हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 27 ☆ लघुकथा – जिद ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “जिद ”। हमने  अपने जीवन  में यह देखा है कि यदि मनुष्य कोई बात मन में ठान ले और उसे पूरी करने पर उतर आये तो उसे सच होने में देर नहीं लगाती। हाँ समय जरूर लग सकता है, लोग जरूर उस पर हंस सकते हैं। किन्तु, अपनी जिद पूर्ण करने वाले मनुष्य भी बिरले ही होते हैं जिनका हम उदहारण बनाने के बजाय उदहारण देते नहीं थकते। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस कथानक को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 27 ☆

☆ लघुकथा – जिद

सबकी तरह उन दोनों के लिए भी लॉकडाउन में समय काटना कठिन हो रहा था. अब तक सारा दिन  मजूरी – हारी में निकल जाता था. हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का तो कभी वक्त ही नहीं मिला. रात होते – होते थककर चूर हो जाते थे दोनों.  कभी- कभी  सोचता था वह, अच्छा हुआ  भगवान ने रात तो बनाई वरना—-कोल्हू का बैल . खुद पर हँस पडा,  खाली बैठे – बैठे कुछ भी आता है दिमाग में.  घर में भी क्या कम काम हैं ? पानी लाने के लिए कोसों दूर जाना पडता है, गाँव में कोई कुआँ नहीं है . कुआँ  ? अचानक उसके मन में विचार आया और  उसने पत्नी को बुलाया– अरे  मनिया सुन ना.

मनिया दौडी – दौडी आई – क्या हुआ ?

सुन मनिया! हमारे गाँव में एक भी कुआँ नहीं है, कितनी दूर जाना पडता है पानी लेने के लिए.अरे! तो ये कौन सी नई बात बता रहे हो, रोज तो  जाते हैं पानी लेने,  दो घंटा लग जाता है.  अगर हम दोनों मिलकर अपने घर में ही कुआँ खोद लें तो ? वह मुस्कुराया.

क्या ?? वह चिल्ला पडी  – कुआँ खोदना कोई गुडिया का खेल है का, कुआँ खोदने चले हैं.

मालूम है हमें इतना आसान काम नहीं है पर कोशिश तो कर सकते हैं ना ? सारा दिन बैठे बैठे क्या करते हैं ? ये सोचो अगर  कुआँ में पानी निकल आया तो पूरा जीवन आराम से कट जाएगा.  अपना ही नहीं, अपने बच्चों और गाँववालों का भी दुख हमेशा के लिए दूर हो जायेगा.

हाँ ये बात तो है,उसकी आँखों में चमक आ गई – उसके आँगन  में कुआँ ?  हो सकता है क्या ऐसा ?

सब सपना ही लग रहा था, पर वह भी मुस्कुरा दी.

फिर शुरु हुआ  एक अनोखा सफर, गाँव में जिसने सुना बोले – पागल हो गये हैं मियां- बीबी, दो आदमी कहीं कुआँ खोद सकते हैं उसमें से एक औरत जात ?

पर उन्होंने किसी की ना सुनी. एक ही धुन थी कि अपने गाँव में कुआँ होना ही चाहिए. गाँव वाले बोले- इतनी जल्दी पानी नहीं निकलता, मशीन मंगवानी पडती है.

अब तो अपने सपने को पूरा करने की जिद थी बस.  कुआँ खोदते हुए बीस दिन हो गये थे, लगभग बाईस फीट की गहराई तक खुदाई कर चुके थे, दोनों बच्चे माता पिता को ऊपर से ही देखते रहते थे, रात का समय था अचानक बच्चे खुशी से चिल्ला उठे – अम्माँ देखो कुएँ में तारे उतर आए.

कुएँ में पानी उनके पैरों को चूम रहा था. वे दोनों कुएँ की गहराई में खडे आकाश के तारों को  देख रहे थे, ये तारे उनके दिल में चमक रहे थे.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 45 – निडरता ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “ निडरता । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 45 ☆

☆ लघुकथा –  निडरता ☆

रघु दादा ने सीमा का रास्ता रोका और सीमा को अपनी सहेली – मीना की शारीरिक और मानसिक यातना की याद आ गई जो गुंडे और समाज के कारण आज भी मीना भुगत रही थी, “ कोई है ! बचाओं ! मार डाला !” कहते हुए उस ने अपना माथा वेन से टकराया और जमीन पर गिर पड़ी.

“ अरे दौड़ो !” एक साथ कई आवाजें महाविद्यालय परिसर गूंजी  .

रघु दादा के लिए यह अप्रत्याशित था. वह डर कर चिल्लाया , “ भागो !”

