(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा एक सत्य घटना पर आधारित है। उनकी इस लघुकथा का शीर्षक अपने आप में एक सार्थक, सामयिक एवं सटीक शीर्षक है।)
महानगर के अस्पताल में गहमा गहमी मची थी।
एक हिन्दू परिवार तथा एक मुस्लिम परिवार में उनके पतियों की किडनी खराब हो जाने के कारण किडनी प्रत्यारोपण की सख्त आवश्यकता थी । दोनों ही परिवारों के रिश्तेदार, परिचित बारी बारी से अपना ब्लड टेस्ट करवा चुके थे, किंतु ब्लड ग्रुप मैच न होने के कारण उनमें निराशा बढ़ती जा रही थी ।
उदासी भरे वातावरण में दोनों की पत्नियां एक दूसरे से आपस में चर्चा कर रही थीं । चर्चा के दौरान उन्हें ज्ञात हुआ कि संयोगवश उनका ब्लड ग्रुप एवं किडनियां एक दूसरे के पतियों से मैच हो रही थीं । उन्होंने आपस में चर्चा की ।
अपने अपने रिश्तेदारों के आरंभिक विरोध के बावजूद अत्यंत साहसिक कदम उठाते हुए एक दूसरे के पतियों को अपनी किडनी दान कर धर्म सम्प्रदाय की कट्टरपंथी सोच पर जबरदस्त सर्जिकल स्ट्राइक कर दोनों परिवार के मध्य रक्त सम्बंध भी स्थापित कर इंसानियत की मिसाल कायम कर दी ।
(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की जीवन में मानवीय अपेक्षाओं और फर्ज़ (कर्तव्य) के मध्य हमारी व्यक्तिगत सोच पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा। )
आज संजय का इंटरव्यू था एक जानी मानी कंपनी में। एमबीए किया था उसने मार्केटिंग में। पूरा आत्मविश्वास से भरा हुआ था, बल्कि उसने तो भविष्य के सपने भी बुनने शुरू कर दिये थे, उस कंपनी को लेकर। इसी कंपनी में उसका बड़ा भाई विशाल भी वाइस प्रेसीडेंट था जो कि अपनी ईमानदारी व वफादारी के लिए मशहूर था।संजय को पूरा विश्वास था कि उसके भाई का इतना ऊँचा ओहदा है कि उसका तो तुरंत सेलेक्शन हो ही जाएगा।
बड़े रोब के साथ कंपनी में चले जा रहा था।मैनेजर की पोस्ट के लिए इंटरव्यू था 5 लोग आये हुए थे। तीन तो पहले ही रांउड में बाहर हो गए। संजय और एक दूसरा लड़का और बचे थे।संजय को पहले बुलाया गया,वह यह देख बड़ा खुश हुआ कि इस बार इन्टरव्यू लेने वालों में उसका भाई भी था। उसने यहाँ अपने भाई का अलग रूप देखा, उसके भाई ने तो सवालों की झड़ी लगा दी। वह सकपका गया। पर उसके बाहर आने के बाद भी उसको विश्वास था कि चयन तो उसी का होने वाला है। फिर दूसरे बंदे को अंदर बुलाया गया और उसको वहीं चयनित होने की सूचना दे दी गई। संजय निराश व गुस्से से भरा घर लौट आया यह सोच कर कि भाई को खूब खरीखोटी सुनायेगा।
