हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 163 ⇒ दम मारो दम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दम मारो दम”।)

?अभी अभी # 163 ⇒ दम मारो दम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सन् १९७१ में सदाबहार अभिनेता देवानंद ने एक फिल्म बनाई थी, हरे रामा हरे कृष्णा, जो युवा पीढ़ी में व्याप्त नशे की बुरी लत पर आधारित थी। पश्चिम के अंधानुकरण को लेकर उधर भारत कुमार मनोज कुमार भी उपकार फिल्म की सफलता के बाद पूरब और पश्चिम जैसी देशभक्ति से युक्त फिल्म लेकर पहले ही बाजार में उतर चुके थे।

धर्म तो अपने आप में नशा है ही, लेकिन जब धर्म और नशा दोनों साथ साथ हों, तो यह गजब की कॉकटेल साबित होती है। अपनी खोई हुई बहन को ढूंढते ढूंढते नायक देवानंद काठमांडू पहुंच जाता है, जहां एक हिप्पियों के झुंड में उसे अपनी बहन, नशे की हालत में, दम मारो दम, गाती हुई मिल जाती है। कितना लोकप्रिय गीत था यह उषा उथप और आशा भोंसले की आवाज में ;

दम मारो दम

मिट जाए गम।

बोलो सुबहो शाम

हरे कृष्ण हरे राम।।

तब हमारे भी वे कॉलेज के ही दिन थे। सिगरेट, शराब, तो खैर आम थी, लेकिन गांजा, चरस, एलएसडी और मेंड्रेक्स की आदत भी युवा पीढ़ी में लग चुकी थी। उधर आचार्य रजनीश भगवान बनकर युवा पीढ़ी को पुणे में बैठकर समाधि लगवा रहे थे और इधर हमारे हीरो देवानंद अपनी फिल्म के माध्यम से युवा पीढ़ी से अपील कर रहे थे ;

देखो दीवानों, तुम ये काम ना करो

राम का नाम बदनाम ना करो।

आज अगर देवानंद होते तो राम भक्त उनसे जरूर पूछते, भैया, क्या राम का नाम भी कभी बदनाम हुआ है। क्या आपने सुना नहीं ;

सबसे निराली महिमा है भाई,

दो अक्षर के नाम की,

जय बोलो सियावर राम की। जय श्रीराम !

लेकिन फिल्म, फिल्म होती है, और दर्शक दर्शक ! यहां क्या कब बिक जाए, और कब किसका दीवाला निकल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। आज इन फिल्मों को बने आधी सदी गुजर गई, धर्म कितना फल फूल गया, हर तरफ आज राम का ही नाम है, अयोध्या में भी भव्य राम मंदिर का निर्माण कार्य चल ही रहा है, लेकिन क्या वाकई आज हमारा नशा हिरन हो गया है।

और भी नशे हैं गालिब, शराब के अलावा !

राम नाम और देशभक्ति का नशा तो कतई बुरा नहीं, लेकिन बाकी नशों की फेहरिस्त भी कम नहीं।

सरकार नशाबंदी कर सकती है, नशामुक्ति केंद्र स्थापित कर सकती है, सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान और मद्यपान प्रतिबंधित तो है ही। लेकिन शासकीय शराब की दुकानें तो अलग ही कहानी कहती नजर आती है। ऐसे में जन जागरण भी क्या कर लेगा।।

आज देश में इतनी समस्याएं हैं, इतनी चुनौतियां हैं, इस बीच यह नशे की समस्या इतनी बड़ी भी नहीं कि इसके लिए कोई आंदोलन खड़ा कर दिया जाए, खासकर उस परिस्थिति में जहां सबसे बड़ा नशा, सियासत का नशा ही सबसे बड़ी समस्या हो।

समस्या, समस्या होती है, और उसका हल, समय और परिस्थिति के अनुसार ही संभव होता है। आज सियासत का नशा देवासुर संग्राम का रूप ले चुका है, जो लोकतंत्र के लिए बहुत घातक है। नशे में चूर इस संग्राम में दुर्भाग्य से, हम आप भी शामिल हैं।।

नशे के बारे में जितना अच्छा नशे में बोला जाता है, उतना होश में नहीं। याद कीजिए १९६४ की फिल्म लीडर का यह यादगार गीत;

मुझे दुनिया वालों

शराबी ना समझो

मैं पीता नहीं हूं

पिलाई गई है।

नशे में हूं लेकिन

मुझे ये खबर है

कि इस जिंदगी में

सभी पी रहे हैं।।

आप पीयें ना पीयें

बोलें सुबहो शाम

हरे कृष्ण हरे राम ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 162 ⇒ ये रोटीवालियाँ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ये रोटीवालियाँ “।)

?अभी अभी # 162 ⇒ ये रोटीवालियाँ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

काम वाली बाइयों की कथा व्यथा और किस्से कहानियाॅं आजकल महानगरों की घर घर की कहानी हो चुकी है। कई लेखकों ने इनके दुखड़ों को बड़े संजीदा ढंग से अपनी मार्मिक कहानियों में चित्रित किया है। ऐसे में भला व्यंग्य क्यों पीछे रहे। संक्षेप में बड़ी काम वाली है यह काम वाली बाई, इसने सबका काम संभालकर पूरी दुनिया को काम पर लगा रखा है।

अब समय आ गया है, हम जरा आसपास भी नजर दौड़ाएँ ! काम वाली बाई की एक और श्रेणी होती है, जिसे बाई नहीं, सिर्फ रोटी वाली कहते हैं। इनका ओहदा और स्तर आम कामवालियों से बेहतर होता है, क्योंकि ये झाड़ू पोंछा और बर्तन नहीं मांजती, एक विशेषज्ञ की तरह, सिर्फ घर में आती है, और रोटी बनाकर चली जाती है। वैसे बनाती यह पूरा खाना ही है, लेकिन कहलाती रोटी वाली ही है। ।

