हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 329 ⇒ बत्ती गुल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बत्ती गुल।)

?अभी अभी # 329 ⇒ बत्ती गुल? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज एक अप्रैल है, और मेरे दिमाग की बत्ती गुल है। सुबह आंख खोलते जब कुछ नजर नहीं आया, तब पता चला, घर की बत्ती गुल है। खिड़की खोली तो तसल्ली हुई, पूरे मोहल्ले की बत्ती गुल है। मैं पेंशनभोगी हूं, कोई सुविधाभोगी नहीं। जो सुविधभोगी होते हैं, उनके घर की बत्ती कभी गुल नहीं होती, क्योंकि उनके घरों में इन्वर्टर और जनरेटर होते हैं। उनके जीवन में कभी अंधेरा नहीं होता ;

तुम्हें जिंदगी के उजाले मुबारक।

अंधेरे हमें आज रास आ गए हैं।।

जब भी घरों में बत्ती जाती थी, हम दीपक, चिमनी अथवा लालटेन जला लेते थे। तब घरों में स्टोव्ह भी घासलेट से ही जलते थे। हां पिताजी के पास एक टॉर्च जरूर होती थी।।

सुविधाओं के नाम पर हमारे पास पहले कैलकुलेटर आया और बाद में रेफ्रीजरेटर। बत्ती तब भी गुल होती थी, आज भी होती है। तब घंटों जाती थी, तो आदत पड़ जाती थी। आज दो मिनिट गर्मी बर्दाश्त नहीं होती, क्योंकि जालिम पंखा भी बिजली से ही चलता है।

होली और रंगपंचमी दोनों हो ली हैं, अब हमें तबीयत से पानी बचाना होना होगा, क्योंकि जल ही जीवन है। कूलर पहले बहुत पैसा मांगते हैं, और बाद में पानी। इंसान पैसा तो बहा सकता है, लेकिन पानी कहां से लाए। इसलिए समझदार लोग आजकल घरों में कूलर नहीं, एसी लगाते हैं, सुना है, वह पानी नहीं मांगता, सिर्फ पॉवर, यानी बिजली मांगता है।।

गर्मी में इंसान को जरा ज्यादा ही हवा पानी की जरूरत होती है। याद आती हैं बचपन की गर्मियों की छुट्टियां और ननिहाल।

वहां कहां हवा और पानी की कमी थी। आज शहरों से हवा भी हवा हो गई है और पानी भी हवा। कैसे गुजरेगी हमरी गर्मियां हो राम।

शुक्र है, बत्ती आ गई। आज अगर बत्ती वापस नहीं आती तो पूरा अप्रैल फूल ही हो जाता, क्योंकि अभी अभी कैसे लिख पाता। आप कैंडल लाइट डिनर तो कर सकते हैं, लेकिन मोमबत्ती के प्रकाश में लिख नहीं सकते। वैसे हमारा मोबाइल तो स्वयं प्रकाशित ही है। जली जली, दिमाग की बत्ती जली।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 272 ☆ आलेख – लंदन से 8 – बिना टिकिट की वैधानिक यात्रा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख लंदन से 7 – बिना टिकिट की वैधानिक यात्रा । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 272 ☆

? आलेख – बिना टिकिट की वैधानिक यात्रा ?

लंदन में परिवहन के लिए सबसे उम्दा साधन ट्यूब मेट्रो है ।

यहां आपको टिकिट नहीं लेना होता, साफ्टवेयर इस तरह का है की जब आप किसी भी स्टेशन पर प्रवेश करते समय गेट खोलने के लिए अपना बैंक कार्ड टैप करते हैं और जब बाहर निकले समय कार्ड टैप करते हैं, तो साफ्टवेयर किराया निकलकर सीधे बैंक से TFL के अकाउंट में चला जाता है।

ट्रांसपोर्ट फॉर लंदन (टीएफएल) शहर के व्यापक सार्वजनिक परिवहन नेटवर्क की देखरेख करता है, जिसमें अंडरग्राउंड, ओवरग्राउंड, बसें, ट्राम, डॉकलैंड्स लाइट रेलवे और यहां तक ​​​​कि एक केबल कार प्रणाली भी शामिल है जो आपको टेम्स और शहर के क्षितिज के ऊपर ग्लाइडिंग करवाती है।

यहां इंजिन को बिजली की सप्लाई ओवरहेड वायर से नहीं, ट्रेन की पटरियों के साथ लगी एक तीसरी पटरी से मिलती है, इसलिए किसी भी हालत में ट्रेन लाइन पैदल क्रास करने की गलती न करें ।

प्लेटफार्म और ट्रेन के बीच अंतर भारत से बहुत अधिक दिखा, माइंड डी गैप ।

ग्रेटर लंदन नौ क्षेत्रों में विभाजित है। इनमें लंदन शहर और उसके आसपास के 32 उप नगर शामिल हैं। ज़ोन एक में अधिकांश पर्यटक आकर्षण और शहर के स्थल हैं ।272 स्टेशनों पर सेवा देने वाली 11 अलग अलग रंगो नामो की लाइनों से सारे लंदन में जाया जा सकता है।

शहर की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली – दुनिया की सबसे पुरानी भूमिगत रेलवे है । ट्यूब हर साल लगभग 1.35 अरब यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाती है, थोड़ी सी तैयारी और गूगल के साथ, आप कुछ ही समय में एक स्थानीय व्यक्ति की तरह अपना रास्ता तय कर सकते हैं।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नव-मतदाताओं का कर्तव्य – ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

 

☆ आलेख ☆ नव-मतदाताओं का कर्तव्य ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव

जिन्होंने अभी-अभी अठारह वर्ष की आयु पार की है और जिनमें भारत माता की  सकल आशाएँ समाहित हैं ऐसे भारत के सकल राजकुमार और राजकुमारियों को मेरा दिलसे विनम्र प्रणाम!

अब्राहम लिंकन ने प्रसिद्ध रूप से लोकतंत्र को “लोगों द्वारा, लोगों के लिए, लोगों द्वारा संचालित सरकार” के रूप में परिभाषित किया। इसका एक अहम कदम है चुनाव! देश में १८ वीं लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं| १६ मार्च, २०२४ को केंद्रीय चुनाव आयोग ने सात चरणों (१९ अप्रैल से २ जून, २०२४) के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा की। १० फरवरी २०२४ को चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, देश में कुल ९६. ८८ करोड़ मतदाताओं में से १. ८५ करोड़ (१.९०%) ‘नव-मतदाता’ हैं| बताया गया है कि, इस विराट प्रक्रिया में ५ लाख मतदान केंद्र और १. ५ करोड़ चुनाव कर्मचारी कार्यरत हैं। चुनाव आयोग ने इस चुनाव  के लिए ४ ‘M’ चुनौतियों’ का विवरण दिया है। नव-मतदाताओं को इनकी सम्पूर्ण जानकारी लेना बहुत जरुरी है| Muscle (बाहुबल), Money (पैसा), Misinformation (गलत जानकारी) और MCC (Moral Code of Conduct) violation, (नैतिक आचार संहिता का उल्लंघन), इन मुद्दों पर वर्त्तमान चुनाव आयोग की पैनी नजर रहेगी|

जब पहली बार मतदान करने की जिम्मेदारी नव-मतदाताओं पर आती है, तो उन्हें दबाव में न आते हुए खुद को भाग्यशाली समझना चाहिए और गर्व से इसमें अपनी भूमिका अदा करनी चाहिए। मतदान के सबूत के तौर पर उंगली पर स्याही की एक बूँद को गर्व से प्रदर्शित किया जाने वाला अलंकार ही माना जाना चाहिए! उनके लिए यह समझना ज़रूरी है कि, हर एक मत अमूल्य है, बल्कि यह मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है| शायद उनका यहीं एक मत निर्णायक हो सकता है। जब तक मतदाता अपना कर्तव्य निभाने का यह पहला आनंद अनुभव नहीं करता, तब तक उसे इस चीज का ‘चार्म’ समझ में नहीं आएगा!