जब शाम को भाई लौटा संजय भाई पर बरस पड़ा। विशाल छोटे भाई के गुस्से का बुरा न मान हँसते हुए उसे समझाने लगा, ” देख संजू मैं भाई होने से पहले एक इंसान व कंपनी का जिम्मेदार कर्मचारी पहले हूँ । इस नाते जो बंदा इस ओहदे के लायक था, मैनें उसे यह पद दे दिया। अगर भाई का फर्ज निभाना ही होगा तो मैं घर पर अब निभाऊंगा। देख मेरे भाई मेरी उंगली पकड़ कर आगे बढ़ना छोड़,अब तू बड़ा हो गया है तेरे ऊपर और जिम्मेदारियां भी आने वाली हैं। तू समझने की कोशिश कर मेरे भाई। मैं तैरा भला नहीं चाहूंगा तो और कौन चाहेगा। “संजय काफी देर तक तो परेशान रहा फिर एहसास होने लगा कि उसका भाई सही ही तो बोल रहा है।अब उसे अपने बलबूते पर ही आगे बढ़ना चाहिए।
डॉ कुंवर प्रेमिल जी का e-abhivyakti में स्वागत है।
(विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन)
एक माँ ने अपनी बच्ची को रंग-बिरंगी पेंसिलें लाकर दीं तो मुन्नी फौरन चित्रकारी करने बैठ गई। सर्वप्रथम उसने एक प्यारी सी नदी बनाई। नदी के दोनों किनारों पर हरे-भरे दरख्त, एक हरी-भरी पहाड़ी, पहाड़ी के पीछे से ऊगता सूरज और एक प्यारी सी हट। बच्ची खुशी से नाचने लगी थी। तालियाँ बजाते हुए उसने अपनी मम्मी को आवाज लगाई -‘ममा देखिये मैंने कितनी प्यारी सीनरी बनाई है।’
चौके से ही मम्मी ने प्रशंसा कर बच्ची का मनोबल बढ़ाया। कला जीवंत हो उठी।
थोड़ी देर बाद मुन्नी घबराई हुई सी चिल्लाई – ‘ममा गज़ब हो गया, दादा-दादी के लिए तो इसमें जगह ही नहीं बन पा रही है।’
ममा की आवाज आई- आउट हाउस बनाकर समस्या का निराकरण कर लो। दादा-दादी वहीं रह लेंगे।’
मम्मी की सलाह सुनकर बच्ची एकाएक हतप्रभ होकर रह गई। उसे लगा कि सीनरी एकदम बदरंग हो गई है। चित्रकारी पर काली स्याही फिर गई है। हट के बीचों-बीच एक मोटी सी दरार भी पड़ गई है।
आदिवासी जिले में भ्रमण के दौरान बैगाओं की दयनीय स्थिति देख प्रशांत का मन द्रवित हो गया । क्योंकि आदिवासी समाज के विकास एवं उन्नति हेतु सरकार के द्वारा आजादी के बाद से ही विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत करोड़ों रुपये खर्च किये जा चुके हैं ।
बैगाओं की इस स्थिति हेतु उसने वहां के आदिवासी विकास अधिकारी से पूछ ही लिया — ” आजादी के 65 वर्षों के बाद भी आदिवासियों के तन पर सिर्फ लंगोटी ही क्यों ? ”
अधिकारी ने जवाब दिया — ” यदि हम आदिवासियों को लंगोट के स्थान पर पेंट शर्ट पहना देंगे तो हममें और उनमें क्या अंतर रह जावेगा ? उनकी पहचान नष्ट हो जावेगी , फिर हम विदेशी पर्यटकों को बैगा आदिवासी कैसे दिखावेंगे और वे उनकी लंगोटी वाली वीडियो फ़िल्म , फ़ोटो कैसे उतारेंगे ? अतः उनकी पहचान बनाये रखने उन्हें लंगोटी में ही रहने देने के लिए सरकार द्वारा करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हैं । इसमें आदिवासियों का विकास हो या न हो , हमारा तो हो रहा है । ” कहते हुये उन्होंने बेशर्मी से ठहाका लगाया ।
