मेरा नाम करेगा रोशन

जग में मेरा राज दुलारा💕

 *

हमारे ज़माने में हमने गाया …

 पापा कहते है बड़ा नाम करेगा💕

 *

अब हमारे बच्चे गा रहे हैं …

 बापू सेहत के लिए …

तू तो हानिकारक है। 😰😰

 *

सही में हम

कहाँ से कहाँ आ गए …???😰

 *

एक बार मुड़ कर  देखिये …

और

मुस्करा दीजिए

क्यों कि

 Change Is Part Of Life.

 Accept It Gracefully 💓😌💓

लेखक – सोशल मीडिया से – अज्ञात 

संकलन : सुश्री सुनीला वैशंपायन

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 536 ⇒ वर्मा जी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “वर्मा जी।)

?अभी अभी # 536 ⇒ वर्मा जी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज बहुत दिनों बाद वर्मा जी सपने में दिखाई दिए।

उन्हें सपनों में ही आना था क्योंकि इस असली संसार से तो कई वर्ष पहले ही विदा ले चुके थे। वे मेरे फेसबुक फ्रेंड नहीं, मेरे अभिन्न मित्र थे, और बैंक में मेरे सहकर्मी थे। वे मेरे लिए कृष्ण भले ही ना सही, लेकिन एक सारथी अवश्य थे। हम शर्मा वर्मा के बीच कभी कोई विश्वकर्मा नजर नहीं आया।

वे अविवाहित थे इसलिए याद करते ही हाजिर हो जाते थे। वे वर्मा थे, इसलिए कायस्थ थे, उनके दो बड़े भाई और थे, लेकिन उनकी कोई बहन नहीं थी। पिताजी जब जीवित थे, तब कलेक्टर थे। मैने उनके माता पिता को नहीं देखा। पिताजी के गुस्सैल स्वभाव का अक्सर वे जिक्र करते थे, लेकिन मां के बारे में उन्होंने कभी कुछ नहीं बताया।।

जब तक उनकी भाभी रही, उनके लिए खाना बनाती रही, उनके देहांत के बाद उन्हें एक खाना बनाने वाली रखनी पड़ी, ताकि सुबह शाम उनको घर का खाना मिल सके।

उनकी दिनचर्या सुबह जल्दी शुरू हो जाती थी, नहा धोकर वे सराफा जाकर जलेबी पोहे नहीं खाते थे, अहिल्या केंद्रीय लाइब्रेरी में सुबह सुबह अखबारों का नाश्ता करते थे। अग्निबाण से लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया तक वे आसानी से पचा जाते। शहर की सनसनी घटनाओं में भी उनकी विशेष रुचि रहती थी।।

बौद्धिक कलेवे के बाद वे कॉफी हाउस आते थे, जहां कॉफी के साथ कुछ स्नैक्स और अन्य नियमित मित्रों के साथ चटपटा वार्तालाप उनकी दिनचर्या का अंग था। पश्चात् घर जाकर भोजन और बैंक के लिए रवानगी।

हमारी उनकी शामें अक्सर साथ साथ गुजरती। कभी एवरफ्रेश तो कभी जेलरोड के एटलस टेलर के यहां उन्हें नियमित देखा जा सकता था। तब हम लोगों की शाम अक्सर मित्रों के नाम ही होती थी। वैसे भी हम जैसे टी-टोटलर्स के लिए कॉफी हाउस ही पर्याप्त था।।

वर्मा जी जितना पढ़ते थे, उसके कई गुना अधिक बोलने की क्षमता रखते थे। उनकी धाराप्रवाह शैली उन्हें आत्म विश्वास प्रदान करती थी। वे सदा सत्ता से असहमत रहते थे, इसलिए असंतुष्ट रहते थे। उनकी भाषा असंयमित हो सकती थी, लेकिन अभद्र और अश्लील कभी नहीं। अत्यधिक आवेश में भी उनके मुंह से कभी कोई गाली नहीं फूटी।

