हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 30 – अंधी दौड़  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा – अंधी दौड़ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अरे ! भाग्यवान तुमने कार में  गूगल मैप सेट कर दिया है मैं लेफ्ट राइट मुड़ कर परेशान हो गया फेसबुक  में सर्च करने पर सारी जगह ही फोटो में अच्छी लगती है पर असल ….. नहीं होती।

पूरे रविवार की छुट्टी खराब कर दी इस सन्नाटे में गाड़ी खराब हो जाए और कुछ भी हो सकता है,  सोचो श्रीमती जी।

यहां पर कोई  तुम्हें मानव दिखाई दे रहा है?

रीमा ने धीमी आवाज में कहा- ये पिकनिक स्पॉट है। मैंने सर्च किया था बहुत सुंदर जगह है इसे लोगों ने बहुत पसंद किया था बहुत लाइक और कमेंट किया….।

तुम्हें क्या ?

आराम से गाड़ी में बैठकर गाने सुन रही हो ड्राइवर तो मैं बन गया हूं लो तुम्हारी जगह आ गई?

वहां कुछ लोग दिखे तो रहे हैं तुम्हें तो हर चीज में बुराई निकालने की आदत है।

कोई बात नहीं मोबाइल में यही बाहर से फोटो खींचे और सीधे घर चलो?

ठीक है जल्दी से मैं बाहर से ही फोटो खींचकर चलती हूं  एक नई जगह तो मिली ।

हां मैं समझ रहा हूं रीमा।

तभी सामने से आता हुए एक परिवार (पति पत्नी और बच्चे )  उसे राहगीर ने कहा& साहब बाहर फोटो क्यों खींच रहे हैं? अंदर चले जाइए ये जगह बाहर से ऐसी दिख रही है पर अंदर ठीक-ठाक है आप इतनी दूर पैसा खर्च करके आए हैं तो घूम लीजिए।

हां भाई ठीक कह रहे हो लग रहा है तुम भी इन्हीं के बिरादरी के लग रहे हो लगता है  मायके के  हो।

रीमा ने कहा-   यहां पर एक झरना भी है और मंदिर  भी दिख रहे हैं  बहुत अच्छा  वीडियो बनाकर रील बन सकती हूं ।   अब जल्दी यहां से घर चलो मैं तो तुम्हारे झमेले से थक गया?

तुमने मुझे काठ का उल्लू बना के रखा है।

तुम तो मोबाइल के नशे में हो कुछ इलाज का तरीका ढूंढना होगा।

हर अच्छी चीज सोना नहीं होती रीमा।

बच्चों को भी देवी जी किताबी ज्ञान सिखाओ ।

नहीं तो एक दिन बड़ी मुसीबत मैं फंस सकते हैं। मोबाइल और फेसबुक से सबको पता चल जाएगा कि हम घर पर नहीं है थोड़ा दिमाग लगाओ, सभी को एक अंधे कुएं में धकेल दोगी।

बचाओ हे प्रभु ।

जरूरी नहीं की जो सब  काम करें वह तुम भी करो।

रीमा ने झुंझलाते हुए कहा – तुम्हें तो टंप्रवचन देने की आदत हो गई है।

ऐसा नहीं है कि मैं  घूमने फिरने के खिलाफ हूं ऐसा होता तो मैं तुम्हें क्यों स्मार्टफोन खरीद के देखा और उसे चलाना  सीखता।

लगता है मैंने  अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी मार ली भोगना तो पड़ेगा? तुम भी सब की तरह अंधी दौड़ में दौड़ा रही हो ।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 249 ☆ कथा-कहानी ☆ जन्मदाता ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – जन्मदाता ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 249 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ जन्मदाता 

गायत्री को उनके आने की जानकारी थी। बीच-बीच में फोन आते रहते थे— कभी हरद्वार से, अभी वृन्दावन से, कभी बनारस से।ज़्यादा पूछताछ नहीं करते थे, न गृहस्थी के बारे में कोई सवाल करते थे। बस, ‘आनन्द तो है न?’ बच्चों से बात कर लेते थे। अचानक ही कभी प्रकट हो जाते थे। एक-दो दिन रुकते, फिर डेरा समेट कर बढ़ जाते। गायत्री भी उन्हें रुकने के लिए नहीं कहती थी।जैसे आना वैसे ही जाना। मन में कोई उद्वेग नहीं होता।

इस बार तीन दिन पहले फोन आया था कि गायत्री के शहर में विशाल यज्ञ है। कुछ बड़े सन्त आएँगे। वे खुद भी एक हफ्ते वहाँ रहेंगे। यह निश्चित नहीं कि गायत्री के पास कितना रहेंगे, लेकिन कम से कम एक-दो दिन ज़रूर रहेंगे। गायत्री के पति समर ने बताया था कि गोल बाज़ार में बड़ा सा शामियाना लग गया है और यज्ञशाला का निर्माण हो रहा है। शायद उसी में आएँगे। शहर में दो-तीन जगह आयोजन के बैनर भी दिखाई पड़े थे।

