हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 211 ⇒ व्यंग्य देखो, व्यंग्य की धार देखो… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)

?अभी अभी # 211 ⇒ व्यंग्य देखो, व्यंग्य की धार देखो… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

व्यंग्य कोई बच्चों का खेल नहीं ! बच्चों के हँसने खेलने के दिन होते हैं, उन्हें व्यंग्य जैसी धारदार वस्तुओं से दूर रखना चाहिए। हमने बचपन में बहुत तेल देखा है और तेल की धार भी देखी है।

तब हमारे पंसारी के पास तेल भी दो तरह के होते थे। एक मिट्टी का तेल, जिसे बाद में घासलेट यानी केरोसिन कहा जाने लगा और दूसरा मूंगफली का तेल, जिसे हम मीठा तेल कहते थे। हमारा पंसारी एक सिंधी था, जिसे हम साईं कहते थे। उसके पास तेल के दो कनस्तर होते थे, एक मिट्टी के तेल का और एक मीठे तेल का। दोनों में ही तेल निकालने का एक यंत्र लगा रहता था, जो तेल को कनस्तर से हमारी लाई गई कांच की बोतल में, साइफन विधि से, पहुंचाता था। हम बड़े ध्यान से तेल और तेल की धार को देखते रहते थे।

बॉटल भरने के पहले ही धार रुक जाती थी। जितना पैसा, उतनी बड़ी धार। कभी नकद, कभी उधार।।

आज मिट्टी के तेल की यह हालत है कि वह बाजार से गधे के सिर के सींग की तरह गायब है। जिस चीज का अभाव होता है, अथवा जो वस्तु महंगी होती है, उस पर तो सॉलिड व्यंग्य लिखा जा सकता है। प्याज और टमाटर इस विषय में बड़े नसीब वाले हैं। थोड़ा भाव बढ़ा, तो बाजार से गायब ! और उनके इतने भाव बढ़ जाते हैं कि उन पर व्यंग्य पर व्यंग्य और अधबीच पर अधबीच लिखे जाने लगते हैं। लेकिन जो मिट्टी का तेल काला बाजार में भी उपलब्ध नहीं, उस पर धारदार तो छोड़िए, बूंद बराबर भी व्यंग्य नहीं।

चलिए, मिट्टी के तेल को मारिए गोली, खाने के तेल को ही ले लीजिए। सरसों, सोयाबीन, सनफ्लॉवर हो अथवा मीठा तेल, जब इनके भाव आसमान छूते हैं, तब कोई भी व्यंग्यकार को न तो यह तेल दिखाई देता है और न ही इसकी धार, और बातें करते हैं धारदार व्यंग्य की। क्या राजनीति पर किया गया व्यंग्य, तेल पर किए व्यंग्य से अधिक धारदार होता है।।

हमारे घर में हथियार के नाम पर सिर्फ चाकू, छुरी ही होते हैं। उससे केवल सब्जियां और कभी कभी हमारे हाथ ही कटते हैं, लेकिन कभी किसी का गला नहीं। लेकिन आजकल हमारे चाकू छुरी भी व्यंग्य की तरह ही अपनी धार खो बैठे हैं।

एक समय था, जब चाकू छुरियां तेज करने वाला आदमी घर घर और मोहल्ले मोहल्ले आवाज लगाता था, एक पहियानुमा यंत्र से चिंगारी निकलती थी, और हमारे घरेलू औजार धारदार हो जाते थे।

आज की गंभीर समस्या न तो महंगाई है और न ही भ्रष्टाचार। जिसे राज करना है, राज करे, और जिसे नाराज करना है नाराज करे, कहने को फिर भी यह जनता का ही राज है। लेकिन जब व्यंग्य में ही धार नहीं, तो कैसी सर्जिकल स्ट्राइक। नाई के उस्तरे में भी धार नहीं, और चले हैं हजामत करने।।

हमने तो खैर हमारे घर के औजार धारदार कर लिए, बस आजकल के व्यंग्य में धार अभी बाकी है। पहले सोचा धार जिले में ही जाकर बसा जाए, लेकिन हमारे एक मित्र धारकर स्वयं इंदौर पधारकर यहां बस गए।

काश, यह पता चल जाता परसाई अपने व्यंग्य लेखों पर धार कहां करवाते थे, तो उन ज्ञानियों की भी यह शिकायत दूर हो जाती कि आजकल व्यंग्य में धार नहीं है।

शब्द ही धार है, कटार है, व्यंग्य का हथियार है।

जब जरूरत से अधिक पैना हो जाता है तो शासन, प्रशासन और सत्ता को चुभने लगता है। पद्म पुरस्कार जैसे अन्य प्रलोभनों के लिए इनका सही उपयोग बहुत जरूरी है। व्यंग्य वह लाठी है जो सिर्फ सांप को ही मारती है, किसी दुधारू गाय को नहीं।।

लेकिन वक्त वह लाठी है, जो कबीर जैसे खरी और कड़वी बात कहने वाले के मुंह से भी यह लाख टके की बात कहलवा दे ;

बालू जैसी करकरी

उजल जैसी धूप।

ऐसी मीठी कछु नहीं

जैसी मीठी चुप।।

लो जी, यह भी कह गए, दास कबीर। और लाइए धार अपने व्यंग्य में..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #208 ☆ स्वार्थ-नि:स्वार्थ ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख स्वार्थ-नि:स्वार्थ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 208 ☆