एक समय था, जब घर का सारा कामकाज घर की महिलाएं ही मिल जुलकर कर लिया करती थी, झाड़ू पोंछा, बर्तन से लगाकर पूरा खाना तक उसमें शामिल था। छोटे मोटे काम तो हमें भी सीखने पड़ते थे।

माता बहनों के साथ गेहूं बीनने में हाथ बंटाना और बाद में चक्की पर आटा पिसाना और बाजार से छोटा मोटा सौदा लाने जैसा काम भी हमारे जिम्मे ही होता था।

समय बदलता चला गया।

परिवार छोटे और घर बड़े होते चले गए। नौकरी धंधों ने परिवार को तितर बितर कर दिया। पुरुष तो पुरुष, महिलाएं भी काम पर जाने लगी। चलो, इसी बहाने कामवालियों को भी काम मिलने लगा। आज हर घर में काम हो न हो, काम वाली जरूर मौजूद है। ।

दीवाना आदमी को बनाती है रोटियां। दीवाना नहीं, मजबूरी कहें ! सुबह बच्चों का स्कूल, मेम और साहब, दोनों का दफ्तर, आखिर घर का खाना कौन और कब बनाए। काम वाली के साथ रोटी वाली रखना भी आज की मजबूरी है। लेकिन रोटी वाली की बात कुछ निराली है।

उसका काम शुद्ध और साफ सफाई का है, इसलिए उसके रेट भी जरा ज्यादा हैं। वह, फुर्ती से सब्ज़ी, और दाल चावल रोटी तो बना देगी, लेकिन बर्तन मांजना उसका काम नहीं। जितने लोग, उतना पारिश्रमिक। खाना बना तो दिया जाएगा, लेकिन परोसा नहीं जाएगा। केवल एक ही घर नहीं है। और भी घरों में जाकर रोटी बनाना है। ।

कौन कितनी रोटी खाता है, उसके हिसाब से ही आटा लगाया जाता है। अगर मुफ्त की रोटियां तोड़ने मेहमान आ गए, तो आपकी बला से ! उनके पैसे अलग से देने पड़ेंगे। हम किसी को मुफ्त में रोटी बनाकर नहीं खिलाती।

कुछ लोग जरा ज्यादा ही नाक भौं सिकोड़ते हैं, उन्हें कामवाली से कोई शिकायत नहीं, लेकिन खाने में उनके बहुत नखरे होते हैं। उनके नखरे रोटी वालियाँ सहन नहीं कर सकती। बच्चे तो बच्चे, बाप रे बाप ! मजबूरी में उनके लिए अलग रोटी बनानी पड़ती है।।

जिनके लिए समय कीमती है, वे अपना कीमती वक्त इन चीजों में जाया नहीं करते। जब, वक्त पर जो मिल गया, खा लिया और काम पर चल दिए। देश जितना आज कामकाजी और परिश्रमी लोगों के बल पर चल रहा है, उतना ही इन कामवालियों और रोटी वालियों के कंधों पर भी।

वाकई भाग्यशाली हैं वे लोग, जिन्हें आज भी घर की रोटी नसीब हो रही है, फिर चाहे बनानेवाली घरवाली हो या रोटी वाली। समझदार आदमी ज्यादा मुंह नहीं खोलता, जो मिल जाए, चुपचाप खा लेता है। मजबूरी का नाम, कभी घरवाली तो कभी रोटी वाली।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #151 – आलेख – “बर्फ की आत्मकथा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख  बर्फ की आत्मकथा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 151 ☆

 ☆ आलेख – “बर्फ की आत्मकथा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

मैं पानी का ठोस रूप हूं. द्रव्य रूप में पानी बन कर रहता हूं. जब वातावरण का ताप शून्य तक पहुंच जाता है तो मैं जम जाता हूं. मेरे इसी रूप को बर्फ कहते हैं. मेरा रासायनिक सूत्र (H2O) है. यही पानी का सूत्र भी है. यानी मेरे अंदर हाइरड्रोजन के दो अणु और आक्सीजन के एक अणु मिले होते हैं.

जब पेड़ पौधे वातावरण से कार्बन गैस से कार्बन लेते हैं तब मेरे पानी से हाइड्रोजन ले कर शर्करा बनाते हैं. इसे ही पौधों की भोजन बनाने की प्रक्रिया कहते हैं. इसे हिंदी में प्रकाश संश्लेषण कहते हैं. इस क्रिया में मेरे अंदर की आक्सीजन वातावरण में मुक्त हो जाती है.

बर्फ अपनी आत्मकथा सुना रहा था. सामने बैठा हुआ बेक्टो ध्यान से सुन रहा था.

बर्फ ने कहना जारी रखा. ध्रुवों पर तापमान शून्य के करीब रहता है. इस कारण वहां का पानी जमा रहता है. इस जमे हुए पानी के पहाड़ को हिमनद कहते हैं. ये बर्फ के रूप में जमा होता है. यह सुन कर बेक्टो की आंखें फैल गई.

तुम सोच रहे हो कि सूर्य के प्रकाश से मेरा पानी पिघलता नहीं होगा ? बिलकुल नहीं. सूर्य का प्रकाश मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाता है. इस कारण जानते हो ?  नहीं ना. तो सुनो. सूर्य का जितना प्रकाश मेरे ऊपर पड़ता है उतना ही मैं वापस वातावरण में लौट देता हूँ. मैं सूर्य के प्रकाश को अपने पास नहीं रखता हूं. इसे वैसा ही वातावरण में लौटा देता हूं जैस यह मेरे पास आता है.

यही वजह है कि बर्फिली जगह लोगों को काला चश्मा लगाना पड़ता है. यहां पर प्रकाश बहुत तीव्र होता है. इस की चमक से आंखे खराब हो सकती है. इसलिए वे आंखों पर चश्मा लगाते हैं.

ओह ! बेक्टो की आंखे चमक गई. उस ने पूछा कि सूर्य का प्रकाश उसे पिघलाता नहीं है.