कभी दामाद यानी समर फोन उठा ले तो उसी से बात कर लेते हैं। कहते हैं, ‘गृहस्थी में आदमी सारी उम्र कोल्हू का बैल बना रहता है। आँखों पर माया की पट्टी और गोल गोल चक्कर। ऐसे ही उम्र चुक जाती है और हाथ कुछ नहीं आता। निवृत्ति में ही सच्चा सुख है। बिना खोये कुछ नहीं मिलता। सांसारिक सुख तो मृगतृष्णा है।’

उसे समझाते हैं कि इस संसार को तन से भले ही न छोड़ा जाए लेकिन मन से तो छोड़ा ही जा सकता है। हर गृहस्थ को निर्लिप्त होकर अपना कर्म करना चाहिए। काम करें लेकिन आसक्ति रहित होकर। कीचड़ में कमल की तरह।

समर थोड़ी देर उनकी बात सुनता है, फिर फोन गायत्री को पकड़ा देता है। कहता है, ‘तुम्हीं बात करो।’ बाद में गायत्री से कहता है, ‘ये सब बातें आज की ज़िन्दगी में कहाँ संभव हैं?अपने काम में पूरी तरह ‘इनवाल्व’ हुए बिना कैसे रहा जा सकता है?’

गायत्री जवाब देती है, ‘उनकी बातें सुनते जाओ। ज़िन्दगी तो अपने हिसाब से ही चलेगी।’

इस बार वे नियत दिन पर आ गये। सबेरे सबेरे ऑटो आकर रुका और दरवाज़े की घंटी बजी। गायत्री ने बाहर आकर देखा तो एक दस-बारह साल का साधु-वेश धारी बालक दरवाज़े के बाहर सकुचता सा खड़ा मिला। सामने ऑटो के भीतर वे बैठे थे। उनका नियम है कि जब तक घर का व्यक्ति प्रवेश करने के लिए प्रार्थना न करे, वे सवारी से नहीं उतरते। गायत्री की प्रार्थना पर वे ऑटो से उतरे। वे ही गेरुआ वस्त्र, लंबे केश और दाढ़ी। केश लगभग पूर्णतया श्वेत। चेहरे पर खूब प्रफुल्लता और निश्चिंतता। साथ के बालक  का सिर मुंडित है। समर ने ऑटो का भुगतान कर दिया।

उनके लिए पहले से ही एक कमरा खाली कर दिया था। पूरा कमरा धो कर एक तरफ उनके लिए पूजा-स्थान बना दिया गया था। भीतर आकर वे तकिये के सहारे उठंग कर गायत्री के हाल-चाल लेने लगे। फिर दोनों बच्चों को बुलाकर उनके सिर पर स्नेह से हाथ फेरा, थैली में से मिठाई और मेवा निकालकर दोनों को दिया। बच्चे जानते हैं कि वे नाना जी हैं।

उनके साथ आए बालक का नाम अमृतानंद है। अपने भविष्य के लिए ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से उनका शिष्य बन गया है। उनके साथ ही हर जगह जाता है। साधु-वेश के बावजूद उसका स्वभाव सामान्य बालक का ही है। टीवी पर रोचक कार्यक्रम देखकर आँखें जम जाती हैं। अगल-बगल बच्चों को खेलते देख उसके हाथ पाँव भी सिहरने लगते हैं। लेकिन उसकी एक आँख हमेशा गुरुजी पर रहती है। गुरुजी दोपहर को नींद में हों तो घर के बच्चों के साथ मज़े से खेल कूद लेता है।

लेकिन पिता के आने से गायत्री के मन में कोई विशेष खुशी या उत्साह नहीं होता। लंबे अंतरालों पर उनके आने के बावजूद ठंडक जैसी बनी रहती है। उनकी उपस्थिति अनुपस्थिति से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, न ही कोई लहर उठती है। सब कुछ पूर्ववत चलता रहता है। दोनों बहनों, गीता और गौरी को उनके आने की खबर ज़रूर दे देती है।

गायत्री के बेडरूम में पुराना फोटो टँगा है— माता-पिता और चारों भाई बहन। तब गायत्री नौ दस साल की रही होगी। दोनों बहनें उससे छोटी हैं। विशू तब तीन-चार साल का रहा होगा। पिता के माथे पर लाल बिन्दी है। चित्र में माँ का चेहरा देखते उसका गला भर आता है।

उसे याद आता है सबेरे वे चारों, दो दो माँ के आजू-बाजू लेटे रहते थे। माँ उन्हें दुलारतीं, पुराणों की कथाएँ सुनाती रहतीं। उस वक्त उनके चेहरे पर ऐसा अलौकिक आनन्द  दमकता जैसे सारी सृष्टि उनकी बाँहों में सिमट गयी हो। गायत्री को वैसा सुख फिर जीवन में नहीं मिला।

