हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 103 – मत बोल बच्चन : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  मिलन मोशाय : 3

☆ कथा-कहानी # 103 –  मत बोल बच्चन : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

भीषण गर्मी में तपते हुये जब “असहमत” मोहल्ले के इलेक्ट्रीशियन दयाराम के घर पहुंचा तो दयाराम के (घर का)दरवाजा अंदर से बंद था और अंदर जुगाड़ से बने जर्जर खड़खड़ाते कूलर की ठंडी ठंडी हवा का आनंद लेते हुये इलेक्ट्रीशियन घोर निद्रा में लिप्त था।दयाराम का शौक तो पहलवानी और गुंडागर्दी था पर इससे तो घर गृहस्थी चलती नहीं तो किस्मत ने उसके हाथ में रामपुरी चाकू की जगह बिजली का टेस्टर थमा दिया था।रात देर तक, बारातघर में झालर ठीक करते करते भोर में घर लौटा था और सपने में खुद अपना भी “शाल श्रीफल” से होता सम्मान देख रहा था,तभी जर्जर और बड़ी मुश्किल से ईंटों के दम पर टिके कूलर के गिरने की आवाज ने उसे सपनीले शॉल- श्रीफल से ज़ुदा कर दिया।बाहर असहमत की कर्कश आवाज और दरवाजे पर जोरदार धक्कों ने न केवल उसकी नींद तोड़ दी बल्कि उसका कूलर भी धराशायी कर दिया।प्याज,टमाटर और इलेक्ट्रीशियन के भाव सीजन में उछाल मारते हैं और नखरेबाजी में ये दूल्हे के दोस्तों को भी मात देते हैं।

इस सुनामी से दयाराम पूरी तरह से निर्दयता से भर उठा और कमरे के अंदर के 30 डिग्री से बाहर खुले वातावरण में आने पर 45 डिग्री ने, उसका सामना असहमत से करा दिया जो बाहर तप तप के वैसे ही और गुस्से से भी लाल था।फिर हुई ज़ुबानी जंग इस तरह रही।

दयाराम : अबे दरवाजा क्यों तोड़ रहा था,घंटी नहीं दिखी तुझे।

असहमत :अबे,काम करने के सीजन में गधे बेचकर सोया पड़ा है और ऊपर से मुझे ताव दिखा रहा है।

दयाराम : काम अपनी मरजी से और अपने समय से करता हूँ चिलगोजे।खुद तो कुछ काम धंधा है नहीं, साला मुझे ज्ञान बांट रहा है।चल निकल यहाँ से।

दोनों ही एक दूसरे की तबियत से ‘बेइज्जती’ खराब किये जा रहे थे और तपता मौसम,जले में नमक के छींटे मार रहा था।वाकयुद्ध जारी था और असहमत ने दयाराम पर पहले दिव्यास्त्र का प्रयोग किया।

असहमत : साले ,रुक अभी ,मैं “भाई” को लेकर आता हूँ।

दयाराम : अबे भाई की धमकी किसे देता है,लेकर आ,दोनों की एक साथ ठुकाई करता हूँ।

असहमत : ठीक है, तो भागना नहीं, अभी भाई को लेकर आता हूँ।घर के बाहर ही रहना नहीं तो घर में घुसकर मारूंगा।

दयाराम : अबे बेवकूफ समझा है क्या, इतनी गर्मी में, मैं बाहर खड़ा रहूं और तेरा इंतजार करता रहूँ।तू लेकर आ अपने भाई को और  दरवाजा तोड़ने के बजाय बाहर लगी घंटी बजाना। फिर दोनों का सरकिट फ्यूज़ करता हूँ।

इस वाकयुद्ध को 1-1 पर ड्रा छोड़कर जब असहमत आगे बढ़ा तो उसकी रास्ते में ही अपने तथाकथित “भाई” से मुलाकात हो गई और पूरा किस्सा सुनकर “भाई” भूल गया कि वो किसी प्राइवेट बैंक का करारनामे पर नियुक्त वसूली (भाई) अधिकारी है।ये रेप्यूटेशन का सवाल था तो दोनों दयाराम के घर पर पहुंचे और जैसे ही असहमत ने घंटी बजाई,बिजली के झटके ने उसे पीछे हटा दिया।वसूली भाई की तरफ देखकर,असहमत ने कहा :इसकी घंटी में करेंट है.पहले कटआउट निकालता हूँ, फिर बजाता हूँ।

भाई: अबे, जब लाईट ही नहीं रहेगी तो घंटी कहाँ से बजेगी,दयाराम ने बदमाशी कर दी है।चल दूसरे इलेक्ट्रीशियन के पास चलते हैं।

भीतर दयाराम को सुनाते हुये ,असहमत ने कहा ;अपने आप को साला,थामस अल्वा एडीसन समझता है,तीन टुकड़ों में बांट के अलग अलग फेंक दूंगा।एक तरफ थामस जायेगा तो दूसरी तरफ अल्वा और तीसरी दिशा में एडीसन।