कुछ ही देर में नजारा बदल गया था. लड़की के साथ गुंडागर्दी करने वाले गुंडे की निडरता का बलात्कार हो चुका का था. वही सीमा अपने साथियों के घेरे में खुशी से चीखते हुए रो पड़ी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२४/०७/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 44 – लघुकथा – पतंग की डोर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  दो  छोटे भाइयों के संबंधों  के ताने बाने और पिता की भूमिका पर आधारित एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “पतंग की डोर ।  इस सर्वोत्कृष्ट विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 44 ☆

☆ लघुकथा  – पतंग की डोर

 

छत में पतंग बाजी चल रही थी। सभी बच्चें, युवा अपने अपने पतंग का मांझा और पतंग संभालकर ऊंचे आकाश में पतंग उड़ा रहे थे। पवन मंद गति से सभी का साथ निभाते हुए  पतंग आगे बढ़ने में सहायक हो रही थी।

रंग-बिरंगे पतंग चारों तरफ दिखाई दे रही थी। दो भाई रोशन और रोहित भी पतंग उड़ा रहे थे। उनके पापा  धीरे-धीरे टहल रहे थे

अचानक हवा तेज हो गई। छोटे भाई रोहित ने आवाज़ लगाई.. भैया मेरी पतंग कटने वाली है, जरा संभाल लेना, शायद डोर उलझ गई है।

बड़े भाई रोशन ने तुरंत अपनी पतंग संभाल, छोटे भाई की भी उलझी हुई मांझा सुधारने लगा।

उसी समय उनके पापा धीरे धीरे चलते आकर कहने लगे.. बेटा तुम दोनों अपनी पतंग का ध्यान रखो। मैं डोर सुलझा कर दोनों का मांझा चरखा संभाल रहा हूं। तुम पतंग गिरने नहीं देना।

दोनों भाई रोशन, रोहित पतंग की डोर संभाले पापा से  जाकर लिपट  गए। उंचाई पर  पतंग हवा के साथ अठखेलियाँ कर रही थीं।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 26 ☆ लघुकथा – भूख ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “ भूख ”।  यह लघुकथा हमें  आज की वास्तविकता से रूबरू कराती है।  एक नई ब्रेकिंग न्यूज़ आती है और पिछली ब्रेकिंग न्यूज़ को खा जाती है। एक सकारात्मक सन्देश देती है।  आखिर कैमरामेन और रिपोर्टर की भी तो अपनी नौकरी है और अपनी भूख है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस  कथानक को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 26 ☆

☆ लघुकथा – भूख

रमिया बच्ची को दूध पिलाकर सुला ही रही थी कि महेश घबराया हुआ आया – अरे रमिया ! सुनी का, मोदी जी कहे हैं देश में सब बंदी है कल से, लॉकडाउन कहे हैं.

एकर का मतलब ? कइसी बंदी ? समझे नाही हम – रमिया भोलेपन से बोली

महेश की आवाज में थरथराहट थी  अरे पगली! सब काम बंद, कउनो करोना नाम की महामारी आई है विदेस से. अइसी  खतरनाक है कि पता नाहीं चलत है, छुए से होय जात है, ई बीमारी की दवा भी नाहीं है. विदेस में रोज हज्जारों लोग मरत हैं ई बीमारी से.सब कहत रहे एक दूसरे से दूर रहो, हाथ ना लगाओ किसी को, मुहाँ पर पट्टी बाँधे घूमत हैं लोग. घबरावत काहे हो, नाही छुअब हम कौनो को, एही खोली में रहब – रमिया बिटिया को सुलाते हुए धीरे से बोली.

मालिक भी कह दिए हैं कल से काम पर मत आओ, साईट पर काम बंद,  जहाँ जाए का होय जाओ – महेश रोनी सी आवाज में अपने को संभालता हुआ बोला.

ई का  कह रहे हो ? अरे राम, काम बंद तो पगार भी ना मिली ?  का करिहें, कइसे रहियें यहाँ बिना खाना-  पानी ? खोली का किराया ? अकेले होते तो दूसरी बात, नन्हीं सी जान है हमरे साथ. रमिया रुआँसी हो गई.

गांव चली हम लोग ?  वहाँ गुजर हो जाई – उदास स्वर में रमिया ने कहा.

नाहीं जा सकत रमिया, टरेन, बस सब बंद होय गई, कऊनो साधन नाही है गांव जाय का

रमिया की आँखें छलछला आईं, कमजोर शरीर था पैर काँपने लगे, घबराकर सिर पकडकर वहीं बैठ गई, अब का करिहैं गुडिया के बापू ?

और उसके बाद निकल पडे दोनों नन्हीं सी गुडिया को कलेजे से लगाए.  रोज कमानेवाले मजदूरों के पास बचता ही क्या है ? बेचारों के पास थोडे बहुत जो रुपए – पैसे थे लेकर चल दिए. गांव तो क्या पहुँचते ? रास्ते में ही पुलिस ने रोक दिया.

रमिया बच्ची को गोद में लिए बिलख-बिलखकर रो रही है – एक टेम का भी खाना नहीं मिल रहा, कईसे दूध पिलाई बिटिया को ? गाँव पहुँच जाते तो भूखे तो ना मरते साहब ? रुपया- पईसा जो था सब खत्म होय गवा. अब का खाई और बिटिया को का पिलाई ? महेश लाचार बैठा पथराई आँखों से रमिया को रोते देख सोच रहा था- कोरोना का पता नहीं,  भूख से ना मर जायें उसकी रमिया और बिटिया.