वे कभी विचलित अथवा बोर नहीं होते थे। एक पुरानी तारीख के अखबार के सहारे वे आधा घंटा आराम से निकाल लेते थे। उन्हें किताबें खरीदने का अधिक और पढ़ने का शौक कम था फिर भी वे बहुत हद तक अपने आपको अपडेट रखते थे।।

वे कभी बहस में हार नहीं मानते थे। अपनी गलती पर अड़े रहना और सामने वाले को मैदान छोड़ने पर मजबूर करना उनकी विशेषता थी। कभी कभी उनके अनर्गल प्रलाप से शांति भंग होने का अंदेशा भी होता था, लेकिन मध्यस्थ सब शांत कर देते थे।

पहले उन्हें दिल की बीमारी लगी और बाद में शुगर की। अधिक शुगर के कारण एक घाव ठीक नहीं हो पाया, और पूरे शरीर में जहर फैल गया। उधर खाना बनाने वाली महिला, पहले उनकी परिचारिका बनी और बाद में दत्तक पुत्री बन, पूरे मकान की मालकिन। विवाह ना करने के बावजूद भी उनका अंतिम समय विवादों और तनाव में ही गुजरा।।

आज फेसबुक खोलने से पहले ही सपने में उनका मुस्कुराता फेसमुख नजर आ गया और बीती बातें याद आ गई। मैने अपना मित्र नहीं अपने परिवार का एक सदस्य खोया। तब से अपने राम अकेले हैं, सारथी जो साथ छोड़ गया …!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

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मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 109 – देश-परदेश – क से कार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 109 ☆ देश-परदेश – क से कार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हिंदी भाषा जितनी सरल है, हमने अंग्रेजी का चोला पहनकर उसके साथ खूब खिलवाड़ करते हैं। हमने तो बचपन में क से कबूतर ही पढ़ा और जाना था। घर के आसपास तो क्या दूर तक कोई कार नहीं दिखती थी। कबूतर खूब देखे हैं। वैसे कबूतर भी उड़ तक फुर से आंखों से ओझल हो जाता है, आजकल की कार भी तो हवा में ही उड़ती हैं।

सत्तर के दशक में एक चर्चा राजनीति गलियारों में भी कार को लेकर खूब चली थी। “बेटा  कार बनाता! मां सरकार चलाती!! उसका जवाब भी कुछ ऐसा ही था” बेटा कार बनाता! मां बेकार बनाती!!

हमारे अनुसार तो आज का दिन “कार दिवस” घोषित कर दिया जाना चाहिए। प्रातः काल ही समाचार पत्र में एक खबर थी, कि गूगल के कहने पर एक अर्ध निर्मित पुल से कार नीचे नदी में गिर गई, तीन युवा की मृत्यु भी हो गई हैं।

कुछ दिन पूर्व गुजरात में एक व्यक्ति ने मात्र दस वर्ष पुरानी अच्छी हालत वाली कार को अपने खेत की मिट्टी में दफना कर सैंकड़ों लोगों को भोज भी खिलाया। हमे तो आज तक ऐसे किसी भोज का निमंत्रण नहीं मिला, जहां शगुन का लिफाफा ना देना पड़ा हो।

एक अमरीकी न्यूज चैनल के वीडियो में हमारे देश की एक खबर के खूब चटकारे लिए हैं। नई बी एम डब्लू को बिगड़ैल औलाद ने नदी में डूबो दिया, उसको पिता से जगुआर ब्रांड की कार चाहिए थी। इस वीडियो को हमारे युवा, अपने अपने पिता को भेजकर अपनी बात मनवाने के हथियार के रूप में उपयोग कर सकते हैं।