और अपने जुगाड़ से बने कूलर को ठीक करते हुए इलेक्ट्रीशियन दयाराम ये नहीं समझ पा रहा था कि जाते जाते आखिर क्यों, असहमत उसे ये “थामस अल्वा एडीसन” नाम की अनजान डिग्री से सम्मानित कर गया।

— समाप्त —

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 192 – सुलोचना ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “सुलोचना ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 192 ☆

🌻 लघुकथा – सुलोचना 🌻

यही नाम था उस मासूम सी बिटिया का। माता-पिता की इकलौती संतान और सभी की दुलारी। मोहल्ले पड़ोस में सभी की आँखों का तारा। सुंदर नाक नक्श, रंग साँवला, पर नयन बला की सुन्दरता लिए पानीदार जैसे अभी बोल पड़े।

सुलोचना से सल्लों बनते देर नहीं लगी। समय और आज की दौर में छोटे-छोटे नामों का चलन।

बस सल्लों अपने आप में मस्त। सल्लों की बातें और समझदारी सभी को अच्छी लगती और सब उसे चाहते इसी बात को ध्यान में रखते हुए सुलोचना को चने की दाल बीनते – बीनते नैनों से अश्रुं धार बहने लगी ।

तभी सासु माँ ने जोर से आवाज लगाई। “अरी ओ! काली चना कुछ समझ में आया कि नहीं आज ही काम खत्म करना है। परंतु तुम्हारे भेजे में कुछ समाता ही नहीं है। काली चना जो ठहरी।”

इससे पहले की दर्द की दरिया बहे। ससुर जी पेपर के पन्ने पलटते कहने लगे… “अरे वो भाग्यवान! आओ तुम्हें बताता हूँ। काली चने के फायदे।”

” आज पेपर पर वही छपा है। तुम अनपढ़ को आज तक समझ नहीं आया कि गँवार फली को चाहे कितना भी विद्ववता से कोई बुलाए परंतु उसे गँवार फली ही कहा जाता है।

ज्ञानकली नहीं!!”

अपनी बाजी पलटते देखा सासु माँ ने समझ लिया कि अब यहाँ से खिसकने में ही भलाई है।

क्योंकि नाम उसका ज्ञान कली।

और वह अंगूठा छाप। सिर्फ मुँह चलाना जानती थी।

सुलोचना के आँसु कब कृतज्ञता के भाव में पिताजी के चरणों पर झुके और सुलोचना ने देखा कि दोनों हाथ पिताजी ने उसके सिर पर रखे हुए हैं। एक मजबूत सहारे की तरह। मैं हूँ न।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 241 ☆ कहानी – ‘जोकर’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी कहानी – जोकर। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 241 ☆

☆ कहानी – जोकर

धनीराम डा. सेन के अस्पताल की नौकरी पर कब लगे यह शायद ही किसी को याद हो। दस पन्द्रह साल तो हो गये होंगे। तब धनीराम खूब चुस्त-दुरुस्त थे। लंबा कद और मज़बूत देह। सब्ज़ रंग की यूनिफॉर्म और बैरेट कैप पहने सारे अस्पताल में उड़ते रहते थे। धीरे-धीरे वे धनीराम से ‘धनीराम दादा’ और फिर सिर्फ ‘दद्दू’ हो गये।

दद्दू के अपने परिवार का अता-पता नहीं था। पूछने पर ज़्यादा बोलते भी नहीं थे। लोग बताते थे कि उनके दो बेटे शहर में ही हैं और उनकी पत्नी बड़े बेटे के पास रहती है। लेकिन दद्दू अस्पताल से ज़्यादा देर के लिए कहीं नहीं जाते। जाते हैं तो घंटे दो-घंटे में ही फिर प्रकट हो जाते हैं। थोड़ी ही देर बाद फिर ‘बैतलवा डार पर’। उनसे  मिलने कुछ बच्चे ज़रूर कभी-कभी अस्पताल में आ जाते थे जो लोगों के अनुसार उनके नाती- पोते थे, लेकिन वे उन्हें ज़्यादा देर टिकने नहीं देते थे। सामने टपरे से उनके लिए बिस्कुट टॉफी खरीद देते और जल्दी चलता कर देते।