आंख मूँदकर किसी के कहने पर (परिवार के सदस्य, मित्रमंडली, अड़ोस-पड़ोस के लोग, केवल मंचीय वाक्पटु वक्ता या सेलेब्रिटी सितारों के प्रभाव में आकर)  या लालच में फंसकर या बिना किसी जांच-पड़ताल के मत देना था सो दे दिया, ऐसा गलत ऐटिटूड नहीं दिखाना चाहिए। मेरे युवा मित्रों, आजकल हर कोई अपनी स्पेस चाहता है न| ‘मेरी राय पर विचार किए बिना ऐसा क्यों किया?’ यह सवाल अपने बड़ों से पूछने वाले आप ‘सोचविचार करने वाली नेक्स्ट जनरेशन’ के प्रतिनिधि हैं ना! तो फिर वोट करते समय आपकी यहीं ऊर्जा अपने साथ रहने दें| अपनी पसंदीदा ऑनलाइन ज्ञानगंगा तथा आपकी सुपरकंप्यूटर जैसी तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता का निश्चित तौर पर उपयोग करें। चुनाव से सम्बंधित वेबसाइट के हर कोने की बारीकी से जाँच पड़ताल करें। अपना नाम मतदाता सूची में दर्ज कराने के लिए हरसंभव प्रयास करें। फिर यह भी जाँच कर लें कि, आपका नाम मतदाता सूची में है या नहीं। गलती से यदि वह नहीं हुआ है, तो क्या करना है इसका हल ढूंढने पर जरूर मिलेगा। ismen मैं अपनी और से थोडीसी जानकारी जोड़ दूँ! देखिए किस प्रकार  आप १८ वर्ष पूरे होने का इंतजार किए बिना मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज करा सकते हैं। अगस्त २०२२ के संशोधित नियम आपके लिए बेहद अनुकूल हैं। १ जनवरी, १ अप्रैल, १ जुलाई और १ अक्टूबर को जब आप १८ वर्ष के हो जाएंगे, तो उस बिंदु पर आपका नाम मतदाता सूची में शामिल हो सकता है। (पहले १ जनवरी ही एकमात्र तारीख मानी जाती थी) यह भी ध्यान में रखें कि, मतदाता पहचान पत्र आपकी विश्वसनीय भारतीयता और निवास के प्रमाण के रूप में जनता और सरकार को स्वीकार्य होता है।

अब सरकार और समाज आपके अधिकार के प्रति अधिक जागरूक हो गए हैं। इस चुनाव में अधिक से अधिक संख्या में नये मतदाता कैसे भाग ले सकते हैं, इसका प्रबंधन विभिन्न स्तरों पर किया जा रहा है| विभिन्न कॉलेज इस मुद्दे पर जागरूकता अभियान चला रहे हैं और छात्रों का उपबोधन (काउंसलिंग) कर रहे हैं, साथ ही इस बात का भी पूरा ध्यान रखा जाएगा कि, मतदान के दिन विद्यार्थियों की परीक्षाएं न हो। इस संबंध में युवा संगठनों तथा युवा नेताओं को अपने हमउम्र साथियों का विशेष ‘ज्ञानप्रबोधन’ करने की पहल करनी चाहिए। शायद अगले चुनाव में आपमें से कोई युवा नेता मैदान में खड़ा हो!

प्रिय नव-मतदाताओं, आप जिस केंद्र पर मतदान करने वाले हैं, वहाँ जो भी उम्मीदवार खड़े हैं, उनके बारे में A TO Z जानकारी निश्चित रूप से चुनाव वेबसाइट पर उपलब्ध होगी, बल्कि, यह अनिवार्य है| आप उसकी प्रोफाइल देखिए| यह सोचें कि वह आपके लिए क्या कर सकता है, जैसे- भविष्यकालीन जीवन में आपके लिए शिक्षा, रोज़गार के अवसर, युवाओं के लिए काम करने का उनका जुनून और क्षमता, युवा पीढ़ी के लिए उनकी योजनाएँ, आदि! विभाग की समस्या सुलझाने की कुशलता, आपके विभाग के लिए पहले किए गए महत्वपूर्ण सामाजिक कार्य, अगर यह व्यक्ति लोकसभा में जाता है तो आपके भावी जीवन में इसका कितना योगदान होगा? आइये, अपने निर्धारित निष्पक्ष मानदंडों के आधार पर पहले से ही जांच करें कि, कौनसा उम्मीदवार आपको सही उम्मीदवार लगता है, न कि जब आप वोटिंग मशीन के सामने खड़े हों। आपको बैलेट पेपर का वर्चुअल सैंपल यानि ओपन क्वेश्चन पेपर देखने को मिलता है और गंभीर रूप से सोचने के लिए पर्याप्त समय भी! क्या सुन्दर परीक्षा है! चुनाव के दिन शान से जाएं और EVM मशीन का उपयोग करके (पहले से तय) स्थान पर वोट डालकर इस परीक्षा के समापन का जश्न धूमधाम से मनाएं! लेकिन यह वोटिंग गुप्त होता है, इसलिए आपने किसे वोट दिया, यह रहस्य अपने तक ही सीमित रहने दीजिए! यदि आपने जिस उम्मीदवार को वोट दिया है, वह निर्वाचित हो जाए तो अच्छा ही है, लेकिन यदि वह हार जाए तो बुरा मत मानिए, क्योंकि आपने अपना कर्तव्य जागरूकता से निभाया है, इसका आनन्द जताइए!

NOTA-(नोटा-“None Of The Above”) क्या है, इसकी जानकारी प्राप्त कीजिये| २००९ से मतदाताओं को यह सुविधा प्रदान की जा रही है। यानी कई लड़कियों (या लड़कों) को देखने के बाद भी, मुझे उनमें से कोई भी पसंद नहीं आई/आया! ऐसे समय में मुझे किसी को वोट देने की इच्छा नहीं है, फिर मतदान केंद्र पर क्यों जाऊँ? कृपया ऐसा मत सोचिये| ‘NOTA’ विकल्प चुनें, जिसका अर्थ है कि, मुझे कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं है। इसके बारे में समग्र जानकारी हासिल करें कि, इस प्रक्रिया में ‘इनकार’ भी कैसे महत्वपूर्ण है। मैं इस बात पर इसलिए जोर दे रही हूँ कि, चाहे जो भी हो, जैसा भी हो, आपको वोट देने का अपना अधिकार नहीं छोड़ना चाहिए!

मेरे विचार में यहाँ कुछ बातें महत्वपूर्ण हैं। माता-पिता को बच्चों की मतदान की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप किए बिना उनका नाम मतदाता सूची में शामिल करवाने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। इसके लिए घर के सभी सदस्यों को मन में यह हानिकारक विचार कदापि नहीं लाना चाहिए कि, जब मतदान के दिन छुट्टी है तो चलो पिकनिक मनाएं| आपको प्रत्येक चुनाव में मतदान करके अपने बच्चों के सामने अपना आदर्श स्थापित करना चाहिए। मेरा दृढ़ विश्वास है कि, बच्चे स्वयं  ही आपका अनुसरण करेंगे। मेरे युवा मित्रों, आप देश की सकारात्मक ऊर्जा के प्रतिनिधि हैं। इसे वर्तमान स्थिति, चुनाव प्रक्रिया की खामियों या उम्मीदवारों के प्रति पूर्वाग्रहपर बेकार ही बर्बाद न करें। यदि आप मतदान नहीं करते हैं, तो संभावना है कि, गलत उम्मीदवार चुना जाएगा। इसके लिए गैर-मतदाता जिम्मेदार हैं| उनके निर्वाचित होने के बाद आपको उनके नाम पर कीचड़ फेंकने का कोई अधिकार नहीं है। वोट न देकर आप उसे पहले ही खो चुके हैं। ‘मैं अपनी सरकार खुद चुनूंगा’ इतना आसान formula हम क्यों नहीं अपनाते?

