(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जिंदगी के बाद भी…“।)
अभी अभी # 319 ⇒ जिंदगी के बाद भी… श्री प्रदीप शर्मा
क्या जिंदगी के साथ, सब कुछ खत्म हो जाता है, कुछ नहीं बचता ? माना कि जान है तो जहान है, जान गई तो जहान गया, तो क्या वाकई जिंदगी के बाद कुछ नहीं बचता। चलिए, मान लिया हम आए थे, तो कुछ नहीं साथ लाए थे, और जब जा रहे हैं, तब भी खाली हाथ ही जा रहे हैं, ले लो तलाशी, अब तो जान छोड़ो, अब तो जाने दो। बहुत बचा है अभी जिंदगी के बाद भी।
तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया। आपने हमें हमेशा इतना उलझाए रखा जिंदगी के फलसफे में, हम पल पल को जीते रहे, आपके दर्शन को मानते रहे ;
आगे भी जाने न तू
पीछे भी जाने न तू।
जो भी है, बस यही पल ….
पल पल करते, सांसें खत्म हो गईं, जो पलक सदा झपकती रहती थी, वह भी थम गई। ये जिंदगी के मेले तो कम नहीं हुए, वक्त की सुई भी चलती रही, बस सांसें ही तो थमी है।।
क्या जिंदगी के थमने से यात्रा भी खत्म हो जाती है, वह यात्रा जो अनंत है, किसने कहा जिंदगी का आखरी पड़ाव मौत है। आखिर जिंदगी ही तो थमी है, बंदगी तो चल रही है। बंदगी ना तो सांसों की मोहताज है और ना ही किसी हाड़ मांस के चोले की।
जिंदगी भर हम मंजिले मकसूद में ही उलझे रहे।
कभी साहिल, तो कभी किनारा ढूंढते रहे, और जब आखरी मंजिल सामने है, तो यह तो एक नए सफर की शुरूआत ही हुई न। अगर राही हमेशा चलता रहे, तो सफ़र कभी पूरा नहीं होता।।
सफर से थकना ही बुढ़ापा है, उम्मीद की लाठी टेक देना ही जिंदगी का आखरी मुकाम है। अगर लाठी और इरादा मजबूत है, तो फिर नया सफर शुरू। सही मंजिल और असली महबूब को अगर पाना है, तो सब कुछ जिंदगी के बाद भी है। मंजिलें अभी और हैं, जिंदगी के बाद भी।
इस लोक में जब तक रहे, अपने पराए में ही उलझे रहे। इस शरीर को ही अपना मानते रहे। बात भी सही है। न कभी आत्म दर्शन किया, न परमात्म दर्शन, तो बस फिर केवल दर्शन और प्रदर्शन ही तो बच रहा। जीवन का दर्शन जिंदगी के साथ खत्म नहीं होता, जीवात्मा का असली दर्शन तब प्रारंभ होता है जब वह परमात्मा से जुड़ता है।।
जब एक से जुड़ेंगे, तो दूसरे को तो छोड़ना ही पड़ेगा। जीव भ्रम में उलझा था, जीवन मृत्यु मायावी संसार से जुड़े हैं, पर ब्रह्म से नहीं। अपने असली लोक को परलोक कहने वाले और इस लोक को अपना कहने वाले न घर के रहेंगे न घाट के।
जो अनासक्त जीव शुरू से ही इस लोक को पराया अर्थात् परलोक मानता आया है, वही उसके असली लोक में जाने का अधिकारी है। सितारों से आगे जहान और भी हैं, बहुत कुछ है, जिंदगी के बाद भी।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उखड़े हुए लोग…“।)
अभी अभी # 318 ⇒ उखड़े हुए लोग… श्री प्रदीप शर्मा
कभी मैं भी इसी जमीन से जुड़ा था, इसी मिट्टी में पला बढ़ा था। आज जहां चिकने टाइल्स का फर्श है, कल वहां गोबर से लिपा हुआ आंगन था। एक नहीं, तीन तीन दरख़्त थे। कल कहां यहां सोफ़ा, कुर्सी, कूलर और ए सी थे, बस फकत एक कुआं और ओटला था।
सर्दी में धूप और गर्मी में नीम की ठंडी ठंडी छांव थी, बारिश में पतरे की छत टपकती थी, आसमान में बादल गरजते थे, बिजली चमकती थी। तब दीपक राग से चिमनी, कंदील नहीं जलती थी, केरोसीन के तेल से ही स्टोव्ह भी जलता था।।
घरों में लकड़ी का चूल्हा तो था, पर गैस नहीं थी। सिगड़ी भी कच्चे पक्के कोयले की होती थी, सीटी वाले कुकर की जगह तपेली और देगची में दाल चावल पकते थे। बिना घी के ही चूल्हे पर फूले हुए फुल्कों की खुशबू भूख को और बढ़ा देती थी। तब कहां नमक में आयोडीन और टूथपेस्ट में नमक होता था।
मौसम के आंधी तूफ़ान को तो हमने आसानी से झेल लिया लेकिन वक्त के तूफ़ान से कौन बच पाया है। पहले मिट्टी के खिलौने हमसे दूर हुए, फिर धीरे धीरे मिट्टी भी हमसे जुदा होती चली गई। वक्त की आंधी में सबसे पहले घर के बड़े बूढ़े हमसे बिछड़े और उनके साथ ही पुराने दरख़्त भी धराशाई होते चले गए। ।
इच्छाएं बढ़ती चली गई, भूख मरती चली गई।
सब्जियों ने स्वाद छोड़ा, हवा ने खुशबू। रिश्तों की महक को स्वार्थ और खुदगर्जी खा गई, अतिथि भी फोन करके, रिटर्न टिकट के साथ ही आने लगे। दूर दराज के रिश्तेदारों के पढ़ने आए बच्चे घरों में नहीं, हॉस्टल और किराए के कमरों में रहने लगे।
सब पुराने कुएं बावड़ी और ट्यूबवेल सूख गए, घर घर, बाथरूम में कमोड, शॉवर और वॉश बेसिन लग गए। पानी का पता नहीं, गर्मी में चारों तरफ टैंकर दौड़ने लग गए। सौंदर्यीकरण और विकास की राह में कितने पेड़ उखाड़े, कितने गरीबों के घर उजाड़े, कोई हिसाब नहीं।।
पहले जड़ से उखड़े, फिर मिट्टी से दूर हुए, पुराने घर नेस्तनाबूद हुए, बहुमंजिला अपार्टमेंट की तादाद बढ़ने लगी। अपनी जड़ें जमाने के लिए हमें अपनी मिट्टी से
जुदा होना पड़ा, संस्कार, विरासत और परिवेश, सभी से तो समझौता करना पड़ा। कितने घर उजड़े होंगे तब जाकर कुछ लोगों को मंजिलें मिली होंगी। अपनी मंजिल तक अब आपको लिफ्ट ले जाएगी। इसी धरा पर, फिर भी अधर में, क्या कहें, उजड़े हुए, उखड़े हुए अथवा लटके हुए ;
