हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #22 – जहर ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 21☆

☆ जहर ☆

“बिच्छू ज़हरीला प्राणी है। ज़हर की थैली उसके पेट के निचले हिस्से या टेलसन में होती है। बिच्छू का ज़हर आदमी को नचा देता है। आदमी मरता तो नहीं पर जितनी देर ज़हर का असर रहता है, जीना भूल जाता है।…साँप अगर ज़हरीला है तो उसका ज़हर कितनी देर में असर करेगा, यह उसकी प्रजाति पर निर्भर करता है। कई साँप ऐसे हैं जिनके विष से थोड़ी देर में ही मौत हो सकती है। दुनिया के सबसे विषैले प्राणियों में कुछ साँप भी शामिल हैं। साँप की विषग्रंथि उसके दाँतों के बीच होती है”,  ग्रामीणों के लिए चल रहे प्रौढ़ शिक्षावर्ग में विज्ञान के अध्यापक पढ़ा रहे थे।

“नहीं माटसाब, सबसे ज़हरीला होता है आदमी। बिच्छू के पेट में होता है, साँप के दाँत में होता है, पर आदमी की ज़बान पर होता है ज़हर। ज़बान से निकले शब्दों का ज़हर ज़िंदगी भर टीसता है। ..जो ज़िंदगी भर टीसे, वो ज़हर ही तो सबसे ज़्यादा तकलीफदेह होता है माटसाब।”

जीवन के लगभग सात दशक देख चुके विद्यार्थी की बात सुनकर युवा अध्यापक अवाक था।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

11.31 बजे, 2.8.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 25 – लघुकथा – चुनाव के बाद ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज की लघुकथा में  डॉ परिहार जी ने चुनाव के पूर्व एवं चुनाव के बाद नेताजी के व्यवहार परिवर्तन का बड़ा ही सजीव वर्णन किया है।  यह  किस्सा तो हर के बाद का है यदि जीत के बाद का होता तो भी शायद यही होता ? ऐसी सार्थक लघुकथा  के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनकी  का ऐसे ही विषय पर एक लघुकथा  “चुनाव के बाद”.)
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 25 ☆

☆ लघुकथा – चुनाव के बाद ☆

 

महान जनसेवक और हरदिल-अज़ीज़ नन्दू बाबू चुनाव में उम्मीदवार थे। आठ दिन में वोट पड़ने वाले थे। नन्दू बाबू के घर में चमचों का जमघट था—-तम्बाकू मलते चमचे, चाय पीते हुए चमचे, सोते हुए चमचे, बहस करते चमचे, मस्का लगाते हुए चमचे। दीवारों से तरह तरह की इबारतों वाली तख्तियां टिकीं थीं—-‘नन्दू बाबू की जीत आपकी जीत है’, ‘नन्दू बाबू को जिताकर प्रजातंत्र को मज़बूत कीजिए।’

एकाएक नन्दू बाबू के सामने उनकी पत्नी, आठ साल के बेटे का हाथ थामे प्रकट हुईं। उनके मुखमंडल पर आक्रोश का भाव था। चमचों से घिरे पति को संबोधित करके बोलीं, ‘सुनो जी, तुमने इन छोटे आदमियों को खूब सिर चढ़ा रखा है। उस दो कौड़ी के हरिदास के लड़के ने बल्लू को मारा है।’

नन्दू बाबू उठकर पत्नी के पास आये। मीठे स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करती हो गुनवन्ती? वक्त की नज़ाकत को पहचानो। तुम राजनीतिज्ञ की बीवी होकर ज़रा भी राजनीति न सीख पायीं। यह वक्त इन बातों पर ध्यान देने का नहीं है।’

इतने में एक चमचे ने खबर दी कि बाहर हरिदास खड़ा है। नन्दू बाबू बाहर गये। हरिदास दुख और ग्लानि से कातर हो रहा था। बोला, ‘बाबूजी, लड़के से बड़ी गलती हो गयी। उसने छोटे बबुआ पर हाथ उठा दिया। लड़का ही तो है, माफ कर दो।’

नन्दू बाबू हरिदास की बाँहें थामकर प्रेमपूर्ण स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करते हो हरिदास? उन्नीसवीं सदी में रह रहे हो क्या? अब कौन बड़ा और कौन छोटा? सब बराबर हैं। और फिर बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं। उनकी बात का क्या बुरा मानना?’

चुनाव का परिणाम निकला। नन्दू बाबू चारों खाने चित्त गिरे। सब मौसमी चमचे फुर्र हो गये। स्थायी चमचे दुख में डूब गये। घर में मनहूसी का वातावरण छा गया।

परिणाम निकलने के दूसरे दिन हरिदास अपने घर में लेटा आराम कर रहा था कि गली में भगदड़ सी मच गयी। इसके साथ ही कुछ ऊँची आवाज़ें भी सुनायी पड़ीं। उसके दरवाज़े पर लट्ठ का प्रहार हुआ और नन्दू बाबू की गर्जना सुनायी पड़ी, ‘बाहर निकल, हरिदसवा! तेरे छोकरे की यह हिम्मत कि मेरे लड़के पर हाथ उठाये?’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – एक दिन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  एक दिन

 

एक दिन मेरे पास चार-छह एकड़ में फैला बंगला होगा….एक दिन मेरे पास दुनिया की सबसे महंगी कार होगी….एक दिन मेरे पास अपना चार्टर्ड प्लेन होगा….एक दिन मेरे पास ये होगा….एक दिन मेरे पास वो होगा….।

आकांक्षा को कर्म का साथ नहीं मिला। दिन आते रहे, दिन जाते रहे। उस एक दिन की प्रतीक्षा में हर दिन यों ही बीतता रहा। एकाएक एक दिन, सचमुच वो एक दिन आ गया।

उस दिन वह मर गया।

आज का दिन कर्मठ हो।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ लघु कथा – ☆ ताना बाना ☆ – श्री दिलीप भाटिया

श्री दिलीप भाटिया 

( श्री दिलीप भाटिया जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। 26 दिसंबर 1947 को जन्में भूतपूर्व परमाणु वैज्ञानिक  श्री दिलीप भाटिया जी ने अपना पूरा जीवन बच्चों के लिए समर्पित कर दिया है। एक अच्छे साहित्यकार के साथ ही वे बच्चों के लिए प्रेरक-मार्गदर्शक  भी हैं। वे स्वयं गायत्री नवचेतना केंद्र पर बाल संस्कारशाला का संचालन भी करते हैं। उनकी प्रेरक पुस्तकें ‘उपकार प्रकाशन, आगरा’ से प्रकाशित, कई उपन्यास, कथा संग्रह आदि प्रकाशित एवं 50 से अधिक आकाशवाणी से वार्ताएं प्रसारित। तीन पुस्तकें प्रकाशित एवं शताधिक पुरस्कार प्राप्त जिनमें प्रमुख केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा से आत्माराम पुरस्कार 2004 तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जी के कर कमलों से प्राप्त।आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक लघुकथा  “ताना  बाना ”.)