क्या हमें अपनी भारत माता के प्रति वहीं श्रद्धा नहीं होनी चाहिए, जिस भावना से हम मंदिरों और तीर्थयात्रा पर जाते हैं? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति हमारी पराकाष्ठा घर से शुरू होती है| उसमें ‘मैं जो चाहूँ वह करूँगा, बोलूंगा या लिखूंगा, मेरी मर्जी!’ लेकिन कुछ लोगों को मात्र १ किलोमीटर की जरासी दूरी पार कर बिना किसी विशेष प्रयास के EVM (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) का बटन दबाने में इतनी परेशानी कैसे होती है? चुनावी छुट्टी मौज-मस्ती में बिताने की दुर्बुद्धि कैसे होती है? दुखद तथ्य यह है कि, गैर-मतदाताओं में शिक्षित शहरी सबसे अग्रसर हैं। मतदाताओं का प्रतिशत यही कहता है| कभी-कभी मतदान ४०% या उससे भी कम होता है, यह हमारे लोकतंत्र के लिए चिंता और अपमान का विषय है। नव- मतदाता! अब आप ही इसपर जालिम समाधान ढूंढें और अपनी नवपरिणीत ऊर्जा का समूचा उपयोग करते हुए अपने परिवार को मतदान केंद्र तक (यदि आवश्यक हो तो बलपूर्वक) ले जाएं| ‘बून्द बून्द से ही सागर बनता है’ इस उक्तिनुसार एक एक वोट से ही वोटों का दरिया बनता है। युवकों और युवतियों, आप हमारे लोकतंत्र को नव संजीवनी प्रदान करने वाले भारतमाता का बल हैं!

मित्रों, ये बड़े गर्व की बात है कि, हमारी आश्चर्यजनक विraat चुनाव प्रक्रिया सम्पूर्ण दुनिया में छाई हुई है। विभिन्न देशों और यहाँ तक कि, अमरिका से भी विशेषज्ञ इसका अध्ययन करने आये और इसकी भूरी भूरी प्रशंसा कर गए। तो दोस्तों आप किसका इंतज़ार कर रहे हैं? १८ वा वर्ष धोखे का दर्शक नहीं, बल्कि सचमुच में आपके ‘वयस्क’ होने का दिशादर्शी है| अब आप बड़े हो गए हैं! मतदान दिवस सार्वजनिक अवकाश के साथ साथ सार्वजनिक कर्तव्य पूर्ति का भी दिन भी है। “मतदान मेरा अधिकार है और मैं लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए मतदान करूंगा।” यह स्वयं से प्रतिज्ञा कीजिये| पहली बार मतदान करते समय ही इस कर्तव्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दें!

मित्रों, मतदान के बारे में इन दो उत्साहवर्धक गीतों को यू ट्यूब पर अवश्य देखें। यदि लिंक काम न करे, तो शब्द डालें और देखें।

Election awareness song composed by the HP Police band, ‘Harmony of the Pines’

Main Bharat Hoon- Hum Bharat Ke Matdata Hain | ECI Song | NVD 2023 | Multilingual Version

मेरा आप सभी से अनुरोध है कि इस लेख को (गाने के साथ) अधिक से अधिक शेयर करें और मतदान जागरूकता अभियान से जुड़ें। आप न केवल मतदान करें, बल्कि इस राष्ट्रीय कर्तव्य को पूरा करने में दूसरों को भी शामिल करें। लोकतंत्र की इस महान प्रक्रिया में पहली बार भाग लेने के उपरान्त, अपनी उंगली पर स्याही से बने जय चिह्न के साथ विजेता की मुद्रा में एक आकर्षक सेल्फी लें और उसे तुरंत ही सोशल मीडिया पर पोस्ट करें!

जयहिंद! जय महाराष्ट्र!

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 328 ⇒ मोहे भूल गये साॅंवरिया… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मोहे भूल गये साॅंवरिया।)

?अभी अभी # 328 ⇒ मोहे भूल गये साॅंवरिया? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भूलना सांवरिया अर्थात् पतियों की आम बीमारी है। दफ्तर जाते वक्त क्या क्या नहीं भूल जाते ये सांवरिया लोग। कभी रूमाल तो कभी चश्मा, कभी टिफिन तो कभी मोबाइल। वार त्योहार तो छोड़िए, कभी कभी तो वार भी भूल जाते हैं, रविवार को भी दफ्तर जाने की जल्दी मची रहती है। हाथ में गलती से शनिवार का अखबार आ गया तो शनिवार ही समझ बैठे।

भुलक्कड़ इंसान उम्र के साथ होता है अथवा शादी करने के पश्चात्, यह भी कोई पत्नी ही बता सकती है, क्योंकि उनकी ही यह आम शिकायत रहती है, आप तो ऐसे न थे। वैसे भी कौन याद रखता है शादी के पहले के वो वादे वो कसमें और वे इरादे।।

इस विषय में पतियों की अपेक्षा अगर पत्नियों की ओर मुखातिब हुआ जाए, तो ही बात बन सकती है, क्योंकि पति महोदय के पास तो एक ही रटा रटाया बहाना है ;

आज कल याद कुछ और

रहता नहीं।

एक बस आपकी याद

आने के बाद।।

एक बाज़ार का दृश्य देखिए। घर से सजनी और सावरिया एक स्कूटर पर सवार हो तफरी करने निकले हैं, बीच बाज़ार में स्कूटर रुकता है और सजनी जल्दी जल्दी किसी दुकान से सौदा लेकर वापस लौटती है। हेलमेटधारी सांवरिया स्कूटर में किक मारते हैं, और यह जा, वह जा।

वे यह मान बैठते हैं कि सजनी स्कूटर पर सवार हो गई हैं।

दुनिया यह तमाशा देख रही है। उधर सांवरिया को लोग घूर रहे हैं, कैसा इंसान है, पत्नी को बिना लिए ही चला गया। अगर ईश्वर भूले हुए सांवरिया को सद्बुद्धि दे देता है, तो पीछे मुड़कर देखते ही, उन्हें अपनी गलती का अहसास हो जाता है और वे कुछ दूर से ही पलटकर वापस आ जाते हैं, और अपना सामान ले जाते हैं। कहीं कहीं तो सांवरिया पीछे मुड़कर देखते ही नहीं और अकेले ही घर पहुंच जाते हैं।।

यह तो संस्मरण का मात्र एक सैंपल है, ऐसे संस्मरणों के तो कई संस्करण निकल सकते हैं। जहां सजनी और सावरिया में आपसी समझ होती है, वहां ऐसी भूल, कभी भूलकर भी नहीं होती। मोटर साइकिल पर तो वैसे भी सहारे के लिए साजन के कंधे पर हाथ रखना पड़ता है। जहां साथ में बच्चा भी होता है, वहां तो साजन पर पिता का भी अतिरिक्त दबाव होता है।

जिम्मेदारी इंसान को चौकन्ना बना देती है।

जब से घरों में कार आई है, सांवरिया को कार की चाबी भूलने की बीमारी हो गई है। कार में पेट्रोल का खयाल भी पत्नी को ही रखना पड़ता है और इंश्योरेंस का भी। वैसे जब कार में दोनों आगे बैठते हैं, तो गाड़ी चलाने के निर्देश भी सजनी ही दिया करती है। आगे स्पीड ब्रेकर है, गाड़ी धीमी करो, इतनी तेज मत चलाओ, सामने देखो, मुझसे बात मत करो। बस मेरी बात सुनो।।

कुछ ऐसे भी सांवरिया होते हैं जो अपना तो छोड़िए, अपनी सजनी का जन्मदिन भी याद नहीं रखते। बड़ा अफसोस होता है यह जानकर कि अपनी शादी की सालगिरह पर सजनी तो सज संवर रही है और सांवरिया दोस्तों के साथ महाकाल के दर्शन करने चल दिए हैं।

कोई इंसान यह कैसे भूल सकता है कि वह शादीशुदा है। ईश्वर हर सजनी को ऐसे सांवरिया से बचाए।

ऐसी स्थिति में वह यह गीत तो गा ही नहीं सकती, कि हो के मजबूर मुझे, उसने भुलाया होगा। वह तो बस यही कहेगी ;

ज़ुल्मी हमारे सांवरिया हो राम।

कैसे गुज़रेगी हमरी उमरिया हो राम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 327 ⇒ रिश्ते और फरिश्ते… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हालचाल ठीक ठाक हैं।)

?अभी अभी # 327 ⇒ रिश्ते और फरिश्ते? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 रिश्ता क्या है तेरा मेरा !