तब बर्फ ने कहा कि सूर्य का प्रकाश मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाता है. इस का कारण यह है कि मैं बर्फ की कोई ऊष्मा अपने अंदर ग्रहण नहीं करता हूं. मेरी मोटी मोटी पर्त भी पारदर्शी होती है. वे प्रकाश को आरपार पहूंचा देती है. या वातावरण में लौटा देती है. इसलिए मैं पिघलता नहीं है.

यदि मैं पिघल जाऊ तो जानते हो क्या होगा ? बर्फ के पूछने पर बेक्टो ने नहीं में गरदन हिला दी. तब बर्फ बोला कि यदि मेरी सभी बर्फ पिघल जाए तो इस से समुद्र के सतह पर 60 मीटर ऊंची दीवार बन जाएगी. इस पानी की दीवार में धरती की आधी आबादी डूब कर मर जाए.

यह सुन कर बेक्टो चकित रह गया.

बर्फ ने बोलना जारी रखा. मैं पिघलता नहीं हूं इसलिए हिमनद के रूप में जमा रहता हूं. यदि कभी मैं पिघलता हूं तो इस का कारण आसपास के वातावरण के तापमान बढ़ने से पिघलता हूं. वैसे जैसा रहता हूं वैसा जमा रहता हूं. यही मेरी कहानी है.

बेक्टो को बर्फ की कहानी अच्छी लगी. उस ने कहा कि आप तो सूर्य से भी नहीं डरते हैं.

इस पर बर्फ बोला कि सूर्य मेरा कुछ नहीं बिगाड़ता है. कारण यह है कि मैं ताप को ग्रहण नहीं करता हूं. इसलिए वातावरण से प्राप्त सूर्य के ताप को उसी के पास रहने देता हूँ. यदि तुम भी किसी की बुराई ग्रहण न करें तो तुम्हारी अंदर बुराई नहीं आ सकती है. तुम मेरी तरह अच्छाई ग्रहण करते रहो तो तुम भी मेरी तरह सरल और स्वच्छ बन सकते हो. यह कहते ही बर्फ चुप हो गया.

बेक्टो सोया हुआ था. उस की आंखे खुल गई. उस ने एक अच्छा सपना देखा था. इस सपने में वह बर्फ से आत्मकथा सुन रहा था. यह आत्मकथा बड़ी मज़ेदार थी इसलिए वह मुस्करा दिया.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२३/०३/२०१९

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 161 ⇒ स्मृतिशेष काका हाथरसी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)

(18 सितंबर 1906 – 1995)

?अभी अभी # 161 ⇒ स्मृतिशेष काका हाथरसी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस दिन पैदा हुए, उसी दिन इस संसार से विदा भी ले ली ! (18 सितंबर 1906 – 1995) हाथरस में पैदा हुए इसलिए प्रभुलाल गर्ग काका हाथरसी हो गए। इनके हाथ में हास्य रस की रेखाएं अवश्य होंगी, इसीलिए सदा सबको हंसाते रहे।

इनकी आस थी कि इनके निधन पर कोई आंसू ना बहाए। शोक सभा की जगह एक हास्य कवि सम्मेलन रखा जाए। चूंकि जन्म और मरण का एक ही दिन है, इसलिए प्रस्तुत है उनकी एक हास्य कविता।

? हास्य कविता – सुरा समर्थन – काका हाथरसी ?

भारतीय इतिहास का, कीजे अनुसंधान

देव-दनुज-किन्नर सभी, किया सोमरस पान

किया सोमरस पान, पियें कवि, लेखक, शायर

जो इससे बच जाये, उसे कहते हैं ‘कायर’

कहँ ‘काका’, कवि ‘बच्चन’ ने पीकर दो प्याला

दो घंटे में लिख डाली, पूरी ‘मधुशाला’

 

भेदभाव से मुक्त यह, क्या ऊँचा क्या नीच

अहिरावण पीता इसे, पीता था मारीच

पीता था मारीच, स्वर्ण- मृग रूप बनाया

पीकर के रावण सीता जी को हर लाया

कहँ ‘काका’ कविराय, सुरा की करो न निंदा

मधु पीकर के मेघनाद पहुँचा किष्किंधा

 

ठेला हो या जीप हो, अथवा मोटरकार

ठर्रा पीकर छोड़ दो, अस्सी की रफ़्तार

अस्सी की रफ़्तार, नशे में पुण्य कमाओ

जो आगे आ जाये, स्वर्ग उसको पहुँचाओ

पकड़ें यदि सार्जेंट, सिपाही ड्यूटी वाले

लुढ़का दो उनके भी मुँह में, दो चार पियाले

पूरी बोतल गटकिये, होय ब्रह्म का ज्ञान

नाली की बू, इत्र की खुशबू एक समान

खुशबू एक समान, लड़्खड़ाती जब जिह्वा

‘डिब्बा’ कहना चाहें, निकले मुँह से ‘दिब्बा’

कहँ ‘काका’ कविराय, अर्ध-उन्मीलित अँखियाँ

मुँह से बहती लार, भिनभिनाती हैं मखियाँ

 

प्रेम-वासना रोग में, सुरा रहे अनुकूल

सैंडिल-चप्पल-जूतियां, लगतीं जैसे फूल

लगतीं जैसे फूल, धूल झड़ जाये सिर की

बुद्धि शुद्ध हो जाये, खुले अक्कल की खिड़की

प्रजातंत्र में बिता रहे क्यों जीवन फ़ीका

बनो ‘पियक्कड़चंद’, स्वाद लो आज़ादी का

एक बार मद्रास में देखा जोश-ख़रोश

बीस पियक्कड़ मर गये, तीस हुये बेहोश

तीस हुये बेहोश, दवा दी जाने कैसी

वे भी सब मर गये, दवाई हो तो ऐसी

चीफ़ सिविल सर्जन ने केस कर दिया डिसमिस

पोस्ट मार्टम हुआ, पेट में निकली ‘वार्निश’ …..