आज सुबह से सोशल मीडिया पर कार ही छाई हुई हैं। एक साथी ने फोन पर बताया उनके घर के बाहर कोई अनजान अपनी कार खड़ी कर पांच दिन बाद उठाने के लिए आया था। जब मित्र ने इस बाबत उससे प्रश्न किया, तो विनम्रता पूर्वक कहने लगा आप ने घर के बाहर सी सी टीवी लगा रखें है। इसलिए कार की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए, आपके घर के बाहर कार पार्क कर दी थी।

मित्र को हमने भी ज्ञान दे दिया, बहुत बड़े वाले गमले रख कर उसको लोहे की पत्ती से कसवा देवें, कोई कार आपके घर के बाहर नहीं लगाएगा। मित्र भी हाज़िर जवाब था, बोला इतना गमले आदि पर खर्च करने से तो बाहर लगे सी सी टीवी के कैमरे ही उतरवा कर कुछ पैसे बना लूंगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 535 ⇒ दया के पात्र ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दया के पात्र।)

?अभी अभी # 535 ⇒ दया के पात्र ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

दया धर्म का मूल हैपाप मूल अभिमान।

तुलसी दया छांड़ियेजब लग घट में प्राण।।

हे गोविंद हे गोपाल, हे दया निधान

दया एक ईश्वरीय गुण है। ईश्वर को दयानिधान और करूणासागर भी कहा गया है। यह दया प्राणी मात्र में व्याप्त है। मातृत्व भाव इसका प्रतीक है। मनुष्य को तो छोड़िए, हर हिंसक जीव चाहे वह नर हो या मादा, अपने अंडे, बच्चे, चूज़े को ना केवल जन्म ही देते हैं, उसकी प्राकृतिक आपदा और अन्य शिकारी प्राणियों से, जी जान से सुरक्षा और बचाव करते हैं। हिंसक वृत्ति के होते हुए भी आप इन वन्य प्राणियों को, नन्हें श्रावकों को, अपने मुंह में दबाकर, सुरक्षित स्थान पर, यहां से वहां, ले जाते हुए देख सकते हैं। सौजन्य, डिस्कवरी चैनल।

मनुष्य मात्र में दया, करुणा और मोह, आसक्ति स्थायी भाव हैं। इसीलिए वह कभी मोहासक्त तो कभी दयालु हो जाता है। जब हमसे किसी का दुख देखा नहीं जाता, तो हममें दया और करुणा का भाव जागृत हो जाता है और हम भरसक उसकी सहायता करने की कोशिश करते हैं।।

दया के साथ दान शब्द भी उसी तरह जुड़ा हुआ है, जिस तरह दया के साथ धर्म। किसी की गरीबी अथवा अभाव देखकर सबसे पहले हममें

दया का भाव उत्पन्न होता है, दान की इच्छा तो बाद में जागृत होती है। जो दया का पात्र है, उसे ही दान दिया जाना चाहिए।

लोग तो दया के वशीभूत होकर भिखारियों को भी दान दे देते हैं, जिसे बोलचाल की भाषा में भीख कहा जाता है।

भिक्षावृत्ति अपराध होते हुए भी संतों और महात्माओं को भिक्षा दी जाती है, जिसके बदले में वे शिष्यों को दीक्षा प्रदान करते हैं। हरि ओम शरण तो यहां तक कह गए हैं ;

भिखारी सारी दुनिया

दाता एक राम ….।।

दया का पात्र हमेशा तो हम खोजने से रहे, इसलिए चलो दानपात्र में ही कुछ योगदान कर देते हैं, जो पात्र होगा, उस तक वह पहुंच जाएगा। दया तो एक संचारी भाव है, आता है, चला जाता है। अगर आप भावुक व्यक्ति हैं तो कुछ मदद कर देंगे, अन्यथा केवल द्रवित होकर वहां से प्रस्थान कर जाएंगे। लेकिन दान की वृत्ति तो कुछ देने की ही होती है।

जिस तरह जल ऊपर से नीचे की ओर बहता है, फल पेड़ से जमीन पर गिरता है, ठीक उसी प्रकार दया और दान के भाव समर्थ से असमर्थ की ओर प्रवाहित होते हैं। जो असमर्थ है, वह क्या दया दिखाएगा और कुछ दान करेगा।।

