हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 199 ⇒ नींद हमारी, ख्वाब हमारे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नींद हमारी, ख्वाब हमारे।)

?अभी अभी # 199 नींद हमारी, ख्वाब हमारे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वे रोज हमारे ख्वाबों में आते हैं, फिर भी उन्हें पता ही नहीं होता, क्योंकि नींद भी हमारी है और ख्वाब भी हमारे ! और उधर वो बेचारे, रात भर करवटें बदलते, अनिद्रा के मारे।

पहले ऐसा नहीं होता था, क्योंकि हमें इतनी गहरी नींद आ जाती थी, कि हमें ख्वाबों का ही पता नहीं होता था। आज यह आलम है कि, ख्वाबों को नींद का, मानो इंतजार सा रहता है, इधर नींद आई, उधर से ख्वाबों का मच्छरों की तरह हमला शुरू। इन बिन बुलाए मेहमानों का आप ऑल आउट से मुकाबला भी नहीं कर सकते, क्योंकि ये तो ख्वाब ही हैं, कोई हकीकत नहीं।।

ख्वाब और खर्राटे दोनों ही हमेशा नींद का इंतजार करते रहते हैं, ख्वाब देखे जाते हैं और खर्राटे लिए जाते हैं। आपके ख्वाब कोई दूसरा नहीं देख सकता और आपके खर्राटे आप ही नहीं सुन सकते।

खर्राटे को कुछ लोग शुद्ध हिंदी में साउंड स्लीप कहते हैं। कहीं कहीं तो यह साउंड स्लीप इतनी डंके की चोट होती है, कि सबकी नींद हराम कर देती है। हमारे ख्वाब, हमारे रहते, कभी किसी और को परेशान नहीं करते। कभी कभी तो, जब हम ही अपने ख्वाबों से परेशान हो जाते हैं, तो ख्वाब टूट जाते हैं और हम जाग जाते हैं।

सपने तो सपने, कब हुए अपने ! यानी हमारी जाग्रत अवस्था ही जिंदगी की सच्चाई है, चाहे कितनी भी कड़वी हो। सपना कितना भी मीठा हो, उससे कभी मधुमेह नहीं होता। फिर भी न जाने क्यों, इंसान सपनों में जीना नहीं छोड़ता। सोते जागते जो लोग एक ही सपना देखते हैं, कभी कभी उनके सपने सच भी हो जाते हैं। और अगर नहीं होते, तो बस इतनी सी शिकायत ;

मेरा सुंदर सपना टूट गया

मैं प्रेम में सब कुछ हार गई

बेदर्द ज़माना जीत गया …।।

एक स्वस्थ शरीर और मन के लिए छः से आठ घंटे की गहरी नींद जरूरी है। पुराने समय में सभी दैनिक कार्यकलाप, बिजली के अभाव में, सूरज की रोशनी में ही संपन्न कर लिए जाते थे। खेती बाड़ी, मेहनत मजदूरी, चक्की पीसना, पनघट और कुएं बावड़ी से पानी भरने जैसे पापड़ बेलने वाले काम एक व्यक्ति को इतने थका देते थे, कि बिस्तर में पड़ते ही ऐसी नींद आती थी, कि सुबह केवल मुर्गे की बांग ही सुनाई देती थी। पौ फटते ही सभी फिर काम में जुट जाते थे।

स्कूल में पाठ भी कैसे पढ़ाए जाते थे, श्रम की महत्ता, सत्यवादी हरिश्चंद्र और मेरे सपनों का भारत।

हमने अपने सभी सपनों को परिश्रम और पुरुषार्थ से सच किया, और आज हम हमारा देश सफलता, संपन्नता और आधुनिक तकनीक के जिस मजबूत और विकासशील धरातल पर खड़ा है, वह हमें विश्व में सिरमौर और विश्व गुरु बनाने के लिए पर्याप्त है। दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए।।

आज भी अगर हर व्यक्ति सप्ताह में 70 घंटे काम करे, तो कई सपने सच हो सकते हैं। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:। तगड़ी मेहनत, तगड़ी भूख और घोड़े बेचकर सोने वाली नींद। जब ख्वाब हकीकत बन जाते हैं, तब ही तो इंसान चैन की नींद सो पाता है।

शेखचिल्ली के सपने और दिवा स्वप्न देखना भी किसी मानसिक रोग से कम नहीं। अत्यधिक काम का दबाव भी मानसिक तनाव का कारण बनता जा रहा है। मोटिवेशनल स्पीच का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है स्ट्रेस मैनेजमेंट। अगर नींद हमारी है, तो ख्वाब भी तो हमारे ही होने चाहिए।

सच्चा सुख निरोगी काया

तो ही सच में कोई दुनिया को जीत पाया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 215 – भावात्मक गोला ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 215 भावात्मक गोला ?