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 84 – प्रमोशन… भाग –2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की प्रथम कड़ी।

☆ आलेख # 84 – प्रमोशन… भाग –2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

हमारे बैंक के सामने जो बैंक था उसके लिये “प्रतिद्वंद्वी” शब्द का प्रयोग जरूर किया है पर हकीकत यही थी कि कोई दुर्भावना नहीं थी और उनके और हमारे बीच भाईचारा था, एक सी इंडस्ट्री में काम करने के कारण. जब हम लोग आते थे उसी समय वो लोग भी अपने बैंक आते थे. उनके कस्टमर उनके थे और हमारे कस्टमर हमारे. हां कुछ व्यापारी वर्ग ऐसा जरूर था जिसे दोनों बैंकों से मोहब्बत थी. यही मोहब्बत वहाँ नजर आती जब दोनों बैंक का स्टाफ चाय या पान की दुकान पर तरोताज़ा होने के लिये आता था.

वो गलाकाट मार्केटिंग के बदनुमा दौर से पहले वाला मोहब्बत और भाईचारे का दौर था. चालें और हुनर पूरी शिद्दत से आजमाये जाते थे पर सिर्फ शतरंज, कैरम के बोर्ड पर या टेबलटेनिस की टेबल पर. इन मैचों में सपोर्टबाजी भी होती थी और ह्यूमरस कमेंट्स भी पर सट्टेबाजी नहीं थी. चियरलीडर तो होते थे पर इसमें महिलाओं की एंट्री वर्जित थी. फ्रिज, स्कूटर, टीवी तब लोन लेकर ही खरीदे जाते थे पर पार्टियों के लिये खुद ही व्यवस्था करनी पड़ती थी. ये पार्टियां किस तरह की हों ये देने वालों की जेब और लेने वालों की जिद और कूबत पर निर्भर होता था.

हालांकि बैंकों ने उस वक्त मांबाप के समान कठोर नियंत्रक बनने में जरा सी भी कमी नहीं की थी. अपने स्टाफ को कभी इतना नहीं दिया कि वो शाहखर्ची करे और बिगड़ जाये. यद्यपि पीने वाले उस वक्त भी हुआ करते थे जो घर फूंक कर तमाशा देखा करते थे. सौ का नोट तो बड़ी बात थी जो हिम्मत देता था, पांच सौ के नोट का जन्म हुआ नहीं था और पुराने हजारी लाल याने एक हजार का किंगसाईज नोट “अनलिमिटेड ओवरटाइम” के काल में सैलरी और ओवरटाइम के भुगतान के समय खुद के मार्जिन मनी को मिलाकर पाया जा सकता था. ये कल्पना नहीं सच है और एक शाखा में हुआ भी था.

जो नगरसेठ हुआ करते थे वो कभी कभी खुशियों के लड्डुओं से स्टाफ का मुंह मीठा कराते रहते थे और ये शुभअवसर दीपावली, होली, नयासाल पर आता था या फिर उनके परिवार में नये सदस्य के आगमन पर. इस शुभागमन के लिये कभी सेठ जी जिम्मेदार होते तो कभी उनके पुत्र. मिठास की मधुरता, रिश्तों की मधुरता को सुदृढ़ करती थी जिसे शाखा के सारे लोग इंज्वॉय करते थे.

सहजता, सरलता, सादगी, ईमानदारी, मितव्ययिता, मितभाषी पर मिलनसार और शालीन होना बैंककर्मी की पहचान बन गई थी जिसे पाने की ललक, किरायेदार के रूप में मकान मालिक को और दामाद के रूप में अधिकांश कन्याओं के पिताओं को हुआ करती थी. बैंककर्मी की जेब भले ही हल्की हो पर समाज में सम्मान और विश्वसनीयता भारी हुआ करती थी.

प्रमोशन श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ हिन्दी के उन्नयन में महिलाओं की भूमिका ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ हिन्दी के उन्नयन में महिलाओं की भूमिका ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

भाषा, मानव ने ईजाद की, पशुओं ने नहीं। प्रकृति की ध्वनियों को आत्मसात कर उसने शब्द रचे। लिपि का अविष्कार कर विकास के कई सोपान पार किये।

सभ्यता और संस्कृति का संवहन भाषा ने किया और करती रहेगी। हिन्दी की बात करें तो वह शताधिक भाषा बोलियों का समूह है। विश्व में इंग्लिश और मैंडारिन के बाद सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा। जो अद्यावधि राजभाषा और संपर्क भाषा का स्थान पा गई, पर राष्ट्रभाषा का दर्जा उससे दूर है।

बेशक राष्ट्रभाषा का मुद्दा सरकार के अधीन है पर हिन्दी और तमाम बोलियों के सम्मान का मुद्दा तो हमारे वश में है। विशेषतः महिलाओं के।

जाहिर सी बात है 2–3 वर्ष का बच्चा तेजी से सीखना चाहता है। पाँच वर्ष की उम्र तक वह माँ के संस्कार और परिवेश से जो भी सीखता है, आजीवन नहीं भूल पाता।

कान्वेंट कल्चर के भीषण प्रसार के साथ, पिता ही नहीं मांएं भी “अंग्रेजी” को स्टेट्स सिंबल बनाकर पेश करती हैं। कामवाली बाई तक शान से बखानती है, कि उसका बच्चा हिन्दी नहीं इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ता है। नर्सरी से पी. जी. तक हिन्दी उपेक्षित है। कितने ही स्कूलों में हिन्दी बोलने पर सजा दी जाती है।

 हर भाषा बोली की एक संस्कृति होती है। जिसमें खान पान, परिधान, पूजा प्रणाली, साहित्य, संगीत, और अन्यान्य प्रथा परंपराओं का समावेश होता है।