दया और दान का पात्र कभी भरता नहीं। दुख दर्द और आर्थिक अभाव कुछ लोगों की नियति है, केवल एक निमित्त बनकर ही हम इसमें अपना योगदान कर सकते हैं।

ईश्वर हमें इतना सक्षम बनाए कि हम हर दीन दुखी की कुछ सहायता कर सकें। प्राणी मात्र के लिए सदा हमारे मन में दया और करुणा का भाव बना रहे ;

सर्वे भवन्तु सुखिनः

सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु

मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 266 – शेष.. विशेष…अशेष! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 266 ☆ शेष.. विशेष…अशेष!… ?

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,

तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

संत कबीर का यह दोहा अपने अर्थ में सरल और भावार्थ में असीम विस्तार लिए हुए है। जैसे वृक्ष से झड़ा पत्ता दोबारा डाल पर नहीं लगता, वैसे ही मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती। मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती अर्थात दुर्लभ है। जिसे पाना कठिन हो, स्वाभाविक है कि उसका जतन किया जाए। देह नश्वर है, अत: जतन का तात्पर्य सदुपयोग से है।

ऐसा भी नहीं कि मनुष्य इस सच को जानता नहीं पर जानते-बूझते भी अधिकांश का जीवन पल-पल रीत रहा है, निरर्थक-सा क्षण-क्षण  बीत रहा है।

कोई हमारे निर्रथक समय का बोध करा दे या आत्मबोध उत्पन्न हो जाए तो प्राय: हम अतीत का पश्चाताप करने लगते हैं। जीवन में जो समय व्यतीत हो चुका, उसके लिए दुख मनाने लगते हैं। पत्थर की लकीर तो यह है कि जब हम अतीत का पश्चाताप कर रहे होते हैं, उसी समय   तात्कालिक वर्तमान अतीत हो रहा होता है।

अतीतजीवी भूतकाल से बाहर नहीं आ पाता, वर्तमान तक आ नहीं पाता, भविष्य में पहुँचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अपनी एक कविता स्मरण हो आ रही है,

हमेशा वर्तमान में जिया,

इसलिए अतीत से लड़ पाया,

तुम जीते रहे अतीत में,

खोया वर्तमान,

हारा अतीत

और भविष्य तो

तुमसे नितांत अपरिचित है,

क्योंकि भविष्य के खाते में

केवल वर्तमान तक पहुँचे

लोगों की नाम दर्ज़ होते हैं..!

अपने आप से दुखी एक अतीतजीवी के मन में बार-बार आत्महत्या का विचार आने लगा था। अपनी समस्या लेकर वह महर्षि रमण के पास पहुँचा। आश्रम में आनेवाले अतिथियों के लिए पत्तल बनाने में महर्षि और उनके शिष्य व्यस्त थे। पत्तल बनाते-बनाते  महर्षि रमण ने उस व्यक्ति की समस्या सुनी और चुपचाप पत्तल बनाते रहे। उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते व्यक्ति खीझ गया। मनुष्य की विशेषता है  जिन प्रश्नों का उत्तर स्वयं वर्षों नहीं खोज पाता, किसी अन्य से उनका उत्तर क्षण भर में पाने की अपेक्षा करता है।

वह  चिढ़कर महर्षि से बोला, ‘आप पत्तल बनाने में मग्न हैं।  एक बार इन पर भोजन परोस दिया गया, उसके बाद तो इन्हें फेंक ही दिया जाएगा न। फिर क्यों इन्हें इतनी बारीकी से बना रहे हैं, क्यों इसके लिए इतना समय दे रहे हैं?’