☆ लघु कथा –  ताना बाना ☆

प्रिय  एकता,

उद्योग कुटीर पर प्रशिक्षण के पश्चात् बुनाई केंद्र पर आत्मनिर्भर बन कर अपनी नन्ही बिटिया शिल्पी का लालन पोषण करने का एक सकारात्मक प्रयास कर रही हूँ। ईश्वर के निर्णय से नन्ही बेटी के सिर पर अब उसके पापा की सशक्त छाया तो नहीं है, पर, फिर भी मेरा प्रयास रहेगा कि -उसे जीवन के तूफानों में भी अपनी सहनशीलता एवं विवेक का दीपक प्रज्वलित रखने की क्षमता पैदा कर सकूँ।

अभी केंद्र पर कार्य करते हुए स्वयं के जीवन के ताने-बाने स्वतः ही स्मरण हो गए। बुनाई मशीन पर उलझे धागे सुलझाना सरल है। पर, एकता, जीवन के उलझे हुए तानो-बानो को सुलझाना कठिन है।

मम्मी पापा के दिए हुए संस्कार अनुशासन, शिक्षा की शक्ति से ही जीवन के सबसे बड़े तूफान में भी हार नहीं मानी। तुम्हारे जीजाजी के असामयिक निधन के पश्चात भी हिम्मत बनाए रख रही हूँ। शिल्पी को मम्मी की ममता एवं वात्सल्य कुछ कम देकर उसके पापा की भूमिका का प्रतिशत बढ़ा कर अनुशासन नियम अधिक देकर उसे एक मजबूत इन्सान बनाने का प्रयास कर रही हूँ

जीवन का ताना बाना उलझे नहीं, बस, यही शेष जीवन का लक्ष्य है।

शेष फिर।

सस्नेह राशि।

 

©  दिलीप भाटिया

संपर्क-  238 बालाजी  नगर  रावतभाटा  323307 राजस्थान

मोबाइल –  9461591498.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 7 ☆ लघुकथा – गलत सवाल ? ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय  लघुकथा “गलत सवाल ?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 7 ☆

☆ लघुकथा – गलत सवाल ? ☆ 

 

बेटी कंप्यूटर इंजीनियर। प्रतिष्ठित कॉलेज से बी.ई.। मल्टीनेशनल कंपनी में चार वर्ष से साफ्टवेअर इंजीनियर के पद पर कार्यरत। छह महीने के लिए ऑनसाइट ड्यूटी पर मलेशिया भी जा चुकी है। पैकेज सालाना आठ लाख। अपनी सुंदर, संस्कारी लड़की को इंजीनियर बनाने में आठ–दस लाख तो खर्च कर दिए होंगे माता-पिता ने ?

शादी की विभिन्न वेबसाइट पर उनकी लड़की के योग्य जो लड़का ठीक लगता तो वे उसके माता–पिता का फोन नं. लेकर बातचीत शुरू करते। लड़की के पिता के प्रश्न होते – “लड़के का पैकेज कितना है? आपका अपना मकान है या किराए पर रहते हैं? लड़के की शादी कैसी करेंगे आप?”

“मतलब …………… ?”

“मतलब साफ है साहब – 20 लाख, 25 लाख, कितना खर्च करेंगे आप अपने लड़के की शादी में? मेरी बेटी इंजीनियर है बहुत खर्च किया है मैंने उसकी पढाई-लिखाई पर” – लडकी के पिता ने विनम्रता से कहा।

“क्या …………….?” और झटके से लड़केवालों का फोन कट जाता। किसी एक ने गुस्से से कहा – “ये कैसे बेहूदे  सवाल कर रहे हैं आप? लड़कीवाले हैं ना? भूल गए क्या?”

लड़की के पिता सकते में, यही सवाल तो पिछले दो साल से हर लड़के के माता–पिता उनसे पूछ रहे थे, मैंने पूछा तो क्या गलत किया?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #24 ☆ आदत ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “आदत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #24 ☆

 

☆ आदत ☆

 

दिल में उथलपुथल मची हुई थी. वह बोला, “क्या सोच रहा है ? काट डाल.”
दिमाग ने कहा, “नहीं नहीं! तू ऐसा नहीं कर सकता है?” मगर दिल कब मानने वाल था. वह बोला, “उस ने पहली बार मोटरसाइकल की आगे की लाइट पर लगा नाम खुरेद दिया था. इस से मोटरसाइकल का आगे का हिस्सा भद्दा हो गया था.”
“तो?”
“दूसरी बार उस ने नए सीट कवर को चाकू से काट दिया था. वह तो तूने देखा था.”
“हां” दिमाग ने कहा, “चाकू अभी वही बरामदे के एक कोने में पड़ा है.” उस ने ऊपरी मंजिल से नीचे रखी नई मोटरसाइकल की ओर झांका.
“रात का समय है. कोई देख नहीं रहा है. मोटर साइकल नई है. उसे अपनी हरकत का जवाब मिलना चाहिए,” दिल ने कहा, “नीचे चल और उसी चाकू से उस की मोटरसाइकल की नई सीट को काट डाल.”
दिमाग ने नानुकूर की. मगर दिल की बात मान कर शरीर नीचे बरामदे तक चला आया. हाथ ने चाकू पकड़ लिया. दिल ने जोर दिया, “इधर उधर देख. काट दे.”
मगर, दिमाग ने आदेश नहीं दिया, “यदि सुबह ‘वह’ चिल्लाया कि मोटरसाइकल की सीट किस ने काटी, तब?”
“कह देना, उसी भूत ने काटी है जिस ने मेरी मोटरसाइकल की सीट काटी थी,” यह कह कर दिल मुस्कराया. मगर, दिमाग अभी भी यह बात मानने को तैयार नहीं था.
“नहीं. मैं यह नहीं कर सकता हूं.” उस ने दिल से कहा.
“जैसे के साथ वैसा करना चाहिए ताकि वह दूसरे के साथ वह नहीं करें जो तेरे साथ किया है,” दिल ने कहा तो दिमाग बोला, “वह अपनी आदत नहीं छोड़ सकता है तो मैं अपनी आदत क्यों छोड़ दूं?” कह कर दिमाग ने हाथ को कोई आदेश नहीं दिया.
दूसरे ही पल चाकू नई मोटरसाइकल की सीट पर पड़ा था और पैर शरीर को लिए हुए प्रथम मंजिल की ओर चल दिए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ कथा कहानी ☆ कालजयी वैज्ञानिक फंतासी ☆ शेष विहार ☆ – सुश्री निर्देश निधि

सुश्री निर्देश निधि

आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की सशक्त युवा हस्ताक्षर सुश्री निर्देश निधि  जी की कालजयी वैज्ञानिक फंतासी  “शेष विहार ”.

