हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 42 ☆ समय की धार ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा  समय की धार।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 42 – साहित्य निकुंज ☆

☆ समय की धार

इंदू की बाहर पोस्टिंग हो जाने बाद आज उसका फोन आया. वहां के सारे हालचाल सुनाए और निश्चितता से कहा बहुत मजे से जिंदगी चल रही है.

हमने ना चाहते भी पूछ लिया अब शादी के बारे में क्या ख्याल है यह सुनते ही उसका गला भर आया.

उसने कहा..” मां बाबूजी भी इस बारे में बहुत फोर्स कर रहे हैं लेकिन मन गवाही नहीं दे रहा कि अब फिर से वही जिंदगी शुरू की जाए पुराने दिन भुलाए नहीं भूलते.”

हमने समझाया ” सभी एक जैसे नही होते, हो सकता है कोई इतना बढ़िया इंसान मिले कि तुम पुराना सब कुछ भूल जाओ.”

“दी कैसे भूल जाऊं वह यादें… ,कितना गलत था मेरा वह निर्णय, पहले उसने इतनी खुशी दी और उसके बाद चौगुना दर्द , मारना -पीटना, भूखे रखना. उसकी मां जल्लादों जैसा व्यवहार करती थी.

मां बाप की बात को अनसुना करके बिना उनकी इजाजत के कोर्ट मैरिज कर ली और हमारे जन्म के संबंध एक पल में टूट गये.”

“देखो इंदु , अब तुम बीती बातों को भुला दो और अब यह आंसू बहाना बंद कर दो.”

दी यह मैं जान ही नहीं पाई कि जो व्यक्ति इतना चाहने वाला था वह शादी के बाद ही गिरगिट की तरह रंग कैसे बदलने लगा.”

“इंदु  अब तुम सारी बातों को समय की धार में छोड़ दो.”

“नहीं दी यह मैं नहीं भूल सकती मैंने अपने माता पिता को बहुत कष्ट दिया,

इसका उत्तर भगवान ने हमें दे दिया.”

“इंदु एक बात ध्यान रखना माता -पिता भगवान से बढकर है, वे अपनी संतान को हमेशा मांफ कर देते है.”

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 25 ☆ लघुकथा – सोच — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “सोच —-”।  यह लघुकथा हमें  एक सकारात्मक सन्देश देती है।  परिवार के सभी सदस्यों को अपनी सोच बदलने की  आवश्यकता  है। वैसे  इस मंत्र को आज सभी  ने महसूस किया है एवं उसका अनुपालन भी हो रहा है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद खूबसूरत सकारात्मक रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 25 ☆

☆ लघुकथा – सोच —-

माँ ! भाभी की मीटिंग तो खत्म ही नहीं हो रही है.

तो तुझे क्या करना है? कुछ काम है भाभी से?

अरे नहीं,  लॉकडाउन की वजह से खाना बनानेवाली काकी तो नहीं आएगी ना? बर्तन, कपडे, झाडू-पोंछा सब करना पडेगा हमें?

हाँ, तो क्या हुआ? पहले नहीं करते थे क्या हम सब? कामवाली बाईयां तो अब कोरोना महामारी  खत्म होने के बाद ही आएगी. लॉकडाउन की वजह से कोई कहीं आ-जा नहीं सकता है.

हाँ वही तो मैं भी कह रही हूँ और भाभी हर समय अपने ऑफिस के काम में ही लगी रहती हैं, घर के काम कौन करेगा? निधि ने मुँह बनाते हुए कहा.

ओह, तो अब समझ आया कि तुझे भाभी की इतनी याद क्यों आ रही है – सुनयना मुस्कुराती हुई बोली- ये बता जब तक तेरे भैया की शादी नहीं हुई थी तो घर के काम कौन करता था ?

मैं और तुम, हाँ छुट्टी वाले दिन पापा और भैया भी हमारी मदद कर दिया करते थे.