महर्षि मुस्कराकर शांत भाव से बोले, ‘यह सत्य है कि पत्तल उपयोग के बाद नष्ट हो जाएगी। मर्त्यलोक में नश्वरता अवश्यंभावी है तथापि मृत्यु से पहले जन्म का सदुपयोग करना ही जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए। सदुपयोग क्षण-क्षण का। अतीत बीत चुका, भविष्य आया नहीं। वर्तमान को जीने से ही जीवन को जिया जा सकता है, जन्म को सार्थक किया जा सकता है, दुर्लभ मनुज जन्म को भवसागर पार करने का माध्यम बनाया जा सकता है। इसका एक ही तरीका है, हर पल जियो, हर पल वर्तमान जियो।’

स्मरण रहे, व्यतीत हो गया, सो अतीत हो गया। अब जो शेष है, वही विशेष है। विशेष पर ध्यान दिया जाए, जीवन को सार्थक जिया जाए तो देह के जाने के बाद भी मनुष्य रहता अशेष है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी💥

 🕉️ इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

  इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 534 ⇒ सिया का घर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सिया का घर।)

?अभी अभी # 534 ⇒ सिया का घर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(एक ईश्वरीय चेतना होती है, जो बाल स्वरूप में लीलाएं किया करती हैं।)

अपना घर तब तक अपना नहीं कहलाता, जब तक अपने साथ न हों। अगर घर आंगन हो, और बच्चे ना हों, तो कैसी फुलवारी। बच्चे फूल से कोमल होते हैं, बच्चे अपने पराये नहीं होते, बच्चे सिर्फ बच्चे होते हैं।

मेरा घर कब सिया का घर हो गया, मुझे पता ही नहीं चला। जहां आजकल बच्चों के नाम रिया, रिचा और दीया रखे जा रहे हों, वहां कुछ घरों में आज भी सिया मौजूद है। सीता और गीता तो मेरी बहनें रही हैं, अब इस उम्र में अगर मुझे घर बैठे सिया मिल जाए, तो क्या मेरी झोपड़ी जनक महल नहीं बन जाएगी।।

आपको पड़ोसी से भले ही कोई आस ना हो, फिर भी आस पड़ोस का अपना महत्व होता है। मेरे पड़ोस की ही तो है यह सिया, जो मेरी आंखों के सामने आज डेढ़ बरस की हो गई है। बच्चे की निगाह कहां पड़ जाए, किस पर पड़ जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वह तो भरे भुवन में किससे बात कर रहा होता है, कोई नहीं जानता।

उनसे मिली नजर तो मेरे होश उड़ गए। बच्चों में एक ऐसा आकर्षण होता है, जो सिर्फ महसूस किया जा सकता है, बयां नहीं किया जा सकता। एक ईश्वरीय चेतना होती है, जो बाल स्वरूप में लीलाएं किया करती हैं। कब सिया के पांव पहली बार मेरे घर पड़े, पता नहीं, लेकिन उसके पांव पड़ते ही मेरा घर सिया का घर हो गया।।

घर के सामने से, दादा जी की गोद में निकलते वक्त, वह इशारा करती, अंदर चलो, और उसका गृह प्रवेश हो जाता। उसकी निगाहें चारों ओर देखती, परखती, परीक्षण करती, मानो घर की हर वस्तु से उसका बहुत पुराना नाता हो। उसकी निगाहें मुझे तलाशती। उसने अक्सर मुझे चश्मे में देखा है। बिना चश्मे के वह मेरी ओर रुख नहीं करती। जैसे ही चश्मा लगाकर मेरी आंखें चार होती, हमारी आंखें चार हो जाती।

वह मुझ पर कुछ देर त्राटक का प्रयोग करती और बाद में अपने खेल में व्यस्त हो जाती। बच्चों को खिलौनों की जरूरत नहीं होती। वे तो घर के सामान के साथ खेलना चाहते हैं, हर चीज बिखेरना चाहते हैं, तोड़ फोड़ करना चाहते हैं। इसीलिए उनका ध्यान भटकाने के लिए हम उसके सामने खिलौने परोस देते हैं।।