मैं हूं शब, तू है सवेरा।।

कुछ रिश्ते हमें बांधते हैं और कुछ मुक्त करते हैं।

जो स्वयं मुक्त होते हैं, जब हम उनसे जुड़ते हैं, तो हमें भी मुक्ति का अहसास होता है लेकिन जिसे संसार ने जकड़ लिया है, और अगर हमने उसे पकड़ लिया है, तो वह हमारा भी बंधन का ही कारण सिद्ध होता है।

रिश्तों को बंधन का कारण माना गया है। बंधन में सुख है, थोड़ा प्रेम भी है, थोड़ी आसक्ति भी। कुछ बंधन इतने अटूट होते हैं जो टूटे नहीं टूटते, और कुछ बंधन इतने शिथिल और कमजोर होते हैं, कि संभाले नहीं संभलते। कहीं रिश्तों में गांठ आ जाती है तो कहीं तनाव

और कहीं सिर्फ एक प्रेम का धागा ही रिश्तों की बुनियाद बन जाता है।।

रिश्ता दर्द भी है और दवा भी। रिश्ते में कहीं फूल सी खुशबू है तो कहीं कांटों सी चुभन भी है। किसी की फुलवारी महक रही है तो कहीं घरों के बीच दीवार खड़ी हो रही है ;

रिश्तों में दरार आई

बेटा न रहा बेटा,

भाई न रहा भाई …

ऐसी मनोदशा में जब रिश्ते साथ नहीं देते, कहीं से एक फरिश्ता चला आता है। कहते हैं, फरिश्ते का किसी से कोई रिश्ता नहीं होता। वह तो बस फरिश्ता होता है। यह फरिश्ता हमारे आसपास ही होता है, लेकिन हमें कभी नजर नहीं आता।

आप सड़क के बीच, कुछ अनमने से, कुछ खाए खोए से चले जा रहे हैं, पीछे से एक वाहन हॉर्न दे रहा है, कहीं से अचानक एक अनजान व्यक्ति फुर्ती से आता है और आपको पकड़कर सड़क के किनारे ले जाता है। आप कुछ समझ नहीं पाते। वह आपकी जान बचाकर वहां से चला जाता है। कोई जान ना पहचान। आप सोचते हैं, जरूर कोई फरिश्ता ही आया होगा आपकी जान बचाने।

जीवन में ऐसे काई अवसर आते हैं, जब संकट की घड़ी में कहीं से अनायास ही ऐसा कुछ घटित हो जाता है, जिससे हम राहत की सांस लेने लगते हैं।।

रिश्ता अच्छा बुरा हो सकता है, फरिश्ता कभी बुरा नहीं होता। कभी कभी हमें रिश्तों में भी फरिश्ते नजर आते हैं तो कुछ रिश्ते असहनीय दर्द और मानसिक पीड़ा के कारण रिसते नजर आते हैं। ऐसी परिस्थिति में भी कोई फरिश्ता हमारा रहबर बनकर कहीं से प्रकट होता है और हमें उस पीड़ा से उबार लेता है।

फरिश्ते का भी क्या कभी नाम होता है, कोई पहचान होती है ! जी हां, कभी कभी हो भी सकती है।

हर नन्हा बच्चा एक नन्हा फरिश्ता होता है। कभी हमें अपनी मां ही फरिश्ता नजर आती है तो कभी बहन अथवा भाई। कृष्ण सुदामा तो दोनों ही फरिश्ते होंगे। राम लक्ष्मण जैसे भाई जहां हों, वहां तो फरिश्ते भी शरमा जाएं।।

हमें जहां भी भलाई और अच्छाई नजर आ रही है, वह सब उन फरिश्तों की बदौलत ही है। वे फरिश्ते हम आप भी हो सकते हैं। अच्छे रिश्तों को ही हमने फरिश्तों का नाम दिया हुआ है। किसी गिरते को थाम लेना, किसी मुसीबतजदा इंसान की मदद करना, यही तो एक फरिश्ते का काम होता है।

फरिश्ता स्वयं ईश्वर नहीं होता, लेकिन वह ईश्वर का दूत अवश्य होता है। फरिश्ते की ना तो आरती होती है और ना ही फरिश्ते का कोई मंदिर होता है। न आरती न अगरबत्ती, फिर भी कहीं से संकटमोचक की तरह प्रकट हो जाए, आपकी बिगड़ी बना दे, और गायब हो जाए।।

कितने फरिश्ते हमारे आसपास हैं, हमें मालूम ही नहीं। अच्छाई को महसूस करना ही फरिश्ते को पहचानना है।

जब रिश्तों में स्वार्थ और खुदगर्जी का स्थान प्रेम और त्याग ले लेगा। बुराई अच्छाई की चकाचौंध में कहीं नज़र नहीं आएगी, दूसरों का दुख हमें अपना लगने लगेगा, हर प्यासे तक कोई फरिश्ता कुआं बनकर आएगा, तब हम सब मिलकर यह तराना गाएंगे ;

फरिश्तों की नगरी में

आ गया हूं मैं,

आ गया हूं मैं …!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 77 – देश-परदेश – विश्व रंग मंच दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 77 ☆ देश-परदेश – विश्व रंग मंच दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

रंग मंच भी समयानुसार अपने रूप बदल बदल कर हमारे जीवन के यथार्थ परोसता रहता हैं।

सदियों पूर्व कलाकार पैदल पैदल घूम घूम कर अपनी कला की सुगंध को बिखेरते थे। पहिए के अविष्कार से ये लोग भी बैलगाड़ी, ऊंट गाड़ी आदि साधनों को उपयोग कर अपनी पहुंच दूर दराज तक करने लगे थे।

समय तेज गति के साधन का हुआ, तो ये लोग भी एक छोटी बस/ ट्रक इत्यादि से काफिला का रूप लेकर प्रगति करते रहें। करीब दो सदी पूर्व सिनेमा के द्वारा मनोरंजन उपलब्ध करना आरंभ किया जिसने  तो मंच कलाकार को बहुत हद तक कमज़ोर कर दिया हैं।

टीवी नामक छोटे पर्दे ने रही कसर निकाल कर रंग मंच की कमर ही तोड़ दी हैं। “दुनिया मुट्ठी” में को सच साबित करने वाला मोबाईल यंत्र ने तो रंग मंच को वेंटिलेटर पर पहुंचा दिया हैं।

रंग मंच के कलाकार भी एक अलग मिट्टी के बने हुए होते हैं। अपनी अंतिम सांस तक लड़ते हुए रंग मंच को जीवित रखे हुए हैं। अपने अस्तित्व की लड़ाई को जारी रखते हुए इन सभी कलाकारों को नमन।

टीवी पर दिखाए जाने वाले सीरियल हो या जंगली जानवरों से भी बदतर तरीके से लड़ते हुए विभिन्न राजनैतिक दल के प्रतिनिधि हो मात्र झूट और फरेब फैलाते हैं।

