(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की अगली कड़ी। )
☆ आलेख # 86 – प्रमोशन… भाग –4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
जब शाखा को पता चला कि प्रमोशन टेस्ट होने वाले हैं तो पहली जिज्ञासा कट ऑफ डेट जानने की हुई. जो इसके पात्र बने वो तनावग्रस्त हुये और जो कट ऑफ डेट से कटते कटते बचे वो प्रफुल्लित हुये क्योंकि उन्हें मौका मिला प्रमोशन के पात्रों को जज करने का, तानेबाजी का और ये कहने का, ‘कि हमको क्या, हमें तो वैसे भी नहीं लेना था’. हम तो प्रमोशन लेकर भी छोड़ने वालों में से हैं, हालांकि बैंकों में ऐसा प्रावधान होता नहीं है. जो कट ऑफ डेट से वाघा /अटारी बार्डर जैसे चूक गये उन्होंने इसे प्रबंधन की साजिश समझा और गुस्से में दो चार दिन अपने रोजाना के कोटे और गति से कम काम किया. उनका नजरिया यह था कि अब तो जो अफसर बनने वाले हैं, उनको ही ज्यादा काम करने और घर लेट जाने की आदत डाल लेना चाहिए. घर वाले भी जल्दी समझ जायेंगे.
उस जमाने में न तो रेडीमेड हेंडनोट्स होते थे न ही हर ब्रांच में अपना एक्सट्रा टाइम देकर कोचिंग देने वाले लोकोपकारी युवा अधिकारी. प्रमोशन पाने का सारा दारोमदार “प्रेक्टिस एंड लॉ ऑफ बैंकिंग” और नेवर लेटेस्ट बैंकिंग (एवर लेटेस्ट बैंकिंग :असली नाम) पर ही आता. प्रत्याशी बैंक आने के पहले पढ़ते, बैंक में समय पाकर पढ़ते और फिर बैंक से यथासंभव जल्दी घर पहुंच कर पढ़ते. जब पड़ोसी : विशेष रूप से पड़ोसने तहकीकात करतीं और अपने पतियों पर देर से घर आने पर शक की सुइयां चुभाती तो इन्हीं प्रत्याशियों की भार्याएँ प्रतिस्पर्धात्मक गर्व से सूचित करतीं कि हमारे “इनका” प्रमोशन होने वाला है. पड़ोसने जलभुन कर बोलतीं “बहुत देर से हो रहा है” हमारे जेठ तो तीन साल में ही प्रमोशन पा लिये थे. फिर जवाब भी टक्कर का मिलता कि “क्यों, क्या तीनों पार्ट वाले हैं क्या. बैंक में भी वो जो इस प्रमोशन टेस्ट के पात्र नहीं थे, सिक्योरिटी गार्ड्स और संदेशवाहकों के बीच बैठकर हांकते “दिन रात पढ़ने की जरूरत नहीं है, ये तो हम अपने नॉलेज के आधार पर बिना पढ़े ही निकाल सकते हैं. जिन्हें टेस्ट देना होता वो इन सबको इग्नोर कर अपने जैसे ही साथियों से और नवपदोन्नत अधिकारियों से प्रेरणा और मार्गदर्शन लेते. जो आज पढ़ा उस पर डिस्कशन होता बैंक में, रिक्रिएशन हॉल में, चाय और पान की टपरे नुमा शॉप्स में जहाँ मौका मिलता वहाँ डिस्कशन होता. कभी कभी डिस्कशन का ओवरडोज इतना हो जाता कि चाय के टपरे वाला भी “निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट “समझने और समझाने लगता और नॉन बैंकिंग कस्टमर्स पर इस एक्ट की टर्मिनालाजी का उपयोग कर धौंस जमाने लगता था.
प्रमोशन की तैयारियों में परिवार का एक्सट्रा सहयोग मिलता, बच्चे फरमाइशों से तंग नहीं करते, पढ़ते वक्त चाय /काफी बिना मांगे मिलती, डेली शॉपिंग से भी मुक्ति मिल जाती और पढ़ने वाला इस दहशत में सीरियसली पढ़ता कि पास नहीं हुआ तो ये नाकामी, कॉलोनी में पत्नी की बनी बनाई रेप्यूटेशन मिट्टी में मिला देगी. फिर तो ये सारी इंपार्टेंस और सुविधाओं का मिलना बंद हो जायेगा और काबलियत पर “शक करते ताने” जीना मुश्किल कर देंगे.
जिन्हें किसी भी तरह से प्रमोशनटेस्ट पास करना है वे शाखाप्रबंधक की खुशियों का बहुत ख्याल रखते और अकेले में पूछते भी कि सर हमारा तो हो जायेगा ना. जो समझदार प्रबंधक होते वो शरारत से यही कहते “अरे तुम्हारा नहीं होगा तो फिर किसका होगा. सारी ब्रांच की उम्मीद तुम पर टिकी हैं. पूछने वाला “इस उम्मीद टिके होने” के नाम पर और भी ज्यादा तनावग्रस्त हो जाता और सीधे होटल पहुंचकर सिगरेट के कश के साथ स्पेशल ऑर्डर पर बनी कॉफी पीता. होटल के मालिक की पारखी नजरें सब समझ जातीं और फिर पेमेंट के समय वो भी आश्वस्त करता “अरे साहब वैसे तो हमारे होटल में कई आते हैं पर आपकी और आपकी काबलियत पर तो हमारी 100% गारंटी है. राहत महसूस कर और छुट्टे जानबूझकर वापस लेना भूलकर मिस्टर 100% बैंक आकर बूस्ट की गई गति से काम करता हालांकि उसका मन तो किताबों के किसी पेज पर ही अटका रहता. उसे यह तो मालूम था ही कि रिटनटेस्ट तो पढ़कर ही पास होना है और मेरिट के अनुसार न्यूनतम मार्क्स यहाँ भी पाने पड़ते हैं.