तो आज भाभी का इतना इंतजार क्यों हो रहा है? हम सब आराम से घर में बैठे हैं और वो बेचारी सुबह से लैपटॉप पर आँखें गडाए काम कर रही है. उसमें से भी जब समय मिलता है तो उठकर घर के काम निपटा देती है. उसका भी तो मन करता होगा ना थोडा आराम करने का, वह इंसान नहीं है क्या ? चल उठ, हम दोनों जल्दी से रसोई का काम निपटा देते है. सबको मिलकर काम करना चाहिए,  बहू अकेले कितना काम करेगी?

शुभा आज बहुत थक गई थी, सिर में दर्द भी हो रहा था.  आठ दस घंटे काम करने के बाद भी मैनेजर का मुँह चढा ही रहता है, इसी बात को लेकर मैनेजर से झिक-झिक भी हो गई थी. कोरोना के कारण लोग घर बैठकर बिना काम के बोर हो रहे थे पर आई टी वालों को तो घर से काम करना था. वह अपने कमरे से निकल ही रही थी कि उसे अपनी सास और नंद निधि की बातचीत सुनाई दी. उसकी आँखें भर आईं वह सोचने लगी काश! ऐसी ही सोच समाज में सबकी हो जाए?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 43 – बुनियादी अंतर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बुनियादी अंतर। )

गौरव के क्षणयह हमारे लिए गर्व का विषय है कि – आदरणीय श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी को  हरियाणा में ‘आनंद सर की हिंदी क्लास’  नामक युटुब चैनल में आपका परिचय प्रसिद्ध साहित्यकार के रूप में छात्रों से कराया गया  जिसका प्रसारण गत रविवार  को हुआ।

स्मरणीय है कि आपकी रोचक विज्ञान की बाल कहानियों का प्रकाशन प्रकाशन विभाग भारत सरकार दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। वहीँ आपकी 121 ई बुक्स और इतनी ही लगभग कहानियां 8 भाषाओं में प्रकाशित और प्रसारित हो चुकी हैं और कई पुरस्कारों से नवाजा जा चूका है।

ई अभिव्यक्ति की और से हार्दिक शुभकामनाएं। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 43☆

☆ लघुकथा-  बुनियादी अंतर ☆

 

“जानते हो काका ! आज थानेदार साहब जोर-जोर से चक्कर लगा कर परेशान क्यों हो रहे है ?” रघु अपने घावों पर हाथ फेरने लगा, “मेरे रिमांड का आज अंतिम दिन है और वे चोरी का राज नहीं उगलवा सके.”

“तू सही कहता है रघु बेटा ! आज उन की नौकरी पर संकट आ गया है. इसलिए वे घबरा रहे है,” कह काका ने बीड़ी जला कर आगे बढ़ा दी.

“जी काका. इस जैसे-जलाद बाप ने मुझे मारमार कर बिगड़ दिया. वरना किसे शौक होता है, चोर बनने का.” यह कहते ही रघु ने अपना चेहरा घुमा लिया. उस के हाथ आंख पर पहुँच चुके थे.

मगर जैसी ही वह संयत हुआ तो काका की ओर मुड़ा, “काका हाथ पैर बहुत दर्द कर रहे है. यदि इच्छा पूरी हो जाती तो?”

“क्यों नहीं बेटा.” काका रघु के सिर पर हाथ फेर कर मुस्करा दिए. वे रघु की इच्छा समझ चुके थे.