पिताजी सरकारी दफ्तर में मुलाज़िम थे, लेकिन वे जीवन भर लापरवाह और गैरजिम्मेदार ही रहे। घर से निकलने पर कब लौटेंगे, ठिकाना नहीं। जेब में पैसे और हाथ में थैला लेकर सामान लेने निकलते और कहीं गप- गोष्ठी में दो-तीन घंटे गुज़ार कर वैसे ही खाली थैला हिलाते वापस आ जाते। उनके ऐसे आचरण से घर में क्या दिक्कत होती है इसे लेकर वे ज़्यादा परेशान नहीं होते थे। कभी किसी साहित्यिक या धार्मिक महफिल में जम जाते तो सारी रात वहीं गुज़र जाती। माँ सारी रात या तो करवटें बदलती रहतीं या कमरे में उद्विग्न टहलती रहतीं। उन पर क्या गुज़रती थी यह पिता महसूस नहीं कर पाते थे। बच्चों को स्कूल के लिए समय से उठाने से लेकर उनकी फीस समय से जमा करवाने तक की सारी फिक्र माँ को ही करनी पड़ती थी। पिता के ऐसे रवैये के कारण माँ के लिए कहीं आना-जाना मुश्किल रहता था। वे घर में ही बँध कर रह गयी थीं।

फिर माँ के सिर में भारीपन और दर्द रहने लगा था। पिता ने पहले टाला-टूली की,फिर डाक्टर को दिखाया। डाक्टर ने जाँच-पड़ताल के बाद कहा, ‘ब्लड प्रेशर बढ़ गया है। रोज एक गोली खानी पड़ेगी। गोली कभी बन्द नहीं करना है।’ लेकिन पिता गोली लाना भूल जाते। वैसे भी उन्हें एलोपैथी में भरोसा नहीं था। कहते, ‘ये एलोपैथी की दवाएँ जितना ठीक करती हैं उतना शरीर में जहर इकट्ठा करती हैं। अपना देसी सिस्टम ठीक होता है।’ नतीजतन माँ हफ्तों बिना दवा के रह जातीं।

फिर वह मनहूस दिन आया जब रोज सबेरे पाँच बजे उठने वाली माँ सोती ही रह गयीं। अफरा-तफरी में पास के अस्पताल ले जाने पर पता चला कि रक्तचाप बढ़ने के कारण मस्तिष्क में रक्तस्राव हो गया। माँ फिर होश में नहीं आयीं। उनके चेहरे पर चारों बच्चों की उम्मीद भरी निगाहें चिपकी थीं, लेकिन उन्होंने दूसरे दिन दोपहर सबसे नाता तोड़ लिया।

पिता उस दिन से गुमसुम हो गये। माँ के सारे कृत्य तो उन्होंने किये, लेकिन वे जैसे गहरे सोच-विचार में डूब गये। बच्चों से भी संवाद न के बराबर हो गया। बच्चे सांत्वना के लिए पिता की तरफ देखते थे, लेकिन पिता कुछ अपनी ही उधेड़बुन में लगे हुए थे। ऐसा लगता था वे सब चीज़ों के प्रति तटस्थ, उदासीन हो गये थे।

माँ की तेरहीं के दिन उन्होंने अचानक विस्फोट कर दिया। घर में जुटे रिश्तेदारों के बीच उन्होंने दोनों हाथ उठाकर घोषणा कर दी, ‘मैं अब सन्यास ले रहा हूँ। सांसारिक रिश्तों को तोड़ रहा हूँ। मेरे पास यह मकान है, दफ्तर में प्राविडेंट फंड का पैसा है। कोई चाहे तो इन सब चीज़ों को ले ले और इन बच्चों की ज़िम्मेदारी सँभाल ले। मेरी तरफ से सब खत्म।’

संबंधियों ने इसे उन पर अचानक आयी विपत्ति और दुख का परिणाम माना। उन्हें समझाया बुझाया, मासूम बच्चों के मुँह की तरफ देखने को कहा। जैसे तैसे उन्हें शान्त कराया गया।

लेकिन इसके दो दिन बाद ही वे बच्चों को सोता छोड़ अचानक गायब हो गये। घर में कोहराम मच गया। पिता से छोटे दो भाई थे, दोनों शहर में ही थे। खबर मिली तो दोनों दौड़े आये। बच्चों को समझाया बुझाया। बड़े चाचा चारों बच्चों को अपने घर ले गये। उनके अपने तीन बच्चे थे— दो बेटे और एक बेटी। अब कुल मिलाकर सात हो गये। बड़े चाचा की जनरल गुड्स की दुकान थी। ठीक-ठाक चलती थी।

पिता गायब हुए हुए तो चार साल तक  गुम ही रहे। बड़े चाचा ने उनके मकान को किराये पर चढ़ा दिया और अपनी बाँहें कुछ और लंबी करके बच्चों को उनमें समेट लिया। गायत्री उनकी सबसे बड़ी बेटी हो गयी। महत्वपूर्ण कामों में उसकी सलाह ली जाने लगी। उनके लिए वे चारों सन्तानें उनके अपने बेटी बेटे थे, भतीजियाँ या  भतीजा नहीं। बड़े चाचा खुद जो भी परेशानी महसूस करते हों, उन्होंने घर में बच्चों को कभी उसकी भनक नहीं लगने दी। कैसी भी चिन्ता हो, वह बच्चों के सामने निश्चिंत और प्रसन्न बने रहते। सब बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया और हैसियत के मुताबिक सब की शादी की। समाज को उनके परिवार में घटी घटना का पता था, इसलिए समाज के लोगों ने उनके साथ काफी उदारता बरती।

