डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम कहानी – ‘एक बेचेहरा आदमी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 265 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ एक बेचेहरा आदमी ☆
‘कैसी मंहगाई है कि चेहरा भी,
बेच के अपना खा गया कोई।’
– कैफ़ी आज़मी
जोगिन्दर कॉलेज के दिनों से वैसा ही था— काइयां, ख़ुदगर्ज़ और रंग बदलने में माहिर। कॉलेज में वह अपनी ज़रूरत के हिसाब से दोस्तियां बदलता रहता था। इम्तिहान के दिनों में वह ज़हीन लड़कों पर अपना प्रेम बरसाता था, और फिर जुलाई से फरवरी तक के लिए उनके प्रति तटस्थ हो जाता था।
कॉलेज में उसने राजनीति भी की थी। शुरू में वह कुछ छात्र-नेताओं का चमचा बना रहा। इस मामले में भी वह निष्ठावान नहीं था। नेता की ताकत के घटते ही वह अपनी निष्ठा भी बदल लेता था। उसका हाल कुछ कुछ उन आदिम कबीलों की स्त्रियों जैसा था जो अपने गांव के बीच में गोल बनाकर गप लड़ातीं,अपने कबीले और किसी दूसरे कबीले के पुरुषों के बीच होती लड़ाई को आराम से देखती थीं, और विजेता कबीले के पुरुषों के साथ खुशी-खुशी हो लेती थीं।
फिर धीरे-धीरे वह कुशल छात्र-नेता बन गया। वहां भी वह प्राचार्य के सामने हंगामा करके दूसरे छात्रों को प्रभावित करता था और फिर स्थिति जटिल होने पर धीरे से खिसक लेता था। छात्रों को धोखे में रखकर वह अन्ततः अपना ही उल्लू सीधा करता था। धीरे-धीरे उसने शहर के राजनितिज्ञों से अपने सूत्र बना लिये और फिर उनकी मदद से एक प्राइवेट संस्थान में घुस गया। सरकारी नौकरी में घुस जाना भी उसके लिए मुश्किल नहीं था, लेकिन वह किसी भी कीमत पर शहर नहीं छोड़ना चाहता था।
उस प्राइवेट संस्थान में उसने तेज़ी से तरक्की की। उसकी मेज़ें बड़ी तेज़ी से बदलीं। पुरानी घटिया टेबिल से वह नयी चमकदार टेबिल पर आया और फिर जल्दी ही वह टेलीफोन वाली टेबिल पर पहुंच गया, जिसके पीछे गद्देदार आरामदेह कुर्सी थी।इस दौड़ में उसके कई सीनियर उससे पीछे रह गये और वह दफ्तर में ईर्ष्या और द्वेष का पात्र बन गया। इसके साथ ही उसके आसपास कुछ चापलूसों चुगलखोरों का समूह भी तैयार हुआ जो उसकी स्थिति का लाभ उठाना चाहते थे।
जोगिन्दर की तरक्की की वजह यह थी कि वह शुरू से ही दफ्तर के काम के बजाय मालिक के बंगले के चक्कर लगाने को महत्व देता था। सवेरे-शाम उसका स्कूटर मालिक के बंगले के पोर्च में देखा जा सकता था। मालिक से बहुत से निजी काम वह इसरार करके ले लेता और फिर उन्हें कराने के लिए दौड़ता रहता था। दफ्तर में जोगिन्दर की रणनीति का पता सबको चल गया था, इसलिए उसके अफसर उससे छेड़छाड़ नहीं करते थे।
जोगिन्दर ने अपने सूत्र खूब फैला रखे थे, इसीलिए उसे कोई भी काम करा लेने में दिक्कत नहीं होती थी। वह खुशामद से लेकर पैसे तक फेंकता चलता था, इसीलिए उसका काम कहीं रुकता नहीं था। झूठी आत्मीयता दिखाने और बात करने में वह सिद्ध था। जिससे काम कराना हो उसकी पारिवारिक समस्याओं और निजी दिक्कतों से वह बात शुरू करता था और फिर धीरे-धीरे मुद्दे की बात पर आता था। उनके भी बहुत से काम वह साध देता था। इसीलिए उसका संपर्क-क्षेत्र निरन्तर व्यापक होता जाता था। लगता था कोई काम उसके लिए असंभव नहीं है। लेकिन आदमी के पद से हटते ही जोगिन्दर की प्रेम की टोंटी उसके लिए कस जाती थी।
जब कभी वह मिलता, उसके चेहरे पर आत्मसंतोष की चमक दिखती थी। अपने रंग-ढंग के प्रति कोई मलाल उसके चेहरे पर नज़र नहीं आता था। मैं जानता था कि वह अपनी कारगुज़ारियों से बहुतों का हक छीन रहा है, बहुतों को दुखी कर रहा है, लेकिन उसे इन सब बातों की परवाह नहीं थी।
वह कभी-कभी कॉफी हाउस में टकरा जाता था और फिर थोड़ा वक्त उसके साथ गुज़र जाता था। मेरी तरफ से कोई कोशिश न होने पर भी वह बात को अपनी ज़िन्दगी के ‘स्टाइल’ पर ले आता था और फिर उसे उचित ठहराने के लिए तर्क देने लगता। ऐसे मौकों पर वह किसी अपराध-बोध से ग्रस्त लगता था। वह कहता, ‘ज़िन्दगी के साथ एडजस्ट करना ज़रूरी है। सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट का ज़माना है। जो आज के ज़माने में अपने को ढाल नहीं पता वह उसी तरह खत्म हो जाता है जैसे अनेक आदिम जीव खत्म हो गये।’
कई बार मेरे साथ राजीव भी होता। वह मेरे मुकाबले ज़्यादा असहिष्णु है। वह नाखुश होकर कहता, ‘फ़िटेस्ट से तुम्हारा मतलब क्या है? फ़िट कौन है?’