कुछ ही देर में दारू रघु के हलक में उतर चुकी थी और ‘राज’ की मजबूत दीवार प्यार के स्नेहिल स्पर्श से भरभरा कर गिर चुकी थी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 20 ☆ लघुकथा – समझदारी …….. ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और शिक्षाप्रद लघुकथा समझदारी   ….।  पति पत्नी का सम्बन्ध एक नाजुक डोर सा होता है और विश्वास उसकी सबसे बड़ी कड़ी होती है।  इस तथ्य को श्रीमती कृष्णा जी ने  पति पत्नी के इस सम्बन्ध में निहित समझदारी  को बेहद  खूबसूरती से दर्शाया है। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 20 ☆

☆ लघुकथा  – समझदारी   …. ☆

 

पति  अजय ने आभा को अपने पास बैठाकर समझाया। बीती बातें एक बुरा सपना समझकर भूल जाओ मैं  तुम्हारे साथ हूँ   पर आभा नजरें नहीं मिला पा रही थी। अजय ने उसे गले लगाया बस फिर तो आभा के सब्र का बांध ही टूट गया हिचकी के साथ आँसू बहे और आँसुओं के साथ मित्र द्वारा की गयी गद्दारी  तार तार हो गई।

शाह ने पहले अजय से दोस्ती की और फिर बाद में आभा की गतिविधियों पर नजर रख उसका फायदा उठाया। अजय जानते थे। शाह बदमाश और गंदा व्यक्ति है पर उसकी  वाकपटुता से वे भी मोहित हो गये। किन्तु, उसका घर में घुसकर घरघुलुआ खेलना बहुत बुरा लगा। वे उस पर नजर रखते फिर भी शाह आभा से मिलना न छोड़ता।  अजय ने घर बर्बाद न हो, यह कोशिश शुरू कर दी।  अभी नयी नयी गृहस्थी थी एक दूसरे को समझ ही रहे थे, कि बीच में शाह का आ जाना  घर का टूटने जैसे होगा।

अजय ने आभा को बहुत प्यार और सम्मान, धीरज के साथ समझाया और शाह की कोई भी बुराई न कर आभा के मन को जीत  लिया।  नारी स्वभाव एक चढ़ती बेल ही तो होता है।  जो प्यार से संवारे,  उसी की हो ली।

अजय कुछ सामान लेने बाहर निकले ही थे कि झट से दूर खड़े शाह ने आभा के घर में प्रवेश किया।  अजय शाह को आते देख चुके थे।  वे आकर चुपचाप  बाहर कमरे में बैठ गये। शाह आभा से प्यार भरी बातें करने लगा। सब्जबाग दिखाने की कोशिश करने का प्रयास किया।  तभी आभा ने ऊंची आवाज में शाह को डाँटा कि आज के बाद इस घर में कदम मत रखना।  यह मेरा और मेरे पति का घर है, इसमें किसी तीसरे का कोई स्थान नहीं। और शाह अपनी चालबाजियों के आगे खुद ही हार गया। जब वह बाहर निकल रहा था, तभी अजय ने बड़े प्यार से उसकी ओर मुस्कुरा कर देखा। शाह सिर नीचे किए चुपचाप तेज कदमों से बाहर निकल गया।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ आस्तीन के सांप ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा   “ आस्तीन के सांप”.  )

☆ लघुकथा – आस्तीन के सांप

कालोनी में सन्नाटा पसरा हुआ था । हर कोई अपने घर में बंद  था । तभी एक घर से शोरगुल उठा और घर के लोग बदहवास बाहर निकल कर सांप -सांप चिल्लाने लगे । कालोनी के लोग केम्पस में जमा हो गये । कुछ साहसी युवकों ने सांप को भगा दिया ।

लोग पुनः अपने घरों में दुबक गये और समाचार चैनलों से चिपक गये । संवाददाता बता रहा था कि भारत में कुछ पढे लिखे जाहिलों के द्वारा शासन के नियमों का पालन न करने से कोरोना के मरीजों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है ।

समाचार देखते हुए वह सोचने लगा – “कालोनी में घुसकर साँप तो यही जानना चाहता था  कि यहां इतना सन्नाटा क्यों है? वास्तविक सांप आजकल बहुत कम दिखते हैं । अब तो चारों ओर आस्तीन के सांपों की भरमार है । डर और दहशत का माहौल इन्हीं की वजह से है । यह शासन के आदेशों की अवहेलना कर मानवता के विरुद्ध क़ानून तोड़ने का ही कार्य करते हैं ।”

यह एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है कि-  “आखिर, इन आस्तीन के सांपों का क्या करना चाहिए?”

