हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ अनकहा ☆ श्री दिवयांशु शेखर

श्री दिव्यांशु शेखर 

(युवा साहित्यकार श्री दिव्यांशु शेखर ने अपने गृहनगर सुपौल, बिहार से प्रारंभिक शिक्षा पूरी की। उसके बाद, उन्होंने जेपी यूनिवर्सिटी ऑफ़ इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वह पेशे से एक अभियंता है और दिल से एक कलाकार। वह कविताएँ, शायरी, लेख, नाटक और कहानियाँ लिखते हैं। उन्होंने “ज़िंदगी – एक चलचित्र” नामक एक हिंदी कविता पुस्तक 2017 में प्रकाशित की और एक उपन्यास अंग्रेजी भाषा में  “Too Close – Too Far” के नाम से प्रकाशित है, और इसका हिंदी अनुवाद “बहुत करीब – बहुत दूर” के नाम से प्रकाशित है। एक व्यक्ति के रूप में, वह हमेशा खुद को एक शिक्षार्थी मानते है। उनके ही शब्दों में “एक लेखक सिर्फ दिलचस्प तरीके से शब्दों को व्यवस्थित करता है, पाठक अपनी समझ के अनुसार उनके दिमाग में वास्तविक रचना का निर्माण करते हैं और मेरी एक रचना की पाठकों के अनुसार लाखों संस्करण हो सकते हैं।” आज प्रस्तुत है उनकी एक लम्बी कहानी – अनकहा।)  

☆ कथा ☆ कहानी अनकहा

‘स्वीटी आज मुझे आने में थोड़ी देर हो जाएगी तो प्लीज मेरे आने का थोड़ा इंतज़ार कर लेना’ निशा जल्दबाज़ी में टिफिन में खीर पैक करते हुए अपने कामवाली से बोली।

‘हाँ मैडम कोई दिक्कत नहीं है, आप आराम से आना। मैंने अपने बच्चो के लिए आज दोपहर में ही रात का खाना भी बना दिया था और वो खा लेंगे। मैं आपके आने के बाद ही जाऊँगी’।

‘थैंक यू स्वीटी! तुम्हे पता है, तुम बेस्ट हो यार। लव यू’ उसने होठों को गोल करके उसके तरफ देखते हुए मजाकिया अंदाज़ में बोली।

‘ये प्यार मैडम आप आज साहब के लिए संभाल के रखिये। आज उनका ख़ास दिन है, आपके काम आएगा’ वो हॅसते हुए बोली और दोनों हॅसने लगे।

वो हल्के नीले रंग की सलवार सूट पहने हुई थी, गोरा रंग, पतली काया, बड़ी और चंचल आँखे और उसने अपने रेशमी बालों को मोड़कर आगे की तरफ कर रखा था। उसके चेहरे पर पड़ती रौशनी और उसके माथे की लाल बिंदी बेहद खिल रही थी।

वो जल्दी-जल्दी घर के सामने खड़े कैब में जाके बैठ गयी और ड्राइवर ने गाडी स्टार्ट कर दी। आज वो दिए वक़्त से पहले ही तैयार हो गयी थी। आखिर हो भी क्यों न आज उसके प्यार राहुल का जन्मदिन जो था।

निशा उससे बेहद प्यार करती थी, दोनों तीन साल से रिलेशनशिप में थे और दोनों जल्द ही शादी का सोच रहे थे। बस देर राहुल के जवाब का ही था। राहुल को थोड़ा करियर में सेटल्ड होने का वक़्त चाहिए था।

निशा तो बस जैसे राहुल के जवाब का ही इंतज़ार कर रही थी और उन सुनहरे सपनों की तैयारी में हर दिन लगी रहती थी। उसने तो कई चीजे खरीदना भी शुरू कर दिया था। आज उसने राहुल के लिए अपने शहर के एक प्रसिद्द होटल विराट में 2 सीट्स बुक कर रखे थे और बर्थडे की बात उसने होटल मैनेजर को बता रखी थी।

एक सरप्राइज पार्टी, क्यूकि ये राहुल का पसंदीदा जगह जो थी और तय समय था, शाम के 8 बजे। अभी शाम के 7 ही बजे थे और वो होटल मैनेजमेंट के तैयारियों का खुद से जायजा लेने वक़्त से पहले ही वहाँ पहुंच गयी थी।

मुंबई की भीड़ वाली ट्रैफिक में आज उसके किस्मत ने अच्छा साथ दिया था, और वो समय से पहले पहुंच गयी थी। आखिर वो कुछ भी कमी देखना नहीं चाहती थी, एक परफेक्ट बर्थडे पार्टी, अपने प्यार के लिए। उनका सीट्स होटल के प्रथम तल्ले पे एक कोने में था, जहाँ से होटल के अगले माले पे सभी आने-जाने वाले लोग दिख रहे थे।

निशा ने सीट्स बदलने की कोशिश भी करवाई लेकिन मैनेजर ने माफ़ी मांग लिया। होटल कर्मचारी सब कुछ तैयार करके चले गए लेकिन अभी भी 8 बजने में 50 मिनट्स और बचे थे और वो उससे पहले राहुल को कॉल करके परेशान नहीं करना चाहती थी।

इसीलिए निशा ने उसे एक मैसेज भेजा। ‘क्या तुम तैयार हो गए?’

‘क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?’ एक अनजान आदमी के आवाज़ ने निशा का ध्यान अपनी और खींचा। उभरी हुई भोहे, बाज की तरह नाक, समुद्री रोवर-नीली आँखे, गोरा बदन और तराशा चेहरा मानों कोई अभिनेता हो। सफ़ेद कमीज, नीला पैंट, और काले ओवरकोट में वो किसी भी लड़की का दिल धड़का सकता था।

‘माफ़ कीजिये पर ये 2 सीट्स मैंने पहले से बुक कर रखे हैं तो आप कही और बैठ जाइये’ निशा ने शालनीता से कहा।

‘हाँ पता है, लेकिन मुझे तो यही बैठना है और आपसे कुछ बातें करनी है, मेरा नाम आकाश है और मैं यहाँ अकेले ही आया हूँ और आप जैसी सुन्दर लड़की को इतने बड़े होटल में अकेले बैठा देख खुद को रोक नहीं पाया’ उसने मुस्कुराते हुआ कहा।

‘माफ़ कीजिये आपकी जानकारी के लिए बता दूँ, पहली बात की मुझे अंजानो से बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं है और दूसरी की मैं यहाँ आपके तरह अकेले नहीं हूँ, मैं अपने बॉयफ्रेंड का इंतज़ार कर रही हूँ वो आने ही वाला है और अगर उसने आपको यहाँ देखा तो आप पक्का मार खाओगे’ निशा गुस्सा करते हुए बोली।

‘मरे हुए को कोई क्या मरेगा मैडम’ आकाश ने फिर से मुस्कुराते हुए कहा ‘कृपया गुस्सा न हो, लेकिन असलियत में अभी तो आप अकेली ही हैं और मेरा विश्वास करे मैं आपको परेशान नहीं करूँगा। मैं आपके जवाब तक यही खड़ा रहूँगा’।

निशा उसके छिछोरी हरकत पे और उसे आने-जाने के बीच रास्ते में खड़ा देख गुस्से में कुछ बोलना ही वाली थी की तभी अचानक उसने राहुल को एक सुन्दर लड़की के साथ सीढ़ियों से उतरते हुए देखा, राहुल ने उसके कंधे पे अपना हाथ रखा हुआ था, वो दोनों मुस्कुरा रहे थे।

वो थोड़ी चौंक सी गयी। फिर उसे लगा की शायद राहुल उसे ढूंढ रहा हो और वो लड़की भी उसके साथ आयी हो। लेकिन वो दोनों होटल के बाहर जाने लगे। निशा ने उन्हें अपनी तरफ बुलाने, वापस बैग से अपना फ़ोन निकाला तो देखा कि राहुल का एक मैसेज आया हुआ था।

‘माफ़ करना निशा! लेकिन मेरी तबियत अचानक थोड़ी ख़राब हो गयी है तो मैं वहाँ नहीं आ सकता। कुछ देर पहले मैंने दवाई ली है और अभी सोने जा रहा हूँ। अभी तो लगभग एक घंटा बचा है तो कॉल करके होटल वालो को मना कर दो। मैं तुमसे कल मिलता हूँ। सॉरी!’