दद्दू अस्पताल के गेट के पास बने अस्थायी, शेडनुमा कमरे में रहते थे। खाना खुद ही बनाते थे, लेकिन सिर्फ दोपहर को। रात को ड्यूटी के बाद इतना थक जाते कि खाना बनाना मुसीबत बन जाता। अस्पताल के लोग कहते हैं कि यह कभी पता नहीं चलता कि दद्दू कब सोते हैं और कब उठते हैं। ज़्यादातर वक्त वे चलते-फिरते ही दिखते हैं। बड़े सबेरे नहा-धो कर वे अपनी वर्दी कस लेते हैं और फिर रात तक वह वर्दी चढ़ी ही रहती है। अस्पताल के कर्मचारी उनसे खौफ खाते हैं क्योंकि वे घोर ईमानदार और अनुशासनप्रिय हैं, और अस्पताल की व्यवस्था में कोताही पर किसी को नहीं बख्शते। डा. सेन को उनकी वफादारी और उपयोगिता का भान है, इसलिए उनकी कभी-कभी की ज़्यादतियों को अनदेखा कर देते हैं।

दद्दू बड़े ख़ुद्दार आदमी हैं। न किसी की खुशामद करते हैं, न किसी की सेवा लेते हैं। अस्पताल के कर्मचारी उन्हें खुश करने के लिए चाय का आमंत्रण देते रहते हैं, लेकिन दद्दू हाथ हिला कर आगे बढ़ जाते हैं। दूसरों पर खर्च करने के मामले में भी वे भारी कृपण हैं। कहते हैं, ‘हम गरीब आदमी हैं। किसी की सेवा करने की हमारी हैसियत नहीं है। अपना खर्च पूरा होता रहे वही बहुत है।’

उम्र गुज़रने के साथ साथ दद्दू की चुस्ती और फुर्ती में भी फर्क पड़ने लगा था। उनके बाल खिचड़ी हो गये थे और आँखों के नीचे और बगल में झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। चलने में घुटने झुकने लगे थे। वर्दी में भी पहले जैसी कड़क नहीं रह गयी थी। अब वे चलते कम और बैठते ज़्यादा थे। फिर भी वे शारीरिक अशक्तता को आत्मा के बल से धकेलते रहते थे।

लेकिन दद्दू की इस ठीक-ठाक चलती  ज़िन्दगी में ऊपर वाले ने अचानक फच्चर फँसा दिया। उस दिन दद्दू रोज़ की तरह आने जाने वालों को नियंत्रित करने की गरज़ से अस्पताल के प्रवेश-द्वार पर जमे थे कि अचानक उनका सिर पीछे को ढुलक गया और शरीर एक तरफ झूल गया। आंँखों की पुतलियाँ ऊपर को चढ़ गयीं और मुँह की लार बह कर पहले ठुड्डी और फिर गले तक पहुँची। लोगों ने दौड़ कर उन्हें सँभाला और उठाकर भीतर ले गये। सौभाग्य से वे अस्पताल में थे इसलिए तुरन्त उपचार हुआ। थोड़ी देर में वे होश में आ गये, लेकिन कमज़ोरी काफी मालूम हो रही थी। डाक्टरों ने जाँच-पड़ताल करके दिल में गड़बड़ी बतायी। बताया कि रक्त-संचालन ठीक से नहीं होता। दद्दू के लिए कुछ गोलियाँ मुकर्रर कर दीं जिन्हें नियमित लेना ज़रूरी होगा। साफ हिदायत मिली कि दवा लेने में कोताही की तो किसी दिन फिर उलट जाओगे।

दद्दू एक दिन के आराम के बाद ड्यूटी पर लौट आये, लेकिन चेहरा विवर्ण था और आत्मविश्वास हिल गया था। बैठे-बैठे ही कमज़ोर आवाज़ में निर्देश देते रहे। दो-तीन दिन में फिर सभी ज़िम्मेदारियाँ सँभालने लगे, लेकिन चेहरे से लगता था कुछ चिन्ता में रहते हैं। बेटों को पता चला तो आये और हाल-चाल पूछ कर चले गये। जब अस्पताल में ही हैं तो घरवालों को चिन्ता करने की क्या ज़रूरत? मुफ्त में सारी मदद उपलब्ध है। ऐसा भाग्य वालों को ही नसीब होता है।

इस झटके के बाद दद्दू कुछ ढीले-ढाले हो गये हैं। पहले वाली कड़क और चुस्ती नहीं रही। अब लोगों पर चिल्लाते-चीखते भी नहीं थे। लेकिन ड्यूटी में कोताही नहीं करते थे। शायद कहीं डर भी था कि ड्यूटी में कोई छूट माँगने पर अनुपयोगी या अनफिट न मान लिये जाएँ।

लेकिन दद्दू दवा खाने के मामले में चूक करते थे। कई बार ड्यूटी में इतने मसरूफ़ रहते कि दवा का ध्यान ही न रहता। कोई याद दिलाने वाला भी नहीं था। रात को थके हुए लौटते और खाना खा कर सो जाते। बाद में याद आता कि दवा नहीं खायी। दद्दू इतने पढ़े-लिखे भी नहीं थे कि दवा न लेने से होने वाले परिणामों को ठीक से समझ सकें।