इस श्रंखला में कपिलदेव, मोहिंदर अमरनाथ और गावस्कर के अलावा किसी भी वास्तविक या काल्पनिक व्यक्ति/स्थान के नाम का प्रयोग नहीं किया गया है. कोशिश आगे भी जारी रहने का प्रयास रहेगा.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पितृ पक्ष”।)
अभी अभी # 173 ⇒ पितृ पक्ष… श्री प्रदीप शर्मा
आज हम सत्ता पक्ष अथवा विपक्ष की नहीं, केवल पितृ पक्ष की चर्चा करेंगे। पक्ष पखवाड़ा को भी कहते हैं। वैसे अगर पक्ष की बात की जाए, तो पक्ष दो होते हैं, शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष और अगर निष्पक्ष होकर सोचा जाए तो पितृ पक्ष की तरह मातृ पक्ष भी होता है।
पितर् शब्द में सब कुछ समाहित है ठीक तरह, जिस तरह परम पिता में, संपूर्ण ईश्वर तत्व समाया हुआ है। उसी ईश्वरीय शक्ति को आप चाहें तो शक्ति भी कह सकते हैं और मातृ शक्ति भी।।
बोलचाल की भाषा में मातृ पक्ष को हम ननिहाल कहते हैं, जहां कभी नाना नानी, और मामा मामी का निवास होता था। वैसे एक जमाने में, मामा के राज में, हमारे भी बड़े ठाठ थे, क्योंकि हमारी मामी उस समय किचन क्वीन जो थी। लेकिन ननिहाल हो अथवा किसी का पीहर, केवल यादें भर रह जाती हैं। बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए।
यानी हमारा असली घर पिता का ही घर होता है, क्योंकि पिता से ही वंश चलता है। समाज शास्त्र में इसे पितृसत्तात्मक परिवार कहते हैं। पोते को आजकल पिता से अधिक दादाजी का प्यार मिलने लगा है और दादी मां के नुस्खे आज भी घर घर में आजमाए जाते हैं। ।
इस लोक के अलावा कोई तो और लोक भी होगा। वैसे सात लोकों में भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और ब्रह्मलोक भी शामिल हैं, जिन्हें संक्षेप में हम लोक और परलोक ही कहते हैं।
बस यह आवागमन निर्बाध रूप से चलता रहे, किसी की गाड़ी खराब ना हो, किसी का पेट्रोल खत्म ना हो, किसी का टायर पंचर ना हो, रास्ते में भूख प्यास की परेशानी ना हो,
इसकी चिंता किसको नहीं होती। सरकारी बसों तक में लिखा रहता था, ईश्वर आपकी यात्रा सफल करे।
धूम्रपान वर्जित है।।
बड़ा संजीदा और इमोशनल मामला है, आप किसी को नाराज भी नहीं कर सकते। इसलिए इस पितृ पक्ष में कोई विवाद नहीं, कोई बहस नहीं, कोई मायका ससुराल नहीं, भेदभाव से परे, सभी कर्म निष्काम भाव से, श्रद्धापूर्वक संपन्न किए जाएं, खीर पूड़ी खाई, खिलाई जाए, उनकी स्मृति में दान पुण्य भी किए जाएं।
याद कीजिए, इस शरीर में आपका क्या है ! माता पिता ने आपको जन्म दिया, गुरुओं ने ज्ञान, अपने बड़ों ने संस्कार दिए। जन्म के वक्त तो आप इतने नादान और अबोध थे कि अपना पेट भी खुद नहीं भर सकते थे। जो लिया है, उसका कर्ज तो चुकाना ही है। मिट्टी से लेकर मिट्टी का घर, और घर बाहर उपलब्ध सभी सुविधा और सुविधा प्रदान करने वाले जाने पहचाने और अनजान लोग, वे लौकिक और पारलौकिक शक्तियां जिनको पाकर आज आप फूले नहीं समा रहे, सबका आभार और ऋण चुकाने का पक्ष है यह पितृ पक्ष।
जिस देश की मिट्टी इतनी पावन हो, वहां के पितरों के पुण्य प्रताप की तो बात ही निराली है। वे, उनकी कृपा, आशीर्वाद, प्रेरणा और शक्तियां सदा आपके साथ मौजूद हैं। उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 54 ☆ देश-परदेश – Hygiene ☆ श्री राकेश कुमार ☆
इस शब्द का दो वर्ष पूर्व ही कोविड काल में ज्ञान प्राप्त हुआ था। हमारे देश की जनता तो कचरे और गंदगी के बीच से भी अपना रास्ता निकाल लेती हैं।
स्वच्छ स्थान पर, हाथ और पैर धो कर भोजन करना हमारी दैनिक जीवन का एक अहम भाग है। ये तो जल्द भोजन (फास्ट फूड) के चक्कर में हम सड़कों पर खुले में अधिक से अधिक खाद्य सामग्री अपनी जिव्हा को भेंट करने लग गए हैं।
आज उपरोक्त विज्ञापन पर दृष्टि पड़ी तो कुछ अजीब सा प्रतीत हुआ। चौपहिया वाहन “कार” की भी बिन जल सफाई हो सकती है, और कार भी हाइजेनिक हो सकती है। कितनी भी महंगी कार हो, उसको गंदगी और कीचड़ से भरी सड़कों से ही अपना मार्ग बनाना पड़ता है।
कार की सफाई के भी प्लान आ गए हैं। हो सकता है कार के अगले भाग और पिछवाड़े या साइड की सफाई के अलग अलग प्लान भी हो सकते हैं।
हमारे मोहल्ले में तो लोग मोटे पाइप से लगातार पानी की धार से कार की धुलाई करते हुए कई लीटर पानी बहा देते हैं। पानी का कोई शुल्क जो नहीं लगता। “जल ही जीवन है” के सिद्धांत की धज्जियां उड़ा देते हैं, ऐसे लोग।
आज एक मित्र से भी इस विज्ञापन के संदर्भ में चर्चा हुई, तो वो तुरंत बोला की चुंकि ये विज्ञापन जयपुर शहर का है, वहां जल की कमी होती है, इसलिए जल की बर्बादी रोकने के लिए बिना जल के कार की सफाई को प्राथमिकता दी जा रही है। यह सब के लिए ये एक अच्छा संदेश हो सकता हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पाठक, लेखक, श्रोता और मूक दर्शक“।)
अभी अभी # 172 ⇒ पाठक, लेखक, श्रोता और मूक दर्शक… श्री प्रदीप शर्मा
एक पाठक और लेखक के लिए पढ़ना लिखना जरूरी है, श्रोता पर यह शर्त लागू नहीं होती। शाब्दिक अर्थ में जो लिखता है, वह लेखक कहलाता है, और जो पढ़ता है, वह पाठक कहलाता है। हमारे देश में जितने पाठक हैं, उतने लेखक नहीं। सभी लिखने वाले लेखक नहीं कहलाते, जिन्हें पढ़ा जाता है, वे ही लेखक कहलाते हैं।
जो सिर्फ सुनता है, वह श्रोता कहलाता है। रेडियो सुनने की चीज है, देखने की नहीं ! वही श्रोता जब किसी सभा अथवा गोष्ठी में जाता है, अथवा फिल्म अथवा टीवी देखता है, तो दर्शक बन जाता है। लेकिन जब से यह मोबाइल आया है, हर उपभोक्ता लेखक, पाठक, श्रोता, दर्शक और न जाने क्या क्या बन बैठा है?