आदरणीय डॉ विजय कुमार मल्होत्रा जी (पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय,भारत सरकार) के शब्दों में “बुलंद शहर (उ.प्र.) की निवासी निर्देश निधि द्वारा लिखित “शेष विहार” पढ़कर मैं न केवल भयाक्रांत हो गया था, बल्कि विचलित भी हो गया था और मैं चाहता था कि इस कहानी को विश्व-भर के पाठक पढ़ें और समय रहते ऐसे उपाय करें जिससे हम अपने इस प्यारे भूमंडल को आसन्न भयानक विभीषिका से बचा सकें.”

ऐसी कालजयी रचना को हमारे विश्वभर के पाठकों  तक पहुंचाने के लिए हम आदरणीय  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के सहयोग के लिए ह्रदय से आभारी हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रवीण हैं, बल्कि उर्दू और संस्कृत में भी अच्छा-खासा दखल रखते हैं. उन्होंने इस कालजयी रचना के अंग्रेजी अनुवाद को उपलब्ध कराने के आग्रह को स्वीकार किया है जिसे हम शीघ्र अपने पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।)

आप सुश्री निर्देश निधि जी की अन्य  दो कालजयी रचनाएँ निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

  1. सुनो स्त्रियों
  2. महानगर की काया पर चाँद

☆   शेष विहार ☆

मैं समय हूँ । मौन रहकर युगों को आते जाते देखना मेरे लिए एक सामान्य प्रक्रिया है अपनी अनुभवी आँखों से मैं  सिर्फ देख सकता हूँ । अच्छे बुरे किसी भी परिवर्तन को रोक पाना  मेरे लिए संभव नहीं था । मैं अक्सर किसी एक कहानी, जो सबसे अलग सी होती है को उठाता हूँ और आप सबके समक्ष रखता हूँ । आज मैं इस युग की एक माँ और उसके आठ वर्षीय बेटे की कहानी सुनाने जा रहा हूँ । यह कहानी भारत नाम के देश से ली है । अभी जो मैं देख रहा हूँ वह सुनाता हूँ जस का तस,

“वैन, सूरज डूबने वाला है, उठो और तैयार हो जाओ आज “शेष विहार” देखने जाना है न । जल्दी करो जिससे कि हम सूरज उगने से पहले – पहले ही सुरक्षित  वापस आ सकें । “

वैन फ्रैश रूम में गया और अपनी पसंद की ड्रेस, परफ्यूम, जूते वगैहरा कम्प्युटर में फीड किए । कम्प्युटर ने उसे पाँच मिनिट के अंदर – अंदर ऐन्टी वायरल, ऐन्टी बैक्टीरियल एयर से ड्राइक्लीन करके फीड किए हुए कपड़े, जूते वगैहरा पहनाकर पूरी तरह तैयार कर दिया ।

आठ वर्षीय वैन ही पूरे शहर में एक बच्चा है जिसने अपनी माँ की कोख से जन्म लिया है, और अब भी माँ के साथ रहता है । पिता का तो उसे पता नहीं क्योंकि उसकी माँ ने गर्भधारण के लिये राजकीय स्पर्म लैब का ही सहारा लिया था । माँ की कोख से जन्म लेने और माँ के साथ एक ही सैल में रहने  के कारण, अनुभव बांटने के लिए आए दिन, मीडिया और अनेक संस्थाओं के लोग उन दोनों माँ – बेटा का इंटरव्यू लेने आते रहते हैं । उन पर अनेक रिसर्च हो  रही हैं ।  क्यों कि इस  युग की स्त्री अपनी कोख से शिशु को जन्म देने की योग्यता खो चुकी है अगर कोई इक्का – दुक्का स्त्री योग्य हो भी तो वह गर्भधारण कर शिशु को जन्म देने का कष्ट लेने को तैयार नहीं होती ।  पिछली कई सदियों से भ्रूड़ हत्याएँ इतनी अधिक होती आ रही हैं कि प्रकृति ने स्त्री से संतति निर्माण की असाधारण योग्यता लगभग छीन ही ली है। पुरुषों में  भी कोई इक्का – दुक्का ही बचे हैं जो संतति निर्माण की प्रक्रिया सतत रख पाने में समर्थ  हैं । सभी बच्चे वैज्ञानिकों की देख – रेख में लैब से ही जीवन का प्रारम्भिक रूप पाते हैं । सरकारी संस्थाएं स्त्रियों की गर्भधारण क्षमता का टेस्ट कराती हैं । जिससे कि प्रकृति के नियम को फिर से जीवित किया जा सके ।  वैन की माँ को सरकार ने इस योग्य पाया था , अतः उसे तमाम सुविधाएँ और लाभ देने के नाम पर गर्भधारण के लिए  राजी कर लिया गया था । माँ ने भी यह सोचा था कि जिस शिशु को वह कोख से जन्म देगी वह उससे पुराने समय के पुत्रों की तरह थोड़ा बहुत प्रेम तो करेगा ही । और सरकारी लाभ मिलेंगे सो अलग , खैर …..

वैन खुद भी बड़ी हैरानी के साथ अपनी माँ से पूछता है, “माँ आपने सचमुच मुझे अपने पेट से पैदा किया है ? अमेजिंग मोम, यू आर रिएलि अमेजिंग । मेरी क्लास के सभी लड़के  लैब में ही बढ़े, और वहीं पैदा भी हुए । उनकी माएँ या  पिता भी अगर इच्छा होती तो एक विशिष्ट जार में पल रहे अपने अजन्में बच्चों को देखकर आ जाते थे  बस । काफी सुरक्षित  रहा होगा इस तरह उनके बच्चों का पलना । फिर वो वहीं से शिशु पालन गृह  चले गए,  वहीं से पढ़ने के लिए छात्रावास चले गए । कभी – कभार  ही मिले होंगे अपने बायोलोजिकल पेरेंट्स से तो, किसके पास इतना समय है माँ कि बस बच्चों से ही मिलता फिरे या बच्चों के पास भी क्या बस यही एक काम रह गया है ? “

“हाँ वैन अब तो यही होता है, पर तुम्हें मैंने वाकई अपने गर्भ में पाला है पूरे नौ महीने।“  माँ ने उत्तर दिया ।

“पर माँ आपने तो बहुत ही रिस्क लिया ।  मुझे सिर्फ इमेजिंग डिवाइस की आधुनिक तकनीक से ही देख पाई अपने पेट के अंदर, क्यों लिया आपने इतना रिस्क ? आपने तो मेरे जीवन को भयानक खतरे में ही डाल दिया था माँ ।“

“नहीं वैन ऐसा नहीं है, आदमी की देखभाल आदमी से बेहतर ही कर पाती है माँ प्रकृति परंतु हमारे पूर्वजों ने उसपर विश्वास करना छोड़ दिया था न । सो अपना तिरस्कार देख कर उसने भी  अपने हाथ खींच लिए  । उसकी हानि उठाई हमारी पीढ़ियों ने ।“

“हानि कैसे माँ ?”