मैसेज देखके तो जैसे निशा के पैर के नीचे से ज़मीन खिसक गयी। ऐसा झूठ, ऐसा धोखा, आखिर क्या कमी रह गयी थी उसके प्यार में? उसकी हालत तो जैसे काटो तो खून नहीं। एक पल में जैसे सारे सपने कांच ही तरह टूट के बिखर गए। अचानक लगा जैसे उसका सब कुछ छिन गया हो और वो बिलकुल अकेली हो गयी हो, ये शहर सहसा उसे अजनबी लगने लगा था।

वो धम्म से कुर्सी पे बैठ गयी, अथक कोशिशों के बावजूद भी वो अपने भावनाओ पे नियंत्रण नहीं रख पायी और उसके बड़े-बड़े आँखों से जैसे आंसुओं की धारा निकल पड़ी। निशा की ऐसी हालत देख सहसा आकाश उसके नजदीक आ गया और उसे जोर से टोकते हुए बोला।

‘क्या आप ठीक है मैडम? थोड़ा पानी पीजिये’।

‘हाँ! क्या? तुम कौन हो?’ निशा धीरे से हड़बड़ाते हुए बोली।

‘मैं बोला, आप पानी पीजिये, मैं आकाश! जो आपके इंतज़ार में कबसे खड़ा है’ आकाश शालीनता से बोला।

‘ओह! माफ़ करना मैं थोड़ी सी चौक गयी थी। और हाँ अब तुम यहाँ आराम से बैठो, मैं जाने ही वाली हूँ’ निशा मुस्कुराते हुए बोली।

‘कृपया ऐसा न करे, मैं तो ऐसे ही अकेले इधर-उधर भटकता रहता हूँ, लेकिन मेरी वजह से आप न जाए, आप यही बैठे, मैं चला जाता हूँ’ आकाश बोला।

कुछ पल के लिए वह ख़ामोशी का माहौल रहा फिर निशा बुदबुदायी ‘वजह कुछ और है’।

मैं समझ सकता हूँ, विगत कुछ मिनटों में यहाँ क्या हुआ है, मैं उसे महसूस कर सकता हूँ’ वो मुस्कुराते हुए बोला।

‘तब तो तुम्हे बहुत ख़ुशी हुई होगी’ निशा झल्लाते हुए बोली।

‘नहीं दिखने में तो वो लड़की जिसे आप घूर रही थी, ज्यादा सुन्दर थी। लेकिन मुझे तो आपसे ही बात करना था इसीलिए तो आपके पास आया मैं’ आकाश ने चुटकी लेते हुए कहा।

‘अच्छा तो फिर तुम मेरे पास क्यों आये हो? कहीं और जाके मरो’ वो गुस्से मैं बोली।

‘नहीं आपमें कुछ अलग दिखा मुझे, इसीलिए आपके पास आया’ आकाश मुस्कुराते हुए बोला।

‘और ये बात तुम आज तक कितनी लड़कियों को बोल चुके हो?’ वो झिड़की।

‘ईमानदारी से बताऊँ तो कल तक की गिनती तो मुझे याद नहीं है, लेकिन आज पहली बार किसी को बोला हूँ’ उसने उसके आँखों में देखते हुए मजाकिया अंदाज़ मैं बोला।

‘अच्छा तो मेरे रोने के बात को छोड़ तुम्हें, मुझमें ऐसा क्या ख़ास बात दिखी आज?’

‘रोने को तो मैंने गिना ही नहीं था क्यूंकि वो तो मेरा रोज का है। लेकिन 8 बजे का बुकिंग करके 1 घंटे पहले पहुंचना, इतने बड़े होटल में इतने प्रोफेशनल कर्मचारियों से ज्यादा मेहनत करवाना, ऐसे आधुनिक जगहों में ऐसे पारम्परिक कपड़ो और मेकअप में आना, इतने टेस्टी खाना के बावजूद घर से कुछ टिफ़िन में लेके आना, ये तो मुझ जैसे बेवकूफ का भी ध्यान खींच सकती है’ वो बोला।

उसके बोलने के अंदाज़ से निशा की भी हंसी छूट गयी। वो आंसू पोछते हुए बोली।

‘जब तुम सब समझ ही गए हो तो बैठ जाओ, अब इतना खर्च करके खाली पेट घर जाने में तो बेवकूफी होगी। वैसे भी मुझे अब एक नयी शुरुआत करनी है तो क्यों न अच्छे से किया जाय’

‘आपने तो मैडम मेरे मुँह की बात छीन ली। अभी जो आपके साथ हुआ उसे भूलके आगे बढ़ जाइये, आप जैसी लड़की को ऐसे लड़को के लिए आंसू बहाना अच्छा नहीं लगता। आप जैसी है, वैसी बहुत अच्छी हैं, तो नयी शुरुआत कीजिये बिलकुल अपने तरीके से। और अभी जल्दी से कुछ आर्डर कीजिये, कहीं भूख से आप और दुबली न हो जाए। मैं तो अकेले था तो बोरियत मिटाने बहुत सारा खाना खा चुका और अब भूख है नहीं। आप बताइये क्या खाएंगी आप?’ वो बोला।

‘वैसे तो मुझे ये जगह कुछ ख़ास पसंद नहीं, लेकिन पैसा लग गया है, तो बहुत सारा खायूँगी, 2 आदमी का खाना अकेले जो खाना है’ वो गहरी सांस लेते हुए बोली, उसकी नकली मुस्कान साफ़ साफ़ झलक रही थी। उसने वेटर को बुलाकर खाने का आर्डर दिया। वेटर के जाने के बाद वो बोला।

‘कोई बात नहीं आप आराम से खाये, मेरे पास भी समय की कोई कमी नहीं है’ ‘इसके बाद बताये कहाँ जाया जाय, जिससे आपकी नकली मुस्कान असली में बदल जाय।

‘ठीक है खाके सोचते हैं। वैसे देखके तुम ठीक-ठाक घर के लग रहे हो और तुम्हारी उम्र 30-35 साल तो लग रही है। तुम क्या अभी तक अकेले हो?’ उसने जिज्ञासावस पूछा।

‘नहीं मैं बीवी-बच्चो वाला आदमी हूँ, लेकिन मैं उनके साथ नहीं रहता और चाह के भी नहीं रह सकता। वैसे मेरी उम्र का आपका अंदाज़ा तो लगभग ठीक है, लेकिन मेरी उम्र लगभग रुक सी गयी है, वहीं प्रकृति का स्पर्श’ उसने मुस्कुराते हुए कहा।

‘मतलब तुम जैसा खुले दिल वाला इंसान भी नकली मुस्कान देता है’ निशा गंभीरता से बोली।

‘इंसान कैसा भी हो लेकिन कुछ चीजों को लेके हमेशा गंभीर रहता है, खैर छोड़िए इसके बाद हमलोग अच्छी जगह चलते हैं। ताकि कोई बेमन से न हँसे’ वो धीमे स्वर में बोला।

‘पहले तो मैं घर लेट जाती, लेकिन अब मैं थोड़ा जल्दी घर जाने का सोच रही हूँ। मेरी बाई मेरे घर पे मेरे इंतज़ार कर रही होगी और उसके घर पे उसके 2 बच्चे उसके आने का राह देख रहे होंगे। मेरे घर जल्दी जाने से वो जल्दी अपने बच्चो के पास जा पायेगी’ निशा थोड़ा रूककर बोली।

‘अच्छा लगा जानकार की आप एक कामवाली बाई का इतना ख्याल रखती हो’। आकाश गहरी सांस लेते हुए बोला।

‘वो भी मेरा बहुत ख्याल रखती है। उसके ऊपर उसके दो बच्चों की जिम्मेदारी है और वो इसे बखूबी निभा रही है। बेचारी का पति एक कार दुर्घटना में मारा गया। उसकी कार दुर्घटना के बाद पुल से टकराते हुए नदी में गिर गयी और डूबने से उसकी मौत हो गयी। भगवान ऐसी मौत किसी को न दे’ निशा ने उदासी भरे स्वर में कहा।

‘हाँ सही बोली, ऐसी मौत भगवान किसी को ना दे। उसने कितना प्रयास किया होगा ना, बाहर निकलने का, मौत से लड़ने का, ज़िन्दगी से विनती एक दूसरे मौके का’ उसने गम्भीरता से बोला।

