हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ डॉ लता अग्रवाल की हिन्दी लघुकथा ‘अर्धांगिनी’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। )

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम डॉ लता अग्रवाल जी  की  मूल हिंदी लघुकथा  ‘अर्धांगिनी’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद ‘अर्धांगिनी

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डॉ लता अग्रवाल

(सुप्रसिद्ध हिंदी वरिष्ठ साहित्यकार  एवं शिक्षाविद डॉ लता अग्रवाल जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है । आप महाविद्यालय में प्राचार्य पद  पर सेवारत हैं । प्रकाशन शिक्षा पर – 16 पुस्तकें, कविता संग्रह –4,  बाल साहित्य – 5, कहानी संग्रह – 2, लघुकथा संग्रह – 5, साक्षात्कार संग्रह –1, उपन्यास – 1, समीक्षा – 3, लघुरूपक – 18 । पिछले 10 वर्षों से आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर संचालन, कहानी तथा कविताओं का प्रसारण, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में रचनाएँ प्रकाशित | )

☆ अर्धांगिनी 

“अच्छा ! माँ –बाबा ! मैं चलता हूँ।”

“कितनी बार कहा है चलता हूँ नहीं आता हूँ कहते हैं बेटा।” मां ने गंभीर चेहरे पर बनावटी शिकायत का भाव लाते हुए कहा।

“ओह हां ! आता हूं माँ –बाबा।” अभी 8 ही दिन हुए हैं अवधेश के विवाह को, पूरे 1 माह की छुट्टी लेकर आया था, विवाह के पश्चात पत्नी को कहीं मनोरम स्थान पर घुमाने ले जायेगा …दोनों एक दूसरे के मन के भाव जानेंगे, मगर अटारी बॉर्डर पर हुए सैनिक हमले में कई सैनिक मारे गए अतः हेड ऑफिस से कॉल आया,

‘लेफ्टिनेंट अवधेश ! इमीजियेट ज्वाइन योर ड्यूटी।’ आदेश पाते हैं अवधेश ने जब अपनी नवविवाहित पत्नी से सकुचाते हुए कहा,

“सीमा ! हेड क्वार्टर से बुलावा आया है मुझे अर्जेंट ही जाना होगा।”

“क्या कल ही चले जायेंगे ?”

“हां ! अलसुबह निकलना होगा।”

“कुछ दिन और नहीं रुक सकते।” सीमा ने आत्मीय भाव से पूछा।

“नहीं सीमा उधर बॉर्डर पर मेरी आवश्यकता है …मेरा इंतजार हो रहा होगा। पता नहीं मेरे कौन-कौन साथी …।” अपने अनजाने खोये साथियों के शोक की कल्पना में अवधेश के स्वर डूब गये।

“फिर कब लौटना होगा ?”

“कह नहीं सकता …जब तक सीमा पर शांति बहाल ना हो या …शायद ……।”

“बस आगे कुछ मत कहिए, अच्छा सोचिये सब शुभ होगा।” सीमा ने पति के होठों पर प्यार से उंगली रखते हुए कहा।

“मैं जानता हूँ सीमा यह सप्ताह तुम्हारा रीति रिवाजों की औपचारिकता और मेहमान नवाजी के बीच बीत गया और अब हमें अपना हनीमून भी कैंसिल करना होगा मैं तुम्हें कुछ नहीं दे पाया उल्टे अब घर की मां -बाबा की देखभाल भी तुम्हें सौंपे जा रहा हूं। ” अवधेश ने सीमा को सीने से लगाते हुए कहा।

“आप चिंता मत कीजिए जी, हम सैनिकों की पत्नियों को ईश्वर अतिरिक्त साहस और धैर्य देकर भेजता है। आप निश्चिंत रहें आपके लौटने तक मैं मां -बाबा का पूरा ख्याल रखूंगी और आपका इंतजार करूंगी।” पत्नी ने अवधेश के मन का बोझ उतार दिया। अत: आज जाते हुए अवधेश स्वयं को  हल्का महसूस कर रहा था अपना प्रतिनिधि मां -बाबा की सेवा के लिए जो छोड़े जा रहा था। जाते हुए घर के बाहर गांव के कई लोग जमा थे बुजुर्ग कह रहे थे,

‘गांव के अपने इस लाड़ले पर हमें नाज है।’ युवा, बच्चे सभी अवधेश को सैल्यूट देते हुए,

‘जय हिन्द अवधेश भैय्या’ कह रहे थे।  दूर दहलीज पर पर्दे की ओट में खड़ी सीमा की ओर देखते हुए आंखों में कृतज्ञता का भाव लिए अवधेश ने एक जोरदार सैल्यूट दिया,

‘थैंक्स अर्धांगिनी, सही मायने में सैनिक तो तुम हो जो अपने जीवन के अमूल्य पल हंसते- हंसते हम पर कुर्बान कर देती हो।’ भाव सीमा तक पहुंच गये थे, उसके मुट्ठी के कसाव ने पर्दे  को जोर से भींच लिया ।

© डॉ लता अग्रवाल

भोपाल, मध्यप्रदेश मो – ९९२६४८१८७८

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☆ अर्धांगिनी 

(मूळ  रचना –  डॉ लता अग्रवाल भोपाल  अनुवाद – उज्ज्वला केळकर  )

 ‘अच्छा! आई-बाबा मी जातो.’