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ख़ामोशियों का सबब… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 224 ☆
☆ ख़ामोशियों का सबब… ☆
‘कुछ वक्त ख़ामोश होकर भी देख लिया हमने / फिर मालूम हुआ कि लोग सच में भूल जाते हैं’ गुलज़ार का यह कथन शाश्वत् सत्य है और आजकल ज़माने का भी यही चलन है। ख़ामोशियाँ बोलती हैं, जब तक आप गतिशील रहते हैं। जब आप चिंतन-मनन में लीन हो जाते हैं, समाधिस्थ अर्थात् ख़ामोश हो जाते हैं, तो लोग आपसे बात तक करने की ज़ेहमत भी नहीं उठाते। वे आपको विस्मृत कर देते हैं, जैसे आपका उनसे कभी संबंध ही ना रहा हो। वैसे भी आजकल के संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति होते हैं। आपने तनिक नज़रें घुमाई कि सारा परिदृश्य ही परिवर्तित हो जाता है। अक्सर कहा जाता है ‘आउट ऑफ साइट, आउट ऑफ माइंड।’ जी हाँ! आप दृष्टि से ओझल क्या हुए, मनोमस्तिष्क से भी सदैव के लिए ओझल हो जाते हैं।
सुना था ख़ामोशियाँ बोलती है। जी हाँ! जब आप ध्यानस्थ होते हैं, तो मौन हो जाते हैं और बहुत से विचित्र दृश्य आपको दिखाई देने पड़ते हैं और बहुत से रहस्य आपके सम्मुख उजागर होने लगते हैं। उस स्थिति में अनहद नाद के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं तथा आप अपनी सुधबुध खो बैठते हैं। दूसरी ओर यदि आप चंद दिनों तक ख़ामोश अर्थात् मौन हो जाते हैं, तो लोग आपको भुला देते हैं। यह अवसरवादिता का युग है। जब तक आप दूसरों के लिए उपयोगी है, आपका अस्तित्व है, वजूद है और लोग आपको अहमियत प्रदान करते हैं। जब उनका स्वार्थ सिद्ध हो हो जाता है, मनोरथ पूरा हो जाता है, वे आपको दूध से मक्खी की भांति निकाल फेंक देते हैं। वैसे भी एक अंतराल के पश्चात् सब फ्यूज़्ड बल्ब हो जाते हैं, छोटे-बड़े का भेद समाप्त हो जाता है और सब चलते-फिरते पुतले नज़र आने लगते हैं अर्थात् अस्तित्वहीन हो जाते हैं। ना उनका घर में कोई महत्व रहता है, ना ही घर से बाहर, मानो वे पंखविहीन पक्षी की भांति हो जाते हैं, जिन्हें सोचने-समझने व निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता।
बच्चे अपने परिवार में मग्न हो जाते हैं और आप घर में अनुपयोगी सामान की भांति एक कोने में पड़े रहते हैं। आपको किसी भी मामले में हस्तक्षेप करने व सुझाव देने का अधिकार नहीं रहता। यदि आप कुछ कहना भी चाहते हैं, तो ख़ामोश रहने का संदेश नहीं; आदेश दिया जाता है और आप मौन रहने को विवश हो जाते हैं। ख़ामोशियों से बातें करना आपकी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। आपको आग़ाह कर दिया जाता है कि आप अपने ढंग व इच्छा से अपनी ज़िंदगी जी चुके हैं, अब हमें अपनी ज़िंदगी चैन-औ-सुक़ून से बसर करने दो। यदि आप में संयम है, तो ठीक है, नहीं है, तो आपको घर से बाहर अर्थात् वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा दिया जाता है। वहाँ आपको हर पल प्रतीक्षा रहती हैं उन अपनों की, आत्मजों की, परिजनों की और वे उनकी एक झलक पाने को लालायित रहते हैं और एक दिन सदा के लिए ख़ामोश हो जाते हैं और इस मिथ्या जहान से रुख़्सत हो जाते हैं।
अतीत बदल नहीं सकता और चिंता भविष्य को संवार नहीं सकती। इसलिए भविष्य का आनंद लेना ही श्रेयस्कर है। उसमें जीवन का सच्चा सुख निहित है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसलिए ‘जो पीछे छूट गया है, उसका शोक मनाने की जगह जो आपके पास है, आपका अपना है; उसका आनंद उठाना सीखें’, क्योंकि ‘ढल जाती है हर चीज़ अपने वक्त पर / बस व्यवहार और लगाव ही है / जो कभी बूढ़ा नहीं होता। किसी को समझने के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती, कभी-कभी उसका व्यवहार बहुत कुछ कह देता है। मनुष्य जैसे ही अपने व्यवहार में उदारता व प्रेम का समावेश करता है, उसके आसपास का जगत् सुंदर हो जाता है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – विश्व जल दिवस विशेष – बिन पानी सब सून
जल जीवन के केंद्र में है। यह कहा जाए कि जीवन पानी की परिधि तक ही सीमित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। नाभिनाल हटाने से लेकर मृतक को स्नान कराने तक सारी प्रक्रियाओं में जल है। अर्घ्य द्वारा जल के अर्पण से तर्पण तक जल है। कहा जाता है-“क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा,पंचतत्व से बना सरीरा।’ इतिहास साक्षी है कि पानी के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व की उपलब्धता देखकर मानव ने बस्तियॉं नहीं बसाई। पानी के स्रोत के इर्द-गिर्द नगर और महानगर बसे। प्रायः हर शहर में एकाध नदी, झील या प्राकृतिक जल संग्रह की उपस्थिति इस सत्य को शाश्वत बनाती है। भोजन ग्रहण करने से लेकर विसर्जन तक जल साथ है। यह सर्वव्यापकता उसे सोलह संस्कारों में अनिवार्य रूप से उपस्थित कराती है।
