डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी कहानी – ‘जोकर‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 241 ☆
☆ कहानी – जोकर ☆
धनीराम डा. सेन के अस्पताल की नौकरी पर कब लगे यह शायद ही किसी को याद हो। दस पन्द्रह साल तो हो गये होंगे। तब धनीराम खूब चुस्त-दुरुस्त थे। लंबा कद और मज़बूत देह। सब्ज़ रंग की यूनिफॉर्म और बैरेट कैप पहने सारे अस्पताल में उड़ते रहते थे। धीरे-धीरे वे धनीराम से ‘धनीराम दादा’ और फिर सिर्फ ‘दद्दू’ हो गये।
दद्दू के अपने परिवार का अता-पता नहीं था। पूछने पर ज़्यादा बोलते भी नहीं थे। लोग बताते थे कि उनके दो बेटे शहर में ही हैं और उनकी पत्नी बड़े बेटे के पास रहती है। लेकिन दद्दू अस्पताल से ज़्यादा देर के लिए कहीं नहीं जाते। जाते हैं तो घंटे दो-घंटे में ही फिर प्रकट हो जाते हैं। थोड़ी ही देर बाद फिर ‘बैतलवा डार पर’। उनसे मिलने कुछ बच्चे ज़रूर कभी-कभी अस्पताल में आ जाते थे जो लोगों के अनुसार उनके नाती- पोते थे, लेकिन वे उन्हें ज़्यादा देर टिकने नहीं देते थे। सामने टपरे से उनके लिए बिस्कुट टॉफी खरीद देते और जल्दी चलता कर देते।
दद्दू अस्पताल के गेट के पास बने अस्थायी, शेडनुमा कमरे में रहते थे। खाना खुद ही बनाते थे, लेकिन सिर्फ दोपहर को। रात को ड्यूटी के बाद इतना थक जाते कि खाना बनाना मुसीबत बन जाता। अस्पताल के लोग कहते हैं कि यह कभी पता नहीं चलता कि दद्दू कब सोते हैं और कब उठते हैं। ज़्यादातर वक्त वे चलते-फिरते ही दिखते हैं। बड़े सबेरे नहा-धो कर वे अपनी वर्दी कस लेते हैं और फिर रात तक वह वर्दी चढ़ी ही रहती है। अस्पताल के कर्मचारी उनसे खौफ खाते हैं क्योंकि वे घोर ईमानदार और अनुशासनप्रिय हैं, और अस्पताल की व्यवस्था में कोताही पर किसी को नहीं बख्शते। डा. सेन को उनकी वफादारी और उपयोगिता का भान है, इसलिए उनकी कभी-कभी की ज़्यादतियों को अनदेखा कर देते हैं।
दद्दू बड़े ख़ुद्दार आदमी हैं। न किसी की खुशामद करते हैं, न किसी की सेवा लेते हैं। अस्पताल के कर्मचारी उन्हें खुश करने के लिए चाय का आमंत्रण देते रहते हैं, लेकिन दद्दू हाथ हिला कर आगे बढ़ जाते हैं। दूसरों पर खर्च करने के मामले में भी वे भारी कृपण हैं। कहते हैं, ‘हम गरीब आदमी हैं। किसी की सेवा करने की हमारी हैसियत नहीं है। अपना खर्च पूरा होता रहे वही बहुत है।’
उम्र गुज़रने के साथ साथ दद्दू की चुस्ती और फुर्ती में भी फर्क पड़ने लगा था। उनके बाल खिचड़ी हो गये थे और आँखों के नीचे और बगल में झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। चलने में घुटने झुकने लगे थे। वर्दी में भी पहले जैसी कड़क नहीं रह गयी थी। अब वे चलते कम और बैठते ज़्यादा थे। फिर भी वे शारीरिक अशक्तता को आत्मा के बल से धकेलते रहते थे।
लेकिन दद्दू की इस ठीक-ठाक चलती ज़िन्दगी में ऊपर वाले ने अचानक फच्चर फँसा दिया। उस दिन दद्दू रोज़ की तरह आने जाने वालों को नियंत्रित करने की गरज़ से अस्पताल के प्रवेश-द्वार पर जमे थे कि अचानक उनका सिर पीछे को ढुलक गया और शरीर एक तरफ झूल गया। आंँखों की पुतलियाँ ऊपर को चढ़ गयीं और मुँह की लार बह कर पहले ठुड्डी और फिर गले तक पहुँची। लोगों ने दौड़ कर उन्हें सँभाला और उठाकर भीतर ले गये। सौभाग्य से वे अस्पताल में थे इसलिए तुरन्त उपचार हुआ। थोड़ी देर में वे होश में आ गये, लेकिन कमज़ोरी काफी मालूम हो रही थी। डाक्टरों ने जाँच-पड़ताल करके दिल में गड़बड़ी बतायी। बताया कि रक्त-संचालन ठीक से नहीं होता। दद्दू के लिए कुछ गोलियाँ मुकर्रर कर दीं जिन्हें नियमित लेना ज़रूरी होगा। साफ हिदायत मिली कि दवा लेने में कोताही की तो किसी दिन फिर उलट जाओगे।
दद्दू एक दिन के आराम के बाद ड्यूटी पर लौट आये, लेकिन चेहरा विवर्ण था और आत्मविश्वास हिल गया था। बैठे-बैठे ही कमज़ोर आवाज़ में निर्देश देते रहे। दो-तीन दिन में फिर सभी ज़िम्मेदारियाँ सँभालने लगे, लेकिन चेहरे से लगता था कुछ चिन्ता में रहते हैं। बेटों को पता चला तो आये और हाल-चाल पूछ कर चले गये। जब अस्पताल में ही हैं तो घरवालों को चिन्ता करने की क्या ज़रूरत? मुफ्त में सारी मदद उपलब्ध है। ऐसा भाग्य वालों को ही नसीब होता है।
इस झटके के बाद दद्दू कुछ ढीले-ढाले हो गये हैं। पहले वाली कड़क और चुस्ती नहीं रही। अब लोगों पर चिल्लाते-चीखते भी नहीं थे। लेकिन ड्यूटी में कोताही नहीं करते थे। शायद कहीं डर भी था कि ड्यूटी में कोई छूट माँगने पर अनुपयोगी या अनफिट न मान लिये जाएँ।
लेकिन दद्दू दवा खाने के मामले में चूक करते थे। कई बार ड्यूटी में इतने मसरूफ़ रहते कि दवा का ध्यान ही न रहता। कोई याद दिलाने वाला भी नहीं था। रात को थके हुए लौटते और खाना खा कर सो जाते। बाद में याद आता कि दवा नहीं खायी। दद्दू इतने पढ़े-लिखे भी नहीं थे कि दवा न लेने से होने वाले परिणामों को ठीक से समझ सकें।
इसी चक्कर में दद्दू कुछ दिन बाद फिर पहले जैसा झटका खा गये। इस बार तीन-चार दिन बिस्तर पर ही रहे। ठीक होने में भी हफ्ता भर लग गया, फिर भी कमज़ोरी कई दिन तक बनी रही। इस बार दद्दू की जि़न्दगी की रफ्तार धीमी पड़ गयी। ज़्यादा चलना-फिरना या ज़्यादा देर तक खड़े रहना मुश्किल हो गया। बीच-बीच में मतिभ्रम हो जाता। याददाश्त भी धोखा देने लगी। मुख़्तसर यह कि अनेक प्रेतों ने दद्दू को घेरना शुरू कर दिया। अब उन्हें हर काम में सहायक की ज़रूरत पड़ने लगी।
ऊपर के स्तर पर यह महसूस किया जाने लगा कि दद्दू अब ज़्यादा काम के नहीं रहे। किसी दिन अस्पताल में ही कुछ हो गया तो क्या होगा? उनके बेटों का क्या ठिकाना, अपनी ज़िम्मेदारी निभायें, न निभायें। तय हुआ कि उनसे कह दिया जाए कि अपने बेटों के पास चले जाएँ और वहीं आराम करें। समझें कि अब उनकी हालत काम करने की नहीं रही।
दद्दू तक बात पहुँची उनका चेहरा दयनीय हो गया। बोले, ‘बेटों के पास कहाँ जाएँगे? बेटों के पास रह सकते तो नौकरी में क्यों चिपके रहते?’
लेकिन ऊपर से पक्का आदेश प्रसारित हो चुका था। उनका हिसाब-किताब करके अनुकम्पा-स्वरूप एक माह की पगार अतिरिक्त दे दी गयी। अब दद्दू अस्पताल में फालतू हो चुके थे। अब कोई उनमें पहले जैसी दिलचस्पी नहीं लेता था।
बार-बार मिलते इशारों को समझ कर एक दिन दद्दू ने अपना सामान समेट कर अस्पताल छोड़ दिया। लेकिन तीन दिन बाद ही वे अस्पताल के गेट के पास बैठे दिखे। वे हर परिचित को अपनी कैफियत दे रहे थे— ‘बेटों के साथ गुज़र कैसे हो भाई? दोनों बेटे समझते हैं कि मेरे पास बहुत पैसा है। किसी न किसी बहाने दिन भर फरमाइश होती रहती है। बच्चों को सनका देते हैं कि मुझ से पैसा माँगें। आराम से बैठना मुश्किल हो जाता है। छोटा बेटा रोज़ रात को दारू पी कर आता है। खूब हंगामा मचाता है। मैं समझाता हूँ तो मुझे भी उल्टी-सीधी सुनाता है। ऐसे लोगों के साथ रहकर मैं क्या करूँगा? मैं हमेशा भले आदमियों के साथ रहा हूँ।’
दिन भर दद्दू अस्पताल में इधर-उधर घूमते और पुराने साथियों से गप लगाते रहे। रात को ग़ायब हो गये। दूसरे दिन सुबह फिर हाज़िर हो गये। अस्त-व्यस्त कपड़े, बढ़ी दाढ़ी और उलझे बाल। दद्दू अब अस्पताल के हर काम के लिए प्रस्तुत दिखते हैं। कोई मदद के लिए किसी को आवाज़ लगाता और पुकारे गये व्यक्ति से पहले दद्दू लपक कर पहुँच जाते। गाड़ियाँ अस्पताल का सामान लेकर आतीं तो टेलबोर्ड खुलते ही सामान उतारने के लिए दद्दू पहुँच जाते। भारी सामान को लेकर अकेले ही लड़खड़ाते हुए चल देते। दरअसल वे साबित करना चाहते थे कि वे अब भी उपयोगी और फिट हैं।
अस्पताल में अब दद्दू नये लड़कों के सामने पंजा बढ़ा देते, कहते, ‘आजा, पंजा लड़ा ले।’ सामने वाला उनके काँपते हुए पंजे में अपना पंजा फँसाता, फिर थोड़ी देर ज़ोर लगाने के बाद खुद ही अपना पंजा झुका देता, कहता, ‘दद्दू, आप में अभी बहुत दम है। आप से कौन जीतेगा?’ दद्दू खुश हो जाते। वे खुद को और दूसरों को आश्वस्त करना चाहते थे कि उन में अब भी कोई कमी नहीं है।
दद्दू सबेरे अस्पताल आते तो वहाँ लोगों को दिखा कर चारदीवारी के किनारे किनारे दौड़ कर दो-तीन चक्कर लगाते, फिर स्कूली बच्चों की तरह उछल उछल कर पी.टी. करने में लग जाते। लोग उनके कौतुक देख सहानुभूति और दया से हँसते और उनकी हालत देखकर उन्हें दस बीस रुपये पकड़ा देते। कभी बड़े खुद्दार रहे दद्दू अब पैसे ले लेते थे।
एक दिन बड़े डाक्टर साहब की गाड़ी गेट के पास रुकी तो दद्दू ने दौड़कर उनके सामने सलाम ठोका। कई दिन की बढ़ी दाढ़ी और माथे पर रखे खिचड़ी बालों की वजह से वे खासे जोकर दिखते थे। तन कर खड़े होकर बोले, ‘सर, मैं अब भी बिल्कुल फिट हूँ। मुझे ड्यूटी पर बहाल किया जाए।’
डाक्टर साहब ने उनकी तरफ देख कर कहा, ‘अब आप ड्यूटी की चिन्ता छोड़ कर आराम कीजिए। आपको आराम की ज़रूरत है।’ फिर उन्होंने जेब से दो सौ रुपये निकाल कर दद्दू की तरफ बढ़ा दिये। कहा, ‘ये रख लीजिए और घर जाइए।’
उसी रात आदेश प्रसारित हो गया कि दद्दू को गेट के भीतर प्रवेश न करने दिया जाए। उस दिन के बाद दद्दू दो-तीन दिन गेट के बाहर मंडराते दिखे, फिर हमेशा के लिए ग़ायब हो गये।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