‘किती वेळा सांगितलं, जातो, नाही येतो, म्हणावं रे!’ आई गंभीर चेहर्‍याने  खोट्या तक्रारीच्या सुरात म्हणाली.

‘ओह! येतो!’

अवधेशाच्या विवाहाला अद्याप आठ दिवससुद्धा झाले नव्हते. चांगली एक महिन्याची सुट्टी घेऊन आला होता तो. विवाहानंतर पत्नीला एखाद्या निसर्गरम्य ठिकाणी तो घेऊन जाणार होता. दोघांना एकमेकांच्या मनातले भाव नीटपणे जाणून घेता येतील. पण अटारी बॉर्डरवर सैनिकांवर आक्रमण झाले. अनेक सैनिक मारले गेले. हेड ऑफिसमधून त्याला कॉल आला, ’लेफ्टनंट अवधेश, ताबडतोब तुमच्या ड्यूटीवर हजार व्हा.’ आदेश मिळताच अवधेश आपल्या नवपरिणीत पत्नीला संकोचत म्हणाला, ‘सीमा, हेडक्वार्टरवरून आदेश आलाय, मला लगेचच निघायला हवं!’

‘उद्याच निघणार?’

‘हो! उद्या पहाटेच निघायला हवं’

‘आणखी काही दिवस नाही थांबू शकणार?’ सीमानं आत्मीयतेने विचारलं .

‘नाही सीमा, तिकडे बॉर्डरवर माझी वाट बघत असतील. कुणास ठाऊक माझे कोण कोण साथी…’ आपल्या अज्ञात हरवलेल्या साथिदारांच्या शोकाच्या कल्पनेने अवधेशचा स्वर भिजून गेला.

‘परत कधी येणं होईल?’

‘काही सांगता येत नाही. जोपर्यंत सीमेवर शांतीचा वातावरण… किंवा मग…’

‘बस… बस .. पुढे काही बोलू नका. चांगला विचार करा. सगळं शुभ होईल. सीमा पतीच्या ओठांवर बोट ठेवत म्हणाली.’

‘सीमा, हा आठवडा रीती-रिवाजांची औपचारिकता आणि पाहुण्यांचे आदरसत्कार करण्यात निघून गेला॰ आता तर आपल्याला आपला हनीमूनही कॅन्सल करावा लागतोय. मी तुला काहीच देऊ शकलो नाही. उलट आई-बाबांना सांभाळण्याची जबाबदारी तुझ्यावर सोपवून चाललोय.’ सीमाला छातीशी कवटाळत अवधेश म्हणाला.

‘आपण काळजी करू नका. आम्हा सैनिकांच्या पत्नींना ईश्वर अतिरिक्त साहस आणि धैर्य देऊन पाठवत असतो. आपण निश्चिंत रहा. आपण येईपर्यंत आई-बाबांची मी नीट काळजी घेईन आणि आपली वाट पाहीन.’ सीमाने अवधेशच्या मनावर असलेला भार  हलका केला. त्यामुळे आज घरातून बाहेर पडताना अवधेशला अगदी हलकं हलकं वाटत होतं॰ आपल्या आई-बाबांची सेवा करण्यासाठी तो आपला प्रतिनिधी मागे ठेवून जात होता. तो घराबाहेर पडला, तेव्हा बाहेर किती तरी लोक त्याला निरोप देण्यासाठी जमा झाले होते. ज्येष्ठ मंडळी म्हणत होती, ‘गावाच्या या लाडक्या मुलाचा आम्हाला अभिमान आहे.’ तरुण , मुले सगळे अवधेशला सॅल्यूट देत म्हणत होते, ‘जय हिंद अवधेशभैय्या!’ दूर उंबरठ्यावर पडद्याआड उभ्या असलेल्या सीमाकडे बघताना त्याच्या डोळ्यात कृतज्ञता होती. अवधेशने तिला एक जोरदार सॅल्यूट देत, तो डोळ्यांनीच म्हणाला , ‘थॅंक्स अर्धांगिनी खर्‍या अर्थाने तूच सैनिक आहेस. आपल्या जीवनातले अमूल्य क्षण तू हसत हसत आमच्यावरून ओवाळून टाकतेस.’