अंग्रेजी पढ़नेवाले में उसी भाषा के संस्कार उपजेंगे ना। फिर खाली पीली टसुए बहाने से क्या फायदा कि हमारा बच्चा भारतीय आचार विचार, धर्म, व्यवहार, और नीतिगत बातें नहीं जानता।

“माँ बच्चे की प्रथम गुरु है। “मित्रमण्डल एवं गुरुजन, नाते रिश्तेदार, सभी बाद हें आते हैं।

माँ- वर्किंग वुमन हो या होम मैनेजर, कितनी ही आधुनिका क्यों न हो, यथा संभव समय निकालकर बच्चे के कोमल मन की गीली मिट्टी को सही आकार देने का प्रयत्न करे।

हिन्दी दिवस पर सोशल मीडिया में हिन्दी का इतना कसीदा पढ़ा गया कि बाढ़ आ गई। पर कुछ जायज शिकायतें भी मिलीं। हैरानी है कि हम ही बच्चों को हिन्दी से दूर करें और हम ही रोये गायें कि बच्चा हिन्दी की वर्णमाला, हिन्दी के अंक, पहाड़े, हिन्दी माह के नाम तक नहीं जानता।

“ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार” बुलाकर हम बच्चों को विश्व विजेता की मुद्रा में पेश करते हैं। ऐसे में बच्चों का क्या कसूर।

आज भी बाजार, मनोरंजन, धर्म, पर्यटन, और संपर्क की भाषा हिन्दी है। कारीगर श्रेणी के लोगों से जैसे कार्पेंटर, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन,   सिलेंडर लानेवाला, सफाईकर्मी सभी से व्यवहार की भाषा सिखाना माँओं का कर्तव्य है। ये  कि वे भी सम्मान के हकदार हैं।

अकादमिक शिक्षा के अलावा यह भी बहुत जरूरी है।

इन दिनों आदरसूचक संबोधन, परस्पर सहयोग, और नैतिकता का पर्याप्त अभाव पाया जा रहा है। इन गुणों का विकास बाल्यावस्था से शुरू होता है। बेशक बड़ों के पाँव न छुएं पर मित्रों की तरह” हाय हैलो” कहने की बजाय  “नमस्कार प्रणाम “तो हिन्दी में करें।

माताओं — आदरसूचक संबोधन तेजी से खो रहे हैं। ध्यान दीजिए।

सोशल मीडिया विशाल स्तर पर बच्चों को प्रभावित कर रहा है। यू ट्यूब पर 60% कंटेंट हिन्दी का है। सामान्य जीवन में हमेशा हिन्दी चलती है, इंग्लिश नहीं। भारत, भारत है ब्रिटेन नहीं।

किसी भी भाषा के प्रति प्रेम और सम्मान का उदय, बचपन से होता है। अगर महिलाएं बच्चे के मन में हिन्दी के प्रति हीनता- बोध और दोयम दर्जे को जन्म देंगी तो वह  आगे चलकर हिन्दी बोलनेवालों के प्रति सम्मान का भाव नहीं रख पायेगा। उन्हें कमतर समझेगा।

हिन्दी हमारी धरोहर है। वह उस स्थान पर प्रतिष्ठित नहीं है जिस स्थान पर होनी चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत में गलत इंग्लिश बोलनेवाले वंदनीय हैं पर शुद्ध हिन्दी, मराठी, बांग्ला, पंजाबी, आदि भाषाएं बोलनेवाले नहीं। औपनिवेशिक दासत्व के अवशेष मुख्यधारा का सच बन गये हैं।

अगर दृष्टान्त ही चाहिए— तो चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस, ईरान, इराक, द कोरिया आदि कितने ही देश अपनी भाषायी अस्मिता का परचम लहरा रहे हैं, –उनसे लेना होगा। ।

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©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 160 ⇒ चिल्ला चोट… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चिल्ला चोट”।)

?अभी अभी # 160 ⇒ चिल्ला चोट? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। कुछ बोलचाल के शब्द शायद हमें शब्दकोश में नहीं मिलें, उपयोग में भी कम ही आते हों, लेकिन व्यवहार में यदा कदा उनसे पाला पड़ ही जाता है।

केवल बादल ही नहीं बरसते, बचपन में पिताजी भी ऐसे ही बरसते थे, मानो बिजली कड़क रही हो, और हम, डर के मारे पसीना पसीना हो, अपनी मां के आंचल में छुप जाते थे। लेकिन जब पिताजी द्वारा लाड़ प्यार की बारिश होती थी, तो हम भी, निर्भय, निश्चिंत हो, भीगकर तरबतर हो जाते थे। ।

दफ्तर में कभी कभी बरसते तो बॉस भी थे, बदले में हम घर जाकर बच्चों को जब डांट पिलाते थे, तो पत्नी की झिड़कियां भी सुननी पड़ती थी, न जाने किसका गुस्सा आकर बेचारे बच्चों पर उतार देते हैं। घर आते ही इन पर भूत सवार हो जाता है।

छोटेपन में, घर में जब हम मस्ती करते और शोर मचाते थे, तो यही सुनने को मिलता था, कैसी चिल्ल पो मचा रखी है, घर को मछली बाजार समझ रखा है।

शायद इसी चिल्ल पो से एक और और ऐसे शब्द की उत्पत्ति हुई है, जो चिल्लाने के साथ साथ चोट भी पहुंचाता है। ।

जी हां, लेकिन वह केवल शब्द की ही चोट होती है। आप चाहें तो उसे डबल मार कह सकते हैं। बड़ा बाजारू लेकिन बड़े काम का शब्द है यह चिल्ला चोट। लेकिन कुत्ते की तरह भौंकने से, चिल्ला चोट मचाना, कभी कभी ज्यादा कारगर सिद्ध होता है।

जो शांतिप्रिय और शरीफ लोग होते हैं, वे इस शब्द से बहुत चमकते हैं। सबके बस का भी नहीं होता, अनावश्यक चिल्ला चोट मचाना ! बिना किसी कारण, सिर्फ लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का ब्रह्मास्त्र है यह शब्द चिल्ला चोट, जिसमें केवल चिल्ला चिल्लाकर ही सामने वाले को चोट पहुंचाई जाती है। ।