पानी की सर्वव्यापकता भौगोलिक भी है। पृथ्वी का लगभग दो-तिहाई भाग जलाच्छादित है पर कुल उपलब्ध जल का केवल 2.5 प्रतिशत ही पीने योग्य है। इस पीने योग्य जल का भी बेहद छोटा हिस्सा ही मनुष्य की पहुँच में है। शेष सारा जल अन्यान्य कारणों से मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं है। कटु यथार्थ ये भी है कि विश्व की कुल जनसंख्या के लगभग 15 प्रतिशत को आज भी स्वच्छ जल पीने के लिए उपलब्ध नहीं है। लगभग एक अरब लोग गंदा पानी पीने के लिए विवश हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार विश्व में लगभग 36 लाख लोग प्रतिवर्ष गंदे पानी से उपजनेवाली बीमारियों से मरते हैं।
जल प्राण का संचारी है। जल होगा तो धरती सिरजेगी। उसकी कोख में पड़ा बीज पल्लवित होगा। जल होगा तो धरती शस्य-श्यामला होगी। जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न धार्मिक सिद्धांत मानते हैं कि धरती की शस्य श्यामलता के समुचित उपभोग के लिए विधाता ने जीव सृष्टि को जना। विज्ञान अपनी सारी शक्ति से अन्य ग्रहों पर जल का अस्तित्व तलाशने में जुटा है। चूँकि किसी अन्य ग्रह पर जल उपलब्ध होने के पुख्ता प्रमाण अब नहीं मिले हैं, अतः वहॉं जीवन की संभावना नहीं है। सुभाषितकारों ने भी जल को पृथ्वी के त्रिरत्नों में से एक माना है-“पृथिव्याम् त्रीनि रत्नानि जलमन्नम् सुभाषितम्।’
मनुष्य को ज्ञात चराचर में जल की सर्वव्यापकता तो विज्ञान सिद्ध है। वह ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ‘का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।
भारतीय लोक जीवन में तो जल की महत्ता और सत्ता अपरंपार है। वह प्राणदायी नहीं अपितु प्राण है। वह प्रकृति के कण-कण में है। वह पानी के अभाव से निर्मित मरुस्थल में पैदा होनेवाले तरबूज के भीतर है, वह खारे सागर के किनारे लगे नारियल में मिठास का सोता बना बैठा है। प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल जीवन रस है। अनेक स्थानों पर लोकजीवन में वीर्य को जल कहकर भी संबोधित किया गया है। जल निराकार है। निराकार जल, चेतन तत्व की ऊर्जा धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-“आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।’ बूँद वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।
लोक का यह अनुशासन ही था जिसके चलते कम पानी वाले अनेक क्षेत्रों विशेषकर राजस्थान में घर की छत के नीचे पानी के हौद बनाए गए थे। छत के ढलुआ किनारों से वर्षा का पानी इस हौद में एकत्रित होता। जल के प्रति पवित्रता का भाव ऐसा कि जिस छत के नीचे जल संग्रहित होता, उस पर शिशु के साथ मॉं या युगल का सोना वर्जित था। प्रकृति के चक्र के प्रति श्रद्धा तथा “जीओ और जीने दो’ की सार्थकता ऐसी कि कुएँ के चारों ओर हौज बॉंधा जाता। पानी खींचते समय हरेक से अपेक्षित था कि थोड़ा पानी इसमें भी डाले। ये हौज पशु-पक्षियों के लिए मनुष्य निर्मित पानी के स्रोत थे। पशु-पक्षी इनसे अपनी प्यास बुझाते। पुरुषों का स्नान कुएँ के समीप ही होता। एकाध बाल्टी पानी से नहाना और कपड़े धोना दोनों काम होते। इस प्रक्रिया में प्रयुक्त पानी से आसपास घास उग आती। यह घास पानी पीने आनेवाले मवेशियों के लिए चारे का काम करती।
पनघट तत्कालीन दिनचर्या की धुरि था। नंदलाल और राधारानी के अमूर्त प्रेम का मूर्त प्रतीक पनघट, नायक-नायिका की आँखों मेंे होते मूक संवाद का रेकॉर्डकीपर पनघट, पुरुषों के राम-श्याम होने का साझा मंच पनघट और स्त्रियों के सुख-दुख के कैथारसिस के लिए मायका-सा पनघट ! पानी से भरा पनघट आदमी के भीतर के प्रवाह का विराट दर्शन था। कालांतर में सिकुड़ती सोच ने पनघट का दर्शन निरपनिया कर दिया। कुएँ का पानी पहले खींचने को लेकर सामन्यतः किसी तरह के वाद-विवाद का उल्लेख नहीं मिलता। अब सार्वजनिक नल से पानी भरने को लेकर उपजने वाले कलह की परिणति हत्या में होने की खबरें अखबारों में पढ़ी जा सकती हैं। स्वार्थ की विषबेल और मन के सूखेपन ने मिलकर ऐसी स्थितियॉं पैदा कर दीं कि गॉंव की प्यास बुझानेवाले स्रोत अब सूखे पड़े हैं। भॉंय-भॉंय करते कुएँ और बावड़ियॉं एक हरी-भरी सभ्यता के खंडहर होने के साक्षी हैं।
हमने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। तालाबों की कोख में रेत-सीमेंट उतारकर गगनचुम्बी इमारतें खड़ी कर दीं। बाल्टी से पानी खींचने की बजाय मोटर से पानी उलीचने की प्रक्रिया ने मनुष्य की मानसिकता में भयानक अंतर ला दिया है। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है। दस लीटर में होनेवाला स्नान शावर के नीचे सैकड़ों लीटर पानी से खेलने लगा है। पैसे का पीछा करते आदमी की आँख में जाने कहॉं से दूर का न देख पाने की बीमारी-मायोपिआ उतर आई है। इस मायोपिआ ने शासन और अफसरशाही की आँख का पानी ऐसा मारा कि सूखे से जूझते क्षेत्र में नागरिक को अंजुरि भर पानी उपलब्ध कराने की बजाय क्रिकेट के मैदान को लाखों लीटर से भिगोना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा गया।