त्याच्या मनातले भाव सीमापर्यंत पोचले. तिच्या मुठीने पडद्याची कड घट्ट धरून ठेवली.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 38 ☆ लघुकथा – जिज्जी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी महानगरीय जीवनशैली पर विमर्श करती लघुकथा जिज्जी।  आज भी हम जीवन में ऐसे  संबंधों को निभाते हैं  जिसकी अपेक्षा अपने रिश्तेदारों से भी नहीं कर सकते हैं। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 38 ☆

☆  लघुकथा – जिज्जी

किसी ने बडी जोर से दरवाजे भडभडाया,  ऐसा लगा जैसे कोई दरवाजा तोड ही देगा , अरे ! जिज्जी होंगी, सामने घर में रहती हैं, बुजुर्ग हैं, हमारे सुख – दुख की साथी. जब से शादी होकर आई हूँ इस मोहल्ले में माँ की तरह मेरी देखभाल करती रही हैं, सीढी नहीं चढ पातीं इसलिए नीचे खडे होकर अपनी छडी से ही दरवाजा खटखटाती हैं – सरोज बोली.  यह सुनकर मैं मुस्कुराई कि तभी आवाज आई – तुम्हारी दोस्त है तो हम नहीं मिल सकते क्या ?  हमसे मिले बिना चली जाएगी ? नहीं जिज्जी, हम उसे लेकर आपके पास  आते हैं . लाना जरूर,  यह कहकर जिज्जी छडी टेकती हुई अपने घर की ओर चल दीं. पतली गली के एक ओर सरोज और दूसरी ओर उनका घर था. दरवाजे पर खडे होकर भी आवाज दो तो सुनाई पड जाए. गली इतनी सँकरी कि  दोपहिया वाहन ही उसमें चल सकते थे. गलती  से अगर गली में गाय – भैंस आ जाए फिर तो  उसके पीछे – पीछे   गली के अंत तक जाएं या खतरा मोल लेकर उसके बगल से भी आप जा सकते हैं.

सरोज बोली – जिज्जी से मिलने तो जाना ही पडेगा,  नहीं तो बहुत बुरा मानेंगी. हमें देखते ही वह खुश हो गईं,बोली – आओ बैठो,  सरोज भी बैठने ही वाली थी कि बोली- अरे तुम बैठ जाओगी तो चाय, नाश्ता कौन लाएगा ? जाओ रसोई में, हाँ  जिज्जी  कहकर वह चाय बनाने चली गई.  जिज्जी बडे स्नेह से बात करे जा रही थीं और मैं उन्हें देख रही  थी. उम्र सत्तर से अधिक ही  होगी, सफेद साडी और सूनी मांग  उनके वैधव्य के सूचक  थे. सूती साडी के पल्ले से आधा सिर ढंका था जिसमें से  सफेद घुंघराले बाल दिख रहे थे. गांधीनुमा चश्मे में से बडी – बडी आँखें झाँक रही थीं.हाथों में  चाँदी के कडे पहने थीं. झुर्रियों ने चेहेरे को और ममतामय बना  दिया था. बातों ही बातों में  जिज्जी ने बता दिया कि बेटियां अपने घर की हो गईं और बेटे अपनी बहुओं के. सरोज तब तक चाय, नाशता ले आई,उसकी ओर देखकर बोलीं- हमें अब किसी की जरूरत भी नहीं है, डिप्टी साहब ( उनके पति ) की पेंशन मिलती है और ये है ना हमारी सरोज,  एक आवाज पर  दौडकर आती है. बिटिया हमारे लिए तो आस-  पडोस ही सब कुछ है, ये लोग ना होते तो कब के मर खप गए होते.

जिज्जी, बस भी करिए अब,  बीमारी -हारी में आप ही तो रहीं हैं  हमारे साथ, मेरे बच्चे इनकी गोद में बडे हुए हैं, जगत अम्माँ हैं ये —-  सरोज और जिज्जी एक दूसरे की कुछ भी ना होकर बहुत कुछ थीं. कहने को ये दोनों पडोसी ही थीं, जिज्जी  का  स्नेहपूर्ण अधिकार और सरोज का सेवा भाव मेरे लिए अनूठा था. महानगर की फ्लैट संस्कृति में रहनेवाली  मैं  हतप्रभ थी जहाँ डोर बैल बजाने पर ही दरवाजा खुलता है नहीं तो सामने के दरवाजे पर लगी नेमप्लेट  मुँह चिढाती रहती है . दरवाजा  खुलने और बंद होने में घर के जो लोग दिख जाएं बस वही परिचय, बाकी कुछ नहीं, सब एक दूसरे से अनजान, अपरिचित. फ्लैट से निकले  अपनी गाडियों में  बैठे और  चल दिए, लौटने पर  दरवाजा खुला और फिर अगली सुबह तक के लिए बंद.