चार साल बाद गायत्री के पिता अचानक साधुवेश में प्रकट हुए। आये तो ऐसे जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बच्चों के लिए अब वह एक अजूबा थे। बुलाने पर ही वे पास आते थे। उन्होंने ‘सब ठीक है?’ के छोटे से प्रश्न में सब को समेट कर अपना फर्ज़ पूरा कर लिया। ज़्यादा कुछ पूछना नहीं। पहले जैसे ही बेफिक्र। भाइयों ने उनका हालचाल पूछा तो जवाब मिला, ‘आनन्द ही आनन्द है। सही मार्ग मिल गया। जन्म सुधर गया।’ दो दिन रहकर वे फिर अंतर्ध्यान हो गये। फिर ऐसे ही उनका आना-जाना होने लगा। सब धीरे-धीरे उनके आने जाने के प्रति तटस्थ हो गये।

बेटियों की शादी के बाद वे वहाँ भी गाहे-बगाहे पहुँचने लगे। बस, एकाएक पहुँच जाते  और फिर एक-दो दिन रुक कर अचानक ही पोटली उठाकर चल देते। शुरू में दामादों को उन्हें समझने और उनके साथ ‘एडजस्ट’ करने में दिक्कत हुई, फिर वे भी आदी हो गये।

इस बार गायत्री के घर आने से पहले उन्होंने दोनों भाइयों को खबर दे दी थी कि वहाँ आकर मिलें। सन्तों के प्रवचन सुनने का लाभ भी मिल जाएगा। गायत्री को वे बता चुके थे कि अपने अखाड़े में अब उनकी पोज़ीशन बहुत ऊपर है, बस बड़े महन्त जी के बाद उन्हीं को समझो।

कॉलोनी के लोग उन्हें जानने लगे थे। उनका साधुवेश वैसे भी लोगों को आकर्षित करता था। लोग जान गये थे कि वे मिस्टर त्रिवेदी के ससुर हैं। अब उनके आने पर दो-चार लोग श्रद्धा भाव से उनके पास आ बैठते थे।

दोनों चाचा बड़े भैया के निर्देश पर पहुँच गये। बड़ी चाची भी पहुँचीं। सोचा इसी बहाने गायत्री से भेंट हो जाएगी। जेठ जी के जाने के बाद से वे ही गायत्री और उसके भाई-बहनों की माँ रहीं और उन्होंने अपने ऊपर आयी ज़िम्मेदारी को खूब निभाया भी। कभी भी जेठ जी के बच्चों को अन्तर महसूस नहीं होने दिया। जीवन की कठिन परीक्षा पति-पत्नी दोनों ने खूब अच्छे अंको से पास की। इसीलिए गायत्री पिता के आने से ज़्यादा खुश बड़े चाचा और चाची के आने से हुई।

शाम को सभी लोग प्रवचन सुनने गये। मंच पर प्रवचनकर्ताओं के साथ गायन-मंडली भी विराजमान थी। प्रवचन के बीच में प्रवचनकर्ता गायन शुरू कर देते और संगीत-मंडली वाद्ययंत्रों के साथ उन्हें सहयोग देने में लग जाती। गायत्री, दोनों चाचा और चाची देर तक प्रवचन सुनते रहे। पिता पहले ही वहाँ पहुँच गये थे, लेकिन वे कहीं अन्यत्र व्यस्त थे।

प्रवचन-स्थल के बाहर अनेक दूकानें सजी थीं जिनमें मालाएँ, शंख, पूजा-पात्र, हवन- सामग्री, धार्मिक पुस्तकें, देवियों-देवताओं के चित्र उपलब्ध थे।

रात को पिता आ गये। दोनों भाइयों से बात करते रहे, किन्तु उनकी रूचि पारिवारिक और सामाजिक मसलों में नहीं थी। मित्रों, रिश्तेदारों की सामान्य जानकारी लेकर वे अपने अनुभव सुनाने में लग गये। कहाँ रहे, कहाँ कहांँ घूमे, किन किन सन्तों की संगत की, यह सब बताते रहे। पारिवारिक और सामाजिक प्रसंग उठते ही उनका ध्यान भटकने लगता। उस दुनिया में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।

दूसरे दिन सबेरे स्नान-पूजा से निवृत्त होकर वे जल्दी तैयार हो गये। बोले, ‘आज से यज्ञ शुरू होगा। पति-पत्नी जोड़े से यज्ञ के लिए बैठेंगे। मुझे वहाँ प्रबंध देखना होगा। अब दिन भर वहीं रहना पड़ेगा। आगे का जैसा कार्यक्रम होगा, बताऊँगा।’

वे निस्पृह भाव से चले गये। बेटी या भाइयों को छोड़ने का कोई दुख उनके चेहरे पर दिखायी नहीं पड़ा। घर छोड़कर जाने के बाद वे जितनी बार भी गायत्री के पास लौटे, उन्होंने कभी अपने कदम पर पश्चात्ताप ज़ाहिर नहीं किया, न ही कभी उस प्रसंग को उठाया। जैसे जो उन्होंने किया, सब सामान्य और उचित था।

उनके जाने के बाद बड़े चाचा भावुक हो गये। हाथ जोड़कर बोले, ‘बड़े भाग्यशाली हैं। सही रास्ता मिल गया। लोक-परलोक सुधर गया। एक हम जैसे लोग हैं जो जिन्दगी भर मिट्टी गोड़ते रह गये। खाली हाथ आये, खाली हाथ चले जाएँगे।’

गायत्री पिता द्वारा खाली किये गये कमरे में सामान जमाने में व्यस्त थी। बड़े चाचा की बात सुनकर रुक कर बोली, ‘चाचा जी, अफसोस मत करिए। आपके मिट्टी गोड़ने से हम चार प्राणियों की जिन्दगी मिट्टी होने से बच गयी, वर्ना हमारे तो दोनों लोक बिगड़ने वाले थे। भरोसा रखिए, जिस दिन आपके कर्मों का हिसाब होगा, आप नुकसान में नहीं रहेंगे।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “महबूबा” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा – “महबूबा“.)