रिपोर्टर रमिया  से बार बार पूछ रहा था – एक  समय भी खाना नहीं मिला  आपको ? कितने महीने की बच्ची है ? कहाँ जाना है ?  कैमरा रमिया और जमीन पर लेटी बच्ची को फोकस कर  रहा था.  रिपोर्टर को अपने न्यूज चैनल पर दिन भर दिखाने के लिए एक दर्दनाक कहानी मिल गई थी.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 44 – बलि ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बलि । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 44 ☆

☆ लघुकथा –  बलि ☆

 

शहर से आई रीना अपनी ताई रामेश्वरी बाई की बातें सुन कर चिढ़ पड़ी, ‘‘ ताई जी ! आप भी किस की आलोचना करने लगी. कोई बकरे की बलि दे या हाथी की, हमें क्या करना है ? हम उन के वहां कौन से खाने जा रहे है. हम ठहरे शाकाहारी लोग.’’

‘‘ पर बिटिया जीव हत्या तो पाप है ना,’’ रामेश्वरी बाई अपनी बेटी के सिर से जूंए निकाल कर दोनों अंगूठे के नाख्ून के बीच मारते हुए बोली,‘‘ चाहे वह हाथी की बलि दो या बकरे की…..या फिर मुर्गे की.

“इस से क्या फर्क पड़ता है.’’

रीना को ताई की यह बात जमी नहीं. वह शहर से आई थी जहां कोई किसी से कोई मतलब नहीं रखता है. दूसरा, वह विज्ञान की छात्रा थी जानती थी कि जो जीव जन्म लेता है वह मरता है. वह आज मरे या कल, इस से क्या फर्क पड़ता है इसलिए उसे इस पर बहस करना फिजूल लग रहा था.

‘‘काहे फर्क नहीं पड़ता है बिटिया.’’ रामेश्वरी बाई अपने जूएं निकालने का कार्य करते हुए बोली,‘‘ कोई जीव हत्या करे और हम मूक दर्शक बन कर बैठे रहे. यह हम से नहीं होगा ?’’

यह सुन कर रीना को हंसी आ गई.

‘‘ताईजी, आप भी तो अब तक 22 जीवों की बलि दे चुकी है,’’ यह कहते हुए रीना ने मरी हुई, पानी में तैरती जूएं की कटोरी ताईजी के आगे कर के दिखाई‘‘ जीव चाहे मुर्गी हो जूंए, हत्या तो हत्या होती है.’’

यह सुन कर रामेश्वरी बाई आवाक रह गई. उन्हें कोई जवाब देते नहीं बना.

 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 21 ☆ लघुकथा – गले का हार ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और शिक्षाप्रद लघुकथा गले का हार।  कुछ बातें  हम अनुभव से ही सीख पाते हैं।  हम अभी भी बच्चों की छोटी छोटी समस्याओं के लिए नानी के नुस्खे ही आजमाते हैं।  श्रीमती कृष्णा जी ने  इस तथ्य को बड़ी ही सहजता से समझने का सफल प्रयास किया है।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 21 ☆

☆ लघुकथा  – गले का हार ☆

 

मत दिखाओ मोबाइल पूरे समय आँखे दुखने लगेगी और दिमाग पर भी असर होगा……आभा ने अरु को मोबाइल में कार्टून फिल्में न दिखाने के लिये बेटी से कहा..पर बेटी ने उसे ही सुना दिया ..माँ फिर अरु नयी  नयी बातें कैसे सीखेगा?  विज्ञान, ज्ञान और जनरल बातें कैसे सीखेगा ..आभा ने उसे किसी भी काम को करके सीखने का सुझाव दिया पर बेटी ने बात अनसुनी कर दी.  जब भी अरु कुछ ऊधम मचाता  बेटी उसे मोबाइल पकड़ा देती. ठंड के दिन थे उन्हीं दिनो की बात है. एक रात बड़ी देर तक वह कार्टून देखते देखते सो गया तीन बजे रात को अरु बहुत जोर-जोर से रोने लगा. बेटी दामाद उसे चुप कराने लगे पर वह चुप न हुआ.

उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि उसे क्या तकलीफ है? वे बड़े परेशान हो गये.  आभा ने अरु को उठाया और उसके दोनों कानों को अपने दोनों हाथ से कस कर दबा दिया. अरु को अच्छा लगा और वह आभा की गोद मे बैठ गया और हाथ न हटाने दिया.

सब समझ गये उसके कान में तकलीफ है. आभा ने गरम कपड़े से उसके दोनों कान को दबाये रखा. उतनी ही रात को डाक्टर को फोन किया और स्थिति बताई डाक्टर ने बीस से पच्चीस मिनट तक कानों को दबाये रखने और सुबह क्लीनिक लाने की सलाह दी. अरु आभा की ही गोद मे कुछ देर में आराम लगने पर सो गया. डाक्टर ने ठंड लगना और अधिक नींद आने पर बगैर गरम कपड़े ओढे सोने पर यह हुआ. उस दिन से आभा उसके साथ अधिक समय बिताने लगी. वही अब उसक गले का हार बन गया था. उस दिन के बाद से अरु नानी को हर बात बताता और क्या खेलना यह बताता और नानी नाती साथ साथ खेलते घूमते ….