मन ही मन बहुत कुछ समेटकर जब  मैं चलने को हुई, जिज्जी छडी टेकती हुई उठीं – हमारा बटुआ लाओ सरोज, बिटिया पहली बार हमारे घर आई है,  जिज्जी  टीका करने के लिए बटुए में  नोट ढूंढने लगीं.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 57 – जालसाज ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “जालसाज। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 57 ☆

☆ लघुकथा – जालसाज ☆

 

“आप को अध्यक्ष महोदय ने फोन किया था कि मेरी बेटी का चिकित्सा में प्रवेश हो जाना चाहिए. आप ने पूरी गारंटी ली और हम ने आप के कहे अनुसार काम किया. पूरा पैसा भी दिया. मगर आप ने मेरा काम नहीं किया ?” लड़की का पिता अपनी बेटी के चिकित्सा महाविद्यालय में चयन न होने पर नाराज था.

“वह तो अच्छा हुआ मुझे सदबुद्धि आ गई और मैं सरकारी गवाह बन गया, वरना तुम, तुम्हारी लड़की और अध्यक्ष महोदय भी मेरे साथ जेल में होते या फिर मेरा भी रामनाम सत्य हो गया होता.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

१७/०७/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ बहू-बेटी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ बहू-बेटी

*पुनर्पाठ में आज एक लघु कथा-

“भाईसाहब प्रणाम! कैसे हैं?” उस दिन समाज के परिचय सम्मेलन में वे मिल गये थे।

“जरा अनुकंपा रखो छोटे भाई पर भी।”

“क्या बात है”, मैंने गंभीरता से पूछा।

“आपका भतीजा इंजीनियर होकर आई.टी. में दो साल से नौकरी पर है। बढ़िया पैकेज है। कोई अच्छी लड़की बताओ। विशेष मांग नहीं है अपनी पर हाँ शादी अपने स्टेटस की हो। खास बात यह कि लड़की, बेटे को सूट करने वाली ऊँची लिखी-पढ़ी हो लेकिन पूरी घरेलू हो। लड़की जात मेहनती तो होनी ही चाहिए। वैसे भी अपना बड़ा परिवार है। आकर सारा घर संभाल ले”, एक साँस में कह गये वे।

कुछ रोज़ बाद फिर टकरा गये एक शादी में।

“भाईसाहब प्रणाम!….आपके भतीजे का रिश्ता ले लिया है आपके आशीर्वाद से। वो आपने बताया था न, अपने साधुराम जी की पोती से ही तय हुआ है। तारीख निकलते ही हाजिर होता हूँ। पहला कार्ड तो आपको देना बनता ही है।

….जी भाईसाहब एक अनुकंपा और करो।”

“कहिये, आपके किस काम आ सकता हूँ?”

“अपनी टीकू भी ब्याह लायक हो गई है। कोई ढंग का लड़का बताओ। शादी जैसी बताएँगे, कर देंगे। हाँ बस देखना कि परिवार छोटा हो। हो सके तो लड़का अकेला ही रहता हो। सारे सुख हों। अपनी टीकू को पानी का गिलास भी उठाकर न पीना पड़े।”

नमस्ते कर मैं बाहर निकला। सामने सरकारी अस्पताल की दीवार पर स्लोगन लिखा था,  ‘दोनों घर की शान, बहू-बेटी एक समान।’

 

©  संजय भारद्वाज

2 नवंबर 2017, रात्रि 9:30 बजे।

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 37 – बापू के संस्मरण-11- निर्दोष प्राणी की बलि से देवी प्रसन्न नहीं होती…… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण –  निर्दोष प्राणी की बलि से देवी प्रसन्न नहीं होती…… ”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 37 – बापू के संस्मरण – 11 – निर्दोष प्राणी की बलि से देवी प्रसन्न नहीं होती……

एक दिन बिहार के चम्पारन जिले के एक गांव से होकर लोगों का एक जुलूस देवी के स्थानक की ओर जा रहा था । संयोग से गांधीजी उस दिन उसी गांव में ठहरे हुए थे, जब वह जुलूस गांधीजी के निवास के पास से होकर गुजरा तो उसका शोर सुनकर उनका ध्यान उसकी ओर गया।  पास बैठे हुए एक कार्यकर्ता से उन्होंने पूछा ~यह कैसा जुलूस है? और ये इतना शोर क्यों मचा रहे हैं। ” कार्यकर्ता पता लगाने के लिए बाहर आया ही था कि उत्सुकतावश वह स्वयं भी बाहर आ गये और सीधे जुलूस के पास चले गये ।

उन्होंने देखा कि सबसे आगे एक हट्टा-कट्टा बकरा चला जा रहा है। उसके गले में फूलों की मालाएं पड़ी हुई हैं और माथे पर टीका लगा हुआ है। वह समझ गये कि यह बलि का बकरा है। क्षण-भर में अंधविश्वास में डूबे हुए इन भोले-भाले लोगों का सजीव चित्र उनके मस्तिष्क में उभर आया। हृदय करुणा से भीग गया। थोड़ी देर तक इसी विचार में डूबे वह जुलूस के साथ चलते रहे। लोग अपनी धुन में इतने मस्त थे कि वे यह जान ही नहीं सके कि गांधीजी उनके साथ-साथ चल रहे हैं। जुलूस अपने स्थान पर पहुंचा। बकरे का बलिदान करने के लिए विधिवत् तैयारी होने लगी।