“देखो जैसे अब हमें दिन की जगह रात में ही सारे काम करने पड़ते  हैं । दिन भर सूरज की ऊर्जा एकत्रित करके रात को दिन बनाने की मजबूरी है हमारी परंतु  पहले सारे  काम दिन में  सूरज के प्रकाश में ही हुआ करते थे । हमारे पूर्वजों ने धरती पर लहराते सारे जंगल काट डाले और वहाँ आधुनिक बाज़ार – हाट, आधुनिक साज – सज्जा गृह, सड़कें रास्ते , बड़ी – बड़ी फैक्ट्रियाँ, होटल, आधुनिक निवास, स्मार्ट  शहर , जिससे जंगल तो गए ही खेती – बाड़ी की ज़मीन भी गई । हमारे पूर्वजों ने धरती के प्राकृतिक  साधनों का हद से ज़्यादा दोहन कर डाला ।“

“हाँ माँ, मैंने कहीं पढ़ा भी था कि प्रकृति मनुष्य की आवश्यकताएँ तो पूरी कर सकती थी पर उसका लालच वह पूरा नहीं कर सकी । “

“हाँ वैन, तुमने ठीक पढ़ा था । पुराने समय में आज की तरह सूर्य की ऊर्जा का प्रयोग नहीं किया जाता था वाहनों में बल्कि उन्हें चलाने के लिए पेट्रोल – डीज़ल नाम के तरल ईंधन होते थे जो जलने पर बहुत प्रदूषण फैलाते थे और भी रोज़मर्रा प्रयोग होने वाले  तमाम रसायनों के प्रयोगों ने वातावरण को बुरी तरह विषाक्त बना डाला । जीवन रक्षक प्राण वायु मरती चली गई । रही – सही कसर उस समय के शक्तिशाली कहे जाने वाले राष्ट्राध्यक्षों की महत्वाकांक्षाओं ने पूरी कर दी । यानि उन्होने विश्व को चार – चार महायुद्धों की त्रासदी मे धकेल दिया । रासायनिक, जैविक आदि अनेक प्रकार के घातक हथियारों ने चहकते जीवन को शमशान की वीरानी में धकेल दिया । धन – जन और वातावरण की  अपूरणीय क्षति हुई । तमाम आयुधों के प्रयोग से उपजे  धुएं  के जहरीले  गुबारों ने धरती के रक्षात्मक कवच यानी  ओज़ोन लेयर को हमेशा के लिए जला डाला । जो हमें  सूरज की हानिकारक किरणों से बचाती थी । “

“और भी बताओ न माँ क्या – क्या हुआ। “

“ और क्या बताऊँ , धरती पशु – पक्षियों से खाली हो गई । उसकी महत्वपूर्ण फूडचेन टूट गई जिन जीवों  को तुम अब सिर्फ व्यूइंग डिवाइस पर देखते हो न वो सबके सब इसी धरती पर विचरण करते थे वैन । इन्सानों  की जनसंख्या भी बहुत अधिक थी, इतनी अधिक कि कई देशों  की सरकारें अधिक बच्चे  पैदा करने वाले लोगों की कई सुविधाएं कम कर देती थीं, कम बच्चों वालों के लिए कई सुविधाओं से लैस स्कीम चलाती थीं । अब उसका उल्टा होता है वैन । अब  बच्चे पैदा करने के बदले में सुविधाएं देती हैं सरकारें। क्यों कि इतनी विशाल धरती पर मात्र दो चार ही देशों का अस्तित्व शेष रहा है जिनमें से एक हमारा भारत है । ।“

“वैन उस दिन तुमने अपनी क्लासमेट अरुणिमा का हाथ देखा था न, सूरज की किरणों  ने किस तरह जला दिया था । अब उसे “डी एस डी” यानि “डिजीज ऑफ स्योर डैथ” होना लाज़मी है । वो मानती ही नहीं है, उसे हर रोज़ दिन में जागने की पड़ी रहती है । उसे उसकी वार्डेन ने कितनी बार मना किया था दिन में जागने से “

“माँ, जन्म के समय डॉक्टर ने उसे नैनोवाट्स नहीं दिये थे ?”

“दिए होंगे वैन , पर वो छोटी – मोटी बीमारियाँ या किसी छोटी – मोटी  चोट के घाव ही भर सकते हैं ना औटोमैटिकली, वो इंसान को सूरज की हानिकारक किरणों से तो नहीं ही बचा सकते न  । वैन सिर्फ नैनोवाट्स ही नहीं अब तो जन्म  के समय एक चिप मस्तिष्क में,  एक आई डी चिप , हियरिंग डिवाइस , कॉर्निया प्रोटेक्टिव लैंस , फेंफड़ों और दिल के लिए पंपिंग डिवाइस आदि भी बच्चे को जन्म  के समय ही लगा दी  जाती है । “

“हाँ, हाँ माँ वो तो मुझे भी पता ही है , इसमें तुम क्या नया बता रही हो । यह मुझे पता है कि हर समय मोबाइल फोन पर बातें करते रहने , लाउड म्यूजिक सुनते रहने से औए तरह – तरह की मशीनों की तेज़ आवाज़ें सुनते रहने से इंसान के कान कुदरती तौर पर खराब होने लगे थे । आँखों पर टी वी और कम्प्युटर स्क्रीन आदि के प्रभाव घातक पड़े , धरती के विषाक्त हो गए  वातावरण  ने फेफड़ों को नाकाम करना शुरू कर दिया था , रहन – सहन की दोषपूर्ण शैली ने मनुष्य  के स्वास्थ को लगभग निगल ही लिया था । तीसरे और फिर चौथे विश्वयुद्ध के बाद देखना, सुनना , सोचना, समझना, यानी जीना लगभग असंभव हो गया था, इसीलिए मानव मस्तिष्क में भी चिप लगानी पड़ी । इस चिप में कुछ तो सामान्य ज्ञान की बातें होती हैं जो सभी नागरिकों को आवश्यक रूप से पता होनी ही चाहिए और कुछ विशेष ज्ञान होता है । वह ज्ञान जो उनके कार्यक्षेत्र  निर्धारित करता है । इसी चिप के माध्यम से हम एक दूसरे को अपने संदेश पहुंचा सकते हैं बिना किसी अतिरिक्त प्रयास और बिना किसी अतिरिक्त डिवाइस के, और इसी चिप के माध्यम से हम रास्ते खोजने मे सक्षम होते हैं ।  जिनको यह चिप नहीं लगाई जाती  वो लगभग विक्षिप्त बन कर ही जीते हैं ।  ये सब पता है मुझे । “