इसके लिए नैतिक बल से अधिक दुस्साहस और समृद्ध शब्दावली की आवश्यकता होती है। जितनी कहावतें, मुहावरे और शायरी से आप इस अस्त्र का उपयोग करेंगे, उतने ही आप अपने मकसद में सफल होंगे।

वैसे चिल्ला चोट हमेशा बिना बात के ही की जाती है। सड़ी सी बात पर आप किसी दुकानदार से भिड़ सकते हो। ये दस का नोट दूसरा दीजिए, इसमें से बदबू आ रही है। जी, यह दूसरा ले लीजिए ! यह तो उससे भी घटिया है। आपके तो हाथ से ही बदबू आ रही है। नहाते धोते नहीं हो क्या। इतना काफी होता है, तमाशा करने के लिए। अगर वह समझदार होगा, तो आपके मुंह नहीं लगेगा और अगर गलती से पहलवान निकल गया, तो सीधा आपका मुंह ही तोड़ देगा, सब चिल्ला चोट धरी रह जाएगी। कई बार मन मसोसकर रह जाना पड़ता है, ऐसी चिल्ला चोट पर। ।

अक्सर कुछ लोग, बिना गाली गुप्ता के, कभी साधारण तो कभी आक्रामक चिल्ला चोट की सहायता से दफ्तरों में अपना काम जल्दी करवा लेते हैं, तब उनके चेहरे पर एक विजयी मुस्कान स्पष्ट देखी जा सकती है।

घरों में सौ दिन सास के अब लद गए। बिना बात के छोटी बहू इतनी चिल्ला चोट मचाती है, कि सबकी नाक में दम कर देती है।

समझदारी से गृहस्थी चलती है, बेटा तो बेटा, ससुर जी भी सास को ही समझाते हैं, वह तो घर तोड़ने के लिए उधार बैठी है, तुम ही गम खा लो, नहीं तो तलाक की नौबत आ जाएगी। ।

संसद हो या सड़क, घर हो या दफ्तर, अगर अपनी झांकी जमानी हो, सामने वाले को नीचा दिखाना हो, अपना गलत काम करवाना हो, तो एंटायर चिल्ला चोट में डिग्री अथवा डिप्लोमा प्राप्त करने के लिए लिखें या मिलें ;

निःशुल्क कोचिंग

चिल्ला चोट विशेषज्ञ !!

(नोट: हमारी कोई शाखा नहीं है।)

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 52 – देश-परदेश – फुटबॉल ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 52 ☆ देश-परदेश – फुटबॉल ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज रात्रि एक पारिवारिक  विवाह में सम्मिलित होना है, इसलिए सुबह सुबह बुआ जी को जियो के मुफ्त वाले फोन से जानकारी ली की आदरणीय फूफा जी कितने बजे जायेंगे, हम भी उनके साथ चलेंगे ताकि खातिरदारी बढ़िया हो जायेगी, वरना फूफा जी तो फूल जाते हैं।

बुआ लपक कर बोली तुम्हारे फूफा तो “फीफा” के दीवाने हो गए हैं, वो शादी में ना जायेंगे। हमने भी उनसे विनोद में कहा अब इस उम्र में फुटबॉल का शौक जब सिर के बॉल ही नहीं बचे, ये खेल तो बॉल काल में खेलना चाहिए। जब भी कोई बड़ा आयोजन/ व्यक्ति प्रसिद्ध होता है, दुनिया का हर व्यक्ति उससे स्वयं को जोड़ने का प्रयास करता हैं। अब पाकिस्तान जैसा देश भी ये कहते नहीं थक रहा है, कि फीफा की जिन बॉल से जो  लोग खेल रहे हैं, वो तो उसके देश के सियालकोट शहर में बनी हुई बॉल हैं। पूरी दुनिया उनकी बालों से ही खेल रही हैं।

हमारा बॉलीवुड कहां पीछे रहने वाला है, वो कह रहे हैं, ये तो हमारी फिल्म का गीत ” बाला, ओ बाला” ( बॉल ला, बॉल ला) की थीम हैं। विवाह की तैयारी में हम भी केश कार्तनालय पहुंच कर नाई से बोले, अरे भाई भूरे बाल छोड़ कर सभी सफेद बाल कत्तर दो, विवाह में शामिल होना है। नाई भी कान में यंत्र लगा कर ” फीफा” की कमेंट्री सुन रहा था। भौंचक्का होकर बोला आप फीफा देखने के लिए कतार जा रहे है, क्या?पूरी दुनिया में नशा छाया हुआ फुटबॉल का, गज़ब की दीवानगी हैं। भले ही दैनिक जीवन में चार कदम भी बाइक से जाते है, लेकिन टीवी या रेडियो के माध्यम से अपने आप को फुलबॉल खेल प्रेमी सिद्ध करने में लगे रहते हैं।

विवाह स्थल को भी फुटबॉल स्टेडियम का रूप दिया हुआ था। नवविवाहित मैदान के मध्य में विराजमान थे। मैदान के दोनो अंतिम छोर पर गोल पोस्ट थी, जहां मिठाई की काउंटर थी। सजावट में भी फुटबॉल जैसे फानूस इत्यादि का उपयोग कर माहौल को समयानुसार बनाया हुआ था।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “मानुष हौं तो वही रसखानि” – भाग – 2 ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ “मानुष हौं तो वही रसखानि” – भाग – 2 ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

कृष्णभक्त रसखान के सवैयों का काव्यानुभव (उत्तरार्ध)

प्रिय पाठकगण

सस्नेह वंदन!  