☆ स्वार्थ-नि:स्वार्थ ☆

‘बिना स्वार्थ आप किसी का भला करके देखिए; आपकी तमाम उलझनें ऊपर वाला सुलझा देगा।’ इस संसार में जो भी आप करते हैं; लौटकर आपके पास आता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म करने की सलाह दी जाती है। परन्तु आजकल हर इंसान स्वार्थी हो गया है। वह अपने व अपने परिवार से इतर सोचता ही नहीं तथा परिवार पति-पत्नी व बच्चों तक ही सीमित नहीं रहे; पति-पत्नी तक सिमट कर रह गये हैं। उनके अहम् परस्पर टकराते हैं, जिसका परिणाम अलगाव व तलाक़ की बढ़ती संख्या को देखकर लगाया जा सकता है। वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने व प्रतिशोध लेने हेतु कटघरे में खड़ा करने का भरसक प्रयास करते हैं। विवाह नामक संस्था चरमरा रही है और युवा पीढ़ी ‘तू नहीं, और सही’ में विश्वास करने लगी हैं, जिसका मूल कारण है अत्यधिक व्यस्तता। वैसे तो लड़के आजकल विवाह के नाम से भी कतराने लगे हैं, क्योंकि लड़कियों की बढ़ती लालसा व आकांक्षाओं के कारण वे दहेज के घिनौने इल्ज़ाम लगा पूरे परिवार को जेल की सीखचों के पीछे पहुंचाने में तनिक भी संकोच नहीं करतीं। कई बार तो वे अपने माता-पिता की पैसे की बढ़ती हवस के कारण वह सब करने को विवश होती हैं।

स्वार्थ रक्तबीज की भांति समाज में सुरसा के मुख की भांति बढ़ता चला जा रहा है और समाज की जड़ों को खोखला कर रहा है। इसका मूल कारण है हमारी बढ़ती हुई आकांक्षाएं, जिन की पूर्ति हेतु मानव उचित-अनुचित के भेद को नकार देता है। सिसरो के मतानुसार ‘इच्छा की प्यास कभी नहीं बझती, ना पूर्ण रूप से संतुष्ट होती है और उसका पेट भी आज तक कोई नहीं भर पाया।’ हमारी इच्छाएं ही समस्याओं के रूप में मुंह बाये खड़ी रहती हैं। एक के पश्चात् दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है तथा समस्याओं का यह सिलसिला जीवन के समानांतर सतत् रूप से चलता रहता है और मानव आजीवन इनके अंत होने की प्रतीक्षा करता रहता है; उनसे लड़ता रहता है। परंतु जब वह समस्या का सामना करने पर स्वयं को पराजित व असमर्थ अनुभव करता है, तो नैराश्य भाव का जन्म होता है। ऐसी स्थिति में विवेक को जाग्रत करने की आवश्यकता होती है तथा समस्याओं को जीवन का अपरिहार्य अंग मानकर चलना ही वास्तव में जीवन है।

समस्याएं जीवन की दशा व दिशा को तय करती हैं और वे तो जीवन भर बनी रहती है। सो! उनके बावजूद जीवन का आनंद लेना सीखना कारग़र है। वास्तव में कुछ समस्याएं समय के अनुसार स्वयं समाप्त हो जाती हैं; कुछ को मानव अपने प्रयास से हल कर लेता है और कुछ समस्याएं कोशिश करने के बाद भी हल नहीं हो पातीं। ऐसी समस्याओं को समय पर छोड़ देना ही बेहतर है। उचित समय पर वे स्वत: समाप्त हो जाती हैं। इसलिए उनके बारे में सोचो मत और जीवन का आनंद लो। चैन की नींद सो जाओ; यथासमय उनका समाधान अवश्य निकल आएगा। इस संदर्भ में मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहती हूं कि जब तक हृदय में स्वार्थ भाव विद्यमान रहेगा; आप निश्चिंत जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते और कामना रूपी भंवर से कभी बाहर नहीं आ सकते। स्वार्थ व आत्मकेंद्रिता दोनों पर्यायवाची हैं। जो व्यक्ति केवल अपने सुखों के बारे में सोचता है, कभी दूसरे का हित नहीं कर सकता और उस व्यूह से मुक्त नहीं हो पाता। परंतु जो सुख देने में है, वह पाने में नहीं। इसलिए कहा जाता है कि जब आपका एक हाथ दान देने को उठे, तो दूसरे हाथ को उसकी खबर नहीं होनी चाहिए। ‘नेकी कर और कुएं में डाल’ यह सार्थक संदेश है, जिसका अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। यह प्रकृति का नियम है कि आप जितने बीज धरती में रोपते हैं; वे कई गुना होकर फसल के रूप में आपके पास आते हैं। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से किए गये कर्म असंख्य दुआओं के रूप में आपकी झोली में आ जाते हैं। सो! परमात्मा स्वयं सभी समस्याओं व उलझनों को सुलझा देता है। इसलिए हमें समीक्षा नहीं, प्रतीक्षा करनी चाहिए, क्योंकि वह हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानता है तथा वही करता है; जो हमारे लिए बेहतर होता है।

‘अच्छे विचारों को यदि आचरण में न लाया जाए, तो वे सपनों से अधिक कुछ नहीं हैं’ एमर्सन की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। स्वीकारोक्ति अथवा प्रायश्चित सर्वोत्तम गुण है। हमें अपने दुष्कर्मों को  मात्र स्वीकारना ही नहीं चाहिए; प्रायश्चित करते हुए जीवन में दोबारा ना करने का मन बनाना चाहिए। वाल्मीकि जी के मतानुसार संत दूसरों को दु:ख से बचाने के लिए कष्ट सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दु:ख में डालने के लिए।’ सो! जिस व्यक्ति का आचरण अच्छा होता है, उसका तन व मन दोनों सुंदर होते हैं और वे संसार में अपने नाम की अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