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 43 – लघुकथा – विलुप्त ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक और बाल मन की उत्सुकता, भोलापन एवं  मनोविज्ञान पर आधारित  लघुकथा  “ विलुप्त ।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह  एक  सार्थक एवं  शिक्षाप्रद कथा है  जो  बालमन के माध्यम से संकेतों में हमें विचार करने हेतु बाध्य कराती है । इस सर्वोत्कृष्ट विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 43 ☆

☆ लघुकथा  – विलुप्त

आठ बरस की अवनी लगातार कई महीनों से निर्भया केस के बारे में पेपर में देख और पढ़ रही थी। मम्मी को भी टेलीविजन और पड़ोस की वकील आंटी के साथ चर्चा भी उसी के बारे में करते हुए सुनती थी। अवनी ज्यादा तो समझ नहीं सकी। पर जब भी मम्मी निर्भया का नाम लेती तो ‘दरिंदे जानवर’ कहती थी।

उसके बाल मन पर डायनासोर की छवि उभर कर आती थी, क्योंकि एक बार स्कूल में टीचर ने बताया था कि डायनासोर की उत्पत्ति संसार को विनाश कर सकती थी। अच्छा हुआ दरिन्दे डायनासोर जानवर की प्रजाति ही ईश्वर ने विलुप्त कर दी।

एक दिन वह गार्डन में मम्मी के साथ खेल रही थी। अचानक पड़ोस की सभी आंटी और वकील आंटी भी वहां पर आए, और निर्भया के बारे में बात होने लगी। फिर मम्मी ने वही शब्द बोली ‘निर्भया के दरिंदे जानवर’ !!!! बस अवनी थोड़ी देर बच्चों के साथ खेली, परंतु उसका खेल में मन नहीं लगा दौड़कर मम्मी के पास आकर बोली… “मम्मी क्या यह निर्भया के दरिंदों वाले जानवर की प्रजाति विलुप्त नहीं हो सकती। जिससे फिर कोई निर्भया नहीं बन पाए?” सभी एक दूसरे का मुंह देखने लगे, परंतु अवनी को क्या समझाते?

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ जानवर ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित  यह समसामयिक कहानी  ‘जानवर’ हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती है । यह वास्तव में  यह विचारणीय प्रश्न है कि – वसुधैव कुटुम्बकम  एवं वैश्विक ग्राम की परिकल्पना करने वाले हम  मानवों की मानसिकता कहाँ जा रही है।  जो जंगल में रह रहे हैं वे जानवर हैं या कि हम ? बंधुवर  श्री सदानंद जी  की यह कहानी पढ़िए और स्वयं तय करिये। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

 लघुकथा  – जानवर

नंदनवन में सभी पेड़ उदास भाव से अपनी पत्तियां हिला रहे थे, दूधिया झरना भी मंदगति से बह रहा था। मुख्य वन में दो सौ साल पुराने बरगद के नीचे जंगल के सभी जानवर एकत्रित होकर चिंतित भाव से बैठे दिख रहे थे।

एक लंबी उसांस भर कर चीकू खरगोश  ने पूछा – भूरे दादा, आदमियों की इस बस्ती में इतना सन्नाटा क्यों पसरा है ? परसों, वहां से मेरे  दूर के भाई कबरा को उसके मालिक ने छोड दिया तो उसने आकर बताया कि सारे लोग अपने-अपने घरों में बंद होकर बैठे हैं। उसने कहा कि बाहर हवा इतनी साफ और नदी इतनी चमचम कि मुझे लगा मैं नंदनवन में आ गया हूं।

सरकू सांप ने बीच में ही बात छेडी कि अरे मैं भी कल चूहे खाने शहर की सीमा में गया तो मुझे देखकर कोई डरा नहीं और किसी ने भी मुझे मारने की कोशिश नहीं की।

चूहे का नाम आते ही जानवरों में शोर-शराबा शुरू  हो गया। चूहा, चमगादड़ और बंदर एक साथ बोल पड़े हां, हां शहरों में रहने वाले हमारे रिश्तेदारों ने भी हमें बताया है कि एक अत्यंत घृणित देश  में भी हमें खाने की परंपरा एकदम बंद हो गई है, इस पर उन्हें बड़ा आश्चर्य हो रहा है।

इस चख-चख के चलते बूढे़ बरगद दादा ने भी बहुत धीमी आवाज में कहा- हां. . . . . . . . . . . . मैं भी देख रहा हूं कि पिछले कुछ दिनों से इस जंगल में भी पेड काटने कोई नहीं आया है।

उनकी बात सुनकर जंबो हाथी चाचा ने जोर जोर से सिर हिलाकर सूंड उठाकर कहा- अरे वहां तो इतना सन्नाटा है कि अब तो हमारी पत्नी और बच्चे, मेरे अड़ोसी-पड़ोसी, रोज हर की पैडी पर गंगा में नहाने जा रहे हैं। एक दिन तो हम हरिद्वार के बाजार में भी घूम आये पर हमें भगाने के लिये कोई भी आगे नहीं आया ।