‘हाँ! लेकिन उसके जाने के बाद असल कष्ट तो उसके परिवार को हुआ है। खैर, मैंने इतना कुछ सुना दिया अब तुम्हारी कहानी भी थोड़ी सुन लिया जाए’ निशा बोली।

‘हाँ क्यों नहीं! यहाँ से हम मेरे खुले कार में एक छोटी से ड्राइव पे चलेंगे, अपना पहला स्टॉप होगा सिनेमैक्स सिनेमा के बहार वो फेमस वृंदा चाय स्टाल, वहाँ से मस्त मसाला चाय पिएंगे फिर आपको घर छोड़ दूंगा ताकि आपकी बाई खुश होक जल्दी घर जा सके और और हाँ चिंता मत कीजिये, मेरे रहते आपको कोई खतरा छू भी नहीं सकता है। आप दोनों को खुश करना अब मेरे जिम्मे है, शायद इसीलिए भगवान ने मुझे यहाँ भेजा है। आपलोग खुद को कभी अकेला महसूस मत करना’ वो मुस्कुराते हुए बोला।

निशा ने बर्थडे का केक घर ले जाने के लिए पैक करवा लिया था। खाना खत्म होने के बाद निशा ने बिल चुकता किया फिर वो दोनों होटल से बहार निकल गए। पार्किंग में आकाश ने आगे बढ़कर निशा के लिए हुए गाडी का दरवाजा खोला। वो मुस्कुराते हुए गाडी में बैठ गयी।

फिर आकाश ड्राइवर सीट पे बैठके गाडी स्टार्ट कर दी। रात के 9 बज गए थे और खुले कार में तेज़ आती हवा से थोड़ी ठण्ड महसूस हो रही थी। आकाश ने ट्रैफिक काम करने की वजह से थोड़े खाली रास्ते से गाडी को ले जाने लगा। ठन्डे हवा के थपेड़ो और गाड़ी में बजते सुरीले गीतों से निशा का मन हल्का हो गया था, वो काफी अच्छा महसूस कर रही थी और मुस्कुराते हुए आकाश को शुक्रिया बोली, आकाश बदले में उसकी तरफ देखके मुस्कुराया। थोड़ी देर में वो चाय स्टाल के पास पहुंचे। कार ठीक चाय स्टाल के सामने रुकी जिस तरफ निशा बैठी हुई थी। निशा ने कार के अंदर से ही 2 चाय का आर्डर दिया। चाय मिलने पे उसने एक चाय आकाश के तरफ बढ़ाया। चाय पीने के बाद निशा ने पैसे दिए, अपना पता बताया और आकाश ने कार स्टार्ट कर दी।

‘अब मुझे अपनी कहानी सुनाओ और तुम अपने परिवार से अलग क्यों रहते हो?’ निशा ने अनुरोध किया।’

‘मैं एक बहुत की गुस्सैल और हठी आदमी था’ आकाश बोला।

‘लेकिन तुम्हे देख के ऐसा बिलकुल नहीं लगता’ निशा बोली।

‘वक़्त बहुत कुछ बदल देती है। मैंने जो गलती की, उसकी सजा मेरा परिवार भुगत रहा है। मेरी बीवी दूसरे के घर काम करके परिवार चलाती है। दिखावा और आधुनिक चकाचौंध में, मैं वास्तविकता से दूर हो गया था। साधारणता ही सबसे प्यारी और ख़ास चीज है, मैं ये समझ नहीं पाया। मैं उसके प्यार को समझ ही नहीं पाया, नासमझी में मैंने अपनी बीवी का बहुत दिल दुखाया है।

मैं गुनहगार हूँ। उससे जुदा होने के बाद आज तक ऐसा कोई दिन नहीं गुजरा जिस दिन मैं रोया नहीं हूँ’ आकाश ने बोला और एक गहरी सांस ली।

‘तुम्हे अपनी गलती का एहसास है, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है, तुम अभी भी चीजे ठीक कर सकते हो’ निशा गंभीरता से बोली।

लेकिन ये ज़िन्दगी कुछ भूल को सुधारने का दूसरा मौका नहीं देती। मैं बहुत आवारा था। पुरे दिन दोस्तों के साथ इधर -उधर घूम कर आवारागर्दी किया करता था। ना पढ़ने की सुध होती थी और नहीं कभी कुछ करने की। मैंने जैसे-तैसे पढाई पूरी की, वो तो मेरे पिता जी की कृपा थी जो मुझे उनका एक बना बनाया बिज़नेस मिल गया।

उनका ऑफिस शुरू कर तो मेरे पास पहले से ज्यादा पैसे आने लगा और मैं वो पैसे जम के खर्च करता था। मैं अपनी ज़िन्दगी को अच्छे से जीना चाहता था, मैं सोचता था की आखिर इंसान इस दुनिया से लेके क्या ही जाता है, तो जो है, यही खुल के जियो।

मेरी आदतों से घर वाले नाखुश रहते थे और उन्होंने मुझे सुधारने, मेरी शादी अपने पसंद के एक लड़की से करवा दी। मेरी बीवी का नाम पल्लवी लेकिन मैं उसे प्यार से स्वीटी बुलाता था, ये नाम उसे पसंद नहीं था और वो इस नाम से थोड़ा चिढ जाती थी, लेकिन मुझे अच्छा लगता था तो मैं उसे वही बोलता था।

वो देखने में बहुत सुन्दर थी, वो दूधिया गोरा रंग, तराशा शरीर, समंदर जैसी गहरी आँखे, खुद से बेखबर वो, जब मैं उसे देखता तो मन करता था की सब कुछ छोड़ के उसे ही निहारता रहूं। पहली बार मुझे प्यार का एहसास कराया था उसने। वो मेरा और परिवार का बहुत ख्याल रखती थी, एक आदर्श भारतीय नारी की तरह।

किसी को जरा सा कुछ हो जाए तो वो सब कुछ भूल जाती थी, भगवान से प्रार्थना, सबकी सेवा, जैसे उसने अपना सब कुछ परिवार को समर्पित कर दिया था। उसके आने से मेरी ज़िन्दगी बदलने लगी थी। शुरुआत के कुछ महीने बहुत अच्छे गए लेकिन धीरे-धीरे चीजे बदलने लगे।

मेरे दोस्तों में मेरी अलग सी पहचान थी, एक मन-मौजी, मस्तीखोर लड़का। लेकिन मेरी बीवी के आदतों से, मैं उन सब चीजों से दूर होने लगा। मेरे दोस्त मुझे चिढ़ाने लगे थे और धीरे-धीरे मुझे लगने लगा जैसे मेरी आजादी छिन गयी हो।

मैं बहुत खर्चीला था और वो हमेशा पैसा बचाने का सोचती थी, वो बहुत साधारण ज़िन्दगी जीती थी, भविष्य की चिंता करती थी, तो वही मैं अपने वर्तमान में जीना चाहता था। उसके वजह से मेरा महंगे जगहों पे आना जाना बंद हो गया मेरे शौक पूरे होने बंद हो गए।

लगा जैसे की एक दुनिया से मेरा वास्ता खत्म होने लगा था जिसे मैं जीना चाहता था। मैं उसके बचत और साधारण आदतों से परेशान होता गया। जैसे-तैसे शादी के 5 साल पूरे हुए, हमारे 2 प्यारे बच्चे भी हुए, लेकिन वक़्त के साथ हमारी नोक-जोक और झगडे बढ़ते गए।

इसी बीच मेरे माता-पिता का निधन हो गया था और मेरे ऊपर से एक बना दवाब भी दूर हो गया था, मेरी मनमानी बढ़ती गयी। धीरे-धीरे मैं अपनी बीवी से कटने, दूर रहने का प्रयास करता रहता था। इधर मेरे ध्यान न देने से हमारा बिज़नेस भी ठप होने लगा, लगातार नुकसान होते गए, लेकिन मेरा ध्यान इस तरफ बिलकुल नहीं जा रहा था।

मैं अक्सर घर देर से लौटने लगा, कभी-कभी तो 2-3 दिन बाहर ही रहता। मैं अपनी बीवी का सामना करने और उसके उपदेशो से बचना चाहता था, मैं उससे झूठ बोलने लगा था। हमारी बातें भी बहुत कम होती थी। चीजे धीरे-धीरे बाद से बदतर होती गयी।