☆ लघुकथा – महबूबा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल 

एक वृद्ध महाशय अपनी छड़ी टेकते हुए पार्क में दाखिल हुए। उनके होंठ एक फिल्मी गीत गुनगुना रहे थे।

-आने से उसके आए बहार–बड़ी मस्तानी है मेरी महबूबा—महबूबा।

तभी एकाएक  सामने आई युवती को देखकर वह सकपका गए।

कहीं यह युवती छेड़छाड़ का उलाहना देकर तिल का ताड़ ना बना दे। वृद्धों पर इस तरह के इल्जाम जब तब लगते रहे हैं।

वह रास्ता बदलकर पतली गली से निकलना ही चाहते थे कि तरुणी बोली – ‘दादाजी आप तो इस उम्र में भी इतना अच्छा गा लेते हैं। यह गाना वहां बेंच पर बैठकर सुनाइए न, मजा आ जाएगा।’

वृद्ध महाशय अपनी आंखें झपकाने लगे। यह अजूबा कैसे हुआ, उसे तो इस युवती की अभद्र भाषा से दो चार होना था।

भाव विभोर होकर बोले – अरे कुछ खास नहीं बेटी, मन बहलाने के लिए थोड़ा बहुत गा लेता हूं।

मेरी पत्नी को भी यह गाना पसंद है। छै महीने अस्पताल में रहकर वह आज ही घर लौटी है। मैं गाने को उसे सुनाने के लिए रिहर्सल कर रहा हूं।

उधर युवती सोच रही थी – कौन कहता है कि सारे बुजुर्ग एक से होते हैं जो अपने चेहरे पर एक दूसरा चेहरा लगाकर  घर से बाहर निकलते हैं। जिन पर महिलाओं को छेड़छाड़  का इल्जाम जब तब लगता रहता है।

युवती के चेहरे पर एक गुनगुनी मुस्कान खेलने लगी। उसे लगा कि यह वृद्ध महाशय थोड़ी देर के लिए ही सही अपने जवान जिस्म में परिवर्तित हो गए हैं और वह उनकी महबूबा बन गई हैं।

❤️

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 142 ☆ लघुकथा – पर्दा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा पर्दा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 142 ☆

☆ लघुकथा – पर्दा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘पापा! आज भाई ने फिर से फोन पर बहुत अपशब्द बोले।‘  

‘बेटी! उसकी बात एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दिया करो।‘

‘पर आप दोनों से भी हर वक्त इतने अपमानजनक  ढंग से  बात करता है,अनाप- शनाप बोलता रहता है आपके लिए।‘

‘इकलौता बेटा है  हमारा, हमसे बात नहीं करेगा क्या? थोड़ा कड़वा बोलता है पर ?  पिता मुस्कुराकर – ‘अपने भाई साहब की बातों को  प्रवचन की तरह सुना करो, जो नहीं चाहिए, उसे छोड़ दो। ‘

‘हमसे सहन नहीं होता है अब यह सब, फोन नहीं उठाऊँगी उसका, बात ही नहीं करनी है हमें उससे। ‘

‘ऐसा नहीं कहते बेटी! एक ही तो भाई है तुम्हारा।‘ 

‘और मेरा क्या? मैं भी तो इकलौती बहन हूँ उसकी ?

‘भाई के मान – सम्मान का ध्यान रखो बेटी!‘

‘मेरा मान-सम्मान?’

‘तुम अपना कर्तव्य करो, बस—-’

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #177 – बाल कथा – नकचढ़ा देवांश… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कथा – नकचढ़ा देवांश)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 177 ☆

☆ बाल कथा – नकचढ़ा देवांश ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

देवांश की शैतानियां कम नहीं हो रही थी। वह कभी राजू को लंगड़ा कह कर चढ़ा दिया करता था, कभी गोपी को गेंडा हाथी कह देता था। सभी छात्र व शिक्षक उससे परेशान थे।

तभी योगेश सर को एक तरकीब सुझाई दी। इसलिए उन्होंने को देवांश को एक चुनौती दी।

“सरजी! मुझे देवांश कहते हैं, ” उसने कहा, “मुझे हर चुनौती स्वीकार है। इसमें क्या है? मैं इसे करके दिखा दूंगा, ”  कहने को तो देवांश ने कह दिया। मगर, उसके लिए यह सब करना मुश्किल हो रहा था।