यह सब सुनते हुये भूरे भालू दादा ने बडे गंभीर स्वर में कहा- सुनो-  मैं बताता हूं तुम्हें, इन सबके पीछे क्या कारण है। मनुष्यों  में इन दिनों कोई बहुत गंभीर बीमारी फैल रही है, असल में मनुष्य  भी बहुत ही गलत आदतों में डूब गया था, पर मुझे ये बिलकुल ठीक नहीं लग रहा है। मनुष्य  और हम जानवर  इस धरती पर ख़ुशी-ख़ुशी  रहने के लिये बनाये गये हैं, अगर वे हमें मारते-परेशान करते हैं तो क्या, उन्हें यह बात अब समझ आ गई है। इसलिये आओ- हम सब मिल कर वनदेवी से प्रार्थना करते हैं कि इन मनुष्यों  को इस मुसीबत से छुटकारा दिलवा दे। बेचारे बहुत ही कष्ट में हैं, इनके लिये अब  इतनी सजा ही काफी है।

भूरे दादा की बात सबको समझ आ गई और प्रार्थना करने के लिये हाथी चाचा ने सूंड लंबी कर के ऐसी जोरदार चिंघाड लगाई कि पूरा जंगल हिल गया और मैं भी पलंग से नीचे गिर पड़ा और मेरी नींद खुल गई।

थोड़ा सचेत होते ही इस सपने को याद कर के मैं यह सोचने लगा कि जंगली जानवर वे हैं या हम मनुष्य  ??

 

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार ( उत्तराखंड )

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ एक सच ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

( डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज ससम्मान  प्रस्तुत है आपकी एक बेहद आत्मीय कहानी एक सच।  यह एक कटु सत्य है कि सेल्फ पब्लिशिंग  एक व्यापार बन गया है। यदि अपवाद स्वरुप कुछ प्रकाशकों को छोड़ दें तो अक्सर लेखक  स्वयं को लेखक-प्रकाशक-पुस्तक विक्रेता चक्रव्यूह  में स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस करता है। संवेदनशीलता से लिखा हुआ साहित्य बिना पैसे खर्च किये जमीनी स्तर तक पहुँचाना  इतना आसान नहीं रहा। आज लेखक अपनी पुस्तक अपनी  परिश्रम से कमाई हुई पूँजी लगाकर प्रकाशित तो कर लेता है किन्तु ,वह उन्हें बेच नहीं पाता। इस बेबाक कहानी के लिए डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी की लेखनी को सादर नमन।)  

☆ कथा-कहानी –  एक सच ☆ 

आज से दस साल पहले मोनिका अपने घर की बाल्कनी में बैठकर कुछ सोच रही थी । मंद-मंद हवा बह रही  थी । रोज़ वह हवा बहुत अच्छी लग रही थी । आज उस हवा में कुछ सूनापन नज़र आ रहा था । मोनिका को कुछ अजीब लग रहा था । आसमान में घने बादल भी छाये थे । लग रहा था कि अभी ज़ोरो की बारिश होगी । जैसे ही सोच रही थी कि बारिस भी शुरु हो गई । उस दिन घर में कोई भी नहीं था । उसके पति और बेटा दोनों काम पर गए थे । उसने सोचा कि क्यों न पकौडे खाये जाय ? यह सोचकर वह रसोईघर में गई ही थी कि दरवाज़े पर घंटी बजती है । उसे अजीब लगता है कि इतनी बारिश में कौन आया होगा ? सोचकर दरवाज़ा खोलती है । देखती है रेवती आधी भीगी हुई छाता लेकर खडी है । तुरंत उसने उसके लिए तौलिया दिया और कहा अरी! रेवती तुम इस वक्त यहाँ? बहुत ही बारिश हो रही है  । फोन पर ही हम बात कर लेते।

अच्छा तो तुम्हें मेरा इस वक्त आना पसंद नहीं आया । कहते हुए तौलिये से अपने बालों को सुखाती है ।

अरी! तुम भी ना!  हमेशा मुझे गलत समझती हो । मैंने तो इसलिए कहा था कि इतने ज़ोर की बारिश में ऐसे भीगकर आने से अच्छा होता कि हम फोन पर बातें कर लेतें । मैं वैसे भी अकेली हूँ । कुछ काम नहीं था, सोचा पकौडे बनाकर खाती हूँ । पता नहीं, आज मुझे अच्छा नहीं लग रहा है । वैसे तो अच्छा हुआ कि तुम भी आ गई, पकौडे खाने के लिए साथ मिल जाएगा । कहते हुए मोनिका रसोईघर की ओर जाती है ।

पीछे-पीछे रेवती भी जाती है और कहती है, तुमने मेरी कहानी पढी । जो मैंने तुम्हें दो दिन पहले भेजी थी ।

कौन -सी ? अरे! हाँ, वक्त ही नहीं मिलता । घर के काम से फुर्सत कहाँ रहती है । हम तो ठहरे घर में काम करनेवाले । कहते हुए वह मोनिका को प्लेट में पकौडे देती है ।

