(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|||संस्पर्श||| “।)
अभी अभी # 198 ⇒ |||संस्पर्श||| श्री प्रदीप शर्मा
किसी से इतना सामिप्य, कि स्पर्श का अहसास होने लगे, संस्पर्श (Contiguity) कहलाता है। यह आकस्मिक भी हो सकता है और प्रयत्न स्वरूप भी। भीड़ में ऐसा स्पर्श स्वाभाविक है, क्योंकि वहां तो धक्का मुक्की भी होती है और इरादतन चेष्टा भी। कुछ लोगों के लिए यह स्वाभाविक और अपरिहार्य भी हो सकता है तो कुछ के लिए असुविधाजनक और तकलीफदायक। बच्चे, वृद्ध और बीमार अक्सर जहां भीड़ और भगदड़ के शिकार होते हैं, वहीं महिलाओं के लिए तो यह स्थिति और भी बदतर हो सकती है, जिसमें कुचेष्टा के साथ साथ अभद्र व्यवहार की भी आशंका बनी रहती है।
स्पर्श में सुख है, अगर वह आपकी मर्जी और सहमति से हो रहा है। बच्चों का कोमल स्पर्श कितना रोमांचित कर देता है। प्रेम और रिश्तों की गर्माहट है जहां, संस्पर्श की संभावना है वहां। एक विज्ञापन में तो युवा मां और उसकी अति सुंदर और नाजुक बिटिया की कोमल त्वचा की देखभाल पारदर्शी पियर्स pears साबुन ही करता है। ।
मुझे जड़ और चेतन दोनों में इस स्पर्श का अहसास होता है। स्पर्श को छूना भी कहते हैं, कोई भी चीज आपके मन को छू सकती है। फूल से कोमल बच्चे भी होते हैं और रात को हमारे सिरहाने लगा तकिया भी। टेडी बियर में ऐसा क्या है, आखिर है तो वह भी निर्जीव ही।
गुलाबी ठंड और सुबह सवा पांव बजे का वक्त ! सुबह का टहलना और सांची प्वाइंट के बूथ से दूध लाना, यानी एक पंथ दो काज, मेरी दिनचर्या का अंग है। दूध के इंतजार में चौराहे पर अकेले खड़े रहने का भी एक अलग ही आनंद है। इक्के दुक्के इंसान और मोहल्ले के आवारा कुत्ते चौराहे को व्यस्त बनाए रखते हैं। जो इन कुत्तों से डरते हैं, वे सुबह टहलने नहीं जाते अथवा किसी लाठी का सहारा अवश्य ले लेते हैं। ।
मुझमें कुछ ऐसा खास है कि कुत्ते मेरे पास नहीं फटकते और अगर कोई गलती से पास आ गया, तो वह और अधिक पास आने की कोशिश करता है। उसे पास बुलाने में कुछ योगदान मेरी चेष्टाओं का भी होता है।
आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। दूध के इंतजार में मैं चौराहे का निरीक्षण कर रहा था। अचानक एक काले सफेद रंग का कुत्ता मेरे सामने से गुजरा। वह जब तेज चलने की कोशिश करता था, तो उसका एक पांव लंगड़ाने लगता था। एक स्वाभाविक दया अथवा करुणा का संचार मेरे मन में हुआ होगा, मुझे नहीं पता। ।
एकाएक घूमते घूमते वह मेरे पास आकर ठिठक गया। कुत्ते सूंघकर निरीक्षण करते हैं। एक दो चक्कर लगाकर, वह थोड़ा और पास आकर मेरे पास खड़ा हो गया। न जाने क्यों, बेजुबान प्राणियों की आँखें मुझे लगता है, बहुत कुछ कह जाती हैं। उसने मुझसे लगभग सटकर, मुंह ऊंचा कर दिया। अब वह मेरी कमजोरी का फायदा उठा रहा था।
मुझे गाय को सहलाने की आदत है। हमारे छूने का इन प्राणियों को अहसास होता है। इनके कहां हमारी तरह हाथ होते हैं। ये प्राणी अक्सर किसी दीवार अथवा पेड़ से अपना शरीर रगड़ लेते हैं।
गाय हो या कुत्ता बिल्ली, अधिक लाड़ में ये अपना मुंह ऊपर कर देते हैं ताकि आप इनको आसानी से सहला सकें। ।
हमारे अजनबी श्वान महाशय ने भी यही किया। और हमने भी, आदत से मजबूर, उसे सहला भी दिया। बस कुत्ते में इंसान जाग उठा। वह तो हमारे गले ही पड़ गया। इतने में मेरे पास एक दो कुत्ते और आ गए, और मेरे वाले कुत्ते पर भौंकने लगे। शायद मैं उनके इलाके का था, और जिस कुत्ते को मैने मुंह लगाया था, वह किसी और इलाके का होगा।
उनके लगातार भौंकने से मेरा वाला कुत्ता विचलित हो गया, और उसे मजबूरन मुझे छोड़कर जाना पड़ा। मुझे अब केवल इन कुत्तों से छुटकारा पाना था। क्योंकि उनकी मुझमें कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। उनका उद्देश्य शायद केवल उस कुत्ते को खदेड़ना ही रहा होगा। ।
गुलजार अप्रत्यक्ष रूप से शायद इन शब्दों में यही कहना चाहते होंगे ;
हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू।
हाथ से छू के इसे
रिश्तों का इल्जाम ना दो। ।
जब गुलजार की ये पंक्तियां हमें इतना छू जाती हैं, तो रिश्तों की तो बात ही कुछ और है। मजबूर हम, मजबूर तुम। प्रेम के वशीभूत हमने तो जानवर में इंसान जागते देखा है, कभी तो यह इंसान भी जागेगा। ।
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 206 ☆
☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆
‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’ कबीर जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है, निराकार है; उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए, तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार उत्पन्न कर सकते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर दुश्मन भी बना सकते हैं।
सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे, कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं, अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल, फिर बोल’ की सीख दिन गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते, तो आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित, असंयमित व अशोभनीय भाषा का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते, क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल, अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।
‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/ औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाए’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, क्योंकि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है, तो वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है, उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना, काम नहीं आसान/ जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी कभी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं, क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।
अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है, तो वह सम्मान का कारक बनती है, अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं, तो विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए, ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें।
जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या, बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव, छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी, बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है, जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण, फ़िरौती, दुष्कर्म, हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं। लॉकडाउन में पुरुष मानसिकता के अनुरूप घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना, पत्नी का घर के कामों में हाथ बंटाना, परिवाजनों से मान-मनुहार करना उसे रास नहीं आया, जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा, ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुमशुदा की तलाश”।)
अभी अभी # 195 ⇒ गुमशुदा की तलाश… श्री प्रदीप शर्मा
निकले तेरी तलाश में,और खुद ही खो गए! खोने और गुम होने का खेल यह अक्सर बचपन में ही होता है। मेलों और भीड़ में बच्चे खो जाते थे।
मनमोहन देसाई की फिल्मों में बच्चों की अदला बदली और खोने की दास्तान जरा ज्यादा ही फिल्मी और भावुक हो जाती थी। अमीर का बच्चा खलनायक निकल जाता था, और गरीब का बच्चा नायक। अस्पताल में बच्चों की अदला बदली अब इतनी आसान भी नहीं। डीएनए का नाटक जो शुरू हो गया है। फिर भी असली जिंदगी में गुम होने और खोने की घटनाएं आम हैं।
किसी की तलाश और खुद का खो जाना अगर कभी जीवन में एक साथ हो जाए,तो उसे आप क्या कहेंगे। यह तब की बात है,जब सड़कों पर चौपाया जानवर नजर आ आते थे। कोई गाय का बछड़ा जब अपनी मां से बिछड़ जाता था, तो उसकी पुकार दिल दहला देती थी। उधर और किसी जगह बेचारी गाय भी अपने बछड़े के लिए बदहवास सड़कों पर भटकती देखी जा सकती थी। बड़ा मार्मिक दृश्य होता था यह। इधर गाय का सतत रंभाना और उधर बछड़े का म्हां,म्हां पुकारते हुए इधर उधर भटकना।।
आज की तारीख में कोई इंसान अपनी मर्जी से नहीं गुम सकता। वह किसी परेशानी के चलते,बिना बताए घर से गायब अवश्य हो सकता है। मां बाप की मार के डर से,अथवा पढ़ाई के डर से कई बच्चे घर से बिना बताए भाग जाते थे।
बेचारे परिवार के लोग परेशान, कहां कहां ढूंढे,किस किससे पूछें।
सभी रिश्तेदारों और यार दोस्तों से पूछ लिया जाता था। तब कहां फोन अथवा मोबाइल की सुविधा थी।
थक हारकर,अखबारों में तस्वीर सहित गुमशुदा की तलाश का विज्ञापन दिया जाता था। प्रिय गुड्डू,तुम जहां कहीं भी हो, फ़ौरन चले आओ। मां ने तीन दिन से खाना नहीं खाया है,दादीजी की हालत भी नाजुक है,उधर बहन ने रो रोकर बुरा हाल कर लिया है।तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। पैसे की जरूरत हो तो बताना। बस बेटा,जल्दी वापस घर चले आओ। लाने वाले अथवा बताने वाले को कुछ इनाम स्वरूप पारिश्रमिक देने की घोषणा भी की जाती थी।।