जब वह पहली बार आई तब छ: माह की थी, जमीन पर बैठना सीख गई थी। आज वह ठुमक ठुमक कर इतराती हुई चलती है। हमने ठुमक चलत रामचंद्र, का बचपन भले ही नहीं देखा हो, लेकिन हमने सिया को इठलाते, इतराते जरूर देखा है। केवल काग के भाग ही बड़े नहीं सजनी, हमने इस कलयुग में सिया का बचपन देखा है। उसे माखन रोटी ना सही, चम्मच से खीर, श्रीखंड और आमरस जरूर चखाया है।

अभी तक सिया बोलना नहीं सीखी है, लेकिन मुझे ढाई अक्षर प्रेम के जरूर सिखा रही है। वह तो आंखों आंखों और इशारों इशारों में केवल बात ही नहीं करती, सबका दिल भी चुरा लेती है। इतनी उम्र हो गई, इस हुनर से मैं अब तक अनजान था।।

जगतदुलारी है हमारी सिया। सिर्फ दो बरस की सिया, जब उसकी मां की देखादेखी, कंधे पर पर्स लटकाकर शान से चलती है, तो आप उसके पर्स को छू नहीं सकते। मानो कलयुग के रावणों को आगाह कर रही हो। खबरदार, मैं आज की सिया हूं।।

आजकल उसने पढ़ना लिखना भी शुरू कर दिया है। असली पढ़ाई वैसे भी ढाई आखर से ही शुरू होती है। वह जिस अक्षर पर उंगली रख दे, वह अक्षर ब्रह्म हो जाता है। कई तस्वीरें मेरे मन में बसी हैं सिया की, एक तस्वीर कहां उसके साथ न्याय कर सकती है।

आजकल वह अपने पांवों पर खड़ी हो चुकी है। मेरे दरवाजे पर दस्तक जरूर देती है, लेकिन अंदर नहीं आती क्योंकि उसके पर जो लग चुके हैं। वह मुझे आसक्त कर खुद पूरी तरह से उन्मुक्त हो चली है। कल रात वह अधिकार से आई, पूरे घर का निरीक्षण किया, अपना साम्राज्य उसे यथावत नजर आया। कुछ मीठा खाया, कुछ खिलौने फैलाए, और मेरा मन मोहकर वापस लौट गई।

यह घर अब पूरी तरह सिया का घर हो चुका है और मैं सिया का रसिया।

सियाराम कहूं या सिया सिया तुम्हें सिया चौरसिया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – भगवान् का कितना अंश बचा डाॅक्टर में? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख – भगवान् का कितना अंश बचा डाॅक्टर में? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

हरियाणा के राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय  ने रोहतक पीजीआई के दीक्षांत समारोह में कहा कि डाॅक्टर को जनता भगवान् मानती है। ऐसे में डाॅक्टर को अपने पेशे को समाजसेवा का माध्यम बना लेना चाहिए। सेवाभाव से किये हर कार्य से परिवार में समृद्धि आती है। इस तरह महामना राज्यपाल ने डाॅक्टर के रूप में उन्हें भगवान् के बहुत करीब माना। पर आजकल आप जो स्थिति बड़े या छोटे अस्पतालों में देखते हैं, क्या वह डाॅक्टर को इसी रूप में, इसी छवि में प्रस्तुत करती है? मुझे याद है वह सन् 1999 का तेइस सितम्बर, जब मेरी बेटी के जीवन में भयंकर तूफान आया था और मैं उसे एम्बुलेंस में पीजीआई रोहतक में लेकर पहुंचा था। बेटी का छह घंटे लम्बा ऑपरेशन चला और वह ज़िंदगी की लड़ाई जीत गयी। डाॅक्टर एन के शर्मा ने पूछा कि क्या आपको विश्वास था कि बेटी का ऑपरेशन सफल होगा ? मैंने जवाब दिया कि डाॅक्टर शर्मा आप भी नहीं जानते, जब आप मेरी बेटी का ऑपरेशन कर रहे थे तब आपके नहीं वे हाथ भगवान् के हाथ थे, उस समय आप भगवान् के बिल्कुल करीब थे, जिससे मेरी बेटी को भगवान् ज़िंदगी लौटा गये। डाॅक्टर शर्मा की आंखों में भी खुशी के आंसू थे और मेरी आँखों में भी ! इसमें उन दिनों मंत्री और मेरे मित्र प्रो सम्पत सि़ह का भी योगदान रहा, जो पता चलते ही दूसरे दिन वे पीजीआई, रोहतक के डायरेक्टर के पास पहुंचे और मुझे भी बुला लिया ! इस तरह हम तीन माह के बाद पीजीआई से मुक्त हुए लेकिन सचमुच भगवान् के दर्शन हो गये।