इसी चक्कर में दद्दू कुछ दिन बाद फिर पहले जैसा झटका खा गये। इस बार तीन-चार दिन बिस्तर पर ही रहे। ठीक होने में भी हफ्ता भर लग गया, फिर भी कमज़ोरी कई दिन तक बनी रही। इस बार दद्दू की जि़न्दगी की रफ्तार धीमी पड़ गयी। ज़्यादा चलना-फिरना या ज़्यादा देर तक खड़े रहना मुश्किल हो गया। बीच-बीच में मतिभ्रम हो जाता। याददाश्त भी धोखा देने लगी। मुख़्तसर यह कि अनेक प्रेतों ने दद्दू को घेरना शुरू कर दिया। अब उन्हें हर काम में सहायक की ज़रूरत पड़ने लगी।

ऊपर के स्तर पर यह महसूस किया जाने लगा कि दद्दू अब ज़्यादा काम के नहीं रहे। किसी दिन अस्पताल में ही कुछ हो गया तो क्या होगा? उनके बेटों का क्या ठिकाना, अपनी ज़िम्मेदारी निभायें, न निभायें। तय हुआ कि उनसे कह दिया जाए कि अपने बेटों के पास चले जाएँ और वहीं आराम करें। समझें कि अब उनकी हालत काम करने की नहीं रही।

दद्दू तक बात पहुँची उनका चेहरा दयनीय हो गया। बोले, ‘बेटों के पास कहाँ जाएँगे? बेटों के पास रह सकते तो नौकरी में क्यों चिपके रहते?’

लेकिन ऊपर से पक्का आदेश प्रसारित हो चुका था। उनका हिसाब-किताब करके अनुकम्पा-स्वरूप एक माह की पगार अतिरिक्त दे दी गयी। अब दद्दू अस्पताल में फालतू हो चुके थे। अब कोई उनमें पहले जैसी दिलचस्पी नहीं लेता था।

बार-बार मिलते इशारों को समझ कर एक दिन दद्दू ने अपना सामान समेट कर अस्पताल छोड़ दिया। लेकिन तीन दिन बाद ही वे अस्पताल के गेट के पास बैठे दिखे। वे हर परिचित को अपनी कैफियत दे रहे थे— ‘बेटों के साथ गुज़र कैसे हो भाई? दोनों बेटे समझते हैं कि मेरे पास बहुत पैसा है। किसी न किसी बहाने दिन भर फरमाइश होती रहती है। बच्चों को सनका देते हैं कि मुझ से पैसा माँगें। आराम से बैठना मुश्किल हो जाता है। छोटा बेटा रोज़ रात को दारू पी कर आता है। खूब हंगामा मचाता है। मैं समझाता हूँ तो मुझे भी उल्टी-सीधी सुनाता है। ऐसे लोगों के साथ रहकर मैं क्या करूँगा? मैं हमेशा भले आदमियों के साथ रहा हूँ।’

दिन भर दद्दू  अस्पताल में इधर-उधर घूमते और पुराने साथियों से गप लगाते रहे। रात को ग़ायब हो गये। दूसरे दिन सुबह फिर हाज़िर हो गये। अस्त-व्यस्त कपड़े, बढ़ी दाढ़ी और उलझे बाल। दद्दू अब अस्पताल के हर काम के लिए प्रस्तुत दिखते हैं। कोई मदद के लिए किसी को आवाज़ लगाता और पुकारे गये व्यक्ति से पहले दद्दू लपक कर पहुँच जाते। गाड़ियाँ अस्पताल का सामान लेकर आतीं तो टेलबोर्ड खुलते ही सामान उतारने के लिए दद्दू पहुँच जाते। भारी सामान को लेकर अकेले ही लड़खड़ाते हुए चल देते। दरअसल वे साबित करना चाहते थे कि वे अब भी उपयोगी और फिट हैं।

अस्पताल में अब दद्दू नये लड़कों के सामने पंजा बढ़ा देते, कहते, ‘आजा, पंजा लड़ा ले।’ सामने वाला उनके काँपते हुए पंजे में अपना पंजा फँसाता, फिर थोड़ी देर ज़ोर लगाने के बाद खुद ही अपना पंजा झुका देता, कहता, ‘दद्दू, आप में अभी बहुत दम है। आप से कौन जीतेगा?’ दद्दू खुश हो जाते। वे खुद को और दूसरों को आश्वस्त करना चाहते थे कि उन में अब भी कोई कमी नहीं है।

दद्दू सबेरे अस्पताल आते तो वहाँ लोगों को दिखा कर चारदीवारी के किनारे किनारे दौड़ कर दो-तीन चक्कर लगाते, फिर स्कूली बच्चों की तरह उछल उछल कर पी.टी. करने में लग जाते। लोग उनके कौतुक देख सहानुभूति और दया से हँसते और उनकी हालत देखकर उन्हें दस बीस रुपये पकड़ा देते। कभी बड़े खुद्दार रहे दद्दू अब पैसे ले लेते थे।

एक दिन बड़े डाक्टर साहब की गाड़ी गेट के पास रुकी तो दद्दू ने दौड़कर उनके सामने सलाम ठोका। कई दिन की बढ़ी दाढ़ी और माथे पर रखे खिचड़ी बालों की वजह से वे खासे जोकर दिखते थे। तन कर खड़े होकर बोले, ‘सर, मैं अब भी बिल्कुल फिट हूँ। मुझे ड्यूटी पर बहाल किया जाए।’

डाक्टर साहब ने उनकी तरफ देख कर कहा, ‘अब आप ड्यूटी की चिन्ता छोड़ कर आराम कीजिए। आपको आराम की ज़रूरत है।’ फिर उन्होंने जेब से दो सौ रुपये निकाल कर दद्दू की तरफ बढ़ा दिये। कहा, ‘ये रख लीजिए और घर जाइए।’

उसी रात आदेश प्रसारित हो गया कि दद्दू को गेट के भीतर प्रवेश न करने दिया जाए। उस दिन के बाद दद्दू दो-तीन दिन गेट के बाहर मंडराते दिखे, फिर हमेशा के लिए ग़ायब हो गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – शाप – मुक्त – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – शाप – मुक्त ।) 

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – शाप – मुक्त – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

उसके तीनों बेटे एक ही रास्ते के मुसाफिर निकले। शहर की मुसाफिरी की बुनियाद बड़े बेटे ने रखी थी। पिता का तो शहर से दूर का भी नाता नहीं था। कमाना, घर चलाना सब उसके अपने गाँव से होता था। इसके विपरीत बड़ा बेटा केवल शहर की बात करता था। पिता कहाँ जानता बड़े बेटे के भीतर कैसा सपना पल रहा है।

बेटे ने एक दिन पिता से कहा वह एक काम से शहर जा रहा है। पर जाने के बाद तो वह लौटा ही नहीं। पिता उसे ढूँढने गया। संयोग से बेटा उसे दिख गया। बेटा टोकरी में बाज़ार के लिए सिर पर सब्जियाँ ढोता था। पतलून और कमीज़ फटी थी। वह नंगे पाँव था। दाढ़ी बढ़ी हुई थी। चेहरे से वह क्रूर लगता था। पिता को आश्चर्य ही तो होता। गाँव में यही बेटा खाली पाँव कभी चलता नहीं था। कपड़ों का वह पूरा ध्यान रखता था।

पिता ने उसे न टोक कर सारा दिन उसका अध्ययन किया। बेटा शाम को एक गली में गया। औरतें उस गली में ग्राहकों के लिए मंडरा रही थीं। औरतों के मतवाले उनसे बातें करने के बाद उनके साथ घर के भीतर चले जाते थे। बेटा इन्हीं औरतों में से किसी एक के यहाँ रहता था। बेटा अब न दिखने से पिता अपने दुख को अपने सीने में किसी तरह दबाये लौट गया।

थोड़े दिनों बाद बड़ा बेटा शहर में मारा गया। पिता को पता लगा तो शव को घर लाया। अरथी उठने के दूसरे दिन मझला बेटा यह कह कर शहर गया वह पता लगाने जा रहा है उसके भाई के साथ क्या हुआ था। वह गया और लौटा ही नहीं। पिता पहले बेटे की तरह उसे भी ढूँढने शहर गया। बहुत भटकने के बाद बेटा दिखाई दिया। पिता ने उसकी गतिविधियों का पता लगा कर देख लिया। वह भी बड़े भाई की तरह सिर पर टोकरी ढोता था। बेटा दिन भर टोकरी ढोने के बाद एक गली के किनारे भिखारियों में जा मिला। इस बार भी वही हुआ, पिता ने उससे मिलना चाहा तो वह दिखा ही नहीं।

कुछ दिनों बाद यह बेटा भी शहर में मारा गया। सूचना पाने पर पिता ने शव लाने की बात बिल्कुल नहीं की। पिता शव को न लाता तो छोटा बेटा स्वयं शहर चला गया। अब तो पिता को उसके लिए भी शहर जाना पड़ा। बेटा उसे मिला। वह भीख मांगता था। उसे दिखाई नहीं देता था। उसने पिता को बताया उसकी आँखों में तेजाब फेंका गया था। उसने पिता से कहा शहर में तो वह ठीक था। बस आँखें न जातीं। पिता उसे हाथों में कस कर रोने लगा। बेटा भी अपनी सूनी आँखों से रोया।

बेटा अपने पिता के साथ गाँव लौटने के लिए तैयार नहीं हुआ। शोकातुर पिता ने अपने आप से कहा “शायद मेरे परिवार पर शहर का कोई शाप होगा। उस शाप को इसी रूप में उतरना था !”