पर्यावरणविद मानते हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा। प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते। प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें। पानी की मात्रा की दृष्टि से भारत का स्थान विश्व में तीसरा है। विडंबना है कि सबसे अधिक तीव्रता से भूगर्भ जल का क्षरण हमारे यहॉं ही हुआ है। नदी को मॉं कहनेवाली संस्कृति ने मैया की गत बुरी कर दी है। गंगा अभियान के नाम पर व्यवस्था द्वारा चालीस हजार करोड़ डकार जाने के बाद भी गंगा सहित अधिकांश नदियॉं अनेक स्थानों पर नाले का रूप ले चुकी हैं। दुनिया भर में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं। आनेवाले दो दशकों में पानी की मांग में लगभग 43 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की आशंका है और हम गंभीर जल संकट के मुहाने पर खड़े हैं।
आसन्न खतरे से बचने की दिशा में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कुछ स्थानों पर अच्छा काम हुआ है। कुछ वर्ष पहले चेन्नई में रहनेवाले हर नागरिक के लिए वर्षा जल संरक्षण को अनिवार्य कर तत्कालीन कलेक्टर ने नया आदर्श सामने रखा। देश भर के अनेक गॉंवों में स्थानीय स्तर पर कार्यरत समाजसेवियों और संस्थाओं ने लोकसहभाग से तालाब खोदे हैं और वर्षा जल संरक्षण से सूखे ग्राम को बारह मास पानी उपलब्ध रहनेवाले ग्राम में बदल दियाहै।ऐसेे प्रयासोंें को राष्ट्रीय स्तर पर गति से और जनता को साथ लेकर चलाने की आवश्यकता है।
रहीम ने लिखा है-” रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।’ विभिन्न संदर्भों में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु पानी का यह प्रतीक जगत् में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है। पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा! महादेवीजी के शब्दों में कभी-कभी यथार्थ कल्पना की सीमा को माप लेता है। वस्तुतः पानी में अपनी ओर खींचने का एक तरह का अबूझ आकर्षण है। समुद्र की लहर जब अपनी ओर खींचती है तो पैरों के नीचे की ज़मीन ( बालू) खिसक जाती है। मनुष्य की उच्छृंखलता यों ही चलती रही तो ज़मीन खिसकने में देर नहीं लगेगी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन।🕉️
💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आम चुनाव…“।)
अभी अभी # 317 ⇒ आम चुनाव … श्री प्रदीप शर्मा
गर्मियाँ शुरू। अगले माह में आम चुनाव ! मुझे चुनाव से अधिक रुचि आम में रहती है। आम चुनाव तो पाँच वर्ष में एक बार आते हैं, हम तो हर वर्ष अपनी पसंद के आम चुन-चुनकर खाते हैं।
अभी आम का मौसम नहीं, आम चुनाव का मौसम है। आम ही नहीं, चुनाव के वक्त तो आदमी भी बौरा जाता है। पसंद अपनी अपनी ख़याल अपना अपना।।
हमारे यहाँ नंदलालपुरे में आमों की मंडी लगती थी। मुझे चुनाव का अधिकार नहीं था ! फिर भी अपने पिताजी की उँगली पकड़, मैं आम चुनाव के लिए निकल पड़ता था। सब तरफ आमों की खुशबू। आम के बाज़ार से, अच्छे आमों का चुनाव कोई हँसी खेल नहीं। हर दुकानदार अपने अपने आमों की ढेरी सजाए, ग्राहक ढूंढा करता था।
आम, चूसने वाले भी होते थे, और काटने वाले भी ! चुनाव आपको करना पड़ता था, आपको चूसने वाला चाहिए या काटने वाला।
अंगूर की तरह कभी कभी आम भी खट्टा साबित हो जाता था, जब चुनाव सही नहीं होता था। अपने आम को कोई खट्टा नहीं कहता। दुकानदार एक आम उठाकर देता था, लीजिये चखिए ! आप हाथ आगे कर देते ! ऐसे नहीं, पूरा आम चखिये। आप पर आंशिक प्रभाव तो पड़ ही चुका होता था। दिखाने वाला आम मीठा ही होता है। घर आकर पता चलता था, हमारा चुनाव गलत था।।
70 साल से आम खा रहा हूँ। आम चुनाव में भी भाग ले रहा हूँ। आज तक आम की पहचान नहीं कर पाया। आखिर आम होते ही कितने हैं। गुजरात का अगर केसर है, तो महाराष्ट्र के रत्नागिरी का हापुस। जो लोग महँगी पौष्टिक बादाम नहीं खा पाते, वह सीज़न के बदाम आम खाकर ही संतोष कर लेते हैं। दशहरी आम तो मानो शहद का टोकरा हो। तोतापरी तो नाम से ही लगता है, सिर्फ तोतों के लिए बना है।
आम फलों का राजा है। आम के चुनाव में अगर बनारस के लंगड़े का जिक्र न हो, तो चुनाव अधूरा है। चाहो तो काटकर खाओ, चाहो तो रस बनाओ। लेकिन आश्चर्य है कि आज तक किसी ने इसके नाम पर आपत्ति नहीं ली है। बनारस का आम, और लंगड़ा ? हो सकता है, इस आम चुनाव के पश्चात बनारस के आम को भी दिव्यांग आम घोषित कर दिया जाए।।
अभी तो अमराइयाँ बोरा रही हैं। आम और आम चुनाव का वास्तविक मज़ा तो मई माह में ही आएगा। सूँघ सूँघ कर, चख चख कर चुनाव करें, कहीं आम खट्टे न निकल जाएं। कुछ लोग आम का अचार डालते हैं ! उन्हें सख्त हिदायत दी जाती है कि अच्छे आमों का ही चयन करें।
अचार ऐसा डालें, जो टिकाऊ हो। ध्यान रहे ! आमों का मध्यावधि चुनाव नहीं होता।।
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..! आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 207 ☆
☆ आलेख – विश्व जल दिवस विशेष – बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..!☆ श्री संतोष नेमा ☆
विख्यात कवि रहिमन जी ने कहा है कि –
रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥
अर्थात पानी के बगैर सब कुछ बेकार सा है आजकल हम देख रहे हैं कि आदमी के अंदर का पानी तो खत्म हो ही रहा है.! पर ये बाहरी पानी भी ऑक्सीजन पर नजर आ रहा है.! प्रकृति ने यूं तो अपनी ओर से सभी को एक समान प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराए हैं.! पर व्यावहारिक जीवन में हम देखते हैं कि इन संसाधनों का सबसे ज्यादा उपयोग धनवान लोग ही कर पा रहे हैं.! गरीब तो आज भी अपनी मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है.? कहने को तो पृथ्वी के तीन चौथाई हिस्से में पानी है पर अफसोस यह पीने लायक नहीं है.! पेय जल मात्र तीन प्रतिशत ही है.! उसमें भी कुछ अंश ग्लेशियर एवं बर्फ के रूप में है.! इन परिस्थितियों के बावजूद भी कुछ लोग पानी पर अपना एकाधिकार समझते हैं.! और बेतरकीब ढंग से पानी का बेजा इस्तेमाल जैसे उनकी फितरत बन गई है.! गाड़ियों की धुलाई,बाग़ बगीचों की सिचाई, स्वीमिंग पुल की भराई, गैर जरूरी कार्यों में खर्च, जैसे रईसों की जरूरत बन गई है.! अब वो अपना देखें कि जरूरतमंदों, गरीबों के लिए सोचें.? आज यही सवाल सबसे बड़ा है.! आदमी इतना स्वार्थी एवं आत्मकेंद्रित हो गया है कि उसे अपने अलावा किसी की समस्याएं नजर आती ही नहीं.! आए दिन हम देखते हैं कि चाहे नगर हों, महानगर हों, गाँव हों,कस्बे हों हर जगह पेयजल की समस्याएं बिकराल रूप धारण किये हुए हैँ.! विगत वर्ष दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केपटाउन को जल विहीन शहर घोषित किया गया.! यह आधुनिक युग की सबसे बड़ी त्रासदी एवं दुर्भाग्य है.? हम दूर क्यों जाएं अपने देश में भी तमाम ऐसे शहर एवं इलाके हैं जहां जहां पर पानी की समस्या सुरसा की तरह बढ़ रही है.! राजस्थान,महाराष्ट्र,आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्यप्रदेश झारखण्ड, आदि प्रदेशों में भूमिगत जल स्तर बहुत नीचे आता जा रहा है.! भूमिगत जल का दोहन बड़ी तेजी के साथ लगातार जारी है.! जल स्रोतों की भी अपनी एक सीमाएं हैं जो कहीं ना कहीं हम भूल रहे हैं.! वैसे तो राज्य सरकारें एवं भारत सरकार भी घर घर जल पंहुचाने तमाम योजनाओं पर काम कर रही हैँ. ! हर घर जल योजना जल जीवन मिशन का एक भाग है, जिसे भारत में जल शक्ति मंत्रालय द्वारा लॉन्च किया गया है., पर यह सारी योजनाएं जल के स्रोतों पर ही तो आधारित हैं इसका भी हमें ध्यान रखना होगा.! जल के महत्व को दर्शाते हुए न जाने कितने कथन प्रचलित हैं जिनमें जल ही जीवन है,जल है तो कल है,जल बचाओ जीवन बचाओ,पानी की रक्षा देश की सुरक्षा, पानी बचाओ पृथ्वी बचाओ, जल ही जीवन का आधार है, आओ हम जल रक्षक बनें आदि अनेकों प्रेरक कथन हम सबके लिए अनुकरणीय एवं प्रेरक तो हैँ. पर हम कितने गंभीर हैँ ये हमें सोचना होगा! सरकारों द्वारा भी जल शक्ति अभियान, जल संरक्षण योजनाएं, अटल भू जल योजना,जैसी अनेकों योजनाएं भी जल संरक्षण के लिए तेजी से काम कर रही हैँ.! जल सिर्फ मानव जीवन को ही प्रभावित नहीं करता बरन तमाम व्यवसाय,उद्योग धंधे, निवेश आदि भी इससे पूरी तरह प्रभावित होते हैं.! अभी हाल ही में आईटी हब बेंगलुरू में बढ़ती पानी की समस्या को देखते हुए तमाम बड़ी कंपनियां वहां से पलायन की मानसिकता से दूसरी जगह तलासने में लग गईं हैँ.? ये दूसरा पहलू हमारे विकास की रफ़्तार को पीछे ढकेल सकता है.?
जल की प्रत्येक बूँद हमारे लिए कीमती है. इसे बचाने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए.! यूँ तो पुरी दुनिया में 22 मार्च को जल संरक्षण के लिए विश्व जल दिवस मनाया जाता है. जिसकी शुरुआत दरअसल 22 दिसंबर, 1992 को संयुक्त राष्ट्र असेंबली में प्रस्ताव लाया गया था, जिसमें ये घोषणा की गई कि 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाएगा. इसके बाद 1993 से दुनियाभर में 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. कैपटाउन जैसे शहर में तो प्रति व्यक्ति जल उपयोग करने की सीमाएं भी तय कर दी गई है जो जल की भयावह स्थिति को बयां करती हैँ.! कुछेक विश्लेषक तो यहाँ तक कहते हैं कि तीसरा विश्व युद्ध भी जल को लेकर हो सकता है.!! परिस्थितियां आपके सामने हैँ .! शासन अपने स्तर पर विभिन्न योजनाओं के माध्यम से काम कर रहा है पर इन सब के बावजूद यदि किसी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है तो वह हैँ हम और आप.! जब तक हम उपभोक्ता अंदर से स्वयं जागरूक ना होंगे तब तक जल संरक्षण के सार्थक परिणाम मिलना मुश्किल है.! हम जल के संरक्षण का असली महत्व समझकर उसे अपने जीवन में शामिल करें और उसके प्रति कृतज्ञ रहें। जल संरक्षण के प्रति हमें सचेत करने के लिए ही तमाम सामाजिक,एवं शासकीय संस्थाएं तेजी से काम कर रही हैँ. ! ना जाने कितने कवि और शायर इस विषय को लेकर अपनी कलम के माध्यम से उद्वेलित हैं.! अब यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप कब जागेंगे.? वक्त रहते जागना ही हम सबके हित में है अन्यथा कैप्टाउन जैसी स्थिति हमारे यहाँ निर्मित होने में देर न लगेगी.! अब तो आँखों का पानी भी सूख रहा है.? अभी समय आ गया है अपने अंदर के एवं बाहर के पानी को बचाने का.!
“पानी खूब बचाइये,पानी है अनमोल
बिन पानी जीवन नहीं,समझें इसका मोल”
आइये हम सब यह प्रण करें कि हम व्यर्थ पानी न बहाएंगे,इसका समुचित उपयोग और बचत कर जल संवर्धन में सहायक बनेंगे.! ताकि हमारा भविष्य उज्जवल हो.अन्यथा हमें यही कहना पड़ेगा कि “बिन पानी..! मुश्किल ज़िंदगानी.”
