हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #256 ☆ घाव और लगाव… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख घाव और लगाव। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 256 ☆

☆ घाव और लगाव… ☆

चंद फ़ासला ज़रूर रखिए/ हर रिश्ते के दरमियान/ क्योंकि नहीं भूलती दो चीज़ें/  चाहे जितना भुलाओ/ एक घाव और दूसरा लगाव– गुलज़ार का यह कथन सोचने को विवश करता है तथा अनुकरणीय है। मानव दो चीज़ों को जीवन में लाख भुलाने पर भी नहीं भूल सकता– चाहे वे वाणी द्वारा प्रदत ज़ख़्म हों या शारीरिक घाव। यह दोनों ही शारीरिक पीड़ा व मानसिक आघात पहुँचाते हैं। प्रथम कमान से निकला हुआ तीर बहुत घातक होता है, उसी प्रकार मुख से नि:सृत शब्द भी हृदय को ता-उम्र कचोटते व आहत करते हैं। शरीर के ज़ख़्म तो एक अंतराल के पश्चात् भर जाते हैं, परंतु हृदय के ज़ख़्म एक अंतराल के पश्चात् भी हृदय को निरंतर सालते रहते हैं।

शायद गुलज़ार ने इसीलिए रिश्तों में फ़ासला रखने का संदेश प्रेषित किया है। यदि हम किसी पर बहुत अधिक विश्वास करते हैं और उसे अपना अंतरंग साथी स्वीकार लेते हैं; उसके बिना पलभर के लिए रहना भी हमें ग़वारा नहीं होता और उससे दूर रहने की कल्पना भी मानव के लिए असंभव व  असहनीय हो जाती है।

‘रिश्ते सदा चंदन की तरह रखने चाहिए/ चाहे टुकड़े हज़ार भी हो जाएं, पर सुगंध ना जाए।’ रिश्तों में भले ही कोई लाख सेंध लगाने का प्रयास करे, परंतु उसे सफलता न प्राप्त हो। उसकी ज़र्रे-ज़र्रे से चंदन की भांति महक आए। जैसे इत्र का प्रयोग करने पर अंगुलियाँ महक जाती हैं, वैसे ही उनकी महक स्वतः दूसरों तक पहुँच जाती है तथा सबका हृदय प्रफुल्लित करती है।

यदि कोई आपकी भावनाओं को समझ कर भी तकलीफ़ पहुंचाता है तो वह आपका हितैषी कभी हो नहीं सकता। इसलिए आजकल अपने व पराये में भेद करना व दूसरे के मनोभावों को समझना अत्यंत कठिन हो गया है। हर इंसान मुखौटा धारण करके जी रहा है। सो! उसके हृदय की बातों को समझना भी दुष्कर हो गया है। केवल आईना ही सत्य को दर्शाता है। यदि उस पर मैल चढ़ी हो, तो भी उसका वास्तविक रूप दिखाई नहीं पड़ता है। रिश्ते भी काँच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं। इसलिए उन्हें संभाल कर रखना अत्यंत आवश्यक होता है। परंतु आजकल तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो रिश्तों को ग्रहण लग गया है; कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा, क्योंकि हर रिश्ता स्वार्थ पर आधारित है।

‘अपेक्षाएं जहाँ खत्म होती है, सुक़ून वहीं से शुरू होता है। वैसे तो अपेक्षा व उपेक्षा दोनों ही रिश्तों में मलाल उत्पन्न करती हैं और मानव आजीवन मैं और तू के भँवर में फँसा रहता है। रिश्ते प्यार व त्याग पर आधारित होते हैं। जब हमारे हृदय में किसी के प्रति लगाव होगा, तो हम उस पर सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर होंगे। आसक्ति जिसके प्रति भी होती है, कारग़र होती है। प्रभु के प्रति आसक्ति भाव मानव को भवसागर से पार उतरने का सामर्थ्य प्रदान करता है। आसक्ति में मैं का भाव नहीं रहता अर्थात् अहं भाव तिरोहित हो जाता है, जो श्लाघनीय है। इसके परिणाम-स्वरूप रिश्तों में प्रगाढ़ता स्वत: आ जाती है और स्व-पर का भाव समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में हम उससे दूर रहने की कल्पना मात्र भी नहीं कर सकते। वैसे संसार में श्रेष्ठ संबंध भक्त और भगवान का होता है, जिसमें कोई भी एक- दूसरे का मन दु:खाने की कल्पना नहीं कर सकता।

अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है, लेकिन नम्रता भी कम शक्तिशाली नहीं होती है। वह साधारण मानव को भी फ़रिश्ता बना देती है। इसलिए जब बात रिश्तों की हो, तो सिर झुका कर जियो और जब उसूलों की हो, तो सिर उठाकर जिओ। यदि मानव के स्वभाव में निपुणता व  विनम्रता है, तो वह ग़ैरों को भी अपना बनाने का सामर्थ्य रखता है। यदि वह अहंनिष्ठ है; अपनों से भी गुरेज़ करता है, तो एक अंतराल के पश्चात् उसके आत्मज तक उससे किनारा कर लेते हैं तथा खून के रिश्ते भी पलभर में दरक़ जाते हैं।