तभी गांधीजी उन लोगों के सामने जा खड़े हुए। कुछ लोग उन्हें पहचानते थे। निलहे गोरों के अत्याचार के विरुद्ध वही तो उनकी सहायता करने आये थे। उन्हें अपने सामने देखकर वे चकित हो उठे । तभी गांधीजी ने उनसे पूछा, “इस बकरे को आप लोग यहां क्यों लाये है?” सहसा किसी को कुछ कहते न बना । क्षण भर बाद एक व्यक्ति ने साहस करके कहा, “देवी को प्रसन्न करने के लिए।” गांधीजी बोले “आप देवी को प्रसन्न करने के लिए बकरे की भेंट चढ़ाना चाहते हैं, लेकिन मनुष्य तो बकरे से भी श्रेष्ठ है।”

वे कुछ समझ न पाये बोल उठे,”जी हां, मनुष्य तो श्रेष्ठ है ही। ” गांधीजी ने कहा,”यदि हम मनुष्य का भोग चढ़ायें तो क्या देवी अधिक अधिक प्रसन्न नहीं होगी?” बड़ा विचित्र प्रश्न था। उन ग्रामीणों ने इस पर कभी विचार नहीं किया था। वे सहसा कोई उत्तर न दे सके। गांधीजी ने ही फिर कहा, “क्या यहां पर कोई ऐसा मनुष्य है, जो देवी को अपना भोग चढ़ाने को तैयार हो? अब भी उनमें से कोई नहीं बोला। थोड़ा रुककर गांधीजी ने कहा, “इसका मतलब है कि आप में से कोई तैयार नहीं है, तब मैं तैयार हूं ।” वे सब लोग अब तो और भी हक्के-बक्के हो उठे। पागल-से एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। उन्हें सूझ नहीं रहा था कि वे क्या कहें? विमूढ़ से खड़े ही रहे। गांधीजी ने अब अत्यंत व्यथित स्वर में कहा, “गूंगे और निर्दोष प्राणी के रक्त से देवी प्रसन्न नहीं होती । अगर यह बात किसी तरह सत्य भी हो तो मनुष्य का रक्त अधिक मूल्यवान है, वही देवी को अर्पण करना चाहिए, परन्तु आप ऐसा नहीं करते। मैं कहता हूं कि निर्दोष प्राणी की बलि चढ़ाना पुण्य नहीं है, पाप है, अधर्म है।”

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ नामकरण ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा  नामकरण । कृपया आत्मसात करें।

☆ लघुकथा : नामकरण    

 

कच्चे घर में जब दूसरी बार भी कन्या ने जन्म लिया तब चंदरभान घुटनों में सिर देकर दरवाजे की दहलीज  बैठ गया । बच्ची की किलकारियां सुनकर पड़ोसी ने खिड़की में से झांक कर पूछा -ऐ चंदरभान का खबर ए ,,,?

-देवी प्रगट भई इस बार भी ।

-चलो हौंसला रखो ।

-हां , हौसला इ तो रखेंगे बीस बरस तक । कौन आज ही डिग्री की रकम मांगी गयी है । डिग्री ही तो आई है । कुर्की जब्ती के ऑर्डर तो नहीं ।

-नाम का रखोगे ?

-लो । गरीब की लड़की का भी नाम होवे है का ? जिसने जो पुकार लिया सोई नाम हो गया । होती किसी अमीर की लड़की तो संभाल संभाल कर रखते और पुकार लेते ब्लैक मनी ।

दोनों इस नाम पर काफी देर तक हो हो करते हंसते रहे । भूल गये कि जच्चा बच्चा की खबर सुध लेनी चाहिए ।

पड़ोसी ने खिड़की बंद करने से पहले जैसे मनुहार करते हुए कहा -ऐ चंदरभान, कुछ तो नाम रखोगे इ । बताओ का रखोगे?