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बलि बोल कहे बिन उत्तर दीन्ही…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 187 ☆ बलि बोल कहे बिन उत्तर दीन्ही… ☆
आम बोलचाल की भाषा के मानक तय होते हैं जिन्हें सुनते ही अपने आप विशिष्ट अर्थ निकलता है। लिखने पढ़ने वालों को इनका उपयोग करते समय सतर्कता बरतनी चाहिए। शब्द ब्रह्म होते हैं जिनका अस्तित्व ब्रह्मांड में बना रहता है, जो देर सबेर लौट कर आते हैं। इसलिए अनुभवी लोग कहते हैं, तोल मोल के बोल, अच्छा और सच्चा बोलो।
जब तक भाषा पर पकड़ मजबूत न हो अपनी बातों को बोलते समय ध्यान रखना चाहिए। एक बार अनर्थ हो तो उसे अनेकार्थी बनने से कोई नहीं रोक सकता। सब लोग अपनी मर्जी से व्याख्या करते हैं।
कहते हैं क्षमा बड़न को चाहिए छोटो को उत्पात। पर प्रश्न ये है, कि कोई कब तक युवा बना रहेगा कभी तो बुजुर्ग होना होगा, यदि समझदारी नहीं दिखाई तो जिम्मेदारी मिलने से रही। आखिर मुखिया को मुख सा होना चाहिए जो-
पाले पोसे सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।
जितने लोग उतनी बातें, पर कुछ मुद्दों में सभी एक सुर से सही का साथ देते हैं और भीड़ में अकेले रह जाने का दर्द तो गलती करने वाले को भुगतना होगा। खैर जब जागो तभी सबेरा समझते हुए क्षमा मांगो और नयी शुरुआत करते हुए सर्वजन हितात सर्व जन सुखाय पर चिंतन करके राष्ट्रप्रेमी विचारों के साथ आगे बढ़ो।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “झोली भर दे…“।)
अभी अभी # 316 ⇒ झोली भर दे… श्री प्रदीप शर्मा
आप जब बाजार सौदा खरीदने जाते हैं, तो झोला लेकर जाते हैं, कीमत चुकाते हैं, झोला भरकर घर ले आते हैं, लेकिन जब मंदिर में ईश्वर से कुछ मांगने जाते हैं, तो अपनी श्रद्धानुसार पत्रं पुष्पम् समर्पित कर झोली फैला देते हैं। ईश्वर आपकी मुराद पूरी कर देता है, आपकी झोली भर देता है। कहा जाता है, आप उसके दर पर भले ही खाली हाथ जाओ, वह आपको कभी खाली हाथ वापस नहीं भेजता, आपकी झोली भरकर ही भेजता है।
यह पूरी तरह आस्था का मामला है। हर सवाली वहां भिखारी बनकर ही जाता है। दुनिया के सभी ताज, टोपी और पगड़ी वाले को हमने उसके आगे झुकते देखा है, और जो नहीं झुका, उसे बिगड़ते, बर्बाद होते भी देखा है। सीना छप्पन का हो, अथवा ताज हीरों का, उसकी चौखट पर कोई सर रगड़ता है तो कोई नाक।
उसकी किरपा हो तो मालामाल और उसका कोप हो तो सब ख़ाक।।
आखिर क्या होती है यह झोली और इसे कैसे फैलाया जाता है। मैं जब अपनी मां के साथ मंदिर जाया करता था, तो मां कुछ देर के लिए भगवान के सामने आंख बंद कर, अपना आंचल फैला देती थी। मैं घर आते वक्त पूछता था, मां आपने भगवान से क्या मांगा ? मां ने कभी जवाब नहीं दिया, लेकिन मुझे आज महसूस होता है, जिस मां के आंचल में मुझे जिंदगी की सारी खुशियां मिली हैं, मां ने झोली फैलाकर मेरे लिए वो खुशियां ही मांगी होंगी, क्योंकि मां ने अपने लिए भगवान से कभी कुछ नहीं मांगा।
किसी मां के पास साड़ी है तो किसी बहन के पास दुपट्टा। वह उसे जब ईश्वर के सामने फैलाती है, तो वह झोली बन जाती है। इधर झोली फैलाई, उधर मुराद पूरी हुई। मैं जब भी मंदिर गया हूं तो यंत्रवत् मेरी आंखें बंद हो जाती हैं और हाथ भी जुड़ जाते हैं लेकिन मेरे पास फैलाने के लिए कोई झोली नहीं होती। आंख खोलता हूं, पंडित जी प्रसाद देते हैं, मैं उसे श्रद्धा से ग्रहण कर, रूमाल फैलाकर उसमें बांध लेता हूं। मेरे लिए वही मेरी झोली है। भगवान का वह प्रसाद ही उनकी मुझ पर कृपा है। मुकेश का यह एक गीत गुनगुनाता मैं उसके दर से खुशी खुशी घर आ जाता हूं ;
बहुत दिया देने वाले ने तुझको।
आंचल ही न समाये तो क्या कीजे।।
झोली से बचपन याद आ गया। गांव में सहपाठियों के साथ खेलना, खेत में, अमराई में घुस जाना। पत्थर फेंककर अमियां तोड़ना, कमीज की नन्हीं सी जेब, छोटे छोटे हाथ। मजबूरन कमीज को ही झोली बनाते और जितनी कच्ची कच्ची केरियां झोली में समातीं, लेकर भाग खड़े होते।
इच्छाएं बढ़ती गईं, झोली बड़ी होती चली गई। झोली नहीं, चार्टर ऑफ डिमांड्स हो गई। देने वाले का क्या है, वह तो जिसे देना होता है, छप्पर फाड़कर भी दे ही देता है।
कभी दूसरे के लिए भी झोली फैलाकर देखें, कितना सुख मिलता है। वैसे इस सनातन प्रार्थना में झोली फैलाकर यही सब तो मांगा गया है उस सर्व शक्तिमान से ;
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख– लंदन से 4 – मिस्टर सोशल के फेसबुक अपडेट।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 267 ☆
आलेख– लंदन से 4 – मिस्टर सोशल के फेसबुक अपडेट
मिस्टर सोशल सोते, जागते, खाते, पीते, मीटिंग में हों, या किसी के घर गए हों, टीवी देख रहे हों या वाशरूम में हों, कोई उनसे बात कर रहा हो या वे किसी से रूबरू हों, वे सदा मोबाइलमय ही रहते हैं । मोबाइल ही उनकी लेखनी है, मोबाइल ही बजरिए फेसबुक उनकी प्रदर्शनी है ।
गुड मॉर्निंग दोस्तों ( बिस्तर पर पड़े पड़े) उनका पहला अपडेट आया ।
सुबह नींद देर से खुली, सूरज पहले ही ऊग आया था, पड़ोसी के मुर्गे की बांग तो सुनाई नहीं दी शायद वह भी आज देर तक सोता रह गया, या क्या पता कल रात उसके जीवन का अंत हो गया हो।
टूथ पेस्ट खत्म हो गया है, आफिस में व्यस्तता इतनी है कि लाना ही भूल जाता हूं। आज तो बेलन चलाकर सीधे टूथ ब्रश पर बचा खुचा पेस्ट निकाल कर काम चला लिया है। शाम को याद से लाना होगा। ( ब्रश करने के बाद चाय पीते हुए )
नाश्ते में उबले अंडे, केवल सफेद भाग और स्प्राउट। आफ्टर आल हेल्थ इज वेल्थ । ( नाश्ते की टेबल से)
तैयार होने के बाद उन्होंने स्वयं को मोबाइल के सेल्फी मोड में निहारा, और एक क्लिक कर लिया । सेल्फी चेंप दी … रेडी फार आफिस ।
तीन मित्रों और बास के मिस्ड काल थे, बातें कर लीं । व्हाट्स एप भी चैक किया,संपर्क में बने रहना चाहिए। नो क्मयूनिकेशन गैप इन लाइफ ।
(आफिस जाते समय कार से)
टिंग की आवाज हुई एक मेल का नोटिफिकेशन था । उन्होंने बिना विलंब मेल खोला, अरे वाह प्रकाशक ने उनकी आगामी किताब के कवर पेज के तीन आप्शन भेजे थे । तुरंत उन्हें फेसबुक पर पोस्ट करते हुए लिखा । शुभ सूचना, नई किताब का कवर भेजा है प्रकाशक ने।आप ही बताएं किसे फाइनल करूं ?
