हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 493 ⇒ लडुअन का भोग ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लडुअन का भोग।)

?अभी अभी # 493 ⇒ लडुअन का भोग? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 बधाई हो बधाई

जन्मदिन पे तुमको

तुम्हारी होगी शादी

मिलेंगे लड्डू हमको…

हमें अच्छी तरह याद है प्रयागराज वाले शुक्ल जी के यहां, उनके सुपुत्र के शुभ विवाह के मंगल प्रसंग के अवसर पर, उनके द्वारा भेजे गए प्रेम रस से सराबोर लड्डुओं का हमने यहां सुदूर, इंदौर में आस्वादन किया था।

उन्हें शायद पता था, लड्डू हमारी कमजोरी है। लड्डू पेड़े की जोड़ी बहुत पुरानी है। हर खुशी के मौके पर लड्डू बांटे जाते हैं। लड्डू की महिमा इतनी विचित्र है, कि कभी कभी तो बिना खाए ही मन में लड्डू फूटने लगते हैं।।

पकवान कोई भी हो, बिना दूध और घी के नहीं बनता। घी भी एक तरह से मिल्क प्रोडक्ट ही तो है।

हर प्रकार के दूध में कम अथवा ज्यादा मात्रा में एनिमल फैट होता है जिसे बोलचाल की भाषा में फैट कहा जाता है। दूध पीने से बच्चे ताकतवर बनते हैं।

मां के दूध का कोई विकल्प नहीं।

मैं बचपन से ही भैंस को दूध पीता चल रहा हूं, क्योंकि भैंस के दूध में ज्यादा मलाई आती है। अक्ल बड़ी कि भैंस ? हो सकता है, भैंस के दूध से मुझे कम अक्ल आए, लेकिन फिर भी मेरी अक्ल कभी घास चरने नहीं गई।।

मलाई दूध की हो अथवा दही की, बिल्ली के मुंह मारने के पहले मैं चट कर जाता हूं। रबड़ी शब्द सुनकर तो आज भी मेरे मुंह में पानी आ जाता है।

मुझे डालडा घी से एलर्जी है। असली घी अगर मिलावट वाला हुआ तो मेरी खैर नहीं, एकदम सांस चलने लगती है, इसलिए बहुत सोच समझ कर कम मात्रा में ही दूध और शुद्ध घी से बने पदार्थों का सेवन करना पड़ता है। दूध की अधिक मलाई से घर में ही डेयरी खुल जाती है, असली घी, मक्खन और छाछ आसानी से उपलब्ध हो जाती है।

खाद्य पदार्थों में मिलावट एक दंडनीय अपराध तो है ही लेकिन करोड़ों लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ पाप की श्रेणी में आता है। अपराधियों को दंड तो खैर कानून दे ही देगा लेकिन जो पाप के भागी हैं, उनका हिसाब तो ऊपर वाला ही करेगा। एक आस्थावान भक्त तो सिर्फ प्रायश्चित ही कर सकता है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ माँ हरसिद्धि देवी का मंदिर रानगिर ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

☆ आलेख ☆ माँ हरसिद्धि देवी का मंदिर रानगिर ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

विश्व में भारत के साथ-साथ कुछ अन्य देशों में भी देवी मां के शक्तिपीठ हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का ज़िक्र है। इनमें से कुछ शक्तिपीठ विदेशों में भी हैं।

  • देवी भागवत में 108 शक्तिपीठों का ज़िक्र है।
  • देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र है।
  • तंत्र चूड़ामणि में 52 शक्तिपीठों का ज़िक्र है।

शक्तिपीठों के निर्माण के बारे में कहा जाता है कि दक्ष राजा दक्ष प्रजापति के यहां पर यज्ञ में सती मां के जलने के बाद भगवान शिव ने क्रोधित होकर वहां पर उपस्थित सभी लोगों को करने का आदेश अपने वीरभद्र को दिया और उसके बाद मां सीता के शरीर को मां सती के शरीर को लेकर पूरे विश्व में भ्रमण करने लगे उनके क्रोध के काम पूरे ब्रह्मांड में प्रलय की स्थिति निर्मित हो गई। इस स्थिति को समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर के टुकड़े कर दिए थे। ये टुकड़े अलग-अलग जगहों पर गिरे और वहीं शक्तिपीठ बने।

शक्तिपीठों में ध्यान करने से सकारात्मक कंपन पैदा होते हैं।

मध्य प्रदेश के सागर जिले में रानगिर ग्राम में मां हरसिद्धि का मंदिर है। इस मंदिर को भी विद्वानों के द्वारा शक्तिपीठ के रूप में मान्यता प्राप्त है। कहा जाता है कि यहां पर मां सती का रान या जंग्घा गिरा था जिसके कारण इस स्थान का नाम रानगिर पड़ा है।

इसके अलावा जनश्रुति के अनुसार प्राचीन काल में इसी पर्वत शिखर पर शिव भक्त राक्षस राज रावण ने भी घोर तपस्या किया था। जिसके कारण इस पर्वत शिखर को रावण गिरी के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी। जो बाद में रावण गिरी से रानगिर के रूप में परिवर्तित हो गया।

भगवती हरसिद्धि का यह पवित्र धाम मध्य प्रदेश के सागर नगर से दक्षिण पूर्व दिशा में 40 किलोमीटर दूर स्थित है। मंदिर तक जाने के लिए परिवहन की अच्छी सुविधा भी है। यह स्थान नॉर्थ साउथ कॉरिडोर के सागर नागपुर भाग में महामार्ग से करीब 8 किलोमीटर की दूरी पर है। मंदिर और ग्राम दोनों ही देहार नदी के किनारे पर हैं। महामार्ग से ग्राम को जोड़ने वाली रोड देहार नदी के किनारे किनारे होकर जाती है। यह मार्ग सागौन तेंदू पलाश आदि के वृक्ष वाले जंगल से गुजरत हुई लहराती फसलों के बीच पवित्र देहार नदी के साथ चलती हुई मंदिर तक पहुंचती है।