दूसरी ओर दुष्ट लोग दूसरों को कष्ट में डालकर सुक़ून पाते हैं। परंतु हमें उनके सम्मुख झुकना अथवा पराजय स्वीकार नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वीर पुरुष युद्ध के मैदान को पीठ दिखा कर नहीं भागते, बल्कि सीने पर गोली खाकर अपनी वीरता का प्रमाण देते हैं। सो! मानव को हर विषम परिस्थिति का सामना साहस-पूर्वक करना चाहिए। ‘चलना ही ज़िंदगी है और निष्काम कर्म का फल सदैव मीठा होता है। ‘सहज पके, सो मीठा होय’ और ‘ऋतु आय फल होय’ पंक्तियां उक्त भाव की पोषक हैं। वैसे ‘हमारी वर्तमान प्रवृत्तियां हमारे पिछले विचार- पूर्वक किए गए कर्मों का परिणाम होती हैं।’ स्वामी विवेकानंद जन्म-जन्मांतर के सिद्धांत में विश्वास रखते थे। सो! झूठ आत्मा के खेत में जंगली घास की तरह है। अगर उसे वक्त रहते उखाड़ न फेंका जाए, तो वह सारे खेत में फैल जाएगी और अच्छे बीज उगने की जगह भी ना रहेगी। इसलिए कहा जाता है कि बुराई को प्रारंभ में ही दबा दें। यदि आपने तनिक भी ढील छोड़ी, तो वह खरपतवार की भांति बढ़ती रहेगी और आपको उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देगी; जहां से लौटने का कोई मार्ग शेष नहीं दिखाई पड़ेगा।

प्यार व सम्मान दो ऐसे तोहफ़े हैं, अगर देने लग जाओ तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। सो! लफ़्ज़ों को सदैव चख कर व शब्द संभाल कर बोलिए। ‘शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। शब्द यदि सार्थक हैं, तो प्राणवायु की तरह आपके हृदय को ऊर्जस्वित कर सकते हैं। यदि आप अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो दूसरों के हृदय को आहत करते हैं। इसलिए सदैव मधुर वाणी बोलिए। यह आप्त मन में आशा का संचरण करती है। निगाहें भी व्यक्ति को घायल करने का सामर्थ्य रखती हैं। दूसरी ओर जब कोई अनदेखा कर देता है, तो बहुत चोट लगती है। अक्सर रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोग ग़ैरों की बातों में आकर अपनों से उलझ जाते हैं और जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बहुत तकलीफ़ होती है। परंतु जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है, तो उससे भी अधिक तकलीफ़ होती है। इसलिए जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकारें; संबंध लंबे समय तक बने रहेंगे। अपने दिल में जो है; उसे कहने का साहस और दूसरे के दिल में जो है; उसे समझने की कला यदि आप में है, तो रिश्ते टूटेंगे नहीं। हां इसके लिए आवश्यकता है कि आप वॉकिंग डिस्टेंस भले रखें, टॉकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें, क्योंकि ‘ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुक़ाम/ वे फिर नहीं आते।’ इसलिए किसी से अपेक्षा मत करें, बल्कि यह भाव मन में रहे कि हमने किसी के लिए किया क्या है? ‘सो! जीवन में देना सीखें; केवल तेरा ही तेरा का जाप करें– जीवन में आपको कभी कोई अभाव नहीं खलेगा।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 210 ⇒ बिस्तर छोड़ने का गम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बिस्तर छोड़ने का गम।)

?अभी अभी # 210 ⇒ बिस्तर छोड़ने का गम… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कहते हैं, अन्याय और अत्याचार को सहन नहीं करना चाहिए, मनुष्य एक स्वतंत्र प्राणी है, उसे अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहते हुए, हर ज़ोर जुल्म का प्रतिरोध करना चाहिए। लेकिन परेशानी तो तब खड़ी होती है, जब इंसान खुद ही अपना दुश्मन हो। कोई अगर अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार रहा हो, और बचाओ बचाओ, चिल्ला रहा हो, तो कोई क्या करे।

सुबह होती है, शाम होती है, जिंदगी यूं ही तमाम होती है। जब दर्द हद से गुजर जाता है, तब ही उसकी दवा होती है। आज जब हद की भी इन्तहा हो गई तब आखिर दर्द की दास्तां बयां हो ही गई।।

आदमी आदतों का गुलाम होता है। अगर उसके जीवन में थोड़ा नियम, संयम और अनुशासन हो, तो वह जानवर से इंसान भी बन सकता है। मुझे याद आते हैं मेरे वो स्वर्णिम दिन, जब मैं सुबह सुबह आराम से बिस्तर में मीठी नींद लेता रहता था, और बाहर पक्षी चहचहा रहे होते थे, दूध वाला, अखबार वाला, और स्कूल जाने वालों की चहल पहल और धर्मपत्नी की खटर पटर भी मेरी तंद्रा रूपी समाधि को भंग नहीं कर पाती थी। आखिर मैं कमाता खाता था, आठ घंटे की नींद पर मेरा जन्म सिद्ध अधिकार था।

लेकिन जब से मैं, बिना थके रिटायर हुआ यानी सेवानिवृत्त हुआ, अचानक मेरा सोया जमीर जाग उठा। सुबह पक्षियों को मुझसे पहले जागता देख, मुझे अपराध बोध होने लगा।

उधर व्हाट्सएप ज्ञान भी early to bed and early to rise की बचपन की नर्सरी राइम की याद दिलाने लगा। ब्लड प्रेशर, कोलोस्ट्रोल और शुगर से मुझे डराने लगा और मेरा जीवन अचानक अनुशासन पर्व में परिवर्तित होने लगा।।

अब मेरा सोया विवेक जाग उठा था। एक बार विवेक जाग जाए, तो फिर अपने बाप की भी नहीं सुनता। मैने उसे बहुत समझाया, देखो बिहेव लाइक अ नॉर्मल मैन। थोड़ा सहज हो जाओ, इस उम्र में कहां तुम्हें तोरण मारने जाना है। खाओ, पीयो मस्त रहो।

लेकिन विवेक ने मेरी एक ना सुनी। वह मुझे एक अच्छा संयमित इंसान बनाने के चक्कर में, बुरी तरह मेरे पीछे पड़ ही गया। अब तो विवेक ही मुझे जगाता है और विवेक ही मुझे सुलाता भी है।