मुझसे वक्त की बात मत करो । बस आप लोगों ने अपना एक दायरा बना लिया है ।  हमेशा कहते रहना कि वक्त नहीं मिलता है । वक्त का अर्थ भी आप लोग जानते हो । हाँ, मेमसाब वक्त मिलता नहीं है, निकालना पडता है । अगर कुछ करना हो जिंदगी में तो वक्त निकालकर काम करना पडता है । मैंने कभी कोई भी काम रोते-रोते नहीं किया है । सुबह से लेकर रात तक हँसते हुए सारे काम करती हूँ । पता नहीं क्यों, आप लोग ऐसे सोचते हो कि आप सबसे अधिक काम कर रहे हो । आप ही हो जो घर को बनाती हो । अरे! हम बाहर और घर दोनों जगह काम करते है । फिर भी किसी से कोई शिकायत नहीं करते । आपको क्या लगता है कि हम घर पर काम नहीं करते । हम भी आप की ही तरह सारा काम करते है । सोचते है अब तक जो ज्ञान हासिल किया है वह दूसरों को दे तो अच्छा रहेगा । वैसे तो पकौडे तो अच्छे बने है । कहते हुए पकौडे की प्लेट को  सिंक में रखती है ।

तुम सही कह रही हो । शायद हम लोग ही आलसी बन गये है । करनेवाला कोई हो तो लगता है क्यों न हम भी आराम से काम करें । बाहर जाने का मात्र मर्द का काम है । यही सोचकर हम भी अपने आप को समझा लेते है । इसका मतलब यह नहीं कि हम बाहर जाकर काम करना नहीं जानते । हम भी स्वतंत्र रहना चाहते थे । हमारे पति राजेश ने मना कर दिया । शादी के बाद सारे परिवार को देखना ही तुम्हारा काम है, ऐसे अधिकार से कहा कि सब कुछ पीछे छुट गया । खैर, अब तो जिंदगी भी खत्म हो गई है । कहने का मतलब है कि आज तो सब अनुभव मांगते है, जो हमारे पास नहीं है । अच्छा तुम बताओ । तुम कुछ परेशान लग रही हो । क्षमा करना, मैंने भी तुम्हें कुछ कहकर परेशान कर दिया है । इतनी बारिश में तुम मुझसे बात करने के लिए आई हो । कहते हुए मोनिका अदरकवाली चाय अपनी दोस्त रेवती को देती है।

नहीं तो, क्षमा तो मुझे मांगनी चाहिए । मैंने तुम्हें नाहक ही ऐसे सवाल करके परेशान कर दिया । तुम तो जानती हो कि मैं कहानियाँ लिखती हूँ । मैं कविता भी लिखती हूँ । मेरा मन आजकल कुछ भी लिखने को नहीं कर रहा है । मुझे लगता है कि हर कोई सिर्फ व्यापार करने बैठा है । पता है जब हम समाज को कुछ लिखकर उससे चेतना जागृत करने की कोशिश करते है, तो प्रकाशक साथ नहीं देते है । यह सच है कि वे व्यापार कर रहे है । फिर भी उनको भी समझना चाहिए कि हर साहित्यकार के पास इतने पैसे नहीं होते । माना कि उनको प्रिंटिग के लिए रुपये चाहिए  । उसमें भी एथिक्स नाम की कोई भी चीज नहीं रही है । कहते हुए रेवती चाय का प्याला भी रखकर बाल्कनी में बैठ जाती है ।

तुम भी ना ऐसे ही परेशान हो रही हो । अब बता कि तुम्हारे मुँह बोले भाई भी तो प्रकाशक है । तुम अपना काम उनसे क्यों नहीं करवाती हो? उनके बच्चे कैसे है? वे तो तुम्हें बहुत पसंद करते है। जब बारिश होती है, तो मिट्टी की खुश्बू बहुत अच्छी लगती है । कहते हुए मोनिका बाहर आकर रेवती के साथ बाल्कनी में बैठती है ।

सब ठीक ही होंगे । मैंने भी उनसे बात किए बहुत दिन हो गए । पता नहीं आजकल उनसे भी बात करना अच्छा नहीं लग रहा है । वह भी तो व्यापार ही कर रहे है । उन्होंने बच्चों को भी बहुत सीखा दिया है । अरे! व्यापार ही करना था । मुझसे कह देते । उन्होंने ऐसा नहीं किया । मैं हर बार कहती रही कि भाई कुछ पैसे चाहिए, कुछ परेशानी है । उन्होंने उस वक्त कुछ नहीं कहा । फिर अचानक एक दिन फोन करके कहा कि आप पांच हज़ार रुपये भेज दिए । मेरे लिए भी रुपये जुटाने आसान नहीं थे । कहते हुए रेवती ने अपने आंसू पौंछे ।

तुरंत मोनिका पानी देती है । इस बारे में तुम ज्यादा मत सोचो । तुम्हारी सेहत  पर असर पडेगा । कहते हुए मोनिका उसे शांत करती है ।

फिर भी उसने अपनी बात को आगे बढाते हुए कहा,  मैंने सोचा कि शायद उनको बहुत ज़रुरत होगी । रुपये भेजने के बाद भी काम नहीं हुआ । मैं भी इंतज़ार करती रही । उनको यह लगा कि मैं जल्दी कर रही हूँ । मेरी कोई और भी परेशानी थी । वह सब मैं उनको नहीं बता सकती थी । वहां से यह सुनने को मिला कि आप मुझे बहुत परेशान कर रही हो । यह तो गलत ही है ।  मुझे उनका यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा । मुझे उनको किताब छपवाने के लिए देना ही नहीं था ।

अच्छा, तो तुम किसी और प्रकाशक के पास अपनी किताब छपवा सकती हो । तुम्हारी कहानी तो बहुत अच्छी होती है, माना कि हमने दो कहानी नहीं पढी है । तुम्हारी पहली किताब की हर कहानी को मैंने पढा है । तुम सच बताने से डरती नहीं हो । जो है उसे वैसे ही प्रस्तुत करती हो । तुम्हारी वही सच बातें मुझे अच्छी  लगती है । विषय का  जानकार हर कोई रहता है । बेबाकी से उसे प्रस्तुत तुम करती हो । सच,  तुम्हारी कोई ऐसे ही तारीफ़ नहीं कर रही हूँ। अच्छा लगता है, तुम्हारी कहानी पढकर कि तुम सच बताती हो । कहते हुए रेवती के हाथ पर अपना हाथ रखती है ।

अरे! दूसरे प्रकाशक तो और भी ज्यादा मांग करते है । कई प्रकाशक तो सिर्फ जाने-माने लेखकों की ही किताब छापते है । हम जैसे उभरते नये लेखकों की किताब नहीं छापते है । मुझे सच में बहुत बुरा लगता है । एक प्रकाशक ने तो चालीस हज़ार की मांग की, दूसरे ने दस हज़ार एक पुस्तक छापने के लिए मांगा था । मुझे लगा, यह लोग कर क्या रहे है?  मेरे पास तो रुपये नहीं थे तो कहने लगे कि घर में किसी से भी लेकर दे दीजिए ।

अरे! यह भी कोई बात हुई । यह तो गलत ही है । ऐसे कोई मांगता है क्या ? सही में मुझे भी बुरा लग रहा है । कहते हुए मोनिका ने अपने बेटे रोहित को फोन किया । बेटा आप कब आ रहे हो ? जल्दी लौट आना, देर मत करना । हाँ, अब बताओ । क्या हुआ ? सॉरी, मुझे रोहित की चिंता हो गई, इसलिए कोल किया ।

कोई बात नहीं है । अरे! मैंने कहा उनसे कि, आप मुझे मत बताइए कि मुझे रुपये किससे मांगने है  । घर चलाने के लिए भी रुपये चाहिए, ऐसे कैसे उनसे मांग लू । सच में प्रकाशक का ये काम कुछ ज्यादा ही हो रहा है । ऊपर से वे लोग मार्केटिंग भी नहीं करते है । पता है, अपनी चीज हो तो खुलकर सबको बताते है । अब बात तो हमारी किताब की थी, क्यों करते मार्केटिंग ? छी, सच में किससे रिश्ता निभाए ? आज तो बाज़ार में रिश्ते भी बिक रहे    है । रिश्तों का भी व्यापार हो चुका है । अब तो लिखने का भी मन नहीं करता । हम तो बस समाज में जो सच्चाई है उसे लोगों के सामने लाने का साहस कर रहे है । कोई हमारा साथ नहीं देता । कहते हुए उसकी आवाज़ रुँध जाती है ।

तुमने सही कहा रेवती । यह भूमंडलीकरण है, यहां पर कोई अपना नहीं है । अगर तुम उनके दृष्टिकोण से देखोगी तो वह भी गलत नहीं है । मैं किसी का भी पक्ष नहीं ले रही हूं । बस, तुम्हारी बातों को सुनकर बता रही हूँ । अन्यथा, नहीं लेना । प्रकाशक के लिए भी जिंदगी जीने के लिए पैसों की ज़रुरत होती है । शायद इसी वजह से वे पैसा मांगते है । उनके पास भी कितना पैसा बचता होगा । अपना व्यापार बढाने के लिए कई प्रकाशक ज्यादा मांगते  है । हां, मानती हूँ  कि उनको भी कई बाते सोचनी  चाहिए । तुम भी उनकी कोई सगी बहिन तो हो नहीं । व्यापार में अगर वह सबको बहन बनाकर ऐसे ही रुपये कम लेते रहे तो हो चुकी उनकी जिंदगी । तुम बुरा मत मानना । आज तुम्हारी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है इसलिए ऐसा सोच रही हो । वक्त आते ही सब ठीक हो जाएगा । चिंता मत करना । थोडा पानी पी लो । कहते हुए मोनिका फिर से रेवती को पानी देती है ।

कुछ ठीक नहीं होगा । सब ऐसा ही चलता रहा है, चलेगा भी । सब ऐसे ही लोगों को लूटेंगे । कहते हुए रेवती लंबी सांस लेती है । मुझे लिखना ही नहीं चाहिए । कहते हुए खुद उठकर पानी का बोतल रसोईघर में रखकर आती    है ।

अरे! ऐसे कैसे चलेगा ? तुम्हारी जैसी लेखिका कैसे निराश हो सकती है । तुम पहले एक काम करना कि अपनी कहानियों को ऑनलाइन मेगेज़ीन के लिए देना । लोग तुम्हारी लेखनी को पहचानेंगे । फिर प्रकाशक भी जानेगा । कोई तो अच्छा इन्सान होगा, जो सिर्फ तुम्हारी लिखावट को ही ध्यान देगा । कहते हुए मोनिका घर में बिखरे कपड़े ठीक करने लगती है । तभी दरवाज़े पर घंटी बजती है । रेवती की गहरी सोच टूटती है । मोनिका देखती है कि उसका बेटा रोहित काम से लौट आया है । मोनिका ने रोहित को हाथ-मुँह धोकर आने के लिए कहा ।

फिर रेवती भी घडी की ओर देखकर कहती है, अरे ! यह रात के नौ बज गये है ।  बारिश भी रुक गई है । तुम भी रोहित को खाना दे दो । यह तो चलता ही रहेगा । कभी भी प्रकाशक और साहित्यकार के बीच का यह माजरा खत्म नहीं होगा । कहते हुए रेवती वहाँ से जाने के लिए उठती है । जाते हुए मोनिका से कहती है,  तुमने जैसी सलाह दी है, मैं और भी कहानी लिखूंगी । जितना हो सके, समाज को सच से अवगत कराना चाहूँगी।

 

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

२७२, रत्नगिरि रेसिडेन्सी, जी.एफ़.-१, इसरो लेआउट, बेंगलूरु-७८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 42 ☆ कितना बदल गया इंसान ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  दो जमानों को जोड़ती और विश्लेषित करती एक  लघुकथा   “कितना बदल गया इंसान” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की  रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 42

☆ लघुकथा – कितना बदल गया इंसान ☆ 

गांव का खपरैल स्कूल है ,सभी बच्चे टाटपट्टी बिछा कर पढ़ने बैठते हैं।  फर्श गोबर से बच्चे लीप लेते हैं,  फिर सूख जाने पर टाट पट्टी बिछा के पढ़ने बैठ जाते हैं।  मास्टर जी छड़ी रखते हैं और टूटी कुर्सी में बैठ कर खैनी से तम्बाकू में चूना रगड़ रगड़ के नाक मे ऊंगली डालके छींक मारते हैं, फिर फटे झोले से सलेट निकाल लेते हैं। बड़े पंडित जी जैसई पंहुचे सब बच्चे खड़े होकर पंडित जी को प्रणाम करते हैं।  हम सब ये सब कुछ दूर से खड़े खड़े देख रहे हैं। पिता जी हाथ पकड़ के बड़े पंडित जी के सामने ले जाते हैं ,पहली कक्षा में नाम लिखाने पिताजी हमें लाए हैं अम्मा ने आते समय कहा उमर पांच साल बताना ,  सो हमने कह दिया  पांच साल………….बड़े पंडित जी कड़क स्वाभाव के हैं पिता जी उनको दुर्गा पंडित जी कहते हैं । दुर्गा पंडित जी ने बोला पांच साल में तो नाम नहीं लिखेंगे।  फिर उन्होंने सिर के उपर से हाथ डालकर उल्टा कान पकड़ने को कहा  कान पकड़ में नहीं आया।  तो कहने लगे हमारा उसूल है कि हम सात साल में ही नाम लिखते हैं।  सो दो साल बढ़ा के नाम लिख दिया गया।  पहले दिन स्कूल देर से पहुंचे तो घुटने टिका दिया गया।  सलेट नहीं लाए तो गुड्डी तनवा दी, गुड्डी तने देर हुई तो नाक टपकी, मास्टर जी ने खैनी निकाल कर चैतन्य चूर्ण दबाई फिर छड़ी की ओर और हमारी ओर देखा बस यहीं से जीवन अच्छे रास्ते पर चल पड़ा।  अपने आप चली आयी नियमितता, अनुशासन की लहर, पढ़ने का जुनून, कुछ बन जाने की ललक। पहले दिन गांधी को पढ़ा। कई दिन बाद परसाई जी का “टार्च बेचने वाला” पढ़ा,  फिर पढ़ते रहे और पढ़ते ही गए ………

गांव के उसी स्कूल की खबरें अखबारों में अक्सर पढने मिलती हैं कि

“मास्टर जी ने बच्चे का कान पकड़ लिया तो हंगामा हो गया ….. स्कूल का बालक मेडम को लेकर भाग गया………. स्कूल के दो बच्चों के बीच झगड़े में छुरा चला”

आज के अखबार में उसी स्कूल की ताजी खबर ये है कि स्कूल के मास्टर ने कोरोना वायरस के कारण बंद स्कूल के क्लासरूम में ग्यारहवीं में पढ़ने वाली छात्रा की इज्जत लूटी और लाॅक डाऊन का उल्लंघन किया…….

अखबार को दोष दें या ऐन वक्त पर कोरोना को दोष दें या अपने आप को दोष दें कि ऐसे समाचार रुचि लेकर हर व्यक्ति क्यों पढ़ता है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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