-देख यार, इस देवी के भाग से हाथ में बरकत रही तो इसका नाम होगा लक्ष्मी । और अगर यह कच्चा घर भी टूटने फूटने लगा तो इसका नाम होगा कुलच्छनी ।

पड़ोसी ने ऐसे नामकरण की उम्मी द नहीं की थी । झट से खिड़की के दोनों पट आपस में टकराये और बंद हो गये ।

 

©  कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

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हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ सुश्री मीरा जैन की हिन्दी लघुकथा ‘कर्तव्य’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। )

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम सुश्री मीरा जैन जी  की  मूल हिंदी लघुकथा  ‘कर्तव्य ’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद कर्तव्य 

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सुश्री मीरा जैन 

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री मीरा जैन जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है ।  अब तक 9 पुस्तकें प्रकाशित – चार लघुकथा संग्रह , तीन लेख संग्रह एक कविता संग्रह ,एक व्यंग्य संग्रह, १००० से अधिक रचनाएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से व्यंग्य, लघुकथा व अन्य रचनाओं का प्रसारण। वर्ष २०११ में ‘मीरा जैन की सौ लघुकथाएं’  पुस्तक पर विक्रम विश्वविद्यालय (उज्जैन) द्वारा शोध कार्य करवाया जा चुका है।  अनेक भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद प्रकाशित। कई अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय पुरस्कारों से पुरस्कृत / अलंकृत । नई दुनिया व टाटा शक्ति द्वारा प्राइड स्टोरी अवार्ड २०१४, वरिष्ठ लघुकथाकार साहित्य सम्मान २०१३ तथा हिंदी सेवा सम्मान २०१५ से सम्मानित। २०१९ में भारत सरकार के विद्वानों की सूची में आपका नाम दर्ज । आपने प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद पर पांच वर्ष तक बाल कल्याण समिति के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं उज्जैन जिले में प्रदान की है। बालिका-महिला सुरक्षा, उनका विकास, कन्या भ्रूण हत्या एवं बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ आदि कई सामाजिक अभियानों में भी सतत संलग्न । आपकी किताब 101लघुकथाएं एवं सम्यक लघुकथाएं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त मानव संसाधन विकास मंत्रालय व छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आपकी किताबों का क्रय किया गया है.)

☆ कर्तव्य  

शंभू पुलिस वाले के सामने हाथ जोड़ विनती करने लगा- ‘साहब जी! मेरी ट्रक खराब हो गई थी इसलिए समय पर मैं अपने शहर नहीं पहुंच पाया। प्लीज जाने दीजिए साहब जी।’

पुलिस वाले की कड़कदार आवाज गूंजी- ‘साहब जी के बच्चे! एक बार कहने पर तुझे समझ में नहीं आ रहा कि आगे नहीं जा सकता। ‘कोरोना’ की वजह से सीमाएं सील कर दी गई है। कर्फ्यू की सी स्थिति है।  १ इंच भी गाड़ी आगे बढ़ाई तो एक घुमाकर दूंगा,समझे सब समझ आ जाएगा।’

पुलिसवाला तो फटकार लगाकर चला गया, किंतु शंभू की भूख से कुलबुलाती आँतें…सारे ढाबे व रेस्टोरेंट बंद…पुलिस का खौफ, रात को १० बजे अब वह जाए तो कहां जाए, साथ में क्लीनर वह भी भूखा। अब क्या होगा ? यही सोच आँखें नम होने लगी, तभी पुलिस वाले को बाइक पर अपनी ओर आता देख शंभू की घिग्गी बंध गई। फिर कोई नई मुसीबत…। शंभू की शंका सच निकली। बाइक उसके समीप आकर ही रुकी।  पुलिसवाला उतरा, डिक्की खोली और उसमें से अपना टिफिन निकाल शंभू की ओर यह कहते हुए बढ़ा दिया- ‘लो इसे खा लेना,मैं घर जाकर खा लूंगा।’

शंभू की आँखों से आँसूओं की अविरल धारा बह निकली। वह पुलिस वाले को नमन कर इतना ही कह पाया- ‘साहब जी! देशभक्त फरिश्ते हैं आप। ‘

इस पर पुलिस वाले ने कहा- ‘वह मेरा ऑफिशियल कर्त्तव्य था, और यह मेरा व्यक्तिगत कर्त्तव्य ही नहीं, सामाजिक दायित्व भी है.

© मीरा जैन

उज्जैन, मध्यप्रदेश

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☆ कर्तव्य 

(मूळ हिन्दी कथा –  कर्तव्य  मूळ लेखिका – मीरा जैन   अनुवाद – उज्ज्वला केळकर)

शंभू पोलीसवाल्यांना हात जोडून विनंती करत होता, ‘साहेब माझा ट्रक ना दुरूस्त झाला, म्हणून मी  वेळेत आपल्या शहरात जाऊ शकलो नाही. प्लीज जाऊ द्या ना साहेब!’

पोलिसांचा कडक आवाजा घुमला, ‘ए, साहेबजीच्या बच्चा, एकदा सांगितल्यावर तुला कळत नाही, तू पुढे जाऊ शकत नाहीस. ‘करोंना’ मुळे सीमा सील केल्या आहेत. कर्फ्यूच आहे. एक इंच जरी ट्रक पुढे सरकला तरीही लाठी फिरवेन. कळलं, मग सगळं ल्क्षात येईल.’