पिछले दिनों ‘संजय उवाच’ के एक आयोजन के लिए झारखंड के रामगढ़ जनपद के गोला नामक ग्राम में जाने का अवसर मिला। राँची से गोला की दूरी लगभग 64 किलोमीटर है। यहाँ से पास में ही माँ छिन्नमस्तका सिद्धपीठ है। गोला के चित्तरंजन सेवासदन एवं रिसर्च सेंटर के परिसर में  स्थित मंदिर में प्रबोधन, सत्संग एवं हरिनाम सुमिरन का आयोजन संपन्न हुआ। तदुपरांत आरती और भंडारा की व्यवस्था थी। इस मंदिर में महादेव-पार्वती, लक्ष्मी-नारायण, श्री गणेश, हनुमान जी, साईंबाबा की मूर्तियाँ स्थापित हैं। आरती आरंभ हुई। सबसे पहले  सर्वसामान्य हिंदी आरती ‘ओम जय जगदीश हरे’ हुई।  तदुपरांत देवी की आरती हुई। यह बंगाली में थी। बंगाल और झारखंड के आपस में पड़ोसी होने से यह प्रभाव सहज था। बाद में साईं की आरती हुई। आश्चर्य कि यह आरती मराठी में थी। झारखंड के ग्रामीण भाग में मराठी में आरती सुनना एक भिन्न अनुभव था। हुआ यूँ होगा कि मंदिर का प्रबंधन देखनेवाले श्रद्धालु  परिजन शिर्डी आए होंगे और वहाँ से मराठी में उपलब्ध आरती संग्रह अपने साथ ले गए होंगे। समय के साथ लगभग पंद्रह सौ  किलोमीटर दूर स्थित मराठी भाषी शिर्डी में गाई जानेवाली आरती अमराठी भाषी गोला में भी उसी भाव से गाई जाने लगी।

चिंतन का सूत्र यहीं जन्म लेता है। भाषा से अधिक महत्वपूर्ण है भाव। यूँ देखें तो भावों की शाब्दिक अभिव्यक्ति ही भाषा है। भाव ही मनुष्य-मनुष्य के बीच तादात्म्य स्थापित करता है। भाव को भाव के स्तर पर ग्रहण किया जाए तो जीवन के प्रति दृष्टिकोण ही बदल जाता है।

भाषा इहलोक का साधन हो सकती है, ईश्वर तक तो भाव ही पहुँचता है। शबरी द्वारा अपने जूठे बेर खिलाने के पीछे छिपा वात्सल्यभाव महत्वपूर्ण था। इतना महत्वपूर्ण कि प्रभु प्रशंसा करते नहीं थकते।

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।

प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥

भाव-विभोर विदुर द्वारा केले फेंकना और केले के छिलके प्रभु को खिलाने में भी भाव ही महत्वपूर्ण था। सुदामा के पोहे में जो प्रेमरस था, राजभोग उसके आगे फीका था।

गोला की धरती से मिला भाव सुधी साधकों और पाठकों के साथ साझा कर रहा हूँ। इस पर मनन हो सके, भाव के स्तर पर भाव ग्रहण हो सके तो भावात्मकता का एक गोला तैयार हो सकता है। शुभं अस्तु।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से आपको शीघ्र ही अवगत कराएंगे। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 198 ⇒ मन लागो मेरो यार अमीरी में… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मन लागो मेरो यार अमीरी में”।)

?अभी अभी # 198 ⇒ मन लागो मेरो यार अमीरी में… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अमीरी और फकीरी दोनों इंसान की ऐसी चरम अवस्थाएं हैं, जहां उसे सुख नजर आता है। अमीरी और फकीरी, दोनों को अगर वरदान माना गया है, तो गरीबी तो बस अभिशाप ही हुई।

अमीर और फकीर, दोनों के पास दौलत होती है, कहीं सुख चैन की और दिल की दौलत होती है, तो कहीं सोने चांदी और महल चौव्वारों की। अमीर अगर दौलत लुटाता है तो वह दानी कहलाता है, और अगर वह सब कुछ लुटा दे, तो दानी नहीं फकीर ही कहलाएगा।।

कर्ण महादानी था, फकीर नहीं। एक दानी का हाथ केवल देने के लिए उठता है, फैलाने, कुछ मांगने के लिए नहीं। कर्ण ने भी सिर्फ दिया ही दिया, जो मांगा सो दिया, लेकिन अपने लिए तो कृष्ण से भी कुछ नहीं मांगा। एक गरीब और गरीबनवाज का रिश्ता दाता और भिखारी का ही तो होता है। सभी ऐश्वर्यों के प्रदाता को आप ईश्वर कहें अथवा भगवान, भिखारी सारी दुनिया, दाता एक राम।