इसी प्रकार का कार्य हमारा व्हाट्स ऐप भी कर रहा है। ज्ञान की इतनी ओवर डोज दे देता है, कि अपच हो जाती हैं। जिस प्रकार जरूरत से अधिक भोजन शरीर को लाभ के स्थान पर हानि अधिक पहुंचता है, उसी प्रकार से व्हाट्स ऐप का ज्ञान और मनोरंजन हमें मानसिक रूप से क्षति पहुंचा रहा है।

हमारा ये लेख भी तो कहीं आपको मानसिक रूप से अशांति तो नहीं दे रहा है ?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 326 ⇒ बिना शीर्षक… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बिना शीर्षक।)

?अभी अभी # 326 ⇒ बिना शीर्षक? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या कोई रचना बिना शीर्षक भी हो सकती है। जहां केवल विचार व्यक्त होते हैं, वह अभिव्यक्ति कहलाती है। अक्सर लेखक पहले विषय वस्तु का चुनाव करता है। जैसे जैसे विषय का विस्तार होता चला जाता है, शीर्षक अपने आप सूझने लगता है। शीर्षक को आप रचना की माथेरी बिंदु भी कह सकते हैं।

जिस तरह बच्चे की पहचान उसके नाम से होती है, कोई रचना अपने शीर्षक से ही पहचान बनाती है। बच्चे के साथ उसके पिता का नाम उसे समाज में मान्यता देता है। एक रचना की पहचान भी कहां लेखक के बिना संभव है। पाठक पहले शीर्षक देखता है, फिर उसका ध्यान लेखक पर जाता है।।

शीर्षक की तरह ही अगर रचना के साथ उसके लेखक का नाम नहीं हो, तब भी बात जमती नहीं। शीर्षक और लेखक के नाम के बिना हर रचना अधूरी है। बिना शीर्षक की रचना को पढ़कर उसका शीर्षक तो एक बार फिर भी दिया जा सकता है लेकिन अगर रचना के साथ लेखक का नाम नहीं दिया गया हो, तो रचना किसकी है, यह पता लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाता है।

एक कुशल संपादक रचना की श्रेष्ठता को वरीयता देता है लेखक को नहीं। स्थापित लेखक तो जो लिखता है, छप जाता है। कितना अच्छा हो, रचना के चयन के वक्त, लेखक का नाम गुप्त रखा जाए। वैसे एक प्रयोग यह भी किया जा सकता है, रचना के साथ लेखक का नाम ही प्रकाशित नहीं किया जाए। पाठक की भी तो जिज्ञासा जागे, किस लेखक की है यह उत्कृष्ट रचना ?

विश्व का श्रेष्ठ साहित्य उस कृति के शीर्षक और लेखक पर ही टिका है। मैला आंचल से रेणु और गोदान से प्रेमचन्द याद आ जाते हैं। आवारा मसीहा से पाठकों को रूबरू विष्णु प्रभाकर ने करवाया। कौन भूल सकता है मन्नू भण्डारी और उनकी कृति महाभोज और आपका बंटी को।

वे ही रचनाएं अमर होती हैं, जिनका नाम होता है। नामी लेखक अपनी रचनाओं के ऋणी होते हैं, क्योंकि उनकी रचनाओं ने ही उन्हें भी अमर बना दिया है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 234 – ताकि सनद रहे ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 234 ☆ ताकि सनद रहे ?

अक्टूबर 2023 की बात है। झारखंड के देवघर में स्थित ज्योतिर्लिंग के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। देवघर ऐसा तीर्थस्थान है जहाँ ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ साथ-साथ हैं। देवघर से राँची की ओर लौटते समय परिजनों के साथ डुमरी में चाय पीने के लिए रुके। सड़क के दूसरी ओर कुछ छोटी-छोटी दुकानें थीं। सड़क पार कर मैं चाय की दुकान पर पहुँचा। बिस्किट, खाने-पीने का कुछ सामान, वेफर्स आदि दुकान में बिक्री के लिए थे। दुकान के सामने ही बड़ी-सी तंदूरनुमा अंगीठी थी, जिस पर दुकान का मालिक चाय बना रहा था। कुल मिलाकर ‘टू इन वन’ व्यवस्था थी। कुछ ग्राहक चाय तैयार होने की प्रतीक्षा में खड़े थे। कम चीनी की चाय का आर्डर देकर मैं भी प्रतीक्षासूची में सम्मिलित हो गया। तभी दुकान से सामान खरीदने के लिए एक ग्राहक आ गया। दुकानदार चाय छोड़कर दुकान में घुसा और ग्राहक को सामान देने लगा। इधर चाय उफनने पर आ गई। प्रतीक्षारत एक ग्राहक ने तपाक से चाय अंगीठी से उतार कर दूसरी ओर रख दी। दुकानदार आया और फिर चाय उबालने लगा।

बहुत सामान्य घटना थी किंतु यदि बड़े शहरों के परिप्रेक्ष्य में देखें, जहाँ होटल के दरवाज़े भी दरबान खोलते हों, वहाँ ग्राहक द्वारा उफनती चाय को चूल्हे से उतार कर रख देना, असामान्य ही कहा जाएगा।

स्मरण आता है कि प्रसिद्ध साहित्यकार गोविंद मिश्र जी ने किसी कार्यक्रम में एक क़िस्सा सुनाया था। वे एक बार सब्ज़ी खरीदने गए थे। खरीदारी के बाद संभवत: सौ का नोट सब्ज़ीवाले को दिया। इधर सब्ज़ीवाला सौ के नोट का छुट्टा लेने दूसरे सब्ज़ीवाले के पास गया, उधर एक ग्राहक ने आकर सब्ज़ी के दाम मिश्र जी से पूछे। मिश्र जी ने वही सब्ज़ी खरीदी थी। सो दाम बताए और ग्राहक ने जितनी सब्ज़ी मांगी, तराजू उठाकर तौल दी। मिश्र जी को जानने वाले कुछ लोगों ने इस घटना को देखा और उनकी यह सहजता  चर्चा का विषय भी बनी।

वस्तुत: सहजता हमारा मूलभूत है। विसंगति यह कि अब सहजता को कृत्रिमता में बदलने की होड़ है।  कहा जाता है कि आभिजात्य तो तुरंत आ जाता है पर गरिमा आने में समय लगता है। मनुष्य की गरिमा, मनुष्यता में है। आभिजात्य कितना ही सर चढ़कर बोले, स्मरण रखना कि मूलभूत में परिवर्तन नहीं होता, ‘बेसिक्स नेवर चेंज।’

सारा जीवन एयर कंडीशन में गुज़ारनेवाले का अंतिम संस्कार ‘एयरकंडीशंड’ नहीं हो सकता। दाह तो अग्नि में ही होगा। अग्नि मूलभूत है। छोटी से छोटी दूरी फ्लाइट से तय कर लो पर पैदल चलना सदा ‘बेसिक’ रहेगा। चेक-इन करते समय या हवाई अड्डे से बाहर आते हुए पदयात्रा तो करनी ही पड़ेगी।

सहजता अंतर्निहित है। अंतर्निहित को बदलने का प्रयास करोगे तो मनुष्य कैसे रह पाओगे? यह जो अहंकार ओढ़ते हो;  पद-प्रतिष्ठा, कथित नाम का, सब का सब धरा रह जाता है। मृत्यु सब लील जाती है। अपनी लघुत्तम कथा ‘नो एडमिशन’ याद हो आई है। कथा कुछ इस प्रकार है-

“…. ‘नो एडमिशन विदाउट परमिशन’, अनुमति के बिना प्रवेश मना है, उसके केबिन के आगे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। निरक्षर है या धृष्ट, यह तो जाँच का विषय है पर पता नहीं मौत ने कैसे भीतर प्रवेश पा लिया। अपने केबिन में कुर्सी पर मृत पाया गया वह….।”

प्रकृति की दृष्टि में राजा या रंक किसी का अवशेष, विशेष नहीं होता। अपनी कविता ‘माप’ साझा करता हूँ-

काया का खेल सिमट गया है

अब होकर राख मुट्ठी भर..,

यह वही आदमी है,

जो खुद को माप की परिधि से

बड़ा समझना रहा जीवन भर …!