इंसान का सबसे बड़ा गुरु वक्त होता है, क्योंकि जो हमें वक्त सिखा सकता है; कोई नहीं सिखा सकता। ‘वह शख्स जो झुक के तुमसे मिला होगा/ यक़ीनन उसका क़द तुमसे बड़ा होगा।’ सो! विनम्रता का गुण मानव को सब की नज़रों में ऊँचा उठा देता है। ‘अंधेरों की साज़िशें रोज़-रोज़ होती हैं/ फिर भी उजाले की जीत हर सुबह होती है।’ यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ है, आत्मविश्वास उसकी धरोहर है, तो वह सदैव विजयी रहता है अर्थात् मुक़द्दर का सिकंदर रहता है। परंतु घाव व लगाव एक ऐसा ज़हर है, जो मानव को उसके चंगुल से मुक्त नहीं होने देते। यदि वह एक सीमा में है, स्वार्थ के दायरे से बाहर है, तो हितकर है, अन्यथा हर वस्तु की अति खराब होती है; हानिकारक होती है। जैसे अधिक नमक रक्तचाप व चीनी मधुमेह को बढ़ा देती है। सो! जीवन में समन्वय व सामंजस्यता रखना आवश्यक है। वह जीवन में समरसता लाती है। स्थिति बदलना जब मुमक़िन न हो, तो स्वयं को बदल लीजिए; सब कुछ अपने आप बदल जाएगा।

एहसास के रिश्ते दस्तक के मोहताज नहीं होते। वे खुशबू की तरह होते हैं, जो बंद दरवाज़े से भी गुज़र जाते हैं। जीवन में किसी की खुशी का कारण बनो। यह ज़िंदगी का सबसे सुंदर एहसास है। इसलिए शिक़ायतें कम, शुक्रिया अधिक करने की आदत बनाइए; जीने की राह स्वत: बदल जाएगी। अपेक्षा और उपेक्षा के जंजाल से बचकर रहिए, जिंदगी सँवर जाएगी तथा समझ में आ जाएगी। रिश्तों में दूरी बनाए रखिए, क्योंकि घाव आजीवन नासूर-सम रिसते हैं और अतिरिक्त आसक्ति व लगाव पलभर में पेंतरा बदल लेते हैं और मानव को कटघरे में खड़ा कर देते हैं।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जो पीछे छूट गया है, उसका दु:ख मनाने की जगह जो आपके पास से उसका आनंद उठाना सीखें, क्योंकि ‘ढल जाती है हर चीज़ अपने वक्त पर/ बस भाव व लगाव ही है, जो कभी बूढ़ा नहीं होता। अक्सर किसी को समझने के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती, कभी-कभी उसका व्यवहार सब कुछ अभिव्यक्त कर देता है। मनुष्य जैसे ही अपने व्यवहार में उदारता व प्रेम का परिचय देता है अर्थात् समावेश करता है, तो उसके आसपास का जगत् भी सुंदर हो जाता है।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 219 ☆ जागृति विचारों से… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना जागृति विचारों से। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 219 ☆ जागृति विचारों से

आपसी मेलमिलाप ही हर त्योहारों का मुख्य उद्देश्य होता है । सब कुछ भूलकर नए सिरे से जीवन जीने की कोशिश करना है तो पंच दिवस के शुभ अवसर पर देरी न करें परन्तु इतना अवश्य है कि जब तक मन में क्षमा का भाव न हो तब तक आप किसी के साथ भले ही स्नेह पूर्ण व्यवहार करें पर वो समय मिलते ही फिर गलती करेगा क्योंकि उसे पता है दीपावली पर माफी मिली अब जी भर गलती करो होली पर फिर अभयदान मिलेगा ।

एक तरफा व्यवहार ज्यादा दिनों तक नहीं चलता है । फिर भी कोशिश करते रहें, परिणाम शुभ होंगे । हमारे त्योहारों की यही विशेषता है कि ये श्रद्धा,विश्वास,आस्था व सोलह संस्कारों को जागृत करते हैं …।

नेक कर्म नेक राह, एकता की होय चाह
खुशियों की डोर बना, मेलजोल कीजिए।

जन -जन मिलकर, साथ- साथ चलकर
जागरण समाज में, प्रण यही लीजिए ।।

मोतियों का बना हार, जिसमें हो सोना तार
गले में सोहेगा तभी, खूब दान दीजिए ।

सबको ही साथ लिए, पास जो भी रहा दिए
जीवन जरूरी सदा, शुद्ध जल पीजिए ।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 517 ⇒ सिने संगीत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सिने संगीत।)

?अभी अभी # 517 सिने संगीत… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

HINDI FILM SONGS

फिल्मी गीत भारतीय हिंदी फिल्मों की जान हैं। फिल्म जहां एक सशक्त दृश्य श्रव्य माध्यम है, वहीं फिल्मी गीतों का केवल सुनकर भी आनंद उठाया जा सकता है। सुर के बिना जीवन सूना, सुर ना सजे क्या गाऊँ मैं ;

संगीत मन को पंख लगाए

गीतों में रिमझिम रस बरसाए

स्वर की साधना

परमेश्वर की।

जो फिल्मी गीत हम सुनते हैं, उसे पहले एक गीतकार लिखता है, फिर संगीतकार उसकी धुन बनाता है और उसके बाद एक गायक उसे गाता है। चूंकि यह सब एक फिल्म हिस्सा होता है, इसलिए इसे फिल्मी गीत कहा जाता है। जितना पुराना फिल्मों का इतिहास है उतना ही पुराना इतिहास फिल्मी गीतों का भी है।।

हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें,

हम दर्द के सुर में गाते हैं।

जब हद से गुज़र जाती है खुशी,

आँसू भी छलकते आते हैं;

बताइए, अब इसमें फिल्मी क्या है। गीत सुनते ही जिज्ञासा होती है, इतना अच्छा गीत किसने लिखा, जवाब आता है, शैलेन्द्र ने। सुनते ही समझ में आ जाता है, इसे तलत महमूद ही गा सकते हैं। जहां शैलेन्द्र हैं, वहां संगीत भी शंकर जयकिशन का ही होगा। इतना अच्छा गीत फिल्म पतिता का ही हो सकता है।

यह तो संगीत के महासागर से सिर्फ एक मोती ही निकाला है हमने। आप अगर इसमें एक बार डूब गए तो समझो तर गए। कितने गीतकार, कितने संगीतकार, कितने गायक गायिकाएं और कितनी फिल्में। और आपके पास बस एक जीवन। अगर आप सौ बार जनम लेंगे, तब भी यह संगीत की दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी। हमारा शरीर तो नश्वर है, लेकिन संगीत अमर है।।