ऐसा कार्य उसने जीवन में कभी नहीं किया था। बहुत कोशिश करने के बाद भी वह उसे कर नहीं पा रहा था। तब योगेश सर ने उसे सुझाया, “तुम चाहो तो राजू की मदद ले सकते हो।”

मगर देवांश उससे कोई मदद नहीं लेना चाहता था। क्योंकि वह उसे हमेशा लंगड़ा-लंगड़ा कहकर चिढ़ाता था। इसलिए वह जानता था राजू उसकी कोई मदद नहीं करेगा।

कई दिनों तक वह प्रयास करता रहा। मगर वह नहीं कर पाया। तब वह राजू के पास गया। राजू उसका मंतव्य समझ गया था। वह झट से तैयार हो गया। बोला, “अरे दोस्त! यह तो मेरे बाएं हाथ का काम है।” कहते हुए राजू अपने एक पैर से दौड़ता हुआ आया, झट से हाथ के बल उछला। वापस सीधा हुआ। एक पैर पर खड़ा हो गया, “इस तरह तुम भी इसे कर सकते हो।”

देवांश का एक पैर डोरी से बना हुआ था। वह एक लंगड़े छात्र के नाटक का अभिनव कर रहा था। मगर वह एक पैर पर ठीक से खड़ा नहीं हो पा रहा था। अभिनव करना तो दूर की बात थी।

तभी वहां योगेश सर आ गए। तब राजू ने उनसे कहा, “सरजी, देवांश की जगह यह नाटक मैं भी कर सकता हूं।”

“हां, कर तो सकते हो, ” योगेश सर ने कहा, “इससे बेहतर भी कर सकते हो। मगर उसमें वह बात नहीं होगी, जिसे देवांश करेगा। इसके दोनों पैर हैं। यह इस तरह का अभिनव करें तो बात बन सकती है। फिर देवास ने चुनौती स्वीकार की है। यह करके बताएगा।”

यह कहते हुए योगेश सर ने देवांश की ओर आंख ऊंचका कर कर पूछा, “क्यों सही है ना?”

“हां सरजी, मैं करके रहूंगा, ” देवांश ने कहा और राजू की मदद से अभ्यास करने लगा।

राजू का पूरा नाम राजेंद्र प्रसाद था। सभी उसे राजू कह कर बुलाते थे। बचपन में पोलियो की वजह से उसका एक पैर खराब हो गया था। तब से वह एक पैर से ही चल रहा था।

वह पढ़ाई में बहुत होशियार था। हमेशा कक्षा में प्रथम आता था। सभी मित्रों की मदद करना, उन्हें सवाल हल करवाना और उनकी कॉपी में प्रश्नोत्तर लिखना उसका पसंदीदा शौक था।

उसके इसी स्वभाव की वजह से उसने देवांश की भरपूर मदद की। उसे खूब अभ्यास करवाया। नई-नई तरकीब सिखाई। इस कारण जब वार्षिक उत्सव हुआ तो देवांश का लंगड़े लड़के वाला नाटक सर्वाधिक चर्चित, प्रशंसनीय और उम्दा रहा।

देवांश का नाटक प्रथम आया था। जब उसे पुरस्कार दिया जाने लगा तो उसने मंचन अतिथियों से कहा, “आदरणीय महोदय! मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूं।”

“क्यों नहीं?” मंच पर पुरस्कार देने के लिए खड़े अतिथियों में से एक ने कहा, “आप जैसे प्रतिभाशाली छात्र की इच्छा पूरी करके हमें बड़ी खुशी होगी। कहिए क्या कहना है?” उन्होंने देवांश से पूछा।

तब देवांश ने कहा, “आपको यह जानकर खुशी होगी कि मैं इस नाटक में जो जीवंत अभिनव कर पाया हूं वह मेरे मित्र राजू की वजह से ही संभव हुआ है।”

यह कहते ही हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। देवांश ने कहना जारी रखा, “महोदय, मैं चाहता हूं कि आपके साथ-साथ मैं इस पुरस्कार को राजू के हाथों से प्राप्त करुं। यही मेरी इच्छा है।”

इसमें मुख्य अतिथि को भला क्या आपत्ति हो सकती थी। यह सुनकर वह भावविभोर हो गए, “क्यों नहीं। जिसका मित्र इतना हुनरबंद हो उसके हाथों दिया गया पुरस्कार किसी परितोषिक से कम नहीं होता है, ” यह कहते हुए अतिथियों ने ताली बजा दी।

“कौन कहता है प्रतिभा पैदा नहीं होती। उन्हें तराशने वाला चाहिए, ” भाव विह्वल होते हुए अतिथियों ने कहा, “हमें गर्व है कि हम आज ऐसे विद्यालय और छात्रों के बीच खड़े हैं जिनमें परस्पर सौहार्द, सहिष्णुता, सहृदयता, सहयोग और समन्वय का संचार एक नदी की तरह बहता है।”

तभी राजू अपने लकड़ी के सहारे के साथ चलता हुआ मंच पर उपस्थित हो गया।

अतिथियों ने राजू के हाथों देवांश को पुरस्कार दिया तो देवांश की आंख में आंसू आ गए। उसने राजू को गले लगा कर कहा, “दोस्त! मुझे माफ कर देना।”