सबसे सुखद क्षण वह होता था,जब गाय के बछड़े को अपनी मां मिल जाती थी और माता पिता का खोया अथवा घर छोड़कर भाग बालक वापस घर चला आता था। अंत भला सो सब भला।
कहीं कहीं भाग्य और परिस्थिति बड़ी विचित्र और विपरीत ही दृश्य उपस्थित करती है। ऐसे बच्चों को बहला फुसलाकर गलत कामों में लगा देना,अमीर बच्चों के लिए पैसों की मांग करना,तो कहीं किसी दुर्घटना में बच्चे की जान गंवा देना भी उतना ही आम है।।
आज के बच्चों पर पढ़ाई का विशेष दबाव देखा जा रहा है। एक तरफ ऑनलाइन पढ़ाई और दूसरी ओर मोबाइल का अंधाधुंध शौक। हर बच्चा तो जीनियस नहीं हो सकता,पांचों उंगलियां कहां बराबर होती है,लेकिन पालक के भी अरमान होते हैं। बच्चों की आपस की प्रतिस्पर्धा भी कभी कभी बहुत भारी पड़ सकती है।
दूर गांव के बच्चे पढ़ने लिखने के लिए शहरों में आते हैं। कुछ यहां की चकाचौंध में खो जाते हैं,तो कुछ अपने मां बाप का नाम रोशन करते हैं। एक तरह से खोने और पाने का खेल ही तो है आजकल बच्चों का जीवन।।
बेचारे बड़े तो अपने अतीत और बच्चों के सुखद भविष्य के सपनों में ही खोए रहते हैं,लेकिन कहीं बच्चों का बचपना कहीं गुम ना हो जाए,कहीं खो ना जाए। अनुकूल वातावरण नहीं पाकर आज की पीढ़ी अपने साथ न्याय नहीं कर पाती। आज स्वार्थ,खुदगर्जी और प्रतिस्पर्धा की दौड़ में कहीं बच्चा ,मेले की तरह भीड़ में गुम ना जाए,भटक ना जाए,यह जिम्मेदारी आज समाज से ज्यादा माता पिता की है।
जिसका जो गुम गया,वो उसे मिल जाए,जो गुमराह हैं,उन्हें सही राह नजर आ जाए,जिसको जिसकी तलाश है, उसे वह मिल जाए। यहां उन्हें समय व्यर्थ नहीं खोना है,कई रास्ते हैं,कई मंजिलें हैं। सबको अपनी मंजिल मिले। आमीन ..!!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “॥ माता का दरबार॥ “।)
अभी अभी # 194 ⇒ ॥ माता का दरबार॥ श्री प्रदीप शर्मा
हे सदगुरु स्वरूपिणी त्रिपुर सुंदरी मां अम्बे ! मैं तेरी शक्ति एवम् आशीर्वाद से ही तेरा नाम स्मरण करता हूं। यह नाम स्मरण केवल जगत कल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही किया जा रहा है। जगत, काम, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष एवं अहंकार की अग्नि में जल रहा है। भांति भांति के विकारों से ग्रसित, यह जगत, हे मां, तेरी कृपा का पात्र है। सभी जीवों के मन में राग द्वेष को दूर कर शीतलता प्रदान करो। सभी मित्रों और विरोधियों के प्रति मेरे हृदय में मंगल कामना तथा मित्र भाव पैदा करो, और सबके हृदय में मेरे प्रति मित्र भाव। सभी लोगों में परस्पर प्रेम भाव, सद्भाव तथा कल्याण भाव हो, सबकी सेवा साधना में वृत्ति हो।
हे मां ! तू जग कारिणी, जग तारिणी है, हम विकारों में जलते हुए जीव, तेरे चरण छोड़कर, किसकी शरण ग्रहण करें। हे मां ! हमारी पुकार सुनो, हमारी पुकार सुनो, हमारी पुकार सुनो।
🕉️ माता का दरबार 🕉️
यह किसी सम्राट, शहंशाह, बादशाह अथवा महाराजा का दरबार नहीं, माता का दरबार है। यहाँ दरबारियों, सेवकों और नव-रत्नों की दरकार नहीं, नवरात्रि तक स्वयं नवदुर्गा अपने नौ दिव्य-स्वरूपों से दरबार को सुसज्जित करेगी। माता का जगराता है ! यहाँ जो भी आता है, शीश झुकाता है, मन-माफिक मुरादें पाता है।
दरबार हमेशा किसी ऊँचे स्थान पर होता है। हमारी माता तो पहाड़ां वाली और शेरां वाली है। पहाड़ों पर ही उसका दरबार लगता है, और हमारी माँ अम्बे, जगदम्बे शेर की सवारी करती है।।
वह सबसे पहले माँ है, जगत-जननी है। उसका जन्म ही जगत कल्याण के लिए हुआ है। वह दिन-रात, आँधी-तूफान, जंगली जानवरों और नर-पिशाचों से अपने पुत्रों की रक्षा करने में सक्षम है। वह अगर आनंदमयी, चैतन्यमयी, सत्यमयी परमी है, तो महाकाली, दुर्गे और अम्बे भी है।
एक पुत्र के लिए माँ का स्वरूप वत्सला, ममता, दया और करुणा का होता है। जब तक बच्चा अबोध है, अनजान है, असहाय है, कमज़ोर है, माँ उसे अपने आँचल से चिपकाये रहती है, उसकी भूख-प्यास मिटाती है, उसका लालन-पालन करती है, लेकिन जैसे ही पंछी ने पर फड़फड़ाये, माँ उसे आज़ाद कर देती है।।
लेकिन यही आज़ाद पंछी जब बाज बनकर इंसानियत को कलंकित करता है, तो वह उसके पर नोच लेती है। डाकिनी, पिशाचिनी महाशक्ति बन इन असुरों का संहार भी करती है। लेकिन एक भक्त के लिए वह सिर्फ माँ सरस्वती है, महालक्ष्मी है, उसकी अपनी वसुंधरा है।