***

© श्री रामदेव धुरंधर

11 – 05 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 140 ☆ लघुकथा – चटकन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा चटकन। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 140 ☆

☆ लघुकथा – चटकन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

सुबह उठकर रोज की तरह अखबार उठाया और छत  पर चली गई। उसे अच्छी लगती है छत पर लगे पेड़-पौधों से मुलाकात। हवा में लहराती डालियां मानों गलबहियां करने को आतुर हैं। उसकी नजर पड़ी –‘अरे ! खिल गया यह फूल ,कितना सुंदर है’, धीरे से सहला दिया। फूल मानों बालों में टँक गया। वह गमलों में पड़ी सूखी पत्तियां निकालने लगी, खर-पतवार भी निकाल फेंके। अब इनको पूरा पोषण मिलेगा। जीवन में खर -पतवार नजर क्यों नहीं आते? मुरझाते पौधों को पानी से सींच वह मानों खुद ही हरी – भरी हो गई।

पेड़ – पौधों को खाद – पानी देते कितना समय निकल गया, पता ही नहीं चला। नाश्ता बनाना है, वह नीचे आ गई। पति सुबह जाकर रात में ही घर आते हैं, कहते हैं बहुत काम रहता है उन्हें। घर में वह सारा दिन अकेली। अपने कमरे में आकर चादर की सलवटें ठीक कीं, तकिए जगह पर रखे ,हाँ अब ठीक। बच्चों के कमरे पर नजर डाली, सब साफ ही है, पहले कितना बिखरा रहता था घर, अब तो — उसने गहरी साँस ली। डाईनिंग टेबिल से चाय के कप , गिलास , सॉस की बोतल हटाकर जगह पर रखी। फूलदान में रखे फूलों का पानी बदला। पानी बदलने से  फूलों में जैसे जान आ गई हो। कितने दिनों से घर के बाहर निकली ही नहीं , रोज वही काम , वही रूटीन । ड्राइंगरूम में रखे काँच के फूलदान को बहुत संभालकर उठाया।‘ओह! कितना नाजुक है,’ धीरे से रख रही थी फिर भी अनायास जोर से रखा गया, ‘उफ! चटक गया।‘ जीवन में रिश्ते भी तो ना जाने कब, कैसे बिखर जाते हैं –?

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #228 – लघुकथा – ☆ वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा वातानुकूलित संवेदना” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #228 ☆

☆ वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती छिटपुट धूप-छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये एक रिक्शा चालक पर अचानक उनकी नज़र पड़ी।

लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर साहित्यजीवी बुद्धिप्रकाश जी उसके पास पहुँच कर देखते हैं –

वह व्यक्ति खर्राटे भरते हुए इत्मीनान से गहरी नींद सोया है।

समस्त सुख-संसाधनों के बीच सर्व सुविधाभोगी,अनिद्रा रोग से ग्रस्त बुद्धिप्रकाश जी को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने गहरे से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से स्वाभाविक ही ईर्ष्या होने लगी।

इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे  पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वे वापस अपनी कार में सवार हो गए और घर पहुँचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में जुट गए।

‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने  की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरी करते हुए बुद्धिप्रकाश जी आत्ममुग्ध हो एक अलग ही स्फूर्ति व उल्लास से भर गए।

रिक्शाचालक पर सृजित अपनी इस दयनीय सशक्त कहानी को दो-तीन बार पढ़ने के बाद उनके मन-मस्तिष्क पर इतना असर हो रहा है कि, खुशी में अनायास ही इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी जोरों से मन में हिलोरें लेने लगी।

तो ताजे-ताजे मिले इस संवेदना परक विषय पर कविता लिखना बुद्धिप्रकाश जी ने इसलिए भी जरूरी समझा कि, हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से पात्र रिक्शेवाले के ज़रिए उन्हें किसी सम्मानित मुकाम तक पहुँचा कर कल को प्रतिष्ठित कर दे।

यश-पद-प्रतिष्ठा और सम्मान के सम्मोहन में बुद्धिप्रकाश जी अपने शीत-कक्ष में अब कविता की उलझन में व्यस्त हैं।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 102 – मत बोल बच्चन :1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  मत बोल बच्चन :1

☆ कथा-कहानी # 102 – मत बोल बच्चन :1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