इसलिए कहता हूँ कि अभिजात्य से मुक्ति पाओ, अहंकार से मुक्ति पाओ। काया के साथ राख का समीकरण जीवन रहते समझ जाओ।

इस राख को याद रखोगे तो परिधि में रहना भी आ जाएगा। आगे चलकर यह राख भी नदी के पानी में समाकर विलुप्त हो जाती है। सनद रहे कि शाश्वत सत्य का स्मरण, मनुष्यता और मनुष्य की सहजता का विस्मरण नहीं होने देगा। इति।

© संजय भारद्वाज 

(प्रातः 4:51बजे, 30.03.2024)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 325 ⇒ अंधा और रेवड़ी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अंधा और रेवड़ी।)

?अभी अभी # 325 ⇒ अंधा और रेवड़ी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

रेवड़ी भी मेरी नजरों में एक तरह का प्रसाद ही है। वैसे भी प्रसाद का मतलब मीठा ही होता है। प्रसाद में हमने चने चिरौंजी और पंजेरी ही अधिक खाए हैं। मंदिरों में आरती के बाद प्रसाद का प्रावधान होता है। पहले भगवान को भोग लगता है और फिर वही प्रसाद के रूप में वितरित होता है। कभी कभी प्रसाद में मिठाई और फल भी खाने को मिल जाते थे। कभी ककड़ी और केले के कुछ टुकड़े तो कभी पूरा लड्डू। जैसा चढ़ावा, वैसा प्रसाद।

प्रसाद आम श्रद्धालु तो श्रद्धा से ग्रहण करते हैं, लेकिन बच्चों को प्रसाद के प्रति विशेष रुचि और उत्साह होता है। अपनी नन्हीं नन्हीं हथेली को कोसते हुए वे प्रसाद के लिए हाथ आगे बढ़ाते हैं, काश हमारा हथेली भी बड़ी होती तो हमें भी ज्यादा प्रसाद मिलता। एक बार प्रसाद में लाइन में लगकर प्रसाद ग्रहण किया, बाहर आए, जल्दी से खत्म किया, हाथ कमीज से पोंछा और पुनः प्रसाद की कतार में। प्रसाद से बच्चों का कभी मन नहीं भरता।।

प्रसाद बांटना भी एक कला है। जितना भी प्रसाद है, वह सभी श्रद्धालुओं को समान रूप से मिल जाए, कहीं कोई रह नहीं जाए। अगर प्रसाद मात्रा में ज्यादा है तो उदारता से दिया जाए और कम होने की स्थिति में हाथ रोककर।

रेवड़ी को आप मिठाई का जेबी संस्करण भी कह सकते हैं। लड्डू से भले ही यह उन्नीस हो, लेकिन फिर भी चिरौंजी पर यह भारी पड़ती है। जिस तरह हमारा बनारस का छोरा अमिताभ, दीपावली के त्यौहार पर, कैडबरीज का प्रचार करता हुआ कहता है, कुछ मीठा हो जाए, उस कैडबरी से हमारी देसी रेवड़ी क्या बुरी है।।

अंधे के हाथ अगर बटेर लग जाए तो भी ठीक, लेकिन किसी अंधे से रेवड़ी बंटवाने का औचित्य हमें समझ में नहीं आया। अगर वह वाकई में अंधा है तो अपने पराये का भेद कैसे कर सकेगा। वैसे भी रेवड़ी गिनकर नहीं दी जाती। ना तो वह मुट्ठी भर दी जाती है और न ही लड्डू की तरह कभी पूरी तो कभी तोड़कर। बेचारे अंधे का क्या है, आप जितनी बार हाथ फैलाओगे, वह देता रहेगा।

इस तरह तो रेवड़ियां सबको बंटने से रही। जिसको नहीं मिली, वही कहता फिरेगा, अंधा बांटे रेवड़ी, अपने अपनों को दे।

रेवड़ी बांटने और लेने वाले के बीच जरूर कुछ ना कुछ तो संबंध तो होगा ही। राजनीति में आंख मूंदकर रेवड़ियां नहीं बांटी जाती। जिनसे उनका इलेक्टोरल बॉन्ड होता है, वहीं रेवड़ियां बांटी जाती है। यह एक ऐसा चुनावी समझौता है जो हुंडी की तरह गारंटी के साथ किया जाता है। आपको रेवड़ियां अगले पांच साल तक इसी प्रकार मिलती रहेंगी। जब बेचारी जनता की ही आंखों पर पट्टी पड़ी हो, आचार संहिता भी क्या करे। रेवड़ियां तो बटेंगी ही, और वह भी खुले आम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ संस्मरण – वह पेंसिल नहीं, मशाल है ! ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ आलेख ☆ संस्मरण – वह पेंसिल नहीं, मशाल है ! ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

‘‘क्या अरब में महिलायें यहॉँ की तरह आटा गूँथ कर रोटी बनाती हैं? वे तो रोटी खरीद कर ले आती हैं।’’फिलिस्तीनिओं पर इजरायली अत्याचार पर लिखी मेरी कहानी को पढ़ कर पत्रिका लौटाते हुए डा0 श्री प्रसादजी ने कहा।और यही बात उन्होंने कहानी के अंतिम पृष्ठ पर पेंसिल से लिख भी दी थी। जिस कमरे में बैठ कर वे लिखने पढ़ने का काम किया करते थे उसकी खिड़की पर एक कलमदान में कई कलम और वह पेंसिल भी पड़ी रहती थीं।

थोड़ी देर मैं चुप रहा, फिर झेंपते हुए बोला ,‘अब तो मां बेटी रोटी खा चुकी हैं। ’यानी कहानी तो प्रकाशित  हो चुकी है।खैर, बात तो अपनी जगह सही थी। खालेद होशैनी का उपन्यास ‘ए थाउजैंड स्प्लेंडिड सनस्’ पढ़ते हुए पता चला कि काबुल में औरतें तंदूर से रोटी बनवा कर घर ले आती हैं।

उनसे मेरा नाता मेरी ‘गलतिओं के गलियारे’ से होकर ही गुजरता है। आज भी उनके सुपुत्र डा0 आनन्द वर्धन जब भी मेरी कोई रचना पढ़ते हैं तो मैं कहता हूँ,‘कहीं कोई गलती हो तो उसे पेंसिल से जरूर मार्क कर दीजिएगा।’सच वह पेंसिल तो हमारे लिए मशाल ही थी।

और इसी तरह डा0 श्रीप्रसाद जी के घर मेरा आना जाना होता रहा। घंटे दो घंटे की बैठक। सुनने सुनाने का कार्यक्रम। वे मेरी त्रुटिओं की ओर संकेत कर देते। मैं उन्हें ठीक कर लेता। या कोई बेहतर शब्द को ढूँढने में मेरी मदद कर देते ,कोश का पन्ना पलटते। जब भी वे फोन पर कहते, ‘आपकी कहानी अमुक पत्रिका में निकली है।’

मैं पूछ लिया करता,‘पढ़ते समय आपके हाथ में पेंसिल थी न?’

डाक्टर साहब हॅँस देते। वैसे वे अपने नाम के आगे डाक्टर लिखना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। वे हर समय धोती कुर्ता ही पहनते थे। इसी लिबास में वे विदेश भी हो आये। उनकी किताबें प्रकाशित  होतीं, तो मुझे पहले से ही मालूम हो जाता।

वे और उनकी पत्नी (श्रीमती शांति शर्मा) मेरे क्लिनिक में दिखाने या ऐसे ही भेंट करने आते, और बैठते ही काले पोर्टफोलिओ बैग से वे अपनी सद्यः प्रकाशित  किताब मेरे हाथों में धर देते। पहले पृष्ठ पर उनके अपने हाथों से लिखा होता मेरे लिए सप्रेम भेंट!