जो रामराज्य का सपना देखते हैं, उन्हें राम के समान वनवास के लिए भी तत्पर रहना चाहिए। कितने राक्षसों का संहार हुआ रामराज्य के पहले ! क्या हम अपनी सीता की अग्नि परीक्षा के लिए सहमत होंगे। लक्ष्मण रेखा पार करने के परिणाम तो हमें भुगतने ही होंगे।।
एक आल्हादिनी शक्ति का हमारे अंतस में भी वास है। उस शक्ति को जगाना ही नवरात्रि का व्रत-उपवास-डांडिया रास है। मन पर विजय ही विजयादशमी है।
मन के शत्रुओं का संहार ही नवरात्रि का त्योहार है।
माता का दरबार सजा है। वही जगदम्बे है, वही माँ चामुण्डा है। श्रद्धा, भक्ति और विवेक की सीढ़ियां चढ़ने पर ही उस जगत-माता के दर्शन आपको जन जन में व्याप्त माँ, बहन और बेटी में होना संभव है। जिस धरती पर नवरात्रि में कन्याओं को पूजा जाता है, उन्हें पाँव छूकर प्रणाम किया जाता है, क्या वह सिर्फ नौ दिन का ही एक उत्सव है, दिखावा है। हर पल जब नवरात्रि होगी, तब ही वह माँ का सच्चा जगराता होगा।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 57 ☆ देश-परदेश – गधा ☆ श्री राकेश कुमार ☆
ये शब्द सुनते ही पाठशाला “मॉडल हाई स्कूल” जबलपुर के आदरणीय शिक्षक उपाध्याय जी के साथ पच्चास वर्ष पूर्व हुई एक चर्चा की स्मृति मानस पटल पर आ गई।
मॉडल हाई स्कूल, हमेशा हायर सेकंडरी की राज्य स्तरीय योग्यता सूची में सबसे अधिक स्थान प्राप्त करता था। इस विषय पर मैंने नवमी कक्षा का छात्र होते हुए शिक्षक से कहा, जब कक्षा छः के प्रवेश के समय भी उच्चतम अंक प्राप्त छात्रों को ही प्रवेश दिया जाता है। वो तो “घोड़े” होते है, कम अंक (गधे) प्राप्त छात्रों को मैट्रिक की मेरिट में लेकर आएं तो पाठशाला की क्षमता मानी जा सकती हैं।
शिक्षक भी हाजिर जवाब थे, और तुरंत बोले छः वर्ष तक घोड़े को घोड़ा बना रहने देते है, ये क्या कम हैं ? उनकी बात में वजन था। हमने भी उनसे क्षमा मांग कर उनका सम्मान बनाए रखा।
“मेरा गधा गधों का लीडर ” स्वर्गीय शम्मी कपूर जी का एक पुरानी फिल्म का गीत दूर कहीं बज रहा था। तभी एक मित्र ने उपरोक्त फोटो भेजी जिसमें एक पाकिस्तानी युवा अपनी नई नवेली पत्नी को “गधा” भेंट कर रहा हैं। फोटू का शीर्षक “एक गधा, गधा भेंट करते हुए”।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “समय का पंछी”।)
अभी अभी # 193 ⇒ समय का पंछी… श्री प्रदीप शर्मा
समय का पंछी उड़ता जाए! आपके पंख नहीं, पांव हैं, आप समय के साथ चल तो सकते हैं, उड़ नहीं सकते। हां, समय बचाने के लिए हवाई जहाज में उड़ जरूर सकते हैं। जो इस तरह समय बचाते हैं, उन्हें समय बहुत महंगा पड़ता है, लेकिन उन्हें कम समय में पैसा कमाने का गुर भी आता है।
किसी के लिए पैसा ही समय है और किसी के लिए समय ही पैसा। जिनके पास पैसा ही नहीं, उन्हें समय खर्च करने से कौन रोक सकता है।
पैसे वालों का समय बहुत कीमती होता है। वे समय बेचते हैं। डॉक्टर वकील से आपको समय खरीदना पड़ता है, लेकिन उसमें भी वे भाव खाते हैं, और तगड़ा खाते हैं।।
बचपन में हमारे पास इतना समय था, कि हमें घड़ी देखना ही नहीं आता था। जब मां उठाती, तब सुबह हो जाती थी, और जब मां सुलाती, शाम हो जाती थी। आज जिंदगी की शाम में हमें जगाने, सुलाने वाला कोई नहीं, जब जागे तभी सवेरा और आंख बंद हुई तभी रात।
पंछी की तरह हमने भी समय को घड़ी रूपी पिंजरे में कैद कर लिया, और खुश हो गए। समय आत्मा की तरह अजन्मा, अमर और अभेद्य है। इस शरीर में आत्मा जीवात्मा बन गई और हमने समय देखने के लिए, घड़ी में चाबी भरना शुरू कर दिया। समय हमारे लिए खिलौना हो गया। जितनी भारी चाबी, उतना चला खिलौना।।
समय का भी खेल देखिए!
जो अटल था, वह भी डिजिटल हो गया। आज भी मेरी दीवार घड़ी निप्पो और एवरेडी के सेल पर ही सांस लेती है। क्या समय की भी सांस फूलती है, क्या समय को भी वेंटिलेटर पर रखना पड़ता है। आज भी समय देखने के लिए हम घड़ी पर ही तो मोहताज हैं। समझ में नहीं आता, घड़ी समय से चलती है, या समय घड़ी से चलता है।
आप घड़ी को आगे पीछे तो कर सकते हैं, समय को नहीं कर सकते। हम समय के साथ चल सकते हैं, शायद समय से पहले भी चल लेते हों, लेकिन समय से आगे कभी नहीं निकल सकते। जो भी है, बस यही एक पल। पलक झपकते ही क्या से क्या हो जाता है। समय का पंछी हाथ से उड़ जाता है।।
समय तो समय होता है, किसी के लिए अच्छा होता है, तो किसी के लिए बुरा। हम भले ही समय घड़ी में देखते हों, खराब समय आने पर अक्सर मुंह से निकल ही जाता है, क्या मनहूस घड़ी है, लेकिन तब भी हम अपनी घड़ी को नहीं, समय को ही कोस रहे होते हैं। बेचारी घड़ी का क्या दोष, वह तो सगाई में मिली थी।