पोलीसवाला दरडावून निघून गेला पण भुकेने कळवळ कळवळणारं शंभूचं पोट … सगळे ढाबे, रेस्टोरंटस बंद. पालिसांची भीती. रात्री 10ची वेळ. आता त्याने जायचं म्हंटलं तरी कुठे जायचं? बरोबर क्लीनर . त्यालाही भूक लागलेली. आता कसं होणार.? विचाराने त्याच्या डोळ्यात पाणी जमलं.

एवढ्यात तो पोलिस पुन्हा बाईकवरून येताना दिसला. शंभूची तर जीभच टाळ्याला चिकटली. आता आणखी काय झालं? कसलं नवीन संकट?  शंभूला वाटलं, आपली शंका खरी आहे, कारण बाईक त्याच्याच दिशेने येत होती.

पोलीस बाईकवरून उतरला. डिककी उघडली. त्याने त्यातून टिफीन काढून शंभूच्या हातात दिला.

‘ हे घे खाऊन. मी घरी जाऊन जेवीन. ‘

शंभूच्या डोळ्यातून अविरत अश्रू धारा वाहू लागल्या. पोलिसाला प्रणाम करत तो म्हणाला, ‘ साहेब, आपण देवदूत आहात, पण मगाशी….’ यावर पोलीस म्हणाला, ‘ते माझं राष्ट्रीय कर्तव्य होतं आणि हे माझं व्यक्तिगत कर्तव्यच नाही, तर सामाजिक दायित्वदेखील आहे.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 37 ☆ लघुकथा – सदा सुहागिन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री के मर्म पर विमर्श करती लघुकथा  सदा सुहागिन। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 37 ☆

☆  लघुकथा – सदा सुहागिन

लंबी छरहरी  काया,  रंग गोरा, तीखे नाक- नक्श, दाँत कुछ आगे निकले  हुए थे लेकिन उनकी मुस्कान के पीछे छिप जाते थे. वह सीधे पल्लेवाली साडी पहनती थीं, जिसके पल्लू से उनका सिर हमेशा ढका ही रहता. माथे पर लाल रंग की मध्यम आकार की बिंदी और मांग सिंदूर से  भरी  हुई.  पैरों में चाँदी की पतली – सी पायल, कभी- कभार  नाखूनों में लाल रंग की नेलपॉलिश भी लगी होती,   इन सबको  सँवारती थी उनकी मुस्कुराहट . मिलने पर वे अपनी चिर परिचित   मुस्कान के साथ कहती – कइसन बा बिटिया?  एक नजर पडने पर पंडिताईन भारतीय संस्कृति के अनुसार  सुहागिन  ही कहलायेंगी.

हर दिन की तरह वह सुबह भी थी, सब कुछ वैसा ही था लेकिन पंडिताईन के लिए मानों दुनिया ही पलट गई. पूरा घर छान मारा, खेतों पर भी दौडकर देख आई, आसपास पता किया पर पंडित का कहीं पता ना चला.वह समझ  ना पाई कि धरती निगल  गई कि आसमान खा गया. बार -बार खटिया पर हाथ फेरकर बोलती – यहीं तो सोय रहे हमरे पंडित, कहाँ चले गए. महीनों पागल की तरह उन्हें ढूंढती रही,  कभी गंगा किनारे, कभी मंदिरों में.बाबा,फकीर कोई नहीं छोडा. एक बार तो किसी ढोंगी बाबा के  कहने पर  पंडित का एक  कपडा  लेकर उसके पास  पहुँच गई. बाबा पंडित के बारे में तो क्या बताता पंडिताईन से पैसे लेकर  चंपत हो गया. उसके बाद से पंडिताईन ने  पंडित को ढूंढना छोड दिया. उन्होंने  मान लिया कि वह  सुहागिन हैं और अपने रख – रखाव से गांववालों को जता भी दिया.

पंडिताईन ने  अपने मन को समझा लिया, जरूरी भी था वरना छोटे – छोटे   बच्चों को  पालती कैसे ? खेत खलिहान कैसे संभालती. लेकिन गांववालों को चैन कहाँ. सबकी नजरें पंडिताईन के सिंदूर और बिछिया पर अटक जाती. एक दिन ऐसे ही किसी की बात कानों में पड गई – ‘ पति का पता नहीं और पंडिताईन जवानी में सिंगार करे मुस्काती घूमत हैं गाँव भर मां ‘. पंडिताईन  की आँखों में आँसू आ गए बोलीं- बिटिया! ई बतावा इनका का करे का है ? हमार मरजी हम सिंगार करी या ना करी ? हम सिंदूर लगाई, पाजेब पहनी कि  ना  पहनी ? जौन सात फेरे लिया रहा ऊ मालूम नहीं कहाँ  चला गवा हमका छोडकर,  तो ई अडोसी – पडोसी कौन हैं हमें बताए वाले.  मांग में लगे सिंदूर की ओर इशारा करके बोलीं –‘ जब  तलक हम जिंदा हैं तब तलक ई मांग में रही, हमरे साथ हमार सुहाग जाई.’