आज भी यही हुआ। मैं सोया हुआ था, और मेरा विवेक भी सोया हुआ था। रोज की तरह विवेक मुझसे पहले उठ गया और बोला, चलो उठो, बिस्तर छोड़ो, तुम्हारे उठने का टाइम हो गया। लेकिन आज अचानक आलस्य और मेरी अंतरात्मा ने उठने से मना कर दिया। आज मेरा भी मन किया, तानकर सोऊं, रोज जल्दी उठकर कौन सा तीर मार लेते हैं।

इतनी गुलामी भी ठीक नहीं।।

सुबह बिस्तर छोड़ने का दुख किसने नहीं झेला ! बचपन में कड़कती ठंड में स्कूल जाना अथवा सुबह जल्दी रोजी रोटी के लिए जुट जाना, और घर की कामकाजी महिलाओं की तो पूछिए ही मत। इसे कर्तव्य कहें अथवा मजबूरी, काहे का अनुशासन और काहे का विवेक, हम सब परिस्थितियों के गुलाम हैं।

विवेक कहें अथवा अंतरात्मा, आजकल मार्केटिंग के जमाने में असली नकली का भेद मिट गया है। पहले राजनीति में अंतरात्मा की आवाज पर दलबदल होता था, हृदय परिवर्तन होता था, लेकिन अब तो पापी तापी भी शरणागति होने लगे हैं। सभी साधु संत और महात्मा ज्ञान, विवेक और वैराग्य की दुकान खोले बैठे हैं। घूंघट के पट खोल, तुझे पिया मिलेंगे। सभी आपको जगाने में लगे हैं।।

आखिर विवेक को भी चाहिए, वह थोड़ा अक्ल से काम ले। 24 x 7 भी विवेक का जागते रहना ठीक नहीं। मोदी जी भी अठारह घंटे ही काम करते हैं। वे सिर्फ विवेक से नहीं, अक्ल से भी काम लेते हैं। यहां तक कि, उनकी अक्ल के आगे लोगों का विवेक तक काम नहीं करता।

आज भले ही मैंने विवेक की सुन ली हो और मन मारकर बिस्तर छोड़ दिया हो, कल से मैं भी अक्ल से ही काम लूंगा। अपनी मर्जी से सोऊंगा, अपनी मर्जी से बिस्तर छोड़ूंगा।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 209 ⇒ उंगली कटा के शहीद… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उंगली कटा के शहीद”।)

?अभी अभी # 209 ⇒ उंगली कटा के शहीद… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मुझे उंगली कटा के शहीद होने का कोई शौक नहीं, लेकिन मेरे हर शुभ अशुभ, अच्छे बुरे, और खरे खोटे काम में, मेरी समस्त उंगलियों का योगदान अवश्य रहता है। स्वावलंबी होने के कारण, मैं अपने समस्त काम अपने हाथों से ही करता हूं, क्योंकि ये हाथ हमारी ताकत ही नहीं, अपना हाथ जगन्नाथ भी है। हाथों की इस मजबूती ही ने गब्बर को यह कहने पर मजबूर कर दिया था, ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर।

और भूलिए मत, ठाकुर ने क्या कहा था, तेरे लिए तो मेरे पांव ही काफी हैं गब्बर ! यानी हाथ पांव हैं, तो हम हैं। क्या हम इन हाथ पाॅंवों की कल्पना पाँचों उंगलियों के बिना भी कर सकते हैं। यहां ना तो हम यह कहना चाहते हैं कि उंगली टेढ़ी किए बिना घी नहीं निकलता अथवा किसी के सामने घुटना टेकने वाले से तो एक स्वाभिमानी अंगूठा छाप ही

भला। फिर भी सच तो यह है कि अंगूठे की असली कीमत तो एक द्रोणाचार्य जैसा गुरु ही जानता है।।

मुझे अपनी पाॅंचों उंगलियों पर गर्व है, इसलिए नहीं कि वे सदा घी में रहती हैं, लेकिन इसलिए, क्योंकि आपस में बराबर नहीं होते हुए भी उनमें गजब की एकता और एकजुटता है।

जब भी कोई काम करना होता है, पांचों उंगलियां मुट्ठी बांध लेती हैं, और काम तमाम करके ही छोड़ती हैं।

क्या आप अपने हाथ से कोई भी काम, बिना उंगलियों की सहायता के कर सकते हैं। कलम हो या हथौड़ा, अगर उंगलियां सहयोग ना करे तो इंसान क्या करे। मुझे खेद है कि इस स्वार्थी संसार ने सारा श्रेय इन हाथों को तो दिया है, लेकिन इन उंगलियों की कभी तारीफ नहीं की।।

लेकिन जहां किसी भी काम में हाथ डालो, बदनाम बेचारी ये उंगलियां ही होती हैं। रहने दो, फालतू में उंगली मत करो। फिर भी, दिल है कि, उंगली किए बिना मानता नहीं। एक सुबह हमने भी एक काम में उंगली डाली, और उंगली कटा बैठे। बस उंगली में थोड़ा सा कटने का अहसास हुआ, और तत्काल खून टपकने लगा।

ऐसा लगा, किसी ने पानी का नल खुला छोड़ दिया है।

यह वक्त उंगली कटा के

शहीद होने का नहीं होता, बहते खून को थामने का होता है। कटी उंगली को मुंह में रखकर अपना ही खून चूसना, एक सात्विक ना सही, लेकिन स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, जिसके पश्चात् ही प्राकृतिक चिकित्सा प्रारंभ होती है।।

हमारी पीढ़ी के चक्कू और ब्लेड से पेंसिल छीलने वाले बच्चे, अक्सर अपनी उंगली कटा लेते थे। वह जमाना कहां शार्पनर और इरेजर

का था, और कौन हर आए दिन उंगली करने पर एंटी टेटनस का इंजेक्शन लगवाता फिरे। बोरोलिन और बोरोप्लस ने आजकल हल्दी का स्थान ले लिया है, जिससे सैप्टिक की संभावना भी क्षीण हो जाती है।