(डॉ . मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक लघुकथा ‘वात्सल्य ’)
आठ माह पूर्व उसके बेटे कृष्ण का निधन हो गया था।
उसकी मां निरंतर आंसू बहा रही थी, उस बेटे के लिये जो उससे बात नहीं करता था,उसे गालियां देने व उस पर हाथ उठाने से तनिक गुरेज़ नहीं करता था,जिसने कभी अपने घर में कदम नहीं रखने दिया।
यह सब देख कर सपना हैरान थी।वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पायी और उसने उससे पूछ ही लिया…आप किसका मातम मना रही हैं? वह बेटा…जिसने पिता के देहांत के पश्चात् अपनी विधवा मां की जायदाद हड़प कर रोने-बिलखने को छोड़ दिया और कभी बीमारी में भी उसका हाल पूछने नहीं आया।
वह बेटा जिसने अपने बच्चों को कभी उससे बात तक नहीं करने दी और उसकी ज़िन्दगी को बद से बदतर बना डाला।
मां ने उस बेटे को कैसे माफ कर दिया… यह समझना उसके वश की बात नहीं थी।
रात के सन्नाटे में गुप्ता सर कोचिंग क्लास में पढ़ाकर अपनी मोटरसाइकिल से घर जा रहे थे । अचानक एक मोड़ पर चार हथियारबंद युवकों ने सामने आकर उन्हें रोक लिया । एक युवक ने उन्हें छुरा पेट में अड़ाते हुए कहा ” जो भी माल हो फौरन निकाल कर दे दो , वरना ……… “
गुप्ता सर ने घबराई हुई आवाज में कुछ कहना चाहा, तभी उन्हें वह लड़का जाना पहचाना लगा । उन्होंने उसे गौर से देखा और आंखों में चमक लाते हुए बोले – ” अरे……… विनोद बेटे तुम……… मुझे पहचाना नहीं, मैं तुम्हारा गुरूजी, तुम्हें मैंने 12 वीं कक्षा में पढ़ाया था………” विनोद नें बात बीच में ही काटकर गुर्राते हुए कहा ……… “चुप……… अपनी गन्दी जुबान से गुरुजी जैसे पवित्र शब्द मत निकालिये। आप जैसे शिक्षा के व्यापारियों ने वास्तविक गुरूजी के ज्ञान को पीछे धकेल कर शिक्षा का मजाक बनाकर सिर्फ रुपया कमाना अपना उद्देश्य बना लिया है और हम जैसे बेरोजगारों को सही रोजगारी शिक्षा के अभाव में ही अपराध के इस अंधेरे जंगल में भटककर अपना और अपने परिवार का पेट पालना पड़ रहा है । यदि आप जैसे गुरुओं ने शिक्षा को व्यापार न बनाया होता और हमें सही शिक्षा प्रदान की होती तो आज देश में हम जैसे अपराधी बेरोजगारों की फौज पैदा न होती ……… । इसके पहले कि हम लोगों का वहशीपन जागे, आप तत्काल यहां से चले जाइये।”
गुप्ता सर शर्म से सिर झुकाये अपने शिक्षक धर्म के बोझ को ढोते हुए अपराधबोध से ग्रसित घर की ओर बढ़ गये ।
“हुजूर, माई — बाप मुझे बचा लीजिये, वरना जनता मुझे मार डालेगी —-” कहते हुए ट्रक ड्राइवर थाने में प्रवेश कर सब- इंस्पेक्टर के कदमों में गिर गया।
सब – इंस्पेक्टर मेहरा ने कड़कदार आवाज में उसे गाली बकते हुए कहा –“किस को अपने ट्रक की चपेट में ले लिया ?”