उन दिनों हमारे ‘विहान’ नाट्य संस्था के लिए नाटक लिख कर मैं संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रोफेसर्स कालोनी में उनके आवास पर मैं जाया करता था। वे सुनते और ठीक करते जाते। काशी के प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक डा0 राजेन्द्र उपाध्याय ने मुझे उनका पता दिया था। सच, बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ……..

उन दिनों उन्हें सांस की तकलीफ होती रहती थी।उसी सिलसिले में शुरू शुरू में वे खुद को दिखाने मेरे पास आते थे। फिर तो आने जाने का ऐसा सिलसिला चल पड़ा कि जानकी नगर के नये मकान बनने के बाद मुझसे कहने लगे,‘आप भी इसी मुहल्ले में आ जाइये।’

बनारस में रहते तो करीब हर इतवार को दोपहर बारह के बाद उनका फोन आता, क्योंकि उस समय मैं भी कुछ खाली हो जाता। फिर काफी देर तक तरह तरह की बातें होती रहतीं।किस रचना को कहाँ भेजा जाए। उनकी कौन सी नयी किताब आनेवाली है।बाल पत्रिकाओं का स्वरूप कैसा हो रहा है। इससे बाल साहित्य के पाठक वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ेगा। वगैरह। अगर किसी रविवार को उनका फोन नहीं आता तो अगले दिन या बाद में मैं उनसे कहता, ‘डाक्टर साहब,रविवार के अटेंडेंस रजिस्टर में ‘ए’ लग गया है।’

उनके पारिवारिक रिश्ते – आपस में तालमेल – सास ससुर के साथ बहू का सम्पर्क – सभी अनुकरणीय थे। बात उनदिनों की है जब उनका सुयोग्य पुत्र आनन्द भोपाल में रहते थे। दो एक महीने उनके पास रह कर डाक्टर साहब सपत्नीक वापस आ रहे थे। सास ससुर को विदा करते समय ट्रेन में (डा0) ऊषा अपनी सास से लिपट कर ऐसे रो रही थी कि एक दूसरी महिला यात्री पूछने लगी,‘क्या तुम अपनी मां को विदा करने आयी हो ?’

ऊषा तो कहती ही है कि यहाँ तो मुझे मायके से भी ज्यादा प्यार व स्नेह मिला !

अपने गॉँव के बारे में श्री प्रसादजी ढेर सारी बातें किया करते थे। खूब किस्से सुनाया करते थे।उनका गॉँव जमुना के तट पर एक ऊँचे टीले पर स्थित है। किसी जमाने में वह डकैतों का इलाका रहा। एक बार जंगल के रास्ते आते हुए उनकी भेंट गांव के ही एक आदमी से हो गई जो बागी बन गया था। इन्होंने उससे पूछा था,‘तुमने आखिर इस रास्ते को क्यों अपना लिया? घर परिवार से दूर – इस तरह दर दर भटकना -’

उस डकैत ने जबाब दिया था,‘और क्या करता? वहॉँ दबंग लोगों का अत्याचार सह कर और कितने दिन गॉँव में रह सकता था?किससे शिकायत करता? पुलिस भी तो उन्ही की जी हुजूरी में लगी रहती है।’

इन सब बातों से उन्हें बहुत कष्ट होता। दीर्घश्वास छोड़कर कहते,‘इसी तरह सबकुछ बिखर जा रहा है। एक बसा बसाया संसार उजड़ता जा रहा है।’

गांव के बारे में और एक किंवदंती वे सुनाया करते थे। एकबार महात्मा तुलसीदास अपने अग्रज भक्तकवि सूरदास से भेंट करने जा रहे थे। रास्ते में इन्हीं के गांँव से उन्हें जमुना पार करना था। जमुना का अथाह जल देखते हुए कवि ने कहा था,‘पारना!’ यानी इसका तो पार नहीं है! इसीसे गॉँव का नाम भी पारना हो गया। चूँॅकि शाम ढल चुकी थी इसलिए कविवर ने रात वहीं बितायी। मगर किसी को भनक तक नहीं पड़ी कि उनके यहाँ कौन ठहरा हुआ है। कहते हैं सुबह कुछ सुगबुगाहट हुई और ढेर सारी हलचल,‘अरे जानते हो कल यहॉँ कौन ठहरा हुआ था ? और हम्में पता तक नहीं !’

इसी पर लिखी उनकी कहानी ‘पारना’ नंदन में प्रकाशित  हो चुकी है।

हम तीनों (श्रीप्रसादजी, शांति देवी और मैं) की साहित्यिक महफिल घंटे दो घंटे तो आराम से जम जाया करती थी। तीनों तरफ दीवारों पर किताबों के रैक। वहीं दीवारों पर से प्रेमचंद, पंत और निराला के साथ साथ काजी नजरूल इस्लाम और गोर्की भी हमारी ओर देखते रहते। चौकी पर भी ढेर सारी पत्रिकाएॅँ और किताबें। जब चाय पिलाना होता तो आनन्द की माँ कभी कभी हँॅसने लगतीं,‘अरे चाय की ट्रे कहॉँ रक्खूँॅ ?’ मैं झट से किताबों के बीच जगह बनाने लगता। जाड़े के दिनों में मैं तीन चार बजे तक ‘ब्रजभूमि’(उनके आवास का नाम) में पहुॅँच जाता और सात बजे तक बैक टू पैवेलियन। मगर एकबार लौटते समय रात हो गई और महमूरगंज के विवाह मंडपों के सामने बारातिओं के उफान के बीच मेरी ‘कश्ती’ बुरी तरह फॅँस गई। पेट में भूख -दिमाग में झुॅँझलाहट -परिणाम …..? बौड़ा गैल भइया, काशी का साँड़!  

जन्माष्टमी के मौसम में दो एक बार घर से ताड़ की खीर और उसका बड़ा ले गया था। दोनों को खूब पसन्द आये। अपने हाथ से गाजर का हलुआ बना कर ले गया तो वे हॅँसने लगे,‘आप तो रस शास्त्र में ही नहीं पाकशास्त्र में भी निपुण हैं।’

मैं ने कहा,‘मगर आप कोशिश मत कीजिएगा। याद है न एकबार कद्दूकश से गाजर काटते समय आपकी उँगली शहीद होते होते बच गई ?’

वे खूब हॅँसने लगे। शांति देवी कहने लगी,‘मैं तो इनसे कोई काम कहती ही नहीं। बस, अपना लिखना पढ़ना लेके रहें ,वही ठीक है।’  

वे तो बस जी जान से सरस्वती के उस मंदिर को सँभालने सॅँवारने में ही लगी रहती थीं। वे सचमुच साहित्य की पारखी थीं। किस सम्मेलन में कौन आया था और कौन नहीं – ये सारी बातें भले ही श्रीप्रसादजी कभी कभी भूल जाते थे, मगर उन्हे ठीक याद रहता था। गाय घाट के माहौल में पली बढ़ी होने के कारण बनारस की कई पारंपरिक बातें वे बखूबी से जानती थीं। नलीवाले लोटे को ‘सागर’ कहा जाता है यह बात उन्होंने ही मुझे बतायी थीं। कहानी के संप्रेश्य मर्म बिंदु को वह ठीक पकड़ लेती थीं। जिसे कहा जाय सेन्स ऑफ एप्रिसियेशन – अनुभूति एवं उपलब्धि की तीक्ष्णता उनमें कूट कूट कर भरी थी। उचित जगह पर ही दाद देतीं या पंक्ति को दोहराने लगतीं ……..