ये शहर छोटी छोटी बातों पर होने वाले झगड़ों के नाम पर पहचाना जाता है. कभी कभी तो झगड़ालू दल बाद में सोचता रहता कि किस बात पर या फिर बिना किसी बात के ही झगड़ गये।ये द्वंद्व सिर्फ मौखिक ही हुआ करता, जिन्हें भीड़ में घुसकर तमाशा देखने के शौकीन “जुबानी जमाखर्च” कहते और आगे बढ़ जाते।इस शहर ने कई स्टंट फिल्मों के डॉयलाग राइटर भी पैदा किये थे जो फाईट मास्टर तो नहीं थे पर “दुश्मन के खून से घर क्या गली रंगने” जैसे धांसू डॉयलॉग लिखकर लाईमलाईट में आये थे।प्राय: ऐसे जन्मजात और खानदानी प्रतिभा साथ संपन्न कलाकारों के घर पर, गली के नुक्कड़ पर और दिमाग में भी भूसे की जगह “श्याम से कहना कि छेनू आया था, अगली बार मेरे किसी लड़के को हाथ भी लगाया तो पूरा मोहल्ला राख कर दूंगा” ये सुपरहिट डॉयलॉग हमेशा घूमता रहता था। ऐसे मोहल्लों का हर प्रतिभाशाली युवा, जवान होने के दौरान ऐसे बहुत से डॉयलॉग बोलने का रियाज कर कर के कर कर के ऐसे जवां होता रहता। इनके अग्रज याने अर्सा पहले इसी  जालिम जवानी के दौर से गुजर चुके सूरमाओं के दो ही शौक हुआ करते थे पहला तमाशबीन बनकर हर ऐसे झगडों का बिना कोई जोखिम उठाए मजे लेना और फिर अपने दौर के और खुद की बहादुरी के मिर्च मसाले से भरे अतिशयोक्ति पूर्ण किस्से सुनाना। इसके अलावा इन्हें खुद को “भाई” के नाम से पुकारा जाना बेहद पसंद होता। ये “भाई” फेंकने में उस्ताद तो होते ही थे पर मौके की नज़ाकत को पहचान कर समझदार बनना भी बखूबी जानते थे।

किस्मत से “असहमत” की भी एक ऐसे ही भाई से दोस्ताना संबंध थे यद्यपि “भाई” उसे अपना नालायक शागिर्द मानते थे।

तो जिस दिन की यह घटना है,उस दिन गर्मी अपने शबाब पर थी,सूरज कहर ढा रहा था और शहर का तापमान 45 डिग्री के पार जा रहा था, असहमत के कूलर, एयर कंडीशनर विहीन घर के हुक्मरान बनाया सीलिंग फेन याने पंखों ने भी बगावत की घोषणा करते हुये अपनी समझ से ‘चकाजाम’ कर दिया याने अपनी सहचरी ब्लेड्स (पंखुड़ियों) को थम जाने का फरमान जारी कर दिया। घर की प्रजा के लिये यह मामला नाजुक और सहनशक्ति से बाहर हो गया तो असहमत को बड़ी निर्ममतापूर्वक संबोधित करते हुये तुरंत इलेक्ट्रीशियन के पास दौड़ाया गया ताकि वो आकर इस बेचैनी से निज़ात दिलाये और घर को हवादार बनाए।

क्रमशः… याने झगड़े का समापन अगले अंक में 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 22 – मुक्ति मार्ग ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मुक्ति मार्ग।)

☆ लघुकथा – मुक्ति मार्ग श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

भूखे पेट भजन न होय गोपाला। भूख तो सबको लगती है भगवान के दर्शन हो जाएं तो मन तृप्त होता है लेकिन शरीर के लिए तो भोजन आवश्यक है ।

देखो बहू मैं साड़ी देख रही थी तो तुम्हें और जीतू को ऐतराज हो रहा था मैं तुम्हारे लिए ही साड़ी बनाना चाह रही थी।  डिजाइन को अपने दिमाग में बिठा रही थी देखो चूड़ी बिंदी तो सब जगह मिलती है, लेकिन तुम्हारा मन ललचाया ।

कोई बात नहीं तुम देखो?

तब तक मैं सभी के खाने की व्यवस्था करती हूं। उस सामने वाले रेस्टोरेंट में आ जाना।

तभी मां एवं जीतू के पास एक बुजुर्ग आती है और कहती है बहन जी काशी में आई है कुछ दान पुण्य तो कर लीजिए, मुक्ति मार्ग दान के सहारे ही मिलेगा।

हां अब बस तुम ही तो बाकी रह गई हो उपदेश देने को उधर मंदिर में पुजारी, टीवी खोल कर बैठो तो साधु से लेकर युवा पीढ़ी सभी लोग फेसबुक, व्हाट्सएप जाने कहां से इतना सभी के पास ज्ञान आता है ?