जोगिन्दर का चेहरा उतर जाता, लेकिन वह हार नहीं मानता था। कहता, ‘फ़िट से मेरा मतलब है कि अब मैटीरियलिज़्म का ज़माना है। पैसे की कीमत है। पैसे के बिना सोसाइटी में कोई इज़्ज़त नहीं होती। ‘वैल्यूज़ फैल्यूज़’ की बातें अब बेमतलब हो गयी हैं। इस बात को समझना चाहिए।’
राजीव भीतर दबे गुस्से से पहलू बदलकर कहता, ‘पैसे तो सभी कमाते हैं, लेकिन सवाल यह है कि कितना, किस तरह से और कितनी तेज़ी से पैसा चाहिए। बहुत ज़्यादा और बहुत तेज़ी से पैसा चाहिए तो वह गलत तरीके से ही मिल सकता है। सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट का सिद्धान्त आदमी पर लागू नहीं होता। आदमी का काम सिर्फ गलत चीजों के हिसाब से अपने को ढालना ही नहीं, ज़माने को बिगड़ने से रोकना भी है। तुम अपने तरीकों को जस्टिफाई करने के लिए ये सब गलत तर्क मत दो।’
जोगिन्दर अपनी उंगलियों को तोड़ने मरोड़ने लगता और उसकी नज़रें झुक जातीं। वह अक्सर जवाब देता, ‘बिना पैसे के ज़िन्दगी की ज़रूरतें पूरी नहीं हो सकतीं। ज़िन्दगी में थोड़ा बेरहम और स्वार्थी होना ही पड़ता है।’
राजीव का गुस्सा उसके चेहरे पर झलक जाता। बात को खत्म करते हुए वह कड़वाहट से कहता, ‘ठीक कहते हो। पैसा ज़रूर चाहिए। सवाल सिर्फ यह है कि वह आदमी की तरह कमाया जाए या केंचुए,लोमड़ी और सुअर की तरह।’
ऐसे मौकों पर जोगिन्दर का चेहरा लाल हो जाता और वह जल्दी कॉफी खत्म करके उठ जाता।
लेकिन हमारी बहसों से उसकी दिनचर्या और उसकी ज़िन्दगी में कोई फर्क नहीं पड़ा। वह बराबर अपने मालिक के बंगले के चक्कर लगाता था और फिर उसके काम के लिए शहर में दौड़ता रहता था। हर चार छह महीने में उसके पास नया स्कूटर होता। उसके हाथों में अंगूठियों की संख्या भी बराबर बढ़ रही थी।
धीरे-धीरे उसका शरीर बेडौल हो रहा था। उसकी तोंद बेतरह बढ़ रही थी और उसकी आंखों के नीचे की खाल झूलने लगी थी। ये सब उसकी अनियंत्रित जीवन-शैली के सबूत थे।
फिर एक बार मुझे भ्रम हुआ जैसे उसके माथे के पास का कुछ हिस्सा पारदर्शी हो गया हो। मैंने उसे बार-बार देखा, लेकिन वह हिस्सा मुझे नज़र नहीं आया। अगली बार मुझे लगा जैसे उसके चेहरे का कुछ और हिस्सा गायब हो गया हो। इस बार मुझसे उससे पूछे बिना नहीं रहा गया।
उसने कुछ चिन्तित भाव से उत्तर दिया, ‘तुम ठीक कह रहे हो। कोई अजीब बीमारी है। मुझे भी शुरू में पता नहीं चला। दफ्तर में लोगों ने बताया, तब शीशे में गौर से देखा। डॉक्टरों को दिखाया, लेकिन बीमारी उनकी समझ में नहीं आ रही है। रोग बढ़ रहा है। लोगों ने बाहर जांच कराने का सुझाव दिया है।’
अब वह जब भी मिलता, उसके चेहरे का कुछ और हिस्सा गायब मिलता। अन्ततः वह एक अजूबा बनने लगा। लोग उसके पास से गुज़रने पर रुक कर उसे देखने लगते।
फिर वह कई दिन तक नहीं दिखा। एक दिन बाज़ार में किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। देखा, एक मोटा आदमी था, लेकिन गर्मी के बावजूद ऊनी टोपा पहने था और आंखों पर काला चश्मा। गरज़ यह कि पूरा चेहरा ढका था।
आवाज़ से मैं जान गया कि वह जोगिन्दर था। बोला, ‘मुंबई गया था, लेकिन वहां डॉक्टरों ने रोग लाइलाज बतलाया। चेहरा अब पूरी तरह गायब हो गया है, इसीलिए मुझे ‘इनविज़िबिल मैन’ की तरह यह टोपा और चश्मा पहनना पड़ा। टोपे चश्मे के बिना धड़ के ऊपर कुछ नहीं रहता।’
फिर कुछ रुक कर बोला, ‘मैंने रोग का कारण समझ लिया है, लेकिन मुझे कोई अफसोस नहीं है। ज़िन्दगी में कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। नो रिग्रेट्स। अगर बाकी सब कुछ ठीक-ठाक चले जो चेहरे के बिना काम चल सकता है।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