एक गरीब क्या फकीर बनेगा। उसके लिए पहले उसे अमीर बनना पड़ेगा। वह पहले इतना अमीर बन जाए, कि उसके अंदर फकीरी की भावना आ जाए, वह सत्तर करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन मुहैया करवाने के बावजूद, जब तेरा तुझको अर्पण वाला भाव रखता है, तो दुनिया उसे मसीहा समझती है, और वह अपने आपको एक फकीर। एक ऐसा फकीर, जो अमीरों को सही राह दिखाता है।।

जो सब कुछ कमाकर लुटा सकता है, उसे फिर एक फकीर बनकर भीख मांगने में भी शर्म नहीं आती, क्योंकि वह तो विरक्त है, एक फकीर है, लोगों के दुख दर्द दूर करेगा, निःस्वार्थ भाव से सेवा करेगा, और कभी भी झोला उठाकर चल देगा।

अमीरी और फकीरी का मिला जुला भाव ही तो आज का सेवा भाव है।

एक नेता आपसे सिर्फ एक वोट मांगता है, और बदले में दुनिया की सारी दौलत आप पर न्यौछावर कर देता है। एक फकीर वादा नहीं करता, सच्चा सौदा करता है। तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हारी दुनिया ही बदल दूंगा।।

मैं ना तो इतना गरीब हूं, कि मुझे भी मुफ्त राशन नसीब हो। ना ही मैं एक इतना संपन्न अमीर हूं, कि दानवीर कर्ण कहलाऊं, अतः फकीरी तो मेरे लिए बड़ी दूर की कौड़ी है। अगर मुझे कुछ लुटाना है, तो उसके पहले कुछ हासिल करना पड़ेगा। एक खाली जेब वाला क्या जेब खर्च करेगा।

फकीर के पास सिर्फ एक झोला होता है, तो क्या उसकी पूरी अमीरी उस झोले में छुपी होती है।

जब कि वास्तव में तो झोला सिर्फ एक फकीर की पहचान है। उसका असली इल्म, और ईमान का झोला तो उसके अंदर होता है, उसके झोले डंडे से किसी को क्या हासिल होगा।।

मैं भी फकीर बनने से पहले अमीर बनना तो चाहता हूं, लेकिन दिखना नहीं चाहता। दुनिया की निगाह में अमीर बनने के लिए पुरुषार्थ और परिश्रम के अलावा कोई रास्ता नहीं। अंदर से अमीरी ज्यादा आसान है। सत्य, प्रेम, सदाचार, संवेदना और सादगी अंदर की वही अमीरी है, जो हमें अल्हड़, फक्कड़ और फकीर बनाती है। अंदर से अमीर हैं हम, लेकिन बस कमी इतनी ही है कि बाहर से फकीर नहीं हम।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 197 ⇒ |||संस्पर्श||| ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|||संस्पर्श||| “।)

?अभी अभी # 198 ⇒ |||संस्पर्श|||? श्री प्रदीप शर्मा  ?

किसी से इतना सामिप्य, कि स्पर्श का अहसास होने लगे, संस्पर्श (Contiguity) कहलाता है। यह आकस्मिक भी हो सकता है और प्रयत्न स्वरूप भी। भीड़ में ऐसा स्पर्श स्वाभाविक है, क्योंकि वहां तो धक्का मुक्की भी होती है और इरादतन चेष्टा भी। कुछ लोगों के लिए यह स्वाभाविक और अपरिहार्य भी हो सकता है तो कुछ के लिए असुविधाजनक और तकलीफदायक। बच्चे, वृद्ध और बीमार अक्सर जहां भीड़ और भगदड़ के शिकार होते हैं, वहीं महिलाओं के लिए तो यह स्थिति और भी बदतर हो सकती है, जिसमें कुचेष्टा के साथ साथ अभद्र व्यवहार की भी आशंका बनी रहती है।

स्पर्श में सुख है, अगर वह आपकी मर्जी और सहमति से हो रहा है। बच्चों का कोमल स्पर्श कितना रोमांचित कर देता है। प्रेम और रिश्तों की गर्माहट है जहां, संस्पर्श की संभावना है वहां। एक विज्ञापन में तो युवा मां और उसकी अति सुंदर और नाजुक बिटिया की कोमल त्वचा की देखभाल पारदर्शी पियर्स pears साबुन ही करता है। ।

मुझे जड़ और चेतन दोनों में इस स्पर्श का अहसास होता है। स्पर्श को छूना भी कहते हैं, कोई भी चीज आपके मन को छू सकती है। फूल से कोमल बच्चे भी होते हैं और रात को हमारे सिरहाने लगा तकिया भी। टेडी बियर में ऐसा क्या है, आखिर है तो वह भी निर्जीव ही।