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ सबकी माई ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना 

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक अत्यंत प्रेरक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा  सबकी माई । इस सन्दर्भ में मैं मात्र इतना ही कहूंगा – निःशब्द, अतिसुन्दर लघुकथा, कथानक एवं कथाशिल्प। आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

☆ लघुकथा – सबकी माई  ☆

हाय री मैया। बडो़ दरद उठ रहो हे। प्रभू  भगवन भली करो—चैती के स्वर में भरी वेदना से पड़ोसन माई परेशान हो रही थी, मगर अपने फ्लैट से निकल कर सामने उसके कमरे पर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। बीच-बीच में राजन की आवाज सुनाई देती – – – धीरज रख चैती–धीरज रख।।

बड़ी सी फ्लैट स्कीम के सामने एक खाली प्लाट में बने छोटे से कच्चे कमरे में चैती और राजन रहते थे। राजन रोज मजदूर था। दूर दूर तक आॅटो ढूँढ कर थक चुका था मगर संपूर्ण बंद के कारण लाचार था।बगल की दुकान से एंबुलेंस के लिए उसने फोन करवाया था।

वह चैती को समझा रहा था— बस अभी एंबुलेंस पहुँचती ही होगी। वैसे भी तेरी डिलेवरी में समय है घबरा मत – – धीरज धर चैती।

दो घंटे बीत गए। एंबुलेंस नहीं पहुँची थी। चैती की चीखें थोड़ी और व्याकुल हो रहीं थीं। आस पास फ्लैटों से लोग-बाग झाँक रहे थे।

अचानक  एंबुलेंस के रुकने की आवाज सुनाई दी मगर वह चैती के नहीं उसके ठीक सामने माई के बड़े से फ्लैट के आगे रुकी। माई ने एंबुलेंस बुलवाई थी। अब माई से और रहा नहीं गया।सोचा मैं अकेली जान। बेटी विदेश में फँसी है— किसके लिए अपनी जान की इतनी परवाह करूं। यह विचार करते ही माई उठ खड़ी हुई, घर को ताला डाल कर राजन के साथ एंबुलेंस में बैठ गई उसके साथ अस्पताल जाने के लिए और पाँच हजार रुपये की गड्डी उसके हाथ में थमा दी। चैती और राजन हैरान हो गए— पूरे मोहल्ले में झगडालू चिड़चिड़ी बुढिया के रूप में मशहूर माई का यह रूप देखकर।!

माई की पूरी कालोनी में किसी से पटती नहीं थी दूधवाले सब्जी वाले भी उससे डरते। लेकिन आज जब कोरोना के डर से सगे रिश्तेदार भी अपने अपने फ्लैटों घरोंदों में दुबके बैठे हैं वहाँ माई का यह साहस अभिभूत कर गया।

चार दिन बाद जब  माई के साथ चैती गोद में नन्हें से बच्चे को लेकर लौटी तो निवासियों के साथ साथ सभी फ्लैटों के दरो दीवार देहरी तक माई के सम्मान और स्नेह से भर उठे–दूर से ही सही सबकी तालियों से परेशान चिड़चिड़ी माई ने सबको अपनी पुरजोर आवाज में दपट दिया और जोर से दरवाजा लगा लिया लेकिन तालियाँ बजती ही रहीं – – – बजती ही रहीं।।

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 42 – लघुकथा – रावण जैसा कोरोना☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक समसामयिक बालमन के मनोविज्ञान को  उकेरती एक बेहद सुन्दर लघुकथा  “रावण जैसा कोरोना।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह  एक  सार्थक एवं  शिक्षाप्रद कथा है  जो  बालमन के माध्यम से संकेतों में काफी कुछ सकारात्मक सन्देश देती है। इस सर्वोत्कृष्ट समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 42 ☆

☆ लघुकथा  – रावण जैसा कोरोना

रिया छोटी सी चार साल की बिटिया। उसे दादी से कहानी सुनना बहुत अच्छा लगता था। जब से लॉक डाउन हुआ था, दादी जी के पास बैठकर रोज रामायण का पाठ सुनती थी ।

दादी ने सोचा, समय अच्छा है पूरा रामायण पढ़ लेती हूं।लॉक डाउन में भगवान का भजन भी हो जाएगा और घर के सभी सदस्य भी घर पर ही हैं।

बाकी सभी सदस्य तो टेलीविजन, मोबाइल, पेपर पर लगे रहते थे, मम्मी भोजन बनाने में लगी रहती थी, परंतु रिया अपनी दादी के पास बैठकर रामायण की कहानी सुनती। कितना पढ़ी है? उसमें क्या कहानी है? दादी भी उसे बड़े चाव से रोज कहानी सुनाती थी।

बालमन में दिनभर कोरोना की बातें भी आ जा रही थी। चर्चा का विषय भी कोरोना ही बना हुआ था। इसी बीच  आज दादी जी की रामायण का पाठ ‘रावण के वर्णन’ के पास आया। दादी ने रिया को रावण के बारे में बताई। रावण के दस सिर और  बीस हाथ थे। बहुत बलशाली राक्षस था। वह सभी तरफ देख सकता था।उसका बहुत बड़ा परिवार था। यदि भगवान राम ना होते तो रावण का वध कोई नहीं कर सकता था, और राक्षस बढ़ते ही जाते।

बड़े ध्यान से रिया दादी की बात सुन रही थी, और दौड़कर पापा के पास पहुंची, और बोली :- “ पापा क्या यह कोरोना भी रावण की तरह ही है? यह बहुत बलशाली है! हमारे भारत में कोई  राम नहीं जो कोरोना रावण को मार सके? ”

पापा धीरे से मुस्कुरा कर बोले:-” हैं ना बेटा और वह कोरोना रावण रूपी राक्षस को मार ही रहे है। वह अपना काम कर रहे हैं। बहुत जल्दी यह कोरोना रुपी रावण खत्म हो जाएगा।”खुश होकर रिया दीपक जलाने का इंतजार करने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – श्रद्धांजलि ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन कराती है ।” )

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

? धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  श्रद्धांजलि  ? 

(जब लेखक किसी चरित्र का निर्माण करता है तो वास्तव में वह उस चरित्र को जीता है। उन चरित्रों को अपने आस पास से उठाकर कथानक के चरित्रों  की आवश्यकतानुसार उस सांचे में ढालता है।  रचना की कल्पना मस्तिष्क में आने से लेकर आजीवन वह चरित्र उसके साथ जीता है। श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने इस चरित्र को पल पल जिया है। रचना इस बात का प्रमाण है। उन्हें इस कालजयी रचना के लिए हार्दिक बधाई। )  

जिस बरगद के पेड़ के नीचे से पगली माई की अर्थी उठी थी, उसी जगह उसकी समाधि कुछ संभ्रांत लोगों ने मिलकर बनवा दी थी।

पगली माई का शव,  उसकी इच्छा के अनुसार एनाटॉमी विभाग में छात्रों के शोध कार्य के लिए रख दिया गया था।

उसके नेत्र से दो अंधों की आंखों को रोशनी का उपहार मिला था, जिसका श्रेय पगली की सकारात्मक सोच को जाता है।

इस प्रकार अपने जीवन के अंतिम क्षणों में लिए गये संकल्प को पगली माई ने साकार कर समाज के सामने एक अनूठी पहल की थी, जिसकी सर्वत्र सराहना हो रही थी।

उसकी प्रेरणा उस मेडिकल कालेज के हर छात्र की प्रेरणा श्रोत बन उभरी थी।

अब उस समाधि स्थल पर पहुचने वाला हर इंसान उसकी समाधि पर श्रद्धा के पुष्प बिखेरता है।

लोगों के दिल में अनायास यह विश्वास घर कर गया था कि पगली माई सबकी मनोकामना पूर्ण करती है सबका मंगल करती है।

अब कभी कभी उस समाधि से उठने वाली ध्वनि तरंगें रात्रि की नीरवता भंग करती है, उसकी समाधि पर कभी कभी ये आवाज उभरती है —-

करम किये जा फल की इच्छा
मत कर ओ इंसान।

अब पगली माई को महा प्रयाण किये एक वर्ष गुजर गया।  अस्पताल परिसर में आज उनकी प्रथम पुण्य तिथि मनाई जा रही है। हजारों की भीड़ श्रद्धा सुमन  अर्पित कर रही हैं।  उन्ही लोगों के बीच बैठे बादशाह खान, राबिया तथा गोविन्द का सिर सिजदा करने के अंदाज में झुका हुआ है, इस प्रकार पगली माई यादें ही लोगों के जहन में शेष रह गई थी।

यद्यपि पगली माई दुर्गा माई, काली माई का स्थान भले न ले पाई हो, लेकिन उस लड़ी की एक कड़ी का फूल बन मेरी स्मृति के किसी कोने से झांकती मुस्कुराती नजर आती है।।

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 24 ☆ लघुकथा – अपने घर का सुख ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “अपने घर  का सुख”।  यह लघुकथा हमें  एक सकारात्मक सन्देश देती है। जीवन  में सब को सब कुछ नहीं मिलता। जिन्हें अपने घर का सुख मिलता है उन्हें अपने नीरस जीवन का दुःख है तो कहीं  समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो  किसी भी तरह अपने घर  पहुँचने के लिए बेताब है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद खूबसूरत सकारात्मक रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 24 ☆

☆ लघुकथा – अपने घर  का सुख

मम्मां  क्या है ये ? थोडी देर तो बाहर जाने दो ना, प्लीज.

नहीं बेटा!  मैं तुझे घर के बाहर जाने नहीं दे सकती, तुझे मालूम है ना देश के हालात, कोरोना के कारण कितना बडा संकट छाया है पूरे विश्व पर. सबको अपने घर पर ही रहना है, घर पर रहकर ही इसे बढने से थोडा रोका जा सकता है.

सब जानता हूँ पर तुझे भी पता है ना माँ कि मैं घर में नहीं रुक सकता.  करूँ क्या सारा दिन घर में बैठकर ?

हॉस्टल में क्या करता था सारा दिन ?

उसके चेहरे पर मुस्कुराहट दिखी —  अरे हॉस्टल में तो फुल धमाल, मस्ती, घूमना-फिरना, पार्टी – और पढाई? क्लासेस??

वह सकपका गया हाँ – आँ  अरे! वो तो होती ही है पर हॉस्टल में कोई बोर हो सकता है भला? उफ! ऐसा तो कभी नहीं जैसे मैं इस समय घर में पक रहा हूँ. आज दस दिन हो गए, अभी तो पंद्रह दिन और काटने हैं. लग रहा है  जैसे कैद होकर रह गया हूँ घर में – उसने मायूस चेहरा बनाते हुए कहा.

सरिता समझ रही थी कि आज के ये बच्चे जिन्हें बाहर घूमना – फिरना, ज़ोमैटो, स्विगी से खाना मंगा – मंगाकर खाना खाने की आदत पड गयी है इन्हें घर मैं बैठकर दाल-चावल, रोटी खाना अब कहाँ भायेगा ?  एक – दो दिन की छुट्टियों में घर का खाना और और मम्मी- पापा से दुलार करना बहुत अच्छा लगता है लेकिन अब तो  —– सरिता ने लंबी साँस भरी.

सरिता लगातार कोशिश कर रही थी कि घर में सकारात्मक माहौल बना रहे, इसके लिए वह बेटे और पति को कभी कुछ अच्छी और नई–नई चीजें बनाकर खिलाती.  कभी छत तो कभी लॉन में तीनों बैठकर चाय–कॉफी पीते थे, लेकिन जिन्हें घर में टिकने की आदत ही ना हो उनके लिए दिन काटने मुश्किल हो रहे थे. पति ने एक – दो बार कहा भी – यार, कैसे रह लेती हो तुम सारा दिन घर में ? तुम भी बोर हो जाती होगी, है ना ?  उसने शून्य निगाहों से पति की ओर देखा, बोली कुछ नहीं, सोचा छोडो इस समय, उसने अपने विचारों को झटक दिया.

बेटे का मन बहलाने के लिए उसने टी.वी. चला दिया. सभी न्यूज चैनल यही दिखा रहे थे कि प्रधानमंत्री की  इक्कीस दिन के लॉकडाउन की घोषणा के कारण देश भर में दूसरे राज्यों से आए मजदूर अपने – अपने घर जाने के लिए परेशान होने लगे.घर जाने के सारे साधन  ट्रेन,  बस आदि बंद  हो गए थे लेकिन गरीब मजदूर किसी भी तरह अपने घर पहुँचना चाहते थे. सामान की गठरी सिर पर रखे और एक हाथ से बच्चे को थामे वे चले जा रहे थे. घबराकर वे भूखे – प्यासे  अपना परिवार लेकर पैदल ही निकल पडे. वे जानते थे कि अपने घर पहुँचकर किसी तरह भी रह लेंगे लेकिन दूसरे राज्य में बिना नौकरी, खाली हाथ, बीबी-बच्चों को क्या खिलाएंगे ? सरकार प्रयास कर रही है लेकिन वे जल्दी से जल्दी अपनों के बीच  पहुँचना चाहते थे.

बेटा बडी गंभीरता से मजदूरों के पलायन की खबरें सुन रहा था.  कैसे छोटे- छोटे बच्चे अपने माता पिता  का हाथ पकडे और कुछ गोदी में, रात दिन चलकर अपने घर की आस में चले जा रहे थे. गरीब मजदूरों की अपने घर जाने की व्याकुलता ने उसे बेचैन कर दिया था.  सरिता ने देखा बेटे की आँखों में आँसू भरे थे, वह माँ के पास आया और उसके गले में दोनों हाथ डालकर बडे प्यार से बोला – मम्मां मैं कितना लकी हूँ ना कि ऐसे समय में कितने आराम से आप सबके साथ अपने घर में बैठा हूँ, अगर मैं भी घर नहीं आ पाता तो? सरिता ने बडे प्यार से बेटे के सिर पर हाथ फेरा, वह यही तो समझाना चाहती थी.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 42 – बुनियादी हक़ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बुनियादी हक़। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 42☆

☆ लघुकथा-  बुनियादी हक़ ☆

 

“अरे सावित्री ! क्यों मार रही है रोहन को. मोबाइल ही तो फेका है. सुधरवा लेना.”

“मांजी , मारू नहीं तो क्या करूँ. आजकल बहुत शैतानी करने लगा है,” कहते हुए सावित्री ने दूसरा चांटा रखना चाहा.

“रुक ! मेरे दोहते को मारना चाहती है, “ कहते हुए नानी ने हाथ पकड़ लिया.

“गोद लिए रोहन को मारते शर्म नहीं आती. पहले बच्चे पैदा करना, फिर मारना,” नानी यह कह पाती उस पहले ही रोहन की माँ देवकी बोल उठी , “माँ ! यह मेरी जेठानी-सावित्री का बेटा है. वह अपने बेटे को मारे या कुछ कहे , आप कौन होती है बीच में बोलने वाली. चलो यहाँ से.”

सुनते ही नानी और सावित्री अवाक् रह गई और देवकी मुंह में पल्लू दबा कर उलटे पैर भाग गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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