और जब सब खत्म हो गया, वो तारीख थी 6 अप्रैल 2017। उस दिन निशा का जन्मदिन था, और मैंने अपने दोस्तों को एक तगड़ी पार्टी देने का वादा किया था। मैंने ऑफिस से अपनी बीवी को कॉल करके अच्छे से तैयार रहने बोला था मॉडर्न तरीके से, एक गर्लफ्रेंड की तरह, जैसे मेरी दोस्त लोगों की बीवी रहती हैं।

मैंने उसे बोला की शाम के 7 बजे कहीं बाहर खाने ले जाऊंगा। बच्चो का मैंने उसे बोला की आज पड़ोसी के निगरानी में छोड़ दे। मैं ठीक समय पे घर पहुंच गया तो देखा की मेरी बीवी तैयार नहीं थी। मैं उस दिन कोई झगड़ा नहीं चाहता था और अपनी बीवी के जन्मदिन को ख़ास बनाना चाहता था।

मैंने पार्टी में अपने कई दोस्तों को भी बुलाया था, लेकिन सिर्फ नौजवान जोड़े आ सकते थे। मैं अपने दोस्तों में अपनी धाक बनाये रखना चाहता था। और इधर मैं पार्टी देके अपनी बीवी को भी खुश करना चाहता था, लेकिन परिणाम ठीक विपरीत हुआ। उसे मेरी तैयारी पसंद नहीं आयी। वो खुश होने के वजह उल्टा गुस्सा हो गयी और फिर हमारी लड़ाई शुरू।

वो बोली घर के बजट के अनुसार यही कुछ करते हैं। मैं खाना बना दूंगी, आप अपने दोस्तों को भी घर पे बुला लो। मैंने उसके जन्मदिन के लिए ही सब कुछ किया था और उससे ही लड़ना पड़ रहा था, मैं ये सोच के बहुत गुस्सा हो गया। मैंने उसे घर पे रहने बोला और गुस्से में, अकेले गाडी में बैठ के घर से निकल गया।

मैं अपने बुलाये दोस्तों को निराश नहीं करना चाहता था। मैंने अपनी बीवी-बच्चो को उन दोस्तों के लिए छोड़ दिया जो बाद में मेरा जिक्र तक नहीं करते। खैर उस वक़्त मैंने गुस्से में कार तेज़ी से होटल के तरफ ले जाने लगा और फिर’ आकाश बोला और गाड़ी रोक दी, फिर एक गहरी सांस लेके उसने अपनी नम होती आखें मली।

फिर क्या हुआ?’ निशा जिज्ञासावस पूछी।

‘आपका घर आ गया’ आकाश बोला।

‘क्या?’ निशा झट से बोली।

‘अरे मैडम! अपने बायें देखिये आपका घर आ गया है, अब उतरिये। शुभ रात्रि’ वो मुस्कुराते हुए बोला।

‘ओह। माफ़ करना मैं तो तुम्हारे कहानी में खो ही गयी थी। तुम तो मेरी सोच के एकदम विपरीत निकले। लेकिन ये कहानी तो अधूरी ही रह गयी और मुझे ये कहानी पूरी सुननी है।’ निशा ज़िद करते हुए बोली।

‘कुछ कहानियाँ हमेशा अधूरी ही रहती है मोहतरमा! हम उसे चाह कर भी पूरी नहीं कर पाते, ना बदल पाते हैं। ऐसी कहानियाँ, कुछ अनसुने-अनकहे लफ़्ज़ों में सिमटा हुआ, सुबकता-बुदबुदाता रहता है, और ऐसी कहानियाँ सुनी और समझी नहीं बल्कि महसूस की जाती है। खैर, अब आप अपने घर जाएँ’ आकाश गहरी साँस लेते हुए बोला।

निशा बेमन से गाडी से उतर गयी, उसने देखा की पड़ोसी का कुत्ता उन्हें देख कर जोर-जोर से भौंक रहा था, जैसे वो अपना बंधा रस्सी तोड़ देगा, तभी उसकी नज़र कार के अगले हिस्से पे पड़ी एक बड़े निशान पे पड़ी, वो चौंकते हुए बोली। ‘ये इतने सुन्दर गाड़ी में इतना बड़ा निशान कैसा? लगता है जैसे हाल में कोई हादसा हुआ हो’

‘हाँ! एक छोटे से हादसे का ही निशान है’ वो धीरे से बोला।

पड़ोसी सब बाहर ना आ जाएं, इसीलिए निशा ने भौंकते कुत्ते को पुचकारकर चुप करवाने का प्रयास करने लगी, तो देखा कुछ ही पलों में वो चुप हो गया। उसके चुप होते ही जब उसने पलटकर आकाश को देखा, तो देखा वहाँ कोई नहीं था। ये सब देख निशा को थोड़ा अजीब लगा। एक अजीब सी ख़ामोशी चारों और फैल गयी थी।

वो दो कदम आगे ही बढ़ी थी की आकाश के आखिरी कहे शब्द से वो अचानक ठिठक कर रुक गयी। उसके चेहरे के भाव जैसे बदलने लगे, कुछ अनकहे बातों ने उसे बहुत कुछ सोचने पे विवस कर दिया था। झींगुरों की आवाज़ और गहराते रात के सन्नाटे में, उसके दिमाग में कई सारे सवाल घूमने लगे।

स्वीटी और वो अजनबी? कार हादसा और गाड़ी का निशान? मेरी बाई और उसकी बीवी? उसकी बातें, उसके भाव, उसका मेरा ख्याल रखना और अपने गाड़ी में मुझे घर तक छोड़ना ताकि स्वीटी जल्दी घर पहुंच सके और सब खुश रहे? 2 कहानियाँ और मैं? क्या सब आपस में जुड़े हुए हैं? और वो, जो कुछ देर पहले मेरे साथ था वो कौन था? पछतावा के आँसू रोता एक बेबस इंसान या एक मददगार रूह?

वो कुछ पलों तक रूककर सोचती रही फिर अचानक मुस्कुरा पड़ी, उसके चेहरे पे उमड़ते भावों से लग रहा था, जैसे उसने कोई बड़ी उपलब्धि पायी हो, लगा जैसे उसके तन-बदन में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ हो, वो ख़ुशी से गाना गुनगुनाते और झूमते हुए अपने घर के तरफ बढ़ी।

फिर वहाँ जाके उसने घर का कॉल-बेल बजायी तो उसके बाई ने दरवाज़ा खोला। दरवाजा खुलते ही उसने झट से ख़ुशी में कसकर उसे गले लगा लिया।

‘अरे मैडम आप इतनी जल्दी आ गयी। क्या हुआ? सब ठीक तो है ना?’ स्वीटी मुस्कुराते हुए आश्चर्यचकित होकर पूछी।

‘सब ठीक है, और अब हमारे साथ सब अच्छा ही होगा, हम बहनें कल बात करते हैं, अभी तुम जल्दी से अपने घर जाओ और ये खीर और केक बच्चों को खिलाना, वो खुश हो जायेंगे’ निशा मुस्कुराकर खीर का टिफ़िन और केक का डब्बा देकर उसे विदा करते हुए बोली।

‘हाँ मैडम वो बहुत खुश होंगे। शुक्रिया। अब आप घर अंदर से बंद कर लीजिये, मैं कल सुबह आती हूँ, शुभ रात्रि’ वो मुस्कुराकर बोली।

‘शुभ रात्रि, स्वीटी’

©  श्री दिव्यांशु शेखर 

दिल्ली

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 69 – कारण ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “ कारण। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 69 ☆

☆ कारण ☆

 “लाइए मैडम ! और क्या करना है ?” सीमा ने ऑनलाइन पढ़ाई का शिक्षा रजिस्टर पूरा करते हुए पूछा तो अनीता ने कहा, “अब घर चलते हैं । आज का काम हो गया है।”

इस पर सीमा मुँह बना कर बोली, ” घर !  वहाँ  चल कर क्या करेंगे? यही स्कूल में बैठते हैं दो-तीन घंटे।”

“मगर, कोरोना की वजह से स्कूल बंद  है !” अनीता ने कहा, ”  यहां बैठ कर भी क्या करेंगे ?”