“अरे! दोस्ती में कैसी माफी, ” कहते हुए राजू ने देवांश के आंसू पूछते हुए कहा, “दोस्ती में तो सब चलता है।”

तभी मंच पर प्राचार्य महोदय आ गए। उन्होंने माइक संभालते हुए कहा, “आज हमारे विद्यालय के लिए गर्व का दिन है। इस दिन हमारे विद्यालय के छात्रों में एक से एक शानदार प्रस्तुति दी है। यह सब आप सभी छात्रों की मेहनत और शिक्षकों परिश्रम का परिणाम है कि हम इतना बेहतरीन कार्यक्रम दे पाए।”

प्राचार्य महोदय ने यह कहते हुए बताया, “और सबसे बड़ी खुशी की बात यह है कि राजू के लिए जयपुर पैर की व्यवस्था हमारे एक अतिथि महोदय द्वारा गुप्त रूप से की गई है। अब राजू भी उस पैर के सहारे आप लोगों की तरह समान्य रूप से चल पाएगा।” यह कहते हुए प्राचार्य महोदय ने जोरदार ताली बजा दी।

पूरा हाल भी तालियों की हर्ष ध्वनि से गूंज उठा। जिसमें राजू का हर्ष-उल्लास दूना हो गया। आज उसका एक अनजाना सपना पूरा हो चुका था।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

02-02-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 29 – मूक मौन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – कर्तव्य।)

☆ लघुकथा – कर्तव्य श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

डॉक्टर समीर एक दिन अपने साथ अपने घर में एक व्यक्ति को लेकर आए उनकी पत्नी  ने कहा यह कौन है और इससे कैसे घाव हुआ है इसका खून तो बहुत बह रहा  है। यह तो गोली लगने का निशान लग रहा है उसे डांट के कहा अभी मैं इसको अपनी डिस्पेंसरी में ले जा रहा हूं और इसका मुझे इलाज करने दो ।

आपसे सवाल करना यह एक सिपाही है?

पत्नी चुपचाप हो गई और डॉक्टर ने उसका इलाज किया और उसे अपने घर के मेहमानों वाले कमरे में । समीर सेना में डॉक्टर  के पद पर कार्यरत था उसने ये घटना अपने एडमिरल को बताई और कहा कि सर दुश्मन देश का एक सिपाही मुझे समुद्र के किनारे घायल  मिला उसकी यह हालत देख कर मैंने उसे वहीं छोड़ देना चाहा लेकिन मैं उसे छोड़ ना सका मैंने उसका इलाज करके अपने घर में रखा है अब मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मैं क्या करूं?

आप एक बहुत अच्छे डॉक्टर हैं और आपको यह बात याद होनी चाहिए कि आपको  देश के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य निभाने हैं, यह बहुत गलत किया इस बात के लिए तुम्हें नौकरी से भी निकाला जा सकता है तुम एक बहुत अच्छे डॉक्टर हो।  इसलिए उसे उसी समुद्र के किनारे जाकर छोड़ दो…

नहीं  मैं दो आदमियों को भेजता हूं और वे उसे गोली मार देंगे और अचानक वह बिस्तर से नीचे गिर पड़ा …।

समुद्र के किनारे दूसरे देश की सीमा के पास छोड़ आया।

संतुष्टि थी, कि उसने देश और डॉक्टर दोनों का कर्त्तव्य निभाया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 107 – जीवन यात्रा : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी ।

☆ कथा-कहानी # 107 –  जीवन यात्रा : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अंकुरित वत्स, ईश्वर से प्राप्त ब्रम्हांडीय आश्वासन से आश्वस्त होकर जब अंधकार का आदी हो गया तो अगली अवस्था थी “विचलन याने movement”. बाहर की दुनियां में जो भविष्य में उसकी भी दुनिया होने वाली है, उसके बहुत हल्के से विचलन पर उठते रोमांचक भावनाओं के तूफान से वो अनिभिज्ञ ही रहा. निर्धारित अंतराल के पश्चात प्रसव की प्रक्रिया से हुये जन्म से, उसका सामना हुआ तेज “प्रकाश” से. अंधकार के comfort zone के अभ्यस्त जीव को ये परिवर्तन असहनीय लगा तो फिर “भय” प्रस्फुटित हुआ जिसका परिणाम था “रुदन”. पर इस नये वातावरण के अभ्यस्त जीवों के लिये, ये हर्ष और उल्हास का विषय था. जन्म लिये जीव ने अपनी व्यथा, फिर से ईश्वर को संप्रेषित करने की कोशिश की पर जन्म के साथ ही अब उसके लिये ईश्वर से ब्रम्हांडीय संप्रेषण Universal Streight Dialling की सुविधा समाप्त हो चुकी थी. अब जन्म लिये वत्स को संप्रेषण इस दुनियां के जीवों से ही करने की पात्रता थी और संप्रेषण का उसके पास सिर्फ और सिर्फ रुदन ही एकमात्र माध्यम था जिसमें समय के साथ ही उपयोग की महत्ता और अभ्यस्तता आनी थी. पर इस रुदन के बाद उसे उपहार मिलता था स्पर्श और उष्मा का. ये स्पर्श और उष्मा उसे सुरक्षा की अनुभूति कराती थीं. कुछ दिनों में ही जीव वत्स अपने अंधकार और पोषण युक्त पर अभी अभी निष्कासित आशियाने के मालिक को पहचानने लगा. हालांकि अभी वह मालिक और मालकिन के भेद से अनजान था. पर इतना तो उसे अनुभव हो चुका था कि इस नई जगह में उसे स्पर्श, उष्मा और पोषण के रूप में सुरक्षा देने वाला यही इंसान है. English तो क्या कोई भी अक्षर, शब्द, भाषा उसके तरकश में नहीं थी वरना Caretaker जैसी टर्मिनालॉजी का प्रयोग तो अवश्य ही अपनी जीवनदायिनी के लिये कर ही लेता. इसके अलावा भी कभी कभी एक कठोर स्पर्श भी उसके अनुभव में आता, पर शुरुआत में भयभीत या uncomfortable होने पर वह अपना रुदन रूपी अस्त्र प्रयोग करने लगता.