गुलाबी ठंड और सुबह सवा पांव बजे का वक्त ! सुबह का टहलना और सांची प्वाइंट के बूथ से दूध लाना, यानी एक पंथ दो काज, मेरी दिनचर्या का अंग है। दूध के इंतजार में चौराहे पर अकेले खड़े रहने का भी एक अलग ही आनंद है। इक्के दुक्के इंसान और मोहल्ले के आवारा कुत्ते चौराहे को व्यस्त बनाए रखते हैं। जो इन कुत्तों से डरते हैं, वे सुबह टहलने नहीं जाते अथवा किसी लाठी का सहारा अवश्य ले लेते हैं। ।

मुझमें कुछ ऐसा खास है कि कुत्ते मेरे पास नहीं फटकते और अगर कोई गलती से पास आ गया, तो वह और अधिक पास आने की कोशिश करता है। उसे पास बुलाने में कुछ योगदान मेरी चेष्टाओं का भी होता है।

आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। दूध के इंतजार में मैं चौराहे का निरीक्षण कर रहा था। अचानक एक काले सफेद रंग का कुत्ता मेरे सामने से गुजरा। वह जब तेज चलने की कोशिश करता था, तो उसका एक पांव लंगड़ाने लगता था। एक स्वाभाविक दया अथवा करुणा का संचार मेरे मन में हुआ होगा, मुझे नहीं पता। ।

एकाएक घूमते घूमते वह मेरे पास आकर ठिठक गया। कुत्ते सूंघकर निरीक्षण करते हैं। एक दो चक्कर लगाकर, वह थोड़ा और पास आकर मेरे पास खड़ा हो गया। न जाने क्यों, बेजुबान प्राणियों की आँखें मुझे लगता है, बहुत कुछ कह जाती हैं। उसने मुझसे लगभग सटकर, मुंह ऊंचा कर दिया। अब वह मेरी कमजोरी का फायदा उठा रहा था।

मुझे गाय को सहलाने की आदत है। हमारे छूने का इन प्राणियों को अहसास होता है। इनके कहां हमारी तरह हाथ होते हैं। ये प्राणी अक्सर किसी दीवार अथवा पेड़ से अपना शरीर रगड़ लेते हैं।

गाय हो या कुत्ता बिल्ली, अधिक लाड़ में ये अपना मुंह ऊपर कर देते हैं ताकि आप इनको आसानी से सहला सकें। ।

हमारे अजनबी श्वान महाशय ने भी यही किया। और हमने भी, आदत से मजबूर, उसे सहला भी दिया। बस कुत्ते में इंसान जाग उठा। वह तो हमारे गले ही पड़ गया। इतने में मेरे पास एक दो कुत्ते और आ गए, और मेरे वाले कुत्ते पर भौंकने लगे। शायद मैं उनके इलाके का था, और जिस कुत्ते को मैने मुंह लगाया था, वह किसी और इलाके का होगा।

उनके लगातार भौंकने से मेरा वाला कुत्ता विचलित हो गया, और उसे मजबूरन मुझे छोड़कर जाना पड़ा। मुझे अब केवल इन कुत्तों से छुटकारा पाना था। क्योंकि उनकी मुझमें कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। उनका उद्देश्य शायद केवल उस कुत्ते को खदेड़ना ही रहा होगा। ।

गुलजार अप्रत्यक्ष रूप से शायद इन शब्दों में यही कहना चाहते होंगे ;

हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू।

हाथ से छू के इसे

रिश्तों का इल्जाम ना दो। ।

जब गुलजार की ये पंक्तियां हमें इतना छू जाती हैं, तो रिश्तों की तो बात ही कुछ और है। मजबूर हम, मजबूर तुम। प्रेम के वशीभूत हमने तो जानवर में इंसान जागते देखा है, कभी तो यह इंसान भी जागेगा। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #206 ☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 206 ☆

वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆

‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’  कबीर जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है, निराकार है; उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए, तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार  उत्पन्न कर सकते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर दुश्मन भी बना सकते हैं।

सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे, कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं, अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल, फिर बोल’ की सीख दिन गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते, तो आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता  है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित, असंयमित व अशोभनीय भाषा  का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते, क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल, अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।

‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाए’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, क्योंकि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है, तो वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है, उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना, काम नहीं आसान/  जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी कभी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं, क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है, तो वह सम्मान का कारक बनती है, अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं, तो विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए, ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें।

जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या, बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव, छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी, बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है, जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण, फ़िरौती, दुष्कर्म, हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं।  लॉकडाउन में पुरुष मानसिकता के अनुरूप घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना, पत्नी का घर के कामों में हाथ बंटाना, परिवाजनों से मान-मनुहार करना उसे रास नहीं आया, जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा, ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 196 ⇒ गुमशुदा की तलाश… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुमशुदा की तलाश”।)