आजकल क्या ऐसे भगवान् बच रहे हैं? प्राइवेट अस्पताल अब पांच सितारा होटल जैसे हो गये हैं और इनका सारा खर्च मरीज के परिजनों से ही वसूला जाता है। बड़े बड़े अस्पतालों की खबरें आती हैं कि लाखों लाखों रुपये का बिल बना दिया और परिजन परेशान हो रहे हैं घर‌ तक बिकने की नौबत आ जाती है, बैंक बेलेंस खाली हो जाते हैं। एक घटना और याद आ रही है! बेटी डेंगू से पीड़ित थी और डाॅक्टर अजय चौधरी ने उसका इलाज करना शुरू किया और बड़े विश्वास से कहा, कि मैं इसे ठीक कर दूंगा और उपचार शुरू किया। एक दिन बेटी के प्लेटलेट्स चढ़ाये जा रहे थे कि मुझे अज्ञात नम्बर से फोन आया और कहा गया कि आप फलाने अस्पताल पहु़ंच जाइये ! हम तोशाम के निकट खानक के मज़दूर हैं और हमारे एक साथी की मृत्यु इलाज के दौरान हो गयी है, डाॅक्टर हमें शव ले जाने नहीं दे रहे। मैं चलने लगा तो पत्नी ने रोकने की कोशिश की कि आपकी बेटी ज़िंदगी से लड़ रही है और आप दूसरों के लिए भाग रहे हो ? मैंने कहा कि क्या पता उनकी दुआ मेरी बेटी को लग जाये और मैंं उस अस्पताल गया, जहां वे लोग मेरी राह देख रहे थे, डाॅक्टर के चैम्बर में उनके साथ गया और विनती की कि आप इनके साथी का पार्थिव शरीर‌ दे दीजिए लेकिन डाॅक्टर का कहना था कि ये हमारे पैसे नहीं दे रहे, इस पर मजदूरों ने बताया कि हमारी यूनियन ने चंदा इकट्ठा किया है और वही हमारे पास है, इससे ज्यादा की हमारी हिम्मत नहीं। डाॅक्टर ने कहा कि मैं‌ तो अपनी फीस छोड़ दूंगा लेकिन मेरे सहयोगी डाॅक्टर नहीं मानेंगे। मैंने कहा कि  फिर ठीक है, मेरे सहयोगी पत्रकार मेरी बात मान जायेंगे और अभी आकर लाइव चला देंगे, फिर आपका क्या होगा, यह विचार कर लीजिए ! बस, वे सयाने और अनुभवी थे, उन्होंने बिना एक रुपया लिए उन्हें उनके साथी का शव सौंप दिया लेकिन ऐसी नौबत अनेक अस्पतालों में आती है और आये दिन ऐसी शर्मसार करने वाली खबरें भी पढ़ने को मिलती हैं ! कृपया भगवान् का रूप बने रहिये ! उदय भानु हंस ने कहा भी है :

मैं न मंदिर न मस्जिद गया

कोई पोथी न बांची कभी

एक दुखिया के आंसू चुने

बस, मेरी बंदगी हो गयी !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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