यात्रा जारी रहेगी 👼👼👼

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 197 – ब्रम्ह कमल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “ब्रम्ह कमल”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 197 ☆

🌻 लघु कथा 🌻 ब्रम्ह कमल 🌻

भोर होते ही श्वेत दमकता मनमोहक हरी लताओं के बीच देवी प्रसाद – माया जी के यहाँ बगीचे में ब्रम्ह कमल खिला।

चेहरे पर असीम शांति, मन उत्साह उमंग से भरपूर कि आज कुछ शुभ संदेश मिलेगा।

कांपते हाथों से, मोबाइल ले दोनों को जैसा बना कई बार तस्वीरें खींचे और, बेटा – बेटी को शेयर किया।

जो दूर परदेश अपने – अपने परिवारों के साथ रहते थे।

लिखा – – ‘बच्चों आज हमारे आँगन में ब्रम्ह कमल खिला। तुम सब भी होते तो देखते। बड़े ही सौभाग्य से ये पुष्प खिलता है।’

बिटिया रानी ने तो मुस्कुराते ईमोजी बनाकर भेज दिया। परन्तु बेटा जो कभी फोन में बात भी करना पसंद नही करता, आज मेसेज लिखा–“आप क्या समझते हैं, तस्वीर को सब को दिखाऊँ। यहाँ इससे भी कई प्रकार के फ्लावर मैने अपने रुम में सजा कर रखा है। लोटस दिखाकर आप मुझसे लौटने की उम्मीद मत करना।बेहतर होगा आप जितनी जल्दी हो सके ये बातें समझ जायें।”

पिता जी रिटायर्ड परसन थे। आँखों में अश्रुं दबाते, ऊँगली मोबाइल पर चल पड़ी – – ‘सुना था ब्रम्ह कमल खिलने पर कुछ शुभ संदेश मिलता है। Thanks to God! !’ 🙏🙏👍

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – मृत्यु के पाँव – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है  मारीशस में गरीब परिवार  में बेटी की शादी और सामजिक विडम्बनाओं पर आधारित लघुकथा “मृत्यु के पाँव।) 

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — मृत्यु के पाँव — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

एक विस्मयकारी कहानी लिखने का मैं साहस कर रहा हूँ। चोर ने एक घर से बहुत पैसा चुराया, लेकिन तभी कुत्ते भौंकने लगे। भागने की प्रक्रिया में पैसे का थैला कहीं गिर गया। उस पैसे के लिए वह तड़पता था। उसने अपनी मृत्यु के दिन उस पैसे का साक्षात्कार किया। पैसा एक सूखे गहरे चट्टानी कुएँ में पड़ा हुआ था। उसने कुएँ में छलांग लगा दी। तभी उसका परिवार रो पड़ा। घर में उसकी मृत्यु का शोक छा गया।

© श्री रामदेव धुरंधर

15 – 06 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Short Stories ☆ ‘शाश्वत’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Eternal…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi short story “शाश्वत.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि –  लघुकथा – शाश्वत ? ?

– क्या चल रहा है इन दिनों?

– कुछ ख़ास नहीं। हाँ पिछले सप्ताह तुम्हारी ‘अतीत के चित्र’ पुस्तक पढ़़ी।

– कैसी लगी?

– बहुत अच्छी। तुमने अपने बचपन से बुढ़ापे तक की घटनाएँ ऐसे लिखी हैं जैसे सामने कोई फिल्म चल रही हो।….अच्छा एक बात बताओ, इसमें हमारे प्रेम पर कुछ क्यों नहीं लिखा?

– प्रेम तो शाश्वत है। प्रेम का देहकाल व्यतीत होता है पर प्रेम कभी अतीत नहीं होता। बस इसलिए न लिखा गया, न लिखा जाएगा कभी।

© संजय भारद्वाज  

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

?~ Short story – Eternal ~??

?

– What is going on these days?

– Nothing special. Yes, I read your book ‘Ateet ke Chitra’ –the Images of Past, last week.

– How did you like it?

– Very good. You have written the events from your childhood to old age as if a movie is playing in front of the eyes.….but…

Tell me one thing, why haven’t you written anything about our love in it?

– Love is eternal. The physical life of love passes but love never becomes the past.

It’s eternal. That’s why it was never written, nor will it ever be written.

?

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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