?अभी अभी # 195 ⇒ गुमशुदा की तलाश… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

निकले तेरी तलाश में,और खुद ही खो गए! खोने और गुम होने का खेल यह अक्सर बचपन में ही होता है। मेलों और भीड़ में बच्चे खो जाते थे।

मनमोहन देसाई की फिल्मों में बच्चों की अदला बदली और खोने की दास्तान जरा ज्यादा ही फिल्मी और भावुक हो जाती थी। अमीर का बच्चा खलनायक निकल जाता था, और गरीब का बच्चा नायक। अस्पताल में बच्चों की अदला बदली अब इतनी आसान भी नहीं। डीएनए का नाटक जो शुरू हो गया है। फिर भी असली जिंदगी में गुम होने और खोने की घटनाएं आम हैं।

किसी की तलाश और खुद का खो जाना अगर कभी जीवन में एक साथ हो जाए,तो उसे आप क्या कहेंगे। यह तब की बात है,जब सड़कों पर चौपाया जानवर नजर आ आते थे। कोई गाय का बछड़ा जब अपनी मां से बिछड़ जाता था, तो उसकी पुकार दिल दहला देती थी। उधर और किसी जगह बेचारी गाय भी अपने बछड़े के लिए बदहवास सड़कों पर भटकती देखी जा सकती थी। बड़ा मार्मिक दृश्य होता था यह। इधर गाय का सतत रंभाना और उधर बछड़े का म्हां,म्हां पुकारते हुए इधर उधर भटकना।।

आज की तारीख में कोई इंसान अपनी मर्जी से नहीं गुम सकता। वह किसी परेशानी के चलते,बिना बताए घर से गायब अवश्य हो सकता है। मां बाप की मार के डर से,अथवा पढ़ाई के डर से कई बच्चे घर से बिना बताए भाग जाते थे।

बेचारे परिवार के लोग परेशान, कहां कहां ढूंढे,किस किससे पूछें।

सभी रिश्तेदारों और यार दोस्तों से पूछ लिया जाता था। तब कहां फोन अथवा मोबाइल की सुविधा थी।

थक हारकर,अखबारों में तस्वीर सहित गुमशुदा की तलाश का विज्ञापन दिया जाता था। प्रिय गुड्डू,तुम जहां कहीं भी हो, फ़ौरन चले आओ। मां ने तीन दिन से खाना नहीं खाया है,दादीजी की हालत भी नाजुक है,उधर बहन ने रो रोकर बुरा हाल कर लिया है।तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। पैसे की जरूरत हो तो बताना। बस बेटा,जल्दी वापस घर चले आओ। लाने वाले अथवा बताने वाले को कुछ इनाम स्वरूप पारिश्रमिक देने की घोषणा भी की जाती थी।।

सबसे सुखद क्षण वह होता था,जब गाय के बछड़े को अपनी मां मिल जाती थी और माता पिता का खोया अथवा घर छोड़कर भाग बालक वापस घर चला आता था। अंत भला सो सब भला।

कहीं कहीं भाग्य और परिस्थिति बड़ी विचित्र और विपरीत ही दृश्य उपस्थित करती है। ऐसे बच्चों को बहला फुसलाकर गलत कामों में लगा देना,अमीर बच्चों के लिए पैसों की मांग करना,तो कहीं किसी दुर्घटना में बच्चे की जान गंवा देना भी उतना ही आम है।।

आज के बच्चों पर पढ़ाई का विशेष दबाव देखा जा रहा है। एक तरफ ऑनलाइन पढ़ाई और दूसरी ओर मोबाइल का अंधाधुंध शौक। हर बच्चा तो जीनियस नहीं हो सकता,पांचों उंगलियां कहां बराबर होती है,लेकिन पालक के भी अरमान होते हैं। बच्चों की आपस की प्रतिस्पर्धा भी कभी कभी बहुत भारी पड़ सकती है।

दूर गांव के बच्चे पढ़ने लिखने के लिए शहरों में आते हैं। कुछ यहां की चकाचौंध में खो जाते हैं,तो कुछ अपने मां बाप का नाम रोशन करते हैं। एक तरह से खोने और पाने का खेल ही तो है आजकल बच्चों का जीवन।।

बेचारे बड़े तो अपने अतीत और बच्चों के सुखद भविष्य के सपनों में ही खोए रहते हैं,लेकिन कहीं बच्चों का बचपना कहीं गुम ना हो जाए,कहीं खो ना जाए। अनुकूल वातावरण नहीं पाकर आज की पीढ़ी अपने साथ न्याय नहीं कर पाती। आज स्वार्थ,खुदगर्जी और प्रतिस्पर्धा की दौड़ में कहीं बच्चा ,मेले की तरह भीड़ में गुम ना जाए,भटक ना जाए,यह जिम्मेदारी आज समाज से ज्यादा माता पिता की है।