समय को तो हम बांट नहीं सकते, चलिए, घड़ी को ही बांट लेते हैं। सगाई की घड़ी को आप मिलन की घड़ी कह सकते हैं, शुभ शुभ बोलेंगे हम तो, जुदाई की घड़ी की बात कतई नहीं करेंगे, क्योंकि ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)
अभी अभी # 192 ⇒ || चौपाल || श्री प्रदीप शर्मा
हम कभी गांव नहीं गए, क्योंकि गांव ही अब तो चलकर शहर आ गए हैं। एक समय था, जब साइकिल उठाई कुछ किलोमीटर चले, तो गांव ही गांव, खेत ही खेत, चौपाल ही चौपाल। आजकल कार से फॉर्म हाउस और रिसॉर्ट जाया जाता है, जन्मदिन की पार्टियों और विवाह समारोहों में।
गांव का लुत्फ लोग चोखी ढाणी और राजस्थानी ढाबे में ही उठा लेते हैं।
प्रेमचंद और रेणु की कहानियों में अवश्य चौपाल का जिक्र आया होगा। गांव के किसी बड़े पेड़ के नीचे किसी बड़े ओटले पर केवल पुरुष अपनी चौपाल जमाते थे।
घर गृहस्थी, खेती बाड़ी, सुख दुख और राजनीति की ही चर्चा होती होगी चौपाल में। कोई साक्षर अखबार का वाचन करता होगा, कुछ पुरुषों के ग्राम्य गीत गाए जाते होंगे, बीड़ी सिगरेट तंबाकू और बारी बारी से हुक्का गुड़गुड़ाया जाता होगा।।
एक आदर्श ग्राम में कभी चाय और पान की दुकान का जिक्र नहीं होता। शराब की दुकान की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। मेरे सपनों का गांव हमारा आदर्श ही रहा है। अच्छे सपने देखने से दिन भी अच्छा ही गुजरता है।
आजकल ई -चौपाल और ई -शिक्षा का जमाना है। हमारे माननीय प्रधान मंत्री और लाडली बहना वाले मामा एक मिली जुली ई – चौपाल का आयोजन राजधानी में करते हैं, जिसमें प्रदेश के पूरे गांववासी, उनके प्रतिनिधि और जिला कलेक्टर जुड़ जाते हैं और समस्याओं का डिजिटल निराकरण भी हो जाता है। मन रे, तू कोई गीत सुहाना गा। मनरे ..गा।।
मैं भी अपने अभी अभी के नित्य कर्म से निवृत्त होकर सुबह सुबह फेसबुक की चौपाल पर चला आता हूं। मेरी आंखों को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ता। हेमा जी पहले से ही चौपाल में मौजूद रहती हैं।
उधर देहरादून से सैनी जी ताक लगाए बैठे रहते हैं। नेपथ्य में रैना जी की मौजूदगी हमेशा महसूस होती रहती है।
चैन और सुकून से चर्चा ही तो चौपाल का उद्देश्य होता है। चर्चा को चैट यूं ही नहीं कहते। हेमा जी का क्या है, कभी मीरा तो कभी महादेवी, कभी प्रवासी तो कभी एलियन।
कभी इस चौपाल में पंडित प्रदीप मिश्रा के साथ सत्संग होता है तो कभी जैनेंद्र कुमार जी से। कलयुग के दीपक यादव को अगर आप सुनें तो लगेगा, भटके हुए ओशो हैं। सुबह सुबह का स्वस्थ और सार्थक संवाद चौपाल जैसा ही सुख देता है। अखबार के पन्ने की तरह खुलती बंद होती रहती है फेसबुक की चौपाल, चाय की चुस्कियों और जरूरी कामकाज के बीच। हमारी चौपाल में आपका स्वागत है।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 214☆ दिव्यता
घटना दस-बारह वर्ष पूर्व की है। भाषा, संस्कृति और सेवा के लिए कार्यरत हमारी संस्था हिंदी आंदोलन परिवार, समाज के अलग-अलग वर्ग के लिए विशेष आयोजन करती रहती है। इसी संदर्भ में हम नेत्रहीन बालिकाओं की एक निवासी पाठशाला में पहुँचे। यहाँ पहली से दसवीं तक की कक्षाएँ लगती हैं। लगभग 150 की क्षमता वाली इस पाठशाला की सभी बालिकाओं के लिए हम उपहारस्वरूप स्कार्फ खरीदकर ले गए थे। पाठशाला के मैदान में पाँचवीं और छठी कक्षा की छात्राओं के लिए स्कार्फ का वितरण हो रहा था। मेरी धर्मपत्नी ने थैले से स्कार्फ निकालकर एक छात्रा के हाथ में दिया। आश्चर्य! उस बिटिया ने स्कार्फ लेकर उसे सूंघा, फिर बोली, “यह रंग मुझे अच्छा नहीं लगता। इसे बदलकर गुलाबी रंग का स्कार्फ दीजिए ना!” हमारे रोंगटे खड़े हो गए। नेत्रों से जलधारा बह निकली। जन्मांध बच्ची को स्कार्फ के रंग का बोध कैसे हुआ? बड़ा प्रश्न है कि इस बच्ची के लिए रंग की परिभाषा क्या होती होगी? रंग को लेकर उसके मन में कैसी भावनाएँ उठती होंगी?
इस संदर्भ में अपनी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ स्मरण हो आईं,
आँखें, जिन्होंने देखे नहीं कभी उजाले,
कैसे बुनती होंगी आकृतियाँ-
भवन, झोपड़ी, सड़क, फुटपाथ,
कार, दुपहिया, चूल्हा, आग,
बादल, बारिश, पेड़, घास,
धरती, आकाश
दैहिक या प्राकृतिक सौंदर्य की,
‘रंग’ शब्द से कौनसे चित्र बनते होंगे
मन के दृष्टिपटल पर,
भूकंप से कैसा विनाश चितरता होगा,
बाढ़ की परिभाषा क्या होगी,
इंजेक्शन लगने से पूर्व
भय से आँखें मूँदने का विकल्प क्या होगा,
आवाज़ को घटना में बदलने का
पैमाना क्या होगा,
चूल्हे की आँच और चिता की आग में
अंतर कैसे खोजा जाता होगा,
दृश्य या अदृश्य का
सिद्धांत कैसे समझा जाता होगा..?