“दुखसुख की बातें करेंगे । और क्या ?”  सीमा बोली, ” बच्चों को कुछ सिखाना होगा तो वह सिखाएंगे । मोबाइल पर कुछ देखेंगे ।”

“मगर मुझे तो घर पर बहुत काम है,”  अनीता ने कहा, ” वैसे भी ‘हमारा घर हमारा विद्यालय’ का आज का सारा काम हो चुका है।  मगर सीमा तैयार नहीं हुई, ” नहीं यार। मैं पांच बजे तक ही यही रुकुँगी।”

अनीता को गाड़ी चलाना नहीं आता था। मजबूरी में उसे गांव के स्कूल में रुकना पड़ा। तब उसने कुरेद कुरेद कर सीमा से पूछा, “तुम्हें घर जाने की इच्छा क्यों नहीं होती ?  जब कि  तुम बहुत अच्छा काम करती हो ?” अनीता ने कहा।

उस की प्यार भरी बातें सुनकर सीमा की आँख से आँसू निकल गए, “घर जा कर सास की जली कटी बातें सुनने से अच्छा है यहाँ सुकून के दो चार घंटे बिता लिए जाए,” कह कर सीमा ने प्रसन्नता की लम्बी साँस खींची और मोबाइल देखने लगी।

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

22-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 67 – कन्याभोज ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा  “कन्याभोज।  निश्चित ही धर्मकर्म और भेदभाव से ऊपर निश्छल हृदय और भावनाएं होती हैं / शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 67 ☆

☆ लघुकथा – कन्याभोज ☆

कल्लो बाई एक बड़े सेठ मारवाड़ी के यहाँ घर का सारा काम करती थी। यूँ कह लीजिए कि सभी कल्लो बाई की टेर लगाते रहते थे।

सफाई, बर्तन, कपड़े और बाजार से क्या लाना है, धोबी के यहाँ कपड़े कितने गए, सभी का हिसाब कल्लो बाई के पास होता था। कभी- कभी घर में मेम साहिबाओं के सिर में तेल लगाने का भी काम बड़े प्रेम से कर दिया करती थी। बदले में कुछ ज्यादा पैसे मिल जाते थे। जिससे उसकी अपनी  बिटिया का शौक पूरा करती थी।

अपनी बेटी रानी को बहुत  प्यार से रखी थी। ईश्वर का रुप मानती थी। गरीबी से दूर रखना चाहती थी। पर गरीबी के कारण कुछ कर नहीं पाती थी।

छोटा सा झोपड़पट्टी का घर नशे की आदत से पति का देहांत हो चुका था।

नवरात्रि की नवमीं के दिन सेठ जी के यहां कन्या भोज का आयोजन था। कल्लो की बिटिया भी जिद्द कर उसके साथ वहाँ चली गई।

मोहल्ले में घूम-घूम कर कल्लो ने अपने सेठ जी के घर के लिए कन्याएं एकत्रित किए।

परंतु उनके घर से किसी ने भी उनकी नन्हीं सी बिटिया को नहीं देखा। किसी ने कहा भी तो घर की महिलाएं बोली… उसको गिनती में नहीं लेंगे उसको अलग से प्रसाद दे दिया जाएगा।

कन्याओं का पूजन कर भोजन कराया गया। बच्ची देखती रही और अपनी माँ से पूछा… मुझे क्यों नहीं बिठाया जा रहा। इनके साथ क्या मैं कन्या नहीं हूँ ?? क्या? मैं इन से अलग बनी हूँ । मां के पास कोई जवाब नहीं था। आंखों से अश्रु की धार बह निकली और बस इतना ही बोली… हम लोग गरीब है।

कन्या भोजन के बाद घर की महिलाओं ने बचा हुआ और थोड़ा सा प्रसाद मिलाकर बाँधकर थाली में जो कुछ छूट गया था उसकी लड़की को देकर कहा यह ले जाओ घर में खा लेना।

बच्ची ने झट पकड़ लिया। माँ काम निपटा कर अपनी बेटी को लेकर घर आई और वह प्रसाद  घर के बाहर दरवाजे पर रखकर चली आई।

घर आकर साफ-सुथरा भोजन बनाकर वह अपनी बिटिया को पटे पर बिठा माँ  ने पूजन कर तिलक लगा आरती उतार कहने लगी… मैं अपनी कन्या का पूजन खुद करुँगी । इतने भीड़ में मेरी कन्या का पूजन अच्छा थोड़ी होगा।

बिटिया भी समझदार थी दुर्गा की कहानियाँ हानियां टी वी से देखती सुनती और समझती  थी। शक्ति का अवतार माँ भगवती दुर्गा नारी शक्ति माँ ही होती है। उसने अपनी माँ  को अपने पास बुला कर बिठाया और तिलक लगाकर बोली माँ मेरी रक्षा के लिए आपकी पूजन होना बहुत जरूरी है।

दोनो माँ बेटी की इस तरह की बातों को सेठ जी के घर से उनका लड़का जो सामान देने घर आया हुआ था देख रहा था।  वह अत्यन्त अत्यंत भावुक उठा और हाथ जोड़कर बोला….. सच में यही कन्या पूजन और यही शक्ति पूजन है। जाने अनजाने हमारे घर वालों से बहुत बड़ी गलती हुई हैं। मैं घर जाकर अभी सभी को बताता हूं। और भाव विभोर हो घर की ओर बढ़ चला।

माँ और बिटिया प्रसन्नता पूर्वक अपना प्रसाद ग्रहण कर रहे थे। सच में आज मां शक्ति और कन्या भोज दोनों का पूजन एक साथ हो रहा था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – और रावण रह गया ☆ श्री राघवेंद्र दुबे

श्री राघवेंद्र दुबे

(ई- अभिव्यक्ति पर श्री राघवेंद्र दुबे जी का हार्दिक स्वागत है।  विजयादशमी पर्व पर आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा  “और रावण रह गया .)

☆ लघुकथा – और रावण रह गया ☆ 

एक बड़े नगर के बड़े भारी दशहरा मैदान में काफी भीड़ थी. लोगों के रेले के रेले चले आ रहे थे. आज रावण दहन होने वाला था. रावण भी काफी विशाल बनाया गया था.

ठीक रावण जलाने के वक्त पुतले में से एक आवाज आयी  ” मुझे वही आदमी जलाये जिस में राम का कम से कम एक गुण अवश्य हो। भीड़ में खलबली मच गई। तरह-तरह की आवाजें उभरने लगी। लेकिन थोड़ी देर बाद वातावरण पूर्ण शांत हो गया। कहीं से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी।

रावण ने आश्चर्य से नजरें झुका कर नीचे देखा तो मैदान में कोई नहीं था।

©  श्री राघवेंद्र दुबे

इंदौर

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हिंदी साहित्य – लघुकथा ☆ विजयादशमी पर्व विशेष ☆ रावण दहन ☆ श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  का विजयादशमी पर्व पर एक विशेष लघुकथा  ” रावण दहन “। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन । 

विजयादशमी पर्व विशेष ☆ रावण दहन ☆

दशहरे के दूसरे दिन सुबह चाय की चुस्कियों के साथ रामनाथ जी ने अखबार खोल कर पढना आरंभ किया। दूसरे ही पृष्ठ  पर एक बडे शहर में कुछ व्यक्तियों के द्वारा एक अवयस्क लडकी के  सामूहिक शीलहरण का समाचार बडे से शीर्षक  के साथ दिखाई दिया। पूरा पढने के बाद उनका मन जाने कैसा हो आया। दृष्टि  हटाकर आगे के पृष्ठ  पलटे तो एक  पृष्ठ पर समाचार छपा दिखा – नन्हीं नातिन के साथ नाना ने धर्म की शिक्षा देने के बहाने शारीरिक हमला किया, गुस्से के मारे वह पृष्ठ बदला ही था कि चौथे पन्ने पर बाॅक्स में समाचार छपा था – एक बडे नेता को लडकियों की तस्करी के आरोप में पुलिस ने दबोचा। वाह रे भारतवर्ष !! कहते हुये वे अगले पृष्ठ को पढ रहे थे कि रंगीन फोटो सहित समाचार सामने पड़ गया – मुंबई पुलिस ने छापा मार कर फिल्म जगत की बडी हस्तियों को गहरे नशे  की हालत में अशालीन अवस्था में गिरफ्तार किया- हे राम, हे राम कहकर आगे नजर दौडाई कि स्थानीय जिले का समाचार दिखाई दिया, नगर में एक बूढे दंपति को पैसों के लिये नौकर ने मार दिया और नगदी लेकर भाग गया। यह पढकर वे कुछ देर डरे रहे फिर लंबी सांस भर कर अखबार में नजर गड़ा दी। सातवें पृष्ठ का समाचार पढ कर उन्हें अपने युवा पोते का स्मरण हो आया, लिखा था- राजधानी में चंद पैसों और मौज-मस्ती के लिये युवा छात्र चेन झपटने, और मोटरसायकिल चोरी के आरोप में पुलिस द्वारा पकडे गये । इन युवाओं के आतंक की गतिविधियों में जुडे होने का संदेह भी व्यक्त किया गया था।

अंतिम पृष्ठ पर दशहरे पर रावण दहन की अनेक तस्वीरें छपी थीं जिन्हें देखकर रामनाथ सोचने लगे कि कल हमने किसे जलाया ????