एक श्रोता और दर्शक का पढ़ा लिखा होना जरूरी नहीं है जिसे आम भाषा में आम श्रोता और आम दर्शक ही कहते हैं। इसी तरह एक आम पाठक भी होता है और सुधी पाठक भी। वैसे सुधी तो कोई श्रोता भी हो सकता है। एक आम पाठक पर आप कोई लेखक थोप नहीं सकते। लेकिन एक बेचारे श्रोता और दर्शक पर तो कुछ भी थोपा जा सकता है। मन में वह कुछ भी कहे, लेकिन उससे अपेक्षा तालियों की ही होती है।
हर पढ़ा लिखा इंसान लेखक नहीं बन सकता, लेकिन एक लेखक भी कहां बिना पढ़े लिखे लेखक बना है। वैसे कहा तो यह भी जाता है, इंसान बनने के लिए भी पढ़ना लिखना जरूरी है। ।
हम सब पढ़े लिखे इंसान हैं, कोई पाठक, कोई लेखक, कोई श्रोता तो कोई दर्शक ! डार्विन की विकास यात्रा को हमने पहले बंदर से मानव बनते देखा, और आज इक्कीसवीं सदी में गूगल ऐप ape से उसे और एक बेहतर इंसान बनते देख रहे हैं।
एक अंगुली भर दबाने की दूरी पर पूरी दुनिया, पूरा शब्दकोश, पूरा नेशनल ज्योग्राफी, दुनिया के किसी भी कोने से कनेक्टिविटी, वीडियो कॉलिंग, दृश्य श्रव्य के सभी खजाने आपकी यू ट्यूब में संग्रहित, यानी ज्ञान का भंडार और मनोरंजन का खजाना आपके कदमों में नहीं, आपकी मुट्ठी में। ।
अब हमें एक बेहतर इंसान बनने से कोई नहीं रोक सकता। क्या यह मानव सभ्यता अभी और अधिक सभ्य होगी। प्रेम, नैतिकता, ईमानदारी, नेकी और ईमान में हम कितने आगे हैं, यह भी अगर कोई ऐप के जरिए पता चल जाए, तो हम समझेंगे हमारा जीवन धन्य हुआ, हम गंगा नहाए।
डर है, समय हमें यह सोचने पर मजबूर ना कर दे कि कहीं हमारे कदम विकास की जगह विनाश की ओर तो नहीं जा रहे। उधर अंधाधुंध आधुनिकीकरण और पर्यावरण की उपेक्षा से प्रकृति भी कुपित है और इधर कहीं हमने बच्चों को हाथ में जादू के खिलौने की जगह कोई हथियार तो नहीं थमा दिया। क्या हम कहीं अधिक पढ़, लिख तो नहीं गए …!!
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 211☆ श्राद्ध पक्ष के निमित्त
पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक श्राद्धपक्ष चलता है। इसका भावपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और कर्तव्य का निर्वहन है। व्यवहार पक्ष देखें तो पितरों को खीर, पूड़ी व मिष्ठान का भोग इसे तृप्तिपर्व का रूप देता है। जगत के रंगमंच के पार्श्व में जा चुकी आत्माओं की तृप्ति के लिए स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म को भोज देना लोकातीत एकात्मता है। ऐसी सदाशय व उत्तुंग अलौकिकता सनातन दर्शन में ही संभव है। यूँ भी सनातन परंपरा में प्रेत से प्रिय का अतिरेक अभिप्रेरित है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की ऐसी परंपरा वाला श्राद्धपक्ष संभवत: विश्व का एकमात्र अनुष्ठान है।
इस अनुष्ठान के निमित्त प्राय: हम संबंधित तिथि को संबंधित दिवंगत का श्राद्ध कर इति कर लेते हैं। अधिकांशत: सभी अपने घर में पूर्वजों के फोटो लगाते हैं। नियमित रूप से दीया-बाती भी करते हैं।
दैहिक रूप से अपने माता-पिता या पूर्वजों का अंश होने के नाते उनके प्रति श्रद्धावनत होना सहज है। यह भी स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपने दिवंगत परिजन के प्रति आदर व्यक्त करते हुए उनके गुणों का स्मरण करे। प्रश्न है कि क्या हम दिवंगत के गुणों में से किसी एक या दो को आत्मसात कर पाते हैं?
बहुधा सुनने को मिलता है कि मेरी माँ परिश्रमी थी पर मैं बहुत आलसी हूँ।…क्या शेष जीवन यही कहकर बीतेगा या दिवंगत के परिश्रम को अपनाकर उन्हें चैतन्य रखने में अपनी भूमिका निभाई जाएगी?… मेरे पिता समय का पालन करते थे, वह पंक्चुअल थे।…इधर सवारी किसी को दिये समय से आधे घंटे बाद घर से निकलती है। विदेह स्वरूप में पिता की स्मृति को जीवंत रखने के लिए क्या किया? कहा गया है,
यद्यष्टाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो: जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
अर्थात श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसी का अनुसरण करते हैं। भावार्थ है कि अपने पूर्वजों के गुणों को अपनाना, उनके श्रेष्ठ आचरण का अनुसरण करना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
विधि विधान और लोकाचार से पूर्वजों का श्राद्ध करते हुए अपने पूर्वजों के गुणों को आत्मसात करने का संकल्प भी अवश्य लें। पूर्वजों की आत्मा को इससे सच्चा आनंद प्राप्त होगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
अगले 15 दिन अर्थात श्राद्ध पक्ष में साधना नहीं होगी। नियमितता की दृष्टि से साधक आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना करते रहें तो श्रेष्ठ है।
नवरात्र से अगली साधना आरंभ होगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।)
🌷 ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हिन्दी आंदोलन परिवार को 29वें स्थापना दिवस पर हार्दिक शुभकमनाएं🌷
🌷💥 आज हिंदी आंदोलन परिवार मना रहा है अपना 29वाँ स्थापना दिवस 💥🌷
(किंचित परिवर्तनों के साथ पूर्व में लिखा एक संस्मरण साझा कर रहा हूँ।)
आज 30 सितंबर 2023….आज ही के दिन 30 सितंबर 1995 को हिंदी आंदोलन परिवार की पहली गोष्ठी हुई थी। मुझे याद है कि मैं और सुधा जी नियत समय से लगभग डेढ़ घंटे पहले महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के सभागार में पहुँचे थे। सरस्वती जी का चित्र, हार-फूल, दीप प्रज्ज्वलन का सारा सामान साथ था। जलपान के लिए इडली-चटनी, नमकीन, गुलाब जामुन, पेपर प्लेट, नेपकिन आदि भी साथ थे।
सभागार के प्रवेशद्वार के सामने की जगह हमें गोष्ठी के लिए उपयुक्त लगी किंतु वहाँ धूल बहुत अधिक थी। सुधा जी ने झाड़ू थामी और जुट गईं स्वच्छता अभियान में। सभागार में दरी नहीं थी। बाजीराव रोड पर “घर-संसार’ नामक दुकान थी। वे मंडप का सामान, शादी-ब्याह में लगनेवाली वस्तुएँ किराये पर देते थे। मैं वहाँ पहुँचा। दोपहर के भोजन के लिए दुकान बंद थी। बड़ी व्यग्रता से बीता दुकान खुलने तक का समय। बड़े आकार की एक मोटी दरी संभवतः बीस या तीस रुपए में किराये पर ली। निर्देश यह कि दुकान फलां बजे बंद हो जायेगी, कल सुबह दरी लौटाई तो किराया दोगुना हो जाएगा। दरी में वज़न भी अच्छा-खासा था पर गोष्ठी के आयोजन का जुनून ऐसा कि दरी को कंधे पर लादकर तेजी से सभागार पहुँच गया।
हमारे विवाह को सवा तीन वर्ष बीत चुके थे। सुधा जी इस जुनून से परिचित होने लगी थीं। मेरे सभागार पहुँचने तक वे निर्धारित स्थान को स्वच्छ कर दीप प्रज्ज्वलन की तैयारी कर रही थीं। हमने दरी के दो छोर थामे और मिलकर दरी बिछाई। चार बजने को था। रचनाकार मित्रों को गोष्ठी के लिए चार बजे का समय दिया था। हमने हाथ से पत्र लिखकर लोगों को आमंत्रित किया था। प्रेस नोट बनाया था जिसे एकाध समाचार पत्र ने संक्षिप्त सूचना के अंतर्गत प्रकाशित किया था। राष्ट्रभाषा सभा के लक्ष्मी रोड स्थित पुस्तक बिक्री केंद्र और समिति के कार्यालय में बड़े कागज पर हाथ से पोस्टर बनाकर चिपकाया था। उन दिनों मोबाइल तो थे नहीं, टेलीफोन भी हर घर में नहीं होता था। अतः कितने लोग आएँगे. आएँगे भी या नहीं, इसकी कोई जानकारी नहीं थी।
जानकारी भले ही नहीं थी पर “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्’ पर विश्वास था। विश्वास फलीभूत भी हुआ। समय पर मित्र आने लगे। आज के मुकाबले तब लोग समय के अधिक पाबंद थे। लगभग पचहत्तर वर्षीय श्रीकृष्ण केसरी नामक एक सज्जन अपनी धर्मपत्नी के साथ उरली कांचन जैसे दूर के इलाके से आए थे। सर्वश्री/ सुश्री मधु हातेकर, डॉ. निशा ढवले, डॉ. कांति लोधी, राजेंद्र श्रीवास्तव, महेंद्र पंवार, कृष्णकुमार गुप्ता जैसे कुछ उपस्थितों के नाम याद हैं। संभवतः थोड़े समय के लिए समिति के तत्कालीन संचालक डॉ. सच्चिदानंद परलीकर जी भी सम्मिलित हुए थे। कुल जमा पंद्रह लोग थे।
इस काव्य गोष्ठी के लिए उस समय तक विशुद्ध नाटककार रहे मेरे जैसे निपट गद्य लिखनेवाले ने “पांचाली’ नामक अपने जीवन की दूसरी ( उससे पूर्व ग्यारहवीं में ‘गरीबी’ शीर्षक से एक कविता लिख चुका था।) कविता प्रस्तुत की थी। सुधा जी की “गुमशुदा की तलाश’ कविता याद है। हम दोनों की स्मृति में रह गई डॉ. निशा ढवले की कविता ‘दरवाज़े।’
संचालन को बहुत सराहना मिली। विनम्रता और ईमानदारी की बात है कि संचालन की कोई विशेष पूर्व तैयारी न आज करता हूँ, न तब की थी। आयोजन सफल रहा।
आज पीछे मुड़कर देखता हूँ कि गत 28 वर्षों में आंदोलन परिवार की 288 गोष्ठियाँ हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त लगभग 100 अन्य आयोजन जैसे सेमिनार, समाजसेवी उपक्रम और महाविद्यालयीन विद्यार्थियों के लिए प्रकल्प आदि हो चुके हैं। समय के साथ व्यक्ति परिपक्व होता है, चिंतन और कृति में थोड़ी स्थिरता आती है। अन्य मामलों में तो ये लागू हुई पर जाने क्या है कि आंदोलन के प्रति जो जुनून तब था, उससे अधिक आज है। “कबिरा खड़ा बाजार में लिये लुकाठी हाथ, जो घर फूँके आपणा चले हमारे साथ।’ इतनी बार घर फूँका कि आग भी थक गई पर हर बार ब्रह्मा ही चिंतित हुए और इस निर्धन दंपति के लिए फिर घर खड़ा कर दिया। अब तो आंदोलन के समर्पित साथियों की इतनी भुजाएँ हो चुकी हैं कि हम सबके सामूहिक जुनून और सामुदायिक कृति से इस परिवार की चर्चा अखिल भारतीय स्तर पर होने लगी है। हिंदी के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिए पुणे याने ‘हिंदी आंदोलन परिवार वालों का शहर…’ यह सम्मान क्या कम है?
अखिल भारतीय से एक बात और याद आई। आयु और पुणे का प्रभाव ऐसा कि पहली गोष्ठी के निमंत्रण पर संस्था का नाम ‘अखिल भारतीय हिंदी आंदोलन’ लिखा था। समय ने सिखाया कि हिंदी में राष्ट्रीय परिवेश अंतर्निहित है। अतः हिंदी आंदोलन पर्याप्त है । विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि अब देश के अनेक भागों से “आप हिंदी आंदोलन वाले संजय भारद्वाज बोल रहे हैं..” पूछनेवाले फोन आते हैं तो लगता है कि संस्था का काम ही उसका कार्यक्षेत्र तय करता है।
मित्रो! आज 30 सितंबर 2023 को हम 29 वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। अब तक की यात्रा में साथी बने आप सभी मित्रों के प्रति हम नतमस्तक हूँ। हमसे अब और अधिक सकारात्मक क्रियाशीलता की आशा की जाएगी।
आइए बनाए और टिकाए रखें हमारे जुनून को। निरंतर स्मरण रखें हमारे घोषवाक्य ‘हम हैं इसलिए मैं हूँ’ अर्थात ‘उबूंटू’ को।
उबूंटू!
संजय भारद्वाज
अध्यक्ष-हिंदी आंदोलन परिवार
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
अगले 15 दिन अर्थात श्राद्ध पक्ष में साधना नहीं होगी। नियमितता की दृष्टि से साधक आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना करते रहें तो श्रेष्ठ है।
नवरात्र से अगली साधना आरंभ होगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आस्था के आयाम“।)
अभी अभी # 170 ⇒ आस्था के आयाम… श्री प्रदीप शर्मा
आस्था, आत्मा का आलंबन है! अपने अलावा किसी और के अस्तित्व का इस्तेकबाल है आस्था। आस्था एक ऐसा कपालभाति व्यायाम है, जिसमें अपने आराध्य को सुबह-शाम श्रद्धा की अगरबत्ती लगाई जाती है, धूप दी जाती है, अनुलोम-विलोम की तरह उसका मन ही मन गुणगान किया जाता है, और जब यह आस्था भक्ति में परिवर्तित हो जाती है, तो भस्रिका की तरह साँसों में गतिशील हो जाती है।
आस्था आत्मा का सुबह का नाश्ता है। प्रातः उठते ही जब हम किसी अज्ञात शक्ति को नमन करते हैं, तो यह एक तरह से यह हमारी अस्मिता और अहंकार का समर्पण है। कोई तो है, जो हमारे हम से कम नहीं।।
यह आस्था की सुबह है! एक बार मुँह धोने के बहाने देखा, और आस्था को आसक्ति ने ढँक लिया! यह अनजाने ही होता है। अपना चेहरा किसी को बुरा नहीं लगता। बढ़ती उम्र के साथ चेहरे पर छाई झुर्रियों को, सौंदर्य प्रसाधनों से छुपाया जाता है, सफ़ेद होते बालों पर हिज़ाब लगाया जाता है। यह खुद पर खुद का विश्वास है। एक तरह का आत्म-विश्वास है, जिजीविषा है, जिसका एक ठोस आधार है, हम किसी से कम नहीं।
आस्था के कई सोपान हैं! बचपन में जो माता-पिता, गुरुजन और अपने इष्ट के प्रति है वही आस्था उत्तरोत्तर विकसित व पल्लवित हो, आदर्श एवं संस्कार का रूप धारण कर लेती है। यही आस्था उसे आत्म-कल्याण हेतु किसी मार्गदर्शक, रहबर अथवा सद्गुरु के चरणों तक ले जाती है।।