एक कटी उंगली पूरे शरीर का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। पूरे शरीर को यह अहसास हो जाता है, कि शरीर का कोई अंग उंगली कटाकर शहीद हुआ है। लेकिन जब यह खबर मस्तिष्क तक पहुंच जाती है, तो वह इसे एक जुमला मानकर खारिज कर देता है। किसी की खातिर भले ही सर कटाएं, लेकिन जरा भी शोर ना हो। महज उंगली काटकर शहीद बनने का नाटक ना करें।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 208 ⇒ M R I (अमीराई)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “M R I (अमीराई)”।)

?अभी अभी # 208 ⇒ M R I (अमीराई)… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अमराई आम के बाग को कहते हैं। आम सबके लिए है लेकिन MRI, Magnetic resonance imaging अथवा जिसे आप चुंबकीय अनुनाद इमेजिंग, भी कह सकते हैं, एक ऐसी जांच, उन खास लोगों के लिए है, जो इसकी कीमत अदा कर सकते है।

एक समय था, जब कुशल वैद्य केवल नाड़ी देखकर बीमारी का पता लगा लेते थे। लक्ष्मण की मूर्च्छा के वक्त भी दुश्मन के सुषैण वैद्य द्वारा नाड़ी देखकर बताई गई संजीवनी बूटी ही काम आई थी। आजकल वैद्यराज नहीं, मशीनें यह काम करती है। सी टी स्कैन और M R I जैसी जांच के बाद उपचार आसान हो जाता है। जब तक हम ज़िंदा हैं, हम अमर हैं। आज के युग में M R I अमीराई से कम नहीं।।

जांच के अभाव में आज भी कई लोग गंभीर बीमारियों से ग्रसित हो, जीवन से हाथ धो बैठते हैं। एक समय था, जब पोलियो, हैजा और कुष्ट रोग का इलाज आसानी से संभव नहीं था। एक महामारी कितने ही मासूमों की जान ले बैठती थी। पल्स पोलियों ड्रॉप और हेपेटाइटिस बी के वैक्सीन जहां मानवता के लिए वरदान है, वहीं कैंसर जैसी बीमारी से चिकित्सा विज्ञान आज भी जूझ रहा है। covid-19 के वैक्सीन के अभाव में कितने ही लोग अपनी जान गंवा बैठे।

इंसान की जान कीमती है, लेकिन इलाज उससे भी ज़्यादा महंगा है।

एक पुरानी कहावत है, भगवान सबको वकील और अदालत के चक्कर से बचाए। आजकल वही हालत डॉक्टर्स की हो गई है। लेकिन डॉक्टर बिना चैन कहां रे! एक उम्र के बाद तो हर छ: माह में रूटीन जांच करवाते रहने की सलाह दी जाती है। फिर भी अस्पताल कम पड़ रहे है, मरीजों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। केवल मेरी दो आंखों के लिए मेरे आसपास पांच किलोमीटर में दस आंख के अस्पताल हैं। लेकिन जहां जाओ, वहां भीड़ ही भीड़।।

अगर अमर होना है, तो पहले अमीर बनो। अगर गरीब हो तो बीमार पड़ने पर M R I और सी टी स्कैन जैसी जांचें कैसे करवाओगे। मैं इतना गरीब भी नहीं कि कहीं से बी पी एल कार्ड कबाड़ लूं और अपनी पत्नी का इलाज महंगे अस्पतालों में करवा लूं। डॉक्टर ने एक M R I जांच करवाने का क्या लिखा, पहुंच गए डायग्नोस्टिक सेंटर खीसे में दस हज़ार भरकर। दुनिया हमसे दो कदम आगे ही चलती है। वहां बोला गया साढ़े बारह हजार रूपए जमा करवा दो जांच के। जांच लंबी चौड़ी है। डेबिट कार्ड ने स्थिति संभाल ली।

एक M R I रिपोर्ट ने मेरी पत्नी की बीमारी की नस पकड़ ली। अब डॉक्टर आसानी से दवाओं की संजीवनी विद्या से उपचार कर पाएगा। बीमार को जो बीमारी से छुटकारा दिलवाने में मदद करे वह विद्या अमराई अर्थात अमरत्व प्रदान करने वाली सी टी स्कैन और M R I जांच। ईश्वर ने हमारी सांसें गिनकर भेजी हैं, संभलकर, संभालकर खर्च करें।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 207 ⇒ राजनीति और व्यंग्य… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “राजनीति और व्यंग्य।)

?अभी अभी # 207 राजनीति और व्यंग्य? श्री प्रदीप शर्मा  ?

राजनीति एक शास्त्र है और व्यंग्य एक सहित्यिक विधा ! जो कभी शास्त्र था, वह एक शस्त्र कब से बन गया, कुछ पता नहीं चला। वैसे तो अरस्तु को राजनीति शास्त्र का जनक माना जाता है, लेकिन भारत के संदर्भ में चाणक्य पर आकर सुई अटक जाती है। कौटिल्य शब्द से ही कूटनीति टपकती है, और कौटिल्य के अर्थ-शास्त्र के बिना सभी शास्त्र अधूरे हैं।

विडंबना देखिये, अर्थशास्त्र पर अर्थ हावी हो गया, और राजनीति शास्त्र पर राजनीति। बुद्धि पर बुद्धिजीवी भारी पड़ गया और ज्ञान पर ज्ञानपीठ। और व्यंग्य जो शास्त्र नहीं था, हास्य की पगडंडियों से चलता चलता साहित्य की प्रमुख धारा में शामिल हो गया। अगर कल का राजनीति शास्त्र आज अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित है, तो व्यंग्य भी किसी ब्रह्मास्त्र से कम नहीं।।

कितने दुःख का विषय है, राजनीति से व्यंग्य है, और तो और व्यंग्य में राजनीति भी है, लेकिन राजनीति में आज व्यंग्य का नितांत अभाव है। याद आते हैं वे दिन जब संसद में ज़ोरदार बहस होती थी, शायरी होती थी, नोंकझोंक होती थी, हंगामे भी होते थे, लेकिन किसी का अपमान नहीं होता था। शून्यकाल में बहस चलती थी। प्रश्नोत्तर काल में मंत्री महोदय पर विपक्ष द्वारा प्रश्नों की बौछार कर दी जाती थी। सत्ता से अधिक लोगों में विपक्ष के लिए सम्मान था।