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखंड)

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेरू का मकबरा भाग-2 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-2 – 

शेरू का प्यार—–
आपने पढ़ा कि शेरू मेरे परिवार में ही पल कर जवान हुआ घर के सदस्य ‌की तरह ही परिवार में घुल मिल गया था।अब पढ़ें——-

बच्चे जब उसका नाम लें बुलाते वह कहीं होता दौड़ लगाता चला आता और वहीं कहीं बैठ कर अगले पंजों के बीच सिर सटाये टुकुर टुकुर निहारा करता। बीतते समयांतराल के बाद शेरू नौजवान हो गया, उसके मांसल शरीर पर चिकने भूरे बालों वाली त्वचा, पतली कमर, चौड़ा सीना‌ ऐठी पूंछ लंबे पांव उसके ताकत तथा वफादारी की कहानीं बयां करते। उसका चाल-ढाल रूप-रंग देख लगता जैसे कोई फिल्मी पोस्टर फाड़ कोई बाहुबली हीरो निकल पड़ा हो। उसे दिन के समय जंजीर में बांध कर रखा जानें लगा था, क्यों कि वह अपरिचितों को देख आक्रामक‌ हो जाता और जब  मुझ से मिलने वाले कभी‌ हंसी मजाक में भी‌ मुझसे हाथापाई करते तो वह मरने मारने पर उतारू हो जाता तथा अपनी स्वामी भक्ति का अनोखा उदाहरण ‌प्रस्तुत करता। जब कभी ‌मैं शाम को नौकरी से छूट घर आता तो शेरू और मेरे पोते में होड़ लग जाती ‌पहले गोद में चढ़ने की।

वे दोनों ही मुझे कपड़े भी उतारने तक का अवसर देना नहीं चाहते थे। अगर कभी पहले पोते को गोद उठा लेता तो शेरू मेरी गोद में अगले पांव उठाते चढ़ने का असफल प्रयास करता। अगर पहले शेरू को गोद ले लेता तो पोता रूठ कर एड़ियां रगड़ता लेट कर रोने लगता। वे दोनों मेरे प्रेम पर अपना एकाधिकार ‌समझते। कोई भी सीमा का अतिक्रमण बर्दास्त करने के लिए तैयार नहीं।

इन परिस्थितियों में मैं कुर्सी‌ पर बैठ जाता। एक हाथ में पोता तथा दूसरा हाथ शेरू बाबा के सिर पर होता तभी शेरू मेरा पांव चाट अपना प्रेम प्रदर्शित करता। उन परिस्थितियों में मैं उन दोनों का प्यार पा निहाल हो जाता । मेरी खुशियां दुगुनी हो जाती, मेरा दिन भर का तनाव थकान सारी पीड़ा उन दोनों के प्यार में खो जाती। और मै उन मासूमों के साथ खेलता अपने बचपने की यादों में खो जाता,।

अब शेरू जवानी की दहलीज लांघ चुका था वह मुझसे इतना घुल मिल गया था कि मेरी परछाई बन मेरे साथ रहने लगा था। जब मैं पाही पर खेत में होता तो वह मेरे साथ खेतों की रखवाली करता,वह जब नीलगायों के झुण्ड, तथा नँदी परिवारों अथवा अन्य किसी‌ जानवर को देखता तो उसे दौड़ा लेता उन्हे भगा कर ही शांत होता। मुझे आज भी ‌याद है वो दिन जब मैं फिसल कर गिर गया था मेरे दांयें पांव की हड्डी टूट गई थी।  मैं हास्पीटल जा रहा था ईलाज करानें। उस समय शेरू भी चला था मेरे पीछे अपनी स्वामीभक्ति निभाने, लेकिन अपने गांव की सीमा से आगे बढ़ ही नहीं पाया। बल्कि गांव सीमा पर ही अपने बंधु-बांधवों द्वारा घेर लिया गया और अपने बांधवों के झांव झांव कांव कांव से अजिज हताश एवम् उदास मन से वापस हो गया था।

उसे देखनें वालों को ऐसा लगा जैसे उसे अपने कर्त्तव्य विमुख होने का बड़ा क्षोभ हुआ था और उसी व्यथा में उसने  खाना पीना भी छोड़ दिया था। वह उदास उदास घर के किसी कोने में अंधेरे में पड़ा रहता।  उसकी सारी खुशियां कपूर बन कर उड़ गई थी। उस दिन शेरू की उदासी घर वालों को काफी खल रही थी। उसकी स्वामिभक्ति पर मेरी पत्नी की आंखें नम हो आईं थीं।

मेरे घर में शेरू का मान और बढ़ गया था। महीनों बाद मैं शहर से लौटा था। मेरे पांवों पर सफेद प्लास्टर चढ़ा देख शेरू मेरे पास आया मेरे पांवों को सूंघा और मेरी विवशता का एहसास कर वापस उल्टे पांव लौट पड़ा और थोड़ी दूर जा बैठ गया तथा उदास मन से मुझे एक टक निहार रहा था।
उस घड़ी मुझे एहसास हुआ जैसे वह मेरे शीघ्र स्वस्थ्य होने की विधाता से मौन प्रार्थना कर रहा हो। उसकी सारी चंचलता कहीं खो गई थी। ऐसा मे जब मैं सो रहा होता तो वह मेरे सिरहाने बैठा होता। जब किसी चीज के लिए प्रयासरत होता  तो वह चिल्ला चिल्ला आसमान सर पे उठा लेता और लोगों को घर से बाहर आने पर मजबूर कर देता।

आज भी मुझे याद है वह दिन जिस दिन मेरा प्लास्टर कटा था,उस दिन शेरू बड़ा खुश था ऐसा। लगा जैसे सारे ज़माने की खुशियां शेरू को एक साथ मिली हो। वह आकर अपनी पूंछ हिलाता मेरे पैरों से लिपट गया था। जब मैं ने पर्याय से उसका सिर थपथपाया तो उसकी आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े थे और मैं एक जानवर का पर्याय पा उसकी संवेदनशीलता पर रो पड़ा था ।

—– क्रमशः भाग 3

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 68 – नक्शे का मंदिर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “नक्शे का मंदिर। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 68 ☆

☆ नक्शे का मंदिर ☆

 नक्शे पर बना मंदिर। जी हां, आपने ठीक पढ़ा। धरातल की नीव से 45 डिग्री के कोण पर बना भारत के नक्शे पर बनाया गया मंदिर है। इसे भारत माता का मंदिर कह  सकते हैं। इस मंदिर की छत का पूरा नक्शा भारत के नक्शे जैसा हुबहू बना हुआ है। इसके पल में शेष मंदिर का भाग है।

इस मंदिर की एक अनोखी विशेषता है । भारत के नक्शे के उसी भाग पर लिंग स्थापित किए गए हैं जहां वे वास्तव में स्थापित हैं । सभी बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन इसी नक्शे पर हो जाते हैं।

कांटियों वाले बालाजी का स्थान कांटे वालों पेड़ की अधिकता के बीच स्थित था। इसी कारण इस स्थान का नाम कांटियों वाले बालाजी पड़ा।  रतनगढ़ के गुंजालिया गांव, रतनगढ़, जिला- नीमच मध्यप्रदेश में स्थित भारत माता के इस मंदिर में बच्चों के लिए बगीचे, झूले, चकरी आदि लगे हुए हैं । इस कारण यह बच्चों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

कटीले पेड़~

नक्शे पर सेल्फी ले

फिसले युवा।

~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-09-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आलू कैसे छीलें? ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

( आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी की  मानवीय संबंधों  और मशीनों पर निर्भर होती आने वाली पीढ़ी पर आधारित एक विचारणीय कहानी   – “आलू कैसे छीलें?”।  कृपया  रचना में निहित मानवीय दृष्टिकोण को आत्मसात करें )

☆ आलू कैसे छीलें? ☆

लॉक डाउन में समय काटने के लिए किचन में पुरुषों में आमद रफ़त बढ़ गई है. स्वादिष्ट खाना बनाने के नुस्खे आजमा रहे हैं. उनकी देखा देखी बच्चे भी माँओं  के काम में अड़ंगा डाल रहे हैं. अभी कल परसों की बात होगी.मेरा पौत्र आयुष अपनी माँ के पास किचन में खड़ा होकर सवाल पर सवाल पूछे जा रहा था. सामने उबले आलू रखे थे. आलुओं को देख वह बोला-“मम्मी पोटाटो का क्या बनेगा?