जब जीवन में कभी आस्था पर चोट पहुँचती है, मनुष्य का नैतिक धरातल डगमगा जाता है। जब किसी की आस्था के साथ खिलवाड़ होता है, उसकी आत्मा पर ज़बर्दस्त आघात पहुंचता है। मनुष्य के नैतिक पतन का मुख्य कारण उसकी आस्था का कमज़ोर होना है।
ऐसी परिस्थिति में आस्था का स्थान अनास्था ले लेती है। जो आस्था दुःख के पहाड़ को गिरधर गोपाल की भाँति एक अंगुली पर धारण करने में सक्षम होती है, अनास्था के बादल के छाते ही रणछोड़ की तरह मैदान से भाग खड़ी होती है। आप सब कुछ करें, लेकिन जीवन में कभी किसी की आस्था के साथ खिलवाड़ ना करें। आस्था ही आकाश है, आस्था ही जीवन! आस्था अमूल्य है, अमिट है।
२८ सितम्बर १९२९ का अत्यंत मंगलमय दिवस! इस दिन घटी ‘न भूतो न भविष्यति’ ऐसी घटना! गंधर्वगान के परे रहे ‘लता मंगेशकर’ नामक सात अक्षर रुपी चिरंतन स्वरविश्व के मूर्तरूप ने जन्म लिया| अक्षय परमानंद की बरसात बरसाने वाली स्वर शारदा लता आज संगीत के अक्षय अवकाश में ध्रुव तारे के समान अटल पद पर विराजमान हुई है| उसके स्वर अवकाश में इस कदर बिखरे हुए हैं कि, वह इस नश्वर जगत में नहीं है, इसका आभास तक नहीं होता| ‘शापदग्ध गंधर्व’ दीनानाथ मंगेशकरजी की विरासत लेकर लता ने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण कँटीली राह पर चलते हुए संगीत को समर्पित करते हुए गुजारा| एकाध मूर्ति का निर्माण जब होता है, तब उसे छिन्नी के कई घाव सहने पड़ते हैं| ठीक उसी तरह उसके जीवन की अंतिम बेला तक लता ने अनगिनत घाव सहन किये| उसके साथ काम करने वाले गायक, संगीतकार, गीतकार, फिल्म जगत के अनेक लोग और बाबासाहेब पुरंदरे तथा गो नी दांडेकर जैसे दिग्गज व्यक्तियों के प्रेरणादायी मार्गदर्शकों के कारण उसके व्यक्तित्व को और मुलायम स्वरों को दैवी स्वर्ण कांति प्राप्त हुई| लता जीवन भर एक अनोखी और अनूठी सप्तपदी चली, सप्तस्वरों के संग!
मंगेशकर भाई-बहनें यानि वर्तमान भाषा में मैं कहूँगी, ‘मंगेशकर ब्रँड’! इसका अन्य कोई सानी नहीं या अन्य कोई बराबरी करने वाला भी नहीं| दीनानाथ और माई (शेवंती) मंगेशकरजी के ये पंचप्राण थे| हर एक का गुण विशेष निराला! लता की सफलता का राज था अपने पिता से, अर्थात मराठी संगीत नाटकों के प्रसिद्ध गायक अभिनेता ‘मास्टर दीनानाथ मंगेशकर’ से विरासत के हक़ से और शिक्षा से आई संगीतविद्या, उसकी ‘स्वयं-स्वर-प्रज्ञा’ और जी तोड़ कर की हुई स्वर साधना! अबोध उम्र की लता के इस संगीत ज्ञान को उसके पिता ने बहुत जल्द भाँप लिया था| उस समय से ही उन्होंने उसकी गायकी को तराशना आरम्भ किया था | छह साल की उम्र से ही वह रंगमंच पर गाने लगी थी| १९४२ में पिता की असामयिक मृत्यु हुई तब वह महज १३ वर्ष की थी| उतनी नन्ही सी उम्र से ही लता अपने भाई-बहनों का मजबूत सहारा बन गई! उसके समक्ष संघर्षों की एक शृंखला थी, लेकिन उन्हीं के मध्य से लता ने इस कांटेदार रास्ते को पार किया।
प्रथम प्रसिद्धी मिली ‘महल'(१९४९) फिल्म के ‘आएगा आने वाला’ इस गाने को! तब लता थी बीस वर्ष की और इस फिल्म की नायिका मधुबाला थी सोलह वर्ष की| इस फिल्म से इन दोनों का फ़िल्मी सफर साथ साथ फला फूला| एक बनी स्वर की महारानी और दूसरी बनी सौंदर्य की मलिका! मजे की बात यह थी कि, इस गाने के रेकॉर्डप्लेअर पर गायिका का नाम लिखा था ‘कामिनी’ (तब सिल्वर स्क्रीन पर गाना प्रस्तुत करने वाले किरदार का नाम रेकॉर्डप्लेयर पर लिखा जाता था|) इसके पश्चात् लता ने ही अथक संघर्ष करते हुए रेकॉर्डप्लेअर पर सिर्फ नाम ही नहीं तो, रॉयल्टी और गायक गायिका को विभिन्न फिल्मफेअर पुरस्कार आदि प्राप्त करवाते हुए उनको उनका श्रेय दिलवाया| लता और फिल्म जगत की अमृतगाथा समानान्तर चली, यह कहने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए| १९४० से लेकर तो अभी अभी तक यानि, २०२२ तक लगभग ८० वर्षों की साथ में निभाई हुई थी संगीत यात्रा! उसके साथी गायक, गायिका, नायक, नायिका, संगीतकार, गीतकार, तकनीशियन, वादक, दिग्दर्शक, निर्माता ऐसे हजारों लोग उसके साथ यह यात्रा पूरी करते हुए आधे रास्ते ही निकल गए। अब तो वह भी उनके साथ चली गई है| यह ‘अमृत-लता’ वक्त के चलते आसमान की ऊंचाई को छू गई है|
आश्चर्य की बात यह है कि, इतनी बार उसका गाना सुना होने के बावजूद भी ऐसा क्यों होता है, ‘हे ईश्वर, यह सुन्दर गाना आजतक मैंने कैसे सुना नहीं! अरे भई, यह कैसे मिस हो गया!’ मित्रों, यह अवस्था हर उस संगीतप्रेमी रसिकजन की होती होगी, क्योंकि यह स्वर कोषागार बहुत ही विशाल है| और एक मजे की अलग ही बात कहूं इसके जादूभरे स्वरों की? जिस तरह ऋतु बदलते हैं, उसी तरह हमारे बदलते मूड के अनुसार हमारे लिए लता की आवाज की ‘जवारी’ (क्वालिटी) बदल रही है, ऐसा हमें आभास होने लगता है| सच में पूछा जाय तो, एक बार सुनकर यह स्वरोल्लास हमारे ह्रदय में समाहित नहीं होता ऐसा संभव है| देखिये ना, अगर आज मेरा ‘मूड ऑफ’ है तो, ‘उस’ गाने में मुझे लता की आवाज कुछ अधिक ही शोकाकुल लगने का ‘फील’ आता है| क्या कहूं इस बहुरंगी, बहुआयामी, तितली के विविध इंद्रधनुषी रंगों की तरह सजे आवाज की महिमा को! इन स्वरों के बारे में बोलना हो तो मराठी संत तुकारामजी की रचना का स्मरण हुआ, ‘कमोदिनी काय जाणे तो परिमळ भ्रमर सकळ भोगीतसे’! यानि ‘कुमुदिनी क्या जाने उस परिमल के सौंदर्य को, जो भ्रमर सम्पूर्ण रूप से भोग रहा है’| लता क्या जाने कि, उसने हमारा जीवन कितना और कैसे समृद्ध किया है! उसके आवाज से समृद्ध हुई ३६ भाषाओं में से कोई भी भाषा लें, इस एक ही आवाज में वह भाषा ही धन्य होगी ऐसे ऐसे गाने, एकदम ओरिजिनल लहेजा और स्वराघात! लता तुम, ऊपर से क्या लेकर आयी और यहाँ धरती पर तुमने क्या शिक्षा प्राप्त की, इसका अचेतन हिसाब करने का मतलब यह हुआ कि, आसमान के तारे गिनने से भी कठिन होगा! इसके बजाय सच्चे संगीतप्रेमी एक ऍटिट्यूड (वर्तमान संदर्भ वाला नहीं) रखें, ‘आम खाओ, पेड मत गिनो’| सिर्फ और सिर्फ उसके गाने पर फिदा हो जाना, बस मैटर वहीं समाप्त!