वैसे डाक्टर साहब रोटी तो बना नहीं पाते थे मगर कहते थे – ‘मैं पराठा अच्छा बना लेता हूँ।’ वे बिलकुल अल्पभोजी थे। खैर, फलों में आम उनको बहुत पसंद था।

‘ब्रजभूमि’ से लौटते समय मैं कहता था, ‘बनारसी विप्र की दक्षिणा मत भूलियेगा।’

डाक्टर साहब हॅँस कर करीपत्ते के पेड़ से कई डालियॉँ तोड़कर एक प्लास्टिक में भर कर मुझे थमा देते थे।

आनन्द की शादी के पहले जब वे ऊषा को देखने पौड़ी गये थे तो उसी समय केदारनाथ बद्रीनाथ भी हो आये थे। इधर तो बाहर कम ही जाते थे ,वरना बाल साहित्य सम्मेलनों में भाग लेने खूब जाया करते थे। आनन्द जब बुल्गारिया में थे तो वे दोनों बुल्गारिया, तुर्की और ग्रीस सभी जगह घूम आये थे। गांडीव में उनकी यात्रा की डायरी भी किस्तवार आ चुकी है। बुल्गारिया की जो बात उन्हें बहुत अच्छी लगती थी वह यह कि वहाँ की सड़कों या जगहों का नाम लेखक या कविओं के नाम से हुआ करता है। न कि राजनयिकों के नाम से।

सभी को मालूम है कि उनकी कविता ‘बिल्ली को जुकाम’ को स्वीडिश विश्व बाल काव्य संग्रह में स्थान मिला है। दो संग्रहों में संकलित इसकी पहली पंक्ति में कुछ अंतर है। एक में हैःःबिल्ली बोली, बड़ी जोर का मुझको हुआ जुकाम, तो दूसरे में है :ःबिल्ली बोली म्याऊँ म्याऊँ मुझको …..। वे अपनी कविता ‘हाथी चल्लम चल्लम’ को बड़े चाव से सुनाते थे। जैसे फैज साहब तरन्नुम में षेर सुनाना पसंद नहीं करते थे (नया पथ, फैज जन्मशती विशेषांक,पृ.327),वे भी सीधे सपाट ठंग से कविता का पाठ करना ही पसंद करते थे। उन्होंने कहा था श्रद्धेय बच्चन सिंह भी इस कविता को इसी ठंग से सुनना चाहते थे। और मार्क्सवादी आलोचक चंद्रवली सिंह को उनकी कविता -‘रसगुल्ले की खेती होती/बड़ा मजा आता’ में ‘देश के अभावग्रस्त बालकों की आकांक्षा की अभिव्यक्ति’ दिखाई दी।(जनपक्ष-12, पृ.190)

बाल साहित्यकारों के बीच चल रही गुटबाजी से वे दुखी रहते थे। कई ऐसे भी हैं जो उनके पास आते बनारस आने पर उनके यहॉँ ठहरते, मगर अवसर मिलने पर उनका पत्ता गोल करने से कभी न कतराते थे। किसी ने लिखा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास में बाल साहित्य की चर्चा क्यों नहीं की। उनका जबाब था – यह काम तो हम लोगों को करना चाहिए। आचार्य के समय बाल साहित्य की सामग्री ही कितनी थी ?

कविता में छंद की अशुद्धि उन्हें तकलीफ देती थी। वे हर महीने कई पत्रिकायें खरीदते थे। खास कर कविता ही पढ़ते और मात्रा आदि की गड़बड़ी के नीचे पेंसिल से लकीर खींच देते।

शांति देवी के देहावसान के बाद तो वे जैसे बिलकुल टूट गये थे। मानो उनका जीवन ही बिखर गया था। मैं वह दृश्य कैसे भूल सकता हूँ – जब हमलोग उनकी बैठक के दरवाजे के पास शांति देवी के पार्थिव शरीर को फर्श पर लेटाकर बैठे हुए थे। रो रोकर ऊषा का हाल बेहाल था। इधर सभी की ऑँखें छलक रही थीं। उसी समय डाक्टर साहब ने उनकी अधखुली पलकों को अपनी उॅँगलिओं से मूँॅद दिया। मैं उनकी बगल ही में बैठा था। मुझे लगा मेरी सांस ही गले में अटक गयी -!

उन्होंने ‘बाल साहित्य की अवधारणा’नामक आलोचना की पुस्तक को इसतरह अर्पण किया था – ‘सहधर्मिणी शांति को’……..

वे अखबार के किनारे या छोटे छोटे कागज के टुकड़ों पर ही कविता लिखना प्रारंभ कर देते थे। प्लैटफार्म पर बैठे बैठे या ट्रेन की सफर में इसी तरह उनका वक्त बीत जाता था। मैं ने कितनी बार कहा कि मेरे पास तो इतने सफेद पैड पड़े रहते हैं, डायरी मिल जाती हैं। आप इन पर लिखा करें।वे केवल हॅँस देते थे,‘अब यह मेरी आदत बन गयी है। उतने सफेद पन्नों पर शायद मैं लिख न सकूॅँ!’

दुर्गा पूजा के पहले बांग्ला में आनंदमेला शुकतारा आदि पत्रिकाओं के शारदीय विशेषांक निकलते है। वे उन्हें भी कभी कभी खरीद लेते थे। उन्हें तकलीफ होती थी कि उनमें भी आजकल उतनी कविता नहीं छपती है। ‘बाल साहित्य की अवधारणा’ में ‘बाल साहित्य का उद्देश्य’ में उन्होंने लिखा है -‘एक ओर समर्पित बाल साहित्यकारों को अवसर नहीं मिल पाता, दूसरी ओर बाल साहित्य के रूप में अबाल साहित्य चलता रहता है।’ (पृ.6)हिन्दी बाल साहित्य में हास्य कथा, भूत कथा, डिटेकटिव कहानी आदि के अभाव के बारे में कई बार उनसे बातें होती रही। यहॉँ तक कि अब तो दो पृष्ठों में ही कहानी को समेटना आवश्यक हो गया है,वरना लौटती डाक से आपकी रचना आपके द्वारे। मैं ने उनसे कहा था – आज अगर ईदगाह या दो बैलों की कथा जैसी कहानी लिखी जाती तो वह प्रकाशित  कहॉँ होती ?

सन् 2005 दिसंबर में मेरा पितृवियोग हुआ। उस समय वे दोनों अस्पताल में बाबूजी को देखने आये हुए थे। फिर अक्टूबर 2012 में मैं दोबारा अनाथ हो गया। उन्हें दिल्ली के मैक्स में हार्ट के ऑपरेशन के लिए भर्ती किया गया था। हालत में कुछ सुधार भी हुआ था। मगर तीसरे दिन रात के करीब आठ बजे आनंद का फोन आया। मैं सन्न रह गया। क्या कहता? सांत्वना के सारे शब्द मानो मूक हो गये थे……रोते रोते मैं पत्नी को यह खबर देने ऊपर जा पहुॅँचा….

कुछ दिनों के लिए मुझे लगा मेरी कलम की वाणी ही गूॅँगी हो गई है। मता (पूॅँजी)-ए-दर्द बहम है तो बेशो-कम क्या है /….बहुत सही गमे गेती (सांसारिक दुःख), शराब क्या कम है…….(फैज)

फिर एकदिन अचानक मेरा मोबाइल बजने लगा। स्क्रीन पर नाम देख कर मैं चौंक उठता हूँ ….यह क्या! दिल की धड़कनें तेज हो गईं। स्क्रीन पर उनका नाम जगमगा रहा था। यद्यपि मुझे मालूम था कि श्रीप्रसादजी का फोन आजकल उनकी बहूरानी ऊषा के पास ही रहता है, फिर भी एक उम्मीद की लौ ….कहीं ….! मैं कॉँपती उॅँगली से हरा बटन दबाता हूँ… शायद फिर से वही आवाज सुनाई दे… ‘हैलो… मैं श्रीप्रसाद…!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares