हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 15 ☆ लघुकथा – वाह री परंपरा ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “वाह री परम्परा। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा भारतीय समाज  की एक ऐसी प्रथा  के परिणाम और दुष्परिणाम पर विस्तृत दृष्टि डालती है जिस पर अक्सर लोग सब कुछ जानते हुए भी विवाद में न पड़ते  हुए कि  लोग क्या कहेंगे सोच कर निभाते हैं , तो  कुछ लोग दिखावे मात्र के लिए निभाते हैं ताकि लोग  उनका  उदहारण  दे।   समाज की परम्पराओं पर पुनर्विचार की महती आवश्यकता  है ।

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 14 ☆

☆ लघुकथा – वाह री परम्परा ☆

 एक  करीबी रिश्तेदार की मौत हो जाने  पर तेरह दिनों मे कम से कम सात दिन समय निकाल कर आना जाना पड़ा।  गाँव का मामला था।  सभी धनाढ्य सम्पूर्ण थे।  जब भी हम जाते तभी चूल्हे पर परिवार की लड़कियाँ गैस जमीन पर रख गरमी सह कर ढेर सारा भोजन बनाती दिखती। उन्हें दोपहर में ही कुछ घंटे मिलते। उसमे वे बेटियाँ अपनी कंघी चोटी करती। खारी के बाद से दिन होने तक साफ सफाई के बाद से यह प़किया चल पड़ती। आने वाले से भेंट करना दुख प़कट करना यहां का रिवाज  है।

गंगा जी जाना। फिर हिन्दू पध्दति से पूजन करना आवश्यक होता है। प़तिदिन  सैकड़ो आदमियों का खाना होता।

ताज्जुब हमें तब हुआ जब हमने तेरहवी के दिन सुबह पूजन के बाद ब़ाम्हणो का भोज बिदाई कार्यक्रम देखा।

और फिर नाते रिश्तेदार  सभी ने तेरहवीं का खाना खाया खाया। करीब रात के आठ बजे तक पूरा का पूरा गाँव भोजन कर चुका था और भोजन के बाद बाहर आते ही भोजन की बढ़ाई या बुराई शुरु। ये पुरानी परम्पराओं का क्या कहीँ विराम नहीं? एक तो घर का प्राणी चला जाये और उस पर यदि उसके पास पैसा नहीं तो कर्जा कर आयोजन करवाना और झूठी शान पर जिन्दा रहना कब तक चलेगा?

जाने वाला तो चला गया पर उसके साथ और थोड़ा बहुत जीवन बसर का पैसा धेला बचा वह भी समाज के ठेकेदारों ने नोच खाया. कब बदलाव आयेगा? हम कब समझेंगे पता नहीं?

अगर किसी रोगी या बहन-बेटी या किसी बुजुर्ग की सेवा के लिये यह अधिक लगने वाला पैसा उपयोग में आ जाता तो जीवन जीने लायक और भविष्य को निर्मित कर देता पर  यह नहीं है।

बस दिखावा और रूढिवाद का बोलवाला।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 37 – लघुकथा – ममता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक अनुकरणीय, प्रेरक  एवं मार्मिक लघुकथा  “ममता’”।  विधि की यह  कैसी विडम्बना है कि-  एक माँ  अपनी ममता को कुचलकर अपने बच्चे को कूड़े के ढेर में फेंक देती है  तथा दूसरी ओर एक  माँ  अपने हृदय में अपार ममता लिए एक बच्चे के लिए तरस जाती है।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  की यह लघुकथा समाज के ऐसे  लोगों को आइना दिखाती है । यह  भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  भी सहज ही हमारे नेत्र नम कर देती है। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  ने  मनोभावनाओं  को बड़े ही सहज भाव से इस  लघुकथा में  लिपिबद्ध कर दिया है ।इस अतिसुन्दर  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 37 ☆

☆ लघुकथा – ममता 

बच्चों वाला अस्पताल, हमेशा भीड़ भाड़। छोटे-बड़े बच्चों से भरा वार्ड। किसी की हालत बहुत नाजुक तो कोई रो रो परेशान। कुल मिलाकर सभी माँ पिता जी और उनका परिवार, सभी परेशान। कुछ चिड़चिड़ाते गुस्सा करते नजर आते कि ठीक से संभाल नहीं सकती हो।

पीछे गटर और कचरे का ढेर। शायद अनुमान नहीं लगा सकते कि कितनी गंदगी फैली रहती है। सफाई कर्मचारी साफ सफाई कम निर्देश ज्यादा देते नजर आते हैं।

ऐसे ही एक महिला कर्मचारी आया बाई ‘माया’ जो बहुत ही शांत स्वभाव की। सभी का काम करती और सभी बच्चों को बहुत ध्यान से बहला फुसलाकर दवाई देने व इंजेक्शन लगवाने में मदद करती थी। सभी उसकी काम की तारीफ करते।

माया नाम था उसका। सच में ममता और माया से परिपूर्ण थी। परंतु उसकी अपनी कहानी बहुत दुखद थी। पति हमेशा इसलिए लड़ाई-झगड़ा करता था कि “तुम्हारे बच्चे नहीं हो रहे हैं”। इसलिए वह पति को छोड़ चुकी थी और बच्चे वाले वार्ड में अपने जीवन यापन करने के लिए काम कर अपना मन बहलाती थी और पति से अलग रहने लगी थी।

कुछ समय बाद एक ठंड से ठिठुरती रात में पीछे कचरे के ढेर से हल्की हल्की सी रोने की आवाज आ रही थी। जैसे कोई पिल्ला रो रहा हो। सभी ने सोचा कुत्ते का बच्चा ठंड से रो रहा होगा। परंतु माया रात पाली में ड्यूटी कर रही थी। उससे रहा नहीं गया। वह वाचमेन को उठाकर कचरे के ढेर के पास जा पहुंची। टार्च की रोशनी से देख ढूंढने लगी।

उसने देखा कि एक नन्हीं सी जान – एक मासूम बच्ची जिसके शरीर पर कपड़ा भी नहीं था। कचरे के ढेर में पड़ी है और उसी के रोने की आवाज आ रही थी। शरीर पर चोट के निशान थे। माया की ममता फूट पड़ी। तुरंत ही उसने, उसे निकाल कर छाती से लगाया और बदहवास सी डॉक्टर की केबिन की ओर दौड़ पड़ी।

कब उसने दो मंजिल तय कर ली उसे पता ही नहीं चला। डॉक्टर ने पूछताछ शुरू की माया रोने लगी “मेरी बच्ची को बचा लीजिए… मेरी बच्ची को बचा लीजिए.. डॉक्टर साहब मेरी बच्ची को बचा लीजिए“। डॉ ने उसकी स्थिति को देखकर तुरंत इलाज शुरु कर दिया जिससे बच्ची खतरे से बाहर हो गई।

माया तो जैसे इसी दिन का इंतजार कर रही थी। उसने डाक्टर साहब से कई कई बार कहा “डॉक्टर साहब इस बच्ची पर सिर्फ मेरा अधिकार है, आप समझ रहे हो ना, सिर्फ मेरा अधिकार है, आप साक्षी हैं मैंने इसे कचरे के ढेर से पाया है, इस पर सिर्फ मेरा अधिकार है”।

डॉक्टर साहब भी मां की ममता के आगे विवश थे। उसने पुलिस के हस्तक्षेप के बाद उस बच्ची का माता का नाम” माया” लिख दिया और पक्की मोहर लगा दी। माया की वर्षों की सेवा सफल हो गई। उसकी गोद में नन्हीं बिटिया मिल गई। अब वह बांझ नहीं कहलाएगी।  अब वह एक बच्चे की मां बन चुकी थी ।  बिटिया को सीने से लगाए आज इस दुनिया में सबसे सुखी इंसान थी। कभी वह अपने को और कभी अपनी बिटिया को देखते-देखते  बार-बार आंखों से आंसू गिरा रही थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ ईमानदार ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित जीवन दर्शन पर आधारित एक सार्थक एवं अनुकरणीय लघुकथा   “ईमानदारी ”.)

☆ लघुकथा – ईमानदारी 

किराने का सामान लेकर प्रशांत घर पहुंचा । उसकी आदत किराने के बिल को चेक करने की थी। बिल चेक करने पर उसे समझ में  आया कि दुकानदार ने उसे सौ रुपये ज्यादा वापस कर दिए हैं।

दूसरे दिन कार्यालय से लौटते समय दुकानदार को  रुपये वापस लौटाते हुए उसने कहा – “कल किराना के बिल में आपने मुझे सौ रुपये ज्यादा दे दिये थे, ये वापस लीजिये।”

दुकानदार ने सौ रुपये रखते हुए कहा – “अरे, आप तो ज्यादा ही ईमानदार बन रहे हैं। आजकल कौन इतना ध्यान देता है कि सौ रुपये ज्यादा दे दिये या कम।”

उसकी इस ठंडी प्रतिक्रिया से प्रशांत का मन आहत हो गया। उसे लगा था कि दुकानदार उसकी ईमानदारी पर धन्यवाद देते हुए उसकी प्रशंसा में दो शब्द कहेगा किंतु, उसकी आंखों को देखकर ऐसा लगा जैसे वह कह रहा हो बेवकूफ, ज्यादा ही ईमानदार बनता है।

एक क्षण को उसे महसूस हुआ जैसे उसने सौ रुपये लौटाकर कोई गुनाह किया हो, किंतु उसके अंतर्मन ने कहा – ‘तुमने रुपये लौटाकर  अपना फर्ज अदा किया है। सब बेईमान हो जायेंगे तो क्या तुम भी बेईमान हो जाओगे? हरगिज नहीं।’

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 11 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 12 – गोविन्द ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली का विवाह हुआ, ससुराल आई, सुहागरात को नशे की पीड़ा झेलनी पड़ी, कालांतर में एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जहरीली शराब पीकर पति मरा, नक्सली आतंकी हिंसा की ज्वाला ने पुत्र गौतम की बलि ले ली, पगली बिछोह की पीड़ा सह नही सकी। वह सचमुच ही पागलपन की शिकार हो दर दर भटक रही थी।  तभी अचानक घटी एक घटना ने उसका हृदय विदीर्ण कर दिया। वह दर्द तथा पीड़ा से कराह उठी। अब आगे पढ़े——-)

गोविन्द एक नाम एक व्यक्तित्व जिसकी पहचान औरों से अलग, गोरा चिट्टा रंग घुंघराले काले बाल, चेहरे पर हल्की मूछें, मोतीयों सी चमकती दंत मुक्तावली, चेहरे पे मोहक मुस्कान।  हर दुखी इंसान के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना उसे लाखों की भीड़ में अलग पहचान दिलाती थी। वह जब माँ के पेट में था, तभी उसके सैनिक पिता सन् 1965 के भारत पाक युद्ध में सीमा पर लड़ते हुए शहीद हो  गये।

उन्होंने मरते मरते अपने रण कौशल से दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिये।  दुश्मन की कई अग्रिम चौकियों को पूरी तरह तबाह कर दिया था।

जब तिरंगे में लिपटी उस बहादुर जवान की लाश घर आई, तो सारा गाँव जवार  उसके घर इकठ्ठा हो गया था। गोविन्द की माँ पछाड़ खाकर गिर पड़ी थी पति के शव के उपर।  उस अमर शहीद को बिदाई देने सारा क्षेत्र उमड़ पड़ा था। हर आंख नम थी, सभी ने अपनी भीगी पलकों से उस शहीद जवान को अन्तिम बिदाई दी थी।

उन आखिरी पलों में सभी  सामाजिक मिथकों को तोड़ते हुये गोविन्द की माँ ने पति के शव को मुखाग्नि दी थी।

उस समय स्थानीय प्रशासन  तथा जन प्रतिनिधियों ने भरपूर मदद का आश्वासन दे वाहवाही भी लूटी थी। लेकिन समय बीतते लोग भूलते चले गये।

उस शहीद की बेवा के साथ किये वादे को, उसको मिलने वाली सारी सरकारी सहायता नियमों कानून के मकड़जाल तथा भ्रष्टाचार के चंगुल में फंस कर रह गई।

अब वह बेवा अकेले ही मौत सी जिन्दगी का बोझ अपने सिर पर ढोने को विवश थी।  क्या करती वह, जब पति गुजरा था तो उस वक्त वह गर्भ से थी।

उन्ही विपरीत परिस्थितियों में गोविन्द नें अपनी माँ की कोख से जन्म लिया था।  उसके भविष्य को  ले उस माँ ने अपनी आँखों में बहुत सारे सुनहरे सपनें सजाये थे।  उस गरीबी में भी बडे़ अरमानों से अपने लाल को पाला था। लेकिन जब गोविन्द पांच बरस का हुआ, तभी उसकी माँ दवा के अभाव में टी बी की बीमारी से एड़ियाँ रगड़ रगड़ कर  मर गई। विधाता ने अब गोविन्द के सिर से माँ का साया भी छीन लिया था।  नन्हा गोविन्द इस दुनियाँ में अकेला हो गया था।

ऐसे में उसका अगला ठिकाना बुआ का घर ही बना था। गोविन्द के प्रति उसकी बुआ के हृदय  में दया तथा करूणा का भाव था, लेकिन वह अपने पति के ब्यवहार से दुखी तथा क्षुब्ध थी, गोविन्द का बुआ के घर आना उसके फूफा को रास नही आया था। उसे ऐसा लगा जैसे उसके आने से बच्चों के प्रति उसकी माँ की ममता बट रही हो।

वह बर्दाश्त नही कर पा रहा था गोविन्द का अपने परिवार के साथ रहना। इस प्रकार दिन बीतते बीतते गोविन्द बारह बरस का हो गया।
अब घर में गोविन्द एक घरेलू नौकर बन कर रह गया था।  लेकिन वह तो किसी और ही मिट्टी का बना था।  पढ़ाई लिखाई के प्रति उसमें अदम्य इछा शक्ति तथा जिज्ञासा थी।  वह  बुआ के लड़कों को रोज तैयार हो स्कूल जाते देखता तो उसका मन भी मचल उठता स्कूल जाने के लिए। लेकिन अपने फूफा की डांट खा चुप हो जाता।  एक दिन खेल खेल में ही बुआ के बच्चों के साथ उसका झगड़ा हुआ।

उस दिन उसकी  खूब जम कर पिटाई हुई थी।  इसी कारण गोविन्द नें अपनी बुआ का घर रात के अन्धेरे में छोड़ दिया था तथा सड़कों पर भटकने के लिए मजबूर हो गया था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 13 – सीढियाँ

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 35 ☆ स्वतंत्र ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “स्वतंत्र।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 35 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – स्वतंत्र

“सोमा आज मकान मालिक का फोन आया 15 दिन के अंदर मकान खाली करना है।अब इतनी जल्दी कैसे कहां मकान मिलेगा?”

सोमा ने कहा…”कल चलते है सासू मां के पास उन्हें बताते हैं हो सकता है समस्या का हल निकल आये और उन्हें दया आ जाए  कह दें , तुम लोग आ जाओ अब अकेले रहा नहीं जाता”।

माँ  से मिले।  माँ को सब कुछ बताया ।उन्होंने कहा – “कोई बात नहीं, दो बिल्डिंग आगे एक मकान खाली है जाकर बात कर आओ।”

सोमा उनका मुंह देखती रही । हम सभी किराये के मकान में रह रहे हैं ।

कैसी माँ  है तीन बेटे है फिर भी अकेली  स्वतंत्र अपने घर में रहना चाहती है ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 21 ☆ लघुकथा – हाथी के दांत खाने के और ‌‌….. ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “हाथी के दांत खाने के और ‌‌…..”।  यह लघुकथा हमें जीवन  के उस कटु सत्य से रूबरू कराती है जो हम देख कर भी नहीं देख पाते और स्वयं को  कुछ भी करने में असहाय पाते हैं। जब तक हमारे हाथ पांव चल रहे हैं तब तक ही हमारा मूल्य है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर  सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 21 ☆

☆ लघुकथा – हाथी के दांत खाने के और ‌‌….. 

रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। उत्तर भारत में सर्दी के मौसम में शाम से ही ठंड पाँव पसारने लगती है। ऐसा लगने लगता है मानों ठंडक कपड़ों को भेदकर शरीर में घुस रही हो। मुझे नींद आ रही थी, एक झपकी लगी ही थी कि बर्तनों की खटपट सुनाई दी। सब तो सो गए फिर कौन इस समय रसोई में काम कर रहा है ? रजाई से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हो रही थी फिर भी बेमन से मैं रसोई की ओर चल पड़ी। देखा तो सन्न रह गई। काकी काँपते हाथों से बर्तन माँज रही थी। शॉल उतारकर एक किनारे रखा हुआ था। स्वेटर की बाँहें कोहनी तक चढ़ाई हुई थी जिससे पानी से गीली ना हो जाए। दोहरी पीठ वाली काकी बर्तनों के ढ़ेर पर झुकी धीरे–धीरे बर्तन माँज रही थी।

मैं झुंझलाकर बोली – “क्या कर रही हो काकी ? समय देखा है ? रात के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं रजाई में लेटकर भी कँपकँपी छूट रही है और तुम बर्तन धोने बैठी हो ? छोड़ो बर्तन, सुबह मंज जाएंगे। बीमार पड़ जाओगी तुम।“

काकी से मेरी फोन पर अक्सर बातचीत होती रहती है। उनका हमेशा एक ही डायलॉग होता ‘गुड्डो’! काम से फुरसत नहीं मिलती। घर के काम खत्म ही नहीं होते। काकी की बातें मैं हंसी में टाल देती – “अब बुढ़ापे में कितना काम करोगी काकी ?” और सोचती शायद याददाश्त खराब होने के कारण काकी बातें दोहराती रहती हैं

मैं उनका हाथ पकड़कर जबर्दस्ती उठाना चाह रही थी। काकी मेरा हाथ छुड़ाते हुए बहुत शांत भाव से बोलीं “हम बीमार नहीं पड़तीं गुड्डो। हमारा तो यह रोज का काम है,  आदत हो गई है हमें।“ मैंने फिर कहा – “हालत देख रही हो अपनी  जरा – सा चलने में थक जाती हो। हाथ की उंगलियाँ देखो गठिए के कारण अकड़ गई हैं। काकी ! तुम जिद्द बहुत करती हो। भाभी भी तुम्हारी शिकायत कर रही थीं। भैया कितना मना करते हैं तुम्हें काम करने को, उनकी बात तो सुनो कम से कम।“

“रहने दे गुड्डो, क्यों जी जला रही है अपना। चार दिन के लिए आती है यहाँ आराम से रह और चली जा, भावुक ना हुआ कर। भैया – भाभी की मीठी बातें तू सुन। हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। तू वह सुनती है जो वो तेरे सामने बोलते हैं। मैं साल भर वो सुनती हूँ जो वे मुझे सुनाना चाहते हैं। बूढ़ी हूँ, कमर झुक गई है तो क्या हुआ ? घर में रहती हूँ, खाना खाती हूँ, चाय पीती हूँ, मुफ्त में मिलेगा क्या ये सब ……………..?”

काकी काँपती आवाज़ में मुझे वह बताना चाह रही थीं जो मैं खुली आंखों से देख नहीं पा रही थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 13 ☆ लघुकथा – शारदा ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अतिसुन्दर लघुकथा  “शारदा। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा भारतीय समाज के एक पहलू को दर्शाती है साथ ही यह भी कि हम जो संस्कार देते हैं या बच्चे समाज से पाते हैं, वे उसी का अनुसरण भी करते हैं। ) 

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 13 ☆

☆ लघुकथा – शारदा ☆

 

चौदह बरस की शारदा का विवाह बचपन मैं तय किये गये बाईस वर्षीय लड़के के साथ कर दिया गया। शारदा तो खुश थी।

बचपन से संस्कार से भरी बालिका पहनने ओढ़ने  से बेहद अपने आपको सुंदर समझ रही थी। पर वह लड़का खुश नहीं था। ससुराल पहुँचते ही पता चला कि जिसके साथ उसे सात फेरों में बांधा गया है। माँ ने कहा था बेटी जिसके साथ फेरे लेती है वही जीवन भर उसका साथी होता है । उसी से निभाया जाता है। किसी और के बारे में कुछ भी नहीं  सोचा जाता ।

यहाँ आते ही उसे पता चला कि वह किसी और से भी विवाह कर चुका है और वह उसके साथ ही रहना चाहता है। शारदा एक पढ़ी और समझदार लड़की थी। भले वह पाँचवीं पढ़ चुकी थी। अधिक बहस में न पड़ माँ पिता को समझा कर तलाक के लिये अर्जी लगवा दी।

फिर विधिपूर्वक तलाक भी हो गया। तलाक हो जाने के बाद सबके कहने पर भी उसने विवाह नहीं किया। और जब कोई भी उससे कहता या पूछता कि आगे क्या होगा तब वह कहती जिसने मुझे बनाते समय यह सब सोच  लिया था तो आगे भी वही समझेगा। एक बार ही खुशियों का द्वार भारतीय लड़कियों का खुलता है बार बार नहीं खुलता। अर्थात हो चुका जो होना था अब और नहीं।

….और उसने आगे पढ़ने का मन बना लिया।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 36 – लघुकथा – रोका ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण लघुकथा  “रोका”।  एक माँ और पिता के लिए बिटिया के विवाह जुड़ने से विदा होते तक ही नहीं, अपितु  जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं जो आजीवन  स्मरणीय होते हैं।  वेअनायास ही हमारे नेत्र नम कर देते हैं।  और यह लघुकथा  भी सहज ही हमारे नेत्र नम कर देती है। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  ने  मनोभावनाओं  को बड़े ही सहज भाव से इस  लघुकथा में  लिपिबद्ध कर दिया है ।इस अतिसुन्दर  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 36 ☆

☆ लघुकथा – रोका 

सुगंधा आज बहुत ही खुश थी। क्योंकि उसकी बिटिया को देखने लड़के वाले आने वाले थे। सब कुछ इतना जल्दी हो रहा था। किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था।

घर में त्यौहार का माहौल बना हुआ था। मीनू, सुगंधा की बिटिया बहुत सुंदर भोली प्यारी सी बिटिया। सभी की निगाहें सामने सड़क से आती जाती गाड़ियों पर थी। समय पर गाड़ी से उतर परिवार के सभी सदस्य घर आए। बातों ही बातों में सभी का मन उत्साह से भर उठा। और मीनू को देखने के बाद लड़के और उसके परिवार वाले बहुत खुश हो गए और  मीनू उनको पसंद आ गई।

तुरंत ही बातचीत कर रोका करने को कहने लगे क्योंकि सुगंधा भी इतनी जल्दी सब हो जाएगा। इसका आभास नहीं लगा सकी थी। आंखें और गला दोनों भर आया। स्वादिष्ट भोजन खा लेने के बाद पंडित जी को बुलाकर साधारण तरीके से रोका का कार्यक्रम करने को कहा गया।

दोनों घर परिवार आमने सामने बैठ कर पंडित जी के कहे अनुसार साधारण सामग्री से मंत्रोच्चार कर लड़के की मां को बिटिया की ओली में सगुन डालने को कहा… जैसे ही लडके की  माँ कुछ रुपया और मिठाई का डिब्बा ओली डाल रही थी बिटिया को। बिटिया की मां सुगंधा प्यार और स्नेह के कारण रो पड़ी, आंखों से आंसू गिरने लगे। यह देख लड़के की मां भी रो पड़ी। देखते ही देखते ऐसा लगने लगा मानो बिटिया की विदाई अभी होने वाली है।

इस समय की नजाकत को देखते हुए लड़के के पिताजी जो काफी समझदार और सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी। उन्होंने तुरंत बात संभाली और जोरदार हंसी ठहाके लगाते हुए ताली बजाकर कहने लगे क्यों श्रीमती जी अपना रोका याद कर रही हो याने सास भी कभी बहू थी। पत्नी भी हंसते हुए शरमाने लगी।

सुगंधा भी अपने समधी के व्यवहार कुशलता पर हंस पड़ी और गर्व करने लगी। सब कुछ हंसी खुशी संपन्न हुआ।

शादी का मुहूर्त निकाल कर पंडित जी बहुत खुश हुए। मीनू को बहू के रूप में पाकर लड़के वाले गदगद थे। और हंसी खुशी विदा होकर जाने लगे मानों कह रहे हो रोका हमने कर लिया। अब जल्दी ही विदाई करा कर ले जाएंगे। मीनू भी बहुत खुश थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 11 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 11 – धत् पगली ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली पर किस प्रकार दुखों का पहाड़ टूट पडा़ था। परन्तु वह विधि के विधान को समझ नही पा रही थी कि उसके भाग्य  में अभी और कौन  सा दिन देखना बाकी है। पहले पति मरा फिर आतंकी घटना नें उससे जीने का आखिरी सहारा भी छीन लिया पगली का हृदय आहत हो बिलबिला उठा था।  बिछोह की पीड़ा ने उसे चीत्कार  करने पर विवश कर दिया।अब आगे पढ़े——)

पगली के बेटे गौतम की अर्थी निकले महीनों  गुजर चुके थे।  गांव के सारे लोग उस गुजरे हादसे को अपने स्मृतियों से भुलाने में लगे थे, लेकिन फिर भी पगली का सामना होते ही लोगों की स्मृति में  गौतम का क्षत-विक्षत शव का दृश्य तैर जाता और लोग उस घटना को याद कर सिहर उठते।  लोगों के मन में दया करूणा एवम्ं सहानुभूति का ज्वार पगली के प्रति उमड़ पड़ता।

लोग पगली के प्रति नियति की कठोरता पर  विधाता को कोसते।  उसे देख कर जमाने के लोगों के दिल में हूक सी उठती तथा आह निकल जाती।  पति तथा पुत्र के असामयिक निधन ने उसके चट्टान से हौसले को तोड़ कर रख दिया।  उसका सारा हौसला रेत के घरोंदे जैसा भरभरा कर गिर गया।

पगली का व्यक्तित्व कांच के टुकड़ों की मानिन्द बिखर गया। पगली भीतर  ही भीतर टूट चुकी थी।  उसके जीवन से जैसे खुशियों के पल रूठ कर बहुत दूर चले गए हो। पति का बिछड़ना तो पगली ने बर्दाश्त कर लिया था।  उसनें गौतम के साथ जीने और मरने के सपने सजाये थे, लेकिन गौतम की असामयिक मृत्यु ने उन सपनों को  चूर चूर कर दिया, वह विक्षिप्त हो गई थी।

उस पर पागलपन के दौरे पड़ने लगे थे। उसे देख ऐसा लगता जैसे जीवन से उसका ताल मेल खत्म हो गया हो।  सूनी सूनी आंखें, बिखरे बिखरे बाल, तन पर फटे चीथड़ों के शक्ल में झूलती साड़ी, तथा अस्त व्यस्त जीवन शैली।  उसके दुखी जीवन के पीड़ा की कहानी बयां करती, जिन्दगी से उसकी सारी उम्मीदें खत्म हो गई थी।

वह लक्ष्य विहीन जीवन जीती आशा और निराशा में भटकती कटी हुई पतंग की तरह फड़फड़ा रही थी।

वह प्राय:मौन हो यहाँ वहाँ घूमती, यदि गाँव की महिलायें दया भाव से कुछ दे देती तो वह उसे वही बैठ चुपचाप खा लेती।  कभी कभी वह अस्फुट स्वरों में कुछ बुदबुदाती, उसकी बातों का मतलब लोगों के लिए अबूझ पहेली थी।  मानों वह विधाता से अपने भाग्य की शिकायत कर रही हो।

फिर चाहे गर्मी की तपती दोपहरी हो अथवा रातों की नीरवता जाड़े की रात हो अथवा बारिशों का दौर वह दुआ मांगने वाले अंदाज में दोनों हाथ ऊपर उठाये एक टक् खुले आकाश की तरफ निहारा करती।

उसके साथ घटी घटनाओं ने उसका हृदय तार तार कर के रख दिया, जिससे उपजे दुख और पीड़ा ने उसे अक्सर बेख्याली में चीखने चिल्लाने पर मजबूर कर दिया।  जरा सा छेड़छाड़ हुई नही कि वह साक्षात् रणचंडी बन जाती। गांवों के बच्चे कभी उसे पगली पगली कह चिढ़ाते कभी पत्थर मारते, तो वह भी गुस्से में उन्हें गालियां देते मारने के लिए दौड़ा लेती। शरारती बच्चे भाग लेते, लेकिन उसी समय घटी एक साधारण सी घटना नें पगली के हृदय पर ऐसी असाधारण चोट पहचाई कि उसका हृदय विदीर्ण हो गया, वह कराह उठी।

उसने उस दिन पत्थर फेकते बच्चों की टोली को दौड़ाया तो उसी आपाधापी में एक बच्चा डर के मारे चीख कर बीच सड़क पर गिर गया। चोट उसके सिर पर लगी थी।

शायद पगली के दिल पर भी, बच्चे के सिर से रक्तधारा बह चली थी, अपना खून देख बच्चा बेसुध हो रोने लगा था। उसके चोट से बहती रक्तधारा देख पगली के हृदय में करूणा उमड़ आई। उसकी सोई ममता जाग उठी।  आखिर ऐसा क्यों न हो उसका दिल  भी तो एक माँ का दिल था।  उसकी ममता अभी जिन्दा थी।  उसने अपनी चीथड़ों की शक्ल में झूलती साडी़ का एक टुकड़ा फाड़ा और बच्चे की चोट पर बांध दिया और बच्चे को गोद मे चिपका कर रो पड़ी।

वह रोये जा रही थी, तथा बच्चे के गाल से बहता रक्त भी पोंछ रही थी।  मानों अंजाने में हुए अपने पापों का प्रायश्चित कर रही हो।  तभी बच्चे का चोला चैतन्य हुआ और बच्चा [धत् पगली] कह गोद से उठकर अपना
हाथ छुड़ाते उठ भागा था।

उस समय पगली को ऐसालगा जैसे हाथ छुडा़ उसका अपना गौतम ही भागा हो। उसका भावुक हृदय चित्कार कर उठा।  वह भी उस बच्चे के पीछे (अरे मोरे ललवा, कहाँ छोड़कर पहले रे) चिल्लाते हुए दौड़ पड़ी थी।

तब से ही पगली बेचैन रहती है उसका दिन का चैन और रातों की नींद खो गई है, वह रात दिन रोती रहती है।  जब रात की नीरवता के बीच कुत्तों के झुण्ड से रोनें तथा सितारों की टोली से हुआँ हुआँ के बीच अरे मोरे ललवा कंहाँ छोडि़ के पहले रे की आवाज वातावरण में तैरती है, तो उसका करूण क्रंदन सुन लोगों की रूह कांप जाती है।  लोग उसकी पीड़ा देख विधाता को कोसते हैं।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 12 – गोविन्द—

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ रसहीन ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित जीवन दर्शन पर आधारित एक सार्थक लघुकथा   “संगमरमर ”.)

☆ लघुकथा – रसहीन  

प्रकृति से दूर कांक्रीट के जंगल में भटकती हुई एक तितली गिफ्ट सेंटर पर लटके सजावटी रंगबिरंगे फूलों की माला पर आकर्षित होकर , कभी इस फूल पर , कभी उस फूल पर बैठती एवं कुछ देर पश्चात पुनः उड़कर दूसरे फूल पर जा बैठती । यह प्रक्रिया कुछ देर चलती रही और फिर तितली निढाल अवस्था में वहीं शो केस के कांच पर बैठ गई ।

उसे क्या पता था कि इन फूलों में रस नही है , ये केवल दिखावटी हैं । इन्हीं प्लास्टिक के फूलों की तरह मनुष्य भी प्राकृतिक सौंदर्य से दूर केवल बनावटी जीवन में ही रस ढूंढ़ते हुए रसहीन हो चुका है ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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