ऐसा क्या है इन गीतों में कि “दूर कोई गाये, धुन ये सुनाये” और हम खो जाएं। इन गीतों में प्रेम है, विरह है, मिलन है, दर्द है, खुशी है, आंसू हैं, मुस्कान है। एक अच्छे श्रोता बनने के लिए आपको किसी डिग्री डिप्लोमा की आवश्यकता नहीं। घरों में सुबह होते ही रेडियो शुरू हो जाता था। आज रेडियो मिर्ची का जमाना है। हमारे समय में आकाशवाणी और रेडियो सीलोन था, विविध भारती था। किसी घर में रेडियो तो किसी घर में ट्रांजिस्टर था। शौकीन लोगों के घर में ग्रामोफोन अथवा रेकॉर्ड प्लेयर भी होता था। तब कहां सीडी/वीडी और यूट्यूब था।

पुराने गीत अधिक कर्णप्रिय और मधुर होते थे। क्या कारण है कि साहित्य और कविता आम आदमी तक नहीं पहुंच पाई और फिल्मी गीत हर किसान, मजदूर, साक्षर और निरक्षर तक आसानी से पहुंच गए। हर घर में आज आपको एक गायक मिलेगा, भले ही वह बाथरूम सिंगर हो। लेते होंगे आप भगवान का नाम नहाते वक्त, हम तो जो गीत सुबह रेडियो पर सुन लेते हैं, वही नहाते वक्त गुनगुनाने लग जाते हैं।

ठंडे ठंडे पानी से नहाना चाहिए, गाना आए या ना आए, गाना चाहिए।।

मुझे शास्त्रीय संगीत का सारेगामा भी नहीं आता, लेकिन जो भी पुराना गीत मैं सुनता हूं, वह जरूर किसी राग पर आधारित होता है। जब साहिर, शैलेन्द्र, हसरत, मजरूह, कैफ़ी आज़मी, शकील बदायूंनी, नीरज, भरत व्यास, प्रदीप और रवींद्र जैन जैसे गीतकार लिखेंगे और नौशाद, अनिल बिस्वास, सी रामचंद्र, सलिल चौधरी, रवि, रोशन, मदनमोहन, एस डी बर्मन, शंकर जयकिशन और लक्ष्मी प्यारे जैसे संगीतकार उनकी धुन बनाएंगे, और नूरजहां, सुरैया, खुर्शीद, लता, आशा, सुमन और सहगल, रफी, मुकेश, किशोर, मन्ना डे जैसे गायक गायिकाओं की आवाज होगी, तो हम तो बस यही कह पाएंगे ;

दिल की महफिल सजी है चले आइए।

आपकी बस कमी है

चले आइए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 312 ☆ आलेख – “आपदा प्रबंधंन और सक्षम हो…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 313 ☆

?  आलेख – आपदा प्रबंधंन और सक्षम हो…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

आपदा प्रबंधंन का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि आज अनेक संस्थायें इस विषय में एम.बी.ए. सहित अनेक पाठ्यक्रम चला रहे है। जापान या अन्य विकसित देशों में आबादी का घनत्व भारत की तुलना में बहुत कम है। अतः वहाॅं आपदा प्रबंधंन अपेक्षाकृत सरल है। हमारी आबादी ही हमारी सबसे बड़ी आपदा है, किंतु दूसरी ओर छोटे-छोटे बिखरे हुए गांवों की बढी संख्या से बना भारत हमें आपदा के समय किसी बडे नुकसान से बचाता भी है।

आम नागरिकों में आपदा के समय किये जाने वाले व्यवहार की शिक्षा बहुत आवश्यक है। संकट के समय संयत व धैर्यपूर्ण व्यवहार से संकट का हल सरलता से निकाला जा सकता है। नये समय में प्राकृतिक आपदा के साथ-साथ मनुष्य निर्मित यांत्रिक आकस्मिकता से उत्पन्न दुर्घटनाओं की समस्यायें बडी होती जा रही है। जैसे भोपाल गैस त्रासदी हुई थी तथा हाल ही जापान में न्यूक्लियर रियेक्टर में विस्फोट की घटना हुई है। खदान दुर्घटनायें, विमान, रेल व सडक दुर्घटनायें आंतकवादी तथा युद्ध की आपदायें हमारी स्वंय की तेज जीवन शैली से उत्पन्न आपदायें है। प्राकृतिक आपदाओं में बाढ, चक्रवात, भूकंप, सुनामी, आग की दुर्घटनायें सारे देष में जब-तब होती रहती है। इनसे निपटने के लिये सामान्य प्रशासन, पुलिस, अग्निशमन व स्वास्थ्य सेवाओं को ही सरकारी तौर पर प्रयुक्त किया जाता है। जरूरत है कि आपदा प्रबंधंन हेतु अलग से एक विभाग का गठन किया जाये।

हवाई जहाज में बम की अफवाह ,फायर ब्रिगेड व एम्बुलेंस से झूठी खबरों के द्वारा मजाक करना, लोगो के असंवेदनशील व्यवहार का प्रतीक है। भेडिया आया भेडिया आया वाला मजाक कभी बहुत मंहगा भी पड सकता है। इंटरनेट, मोबाइल व रेडियो के माध्यम से आपदा प्रबंधंन में नये प्रयोग किये जा रहे है। हमें यही कामना करनी चाहिए कि आपदा प्रबंधंन इतना सक्षम हो जिससे दुर्घटनायें हो ही नहीं। जो लोग सोशल मीडिया की तेजी  का दुरुपयोग कर अफवाह फैलाने का कुकृत्य करने का दुस्साहस करते हैं उन्हें तुरंत कड़ी से कड़ी सजा की व्यवस्था ही उन्हें कुछ हद तक रोक सकती है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 515 ⇒ शक्ति और इच्छा शक्ति ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शक्ति और इच्छा शक्ति।)