बेटा हम तुम भोजन करें वही हमारे लिए मुक्ति मार्ग है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 191 – बोझिल पहचान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “बोझिल पहचान”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 191 ☆

🌻 लघुकथा – बोझिल पहचान 🌻

किसी भी व्यक्ति की सुंदरता, उसका व्यक्तित्व, मीठी वाणी, निश्चल व्यवहार, और सादगी से सँवरता हुआ परिधान। हजारों की भीड़ में उसे अलग दिखा सकता है। उसे अपनी पहचान बनाने की जरूरत नहीं है। ज्ञानी के ज्ञान का परचम धीरे-धीरे ही सही बढ़ता और महकता जरूर है।

जीवन का सरल होना आज के समय पर ज्यादा कठिन है क्योंकि सभी नर-नारी अपने संपूर्ण जीवन को बोझिल बन चुके हैं। जरूरत से ज्यादा उदासीनता, ऊपरी दिखावा, मेल मिलाप की कमी और अपने निष्ठुर व्यवहार को यहाँ-वहाँ प्रदर्शित कर अपनी पहचान को छुपा चुके हैं।

वह शायद एक तराशी हुई सुंदर आकर्षक व्यक्तित्व की धनी लगती थी। जिसे कुछ भी कह सकते थे। जब भी वह बाहर निकलती। अपनी आकर्षक मुस्कान बड़ी-बड़ी आँखे केश के सुंदर लट बिखरे हुए, चेहरे पर बनावटी सुंदर मुस्कान, कानों के सहारे मोती माला में झूलते चश्के अंदर से निहारते नयन और उसकी बातों से सभी को लगता शायद यह एक दमदार और सच्ची महिला है।

कई महिलाएं उसके झांसे में आ जाती। परंतु आज अचानक एक भोली- भाली महिला उसकी बातों में आकर उस देवी जी के घर पहुंच गई।

अनजाने लोग, अचानक का समय उसने शायद उसकी कल्पना नहीं की थी। घर के अंदर से खिड़की से झाँक कर उसे लगा शायद वह महिला को कुछ पता नहीं चलेगा।

जैसे ही माननीया ने दरवाजा खोला बिना लेंस के टटोलती हाथों में कापी पेन, सर पर छोटे-छोटे घास फूल जैसे बाल, हाथ पैर झुलसे और परिधान से जाने किस समय से उसने स्नान नहीं किया था।

बस देखते ही बरस पड़ी आपको बिना बताए नहीं आना चाहिए।

अतिथि महिला ने तत्काल कहा… तभी तो आपकी पहचान हो पाई है। आप कितना अपनी पहचान बोझिल बनाकर चल रही हैं।

स्वयं भी उसमें उलझी हुई हैं और दूसरों को भी उलझा कर रखी हैं। आप सादगी और असली पहचान में रहती तो शायद मेरी सद्भावना आपके लिए और होती, परंतु जो स्वयं नकली और नकली मुखौटा लगाकर दुनिया को बेवकूफ बना रही है, वह क्या किसी को समझ पाएगी।

कहती हुई वह महिला बाहर निकलने लगी। महोदया को हजारों रुपए के लटकते नकली केश, इधर-उधर बिखरे मेकअप का सामान आज बिना माल के नजर आने लगा।

जो एक गरीब महिला उसे दो टके का जवाब देकर चली गई। अपनी पहचान के लिए वह आईने के सामने खड़ी थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “लीडरी” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा –लीडरी“.)

लघुकथा – लीडरी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

दृश्य वही था। लोमड़ी नदी में पानी पी रही थी। उसके ऊपर की ओर भेड़िया था।

भेड़िया गुर्राया-गंदा पानी इधर भेज रही है–ऐं। फिर तेरा झूठा पानी भी पीना पड़ेगा-ऐं।

‘गंदा और झूठा तो आप कर रहे हैं महाराज। पानी का बहाव तो उधर से इधर की ओर है।’

भेड़िया गुर्र्रा कर बोला-चोप्प।

‘चोप्प क्यों महाराज। इसमें मेरी गलती कहां है महाराज।’

‘चोप्प, मुंह लडाती है, चोटटी कहीं की।’

अब लोमड़ी ने अपना रूप दिखाया-‘चोटटा होगा तू—तेरी सात पीढ़ी—तू मुझसे ही खेल रहा है सांप सीढ़ी।’

अब भेड़िया घबराया। यह तो तो उलटी गंगा बहने लगी थी। लोमड़ी भेड़िए को आंखें दिखाने लगी थी।  तब तक लोमड़ी ने भेड़िए को फिर हवा भरी। अपनी आंखें तरेरते हुए बोली-

‘यहां की मादा यूनियन की सेक्रेटरी हूं मैं। किसी भी मादा से अशिष्टता की सजा जानता है तू।’

‘घेराव, जुलूस, पुलिस, अदालत फिर सजा। जंगल से बहिष्कार मादाओं की भी इज्जत होती है आखिरकार।’

भेड़िया घबराया। यह कहां का बबाल उसने बना डाला। किस मुसीबत से पड़ गया है पाला। अपना गिरगिट जैसा रंग बदलकर बोला-‘माफी दें लोमड़ी बहन, अब ऐसी गलती कभी नहीं होगी।’लोमड़ी की बन आई थी इसलिए रौब झाड़ कर बोली-‘चल फूट नासपीटे—पानी पीने का मजा ही किरकिरा कर दिया।’

भेड़िए के दुम दबाकर भागने पर वह अकड़ती हुई जंगल में घुसती चली गई।

❤️

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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