जन्माष्टमी का पर्व हमने उत्साह सहित मनाया! उस पावन पर्व के अवसर पर हम कृष्णभक्त रसखान के ‘मानुष हौं तो वही रसखानि’ इस काव्य के अन्य सवैयों का काव्यानंद अनुभव करेंगे|

धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।

खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी॥

वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।

काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी॥

उपरोक्त सवैये में एक गोपी अपनी सखी से कृष्ण के सुंदर रूप का वर्णन करते हुए कहती है, “अरी सखी, देख तो, धूल में खेलते खेलते कृष्ण का पूरा शरीर धूल से धूमिल हो गया है, कितना सुंदर लग रहा है ना! और हाँ देख उसके घुंघराले बाल कितनी खूबसूरती से बंधे हैं, एक चोटी उसके सर पर कैसी सज रही है (भले ही द्वारका जाकर उसे सोने का मुकुट मिला हो, परन्तु, बचपन की यह चोटी सचमुच निराली ही थी!) आंगन में खेलते हुए खाना और खाते हुए खेलना, यह दृश्य तो हृदयंगम है| खाता क्या है तो माखन रोटी| इस प्रकार दौड़ते भागते और गिरते समय उसके पैरों के पैंजनियों की छन छन करती आवाज तो अति मधुर है| यह नादब्रह्म तो सप्तसुरों के परे है अर्थात आठवाँ सुर है| स्मरण करते रहें आठवें का (कृष्ण का) आठवाँ स्वर अर्थात उसके पैंजनियों की झनकार! (रुमझुम रुमझुम चाल तिहारी, काहे भयी मतवारी, हम तो बस बलिहारी, बलिहारी!!!) उसने पीत वर्ण की लंगोट पहन रखी है (बड़े होने पर पीतांबर, धन्य हो किसनकान्हा!)| इस कृष्ण के मनमोहक और मनभावन रूप ने हर किसी को पागल कर रखा है, यहां तक कि कामदेव और कलानिधि चंद्र भी उनकी सुंदरता के सामने अपने करोड़ों रूप न्योछावर कर रहे हैं। अरी सखी देख, उस मुए कौवे की किस्मत कैसी चमक उठी है, उसने सीधे सीधे कृष्ण के हाथ की माखन रोटी पर ही झपट्टा मारा और देख तो, उसे लेकर उड़ भी गया!”

कानन दै अँगुरी रहिहौं, जबही मुरली धुनि मंद बजै है।

मोहनी ताननि सो रसखानि अटा चढि गोधन गैहै तौ गैहे॥

टेरि कहौ सिगरे ब्रज लोगनि काल्हि कोऊ सु कितौ समुझे है।

माई री वा मुख की मुसकानि, सम्हारि न जैहै, न जैहै, न जैहै॥

उपरोक्त पंक्तियों में रसखान बताते हैं कि गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में किस कदर पागल थीं। एक गोपी अपनी सखी से कह रही है, “ऐ मेरी सखी, सुन ले, जब जब कृष्ण की मंद मंद सुरीली बांसुरी बज रही हो, तब तब कोई मेरे कानों में अपनी उंगलियां डाल दे, अर्थात मैं उनकी बांसुरी बिल्कुल भी सुनना नहीं चाहती! वह मेरे घर की सबसे ऊपरी अटारीपर चढ़ आएगा और जानबूझकर गायों को चराने ले जाते समय चरवाहे गाते हैं न, वैसे ही गीत (गौचरण) गाते रहेगा, जो मेरे मन को मंत्रमुग्ध कर देंगे| लेकिन मैं सभी ब्रजवासियों को चिल्ला चिल्ला कर यहीं बताऊंगी कि, मुझे भले ही कोई भी कितना ही और कैसे भी लाख समझाने का प्रयत्न करो, परन्तु हे सखी, इस श्यामल तनु कृष्ण के चेहरे की वह मंद, मधुर मुस्कान मेरे मन पर कब्ज़ा कर रही है! मैं अपने मन को नियंत्रित नहीं कर पा रही हूँ| वह मेरे हृदयकमल के चारों ओर भ्रमर की भांति घूम घूम कर मुझसे प्रेमालाप करते हुए मधुर गुंजन कर रहा है! अर्थात् मैं कृष्ण के प्रेम में पूरी तरह डूब चुकी हूँ| मैं इतनी अधिक व्याकुल और उन्मत्त हो गई हूँ कि, क्या कहूँ और कैसे कहूँ! मैं सारी लज्जा छोड़कर श्रीकृष्ण की ओर दौड़ रही हूँ|”

मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं गुंज की माला गरे पहिरौंगी।

ओढि पितंबर लै लकुटी वन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी॥

भाव तो वोहि मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।

या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥

इस सवैये में कवि ने कृष्ण के प्रति गोपी के अनोखे प्रेम को प्रकट किया है। देखिए कैसे वह कृष्ण की चीजें पहनने के लिए किस कदर तैयार है। वह गोपी अपनी सखी से कहती है, “हे सखी, मैं ना अपने सिर पर (कृष्ण की तरह) मोर पंख का मुकुट पहनूंगी। मैं अपने गले में गुंजा की माला डालूंगी, यह भी संभव है कि, मैं पीत वस्त्र धारण करूँ और हाथ में एक छड़ी लेकर एक ग्वालिन बनकर गायों को जंगल में चराने के लिए भी ले जाऊँ और उनके पीछे चलते हुए उनकी अच्छी तरह से रखवाली कर लूं| कृष्ण तो मुझे इतना प्रिय है कि, मैं उसके लिए जो भी हो करुँगी, उसे पाने के लिए तुम जो कहोगी वहीं स्वांग रचूंगी| परन्तु एक बात याद रखना ऐ मेरी प्रिय सखी, कृष्ण की जो मुरली है न, जिसे वे अपने अधर में रखते हैं, उसे तो किसी भी हालत में, यानि कभी भी, अपने अधर में नहीं रखूंगी!” (सौत है न!)