यूँ कहने को तो व्यंग्य और राजनीति का चोली दामन का साथ है, लेकिन दोनों की आपस में बोलचाल तक बंद है। व्यंग्य बंद कमरे में फलता-फूलता है, राजनीति सड़क पर उतर आती है। व्यंग्य पर कोई कीचड़ नहीं उछाल सकता, लेकिन अगर किसी व्यंग्यकार ने राजनीति पर कीचड़ उछाला, तो यह आपे में नहीं रहती। राजनीति को नहीं दोष परसाई।।

राजनीति में पार्टी होती है, हर पार्टी का झंडा होता है, नेता होता है, पार्टी का कोई नाम होता है। व्यंग्य इस बारे में बहुत कमजोर है। उसके पास कोई नाम नहीं, नेता नहीं, झंडा नहीं, कोई नारा नहीं। वह विघ्नसन्तोषी है ! नेता, नारे, पार्टी और झंडे किसी को वह नहीं बख्शता। अतः उसे समाज में वह सम्मान प्राप्त नहीं होता जो राजनीति को होता है।

जनता नेता की दीवानी होती है, किसी व्यंग्यकार की नहीं। हमारा व्यंग्यकार कैसा हो, परसाई जैसा हो, कोई नहीं कहता।

गुटबाजी और अवसरवाद राजनीति और व्यंग्य में समान रूप से हावी है। वंशवाद के बारे में व्यंग्यकार पूरा कबीर है। कमाल के पूत होते हैं उसके ! एक व्यंग्यकार का लड़का कितना भी बड़ा हो जाए, अपने पिता के जूते में पाँव डालना पसंद नहीं करता। राजनीति में तो पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जाते हैं।।

शेक्सपियर के शब्दों में राजनीति और व्यंग्य Strange bedfellows हैं। राजनीति का काम व्यंग्य के बिना आसानी से चल जाता है, लेकिन व्यंग्य को राजनीति की बैसाखी की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन व्यंग्यकार जब उसी बैसाखी से राजनीति की पिटाई कर देता है, तो बात बिगड़ जाती है। मेरी बिल्ली मुझ पर म्याऊँ ! लेकिन बिल्ली बड़ी चालाक है। वह किसी के टुकड़ों पर नहीं पलती। जहाँ भी मलाई मिलती है, मुँह मार लेती है।

ज़िन्दगी में हास परिहास हो, व्यंग्य विनोद हो ! राजनीति में कटुता समाप्त हो। सहमति-असहमति का नाम ही पक्ष-विपक्ष है। घर घर में विवाद होते हैं, कहासुनी होती है, स्वभावगत विरोध भी होते हैं। लेकिन जब गृहस्थी की गाड़ी आसानी से चल सकती है, तो राजनीति की क्यों नहीं। सत्ता और विपक्ष लोकतंत्र के दो पहिये हैं। दोनों समान रूप से मज़बूत हों। राजनीति में जब व्यंग्य का समावेश होगा, तब ही यह संभव है। आईना साथ रखें। किसी को आइना दिखाने के पहले अपना मुँह देखें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 242 ☆ आलेख – डीप फेक है यह दुनियां ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख डीप फेक है यह दुनियां ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 242 ☆

? आलेख डीप फेक है यह दुनियां ?

शाश्वत सत्य तो यह है कि यह दुनियां ही डीप फेक है, ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या। पर अब आँखों देखी, कानों सुनी पर भरोसे का जमाना लद गया। नया जमाना डीप फेक एडिटिंग से आभासी दृश्य को यथार्थ के स्तर का बना कर पाठ, चित्र, ऑडियो और वीडियो उत्पन्न करने का है। साफ्टवेयर के खतरनाक अनुप्रयोगों में से एक डीप फेक है। सिंथेटिक मीडिया टेक्नीक का उपयोग किसी व्यक्ति के चेहरे या आवाज़ को दूसरे व्यक्ति से स्वैप कर बदलने का विज्ञान डीप फेक तकनीक है। असल और नकल में से अब असल का पता लगा पाना कठिन होता जा रहा है। साइबर अपराधी इस तरह के आडियो वीडीयो बनाने के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। अब वीडीयो साक्ष्य बेमानी हो चले हैं। डीप फेक भरोसे की धज्जियां उड़ा रही तकनीक है। उतावलेपन, धन के लिये किसी भी स्तर तक अमर्यादित व्यवहार और इंटरनेट पर गुमशुदा पहचान की सुविधा के चलते असम्पादित वीडियो के दुष्प्रचार से व्हाट्सअप भरा पड़ा है। हर मोबाईल में जाने अनजाने टनो में ऐसा कूड़ा ओवर लोड है। जब तक किसी पर विश्वास करो उसका खण्डन आ जाता है, अविश्वसनीयता चरम पर है।

सबसे पहले 2017 में इस तरह के एक फर्जी अनाम उपयोगकर्त्ता ने खुद को “डीप फेक” लिख कर नेट पर प्रस्तुत किया था। उस अनाम इंटरनेट उपयोगकर्त्ता ने अश्लील वीडियो बनाने और पोस्ट करने के लिये गूगल की ओपन-सोर्स, डीप-लर्निंग तकनीक में हेरफेर किया था। तब से यह हेरा फेरी डीप फेक ही कही जाने लगी। घोटाले और झाँसे, सेलिब्रिटी पोर्नोग्राफी, चुनाव में हेर-फेर, सोशल इंजीनियरिंग, स्वचालित दुष्प्रचार के हमले, पहचान की चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी आदि जैसे गलत उद्देश्यों के लिये डीप फेक का भरपूर दुरुपयोग अब बहुत आम हो चला है। डीप फेक तकनीक का उपयोग पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, डोनाल्ड ट्रंप, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आदि ख्यात लोगों तक के मीम वीडियो बनाने के लिये हो चुका है। डीप फेक से बनाई गई कितनी ही अभिनेत्रियों की अश्लील तस्वीरें और वीडियो से इंटरनेट भरा हुआ है।