जिसका जो गुम गया,वो उसे मिल जाए,जो गुमराह हैं,उन्हें सही राह नजर आ जाए,जिसको जिसकी तलाश है, उसे वह मिल जाए। यहां उन्हें समय व्यर्थ नहीं खोना है,कई रास्ते हैं,कई मंजिलें हैं। सबको अपनी मंजिल मिले। आमीन ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 194 ⇒ ॥ माता का दरबार॥ ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “॥ माता का दरबार॥ ।)

?अभी अभी # 194 ⇒ ॥ माता का दरबार॥ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

🙏 प्रार्थना 🙏

॥ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं श्रीं कएईल ह्रीं हसकहल ह्रीं सकल ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ॥

हे सदगुरु स्वरूपिणी त्रिपुर सुंदरी मां अम्बे ! मैं तेरी शक्ति एवम् आशीर्वाद से ही तेरा नाम स्मरण करता हूं। यह नाम स्मरण केवल जगत कल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही किया जा रहा है। जगत, काम, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष एवं अहंकार की अग्नि में जल रहा है। भांति भांति के विकारों से ग्रसित, यह जगत, हे मां, तेरी कृपा का पात्र है। सभी जीवों के मन में राग द्वेष को दूर कर शीतलता प्रदान करो। सभी मित्रों और विरोधियों के प्रति मेरे हृदय में मंगल कामना तथा मित्र भाव पैदा करो, और सबके हृदय में मेरे प्रति मित्र भाव। सभी लोगों में परस्पर प्रेम भाव, सद्भाव तथा कल्याण भाव हो, सबकी सेवा साधना में वृत्ति हो।

हे मां ! तू जग कारिणी, जग तारिणी है, हम विकारों में जलते हुए जीव, तेरे चरण छोड़कर, किसकी शरण ग्रहण करें। हे मां ! हमारी पुकार सुनो, हमारी पुकार सुनो, हमारी पुकार सुनो। 

🕉️ माता का दरबार 🕉️

यह किसी सम्राट, शहंशाह, बादशाह अथवा महाराजा का दरबार नहीं, माता का दरबार है। यहाँ दरबारियों, सेवकों और नव-रत्नों की दरकार नहीं, नवरात्रि तक स्वयं नवदुर्गा अपने नौ दिव्य-स्वरूपों से दरबार को सुसज्जित करेगी। माता का जगराता है ! यहाँ जो भी आता है, शीश झुकाता है, मन-माफिक मुरादें पाता है।

दरबार हमेशा किसी ऊँचे स्थान पर होता है। हमारी माता तो पहाड़ां वाली और शेरां वाली है। पहाड़ों पर ही उसका दरबार लगता है, और हमारी माँ अम्बे, जगदम्बे शेर की सवारी करती है।।

वह सबसे पहले माँ है, जगत-जननी है। उसका जन्म ही जगत कल्याण के लिए हुआ है। वह दिन-रात, आँधी-तूफान, जंगली जानवरों और नर-पिशाचों से अपने पुत्रों की रक्षा करने में सक्षम है। वह अगर आनंदमयी, चैतन्यमयी, सत्यमयी परमी है, तो महाकाली, दुर्गे और अम्बे भी है।

एक पुत्र के लिए माँ का स्वरूप वत्सला, ममता, दया और करुणा का होता है। जब तक बच्चा अबोध है, अनजान है, असहाय है, कमज़ोर है, माँ उसे अपने आँचल से चिपकाये रहती है, उसकी भूख-प्यास मिटाती है, उसका लालन-पालन करती है, लेकिन जैसे ही पंछी ने पर फड़फड़ाये, माँ उसे आज़ाद कर देती है।।

लेकिन यही आज़ाद पंछी जब बाज बनकर इंसानियत को कलंकित करता है, तो वह उसके पर नोच लेती है। डाकिनी, पिशाचिनी महाशक्ति बन इन असुरों का संहार भी करती है। लेकिन एक भक्त के लिए वह सिर्फ माँ सरस्वती है, महालक्ष्मी है, उसकी अपनी वसुंधरा है।

जो रामराज्य का सपना देखते हैं, उन्हें राम के समान वनवास के लिए भी तत्पर रहना चाहिए। कितने राक्षसों का संहार हुआ रामराज्य के पहले ! क्या हम अपनी सीता की अग्नि परीक्षा के लिए सहमत होंगे। लक्ष्मण रेखा पार करने के परिणाम तो हमें भुगतने ही होंगे।।

एक आल्हादिनी शक्ति का हमारे अंतस में भी वास है। उस शक्ति को जगाना ही नवरात्रि का व्रत-उपवास-डांडिया रास है। मन पर विजय ही विजयादशमी है।