बिना आँख के दृश्य और अदृश्य के इस बोध को अध्यात्म छठी इंद्रिय की प्रबलता कहता है। किसी एक इंद्रिय के निर्बल या निष्क्रिय होने की स्थिति में आंतरिक ऊर्जा का सक्रिय होना ही छठी इंद्रिय की प्रबलता का द्योतक है। भारत के प्रधानमंत्री ने इस प्रबलता के अधिष्ठाता का सटीक नामकरण ‘दिव्यांग’ किया है।
स्कार्फ के रंग को पहचाना, अपनी पसंद के रंग का स्कार्फ मांगना, उस बिटिया के भीतर की दिव्यता थी।
विशेष बात है कि यह दिव्यता हम सब में भी विद्यमान है। ध्यान, प्राणायाम, स्वाध्याय, चिंतन, सत्संग, विद्वानों से चर्चा के माध्यम से इसे जाग्रत किया जा सकता है। बहुत कुछ है जिसे देखा जा सकता है, समझा जा सकता है।
अर्जुन ने परमात्मा के विराट का दर्शन किया था। आत्मा अंश है परमात्मा का। इसका अर्थ है कि विराट का एक संस्करण हम सब में भी विद्यमान है, अंतर्निहित है। इस अंतर्निहित को, योगेश्वर कुछ यूँ समझाते हैं,
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
🕉️ 💥 देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे। अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे। सदा की भाँति आत्म-परिष्कार तथा ध्यानसाधना तो चलेंगी ही। मंगल भव। 💥 🕉️
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं भी सही : तू भी सही। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 204 ☆
☆ मैं भी सही : तू भी सही☆
बहुत सारी उलझनों का जवाब यही है कि ‘मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। ‘ऐ ज़िंदगी! चल नई शुरुआत करते हैं…कल जो उम्मीद दूसरों से थी, आज ख़ुद से करते हैं’ में छिपा है सफल ज़िंदगी जीने का राज़; जीने का अंदाज़ और यही है– संबंधों को प्रगाढ़ व सौहार्दपूर्ण बनाए रखने का सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ उपादान अर्थात् जब आप स्वीकार लेते हैं कि मैं अपनी जगह सही हूं और दूसरा भी अपनी जगह ग़लत नहीं है, वह भी सही है… तो सारे विवाद तुरंत संवाद में बदल जाते हैं। सभी समस्याओं का समाधान स्वयमेव निकल जाता है। परंतु मैं आपका ध्यान इस ओर केंद्रित करना चाहती हूं कि समस्या का मूल तो ‘मैं’ अथवा ‘अहं’ में है। जब ‘मानव की मैं’ ही नहीं रहेगी, तो समस्या का उद्गम-स्थल ही नष्ट हो जाएगा… फिर समाधान की दरक़ार ही कहां रहेगी?
मानव का सबसे बड़ा शत्रु है अहं, जो उसे ग़लत तर्क पर टिके रहने को विवश करता है। इसका कारण होता है ‘आई एम ऑलवेज़ राइट का भ्रम।’ दूसरे शब्दों में ‘बॉस इज़ ऑल्वेज़ राइट’ अर्थात् मैं सदैव ठीक कहता हूं, ठीक सोचता हूं, ठीक करता हूं। मैं श्रेष्ठ हूं, घर का मालिक हूं, समाज में मेरा रूतबा है, सब मुझे दुआ-सलाम करते हैं। सो! ‘प्राण जाएं, पर वचन न जाई’ अर्थात् मेरे वचन पत्थर की लकीर हैं। मेरे वचनों की अनुपालना करना तुम्हारा प्राथमिक कर्तव्य व दायित्व है। सो! वहां यह नियम कैसे लागू हो सकता है कि मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। काश! हम जीवन में इस धारणा को अपना पाते, तो हम दूसरों के जीने की वजह बन जाते और हमारे कारण किसी को कष्ट नहीं पहुंचता। महात्मा बुद्ध का यह संदेश कि ‘दूसरों से वैसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं’ सार्थक सिद्ध हो जाता और सभी समस्याएं समूल नष्ट हो जाती।
आइए! हम इस के दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें… ‘ऐ ज़िंदगी!चल नई शुरुआत करते हैं। कल जो उम्मीद औरों से थी, आज ख़ुद से करते हैं।’ इस में जीवन जीने की कला का दिग्दर्शन होता है। जीवन में चिंता व परेशानी से तनाव की स्थिति तब जन्म लेती है; जब हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं। उम्मीद ही दु:खों की जनक है, संतोष की हन्ता है तथा शांति का विनाश करती है। इस स्थिति में हमारे मन में दूसरों के प्रति शिकायतों का अंबार लगा रहता है और हम हर समय उनकी निंदा करने में मशग़ूल रहते हैं, क्योंकि वे हमारी अपेक्षाओं व मापदण्डों पर खरे नहीं उतरते। जहां तक तनाव का संबंध है, उसके लिए उत्तरदायी अथवा अपराधी हम स्वयं होते हैं और अपनी सोच बदल कर ही हम उस रोग से निज़ात पा सकते हैं। कितनी सामान्य-सी बात है कि आप दूसरों के स्थान पर ख़ुद को उस कार्य में लगा दीजिए अर्थात् अंजाम प्रदान करने तक निरंतर परिश्रम करते रहिए … सफलता एक दिन आपके कदम अवश्य चूमेगी और आप आकाश की बुलंदियों को छू पाएंगे।
अर्थशास्त्र का नियम है, अपनी इच्छाओं को कम से कम रखिए…उन पर नियंत्रण लगाइए, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी अमुक संदेश देते हैं कि यदि आप शांत भाव से तनाव-रहित जीवन जीना चाहते हैं, तो सुरसा के मुख की भांति जीवन में पांव पसारती बलवती इच्छाओं- आकांक्षाओं पर अंकुश लगाना बेहतर है। इस