डीप फेक के माध्यम से दुष्प्रचार के प्रसार को रोकने के लिये एक अद्यतन आचार संहिता अब जरूरी है। यदि विश्वसनीयता को जिंदा रखना है तो गूगल, मेटा, इंस्टा, ट्विटर सहित सोशल मीडीया तकनीकी प्लेटफॉर्म पर डीप फेक और फर्जी खाते का मुकाबला करने के सघन उपाय करने की आवश्यकता है। डीप फेक से जुड़े मुद्दों को हल करने के लिये समाज में मीडिया साक्षरता में जागरूखता लाने और निरंतर सुधार करते रहने की आवश्यकता है, क्योंकि डीप फेक तू डाल डाल मैं पात पात वाली तकनीक है। दुनियां भर में सबको इसके सकारात्मक उपयोग खोजने होंगे और नकारात्मक पहलुओ पर विराम लगाते रहना होगा। फैक्ट चैक रिसर्च अब एक नया व्यवसाय बन गया है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 59 – देश-परदेश – COVID Returns ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “COVID Returns” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 59 ☆ देश-परदेश – COVID Returns ☆ श्री राकेश कुमार ☆

इससे पहले कि बॉलीवुड का कोई फिल्म निर्माता इस नाम से अपनी फिल्म का टाइटल रजिस्टर्ड करवाए, हम अपना लेख सुरक्षित कर लेना चाहते हैं।

हमारे देश में विगत तीन दिन से गूगल में कोविड के पुराने वायरल वीडियो सबसे अधिक डाउनलोड किए गए हैं। व्हाट्स ऐप/मुखग्रंथ और क्या ट्विटर ऐसे मैसेजों की सुनामी आ गई है।

राई का पहाड़ बनाने में हमारे देशवासियों का पूरे विश्व में कोई सानी नहीं है। शायद यूएनओ ने भी इसको मान लिया होगा।

हमने भी इस बाबत युद्ध स्तर पर तैयारी आरंभ करते हुए नाक/मुंह छिपाने वाले मास्क के पुराने स्टॉक की खोजबीन में पाया बहुत सारे मास्क तो जूते साफ करने में कार्यरत हैं, और कुछ एक दूसरे से जोड़कर कपड़े सुखाने की रस्सी का रोल निभा रहे हैं।

कमांडो कार्यवाही करते हुए रस्सी को खोलकर कुछ मास्क तो पुनः उपयोग लायक कर लिए गए हैं।

हैंड सैनिटाइजर नामक तरल पदार्थ की प्लास्टिक बॉटल में सरसों का तेल भरा हुआ मिला, जाड़े के मौसम में सीमित उपलब्ध साधनों से अधिकतम सदुपयोग करने में भी भारतीय नारी का कोई जवाब नहीं हैं।

काढ़ा बनाने में लगने वाला कच्चे मॉल के भावों में वृद्धि आसमान छू चुकी हैं। सब्जी मंडी से अदरक ऐसे गायब हो गई है, जैसे गधे के सिर से सींग चले गए थे।

बैंक से पेंशन लोन उठाकर तीन माह का अग्रिम राशन से भी घर भर दिया है,ताकि लॉक डाउन की स्थिति में भूखे  ना रहना पड़ जाए।

घर के पास में एक छोटा सा नर्सिंग होम है, कोविड की प्रथम और द्वितीय लहर के समय उसने पास के एक और मकान को किराए पर लेकर एक्सटेंशन काउंटर खोल कर मोटी रकम हज़म कर ली थी।

नर्सिंग होम के मालिक ने पुनः उस मकान मालिक से किराए पर मकान ले लिया है। इसको अंग्रेजी  में प्रोएक्टिव संज्ञा से नवाजा जाता है। कार्यालयों में भी प्रोएक्टिव कर्मचारियों की बड़ी मांग रहती है। किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए इस प्रकार की योग्यता का होना आवश्यक होता है, इसी के तहत अपने समूह के लिए कोविड वापसी की तैयारी का लेख प्रेषित कर रहा हूँ।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 206 ⇒ मंगती बिल्ली… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मंगती बिल्ली”।)

?अभी अभी # 206 ⇒ मंगती बिल्ली… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बिल्ली यों तो कहने को शेर की मौसी है, लेकिन स्वभाव से बड़ी डरपोक होती है।

चोरी जरूर करती है, लेकिन कभी सीना जोरी नहीं करती। यहां वहां दुबक कर पड़े रहने वाले इस प्राणी की गिनती आवारा पशुओं में नहीं होती। कचरे में मुंह मारने की अपेक्षा यह दूध और मलाई में ही मुंह मारना पसंद करती है।

यह कुत्ते की तरह कभी भौंकती नहीं, तेरी मेरी सभी की बिल्ली, सिर्फ म्याऊॅं ही करती है। एक कुत्ते की तरह यह भी न तो घर की ही है, न किसी घाट की।

वैसे यह जंगली भी हो सकती है, और पालतू भी, लेकिन कुत्ते की तरह स्वामिभक्ति और वफादारी इसके खून में नहीं। यह शातिर भी हो सकती है और मौका आने पर खूंखार भी। फिर भी विदेशों में इसे बड़े शौक से पाला जाता है। ।

यह बड़ी सफाई पसंद होती है। दिन में इसे सिर्फ सड़कों पर लोगों का रास्ता काटते देखा जा सकता है, रात के अंधेरे में यह चूहों का शिकार करने के बहाने आपके घरों में घुसती है, और लगे हाथ दूध पर भी हाथ साफ कर देती है। यह कभी कुत्ते की मौत नहीं मरती। लेकिन निश्चिंत रहिए, हम आपको सोने की बिल्ली वाली कहानी नहीं सुनाने वाले।