डॉ. मीना श्रीवास्तव
उसने दया बुद्धि दर्शाकर संगीत के कुछ प्रांत उसके बिलकुल पहुँच में होते हुए भी छोड़ दिए, शास्त्रीय संगीत तथा नाट्यसंगीत | (यू ट्यूब पर कुछ गिने चुने उपलब्ध हैं!) संगीतकार दत्ता डावजेकर ने कहा था कि, लता के नाम में ही लय और ताल है| जिसके गाने से आनंदसागर में आनंद तरंग निर्माण होते हैं, जिसने ‘आनंदघन’ इस नाम से गिने चुने मराठी फिल्मों (महज चार) को संगीत देकर तमाम संगीतकारों पर उपकार ही किया, जिसने शास्त्रीय संगीत की उच्च शिक्षा ले कर उसमें महारत हासिल की, परन्तु व्यावसायिक तौर पर शास्त्रीय संगीत के जलसे नहीं किये (प्रस्थापित शास्त्रीय गायकों ने भी इसके लिए उसका शुक्रिया अदा किया है), उसके बारे में संगीतकार वनराज भाटिया कहते हैं, ’she is composer’s dream!’ किसी भी संगीतकार के गीत हों, खेमचंद प्रकाश, नौशाद, अनिल बिस्वास, ग़ुलाम मोहम्मद, सज्जाद हुसैन, मदनमोहन, जमाल सेन के जैसे दिग्गजों की कठिनतम तर्जें, सलिलदा या सचिनदा की लोकसंगीत पर आधारित धुनें, वसंत देसाई, सी. रामचंद्र या शंकर जयकिशन के अभिजात संगीत से सजी, या आर डी, ए आर रहमान, लक्ष्मी प्यारे, कल्याणजी आनंदजी के आधुनिक गीत हों, जिस किसी गाने को लता का शुद्ध पारसमणि सम स्वर गंधार प्राप्त हुआ, उसकी आभा नवनवीन स्वर्ण-उन्मेष लेकर रसिक जनों के कलेजे की गहराई में उतर जाती| अत्यंत कठिनतम तर्जें बनाकर लता से अनगिनत रिहर्सल करवाने वाले संगीतकार सज्जाद हुसैन का तो कहना था ‘सिर्फ लता ही मेरे गाने गा सकती है!’
यह स्वरवल्लरी मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पिटल से भी सुपर डुपर है! बीमारी कोई भी हो, उसके पास गाने के रूप में अक्सीर इलाज वाली दवा मौजूद है ही! इस दवा को न खाना तो सख्त मना है| छोटी बच्ची का, ‘बच्चे मन के सच्चे’, सोलह साल की नवयुवती का, ‘जा जा जा मेरे बचपन’, विवाहिता का, ‘तुम्ही मेरी मंजिल’, समर्पिता का, ‘छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा’, तो एक रूपगर्विता का, ‘प्यार किया तो डरना क्या’ एक माता का, ‘चंदा है तू’, एक क्लब डांसर का (है यह भी), ‘आ जाने ना’, एक भक्तिरस से परिपूर्ण भाविका का,‘अल्ला तेरो नाम’, एक जाज्वल्य राष्ट्राभिमानी स्त्री का, ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ऐसे कितने सारे लता के मधु मधुरा स्वर माधुर्य से सजे बहुरंगी स्त्री रूप याद करें?
लता के गाये गानों में मेरे पसंदीदा गाने याद करने की कोशिश की तो, मानों हाथों से बहुमूल्य मोतियों के फिसलने का आभास होने लगा| उनमें से चुनिंदा गाने पेश करने की तीव्र इच्छा हो रही है| मुझे लता का १९५० से १९५५ का बिलकुल कमसिन स्वर बहुत ही प्रिय है| इसलिए गाने भी वैसे ही हैं…. | ‘उठाए जा उनके सितम’- (फिल्म -‘अंदाज’, १९४९, मजरूह सुल्तानपुरी- नौशाद), ‘सीने में सुलगते हैं अरमाँ’ – (फिल्म -‘तराना’, १९५१, प्रेमधवन-अनिल बिस्वास), ‘साँवरी सूरत मन भायी रे पिया तोरी’- (फिल्म -‘अदा’, १९५१, प्रेमधवन-मदनमोहन), ‘ये शाम की तनहाइयाँ’- (फिल्म -‘आह’, १९५३, शैलेन्द्र-शंकर जयकिशन), ‘जाने वाले से मुलाकात ना होने पायी’-(फिल्म -‘अमर’- १९५४, शकील बदायुनी-नौशाद)| अर्थात पसंद अपनी अपनी! हर एक की पसंद का कोई परिमाण नहीं, यहीं सच है!