इसके बाद जब तक कार चौराहे के लाल सिग्नल पर खड़ी रही उन्होंने फटाफट अपनी सुबह से की गई पोस्ट पर आए लाइक्स और कमेंट पर इमोजी के जरिए सबको रिस्पांस किया । सबसे ज्यादा कमेंट सेल्फी वाली पोस्ट पर थे । कुछ मातहत और संपर्क के लोग जिनके काम उनके पास अटके थे, ने गुड मॉर्निंग से लेकर अब तक के सारे पोस्ट लाइक किए थे । वे लोग जैसे उनके फेसबुक कास्ट का इंतजार ही करते रहते हैं कि कब वे कुछ पोस्ट करें और वे लाइक और कमेंट करें । शेयर करने जैसे पोस्ट उनके कम ही होते हैं, क्योंकि उन्हें जमाने से अधिक आत्म प्रवंचना पसंद है। वे सोशल प्लेटफार्म पर शिक्षा लेते नहीं देते हैं।
आफिस पहुंचने से पहले वे सर्फिंग करते हुए दस बीस अनजाने फेसबुक के दोस्तों को लाइक्स भी बांट देते हैं, जन्मदिन पर बधाई दे देते हैं । यह सोशल बोनी कहलाती है, क्योंकि सद्भावना प्रतिक्रिया में ये लोग भी उनकी पोस्ट लाइक्स करते ही हैं, जो पोस्ट की रीच को रिच कर उन्हें टेकसेवी बनाती है।
जब यह सब निपट गया, और फिर भी आफिस टाइम ट्रैफिक जाम के चलते उन्हें कार्यालय पहुंचने में विलंब लगा तो उन्होंने खिड़की से नजर बाहर घुमाई, और सीधे फेसबुक पर उनकी कविता जन्मी…
ट्रैफिक में रेंगती हुई कार
कार के अगले दाहिने कोने पर
ड्राइवर, स्टीयरिंग संभाले हुए
पिछले बाएं कोने पर
गद्देदार सीट पर मैं
विचारों की कश्मकश
लक्ष्य बड़े हैं
फेसबुक दोस्त महज पांच हजार हैं
और मुझे अपने विचार पहुंचाने हैं
सारी दुनियां में
हर हृदय तक
उन्हें लगा एक अच्छी कविता बन चुकी है। बिना देर किए उन्होंने रचना फेसबुक पर चिपका दी । साथ में एक तुरंत लिया हुआ ट्रैफिक का फोटो भी । कमेंट आने शुरू हो गए। जब त्रिवेंद्रम से सुश्री स्वामीनाथन का लाइक आया तो उन्हें आभास हो गया कि वास्तव में रचना बढ़िया बन गई है। उन्होंने रचना कापी की और एक भक्त संपादक को अखबार के रविवारीय परिशिष्ट के लिए, फोटो सहित मेल कर दी । साथ ही अपनी आगामी किताब के कलेवर के लिए भी डाक्स में सेव कर ली ।
आफिस आ गया था, वे मुस्कराते हुए कार से उतरे और सोशल मीडिया से रियल लाइफ में एंटर हो गए ।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – “अजंता एलोरा से संख्यात्मक रूप से समृद्ध धामनार की गुफाएं”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 163 ☆
☆ आलेख – अजंता एलोरा से संख्यात्मक रूप से समृद्ध धामनार की गुफाएं ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
प्राचीनकाल में मालवा प्रांत शिक्षा, दीक्षा और धर्म का प्रचार का सबसे बड़ा व प्रभावी केंद्र रहा है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग वाला रास्ता प्राचीन काल में व्यापारियों का भारत में व्यापार करने का प्रमुख मार्ग रहा है। इसी मार्ग की चंदनगिरी पहाड़ी पर धम्मनगर बसा हुआ था। यह वही इतिहास प्रसिद्ध धम्मनगर है जहां एक ही शैल को तराश कर धर्मराजेश्वर मंदिर, ब्राह्मण, बौद्ध और जैनन गुफाएं बनी हुई है।
संख्यात्मक दृष्टि से देखें तो अजंता एलोरा और धम्मनार की गुफाओं में सर्वाधिक गुफाएं यहीं धम्मनगर में स्थित है। दिल्ली मुंबई मार्ग के रास्ते में शामगढ़ रेल मार्ग से 22 किलोमीटर दूर स्थित चंदवासा गांव है। इसी गांव से 3 किलोमीटर अंदर जंगल में धम्मनगर जिस का वर्तमान नाम धमनार है, स्थित है। यहां के जंगल में स्थित चंदनगिरी पहाड़ियों के 2 किलोमीटर हिस्से में गुफाएं फैली हुई है।
इतिहासकार जेम्स टाड़ सन 1821 में यहां आए थे। तभी उन्होंने अश्वनाल की आकृति की श्रृंखला में बनी 235 गुफाओं की गणना की थी। तभी से यह दबी, छुपी और पर्यटन आकाश से विलुप्त हुई गुफाएं अस्तित्व में आई है। चूंकि ये गुफाएं चंबल अभ्यारण व आरक्षित वन क्षेत्र में होने से यहां ठहरने, खाने-पीने और आवास की व्यवस्था नहीं होने से यह पर्यटन क्षेत्र में विकसित नहीं हो पाई।
इसी कारण से इस क्षेत्र की अधिकांश गुफाएं रखरखाव के अभाव में खंडहर में तब्दील हो गई है। इतिहासकार जेम्स फर्गुसन ने यहां आकर गुफाओं की गणना की थी। उन्हें यहां की 170 गुफाएं महत्वपूर्ण लगी। इसी के बाद पुरातत्व विभाग ने इनकी गणना की। जिनकी संख्या 150 से अधिक निकली। इनमें से 51 गुफाओं को पुरातत्व विभाग ने संरक्षित घोषित किया है।
जैसा कि पूर्व में बताया गया है यह क्षेत्र चंबल अभ्यारण में होने से यहां पर सुबह से शाम तक ही गुफाओं के दर्शन करने के लिए आया जा सकता है। यदि आप भूले-भटके संध्या के समय आ गए तो आपको 22 किलोमीटर दूर शामगढ़ जाकर विश्राम व खानपान आदि का लुफ्त उठाना पड़ेगा।