पंडिताईन सुहागिन हैं या नहीं, वह विधवा की तरह रहे या नहीं  ?  पंडिताईन ने किसी को यह तय करने का अधिकार दिया ही नहीं.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 56 – तकनीक☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “तकनीक। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 56 ☆

☆ लघुकथा – तकनीक ☆

बिना मांगे ही उस ने गुरु मन्त्र दिया, “आप को किस ने कहा था, भारी-भारी दरवाजे लगाओं. तय मापदंड के हिसाब से सीमेंट-रेत मिला कर अच्छे माल में शौचालय बनावाओं.  यदि मेरे अनुसार काम करते तो आप का भी फायदा होता ?” परेशान शिक्षक को और परेशान करते हुए पंचायत सचिव ने कहा, “बिना दक्षिणा दिए तो आप का शौचालय पास नहीं होगा. चाहे आप को १०,००० का घाटा हुआ हो.”

“ नहीं दूं तो ?”

“शौचालय पास नहीं होगा और आप का घाटा ३५,००० हजार हो जाएगा. इसलिए यह आप को सोचना है कि आप १५,००० का घाटा खाना चाहते है या ३५,००० हजार का?”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२४/०६/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 56 – मन के द्वार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक  अतिसुन्दर भावनात्मक एवं प्रेरक लघुकथा  “मन के द्वार । लॉक डाउन एवं मन के द्वार में अद्भुत सामंजस्य बन पड़ा है। हमारे सामाजिक जीवन के साथ ही साहित्य पर भी इस महामारी एवं लॉक डाउन का प्रभाव स्वाभाविक तौर पर पड़ रहा है। इस सर्वोत्कृष्ट  शब्द शिल्प के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 56 ☆

☆ मन के द्वार

आज सुबह अजय अनमना सा उठा। उसे बार-बार अपने दोस्त वेद प्रकाश की याद आ रही थी। कुछ बातों के चलते दोनों पड़ोसियों में कहा सुनी हो जाने के कारण बातचीत बंद हो गई  थी । यहां तक कि बच्चों में भी तालमेल खत्म सा हो गया था। दोनों की पक्की दोस्ती के कारण मोहल्ले वाले उन्हें ‘अभेद’ नाम से पुकारते थे, क्योंकि दोनों ने कभी कोई बात एक दूसरे से छुपा कर नहीं रख रखी थी। इतना गहरा संबंध होने के बाद भी कहते हैं….. नजर लग गई दोस्ती को क्या करें??

वेद प्रकाश की बिटिया को आज लड़के वाले देखने आ रहे थे। वेद और भी परेशान हो रहा था। इस मौके पर उसे अपने दोस्त की सख्त जरूरत और याद आ रही थी। लाकडाउन की वजह से सभी का आना जाना बंद हो गया था। कोई किसी के यहां नहीं आ जा रहे थे। ऐसे में बिटिया की शादी की बात को सुनकर अजय मन ही मन खुश हो गया, और सोचने लगा मेहमान आ जाए…. और मैं अब जल्दी तैयार हो जाता हूं।  पत्नी ने भी हंस कर कहा….. मुझे भी ऐसा ही कुछ लग रहा है।

ठीक समय पर मेहमानों की गाड़ी दरवाजे पर आकर रुकी। वेद प्रकाश आवभगत में जुट  गया। दालान में आकर सभी बैठे ही थे और बिटिया सज संवर  कर चाय लेकर मेहमानों के बीच आ रही थी, ठीक उसी समय अजय सपरिवार मुंह में मास्क लगाए…. आकर दरवाजे पर खड़ा होकर बोला… माफ कीजिएगा यह लॉकडाउन भी बहुत ही परेशान कर रखा है सभी का आना जाना बंद कर दिया है। वरना हमारी बिटिया को क्या??? आप को अकेले-अकेले ले जाना होता। बस लॉकडाउन खुल जाए और हम धूमधाम से बिटिया को विदा करेंगे। इतना सुनना था कि वेद प्रकाश दौड़कर आया और जोर से बोला… लॉक डाउन खुल गया, लाकडाउन खुल गया समझो दोस्त लाकडाउन सदा सदा के लिए खुल गया। बहुत तरसा रहा था। अब नहीं होगा ऐसा कभी लाकडाउन।

कभी ना आए जीवन में ऐसा वक्त की लाकडाउन होना पड़े। दोनों एक दूसरे की बात को समझ मुस्कुरा दिए। मेहमान को लगा शायद विषम परिस्थितियों पर बात हो रही है, परंतु दोनों दोस्त हाथ तो क्या.. गले मिलकर लॉकडाउन को सदा सदा के लिए विदा कर चुके और मन के द्वार खुल चुके थे। बिटिया भी मुस्कराते हुए चाय की प्याली आगे बढ़ाने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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