–आलू बण्डे. माँ ने कहा

— तो बनाओ! कैसे बनते हैं

–आलू को छीलना पड़ेगा.

–मैं छील दूं?

–ये बहुत गरम हैं. आपसे नहीं बनेंगे. जल जाओगे.

आयुष नहीं माना. तब आयुष ने आलुओं को उठाया. वे बहुत गर्म थे.वह सी सी करने लगा. फिर दौड़ा दौड़ा अपने कमरे में गया, और स्मार्ट डिजीटल डिवाइस अलेक्सा ले आया. उसको आन किया और पूछा .

–आंटी!गरम आलू कैसे छीलते हैं?

—“आलू कच्चे हैं या पके”? फोन से आवाज आयी.

— मम्मी!आंटी पूछ रही हैं, आलू कच्चे हैं या पके?

—“पके”- मम्मी ने बताया

–आंटी पके! -बच्चे ने माँ की बात दुहरा दी

—“छोटे हैं या बड़े?”- फिर आवाज आई.

—मम्मी! छोटे हैं या बड़े ?

—मँझले!- माँ ने कहा.

—आँटी! मँझले.

—“तय करके बताओ! कैसे हैं ?.”

—मम्मी !आँटी पूछ रहीं हैं कि कैसे हैं?

मम्मी ने भुनभुनाकर कहा, कह दे-“छोटे हैं, पर छोटे से थोड़े बड़े हैं.”

—-आँटी! मम्मी कह रही हैं -” छोटे से थोड़े बड़े.”

—-ठीक है,अभी आलू ठण्डे हैं या बहुत गरम?

—“-बहुत गरम.” बच्चे ने तुरंत जबाब दिया.

—-आलू को हाथ से मत उठाना. हर गरम चीज को उठाने से हाथ जल जाते हैं. आवाज ने आगाह किया.

—-जलने से क्या होता हैआंटी.? बच्चे ने सवाल किया.

—-जलने से फफोले पड़ जाते हैं.. फिर उसका इलाज लम्बे समय तक चलता है.

—- मासूम बच्चे ने पूछा, “आंटी! पड़ोस वाली सौम्या दीदी कह रही थी उनका दिल जल रहा है पर कहीं पर फफोले नहीं दिख रहे हैं. दिल कहाँ पर होता है ?

—-अभी तुम दिल के चक्कर में मत पड़ो. अपने टास्क पर ध्यान दो. बस तुम्हें गरम आलू छीलना है.

— ठीक है आंटी! मुझे भी दिल से क्या लेना है. जो दिखता नहीं. तो बताओ आलू कैसे छीलें?

—अच्छा बताओ, किचन में छोटी, बड़ी चिमटी,फोर्क हैं?

—मम्मी! चिमटी या फोर्क है? बच्चे ने माँ की ओर देखते हुए कहा.

—रैक में रखे हैं. मम्मी ने सामने की ओर इशारा किया.

— आयुष रैक से फोर्क ले आया. बोला, ‘बताओ.आंटी, अब क्या करना है?’

—पहले बाउल में रखे आलुओं में से एक में फोर्क को घुसाकर उठाओ.

—आंटी! घुसाया पर वह टूटकर टुकड़े टुकड़े हो गया.

—दूसरे आलू में घुसाओ.

—पल भर के बाद बच्चे ने बताया,’आंटी वह भी टुकड़े टुकड़े हो गया.

—‘एक बार और कोशिश करो’ आवाज आई.

—आंटी! फोर्क घुसाने से आलू टूट रहे हैं.

— चिंता मत करो.

–आंटी!अब मैं क्या करुं? मैं आलू छीलना चाहता हूँ.

—मुझे विश्वास है तुम आलू छील लोगे.

— मम्मी हैं?

—हाँ! पर वह फोन पर बात कर रही हैं.

—और पापा ?

—वे भी मोबाइल पर चैट कर रहे हैं.आंटी, मैं परेशान हो गया. मुझे आलू छीलना है. यह मेरा आज का टास्क है.

—धैर्य रखो! तुमनें धैर्य नहीं रखा, इसलिए आलू टुकड़े हो गए.

—आंटी! धैर्य किसे कहते हैं?

— धैर्य मीन्स पेशेन्स.

—ओह! समझ गया.

—अच्छा! अपनी दादी को बुलाओ.

—दादी मीन्स.

— ग्रैंड  मॉम .

—ओह! आंटी, पर ग्रैंड मॉम हमारे साथ नहीं रहती हैं. वे अलग अकेली रहती हैं.

— ‘अच्छा ! अब समझ गई. तभी आलू छीलने वाली मुसीबत साल्व नहीं हो रही है.’ फिर आवाज आईं.

—हाँ! प्लीज़ जल्दी से साल्यूशन बताइए.

—‘अच्छा ऐसा करो. तुम पापा से कहो. वे ग्रैंड मॉम को घर ले आएं.’आवाज ने सुझाया

—-आंटी! ग्रेंड माम को पता है. कि गरम आलू कैसे छीलते हैं?

—हाँ ! उन्हें ठण्डे, गरम, छोटे, बड़े आलू छीलने का अनुभव है. उनके पास आपके सभी प्रॉब्लम  का सोल्युशन है.

—‘थैंक यू,वेरी मच आंटी.’

आयुष चिल्लाते चिल्लाते पापा के पास गया – पापा ! आज हम ग्रैंड मॉम घर लाएंगे.

—क्यों? पापा ने पूछा.

—-बच्चे ने बताया,’अलेक्सा आंटी कह रही हैं कि – ग्रैंड मॉम के पास हर प्रोब्लेम्स का सोल्युशन है. आप लोगों के पास समय नहीं है कि मुझे बताएं कि आलू कैसे छीलें, कौन सा काम कैसे करें?

 

© श्री रमेश सैनी 

जबलपुर , मध्य प्रदेश 

मोबा. 8319856044  9825866402

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लघुकथा – आग ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लघुकथा – आग

दोनों कबीले के लोगों ने शिकार पर अधिकार को लेकर एक-दूसरे पर धुआँधार पत्थर बरसाए। बरसते पत्थरों में कुछ आपस में टकराए। चिंगारी चमकी। सारे लोग डरकर भागे।

बस एक आदमी खड़ा रहा। हिम्मत करके उसने फिर एक पत्थर दूसरे पर दे मारा। फिर चिंगारी चमकी। अब तो जुनून सवार हो गया उसपर। वह अलग-अलग पत्थरों से खेलने लगा।

वह पहला आदमी था जिसने आग बोई, आग की खेती की। आग को जलाया, आग पर पकाया। एक रोज आग में ही जल मरा।

लेकिन वही पहला आदमी था जिसने दुनिया को आग से मिलाया, आँच और आग का अंतर समझाया। आग पर और आग में सेंकने की संभावनाएँ दर्शाईं। उसने अपनी ज़िंदगी आग के हवाले कर दी ताकि आदमी जान सके कि लाशें फूँकी भी जा सकती हैं।

वह पहला आदमी था जिसने साबित किया कि भीतर आग हो तो बाहर रोशन किया जा सकता है।

 

©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 8.16 बजे  04.08.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेरू का मकबरा भाग-1 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-1 

दो शब्द रचना कार के – यों  तो मानव जाति का जब से ‌जन्म हुआ और सभ्यता विकसित होने से पूर्व पाषाण‌काल से ही मानव तथा पशु पक्षियों के संबंधों पर‌ आधारित कथा कहानियां कही सुनी जाती रही‌ हैं। अनेक प्रसंग पौराणिक कथाओं मे कथा  के अंश रुप मे विद्यमान रहे  है तथा यह सिद्ध करने में कामयाब रहे हैं कि कभी मानव अपनी दैनिक आवश्यकताओं  की पूर्ति के लिए पशु पक्षियों पर निर्भर था। जिसके अनेक प्रसंग रामायण महाभारत तथा अन्य काव्यों में वर्णित है चाहे जटायु का अबला नारी की रक्षा का प्रसंग हो अथवा महाभारतकालीन कथा प्रसंग।हर प्रसंग अपनी वफादारी की चीख चीख कर दुहाई देता प्रतीत होता है।