गुफाओं की संख्या व इतिहास की दृष्टि से देखें तो धम्मनगर की गुफा संख्या की दृष्टि से अजंता-एलोरा से सर्वाधिक ठहरती है। चूंकि अजंता की गुफाएं 200 से 600 ईसा पूर्व में निर्मित हुई थी। यहां बौद्ध धर्म से संबंधित चित्रण और बारीकी शिल्पकार की गई है। वहीं एलोरा की गुफाएं पांचवी से सातवीं शताब्दी के बीच निर्मित हुई थी, जिनमें से 17 हिंदू धर्म की गुफाएं, 12 बौद्ध धर्म की गुफाएं तथा 5 जैन धर्म की गुफाएं पाई गई है। इस तरह एलोरा में 34 गुफाएं विश्व धरोहर घोषित की गई है।
चूंकि कालक्रम के अनुसार अजंता से चौदह शताब्दी बाद धम्मनार की गुफाएं निर्मित हुई है। यह आठवीं और नौवीं शताब्दी में निर्मित गुफाएं हैं। जबकि अजंता की गुफाएं 200 से 600 ईसा पूर्व में निर्मित हुई थी। उन्हीं की तर्ज, शैली, वास्तुकला और उसी तरह के एक शैल पर उत्कीर्ण करके बनाए गई हैं। इसलिए उनसे संख्या में ज्यादा होने के कारण उनसे उत्कृष्ट थी।
इसकी उत्कृष्टता को कई कारणों से समझा जा सकता है। एक तो यहां भी परंपरा के अनुसार ब्राह्मण धर्म गुफाएं हैं। इसके लिए धर्मराजेश्वर का मंदिर लेटराइट पत्थर को तराश कर बनाया गया है। फर्क इतना है कि अजंता-एलोरा का कैलाश मंदिर दक्षिण भारती द्रविड़ शैली में बना हुआ है जबकि धर्मराजेश्वर का मंदिर उत्तर भारतीय नागरिक शैली में उत्कीर्ण है। दोनों मंदिरों में मुख्य मंदिर के साथ-साथ 7 लघु मंदिर हैं। यहां पर द्वार मंडप, सभा मंडप, अर्ध मंडप, गर्भ ग्रह और कलात्मक उन्नत शिखर जो कलशयुक्त है, उत्कीर्ण हैं।
दूसरा इसे व्यापारक्रम से भी समझा जा सकता है। यहां समुद्र मार्ग से व्यापार करने वाले व्यापारी इसी मार्ग से गुजरते थे। उनके लिए यहां ठहरने, विहार करने और विश्राम की उत्तम व्यवस्था थी। इस दौरान वे धर्म की शिक्षा-दीक्षा के लिए भी समय निकाल लिया करते थे।
प्राचीन काल में धर्म के प्रचार-प्रसार, शिक्षा-दीक्षा, विहार-आहार और पूजा-पाठ, प्रार्थना-अर्चना आदि कार्य प्रमुख केंद्र था। यहीं से विभिन्न प्रांत, प्रदेश, देश, विदेश में धर्म के प्रचार-प्रसार, शिक्षा-दीक्षा के लिए अनुयाई जाते-आते थे। इस कारण भारत की ह्रदय में स्थित होने से यह स्थान संपूर्ण भारत के लिए महत्वपूर्ण केंद्र था।
गुफाओं की समृद्धि के आधार पर देखें तो यहां की गुफाओं में बौद्ध धर्म, जैन धर्म से संबंधित धर्म की शिक्षा का चित्रण, भित्ति पर शिल्पकारी और गौतम बुद्ध की प्रतिमाएं विभिन्न मुद्रा में ऊपरी उकेरी गई है। यहां बुद्ध की बैठी, खड़ी, लेटी, निर्वाण, महानिर्वाण शैली की कई प्रतिमा लगी हुई है। इन गुफाओं में स्तुप, चैत्य, विहार और महाविहार की उत्तम व्यवस्था थी।
इसके लिए यहां उपासना गृह, पूजा स्थल, अर्चना के कक्ष तथा ध्यान केंद्र के लिए उपयुक्त स्थान बने हुए हैं। यहां पर निर्माण मुद्रा में बैठी गौतम बुद्ध की बड़ी-बड़ी मूर्तियां उकेरी गई है। इस जैसी मूर्तियां अजंता-एलोरा में भी देखी जा सकती है।
यहां की गुफाओं में से सात नकाशीदार गुफाएं हैं। इन 51 क गुफाओं में स्तुप, चैत्य, मार्ग और आवास बने हुए हैं। शैल उत्कीर्ण खंभे, लंबा-चौड़ा दालान, आवास श्रृंखला, ध्यान केंद्र, उपासना केंद्र, पूजा-अर्चना स्थल की एक लंबी श्रृंखला है।
इसके बारे में कहा जाता है कि जब ओलिवर वंश का शासन था तब यहां शिक्षा का बहुत बड़ा केंद्र मालव में था। उस समय पूरे मालवा प्रांत में उल्लेखनीय शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी। यहां पर उत्कृष्ट वास्तु व भवनकला, पच्चीकारी व पत्थर पर मीनाकारी के उत्कृष्ट शिक्षा-दीक्षा, पूरी वैज्ञानिक रीतिनिति व योजना को मूर्त देकर दी जाती थी। इसी समय यहां के राष्ट्रकूट शासन ने हिरण्यगर्भ यज्ञ किया था। जिसने बौद्ध धर्म के अनुयाई जो पूर्व में हिंदू धर्म से धीरे-धीरे बौद्ध धर्म में पर दीक्षित हुए थे उन्हें ब्राह्मण धर्म में परिवर्तित किया गया था।
चूंकि एलोरा की 17 हिंदू गुफा, 12 बौद्ध गुफा, 7 जैन गुफा कालक्रम अनुसार हिंदुओं के बौद्ध धर्म से जैन धर्म के क्षेत्र में विकसित होने हुए आगे बढ़ने की कथा कहती है। वहां हिरण्यगर्भ यज्ञ की बात सही प्रतीत होती है।
वैसे धम्मनगर की गुफाएं विश्व की उत्कृष्ट बौद्धविहार की गुफाएं, धर्म की उपासना का केंद्र, शिक्षा-दीक्षा के महत्वपूर्ण स्थल के साथ प्राचीन व्यापारी मार्ग का महत्वपूर्ण स्थान थी। इसमें दो राय नहीं है। आप यहां इंदौर, भोपाल, उदयपुर से हवाई जहाज से होकर शामगढ़ पहुंच सकते हैं। मंदसौर से 75 किलोमीटर दूर शामगढ़ से 22 किलोमीटर तथा चंदवासा से 3 किलोमीटर जंगल में स्थित इस स्थान पर बस व निजी साधन द्वारा आप सकुशल आ सकते हैं।