मन के शत्रुओं का संहार ही नवरात्रि का त्योहार है।

माता का दरबार सजा है। वही जगदम्बे है, वही माँ चामुण्डा है। श्रद्धा, भक्ति और विवेक की सीढ़ियां चढ़ने पर ही उस जगत-माता के दर्शन आपको जन जन में व्याप्त माँ, बहन और बेटी में होना संभव है। जिस धरती पर नवरात्रि में कन्याओं को पूजा जाता है, उन्हें पाँव छूकर प्रणाम किया जाता है, क्या वह सिर्फ नौ दिन का ही एक उत्सव है, दिखावा है। हर पल जब नवरात्रि होगी, तब ही वह माँ का सच्चा जगराता होगा।।

“अम्बे मात की जय !”

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 57 – देश-परदेश – गधा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 57 ☆ देश-परदेश – गधा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

ये शब्द सुनते ही पाठशाला “मॉडल हाई स्कूल” जबलपुर के आदरणीय शिक्षक उपाध्याय जी के साथ पच्चास वर्ष पूर्व हुई एक चर्चा की स्मृति मानस पटल पर आ गई।

मॉडल हाई स्कूल, हमेशा हायर सेकंडरी की राज्य स्तरीय योग्यता सूची में सबसे अधिक स्थान प्राप्त करता था। इस विषय पर मैंने नवमी कक्षा का छात्र होते हुए शिक्षक से कहा, जब कक्षा छः के प्रवेश के समय भी उच्चतम अंक प्राप्त छात्रों को ही प्रवेश दिया जाता है। वो तो “घोड़े” होते है, कम अंक (गधे) प्राप्त छात्रों को मैट्रिक की मेरिट में लेकर आएं तो पाठशाला की क्षमता मानी जा सकती हैं।

शिक्षक भी हाजिर जवाब थे, और तुरंत बोले छः वर्ष तक घोड़े को घोड़ा बना रहने देते है, ये क्या कम हैं ? उनकी बात में वजन था। हमने भी उनसे क्षमा मांग कर उनका सम्मान बनाए रखा।

“मेरा गधा गधों का लीडर ” स्वर्गीय शम्मी कपूर जी का एक पुरानी फिल्म का गीत दूर कहीं बज रहा था। तभी एक मित्र ने उपरोक्त फोटो भेजी जिसमें एक पाकिस्तानी युवा अपनी नई नवेली पत्नी को “गधा” भेंट कर रहा हैं। फोटू का शीर्षक “एक गधा, गधा भेंट करते हुए”।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 193 ⇒ समय का पंछी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “समय का पंछी”।)

?अभी अभी # 193 ⇒ समय का पंछी… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 समय का पंछी उड़ता जाए! आपके पंख नहीं, पांव हैं, आप समय के साथ चल तो सकते हैं, उड़ नहीं सकते। हां, समय बचाने के लिए हवाई जहाज में उड़ जरूर सकते हैं। जो इस तरह समय बचाते हैं, उन्हें समय बहुत महंगा पड़ता है, लेकिन उन्हें कम समय में पैसा कमाने का गुर भी आता है।

किसी के लिए पैसा ही समय है और किसी के लिए समय ही पैसा। जिनके पास पैसा ही नहीं, उन्हें समय खर्च करने से कौन रोक सकता है।

पैसे वालों का समय बहुत कीमती होता है। वे समय बेचते हैं। डॉक्टर वकील से आपको समय खरीदना पड़ता है, लेकिन उसमें भी वे भाव खाते हैं, और तगड़ा खाते हैं।।

बचपन में हमारे पास इतना समय था, कि हमें घड़ी देखना ही नहीं आता था। जब मां उठाती, तब सुबह हो जाती थी, और जब मां सुलाती, शाम हो जाती थी। आज जिंदगी की शाम में हमें जगाने, सुलाने वाला कोई नहीं, जब जागे तभी सवेरा और आंख बंद हुई तभी रात।

पंछी की तरह हमने भी समय को घड़ी रूपी पिंजरे में कैद कर लिया, और खुश हो गए। समय आत्मा की तरह अजन्मा, अमर और अभेद्य है। इस शरीर में आत्मा जीवात्मा बन गई और हमने समय देखने के लिए, घड़ी में चाबी भरना शुरू कर दिया। समय हमारे लिए खिलौना हो गया। जितनी भारी चाबी, उतना चला खिलौना।।

समय का भी खेल देखिए!