इसी कड़ी में हम अपने पाठकों के लिए लाये हैं एक सत्य घटना पर आधारित पूर्व प्रकाशित रचना जो इंसान  एवम जानवरों के संबंधों के संवेदन शीलता के दर्शन कराती है। आपसे अनुरोध है कि अपनी प्रतिक्रियाओं से अवश्य‌ ही अवगत करायेंगे। आपकी निष्पक्ष समालोचना हमें साहित्य के क्षेत्र में निरंतर कुछ नया करने की प्रेरणा देती हैं।

पूर्वांचल का एक ग्रामीण अंचल, बागों के पीछे झुरमुटों के ‌बीच बने मकबरे को शेरू बाबा के मकबरे के रुप में पहचानां जाता है। उस स्थान के बारे में एक किंवदंती प्रचलित है कि संकट से जूझ रहे ‌हर प्राणी के जीवन की रक्षा शेरू बाबा‌ करते है और वे सबकी मुरादें पूरी करते हैं। हृदय में बैठा यही विश्वास व भरोसा आम जन मानस को प्रतिवर्ष श्रावण पूर्णिमा के दिन शेरू बाबा के मकबरे ‌की ‌ओर खींचे लिए चला जाता है और श्रावण पूर्णिमा को उस मकबरे पर बडा़ भारी मेला लगता है।

आज श्रावणी पर्व का त्योहार है।  गाँव जवार के सारे बूढ़े‌ बच्चे नौजवान क्या हिन्दू क्या मुसलमान, सारे के सारे लोग अपने अपने दिल में अरमानों की माला संजोए मुरादों के ‍लिये‌ झोली फैलाए शेरू‌बाबा‌‌ के मुरीद बन उनके ‌दरबार मे हाजिरी लगाने को तत्पर दीखते रहे हैं। मकबरे की पैंसठवीं वर्षगांठ मनाई जा रही‌ है। मेला अपने पूरे शबाब ‌पर है। कहीं पर नातों कव्वालियों का ज़ोर है, तो कहीं भजनों कीर्तन का शोर। हर तरफ आज बाबा की शान में कसीदे पढ़ें जा रहें हैं।

आज कोई खातून‌ बुर्के के पीछे से झांकती दोनों आंखों में सारे ‌जहान का दर्द लिए दोनों हाथ ऊपर उठाये अपने लाचार एवम् बीमार शौहर के ‌जीवन की भीख‌ मांग रही है। तो वहीं कोई बुढ़िया माई‌ अपने‌ हाथ जोड़े, सिर को झुकाये इकलौते  सैनिक बेटे ‌की सलामती की दुआ मांग रही है। वहीं पर कई प्रेमी जोड़े हाथों में हाथ डाले पूजा की थाली उठाये शेरू बाबा के नाम को साक्षी मान साथ साथ जीने मरने  कसमें ‌खाते दिख रहे हैं।

इन्ही चलने वाले क्रिया कलापों के ‌बीच सहसा अक्स्मात मेरे जेहन में शेरू बाबा की आकृति  सजीव हो उठती है। और उसके साथ बिताए ‌पल चलचित्र की तरह स्मृतियों में घूमने लगते है। मैं खो जाता हूं ‌उन बीते पलों में और तभी वे पल मेरी लेखनी से ‌कहानी‌ बन फूट पड़ते हैं तथा शेरू के त्याग एवम् ‌बलिदान की गाथा उसे अमरत्व प्रदान करती‌ हुई पुराणों में तथा पंच तंत्र में वर्णित पशु पक्षियों की ‌गौरव गाथा बन मानवेत्तर संबंधों का मूल आधार तय करती दिखाई देती है। मैं एक बार फिर लोगों को सत्य घटना पर आधारित ‌शेरू का जीवनवृत्त सुनाने पर विवश हो जाता हूँ।

वो जनवरी का महीना, जाड़े की सर्दरात का नीरव वातावरण,कुहरे की चादर से लिपटी घनी अंधेरी काली रात का प्रथम प्रहर, सन्न सन्न चलती शीतलहर, मेरे पांव गांव से बाहर सिवान में बने खेतों के बीच पाही पर बने कमरे की तरफ बढे़  चले जा रहे थे, कि सहसा मेरे कानों से किसी‌ श्वान शावक के दर्द में ‌डूबी कूं -कूं की‌ आवाज टकराई, जिसनें मेरे आगे बढ़ते क़दमों को‌ थाम‌ लिया। टार्च की पीली रोशनी में उसकी दोनों बिल्लौरी आंखें ‌चमक उठी। मुझे ऐसा लगा जैसे उसे अभी अभी कोई उसे उस स्याह‌ रात में बीच सड़क पर ठंढ़ में मरनें के लिए छोड़ गया हो।

उस घनी काली रात में जब उसे आस-पास किसी मानव छाया के होने का एहसास हुआ तो वह मेरे पास आ गया और मेरे पांवों को चाटते हुए, अपने अगले पंजों को मेरे पांवों पर रख लोटनें पूंछ हिलाने तथा कूं कूं की आवाजें लगाया था ऐसा लगा जैसे वह मुझसे अपने स्नेहिल व्यवहार का प्रति दान मांग रहा हो। अब उसके पर्याय ने मेरे आगे बढ़ते कदमों को थाम लिया था।

मैं उस अबोध छोटे से श्वानशावक का प्रेम निवेदन ठुकरा न सका था। मैंने सारे संकोच त्यागकर उस अबोध बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया तथा उसे कंधे से चिपकाते पुनः घर को लौट पड़ा था। वह भी उस भयानक ठंढ़ में मानव तन की गर्मी एवम् पर्याय का प्रतिदान पा किसी अबोध बच्चे सा कंधे पर सिर चिपकाये टुकुर टुकुर ताक रहा था। यदि सच कहूं तो उस दिन मुझे उस बच्चे से अपने किसी सगे संबंधी जैसा लगाव हो गया था।

उस दिन घर-वापसी में मेरे घर के आगे अलाव तापते मुझे देखा तो उन्होने बिना मेरी भावनाओं को समझे मेरे उस कृत्रिम की हंसी‌ उड़ाई थी। उस समय मेरी दया करूणा तथा ममता उनके उपहास का शिष्य बन गई थी। लेकिन मैं तो मैं ठहरा बिना किसी की बात की परवाह किए सीधे रसोई घर में घुस गया और कटोरा भर दूध रोटी खिला उस शावक का पेट भर दिया।  उसे अपने साथ पाही पर टाट के बोरे में लपेट अपने पास‌ ही सुला दिया। वह तो गर्मी का एहसास होते ही सो गया।

उसके चेहरे का भोलापन तथा अपने पंजों से‌ मेरे पांवों को कुरेद कुरेद रोकना मेरे दिल में उतर चुका था। उस रात को मैं ठीक से पूरी तरह सो नहीं सका था। मैं जब भी उठ कर उसके चेहरे पर टार्च की रोशनी फेंकता तो उस अपनी तरफ ही टुकुर टुकुर तकते पाता। मानों वह मौन होकर मुझे मूक धन्यवाद दे रहा हो।

मैं सारी ‌रात जागता रहा था। भोर में ही सो पाया था। मैं काफी देर से सो कर उठा था।  लेकिन जब उठा तो उसे दांतों से मेरा ओढ़ना खींचते खेलते पाया था।

मैं जैसे ही उठ कर खड़ा हुआ तो वह फिर मेरे पांव से लिपटने खेलने-कूदने लगा था। इस तरह उसका खेलना मुझे बड़ा भला लगा था। जब मैं घर की ओर चला तो वह भी पीछे पीछे दौड़ता हुआ घर आ गया था। मात्र कुछ ही दिनों में वह घर के हर प्राणी का चहेता तथा दुलारा बनाया था ।बाल मंडली का तो वह खिलौना ही बन गया था। वह बड़ा ही आज्ञाकारी तेज दिमाग जीव था। वह लोगों के इशारे खूब समझता और मुझसे तो उसका बड़ा विशिष्ट प्रेम था। घर की बालमंडली ने उसे शेरू नाम दिया था।

—– क्रमशः भाग 2

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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