बिल्ली एक रहस्यमयी प्राणी है। इसका उपयोग जादू टोने और रामसे ब्रदर्स के भुतहे बंगलों में बहुत हुआ है। लालटेन वाला चौकीदार, पुराने दरवाजे की चरचराहट की आवाज, रात के अंधेरे में चमगादड़, और काली बिल्ली की चमकती डरावनी आंखों के बीच फिल्म गुमनाम का गीत, गुमनाम है कोई, अनजान है कोई, और एक लाश, दर्शकों को डराने के लिए काफी होता था। ।

लेकिन फिर भी शहर में आज भी ऐसे कई मोहल्ले और बस्तियां हैं, जहां घरों में बिल्लियां आजादी से, बेखौफ घूमती हैं। पुराने घरों के जीर्ण शीर्ण कमरों और अनुपयोगी फर्नीचर और सामान के बीच वे ना केवल अपना आशियाना बना लेती हैं, अपितु अपने वंश वृद्धि के लिए भी इस जगह का उपयोग करती रहती हैं।

बड़े प्यारे होते हैं, कुत्ते बिल्ली के बच्चे। जब इंसान बच्चों के साथ बच्चा बन जाता है तो उसकी भेद बुद्धि खत्म हो जाती है। केवल एक नादान बच्चा ही निडर होकर शेर के मुंह में हाथ डाल सकता है। हर इंसान का बच्चा, शेर बच्चा होता है। आखिर शेर का बच्चा भी तो शेर बच्चा ही होता है। ।

एक बार अगर कोई बिल्ली म्याऊं-म्याऊं करती घर में प्रवेश कर गई, तो फिर वह घर की ही होकर रह जाती है। उसका अनुनय विनय अधिकार में परिवर्तित हो जाता है। वह भी घर के अन्य बच्चों की तरह दूध की मांग करने लग जाती है। जो अपने बच्चों से करे प्यार, वह बिल्ली को दूध देने से कैसे करे इंकार। बस इसी तरह एक बिल्ली पालतू बन जाती है, सबकी मुंहलगी बन जाती है।

क्या बिल्ली बेशर्म भी होती है। अभी हाल ही में, एक साधारण से होटल में जब सुबह सुबह हम पोहे लेने गए, तो होटल के बाहर ही एक बिल्ली ने हमारा म्याऊं म्याऊं कहकर स्वागत किया। हम उसे अनदेखा करते हुए अंदर होटल में जाकर बैठ गए। बिल्ली का म्याऊं म्याऊं का राग जारी था। कुछ ही समय में वह हमारे पास अंदर आ गई और शिकायत के अंदाज में म्याऊं करती रही। ।

मान न मान, मैं तेरा मेहमान। होटल का मालिक बैठा है, मांगना है तो उससे मांग। हम तो ग्राहक हैं। लेकिन तब तक तो बिल्ली की आवाज ने पूरी होटल सर पर उठा ली थी। मालिक ने बताया, आज अभी तक दूध नहीं आया है। पहले दूध वाला इसे बाहर दूध देता है, उसके बाद ही होटल में प्रवेश कर पाता है। क्या कहेंगे इसे आप, बेशर्मी, दादागिरी अथवा दैनिक हफ्ता वसूली।

जब तक दूध वाला नहीं आएगा, हर ग्राहक के पास जा जाकर हमारी शिकायत करती फिरेगी। सालों से हिली हुई है, न मार सकते, न भगा सकते। हमारे मुंह से भी निकल ही गया, अच्छी बेशर्म और मंगती बिल्ली पाल रखी है आपने। खैर, दूध वाला नहीं आया सो नहीं आया। हमने काउंटर पर पैसे दिए, और अपना रास्ता नापा। बिल्ली की हमसे शिकायत जारी थी। हमें जाते जाते भी उसकी म्याऊं म्याऊं सुनाई दे रही थी। बेचारी बेशर्म, मंगती बिल्ली !

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 216 – साक्षात्कार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 216 ☆ साक्षात्कार ?

मुँह अंधेरे यात्रा पर निकलना है। निकलते समय घर की दीवार पर टँगे मंदिर में विराजे ठाकुर जी को माथा टेकने गया। दर्शन के लिए बिजली लगाई। बिजली लगाने भर की देर थी कि मानो ठाकुर जी हँस पड़े। मनुष्य को भी अपनी वैचारिक संकीर्णता पर स्वयं हँसी आ गई।

दिव्य प्रकाशपुंज को देखने के लिए 5-7 वॉट का बल्ब लगाना! सूरज को दीपक दिखाने का मुहावरा संभवत: ऐसी नादानियों की ही उपज है।

नादानी का चरम है, भीतर की ठाकुरबाड़ी में बसे ठाकुर जी के दर्शन से आजीवन वंचित रहना। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मनुष्य आँखों को खुद ढककर अंधकार-अंधकार चिल्लाता है।

खुदको प्रकाश से वंचित रखनेवाले मनुष्यरूपी प्रकाश की कथा भी निराली है। अपनी लौ से अपरिचित ऐसा ही एक प्रकाश, संत के पास गया और प्रकाशप्राप्ति का मार्ग जानना चाहा। संत ने उसे पास के तालाब में रहनेवाली एक मछली के पास भेज दिया। मछली ने कहा, “अभी सोकर उठी हूँ, प्यास लगी है। कहीं से थोड़ा जल लाकर पिला दो तो शांति से तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकूँगी।”

प्रकाश हतप्रभ रह गया। बोला, “जल में रहकर भी जल की खोज?”

मछली ने कहा, “यही तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान है। खोज सके तो खोज।”

“खोजी होये तुरत मिल जाऊँ

एक पल की ही तलाश में।

कहत कबीर सुनो भाई साधो,

मैं तो हूँ विश्वास में।।

भीतर के ठाकुर जी के प्रकाश का साक्षात्कार कर लोगे तो बाहर की ठाकुरबाड़ी में स्वत: उजाला दिखने लगेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से आपको शीघ्र ही अवगत कराएंगे। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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