1 या 2 किलोमीटर दूर से ही भगवती हरसिद्धि के मंदिर का शिखर दिखने लगता है। रानगिर सुरम्य वनप्रान्तर की गोद में बसा एक छोटा सा गांव है। इसी गांव के उत्तरी छोर पर देहार नदी के पूर्वी तट पर स्थित है माता हरसिद्धि का पुराना प्रसिद्ध मंदिर। मंदिर के परकोटे का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा में है। प्रवेश द्वार से कुछ सीढ़ियां नीचे उतरकर हम इस मुख्य मंदिर के आंगन में पहुंचते हैं।

इस मंदिर का निर्माण दुर्ग शैली में हुआ है। बाहरी पैराकुटे से जुड़ा चौतरफा भीतरी बरामदा। इसी पर कोट के अंदर विराजमान है मां भगवती हरसिद्धि भगवती का दर्शन करते ही उनकी असीम करुणा एवं वात्सल्यता की रहस्यमई अनुभूति होती है। इस अनुभूति की कोई व्याख्या संभव नहीं है।

ऐसा कहा जाता है की मां की महिमा से प्रभावित होकर महाराजा छत्रसाल ने ही उनका यह भव्य मंदिर देहार नदी के पवित्र तट पर बनवाया था।

यह प्रतिमा अनगढ़ है। कहा जाता है रानगिर के पास ही एक अहीर का घर था जो की मां दुर्गा का परम उपासक एवं भक्त था। उसकी नन्ही बेटी प्रतिदिन पास के जंगल में गाय भैंस चराती थी। वहीं पर वह अपने सहेलियों के साथ में खेलती थी। उन्हीं बच्चियों में से एक ऐसी भी थी जो अहीर की बेटी को बहुत प्यार करती थी। वह उसे अपना खाना खिलाती थी और लौटते समय उसे चांदी के रुपए भी देती थी। उस देवी भक्ति अहीर को अपनी बेटी के सहेली को देखने की इच्छा हुई और उसने चुपचाप छुप कर देखना चाहा। उसने देखा कि देहार नदी के तटवर्ती पर्वत श्रृंखलाओं से एक दिव्य रूप निकली है। उसे यह भी अनुभव हुआ कि यह तो मेरी आराध्या साक्षात जगदंबा ही है। इसके उपरांत वह व्यक्ति श्रद्धा से वशीभूत होकर झुरमुट से निकलकर अपनी आराध्या दिव्य कन्या की ओर दौड़ा। परंतु दिव्या कन्या उसी समय वहां से अदृश्य हो गई और अपनी एक पाषाण मूर्ति को वहीं पर छोड़ दिया। इसके बाद भगवती ने अपने भक्त को स्वप्न में कहा कि उस मूर्ति के ऊपर छाया का प्रबंध कर दो। जब से वह मूर्ति वहीं पर है और मां भगवती की वहीं पर आराधना की जाती है।

नदी की दूसरी तरफ बूढी माता का मंदिर है। इस मंदिर में जाने के लिए दो मार्ग है। पहले मार्ग में आप नदी पार कर जाम से ही बुद्धि रामगढ़ मंदिर पहुंच सकते हैं। दूसरा रास्ता सागर रहली रोड से रोड पर जाकर बड़ौदा गांव के पास चौराहे से दाहिने तरफ मुड़कर पथरीले रास्ते से होते हुए हम बूढ़ी रानगिर मंदिर में पहुंच सकते हैं।

दोनो मंदिरों को जोड़ने के लिए एक झूला पुल बन रहा है जिसका भूमि पूजन स्थानीय विधायक एवं भूतपूर्व मंत्री माननीय गोपाल भार्गव जी एवं वर्तमान में मध्य प्रदेश शासन में मंत्री माननीय गोविंद सिंह राजपूत जी ने किया है। इससे दोनों मंदिरों के बीच में आने-जाने में सुविधा बढ़ जाएगी।

आप सभी से अनुरोध है की बुंदेलखंड के इस शक्तिपीठ और दिन में तीन बार अपना रूप बदलने वाली देवी के नवरात्रि में दर्शन कर अलौकिक सुख की प्राप्ति करें।

जय मां शारदा।

निवेदक:-

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 492 ⇒ मक्खी, मच्छर, खटमल ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मक्खी, मच्छर, खटमल।)

?अभी अभी # 492 ⇒ मक्खी, मच्छर, खटमल? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे युग ने भले ही डायनासोर की प्रजाति को ना देखा हो, लेकिन जुरासिक पार्क तो देखा है, मक्खी मच्छर से तो हमारा रोज पाला पड़ता है लेकिन खटमल की तो अब केवल याद ही शेष रह गई हैं।

आज भी मक्खी को उड़ाया जाता है और मच्छर को मारा जाता है, क्योंकि मक्खी गंदगी फैलाती है और मच्छर मलेरिया चिकनगुनिया और डेंगू जैसी जानलेवा बीमारियां। जो प्रबुद्ध नागरिक बढ़ती जनसंख्या और स्वास्थ्य के प्रति सजग होते हैं, वे छोटे परिवार के साथ ही पेस्ट कंट्रोल द्वारा अपने परिवार की बीमारियों से रक्षा करते हैं।

मक्खी मच्छरों को गंदगी बहुत पसंद होती है। जहां तहां रुके हुए पानी और गंदे नालों में इनकी आबादी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती रहती है। मक्खी तो सुना है, जहां बैठती है वहीं अंडे देना शुरू कर देती है। जीव: जीवस्य भोजनम् के सिद्धांत के अनुसार ये कीट पतंग भी किसी का भोजन हैं, इसीलिए ये जीव समुद्र की मछली की तरह थोक में पैदा होते हैं। ।

आज की पीढ़ी ने शायद खटमल का सिर्फ नाम ही सुना होगा देखा नहीं होगा। ये जीव अपने आप में चलते-फिरते ब्लड बैंक होते थे, क्योंकि हमारा खून ही इनका भोजन होता था। जो लोग इन खटमलों के दौर से गुजरे हैं वे जानते हैं, यह गीत उनके लिए ही लिखा गया था ;

करवटें बदलते रहे

सारी रात हम

आपकी कसम

आपकी कसम

घर की कुर्सियों में, खाट में, अलमारी में, दीवारों के गड्ढे में, कहां नहीं होते थे ये खटमल। रात होते ही ये अपने घरों से निकल पड़ते थे इंसान का खून पीने।

घासलेट यानी केरोसिन इनका दुश्मन था। अब आप बिस्तर में तो घासलेट नहीं छिड़क सकते ना। इसलिए रात रात भर जागकर, एक पानी की कटोरी में इन्हें गिरफ्तार किया जाता था, तब जाकर इंसान रात में चैन की नींद सो पाता था।

सुना है जिन देशों में मच्छर नहीं है वहां मलेरिया भी नहीं है। काश खटमल की तरह यह मच्छर की प्रजाति भी हमारा पीछा छोड़ दे तो हम कितनी जान लेवा बीमारियों से बच सकते हैं। कहते हैं, Prevention is better than cure, यानी रोकथाम, इलाज से बेहतर है। बढ़ती जनसंख्या की तरह ही, गंदगी भी अभिशाप है। ।

सफाई और बदबू का आपस में क्या मेल ? ऐसा क्यों होता है कि हमें आसपास सफाई तो नजर आ जाती है लेकिन फिर भी ना जाने कहां से, नाक में बदबू भी प्रवेश कर ही जाती है। तामसी और सड़ा हुआ भोजन बहुत जल्दी बदबू फैलाता है। ‌

इंपोर्टेड परफ्यूम और डिओडरेंट का प्रचलन बाजार में यूं ही नहीं है।

मच्छरों से लड़ने के लिए हमारे पास बहुत हथियार हैं, ऑल आउट, ऑडोमास और काला हिट। बाजार में खुली मिठाइयों पर मक्खियों का राज होता है। कटे फल और देर तक रखा हुआ सलाद भी इनकी नजर से बच नहीं सकता। मक्ख महारानी गंदे नाले से निकलकर आती है, और भोजन पदार्थ पर बैठकर अंडे देकर चली जाती है। हमारे पास कहां माइक्रोस्कोप है। सुरक्षा और सावधानी ही इसका एकमात्र विकल्प है।

याद आती है, वह धुएं की मशीन, जो डीडीटी छिड़ककर कभी मोहल्ले से मच्छरों का सफाया करती थी। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 215 ☆ हिन्दी पखवाड़ा … ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना हिंदी पखवाड़ा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 215 ☆ हिंदी पखवाड़ा

सागर में मिलती धाराएँ, हिन्दी सबकी संगम है।

शब्द, नाद, लिपि से भी आगे, एक भरोसा अनुपम है। ।

गंगा कावेरी की धारा, साथ मिलाती हिन्दी है।

पूरब- पश्चिम, कमल- पंखुरी, सेतु बनाती हिन्दी है। ।

 – गिरजा कुमार माथुर

हिन्दी का गुणगान करती हुयी अद्भुत पंक्ति अपने आप में सबके हृदय की भावनाओं का उद्गार ही है जो कवि गिरजा कुमार माथुर जी की लेखनी से प्रस्फुटित हुआ।

राष्ट्र निर्माण का कार्य हमारे शिक्षक बखूबी करते हैं। भारत के द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन जी के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाकर हम सभी अपने शिक्षकों को नमन करते हुए उनके दिखाए रास्तों को याद कर उस पर चलने हेतु हर वर्ष संकल्प लेते हैं।

हिन्दी को जब तक हम बोलचाल, लेखन, कार्यालयीन व अध्ययन में शामिल नहीं करेंगे तब तक इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित होने के लिए संघर्ष करना ही पड़ेगा। हमें प्रान्तवाद से ऊपर उठ कर देशहित में चिंतन करना चाहिए। जहाँ के निवासी अपनी भाषा व बोली का सम्मान नहीं करते उनका विकास वहीं रुक जाता है।

हम सबको एक जुट होकर संकल्प लेना चाहिए कि केवल हिन्दी को ही बढ़ावा देंगे। विश्व गुरु बनने की चाहत मातृ हिन्दी के प्रयोग से ही संभव हो सकती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #188 – आलेख – बाल साहित्यकार कैसा हो ? – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख “बाल साहित्यकार कैसा हो?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 188 ☆

☆ आलेख – बाल साहित्यकार कैसा हो? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

☆ जो बच्चों को जाने वही बाल साहित्यकार : जो बच्चों को दुनिया की सैर कराएं

क्या सच में सिर्फ बच्चे को जानने वाला ही बाल साहित्यकार हो सकता है?

यह एक दिलचस्प सवाल है जिसके जवाब में हमें बाल साहित्य की गहराइयों में उतरना होगा। क्या बाल साहित्य सिर्फ मनोरंजन का माध्यम है या इससे कहीं ज्यादा है? क्या एक बाल साहित्यकार का काम सिर्फ बच्चों को कहानियां सुनाना है या उनका मन और मस्तिष्क भी विकसित करना है?

बाल साहित्य: सिर्फ कहानियां नहीं

बाल साहित्य बच्चों के लिए एक खिड़की की तरह होता है, जिसके ज़रिए वे दुनिया को देखते हैं। यह उनके मन को समृद्ध करता है, उनकी कल्पना शक्ति को बढ़ाता है और उन्हें जीवन के मूल्यों से परिचित कराता है। एक अच्छा बाल साहित्यकार न केवल बच्चों को मनोरंजन करता है बल्कि उन्हें सोचने, समझने और सवाल करने के लिए प्रेरित भी करता है।

बच्चों को जानना जरूरी, लेकिन काफी नहीं

हाँ, यह सच है कि एक बाल साहित्यकार को बच्चों की मनोदशा, उनकी रुचियों और उनकी भाषा को अच्छी तरह समझना चाहिए। लेकिन सिर्फ इतना ही काफी नहीं है। एक सफल बाल साहित्यकार को एक अच्छे लेखक की तरह होना भी जरूरी है। उसे कहानी कहने की कला आनी चाहिए, पात्रों को जीवंत बनाना आना चाहिए और भाषा पर पकड़ होनी चाहिए। वह क्या लिखकर क्या संदेश भेज देना चाहता है? यह सब बातें उसे आनी चाहिए।

बच्चे जिस चीज के बारे में नहीं जानते हैं उस अज्ञात चीजों को बातें करके उनकी रूचि और जिज्ञासा को बढ़ाया जा सकता है। उदाहरण के लिए हम रूडयार्ड किपलिंग का उदाहरण लें। उन्होंने ‘जंगल बुक’ जैसी कहानियों के माध्यम से बच्चों को प्रकृति और जानवरों के बारे में बहुत कुछ सिखाया। चूँकि बच्चे उनके बारे में नहीं जानते हैं इसलिए ऐसी कहानी पढ़ने में उनकी बहुत जरूरी रहती है। ऐसी कहानियों को आनंद के साथ पढ़ते हैं।

एक अच्छा बाल साहित्यकार वह होता है जो:

बच्चों की भाषा में लिखता है: वह ऐसी भाषा का प्रयोग करता है जिसे बच्चे आसानी से समझ सकें।

कल्पना शक्ति को बढ़ाता है: वह बच्चों की कल्पना शक्ति को उड़ान देने के लिए नए-नए विचारों और कहानियों का प्रयोग करता है।

सकारात्मक मूल्यों को बढ़ावा देता है: वह बच्चों में सत्य, अहिंसा, प्रेम और करुणा जैसे गुणों को विकसित करने के लिए प्रेरित करता है।

बच्चों को सोचने के लिए प्रेरित करता है: वह बच्चों को सवाल करने और अपनी राय बनाने के लिए प्रोत्साहित करता है।

बच्चों के हितों को ध्यान में रखता है: वह ऐसी कहानियाँ लिखता है जो बच्चों को पसंद आती हैं और उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं।

निष्कर्ष

बाल साहित्यकार होना सिर्फ एक बच्चे को जानने से कहीं ज्यादा है। यह एक कला है, एक शिल्प है, एक भाव और एक जिम्मेदारी भी है। एक अच्छा बाल साहित्यकार बच्चों के लिए एक मित्र, एक गुरु, एक पालक और एक मार्गदर्शक होता है। वह बच्चों के मन में बीज बोता है जो पूरे जीवन भर फलते-फूलते रहते हैं।

अंत में, यह कहना गलत होगा कि सिर्फ बच्चे को जानने वाला ही बाल साहित्यकार हो सकता है। एक सफल बाल साहित्यकार वह होता है जो बच्चों को जानने के साथ-साथ एक अच्छा लेखक भी होता है।

आप क्या सोचते हैं? क्या आप सहमत हैं इस बात से कि सिर्फ बच्चे को जानने वाला ही बाल साहित्यकार हो सकता है?

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-08-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 307 ☆ आलेख – कृषि और देश की सुरक्षा को बराबर महत्व देने वाले हमारे दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 306 ☆

?  आलेखकृषि और देश की सुरक्षा को बराबर महत्व देने वाले हमारे दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

2 अक्टूबर को महात्मा गांधी के जन्मदिन के साथ-साथ स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री का भी जन्मदिन है। जब दूसरे भारत पाकिस्तान युद्ध के समय हमे अपनी खाद्य जरूरतों के लिए अमेरिका का मुंह देखना पड़ा तो स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का महत्वपूर्ण नारा दिया था। उन्होंने देश व्यापी उपवास को अपना अस्त्र बनाया। जनता में देश के लिए उत्सर्ग का आचरण प्रदर्शित किया। आम लोगों ने उनके आव्हान पर आगे बढ़कर प्रधानमंत्री सहायता कोष में अपने गहने दान किए। सदैव अपने परिश्रम, कर्तव्य और आचरण से ईमानदारी और सादगी की एक अनुकरणीय मिसाल उन्होंने बनाई । छोटी उम्र में ही उनने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया था, और कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बने।

 लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर एक छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव एक स्कूल शिक्षक थे। जब लाल बहादुर शास्त्री केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। तब उनकी माँ रामदुलारी देवी अपने तीनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर मिर्जापुर जाकर बस गईं। यहीं पर शास्त्री जी का पालन पोषण हुआ और उनकी प्राथमिक शिक्षा शुरू हुई। कहा जाता है कि उस छोटे-से शहर में शास्त्री जी की स्कूली शिक्षा कुछ खास नहीं रही उन्होंने वहाँ काफी विषम परिस्थितियों में शिक्षा हासिल की। वहीं उन्हें स्कूल जाने के लिए रोजाना मीलों पैदल चलना और नदी पार करनी पड़ती थी। बड़े होने के साथ ही शास्त्री जी ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के लिए देश के संघर्ष में रुचि रखने लगे। वे भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे भारतीय राजाओं की महात्मा गांधी द्वारा की गई निंदा से अत्यंत प्रभावित हुए थे। शास्त्री जी जब केवल ग्यारह वर्ष के थे तब से ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था। शास्त्री जी स्वतंत्रता के पहले आजादी की लड़ाई के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेते थे। आंदोलन के लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई से भी समझौता किया। वर्ष 1930 में शास्त्री जी को कांग्रेस कमेटी के स्थानीय इकाई का सचिव बनाया गया था। शास्त्री जी स्वतंत्रता आंदोलन के उन क्रांति कारी नेताओ में शामिल हैं जिन्हें 1942 में ब्रिटिश गर्वेमेंट द्वारा जेल में बंद किया गया था। देश के आजाद होने के बाद उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। वो आजादी के बाद उत्तर प्रदेश में पुलिस मंत्री भी रहे थे। इसके बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें केंद्र में रेल मंत्री का पद दिया। पर शास्त्री जी के लिए नैतिकता सबसे उपर थी, 1956 में हुई एक रेल दुर्धटना के कारण उन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद वे एक बार फिर 1957 में परिवहन और संचार मंत्री बने। इसके बाद 1961 में वे गृह मंत्री बनाए गए। वर्ष 1925 में काशी विद्यापीठ से ग्रेजुएट होने के बाद उन्हें “शास्त्री” की उपाधि दी गई थी। ‘शास्त्री’ शब्द एक ‘विद्वान’ या एक ऐसे व्यक्ति को इंगित करता है जिसे शास्त्रों का अच्छा ज्ञान हो। काशी विद्यापीठ से ‘शास्त्री’ की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने जन्म से चला आ रहा सरनेम ‘श्रीवास्तव’ हमेशा हमेशा के लिये हटा दिया और अपने नाम के आगे ‘शास्त्री’ लगा लिया। इसके पश्चात् शास्त्री शब्द लालबहादुर के नाम का पर्याय ही बन गया। 16 मई 1928 में शास्त्री जी का विवाह मिर्जापुर निवासी गणेशप्रसाद की पुत्री ललिता जी से हुआ। उनके क्रान्ति कारी सामाजिक विचार इसी से समझे जा सकते हैं की उन्होंने अपनी शादी में दहेज लेने से इनकार कर दिया था। लेकिन अपने ससुर के बहुत जोर देने पर उन्होंने कुछ मीटर खादी का दहेज लिया था। गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए देशवासियों से एकजुट होने का आह्वान किया था, उस समय शास्त्री जी केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। वर्ष 1930 में महात्मा गांधी ने नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा शुरू की। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी। शास्त्री जी विह्वल ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में शामिल हो गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे। आजादी के इस संघर्ष ने उन्हें पूर्णतः परिपक्व बना दिया। स्वतंत्रता संग्राम के जिन जन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें वर्ष 1921 का ‘असहयोग आंदोलन’, वर्ष 1930 का ‘दांडी मार्च’ तथा वर्ष 1942 का ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ महत्वपूर्ण है। लाल बहादुर शास्त्री भारत के दूसरे प्रधानमंत्री थे उससे पहले जब नेहरू जी बीमार थे वे बिना विभाग के मंत्री के रूप में सारा काम देख ही रहे थे। नेहरू जी मृत्यु के 13 दिनों बाद उन्होंने प्रधानमंत्री का पद संभाला। अन्न संकट के कारण तब देश भुखमरी की स्थिति से गुजर रहा था। वहीं 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान देश आर्थिक संकट से जूझ रहा था। उसी दौरान अमरीकी राष्ट्रपति ने शास्त्री जी पर दबाव बनाया कि अगर पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई बंद नहीं की गई तो हम गेहूँ के आयात पर प्रतिबंध लगा देंगे। यह वो समय था जब भारत गेहूँ के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था इसलिए शास्त्री जी ने देशवासियों को सेना और जवानों का महत्व बताने के लिए ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था। इस संकट के काल में शास्त्री जी ने अपनी तनख्वाह लेना भी बंद कर दिया था और देशवासियों से कहा कि हम हफ़्ते में एक दिन का उपवास करेंगे। पाकिस्तान के साथ वर्ष 1965 का युद्ध खत्म करने के लिए वह समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए ताशकंद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान से मिलने गए थे लेकिन इसके ठीक एक दिन बाद 11 जनवरी 1966 को अचानक खबर आई कि हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गई है। हालांकि उनकी मृत्यु पर वर्तमान समय में भी संदेह है। भारत सरकार ने वर्ष 1966 में लाल बहादुर शास्त्री को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित कर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन किया था। उनके सिद्धांत आज भी प्रेरक और प्रासंगिक हैं।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 491 ⇒ मुफ्त हुए बदनाम ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुफ्त हुए बदनाम।)

?अभी अभी # 491 ⇒ मुफ्त हुए बदनाम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सस्ता रोये बार बार, महंगा रोये एक बार, और अगर मुफ़्त हुआ तो मुफ़्त में हुए बदनाम ! लो जी, यह क्या बात हुई। मुफ़्त में सांस ले छोड़ रहे हैं, 24 x 7 मुफ़्त की हवा खा रहे हैं, तब किसी का पेट नहीं दुखता, नेता लोग मुफ़्त में भाषण टिका जाते हैं, लोग घर आकर चाय भी पी जाते हैं और ऊपर से नॉन स्टॉप कविताएं भी मुफ़्त में सुना जाते हैं, लेकिन हमने कभी उफ नहीं की, किसी को बदनाम नहीं किया और सड़ी सी ₹ 21.43 पैसे की गैस सब्सिडी के पीछे मुफ्तखोरी का इल्ज़ाम ? हमने क्या राइटिंग में लिखके दिया था कि हमको सब्सिडी दो।

हां, हमने यह गलती जरूर की कि एक जागरूक मतदाता की तरह आपको मुफ्त में हमारा कीमती वोट जरूर दे दिया।

हम जानते हैं, माले मुफ्त बेरहम क्या होता है। हम इतने रहमदिल हैं कि किसी को मुफ्त में सलाह भी नहीं देते। लेकिन लोग हैं कि यह तो कह जाते हैं कि हमने लाख रुपए की बात कह दी, लेकिन उनकी जेब से बदले में फूटी कौड़ी तक नहीं निकलती। भलाई का जमाना नहीं होते हुए भी, हम भलाई करने से नहीं चूकते। ।

मुफ़्त को अंग्रेजों की भाषा में फ्री कहते हैं। और शायद इसीलिए कुछ लोग यह मान बैठे हैं कि हमें आजादी भी फ्री में ही मिली है। Freedom at midnight को जब मैने लोगों को, मध्यरात्रि को मुफ्त में मिली आजादी कहते सुना, तो मुझे बड़ा बुरा लगा। ऐसे में मुझे अपना खुद्दार शायर साहिर याद आ गया, जो कह गया, जिंदगी भीख में नहीं मिलती, जिंदगी बढ़के छीनी जाती है। हमने आजादी के लिए भी कुर्बानियां दी हैं। हम आजादी लड़ के लेते हैं लेकिन दुआ सदा मुफ्त में ही देते हैं ;

कर चले हम फिदा जानो तन साथियों

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों …

वैसे मुफ्त का भी मनोविज्ञान होता है। कवि शैलेंद्र तो कह गए हैं, ज्यादा की नहीं लालच हमको, थोड़े में गुजारा होता है, लेकिन हकीकत में, थोड़े में ज्यादा का लालच, तो सबको होता ही है। एक हमारा समय था, जब २५-५० रुपए की सब्जी की खरीदी में सब्जी वाला खुशी से हरा धनिया अपनी ओर से डाल देता था। उसने एक ओर तो हमारी आदत बिगाड़ी और आज अगर हम दो तीन सौ की सब्जी लें, और मुफ्त में थोड़ा सा हरा धनिया मांगें तो वह हमें घूरने लगता है। बाबू साब, दो सौ रुपए किलो है धनिया। दस रूपए का पचास ग्राम। ।

एक तो एक के साथ एक फ्री के लालच में हम वैसे ही कई अनावश्यक वस्तुएं घर उठा लाते हैं और फिर किसी ऐसे आयोजन की राह देखते रहते हैं जिस अवसर पर उसे उपहार के रूप में एडजस्ट कर लिया जाए। बिना लिफाफे अथवा गिफ्ट के क्या कहीं कोई जाता है। बड़ी बड़ी गिफ्ट के आगे आजकल लिफाफा बहुत छोटा नजर आने लगता है। फिर शुरू होता है लिफाफा वसूली का दौर। लोग भोजन पर ऐसे टूट पड़ते हैं, मानो दो साल से कोविड के कारण बाहर का कुछ खाया ही न हो। अपनी छोटी सी प्लेट में छप्पन दुकान सजाने का शौक सबको होता है। कुछ खाया, कुछ कूड़ेदान के हवाले किया। जब जूठा छोड़ने पर उतने भोजन की कीमत पेनल्टी स्वरूप वसूल की जाने लगेगी तब ही हमें अन्न का महत्व पता चलेगा। मुफ्तखोरी से बड़ा अपराध चीजों का अपव्यय है, जूठा छोड़ना क्या अन्न का अपमान नहीं।

आजकल किसी का नाम यूं ही नहीं होता। लोग नाम के लिए दान पुण्य करते हैं, धर्मशाला, गौशाला बनवाते हैं, समाज सेवा करते हैं। बिना कीमत के नाम भले ही न हो, बदनामी तो आज भी मुफ्त में ही मिल जाती है। मुफ्त हुए बदनाम, हाय किसी से दिल को लगा के। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 490 ⇒ चार्जर और रिचार्ज ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चार्जर और रिचार्ज।)

?अभी अभी # 490 ⇒ चार्जर और रिचार्ज? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम सांस लेते हैं इसलिए जिंदा है, जब तक सांस है तब तक आस है। मोबाइल खेत में पैदा नहीं होते उन्हें फैक्ट्री में बनाया जाता है। हार्डवेयर सॉफ्टवेयर के चक्कर में अगर ना भी पड़ें तो एक मोबाइल में बैटरी और सिम दोनों जरूरी है। बैटरी चार्ज करने के लिए अगर चार्जर है तो जिस कंपनी की सिम है वही उसे यथायोग्य शुल्क पर रिचार्ज करती है। यानी आपको अपने मोबाइल को चार्ज भी करते रहना है भी करना है और रिचार्ज भी।

कुछ नई पीढ़ी के युवा फोन का इतना उपयोग करते रहते हैं कि उनका मोबाइल हमेशा चार्जिंग पर ही लगा रहता है। मोबाइल चार्ज भी हो रहा है और वे बातें भी करते जा रहे हैं। ट्रेन में यह दृश्य आसानी से देखा जा सकता है। बैटरी चार्ज करते समय मोबाइल का उपयोग किसी खतरे को आमंत्रण देना है लेकिन कौन सुनता है, समझते सब हैं।।

हमारे शरीर की बैटरी भी खाने-पीने और व्यायाम करने से ही चलती है। उसे समय-समय पर आराम भी देना पड़ता है। जब बैटरी डाउन होती है तो उसे रिचार्ज करना पड़ता है, एक गर्मागर्म चाय का प्याला छोटा रिचार्ज और दही की लस्सी यानी 2 घंटे की छुट्टी।

मेरा मोबाइल ज्यादा पुराना नहीं उसकी उम्र मुश्किल से 3 वर्ष की होगी। अच्छा खाता पीता मोबाइल है रोज चार्ज होता है। एकाएक एक दिन चार्जर ने हाथ खड़े कर दिए। घर में लाइट भी है फिर भी मोबाइल चार्ज नहीं हो रहा। मोबाइल की सांस थम चुकी है, स्क्रीन पर बैटरी जीरो दर्शा रही है। ।

भले ही मेरे मोबाइल में दो जिस्म है यानी दो सिम हैं लेकिन जान तो एक ही है न। हम दोनों पति-पत्नी के बीच केवल एक ही मोबाइल है। पत्नी के लिए अलग से लैंडलाइन फोन की व्यवस्था है। मेरी आस्था अगर फेसबुक में है तो उसकी आस्था टीवी के धार्मिक चैनल में है। उसके संस्कार सत्संग के और मेरे संस्कार मुख्य पोथी और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के।

उसका टीवी पर सत्संग देर रात तक चला करता है और मेरी सुबह कुछ जल्दी ही हो जाती है। यह आदत अभी-अभी की नहीं है बहुत पुरानी है।

जिनके घरों में एक से अधिक मोबाइल होते हैं उनके पास चार्जर भी बहुत होते हैं। मुझ एक मोबाइल धारक के पास दूसरा चार्जर कहां से आएगा। बिना मोबाइल के मेरा पत्ता भी नहीं हिलता। जल्दबाजी में एक लोकल चार्जर खरीदा जिसने घर में कदम रखते ही मोबाइल चार्ज करने से मना कर दिया। उसे तुरंत बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और सबसे पहले एक ऐसे पड़ोसी की सेवाएं ली गई, जिसके पास एक्स्ट्रा चार्जर उपलब्ध था। कभी पड़ोसी से एक कटोरी चाय और शक्कर मांगी जाती थी और आज एक अदद चार्जर मांगना पड़ रहा है। मोबाइल को हंड्रेड परसेंट चार्ज कर दिया और चार्जर वापस पड़ोसी को लौटा दिया गया। फोन की बैटरी ऑफ कर दी गई ताकि काम के समय फोन चालू किया जाए और बाद में वापस बैटरी ऑफ कर दी जाए। यानी पहली बार मोबाइल को भी थोड़ा आराम मिला। ‌।

वैसे रात को सोते वक्त भी मैं मोबाइल को आराम करने देता हूं बैटरी ऑफ कर देता हूं लेकिन बेचारा सवेरे बहुत जल्दी काम पर लग जाता है। अगर दिन में मोबाइल अधिक समय के लिए बंद कर दिया जाए तो लोगों को चिंता हो जाती है। वैसे कोई चिंता नहीं करता लेकिन जब फोन नहीं लगता तो न जाने कहां से चिंता प्रकट हो जाती है। ‌

फिलहाल तीन महीने की गारंटी पर एक लोकल चार्जर उपलब्ध हुआ है बहुत जल्द किसी अच्छी कंपनी का चार्जर ऑर्डर कर दिया जाएगा। मोबाइल का साथ मेरा दस पंद्रह साल पुराना है।

अकेले में यही दोस्त है यही रहबर है। इसी के कारण तो हमारा आपका भी साथ हुआ है। रिश्तों का रिचार्ज भी कितना जरूरी है आजकल। धन्यवाद चार्जर, आप हैं तो रिचार्ज है, आप हैं तो मोबाइल है। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 489 ⇒ पिता का घर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पिता का घर।)

?अभी अभी # 489 ⇒ पिता का घर? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मेरी मां का मायका अगर मेरा ननिहाल हुआ तो मेरी पत्नी का मायका मेरा ससुराल। मेरे पिता का घर तो खैर मेरा ही हुआ लेकिन उनका भी एक पैतृक गांव था जिसे वे बचपन में ही छोड़कर अपनी बड़ी बहन, यानी मेरी बुआ के घर इंदौर आ गए थे। हमारा पैतृक गांव सेमरी हरचंद था, जो इंदौर और पचमढ़ी सड़क मार्ग पर होशंगाबाद और सोहागपुर के बीच स्थित है।

सेमरी से २१ km की दूरी पर ही ग्राम बाबई स्थित है। हमारे काका, बाबा का भी पैतृक स्थान सेमरी हरचंद और बाबई ही रहा। बाबई, एक भारतीय आत्मा, दद्दा माखनलाल चतुर्वेदी का भी जन्म स्थान रहा है। इसीलिए आजकल बाबई तो माखन गांव भी कहा जाने लगा है। ।

सेमरी हरचंद के हमारे घर के सामने एक पंचायती मंदिर था, जहां के पुजारी कभी हमारे दादा परदादा ही थे। जब कभी पिताजी गांव जाते थे तो वहां से उनकी चिट्ठीयां आया करती थी जिन पर नाम के साथ पता लिखा रहता था, पंचायती मंदिर के सामने, सेमरी हरचंद, जिला होशंगाबाद।

पिताजी के बड़े भाई, जिन्हें हम बाबा साहब कहते थे, के देहावसान के पश्चात् हमारे पिताजी अधिकांश समय सेमरी में ही रहे।

वहां उन्होंने पुराने मकान का जीर्णोद्धार किया और उसका कुछ हिस्सा अपने पास रखकर शेष को किसी कोऑपरेटिव बैंक को किराए से दे दिया। मेरी अपने पुश्तैनी गांव में कोई रुचि नहीं थी, क्योंकि तब गांव के अधिकांश लोग बीड़ी पीते थे। या कहें मुझ में एक शहरी के संस्कार पड़ चुके थे। ।

पिताजी के बाद हमने गांव की जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा और मकान भी कौड़ियों के मोल बेच दिया, क्योंकि घर का कोई भी सदस्य इस स्थिति में नहीं था कि वह गांव में रहकर मकान की देखभाल कर सके।

आज मेरे ननिहाल में भी कोई नहीं और मेरे पैतृक गांव में भी हमारा नाम लेने वाला कोई नहीं। एक बार शहर से जुड़ने के बाद तो मानो हम अपनी जड़ से ही उखड़ गए। अपनी पुरानी पहचान खो देने के बाद हम अपने आप में ही अजनबी हो गए हैं। गांव के स्वर्ग को छोड़कर शहर के जंगल में जीना आज हमारी मजबूरी भी है और एक कड़वा सच भी।।

खुशनसीब हैं वे लोग जो आज भी अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं। उनका अपना ननिहाल है और अपना पैतृक स्थान। ढलती उम्र में समय भी कितना बदल जाता है। ना आप अपने को बदल सकते ना समय को।

जिस तेजी से गांवों का शहर में विलय हो रहा है, कहीं ऐसा ना हो, हमें असली गांव देखने को ही ना मिले। शायद इसीलिए गुडगांव को आजकल गुरुग्राम कहा जाने लगा है, जहां गुड़ और गांव जैसा कुछ नहीं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 103 – देश-परदेश – शिक्षण संस्थाएं: जिम्मेवारियां ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 103 ☆ देश-परदेश – शिक्षण संस्थाएं: जिम्मेवारियां ☆ श्री राकेश कुमार ☆

गुरुकुल जैसी शिक्षण संस्थाओं के बारे में पुस्तकों या टीवी सीरियल जैसे प्लेटफार्म से जानकारी प्राप्त हुई है, कि वहां किस प्रकार से कठोर नियम और दिनचर्या का पालन करना पड़ता था।

आज निजी क्षेत्र में अधिकतर पाठशालाएं कार्य कर रहीं हैं। निजी क्षेत्र हमेशा स्वार्थहित के लिए कार्य करता है। बच्चों पर आज भी शिक्षक का प्रभाव माता पिता से अधिक होता हैं।

प्रातः भ्रमण के समय देखा कि अभिभावक घर के बाहर अपने बच्चों को स्कूल जाने के लिए इंतजार में खड़े रहते हैं, या स्कूल की बस / टेंपो आदि बच्चों को बुलाने के लिए तीव्र गति वाले हॉर्न बजाकर इंतजार करते हुए मिल जाते हैं। कुछ अभिभावक प्रतिदिन बच्चों को अपने साधन से स्कूल तक छोड़ कर भी आते हैं।

अल सुबह जल्दी के चक्कर में बस / टेंपो आदि गलत दिशा से आकर बच्चों के दरवाज़े पर आते हैं। वाहन की क्षमता से अधिक बच्चे बैठा कर ले जाना एक आम बात हैं। इसमें किसकी जिम्मेवारी है, कि नियमों का पालन सुनिश्चित हो, अभिभावक और स्कूल दोनो इसके दोषी हैं।

टीनेज बच्चे अपने निजी स्कूटर आदि से बिना लाइसेंस के वाहन चलाते हुए,तीन बच्चों के साथ बिना हेलमेट,गलत दिशा से सड़क पर हमेशा मिल जाते हैं। स्कूल में प्रवेश के समय प्रबंधन को यातायात नियमों का पालन सुनिश्चित करना होगा। जो पैरेंट्स भी बिना हेलमेट आदि के बच्चों को छोड़ने आए, उनको घर वापस कर देना चाहिए।

कक्षा में बच्चों को भी नियमों की जानकारी देकर उनके माध्यम से पैरेंट्स को बाध्य किया जा सकता है। लाल बत्ती पर रुकना हो या कार में बेल्ट लगाना, बच्चे अपने पेरेंट्स को मना सकते हैं।

सुपर रईसों के स्कूल में तो ड्राइवर, पैरेंट्स आदि बड़ी और लंबी गाड़ियों से बच्चों को छोड़ने और लेने आते हैं। इसके लिए भी शिक्षण संस्थानों को नियम बना कर सिर्फ स्कूल वाहन से ही बच्चों को स्कूल प्रवेश की अनुमति देनी चाहिए। स्कूल के आसपास महंगी कारों के प्रतिदिन लगने वाले मेले से यातायात की परेशानियों से निजात पाई जा सके।

शिक्षण संस्थाओं को सकारात्मक सोच से बच्चों के विकास का कार्य करना चाहिए। आने वाले समय में एक अच्छे समाज के निर्माण में स्कूल एक अहम भूमिका निभा सकते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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