“हाँ बिलकुल सही कहा वैन । और पता है अंतिम विश्वयुद्ध के बाद कौन बच पाये ? सिर्फ वो वैज्ञानिक जो अंडर ग्राउंड बंकरों के क्रत्रिम वातावरण में बरसों छिपे पड़े रहे जिनकी बॉडी ने इस घातक जीवन शैली को अडोप्ट कर लिया और खुद को सूरज की जानलेवा किरणों से बचाकर रखा । उन्होने ही  धरती पर मानवी  हृदय के स्पंदन का स्वर सतत रखा वैन । अब पृथ्वी पर  जितनी भी जनसंख्या है सिर्फ उन चंद वैज्ञानिकों की ही सन्तानें हैं ।  विश्व युद्धों की वजह से फैले प्रदूषण ने धरती का वातावरण ही नहीं उसके गर्भ में छिपा पानी तक भयानक रूप से विषाक्त कर दिया, पीना तो दूर नहाने के लायक तक नहीं छोड़ा ।“

“माँ, तो क्या पहले युग  में धरती  के पानी से ही नहाया  जा  सकता था ?”

“नहाया ही नहीं वैन धरती  का पानी ही खाने और पीने में भी प्रयोग किया जाता था ।“

“सच माँ !”

“हाँ हाँ बिलकुल सच , अभी जब तुम बड़ी कक्षा में जाओगे न तो तुम्हें ये सब इतिहास और विज्ञान दोनों ही विषयों की कक्षाओं में  पढ़ाया जाएगा । पानी तो तीसरे विश्वयुद्ध के बाद विषाक्त होकर पीने के अयोग्य हुआ । तब तक भी कुछ शुद्धिकरण संयन्त्रों से उसे शुद्ध किया जा सकता था परंतु चौथे महायद्ध ने यह सम्भावना  भी समाप्त कर दी  । कुछ पानी और खाने की सामग्री को बंकरों  में सुरक्षित  रखा गया था आड़े वक्त के लिए ।  बस उसी ने जीवित रखा, बच रहे कुछ विशेष वैज्ञानिकों को ।  तभी तो अब हम प्लैनेट एक्वेरियम से पानी लाते हैं और बहुत कम ला पाने की वजह से उसी को बार – बार रिसाइकिल करके प्रयोग करते रहते हैं । यही कारण है कि अब मात्र  कुछ एम एल  से ही स्पंज बाथ लेना होता है, या फिर इस आर्टिफ़िश्यली ऐन्टीबैक्टीरियल, ऐंटीवायरल की गई एयर से ही ड्राईक्लीन करना पड़ता है खुद को ।“

“तो माँ क्या हमारे सारे पूर्वज मूर्ख थे जो उन्होने इतनी बड़ी – बड़ी भूलें कीं । आपस में लड़ना , पेड़ काटना ,जंगलों का विनाश करना ज़रूरी था क्या ? हमें उन्होने क्या दिया , ये बंद घरों की जेल, जिनमें हमे दिनभर बंद रहना पड़ता है । अगर ये घर भी एयरकंडीशंड सनलाइट प्रूफ, और आक्सीजनफिल्ड न होते या हम न बना पाए होते  ऐसे घर तो  हम भी तो जीवित नहीं रहते । ”

“हाँ वैन यह सच है । पर मनुष्य हारने के लिए नहीं बना इसीलिए हम दूसरे गृह जिनमें पुरानी धरती जैसा ही प्राकृतिक और जीवन का सहयोगी वातवरण है, अपने निवास के लिए खोज पाने में लगभग सफल हो ही चुके हैं । पर हाँ वहाँ जाकर बसने तक का समय मनुष्य जाति के लिए वास्तव में ही बेहद कठिन है । “

“माँ क्या हमारे जीवन में ही हम जा सकेंगे उस नए गृह पर ?”

“मैं अपना तो नहीं कह सकती वैन पर हाँ तुम तो ज़रूर ही जा सकोगे और हाँ वहाँ जाकर भी अकेले मत रहना । अपना परिवार जिसमें एक स्त्री जिसे पत्नी कहा जाता रहा है पुराने समय में , अपने कुछ बच्चे जो तुम्हारी उस पत्नी और तुम्हारे होंगे उन्हें अपने साथ ही रखना । देखो हम कितनी ही पीरिओडिकल  फिल्मों में देखते हैं किस तरह सारा परिवार हंसी – खुशी रहता था खुले मैदानों में खेलते – कूदते हंसी मज़ाक करते कितने प्यारे लगते हैं उस परिवार के सदस्य ।“

“अरे नहीं – नहीं माँ तुम ये हाइपोथेटिकल बातें मत करो, प्रैक्टिकल बातें करो जो संभव हो सकती हों । मैं तो रहूँगा बिलकुल अकेला, आज़ाद सबकी तरह । मैं क्यों फन्सूंगा समस्या  में । “  वैन ने माँ की बात का प्रतिरोध किया ।

“अब बहुत सारी बातें हो गईं वैन और सूरज भी लगभग डूब ही चुका है । अपना जीवन रक्षक सूट पहन लो अपना फ्लाइंग कैपस्यूल चैक करो और उसकी फ्युल चिप ,ऑक्सीज़न  वगैहरा – वगैहरा चैक करो, अपनी डायट टैबलेट और ऐच2 ओ वाली टैबलेट्स का जार रखना मत भूल जाना । मैंने अपने ये सभी काम कर लिए हैं , मैं पूरी त्तरह तैयार हूँ। “

“माँ मैंने भी ये सब काम कर लिए हैं वो  भी तुमसे पहले , बस लाइफ सेवरसूट पहन लेता हूँ । पर माँ मैं बार – बार यही सोचता हूँ कि तुम सबसे अलग हो  ।  मेरे लिए तुमने  अपनी प्राइवेसी सैक्रिफ़ाइस की । “

पर वैन नहीं जानता कि माँ ने तो सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं और उसके बार – बार पड़ने वाले दबावों के कारण गर्भधारण  किया था । पूरे शहर में एक उसी का टेस्ट आया था गर्भधारण के लिए पोज़िटिव ।  पर उसे जन्म देने और साथ आ जाने पर उसे वैन का साथ बहुत अच्छा लगा था । हलाकि कभी – कभी उसे अपनी प्राइवेसी खत्म होती ज़रूर ही लगी थी और काम का कुछ अतिरिक्त अनचाहा भार भी । किसी भी सदी की सही पर थी तो वह माँ ही न, इसीलिए बेटे का सानिध्य उसे भला लगा था ।

“हाँ वैन यह तो मैंने किया पर मुझे अच्छा लगा तुम्हें साथ रखना शायद इसीलिए मैं यह कर पाई । पर जैसा कि मैंने तुम्हें पहले भी कभी बताया था कि पहले पूरा परिवार साथ – साथ ही रहता था ।“

“माँ परिवार क्या ? उसके सही मायने बताओ  ।”

“परिवार मतलब, माँ, पिता यानि जिस स्त्री और जिस पुरुष के संयोग से बच्चे का जन्म होता है , वो बच्चे के माँ – पिता होते हैं । बहन – भाई जो उन्हीं माँ पिता से दूसरे बच्चे होते हैं । माँ पिता के माँ पिता और  उनके दूसरे बच्चे आदि इसी  तरह करीबी लोगों से मिलकर बनता था  परिवार । “

“माँ पहले बताओ मेरा पिता कौन है ?”

“वैन मैं तुम्हारे पिता को नहीं जानती क्योंकि तुम्हें मैंने अपनी कोख से जन्म तो ज़रूर दिया लेकिन उसके लिए मैंने राजकीय स्पर्म लैब का ही सहारा लिया ।”

“ओह माँ ! काश कि तुम्हें पता होता तो मैं भी फिल्मों की तरह अपने पिता के साथ घूमता, खेलता ।“

“और हाँ सुनो, एक मज़े की बात यह कि उस पुराने समय में डोमेस्टिक हेल्प भी साथ ही घर में रह जाती और पशुओं के लिए भी घर के पास ही एक अलग से जगह होती थी । और कई  पक्षी भी अपने घोंसले इन्सानों के  घरों में बनाए रखते थे। “

“ओह माँ , कितनी अन्हाइजेनिक होती होंगी उस समय घर की कंडीशन ।“

“वह समय आज के जैसा नहीं था वैन , इन्फैक्शन इतनी आसानी से नहीं लगता था , मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता काफी अच्छी थी।“

“माँ जब इंसान बच पाया तो पशु – पक्षी क्यों नहीं बचे ?”

“देखो वैन इंसान काफी कुछ स्वार्थी तो था ही शुरू से , जितनी सुरक्षा वह अपनी रख पाया उतनी पशु पक्षियों  की नहीं, फिर विश्व युद्धों के बाद इतने स्थान सुरक्षित  बचे ही नहीं थे कि उनमें पशु पक्षियों  को भी रखा जा सकता अतः इंसान ने खुद को बचाना  ज़रूरी समझा । “

“अब पशु पक्षी तो क्या  स्त्री – पुरुष भी साथ नहीं रहते क्यों कि कोई भी किसी को एक पल भी सहन नहीं कर पाता । कोई दूसरे की वजह से अपनी पल भर की स्वतन्त्रता भी नहीं गंवाना चाहता ।  पता है वैन इस समय आदमी कम और मेंटल हास्पिटल ज़्यादा क्यों हैं, अब क्योंकि पुराने जमाने में लोग आपस में मिलकर, हंस – बोलकर खुद को तनाव रहित कर लेते थे।“

“माँ, तो क्या लोगों के पास हंसने – बोलने का फालतू समय था ?”

“हाँ वैन बिलकुल था ।  विचित्र  विरोधाभास हुआ है । आधुनिक मशीनों के माध्यम से घंटों के काम मिनटों में हो जाते हैं लेकिन समय कम पड़ गया है आदमी के पास । “

“धरती पर अनगिनत अनाज पैदा  होते थे लोग दिन में कई कई बार खाना खाते थे अब की तरह टैबलेट्स पर नहीं जीते थे बाकायदा स्वादग्रन्थियाँ होती थीं । आदमी ने शरीर को ताकत देने के लिए गोलियों का प्रयोग आरंभ किया और धीरे – धीरे उसे इतना बढ़ाया कि स्वादग्रन्थियाँ मरती  ही चली गईं । तुमने देखा न अपनी व्यूइंग डिवाइस पर तरह – तरह के  अनाज, तरह – तरह के खाने और मिठाइयां ।“

“माँ तो क्या धरती की  उर्वरा शक्ति आउटडेटेड हो गई थी ?”

“नहीं वैन वह तो अनंत काल तक वैसी ही बनी रह सकती थी जैसी थी परंतु वह आदमी की जरूरतें तो पूरी कर सकती थी लालच नहीं, जैसा कि तुम जानते ही हो  । इसकी संपदाओं का  हमारे पूर्वजों ने इस कदर शोषण किया कि हमें इन ऐयरकंडीशंड वाहनों और घरों का बंदी बना डाला । “

“चलो वैन बाकी बातें बाद में करते हैं ,  सूरज को डूबे लगभग पंद्रह मिनिट हो गए । तुम चैक कर लो कि तुमने अपने फ्लाइंग कैप्स्यूल में डेस्टिनेशन ठीक से भरा है या नहीं , कभी कहीं भटक जाओ । “

“नहीं माँ मैंने ठीक से फीड कर लिया है ।इस तरह की गलती अब ब्रेन में फिट हो जाने वाली ब्रेनी चिप करने ही कहाँ देती है । “

साँझ होते ही आसमान में लोगों के वाहन दिखाई देने आरंभ हो गए । वो दोनों निकलने ही वाले थे कि माँ का कोई परिचित उनके सैल यानि घर के पास से गुज़रा तो उसने देखा कि उनके सेल की इंसुलेशन फिल्म कुछ हट सी गई है । आगामी खतरा देख कर उसने वैन की माँ को आगाह किया । वैन की माँ ने सरकारी कार्यालय का कोड दिमाग में सोचा और कार्यालय को सूचना दी कि उनके सैल की फिल्म ठीक करा दी जाए । कार्यालय ने उसे  आश्वस्त किया कि उनके लौटने तक कार्य हो जाएगा । इस आश्वस्ति के मिलते ही माँ बेटा दोनों ने अपने – अपने लाइफ सेवर सूट ठीक से पहनकर, अपने – अपने ऑक्सीज़न मास्क चैक किए और दोनों ने अपने – अपने फ्लाइंग कैप्सूल में बैठकर फ्रीक्वेन्सी मॉड्युलेशन  के माध्यम से   आपस में बात करते हुए एक हज़ार किलोमीटर का सफर मात्र बारह मिनिट छह सेकेंड  में तय कर लिया ।

“शेष विहार” आ चुका था । भाग्यवश ऐसिड रेन नहीं हो रही थी । दोनों ने अपने – अपने ऑक्सीज़न मास्क पहने और कैप्सूल से बाहर आ गए । काँच के अंदर करीब दस किलोमीटर का प्राचीन धरती का छोटा मॉडल  कृत्रिम रूप से तैयार किया गया था पेड़ – पौधे , घास –  फूस, फूल –  फल, पत्ती, झरने, पहाड़, नदी, हाँ नदी भी धरती के विषाक्त जल वाली नदी, चिड़िया, तितली, शेर, गाय, बैल, मैमथ, डायनासोर,  हाथी, जिराफ,अनगिनत कीड़े मकौड़े और दुनिया भर के मनुष्यों की जातियों प्रजातियों के बैटरियों और रिमोट के माध्यम से चलते – फिरते जीवंत लोग सब कुछ बिलकुल असली जैसे, नयनाभिराम दृश्य ।

“इतनी सुंदर थी धरती ! हमारे मूर्ख पूर्वजों ने क्यों कर दिया इसका सर्वनाश ? क्या छोड़ा हमारे लिए ?” वैन अपनी माँ से यही पूछ रहा था ।

उन दोनों माँ बेटे की तरह वहाँ और भी बहुत से लोग थे । परंतु अब पिछली सदियों की तरह कहीं भी भीड़ नहीं जुटती । बच्चे लैब्स में पैदा होते हैं कुछ ही लोग हैं जो अपने लिए ऑर्डर करके बच्चे तैयार कराते हैं क्योंकि कोई भी बच्चों को समय देना और उनकी जिम्मेदारी  लेना नहीं चाहता । हाँ बच गए देशों की सरकारें ही बस ज़रूरत भर नागरिक पैदा करवाती हैं । जिनका वे ठीक से पालन – पोषण कर पाएँ । इसीलिए शहर के शहर खाली पड़े हैं । लोगों का पालन – पोषण सरकार का जिम्मा है ।  लोग मृत्यु के भय से स्वयं को दिन भर अपने घरों में कैद करके रखते हैं । रात को ही काम किए जा सकते हैं, या घर से बाहर निकल सकते हैं । अधिकांश लोग अपने कार्य क्षेत्र और घरों तक ही सीमित हैं । जिन इमारतों को  आदमी ने कभी भूकंप रोधी समझकर खड़ा किया था धरती की सीज़्मिक प्लेट्स उनमें से हजारों लाखों का मान मर्दन कर चुकी हैं कौन जाने कब बाकियों के साथ भी यही होगा हालाकि अब उन्हें खाली ही रखा गया है प्राचीन धरोहरों की तरह । अब सैल के नाम से पुकारे जाने वाले आधुनिक निवास  तो पूरी तरह से सूरज की रौशनी से रहित हैं । दूर – दूर तक कंक्रीट पसरी हुई है । न घास बची न कोई हरियाली । ऐसिड रेन ने सब कुछ तबाह कर  दिया है ।

देशों के नाम पर संसार भर में अब दो चार ही देशों का अस्तित्व बचा है । यह कहानी भारत नाम के देश से ली है जैसा कि मैं पहले भी बता ही चुका हूँ । इस सदी में अगर कुछ सकारात्मक बचा है तो वो है युद्धों का न होना । क्योंकि अब अपने आप को धरती पर जीवित रखने के लिए जो लड़ाई मनुष्य  को प्रकृति से लड़नी पड़ती है उसके बाद आपस में लड़ने की ऊर्जा बचती  ही कहाँ है ? धरती अपने ऊपर हुए अत्याचार का प्रतिशोध लेने पर उतर आई है । वैन और उसकी माँ दोनों ने जी भर कर शेष विहार देखा । हरियाली धरती का अप्रतिम रूप उनके मन पर सारी धरती के ऐसा न होने के गहरे दुख के साथ छप सा गया । वे अपने –  अपने कैप्सूल में वापस घर के लिए चल पड़े । अभी थोड़ी ही दूर चले थे कि वैन की माँ को सांस लेने में दिक्कत होने लगी । शायद उसके कैप्सूल से ऑक्सीज़न लीक कर रही थी,सामान्यतः  जिसकी आशंका न के बराबर होती, परंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना घट रही थी   । उसने बेटे से कहा,

“वैन शायद मेरे फ्लाइंग कैप्सूल से ऑक्सीज़न लीक कर रही है, वैन सुनो । क्या करूँ ? “अब क्या हो सकता है यह तो चलते वक्त ही चैक करना चाहिए था आपको । फिर भी मैं ऑक्सीज़न सप्लायर कंपनी को सूचित कर देता हूँ ।वो स्वयं आपके कैप्स्यूल की लोकेशन देख कर आपकी मदद करेगी । तब तक आप अपना ऑक्सीज़न मास्क पहन लो ।“ बेटे ने उत्तर दिया ।

“हाँ, पहन तो लिया पर शायद यह भी ठीक से भरा नहीं है । “ माँ ने उखड़ती सांस के साथ उत्तर दिया ।

“वैन जल्दी कुछ करो मेरा दम घुट रहा है । “ माँ ने बेचैन होकर बेटे को पुकारा  ।

“माँ मैं और क्या करूँ , कर ही क्या सकता हूँ मैं ? “

“वैन हम दोनों एक ही कैप्सूल में जा सकते हैं तुम मुझे भी अपने साथ ले लो । “ माँ ने बेचैन होकर बेटे से याचना की ।

“नहीं माँ,क्या आप नहीं जानतीं कि ये कैपस्यूल  मेरे वजन के हिसाब से ही डिजाईंड है । “

“हाँ जानती हूँ पर …..” अगले शब्द उसके साँसों की तेज़ धौंकनी में खो गए।

“जानती हैं तो यह भी जानती होंगी कि कैपेसिटी  से अधिक वजन लेकर उड़ने पर इसमें भी कोई न कोई  तकनीकी खराबी आ ही सकती है । इसकी भी ऑक्सीज़न ही लीक हो गई तो मास्क कितनी देर साथ दे पाएगा माँ ? नहीं माँ मैं अपने जीवन का रिस्क नहीं ले सकता । मैंने कंपनी को सूचित कर  दिया है वो कुछ न कुछ ज़रूर करेंगे । उनकी जिम्मेदारी है माँ ।  “

“क्या तुम्हारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है वैन ?” खाँसते, दम घुटे हुए, माँ ने बेचैन  होकर बेटे से शिकायत की ।

“प्रैक्टिकल बनो माँ, मैं यहाँ खड़े रहकर भी  क्या कर सकूँगा , अपना भी जीवन खो देने के सिवा । “

“वैन मत जाओ मैं मर रही हूँ । “

मैं पिछले दस मिनिट से यहीं खड़ा हूँ आपकी वजह से , अब और नहीं रुक सकता, सॉरी माँ । “

और वो चला गया कैप्स्यूल कंपनी से अभी तक कोई मदद नहीं आ सकी है माँ की सांसें धीरे – धीरे बंद होने को हैं पीड़ा असह्य है मृत्यु उसे अपने सामने मुंह बाए खड़ी दिख रही है । अगर वो कैप्स्यूल से बाहर आती है तो धरती का वर्तमान  विषाक्त वातावरण उसे रिसती हुई ऑक्सीज़न वाले कैप्स्यूल से भी जल्दी मार डालेगा । ऊपर से ऐसिड रेन और आरंभ हो गई है । उस का मरना अब तो तय है । जिस समाज और समय में कोई अपना एक पल भी किसी को देना नहीं चाहता, कोई स्त्री किसी बच्चे को अपनी कोख से जन्म देने की कल्पना तक नहीं कर सकती उस समाज और समय में रहकर उसने एक बच्चे को , यानि वैन को अपनी कोख से जन्म दिया । यह सोचकर कि वह इस समाज के दूसरे अलग – थलग रहने वाले बच्चों से कुछ अलग बनेगा और उसमें कुछ संवेदना जीवित रहेगी और वह माँ जैसे रिश्ते की गंभीरता अधिक न सही थोड़ी सी तो ज़रूर समझेगा । लेकिन नहीं उसका  यह अनुमान  गलत निकला था । सच्चाई यही थी कि दूसरे लोगों की तरह ही उसमें भी कोई भावुकता कोई संवेदना पैदा नहीं हो सकी थी । जन्मते समय दूसरी चीजों के साथ ही चिप में प्रेम करुणा  सहानुभूति या भावना की डोज़ को भी स्थान देना आवश्यक था, जो कि संभव नहीं था  ।  माँ ने सोचा था कि कोख से पैदा करेगी तो प्रकृतिक रूप से यह सब उसमें आयेगा ही । परंतु वह गलत साबित हुई थी । वैज्ञानिकों ने तो कहा ही था कि संभावना कम थी पर हाँ हो भी सकता था कि वह  ये सब लेकर जन्मता । जिस तरह सूरज की विषाक्त किरणों ने धरती के पेड़ – पौधे, पशु – पक्षी जानवरों और असंख्य मनुष्यों को मार डाला उसी तरह उसने मानव मस्तिष्क के प्रेम करुणा वाले सभी रसायनो को सोख लिया है यह सोचते – सोचते वह अपनी अंतिम साँस ले  रही है………

मैं समय हाथ बांधे खड़ा हूँ विवश, व्यथित ………..

 

संपर्क – निर्देश निधि , द्वारा – डॉ प्रमोद निधि , विद्या भवन , कचहरी रोड , बुलंदशहर , (उप्र) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  संस्मरण

मेरे लिए प्रातःभ्रमण निरीक्षण, अपने आप से संवाद करने एवं आकलन का सर्वश्रेष्ठ समय होता है। रोजाना की कुछ किलोमीटर की ये पदयात्रा अनुभव तो समृद्ध करती ही है, मुझे शारीरिक से अधिक मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करती है।
आज टहलते हुए हिंदी माध्यम के एक विद्यालय के सामने से निकला। अंग्रेजी स्कूलों में वैन, स्कूल बस और ऑटोरिक्शा से उतरनेवाने स्टुडेंट्स की बनिस्बत घर से पैदल आनेवाले विद्यार्थियों की भीड़ फुटपाथ पर थी।
आपस में बातचीत करती 10-12 वर्ष की दो बच्चियाँ स्कूल के फाटक पर पहुँची। प्रवेश करने के पूर्व दोनों ने स्कूल की माटी मस्तक से लगाई (जैसे मंदिर में प्रवेश से पहले भक्तगण करते हैं), फिर विद्यालय में प्रवेश किया।
मन भर आया। इच्छा हुई कि दोनों बच्चियों के चरणों में माथा नवाकर कहूँ , “बेटा आज समझ में आया कि विद्यालय को ज्ञान मंदिर क्यों कहा जाता था। ..दोनों खूब पढ़ो, खूब आगे बढ़ो!’
विश्वास से कह सकता हूँ कि ये बच्चियाँ अपने जीवन में आनेवाले उतार-चढ़ावों का बेहतर सामना कर पाएँगी क्योंकि हरा वही हुआ जो माटी से जुड़ा।
आपका दिन हरा हो।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(31.10.2013)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ जीवन साथी का परिवार ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत

श्रीमती कृष्णा राजपूत

( श्रीमती कृष्णा राजपूत जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही आप साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू, माहिया, हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आपने अगले सप्ताह से प्रत्येक बुधवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य”  शीर्षक प्रकाशित करने के लिए हमारे आग्रह को स्वीकार किया है जिसके लिए हम आपके ह्रदय से आभारी हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा “जीवन साथी का परिवार”।)

 

☆ लघुकथा – जीवन साथी का परिवार☆ 

 

नयी बहू नये-नये अरमानों संग ससुराल की दहलीज पर कदम रखते ही सकुचाई, पर उसनें घूंघट को सरकने न दिया.  एकाध स्थान पर तो नेग-दस्तूर  में गिरते-गिरते बची. खिला चेहरा नये अरमान और बहू के  लिये अनजाने नये एक दूसरे  मेहमानों  का अदब-कायदा  करती जा रही थी. सासू माँ आजकल की लड़कियों का रहन-सहन तो जानती  थी.

वर्तमान के वातावरण से  परिचित थी. जैसे ही बहू ससुर साहब के पैर छूने झुकी तुरन्त सासु माँ ने कहा – “बेटी इतना अधिक परदा मत करो, मै और तुम्हारे ससुर साहब आँखों के परदे पर विश्वास करते हैं. पर्दा बड़ो के सम्मान में किया जाता है.”

इतना सुनते ही बहू के चेहरे पर पहले से और ज्यादा निखार आ गया. उस चेहरे का क्या कहना मानो चार चाँद लग गये हों.

अगाध खुशी उसके चेहरे की रौनक पर चमक बढ़ाती  ही जा रही थी.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत 

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सृष्टा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(We present an English Version of this Hindi Poetry “सृष्टा ”  as ☆ Shrishta – The Creator☆.  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ संजय दृष्टि  –  सृष्टा

“विचित्र अवस्था हो गई है मेरी। हर कोई दिगम्बर दिखाई देने लगा है। हरेक अपनी प्राकृतिक अवस्था में। किसी तरह का कोई आवरण नहीं,”, साधक ने अपनी समस्या और  जिज्ञासा एकसाथ रखीं।
…” जो आवरण तक रहा, उसे हरि कब दिखा? अब इस निरावरण प्रकृति को यों देख, जैसे माँ, संतान को देखती है। अपलक निहार ममता से। स्थूल में सूक्ष्म देखने लगा है तू।..सृष्टि से स्रष्टा होने की यात्रा पर है तू…”  कहकर गुरुजी ने शिष्य को गले से लगा लिया।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 6.40 बजे, 12 नवम्बर 2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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