सिक्के के दो पहलू हैं…प्रथम है इच्छाओं पर अंकुश लगाना और द्वितीय है दूसरों से अपेक्षा न करना। यदि हम इच्छाओं व आकांक्षाओं पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं, तो द्वितीय का शमन स्वत: हो जायेगा, क्योंकि इच्छाएं ही अपेक्षाओं की जनक हैं। दूसरे शब्दों में ‘न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी।’
विपत्ति के समय मानव को अपना सहारा खुद बनना चाहिए और इधर-उधर नहीं झांकना चाहिए…न ही किसी की ओर क़ातर निगाहों से देखना चाहिए अर्थात् किसी से अपेक्षा व उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। ‘अपने हाथ जगन्नाथ’ अर्थात् हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर विश्वास करते हुए अपनी समस्त ऊर्जा समस्या के समाधान व लक्ष्य-पूर्ति के निमित्त लगा देनी चाहिए। हमारा आत्मविश्वास, साहस, दृढ़-संकल्प व कठिन परिश्रम हमें विषम परिस्थितियों मेंं भी किसी के सम्मुख नतमस्तक नहीं होने देता, परंतु इसके लिए सदैव धैर्य की दरक़ार रहती है।
‘सहज पके सो मीठा होय’ अर्थात् समय आने पर ही वृक्ष फूल व फल देते हैं और समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! सफलता प्राप्त करने के लिए लगन व परिश्रम के साथ-साथ धैर्य भी अपेक्षित है। इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि मानव को आधे रास्ते से कभी लौट कर नहीं आना चाहिए, क्योंकि उससे कम समय में वह अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सकता है। अधिकांश विज्ञानवेता इस सिद्धांत को अपने जीवन में धारण कर बड़े-बड़े आविष्कार करने में सफल हुए हैं और महान् वैज्ञानिक एडिसन व अल्बर्ट आइंस्टीन आदि के उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् निरंतर अभ्यास व प्रयास करने से यदि मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है, तो एक बुद्धिजीवी – आत्मविश्वास व निरंतर परिश्रम करने से सफलता क्यों नहीं प्राप्त कर सकता …यह विचारणीय है।
जिस दिन हम अपनी दिव्य शक्तियों से अवगत हो जाएंगे… हम जी-जान से स्वयं को उस कार्य में झोंक देंगे और निरंतर संघर्षरत रहेंगे, उस स्थिति में बड़ी से बड़ी आपदा भी हमारे पथ की बाधा नहीं बन पायेगी। वास्तव में चिंता, परेशानी, आशंका, संभावना आदि हमारे अंतर्मन में सहसा प्रकट होने वाले वे भाव हैं; जो लंबे समय तक हमारे आशियां में डेरा डालकर बैठ जाते हैं और जल्दी से विदा होने का नाम भी नहीं लेते। परंतु हमें उन आपदाओं को स्थायी स्वीकार कर, उनसे भयभीत होकर पराजय नहीं स्वीकारनी चाहिए, बल्कि यह सोचना चाहिए कि ‘जो आया है, अवश्य जायेगा। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। थोड़ा समय जीवन में प्रवेश करने के पश्चात् मुसाफिर की भांति संसार-रूपी सराय में विश्राम करेंगे, चंद दिन रहेंगे और चल देंगे।’ सृष्टि का क्रम भी इसी नियम पर आधारित है, जो निरंतर चलता रहता है। इसका प्रमाण है…रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व विभिन्न ऋतुओं का यथासमय आगमन, परिवर्तन व प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने पर उसके विकराल व भीषण रूप का दिग्दर्शन, हमें उस सृष्टि-नियंता की कुशल व्यवस्था से अवगत कराता है तथा सोचने पर विवश करता है कि सृष्टि-नियंता की महिमा अपरंपार है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता व परिस्थितियां निरंतर परिवर्तनशील रहती हैं। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक होना चाहिए, क्योंकि जीवन में नकारात्मकता हमें तन्हाई के आलम में अकेला छोड़ कर चल देती है और हम लाख चाहने पर भी तनाव व अवसाद के व्यूह से बाहर नहीं निकल सकते।
अंतत: मैं यही कहना चाहूंगी कि आप अपने अहं का त्याग कर दूसरों की सोच व अहमियत को महत्व दें तथा उसे स्वीकार करें… संघर्ष की वजह ही समाप्त हो जाएगी तथा दूसरों से अपेक्षा करने के भाव का त्याग करने से तनाव व अवसाद की स्थिति आपके जीवन में दखल नहीं दे पाएगी। इसलिए मानव को अपने बच्चों को भी इस तथ्य से अवगत करा देना चाहिए कि उन्हें अपना सहारा ख़ुद बनना है। वैसे तो सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला सब कार्यों को संपन्न नहीं कर सकता। उसे सुख-दु:ख के साथी की आवश्यकता होती है। दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि ‘जिस पर आप सबसे अधिक विश्वास करते हैं; एक दिन वह ही आप द्वारा स्थापित इमारत की मज़बूत चूलें हिलाने का काम करता है।’ इसलिए हमें स्वयं पर विश्वास कर जीवन की डगर पर अकेले ही अग्रसर हो जाना चाहिए, क्योंकि भगवान भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। आइए! दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार अपने अहं का विसर्जन करें और दूसरों से अपेक्षा न रख, अपना सहारा खुद बनें। आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे निरंतर संघर्षशील रहें। रास्ते में थक कर न बैठें, न ही लौटने का मन बनाएं, क्योंकि नकारात्मक सोच व विचारधारा लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग में अवरोधक सिद्ध होती है और आप अपने मनोवांछित मुक़ाम पर नहीं पहुंच पाते। परिवर्तन सृष्टि का नियम है…क्यों न हम भी शुरुआत करें–नवीन राह की ओर कदम बढ़ाने की, क्योंकि यही ज़िंदगी का मर्म है, सत्य है, यथार्थ है और सत्य हमेशा शिव व सुंदर होता है। इस राह का अनुसरण करने पर हमें यह बात समझ में आ जाएगी कि ‘मैं भी सही और तू भी सही है’ और यही है– ज़िंदगी जीने का सही सलीका व सही अंदाज़… जिसके उपरांत जीवन से संशय, संदेह, शंका, तनाव, अलगाव, अवसाद आदि का शमन हो जाएगा और चहुं ओर अलौकिक आनंद की वर्षा होने लगेगी।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शब्द और विचार“।)
अभी अभी # 190 ⇒ शब्द और विचार… श्री प्रदीप शर्मा
विचारों के पंख तो होते हैं, लेकिन पाँव नहीं होते। उन्हें जमीन पर उतारने के लिए शब्दों का सहारा लेना पड़ता है। विचार लिखा जा सकता है, पढ़ा जा सकता है, और सुना भी जा सकता है, लेकिन देखा नहीं जा सकता। भले ही आप विचार को विचारक कह लें, और दर्शन को दार्शनिक, लेकिन विचार, दर्शन होते हुए भी, कभी दर्शन नहीं देता। और तो और, विचारों के प्रदर्शन के लिए भी शब्दों का ही सहारा लेना पड़ता है।
शब्द अगर ध्वनि का मामला है, तो अक्षर का तो कभी क्षरण ही नहीं होता।
श्रुति, स्मृति हो, अथवा पुराण, बिना शब्द के सब, नि:शब्द हैं। प्रकाश की अगर किरणें होती हैं, तो ध्वनि की भी तरंगें होती हैं। होती होगी विचार की भी तरंग, उठती होंगी मन मस्तिष्क में, होते रहें आप विचार मग्न, केवल एक सद्गुरू ही आपके मन की तरंगों को पढ़ सकता है, जान सकता है, और अपने शुभ संकल्प से आपका कायाकल्प कर सकता है। विचार की तरह, गुरु तत्व और ईश्वर तत्व, कहीं दिखाई नहीं देते, लेकिन केवल विचारों के स्तर पर ही, उनका साक्षात्कार किया जा सकता है। हां, देह और शब्द उसके अनुभूति के माध्यम अवश्य हो सकते हैं। ।
हम प्रभावित तो शब्दों से होते हैं, लेकिन उन्हें ही विचार मान लेते हैं। किसी के मन के विचारों को पढ़ने अथवा जान लेने की विद्या को टेलीपैथी अथवा दूर संवेदन कहते हैं। किसी के मन की बात को जान लेना अथवा पढ़ लेना अथवा एक ही विचार दो लोगों के मन में एक साथ आना, टेलीपैथी हो सकती है। अभी अभी आपको याद किया, और आप पधार गए। कभी कभी तो एक ही बात दोनों के मुंह से एक साथ निकल जाती है। है न विचित्र संयोग।
गजब की स्मरण शक्ति है हमारे मस्तिष्क की और मन है, जो संकल्प विकल्प से ही बाज नहीं आता। कैसे कैसे विचार हमारे मन में आते हैं, बिना किसी साधना अथवा धारणा ध्यान के ही, कहां कहां हमारा ध्यान चला जाता है। अगर मन, बुद्धि और अहंकार को विवेक और वैराग्य की राह पर ले जाया जाए, तो अवश्य वह घटित हो जाए, जो शब्दों से परे है और केवल हमारे चित्त के अधीन है। ।
ज्ञान विज्ञान, परा विद्या,
जादू टोना और अविद्या हमें जिस सूक्ष्म जगत के दर्शन कराती है, वह कितना खरा है और कितना खोटा, यह जानना इतना आसान नहीं, अतः जो आंखों से दिखाई दे, शब्दों के माध्यम से प्रकट हो, और शास्त्रोक्त हो, उसी विचार को आत्मसात कर, व्यवहार में लाया जाना चाहिए।
सनातन, पुरातन, आधुनिक और वर्तमान का समग्र चिंतन ही हमारा विचार प्रवाह है। शब्द ही वह माध्यम है, जो वैचारिक क्रांति भी लाता है और हमारे अंदर सकारात्मकता और नकारात्मकता के बीज भी बोता है। नीर, क्षीर और विवेक के अलावा और कोई गुरु अथवा मसीहा आपको सही राह नहीं दिखा सकता। ।
मंत्र की ही तरह विचार भी बड़े शक्तिशाली होते हैं। जिस तरह मंत्र के शब्द गौण हो जाते हैं और मंत्र शक्ति ही काम करती है, इसी तरह शब्द तो गौण हो जाते हैं, और विचार शक्तिशाली हो जाते हैं।
आज के युग में शस्त्र से अधिक वैचारिक युद्ध कारगर हो रहे हैं। वाक् शक्ति का दुरुपयोग देखना हो तो आज अपने आसपास चल रहे वाक् युद्ध देखिए। शब्द और विचार इतने मारक भी हो सकते हैं, यह तो शायद ईश्वर ने भी नहीं सोचा होगा। हिंसा पर मानसिक हिंसा हावी है। ।
कोई नेता नहीं, कोई अभिनेता नहीं, अपनी राह आप चुनें ;