?अभी अभी # 515 ⇒ शक्ति और इच्छा शक्ति ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(Power & will power)

कभी कभी जब शक्ति जवाब दे देती है, तो इच्छा शक्ति काम आती है।

शक्ति का संबंध शारीरिक बल से है, जब कि इच्छा शक्ति का संबंध मनोबल से है। विनोबा भावे का वज़न चालीस किलो से भी कम था, लेकिन मनोबल तो क्विंटल से था। गांधी जी को हाड़ मांस का पुतला कहा जाता था, लेकिन जब इरादे चट्टान से हों, तो कोई पत्थर राह नहीं रोक सकता।

जरा हाथी का बल देखिए, लेकिन एक महावत का अंकुश उसे बताए रास्ते पर चलने को मजबूर कर देता है, जंगल का राजा शेर जब पालतू बन जाता है तो सर्कस का रिंग मास्टर उसे अपनी उंगलियों पर नचाता है। हमने तो अखाड़े के कई छप्पन इंच के सीने वाले पहलवानों को घरवाली के सामने बकरी बनते देखा है। जब किसी पहलवान के घुटने खराब हो जाते हैं, तो उसकी शक्ति आधी हो जाती है, और इच्छा शक्ति और अधिक कमजोर।।

इच्छा शब्द विल और डिज़ायर से मिलकर बना है। इच्छा और मूल प्रवृत्ति में अंतर होता है। मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों में मूल प्रवृत्ति तो होती है, लेकिन इच्छा का अभाव होता है। जानवर सिर्फ भोग करना जानता है, उपभोग करना नहीं।

जहां शक्ति तो है, लेकिन कोई इच्छा, इरादा, आकांक्षा ही नहीं, वहां इच्छा शक्ति का सवाल ही नहीं।

मनुष्य वस्तुओं का भोग करना जानता है और उपभोग भी, इसलिए भोग योनि का होते हुए भी अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है। वह इच्छा शक्ति से अपनी शक्ति को चैनलाइज कर एक दिशा दे सकता है। विज्ञान का क्षेत्र हो अथवा अध्यात्म का। बुद्धिबल और मनोबल जब मिल जाते हैं, तो स्वर्ग धरती पर उतर आता है। उसमें नर से नारायण बनने की पूरी संभावनाएं मौजूद हैं। नर सत्संग से क्या से क्या हो जाए।।

शक्ति और इच्छा शक्ति के अलावा हर प्राणी में एक तत्व और मौजूद होता है जिसे जिजीविषा कहते हैं।

जीने की चाह अथवा desire to survive तो चींटी और कीड़े मकोड़ों में भी होती है। जान बचाने की युक्ति, अपने अपने स्तर पर हर प्राणी जानता है।

लेकिन सिर्फ जिंदा रहना ही तो एक विवेकशील मनुष्य के लिए काफी नहीं। उसे अपनी शक्ति के साथ युक्ति का प्रयोग भी करना पड़ता है। आज के समय में बलवान वही है, जो अपनी शक्ति और इच्छा शक्ति का भरपूर दोहन करे। समय तो खैर बलवान है ही, लेकिन हमारा मनोबल भी कुछ कम नहीं। कितना सही आकलन है आज की पीढ़ी का, इन पंक्तियों में ;

अब वक़्त आ गया

मेरे हँसते हुए फूलों।

उठो छलाँग मार के

आकाश को छू लो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 106 – देश-परदेश – चल मेरी ढोलक☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 106 ☆ देश-परदेश – चल मेरी ढोलक ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन में खरगोश की ढोलक द्वारा ननिहाल की यात्रा की कहानी आज भी जहन में हैं। उपरोक्त फोटो में भी ढोलक नुमा ड्रम (प्लास्टिक कंटेनर) देख खरगोश वाली कहानी याद आ गई।

त्यौहार के समय मुम्बई से अपने गांव की रेल यात्रा के लिए जाते हुए लोगों को रेलवे ने इस प्रकार के ड्रम के साथ यात्रा करने की अनुमति नहीं दी थी। यात्रियों को कहा गया कि अपना सामान दूसरे साधनों का उपयोग कर ले सकते हैं। परेशान/ हैरान यात्रियों ने जल्दी जल्दी बड़े कपड़े के बैग्स में भर कर ही गाड़ी में बैठ पाए। ड्रम आदि वहीं छोड़ दिए गए।

प्रश्न ये उठता है, कि ये ड्रम के साथ यात्रा क्यों हो रही थी? अधिकतर यात्री मेहनत कश होते है, और किसी उद्योग/ कारखाने में कार्य करते हैं। उद्योग में लगने वाला कच्चा मॉल इन्हीं ड्रम में आता है। वहां कार्य करने वाले मजदूरों को फैक्ट्री से ये ड्रम मुफ्त में या कुछ न्यूनतम राशि में ये ड्रम मिल जाते होंगे।

गांव में अपने परिजनों के उपयोग के लिए ये ड्रम देश की आर्थिक राजधानी से मीलों दूर गरीब के घर के एसेट्स बन जाते हैं। रईसों की बेकार वस्तुएं, गरीबों की शान बन जाती हैं।

एशियन पेंट के खाली डिब्बों की असीमित मांग रहती हैं। एक बार हमारे पड़ोसी ने हमें एक पेंट की दुकान पर खड़ा हुआ क्या देखा? दूसरे दिन घर आकर बोला जब पेंट के डिब्बे खाली हो जाएं तो सबसे पहले मुझे देना “पड़ोसी पहले”।

हमारे देश के लोग तो अमेरिका जैसे देश में समान के लिए कपड़े के थैले भर कर  ले जाते हैं। एक बार एयरपोर्ट पर अमेरिका के लिए चेक इन के समय एक व्यक्ति दो बड़े बड़े कपड़े के बैग में यात्रा कर रहा था। उत्सुकता वश हमने पूछ लिया कि इन बैग्स का क्या लाभ है? उसने बताया दस हज़ार वाले सूटकेस से ये पांच सौ वाला बैग, वापिस आकर फोल्ड कर रख सकते हैं। बड़े तेईस किलो तक सामान वाले सूटकेस के साथ तो अंतरराज्यीय यात्रा भी नहीं हो सकती हैं। कपड़े के बैग का वज़न भी सूटकेस से कम होता है, मतलब आप अधिक सामान ले जा सकते हैं।

बैंक की नौकरी समय नब्बे के दशक में कैश के लिए आर बी आई  द्वारा लकड़ी के बक्से उपयोग होते थे। हमने भी ट्रांसफर के समय टीवी सेट को सुरक्षित ले जाने के लिए उन्हीं लकड़ी के बॉक्स से एक टीवी सेट के माप का डिब्बा दो दशकों तक उपयोग किया था। घर में उस डिब्बे के ऊपर चादर डालकर बैठने के लिए भी खूब उपयोग किया। वो तो बाद में एल ई डी टीवी आ जाने से उसकी उपयोगिता समाप्त हो गई थीं।

हमारे देशवासियों की सस्ता, सुंदर और टिकाऊ साधनों का उपयोग करने की आदत है। वर्षों से सीमित संसाधनों और अभाव में जीवन यापन करने से मानसिकता भी वैसी ही बन जाती है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 514 ⇒ || व्याकरण ||  ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| व्याकरण || ।)

?अभी अभी # 514 || व्याकरण || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

~ grammar ~

व्याकरण वह विद्या है जो हमें किसी भाषा को शुद्ध बोलना, पढ़ना एवं लिखना सिखाता हो। भाषा की शुद्धता के लिए ही व्याकरण के नियम बनाए गए हैं। व्याकरण” शब्द का शाब्दिक अर्थ है- “विश्लेषण करना”। आजकल तो लोग बिना व्याकरण जाने भी शुद्ध लिख बोल लेते हैं, क्योंकि हमें सब पका पकाया मिल जाता है। कविता, साहित्य और फिल्मों से ही हम बहुत कुछ सीख लेते हैं।

विद्यालयों में अक्षर ज्ञान के तुरंत बाद, सबसे पहले व्याकरण सिखलाया जाता है। संज्ञा, कर्ता और क्रिया के साथ साथ ही अलंकार और कहावतें और मुहावरों का प्रयोग भी बताया जाता है। व्याकरण के नियम कंठस्थ करने होते थे। अमर घर चल से सभी ने अपना हिंदी का पाठ शुरू था। व्याकरण के अभाव में ही अक्सर मात्राओं की गलती और भाषा में गलत वाक्यों का प्रयोग होना आम बात है।।

हमारी मातृ भाषा का व्याकरण हमें जितना आसान नजर आता है, उतना ही अन्य भाषाओं का व्याकरण कठिन नजर आता है। भाषा के अध्ययन में अगर व्याकरण की उपेक्षा हुई, तो उस भाषा पर कभी आपका अधिकार नहीं हो सकता। स्वर और व्यंजन का ज्ञान जितना हिंदी में जरूरी है, उतना ही अंग्रेजी में भी।

अंग्रेजी व्याकरण के लिए P.C.Wren का कोई विकल्प नहीं था। हिन्दी व्याकरण के जनक श्री दामोदर पंडित जी को कहा जाता है। इन्होंने 12 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में एक ग्रंथ की रचना की थी जिसे ” उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण ” के नाम से जाना जाता है। हिन्दी भाषा के पाणिनि ” आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ” को कहा जाता है। संस्कृत में तो हमें एकमात्र पुस्तक अभिनवा पाठावलि: ही याद है। तब के कुछ सुभाषित हमें आज तक याद है। वैसे

सिद्धान्तकौमुदी संस्कृत व्याकरण का ग्रन्थ है जिसके रचयिता भट्टोजि दीक्षित हैं। इसका पूरा नाम “वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी” है।।

वैसे सामान्य जीवन में, भाषा की बुनियादी जानकारी के साथ भाषा के व्याकरण की भी इतिश्री

हो जाती है और यह विषय केवल प्राध्यापकों और भाषाविदों तक ही सीमित रह जाता है। एक बार डिग्रियां हासिल करने के बाद कोर्स की किताबों के साथ व्याकरण की किताबें भी रद्दी में बेच दी जाती थी। गूगल सर्च की सुविधा के पश्चात् कौन अपने घर में ऑक्सफोर्ड और वेबस्टर की डिक्शनरी रखता है।

हमारी भाषा और व्याकरण का सबसे दुखद पहलू है, संस्कृत की उपेक्षा। केवल पूजा पाठ और ज्योतिष तक ही इसका सीमित रहना हमारे देश का दुर्भाग्य है। बड़े संघर्ष के पश्चात् तो हिंदी आज अपने इस स्थान पर पहुंच पाई है। एक समय था जब हिंदी के अलावा अंग्रेजी, गणित, और संस्कृत को पढ़ाई में अधिक महत्व दिया जाता था। हमारा दुर्भाग्य कि हम गणित में कमजोर निकले, और समय के साथ संस्कृत ने भी हमारा साथ छोड़ दिया।।

हमें याद आती है एक पुरानी घटना जब हमने एक सहपाठी को, जो तब अंग्रेजी साहित्य का व्याख्याता बन चुका था, हमारे ताऊ जी, अर्थात् पिताजी के बड़े भाई से बड़े गर्व से मिलवाया। “ये हैं हमारे कॉलेज के पुराने मित्र, आजकल अंग्रेजी साहित्य के व्याख्याता हैं “। हमारे ताऊजी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने हमारे मित्र से ग्रामर की स्पेलिंग पूछ ली। बहुत आसान सवाल था, हमारे मित्र ने तुरंत कह दिया, grammer.

हमारे ताऊजी कुछ नहीं बोले। उन्होंने मुझे इशारा किया, जरा इंग्लिश डिक्शनरी लाना और आपके मित्र को दे देना, वे ग्रामर की स्पेलिंग देख लेंगे। मित्र आत्म विश्वासी था, उसने डिक्शनरी देखी, ग्रामर की स्पेलिंग grammar निकली, grammer नहीं।

हमारे मित्र को शर्मिंदा तो होना ही था। जब कि हमारे ताऊ जी सिर्फ उनके जमाने की आठवीं पास थे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 263 – उड़ जाएगा हंस अकेला… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 263 उड़ जाएगा हंस अकेला… ?

मॉल में हूँ। खरीदारी हो चुकी। खड़े रहते और भटकते-भटकते थक भी चुके। परिवार फूडकोर्ट में जाने की घोषणा कर चुका है। फूडकोर्ट जाने के लिए एस्केलेटर के मुकाबले एलेवेटर पास है। अत: एलेवेटर से फूडकोर्ट के लिए चले। लिफ्ट से बाहर निकलते हुए देखता हूँ कि दाहिने हाथ पर पीने के पानी की मशीन लगी है और ऊपर बोर्ड लिखा है, ‘फ्री ड्रिंकिंग वॉटर।’

अपने युग का कितना बड़ा बोध करा रहे हैं ये शब्द! पीने का पानी नि:शुल्क..!

एक समय था जब मनुष्य सीधे नदी का पानी पिया करता था। तब नदियाँ स्वच्छ थीं। अब नदी के पानी के शुद्धीकरण की प्रक्रिया होती है।  घर पर आर.ओ. के जरिए उसे फिर शुद्ध करते हैं। एक-एक कर उसके सारे प्राकृतिक तत्व निकाल फेंकते हैं। कामधेनु को छेरी करने का अद्भुत मानक स्थापित किया है हमने।

पानी की निर्मलता को लेकर एक घटना याद हो आई। वर्ष 2000 में राजस्थान के  मारवाड़ जंक्शन के निकट एक गाँव में एक डॉक्युमेंट्री फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। पशुओं की किसी औषधि से सम्बंधित डॉक्युमेट्री थी। शूटिंग स्थल के निकट ही एक स्वच्छ तालाब था। गाँव उस तालाब के पानी का पीने के लिए उपयोग करता था। हम सब भी उस तालाब का पानी पी रहे थे। फिल्म में किसी भूमिका के लिए समीपवर्ती नगर से एक अभिनेत्री को  बुलाया गया था। उन्होंने मिनरल वॉटर की मांग की। आज से लगभग ढाई दशक पहले ग्रामीण भाग में बोतलबंद मिनरल वॉटर अपवाद ही था।  हमारी जीप का ड्राइवर अभिनेत्री से बोला, “मैडम जी, हमारे तालाब का पानी अमरित है। पी लो। यूँ भी जल में मल नहीं होता।”

मानवीय सभ्यता के विकास का इतिहास साक्षी है कि मनुष्य ने जल की उपलब्धता देखकर ही बस्तियाँ बसाईं। नदी से जल और परोक्ष में जीवन पाने वाला मनुष्य आगे चलकर नदियों का गला घोंटने लगा। नदियाँ निरंतर प्रदूषित की जाने लगीं। नदियाँ नाले में परिवर्तित कर दी गईं। अब नदी के नाम पर ठहरा हुआ पानी है, दुर्गंध है, कारखानों से गिरता अपशिष्ट है, सीवेज लाइन के खुलते दरवाज़े हैं। अपने उद्गम पर नदी आज भी अमृत है पर मनुष्य की बस्तियों तक पहुँचते- पहुँचते हम उसे मृत कर देने पर उतारू हैं।

बहुत समय नहीं बीता जब राह चलते को पानी पिलाने का चलन था। उस समय बारह मास पानी का संकट भोगनेवाले राजस्थान जैसे मरुस्थली भूभागों पर भी प्याऊ लगाई जाती। गाँव के बुज़ुर्ग विशेषकर महिलाएँ इसके लिए बारी-बारी से सेवा देतीं। इसे जलमंदिर भी कहा जाता था। तब किसी जलमंदिर पर ‘फ्री ड्रिंकिंग वॉटर’ का कोई बोर्ड नहीं लगा होता था। यह मनुष्य के साथ मनुष्य का मनुष्यता का व्यवहार था।

मनुष्य की देह पंच महाभूतों से बनी है। महाभूत नि:शुल्क हैं। जो नि:शुल्क है, वह अमूल्य है। नि:शुल्क के उपसर्ग का अब प्रतिस्थापन हो चुका। अब सब सशुल्क है। सशुल्क धीरे-धीरे बहुमूल्य हो जाता है।

जल अब धड़ल्ले से बेचा-ख़रीदा जाता है। ऑक्सीजन कैफे हैं, जिनमें प्राणवायु बिक रही है। तब पुरखों की भूमि को प्रतिष्ठा माना जाता था, मंदिर पाठशाला, धर्मशाला के लिए भू-दान किया जाता था। अब प्रति स्क्वेयर फीट से प्रतिष्ठा का सौदा हो रहा है। आकाश में अंतरिक्ष स्टेशन और सेटेलाइटों की भीड़ है। मनुष्य ने न धरती छोड़ी, न आकाश। न हवा स्वच्छ रखी, न पानी। सब बेचा जा रहा है, सब बिक रहा है।

कहा गया है,

अद्भिः सर्वाणि भूतानि जीवन्ति प्रभवन्ति च।

तस्मात् सर्वेषु दानेषु तयोदानं विशिष्यते॥

(महाभारत, शान्तिपर्व)

अर्थात जल से संसार के सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं एवंं जीवित रहते हैं। अतः सभी दानों में जल का दान सर्वोत्तम है।

हम दान से विक्रय तक आ पहुँचे हैं। जल के प्राकृतिक स्रोतों की सुरक्षा और स्वच्छता अब भी दिशा परिवर्तन कर सकते हैं।

अमूल्य को बहुमूल्य करने की उलटी यात्रा को रोकना होगा। लौटना होगा बहुमूल्य से अमूल्य की ओर। अपने-अपने स्तर पर और सामूहिक रूप से जो किया जा सके, अवश्य करें। माध्यम कोई भी हो, जैसे आकाश से गिरा हुआ पानी  समुद्र में जाता है, वैसे ही हर प्रयास बहुमूल्य को अमूल्य करने में सहायक सिद्ध होगा।

आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् |

सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ||

© संजय भारद्वाज 

रात्रि 2:05 बजे, 1.11.2024

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 दीपावली निमित्त श्री लक्ष्मी-नारायण साधना,आश्विन पूर्णिमा (गुरुवार 17 अक्टूबर) को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी (मंगलवार 29 अक्टूबर) तक चलेगी 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ लक्ष्मी नारायण नम: 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 513 ⇒ भूले बिसरे मित्र ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भूले बिसरे मित्र।)

?अभी अभी # 513 ⇒ भूले बिसरे मित्र ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मित्र को मीत भी कहते हैं और सखा भी। एक पुराना दोस्त एक भूले बिसरे गीत की तरह होता है। यह शिकायत नहीं, हकीकत है, नए रिश्तों ने तोड़ा नाता पुराना, मैं खुश हूं मेरी आंसुओं पे ना जाना। जीवन भी तो एक संगीत ही है, लेकिन क्या केवल पुकारने से ही हमारा पुराना मीत, बचपन का सखा, यार और दोस्त वापस आ जाता है।

होता है, कभी कभी ऐसा भी होता है, जब हमारी पुकार सुन ली जाती है, और कोई भूला बिसरा बचपन के मित्र का, अचानक हमारे जीवन में फिर से प्रवेश हो जाता है।।

जरा इस गीत में पुराने मित्र का दर्द तो देखिए, मानो कोई बुला बिसरा गीत अचानक याद आ गया हो। डीजे और पॉप म्यूजिक की दुनिया में अगर कहीं से लता और शमशाद का गीत बज उठे, दूर कोई गाये, धुन ये सुनाए, तो मन भी यही कह उठता है ;

आ लौट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं।

मेरा सुना पड़ा रे संगीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं।।

लेकिन ना तो कभी बचपन वापस आता है और ना ही बचपन के मित्र, यार दोस्त। बचपन के स्कूल और कॉलेज के दोस्त सूखे पत्तों की तरह होते हैं ;

पत्ता टूटा डाल से

ले गई पवन उड़ाय।

अब के बिछड़े कब मिलेंगे

दूर पड़ेंगे जाय।।

लेकिन हवा का क्या है, अगर समय का रुख हमारी ओर हुआ तो किसी भूले बिसरे गीत की तरह, किसी भूले बिसरे मित्र का भी फिर से जीवन में प्रवेश हो जाता है। समय का असर और समय की मार किस इंसान पर नहीं पड़ती। मिलने की खुशी के साथ वो भूली दास्तान भी याद आ ही जाती है। पूछो न कैसे मैने रैन बिताई।

कोई भूला बिसरा गीत भले ही अमर हो जाए, हर भूला बिसरा मित्र वापस जीवन में लौटकर नहीं आता। कुछ तो वक्त के साथ बहकर बहुत दूर निकल जाते हैं, तो कुछ इस दुनिया से ही किनारा कर लेते हैं। कुछ हो सकता है, हमारे आसपास ही हों लेकिन प्यार की बीन कभी अकेली नहीं बजती, क्या करें, कोई मित्र साथ ही नहीं देता ;

मजबूर हम, मजबूर तुम।

दिल मिलने को तरसे।।

हाय रे इंसान की मजबूरियां।

पास रहते भी हैं कितनी दूरियां ;

याद आते हैं वे दिन, उठाई साइकिल और निकल पड़े अपने दोस्त के घर की ओर। जब तक कार, स्कूटर ने साथ दिया, शादी ब्याह और कॉफ़ी हाउस तक भी आना जाना हुआ करता था। फिर उम्र का वह पड़ाव भी आ ही गया, जब इंसान गणेश जी की तरह बस अपने बाल बच्चों और सगे संबंधियों की ही परिक्रमा करने पर मजबूर हो जाता है। सभी मित्रों की दौड़ भी विदेशों और बड़े बड़े शहरों में नौकरी कर रहे अपने बच्चों तक ही सीमित हो जाती है।

कितना अच्छा है, भले ही कोई भूला बिसरा मित्र हमसे नहीं मिल पाता, लेकिन वह अपने परिवार के साथ तो खुश है। वह इतना बदनसीब तो नहीं कि उसे वृद्धाश्रम में अपना बुढ़ापा गुजारना पड़े। कभी भूले भटके फोन पर बात हो जाए, अथवा किसी शादी ब्याह/शोक प्रसंग में कुछ पल बातें हो जाएं, वही बहुत है आज की इस अस्त व्यस्त जिंदगी में।।

ज्यादा की नहीं आदत हमें, थोड़े दोस्तों में गुजारा होता है। आज के दोस्त नए फिल्मी गीतों जैसे हैं, इधर सुना, उधर भूले। हां वैसे कुछ आभासी रिश्तों में पुराने गीतों जैसी खनक आज भी मौजूद है।

जगजीत की तरह मन को जीतने वाले मनमीतों की आज भी इस दुनिया में कमी नहीं।

कभी किताबों से यारी की, फिर घबराकर हमने भी मुखपोथी को माथे लगा ही लिया। साहित्य, संगीत, अध्यात्म और मित्रों का ढेर सारा प्यार यहां मिल ही रहा है। अपनों की कमी नहीं जहान में, बस दिल का दरवाजा खुला रहे। मित्रता की प्यार की बीन यूं ही कानों में गूंजती रहे। सलामत रहे दोस्ताना हमारा।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 512 ⇒ आनंद मार्ग ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आनंद मार्ग ।)

?अभी अभी # 512 ⇒ आनंद मार्ग ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं तो चला, जिधर चले रस्ता ! लो जी, ये भी कोई बात हुई। हम रास्ते पर चलते हैं, रास्ता भी कहीं चलता है। जिसे देखो, वह किसी रास्ते पर चल रहा है, कोई सच्चाई के रास्ते पर, तो कोई धर्म और ईमानदारी के रास्ते पर। किसी को शांति की तलाश है तो किसी को सुख की। और रास्तों के नाम तो हमने ऐसे दे दिए हैं कि बस पूछो ही मत। हम रास्ते बदलें, उसके पहले उन रास्तों के ही नाम बदल जाते हैं। जो कभी जेलरोड था, उसे देवी अहिल्या मार्ग बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। यह गली आगे मुड़ती है। हमारे आदर्श भी आजकल बच्चों के खिलौने के समान हो गए हैं, आज कुछ, तो कल कुछ और।

घर से चले थे हम तो,

खुशी की तलाश में।

गम राह में खड़े थे,

वो भी साथ हो लिए।।

एक मार्ग आनंद का भी होता है, जिस पर मुसाफिर चलता हुआ यह गीत आसानी से गा सकता है ; मस्ती में छेड़ के तराना कोई दिल का, आज लुटाएगा खजाना कोई दिल का। आज की पीढ़ी जिस मस्ती और आनंद के मार्ग पर चल रही है, यहां आज हम उसका जिक्र नहीं कर रहे हैं, हम बात कर रहे हैं एक ऐसी संस्था की, जिसका नाम ही आनंद मार्ग था। आनंद मठ का आपने नाम सुना होगा और बंकिम बाबू का भी, लेकिन कितने लोग प्रभात रंजन सरकार को जानते हैं, जिन्होंने सन् 1955 में आनंद मार्ग की स्थापना की थी।।

हर मार्ग की स्थापना किसी आदर्श अथवा उद्देश्य को लेकर ही होती है। जल्द ही लोग उस मार्ग पर चलना भी शुरू कर देते हैं। अगर यह रास्ता ठीक है तो ठीक, वर्ना भटकना तो है ही।

बंगाल का जादू हमेशा सर चढ़कर बोलता है। फिर चाहे वह संगीत हो अथवा साहित्य। बंगाल में आजादी के बाद अधिकतर मार्क्सवादी सरकार रही। आनंद मार्ग एक ऐसा ही सामाजिक और आध्यात्मिक संगठन था जिसका गठन ही कांग्रेसी और मार्क्सवादी विचारधारा से लोहा लेने के लिए किया गया था। लोग नक्सलवाद को आज भी नहीं भूले, लेकिन आनंद मार्ग का आज कोई नाम लेने वाला नहीं बचा।

हम भी अजीब हैं। अहिंसा के रास्ते पर चलते हैं और क्रांति की बात करते हैं। जब सत्ता किसी और के हाथों में होती है, तो तख्ता पलटने की बात करते हैं और जब खुद सरकार बन जाते हैं, तो वही मार्ग आनंद मार्ग हो जाता है। आपातकाल में अन्य राजनीतिक संगठनों के साथ आनंद मार्ग पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था और इनके गुरु आनंदमूर्ति उर्फ प्रभात रंजन सरकार सहित सभी अनुयायी जेल में बंद थे। कथित रूप से इन्हें हिंसक गतिविधियों में शामिल होने के कारण जेल में रखा गया और इन्हें जहर देकर मारने की भी साजिश की गई।।

सन् 1982 में आनंद मार्ग के 17 सन्यासी, जिन्हें अवधूत कहा जाता है, की हत्या कर दी गई जिसके बाद से इनकी गतिविधियां सीमित हो गई और सन् 1990 में इनके तारक ब्रह्म आनंद मूर्ति, जिन्हें इनके भक्त बाबा कहकर भी संबोधित करते थे, के निधन के बाद आनंद मार्ग में कोई आनंद नहीं रहा।

मार्ग आनंद का हो, अथवा राजनीति का, चुनौतियों का सामना तो करना ही पड़ता है। कभी विरोध तो कभी समर्थन, कभी जीत तो कभी हार। सत्ता के गलियारे में जो सुख और आनंद की तलाश करना चाहता है, उसका मार्ग बड़ा कांटों भरा होता है। एक समय था, जब राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं आमने सामने थी। खालिस्तानी आंदोलन, मार्क्सवाद, नक्सलवाद, आनंद मार्ग और अपना ही रक्तबीज भिंडरावाला इंदिरा गांधी की मौत का कारण बना।।

हिंसा का मार्ग कभी आनंद मार्ग नहीं हो सकता। हिटलर और सुभाष के मार्ग में अंतर है। अशोक पहले सम्राट बना उसके बाद बुद्ध की शरण में गया। हमें भी आज किसी शुक्राचार्य अथवा द्रोणाचार्य की नहीं, आचार्य चाणक्य और भीष्म पितामह की तलाश है। हिंसा और आतंक का मुकाबला कभी अहिंसा से नहीं होता।

एक मार्ग, एक विचारधारा, एक नेता पैदा करती है, और फिर उसके कई अनुयायी पैदा हो जाते हैं। एक जलप्रपात कई धाराओं के मिलने से बनता है। विचारों का प्रवाह अगर जारी रहे, तो झरना कभी सूखता नहीं। विचारों का नवनीत ही आनद मार्ग है। सत चित आनंद ही सच्चा आनंद मार्ग है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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