कानों में प्राणशक्ति एकत्रित कर सुनना चाहें, ऐसे ये ‘आनंदघन’ बरसते हैं और इनमें मन भीग जाता है| कितना ही भीगें, फिर फिर से उन मखमल से नर्म मुलायम बारिश की बुन्दनियों के स्पर्श की अनुभूति करने को जी चाहता है| यहाँ मन संतुष्ट होने का सवाल ही नहीं है| अगर अमृतलता हो तो, जितना भी अमृतपान करें, उतना ही असंतोष वृद्धिंगत होते ही जाता है| मित्रों! यह असंतोष शाश्वत है, क्योंकि लता का ॐकारस्वरूप स्वर ही चिरंतन है, उसका अनादी अनंत रूप अनुभव करने के उपरान्त स्वाभाविक तौर पर लगता है, ‘जहाँ दिव्यत्व की प्रचीति हो, वहाँ मेरे हाथ नमन करने को जुड़ जाते हैं!’ मुझे मशहूर साहित्यिक आचार्य अत्रे का लता से सम्बन्धित यह वाक्य बड़ा ही सुन्दर लगता है, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि, सरस्वती की वीणा की झंकार, उर्वशी के नूपुरों की रुनझुन और कृष्ण की मुरली का स्वर, ये सब समाहित कर विधाता ने लता का कंठ निर्माण किया होगा |’
आचार्य अत्रे ने ही लता को २८ सितम्बर १९६४ में (अर्थात उसके जन्मदिन पर) ‘दैनिक मराठा’ इस उन्हीं के समाचारपत्र में अविस्मरणीय बने उनके मराठी में लिखे ‘सम्मान पत्र’ को अर्पण किया था! वैसे तो सम्पूर्ण लेख ही पढ़ने लायक है, परन्तु उसकी झलक के रूप में देखिये लता के अद्भुत, अनमोल तथा अनुपम स्वराविष्कार का वर्णन करते हुए अत्रेजी ने कितने नाजुक और मखमली लब्जों की सजावट की है, ‘स्वर्गीय स्वरमाधुरी का मूर्तिमंत अवतार रही लता का केवल लोहे की निब से उतरी स्याही के शब्दों से, समाचारपत्र के कठोर और खुरदरे कागज़ पर अभिनंदन करना यानि, स्वरसम्राज्ञी के स्वागत के लिए उसके चरणों के नीचे खुरदरे और कठोर बोरियों की चटाई बिछाने के जैसा अशोभनीय है| लता के गले की अलौकिक कोमलता को शोभा दे, ऐसा अभिवादन करना हो तो, उसके लिए प्रभात बेला के कमसिन स्वर्ण किरणों को ओस की बून्दनियों में भिगाकर बनाई हुई स्याही से, कमलतंतू की लेखनी से और वायुलहरों के हल्के हाथों से, तितलियों के पंखों पर लिखा हुआ सम्मानपत्र गुलाब की कली के सम्पुट में उसे अर्पण करना होगा|’
डॉ. मीना श्रीवास्तव
इतने मानसम्मान, शोहरत, ऐश्वर्य और फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध के होते हुए भी लता का रियाज निरंतर चलता रहा और उसके कदम भी इसी जमीं पर ही रहे| जागतिक कीर्ति प्राप्त प्रतिष्ठित अल्बर्ट हॉल में उसे आंतरराष्ट्रीय गायिका के रूप में प्रस्थापित करने वाले कार्यक्रम की तारीफ़ करें, या सर्वश्रेष्ठ दादासाहेब फाळके और भारतरत्न पुरस्कार मिलने के उपरान्त भी लता की विनम्रता कैसे कम नहीं हुई इसका आश्चर्य करें?
‘स्वरलता’ इस विषय पर स्तंभ लेखों पर लेख, ऑडिओ, विडिओ, पुस्तकें, सब कुछ भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं। परंतु हम जिस प्रकार सागर को उसके ही जल से अर्ध्य देते हैं ना, वैसा ही मेरा यह लेखन है! इस स्वर देवता ने भर भर के स्वर सुमन दिए हैं! ‘कितना लूँ दो हथेलियों में, ऐसी अवस्था हुई है मेरी, वे तो कब की भर गईं फूलों से, लिखते लिखते ऑंखें भी भर गईं आंसुओं से और लब्ज़ भी गायब हो गए, हृदय भर गया ‘हृदया’ (लता का यह नाम मुझे अतिप्रिय है) के अनगिनत स्वर मौक्तिकों से! अब ‘हे दाता भगवन यहीं दान देता जा’ कि, सिर्फ लता का निर्मोही, निरंकारी और निरामय स्वर हो, उसके सप्तसुरों के सितारों के सोपान पर चढ़ते हुए जाएं और उस असीम अवकाश में ध्रुव तारे के समान चमकने वाली हमारी लाड़ली स्वरलता को अनुभव करें इसी काया से, इसी हृदय से और इसी जनम में!
प्रिय पाठक गण, ‘जहाँ मैं जाती हूँ वहीं चले आते हैं’, ऐसे लता के स्वराविष्कार को फ़िलहाल यहीं विराम देते हुए इस अमर स्वर शारदा के चरणों में नतमस्तक होती हूँ।
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोशी एवं आबरू। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 202 ☆
☆ ख़ामोशी एवं आबरू☆
‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, सर्वव्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम् शब्द सर्वव्यापक है, जो अजर, अमर व अविनाशी है। इसलिए दु:ख, कष्ट व पीड़ा में व्यक्ति के मुख से ‘ओंम्, मैं तथा मां ‘ शब्द ही नि:सृत होते हैं। परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का, अपने लहू से सिंचन व भरण-पोषण करती है, जो किसी करिश्मे से कम नहीं है। जन्म के पश्चात् शिशु के मुख से पहला शब्द ओंम, मैं व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता-बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधु ले आती है, ताकि वह भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपने दायित्व का वहन कर सके।
घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… अपने आत्मज के बच्चों को देख पुनः उस अलौकिक सुख को पाना चाहती है और यह बलवती लालसा उसे हर हाल अपने आत्मजों के परिवार के साथ रहने को विवश करती है। वहां रहते हुए वह ख़ामोश रहकर हर आपदा सहन करती रहती है, ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो और कटुता के कारण दिलों में दूरियां न बढ़ जाएं। वह परिवार रूपी माला के सभी मनकों को स्नेह रूपी डोरी में पिरोकर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य व सौहार्द बना रहे। परंतु कई बार यह ख़ामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है। वैसे ख़ामोशी की सार्थकता, सामर्थ्य व प्रभाव- क्षमता से सब परिचित हैं। ख़ामोशी सबकी प्रिय है और वह आबरू को ढक लेती है, जो समय की ज़बरदस्त मांग है। ‘रिश्ते ख़ामोशी का आभूषण धारण कर न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं।’ लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और उसके देहांत के बाद पुत्र के आशियां में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे मौन रहने का पाठ पढ़ाया जाता है; असंख्य आदेश-उपदेश दिए जाते हैं; प्रतिबंध लगाए जाते हैं और हिदायतें भी दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व असामान्य व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और उसके समानाधिकारों की मांग करने पर, उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ‘वह कुल-दीपक है, जो उन्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।’ परंंतु तुम्हें तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीखो। ख़ामोशी तुम्हारा श्रृंगार है और तुम्हें ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए ख़ामोश रहना है… नज़रें झुका कर हर हुक्म बजा लाना है तथा उनके आदेशों को वेद-वाक्य समझ हर आदेश की अनुपालना करनी है।
इतनी हिदायतों के बोझ तले दबी वह नवयौवना, पति के घर की चौखट लांघ उस घर को अपना घर समझ सजाने-संवारने में लग जाती है और सबकी खुशियों के लिए अपने अरमानों का गला घोंट, अपने मन को मार, ख्वाहिशों को दफ़न कर पल-पल जीती, पल-पल मरती है; कभी उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधियों को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह ख़ामोश अर्थात् मौन रहती है; प्रतिकार अथवा विरोध नहीं दर्ज कराती तथा प्रत्येक उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है। उस स्थिति में उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती रही, वह उसका कभी था ही नहीं। उसे तो किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है। अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए ख़ामोशी का बुर्क़ा अर्थात् आवरण ओढ़े घुटती रहती हैं; मुखौटा धारण कर खुश रहने का स्वांग रचती हैं। विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं और पति के घर में वे सदा परायी अथवा अजनबी समझी जाती हैं…अपने अस्तित्व को तलाशती, हृदय पर पत्थर रख अमानवीय व्यवहार सहन करती, कभी प्रतिरोध नहीं करती। अन्तत: इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं।
परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। बचपन से लड़कों की तरह मौज-मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात घर लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन जाता है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगती हैं। सो! प्रतिबंधों व सीमाओं में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं और न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे स्वतंत्रता-पूर्वक अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा की सीमाओं व दायरे में बंध कर जीवन जीना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत नहीं स्वीकारतीं; न ही घर-परिवार के क़ायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात-बात पर पति व परिवारजनों से व्यर्थ में उलझना, उन्हें भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भीषण परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं।
संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गया है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंध- सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो संतान को जन्म देकर युवा-पीढ़ी अपने दायित्वों का निर्वहन करना ही नहीं चाहती, क्योंकि आजकल वे सब ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में आस्था व विश्वास रखने लगे हैं और वे भी यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर में सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता अंधी गली में जाकर खुलता है अर्थात् विनाश की ओर जाता है। सो! वे भी ऐसी आधुनिक जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की भयावह कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह व प्रतिक्रिया है– उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।
‘शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह व गंभीर हैं।’ इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षा व भावों को उजागर भी नहीं कर पाता। इन असामान्य परिस्थितियों में मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं, जो खाई के रूप में मानव के समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है– संबंध-विच्छेद कर स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब ख़ामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगे, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उनसे मुक्ति पा लेना। जीवन में केवल समस्याएं नहीं हैं, धैर्यपूर्वक सोचिए और संभावनाओं को तलाशने का प्रयास कीजिए। हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की,
अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उसे उतना डरायेंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक दें, क्योंकि आपाधापी भरे युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने- अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझिए, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।
इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक़ सिखाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना संभव नहीं है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्म- सीमित अर्थात् आत्मकेंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता। पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस विषम व असामान्य परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है, ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।
ख़ामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। इसलिए समस्या के उपस्थित होने पर क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन-मनन कीजिए…सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए; समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है…जीने की सर्वश्रेष्ठ कला। परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर ही मानव को उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए ख़ामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। ख़ामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि वह हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए, क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना तो मरने के समान है, परंतु देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहनशक्ति बढ़ाएं। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और ख़ामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “महेंद्र कपूर / मो.रफी”।)
अभी अभी # 169 ⇒ महेंद्र कपूर/मो.रफी… श्री प्रदीप शर्मा
26 सितम्बर का दिन सदाबहार अभिनेता देवानंद का था क्योंकि संयोग से 26 सितम्बर को ही उनका सौंवा जन्मदिवस भी था। 27 सितम्बर को प्रसिद्ध पार्श्वगायक श्री महेंद्र कपूर की पुण्य तिथि है। संगीत और अध्यात्म में एक रिश्ता गुरु शिष्य संबंध का भी होता है। फिल्मों में घोषित तौर पर कोई गुरु शिष्य नहीं होता। यहां अक्सर गुरु गुड़ रह जाता है, और चेला शक्कर। अघोषित रूप से रफी साहब और महेंद्र कपूर के बीच गुरु शिष्य का संबंध था। आज इसी बहाने, लीक से हटकर हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे।
अक्सर कलाकारों के संघर्ष के दिनों की चर्चा होती है।
किसने कितने पापड़ बेले।
आम तौर पर जैसा होता है, महेंद्र कपूर को भी कम उम्र से ही संगीत में गहन रुचि थी और उन्होंने संगीत की विधिवत शिक्षा भी उस्तादों से ग्रहण की थी। उनके ही अनुसार वे एक अच्छे खाते पीते परिवार से थे।।
उनके संगीत कैरियर का एक रोचक किस्सा उनकी ही जबानी। वे शायद तब इतने बड़े भी नहीं हुए थे कि गायकी के क्षेत्र में अपने पांव जमा सकें। एक बार उन्होंने अपने ड्राइवर से बातचीत के दौरान पूछ लिया, क्या वह किसी ऐसे गायक को जानता है, जो गायन और संगीत की बारीकियों को जानता, समझता हो। ड्राइवर ने जवाब दिया, मैने रफी साहब का घर देखा है। और कुछ ही देर बाद दोनों की भेंट भी हो गई।
लेकिन जब बात विधिवत शिक्षा की आई तो रफी साहब ने साफ साफ कह दिया, अभी तुम छोटे हो, हां अगर अपने माता पिता को ले आओगे तो तुम्हें हम अपना शिष्य बना लेंगे। इस प्रकार माता पिता की सहमति के पश्चात् ही दोनों के गुरु शिष्य संबंध की नींव पड़ी।
लेकिन यह शिक्षा केवल कुछ महीनों की ही थी, क्योंकि महेंद्र कपूर को एक गायन स्पर्धा में भाग लेना था, जिसके निर्णायक मंडल में सर्वश्री नौशाद, ओ पी नय्यर, और कल्याण जी आनंद जी जैसे दिग्गज संगीत निर्देशक शामिल थे, और उन्होंने यह भी तय किया था कि जो भी विजेता गायक होगा, उसे वे अपनी फिल्म में गाने का मौका देंगे। महेंद्र कपूर के सितारे बुलंद निकले, वे अपने गुरु के आशीर्वाद से प्रतियोगिता में विजयी भी हुए और उन्हें नवरंग, सोहनी महिवाल, बहारें फिर भी आएंगी और उपकार जैसी फिल्मों में अपनी गायकी का डंका बजाने का अवसर भी मिला।।
महेंद्र कपूर साहब की आवाज रफी साहब से इतनी मिलती थी, कि फिल्म सोहनी महिवाल के गीत में तो श्रोताओं को भ्रम हो गया कि कहीं यह रफी साहब की आवाज तो नहीं। यह हमारे संगीतकारों का ही कमाल होता है जो हीरे को तराशना जानते हैं। कपूर साहब ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
गुरु शिष्य संबंध एक नितांत व्यक्तिगत मामला है लेकिन यकीन नहीं होता कि एक पेशेवर कलाकार कैसे अपने शिष्य के साथ सिर्फ इसलिए नहीं गाता कि न केवल उनका संबंध गुरु शिष्य का है, अपितु उनकी आवाज भी आपस में मिलती है।।
और कमाल देखिए, वाकई रफी साहब और महेंद्र कपूर ने साथ में कोई युगल गीत नहीं गाया केवल एक दो अपवाद को छोड़कर।
सभी जानते हैं बी आर चोपड़ा और मनोज कुमार के पसंदीदा गायक महेंद्र कपूर ही थे। ओ पी नय्यर जब रफी साहब से खफा हुए, तो रफी साहब के चेले महेंद्र कपूर ही काम आए।
होता है, जब रफी लता की अनबन होती है तो सुमन कल्याणपुर की बन आती है।
रफी साहब के विकल्प महेंद्र कपूर ही तो थे। वे रफी साहब की आवाज ही नहीं, आत्मा भी थे। जब भी रफी साहब का व्यस्त शेड्यूल होता, संगीतकार महेंद्र कपूर साहब की ओर रुख करते, और रफी साहब ही की तरह विनम्र और खुशमिजाज और वही गायकी का अंदाज, उनके गीतों में भी नजर आता।।
कितने खुशनसीब थे महेंद्र कपूर कि उनको रवि जैसा संगीतकार मिला जिसने साहिर लुधियानवी के गीतों को इतनी मधुर धुनों में पिरोया कि साहिर की रुह उनकी आवाज में बस गई। जब भी महेंद्र कपूर साहब के कालजयी नगमों का जिक्र होगा, साहिर का नाम उस फेहरिस्त में सबसे ऊपर होगा। आज उनकी पुण्यतिथि पर गुरु शिष्य दोनों को नमन करते हुए मधुर स्मरण ;