मोरपखा मुरली बनमाल, लख्यौ हिय मै हियरा उमह्यो री।

ता दिन तें इन बैरिन कों, कहि कौन न बोलकुबोल सह्यो री॥

अब तौ रसखान सनेह लग्यौ, कौउ एक कह्यो कोउ लाख कह्यो री।

और सो रंग रह्यो न रह्यो, इक रंग रंगीले सो रंग रह्यो री।

गोपिकाएं कहती हैं, ‘सर पर मोर पंख, होठों पर मुरलिया और गले में वनमाला पहने कृष्ण को देखकर मन हवा में कमल का फूल जिस प्रकार से लहराता है, उसी तरह झूल रहा है| मेरी ऐसी प्रेममग्न स्थिति में, यदि कोई बैरन उल्टा सीधा बोल भी दे, तो भी उसे सहन किया जाता है! रसखान कहते हैं, जब लावण्य के मूर्तिमंत रूप कृष्ण से इतने स्नेह्बंधन बंध गए हैं कि, चाहे कोई एक बात कहे, चाहे कोई लाख बार टोके, चाहे कोई और रंग हो या न हो, उस साँवरे कृष्ण सखा के रंग में ही रंगते हुए रहना है! जाते जाते इसी अर्थ के निकट जाता हुआ प्रसिद्ध मराठी गायिका माणिक वर्माजी के गाने का स्मरण हुआ, ‘त्या सावळ्या तनुचे मज लागले पिसे ग, न कळे मनास आता त्या आवरू कसे ग!’ (अर्थात उस श्यामल तनुको देखते ही मैं उन्मना अवस्था में पहुंची हूँ, अब यह समझ नहीं पा रही हूँ कि, इस उन्मुक्त मन पर कैसे काबू रखूं|)

जिसके गले में वैजयंतीमाला शोभायमान होती है ऐसे कुंजबिहारी, गिरधरकृष्ण मुरारी, भगवन श्रीकृष्ण के चरणों में यह शब्द कुसुमांजली अर्पित करती हूँ!

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

दिनांक १५ ऑगस्ट २०२3

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 159 ⇒ अच्छे विचारों का अकाल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अच्छे विचारों का अकाल”।)

?अभी अभी # 159 ⇒ अच्छे विचारों का अकाल? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आजकल मौलिक और अच्छे विचारों का इतना अभाव हो गया है, कि मेरा यह शीर्षक भी मौलिक नहीं है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “अच्छे विचारों का अकाल” इसका जीता जागता उदाहरण है, जिसके लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद श्री अनुपम मिश्र हैं। श्री मिश्र का इतना ही परिचय पर्याप्त है कि वे सुविख्यात कवि श्री भवानीप्रसाद मिश्र के सुपुत्र हैं।

मनुष्य ईश्वर की एक अनुपम कृति है। मनुष्य को इस जगत का सर्वश्रेष्ठ प्राणी यूं ही नहीं माना जाता। हमारी संभावनाओं का आकाश कितना विस्तृत और विशाल है, हम ही नहीं जानते। सीखने से ही तो जानना शुरू होता है। सतत अभ्यास, चिंतन मनन और अध्ययन का ही यह नतीजा है कि मनुष्य ने जितना खोजा है, उससे अधिक ही पाया है और विज्ञान इतने आविष्कार कर पाया है।।

शक्ति किसी की भी हो, होगा कोई अज्ञात अदृश्य नियंता, लेकिन यह मनुष्य ही हर जगह आगे बढ़ा है, कदम से कदम मिले हैं और उसने हर क्षेत्र में आशातीत सफलता पाई है, उसकी ही मेहनत और लगन का यह नतीजा है कि उसने एवरेस्ट पर और चांद पर भी विजय पताका फहराई है।

हम सब एक मिट्टी के ही तो बने हैं, फिर क्यों आज हमारी मौलिकता को जंग लग गया है। अचानक ऐसा क्या हो गया है कि हमने सोचना ही बंद कर दिया है। आजकल हमारे लिए कोई और ही सोचता है, और हम उसकी ही जबान बोलने लग गए हैं।।

याद आते हैं वे दिन, जब कैसे कैसे विचार अगड़ाई लेते थे, कभी दुनिया को बदल देने का ख्वाब आता था तो कभी उस दुनिया के रखवाले से जवाब तलब करने का मन होता था। एक आग थी, शायद वह अब बुझ गई है।

आज इस सोशल मीडिया के युग में हमारे लिए सोचने के लिए थिंक टैंक मौजूद है, फोटो शॉप के साथ साथ आईटी सेल भी हैं, और पूरी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी है, जो हर पल आपको कथित ज्ञान फॉरवर्ड करती रहती है।

आप यंत्रवत, एक ऑपरेटर की तरह, किसी से ऑपरेट होते रहते हो।।

लगता है, हमारे विचारों को, हमारी मौलिकता को दीमक लग गई है। अगर अलमारी में रखी किताबों की देखभाल नहीं की जाए, तो इन्हें भी दीमक खा जाती है, हम कहां आजकल अपने दिमाग की खिड़की खुली रखते हैं।

बाहर के खुले विचारों की हवा का अंदर प्रवेश ही नहीं हो पाता। बस सोशल मीडिया ने जो आपको परोस दिया, उससे ही आपका पेट जो भर जाता है। यही तो है विचारों का जंक फूड, पास्ता, मैगी और बर्गर जो आपको ऑनलाइन स्टोर्स, भर भर कर, घर बैठे उपलब्ध करवा रहा है।

जब चिंतक और विचारक, राजनीतिक प्रचारक बन जाए तो समझिए, अच्छे और मौलिक विचारों का अकाल पड़ गया है। इस विकृति से बचने के लिए हमें वापस प्रकृति की गोद में ही जाना होगा। उन्मुक्त और स्वच्छंद विचार अभिव्यक्ति की प्राणवायु है। हमारे अंदर के प्रेम के झरने को फूटने दें, दिमाग के ओजोन परत की भी कुछ चिंता करें, जंक फूड ना खाएं, ना परोसें। आइए अच्छे विचारों की पैदावार बढ़ाएं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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