जो अटल था, वह भी डिजिटल हो गया। आज भी मेरी दीवार घड़ी निप्पो और एवरेडी के सेल पर ही सांस लेती है। क्या समय की भी सांस फूलती है, क्या समय को भी वेंटिलेटर पर रखना पड़ता है। आज भी समय देखने के लिए हम घड़ी पर ही तो मोहताज हैं। समझ में नहीं आता, घड़ी समय से चलती है, या समय घड़ी से चलता है।

आप घड़ी को आगे पीछे तो कर सकते हैं, समय को नहीं कर सकते। हम समय के साथ चल सकते हैं, शायद समय से पहले भी चल लेते हों, लेकिन समय से आगे कभी नहीं निकल सकते। जो भी है, बस यही एक पल। पलक झपकते ही क्या से क्या हो जाता है। समय का पंछी हाथ से उड़ जाता है।।

समय तो समय होता है, किसी के लिए अच्छा होता है, तो किसी के लिए बुरा। हम भले ही समय घड़ी में देखते हों, खराब समय आने पर अक्सर मुंह से निकल ही जाता है, क्या मनहूस घड़ी है, लेकिन तब भी हम अपनी घड़ी को नहीं, समय को ही कोस रहे होते हैं। बेचारी घड़ी का क्या दोष, वह तो सगाई में मिली थी।

समय को तो हम बांट नहीं सकते, चलिए, घड़ी को ही बांट लेते हैं। सगाई की घड़ी को आप मिलन की घड़ी कह सकते हैं, शुभ शुभ बोलेंगे हम तो, जुदाई की घड़ी की बात कतई नहीं करेंगे, क्योंकि ;

बात मुद्दत के ये घड़ी आई।

आप आए, तो जिन्दगी आई।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 192 ⇒ || चौपाल || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)

?अभी अभी # 192 || चौपाल || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम कभी गांव नहीं गए, क्योंकि गांव ही अब तो चलकर शहर आ गए हैं। एक समय था, जब साइकिल उठाई कुछ किलोमीटर चले, तो गांव ही गांव, खेत ही खेत, चौपाल ही चौपाल। आजकल कार से फॉर्म हाउस और रिसॉर्ट जाया जाता है, जन्मदिन की पार्टियों और विवाह समारोहों में।

गांव का लुत्फ लोग चोखी ढाणी और राजस्थानी ढाबे में ही उठा लेते हैं।

प्रेमचंद और रेणु की कहानियों में अवश्य चौपाल का जिक्र आया होगा। गांव के किसी बड़े पेड़ के नीचे किसी बड़े ओटले पर केवल पुरुष अपनी चौपाल जमाते थे।

घर गृहस्थी, खेती बाड़ी, सुख दुख और राजनीति की ही चर्चा होती होगी चौपाल में। कोई साक्षर अखबार का वाचन करता होगा, कुछ पुरुषों के ग्राम्य गीत गाए जाते होंगे, बीड़ी सिगरेट तंबाकू और बारी बारी से हुक्का गुड़गुड़ाया जाता होगा।।

एक आदर्श ग्राम में कभी चाय और पान की दुकान का जिक्र नहीं होता। शराब की दुकान की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। मेरे सपनों का गांव हमारा आदर्श ही रहा है। अच्छे सपने देखने से दिन भी अच्छा ही गुजरता है।

आजकल ई -चौपाल और ई -शिक्षा का जमाना है। हमारे माननीय प्रधान मंत्री और लाडली बहना वाले मामा एक मिली जुली ई – चौपाल का आयोजन राजधानी में करते हैं, जिसमें प्रदेश के पूरे गांववासी, उनके प्रतिनिधि और जिला कलेक्टर जुड़ जाते हैं और समस्याओं का डिजिटल निराकरण भी हो जाता है। मन रे, तू कोई गीत सुहाना गा। मनरे ..गा।।

मैं भी अपने अभी अभी के नित्य कर्म से निवृत्त होकर सुबह सुबह फेसबुक की चौपाल पर चला आता हूं। मेरी आंखों को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ता। हेमा जी पहले से ही चौपाल में मौजूद रहती हैं।

उधर देहरादून से सैनी जी ताक लगाए बैठे रहते हैं। नेपथ्य में रैना जी की मौजूदगी हमेशा महसूस होती रहती है।

चैन और सुकून से चर्चा ही तो चौपाल का उद्देश्य होता है। चर्चा को चैट यूं ही नहीं कहते। हेमा जी का क्या है, कभी मीरा तो कभी महादेवी, कभी प्रवासी तो कभी एलियन।

कभी इस चौपाल में पंडित प्रदीप मिश्रा के साथ सत्संग होता है तो कभी जैनेंद्र कुमार जी से। कलयुग के दीपक यादव को अगर आप सुनें तो लगेगा, भटके हुए ओशो हैं। सुबह सुबह का स्वस्थ और सार्थक संवाद चौपाल जैसा ही सुख देता है। अखबार के पन्ने की तरह खुलती बंद होती रहती है फेसबुक की चौपाल, चाय की चुस्कियों और जरूरी कामकाज के बीच। हमारी चौपाल में आपका स्वागत है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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