“हुजूर, अम्बेडकर चौक पर अचानक एक कॉलेज की लड़की गाड़ी सहित ट्रक के नीचे आ गई । सच कह रहा हूँ हुजूर, मेरा कोई दोष नहीं है । में वहां से सीधा ट्रक लेकर आपके पास आ गया, पब्लिक के पहुंचने से पहले हुजूर ये एक हजार रुपए रखिये और मामला निपटा दीजिये ।”
“हूँ –” सब इंस्पेक्टर ने चारों ओर देखा, दोपहर डेढ़ बजे का समय था, ड्यूटी पर तैनात सिपाही खाना खाने पीछे ही पुलिस लाइन के अपने क्वार्टर पर गए हुए थे और बड़े साहब भी नहीं थे, मौका अच्छा था । उसने सोचा – आज यह पूरी रकम उसकी है, किसी को भी हिस्सा नहीं देना है ।
सब इंस्पेक्टर मेहरा ने जल्दी से ट्रक ड्राइवर से रुपये लिये और कहा – “जा जल्दी से फूट ले यहां से । पब्लिक के हाथों पड़ गया तो मार – मार कर भुरता बना देगी ।”
वह मन ही मन खुश होकर जेब में रखे हजार रुपयों पर हाथ फेर रहा था, तभी टेलीफोन की घन्टी बजी, उसने फोन उठाया , “हेलो — मेहरा सब इंस्पेक्टर स्पीकिंग।”
दूसरी ओर से आवाज आई — “सर, आपकी लड़की की कालेज से लौटते समय अम्बेडकर चौक पर ट्रक से एक्सीडेंट हो जाने के कारण मौत हो गयी है।”
सब इंस्पेक्टर के हाथों से रिसीवर छूट गया और वह बेहोश होकर, कुर्सी पर एक ओर लुढ़क गया ।
मोहित जब भी अपने पिताजी से बात करता किसी बात का सीधा उत्तर न देता। पिता रामदास परेशान हो उठते सोचने लगते क्या तीन लड़कियों के बाद इसी दिन को देखने के लिए पैदा किया था इसको,न जाने परवरिश में क्या कमी रह गई? जब भी बात करो टेढ़ेपन से जवाब देता है।मेरी तो कोई भी बात अच्छी नहीं लगती।
एक दिन जब वह मोहित से पूछने लगा कि घर लौटने में आज देर कैसे हो गई, कॉलेज में एक्सट्रा पीरियड था क्या? बस मोहित तो सुनते ही बस आगबबूला हो गया,”आपकी क्या आदत है,क्यूँ हर वक्त इन्क्वायरी करते रहते हैं?मैं कोई दूध पीता बच्चा थोड़े ही हूँ।अपना बुरा भला समझता हूँ।” रामदास तो उसको लेकर आज पहले ही परेशान था एक थप्पड़ झट से गाल पर जड़ चिल्लाने लगा,”बाप हूँ तेरा बोलने की तमीज नहीं है,माँ-बाप के लिए बच्चा कभी बड़ा नहीं होता है। हम चिन्ता नहीं करेंगे तो क्या बाहर वाले ख्याल रखेंगे।” बस मानो मोहित तो मौके की तलाश में ही था बोलने लगा ,”बड़ी जल्द समझ आई आपको ,जब दादा जी यही सब बातें आपको बोलते थे तो क्यों तिलमिला उठते थे,क्यों उनकी बातो का कभी सीधे मूहँ जवाब नहीं देते थे? मैं बच्चा जरूर था तब पर सब समझता था कैसे वो चुपके से जाकर आपके इस गंदे रवैये से रोते थे।मैं कहता था उनसे कि वो बात करें आपसे इस बारे में,पर डरते थे आपसे।फिक्र भी थी कि न जाने ऑफिस की क्या टैंशन रही होगी इसलिए ऐसे चिल्ला रहा है। बेचारे आपकी चिंता व आपके दो मीठे बोल को तरसते-तरसते ही चल बसे।”
रामदास तो यह सुनते ही भौचक्का रह गया व शर्मिंदा भी हो उठा क्योंकि कहीं न कहीं गलती तो उससे हुई ही थी।अब उसको एहसास था पर वक्त हाथ से निकल चुका था।यह बात सही थी कि बच्चे हम से ही सीखते हैं। उनके संस्कारों के हम ही तो रचयिता हैं।वक्त के साथ विचारों में भी अंतर आ जाता है।वह अपने सवाल का जवाब खुद ही ढूंढ़ने में लग गया कि शायद यही है जनरेशन गैप।
तुमने मुझसे पूछा है कि जब मैं 26 साल में विधवा हो गई थी तो फिर से प्रेम करके पुनर्विवाह क्यों नहीं कर लिया। संतान पैदा कर लेतीं, बुढ़ापे का सहारा हो जाता। चैन सुख से जीवन गुजर जाता। ये देशभक्ति, देश सेवा, समाजसेवा के चक्कर में क्यूं पड़ गईं ?
तुम्हारे सवाल का जबाब देना थोड़ा मुश्किल सा है क्योंकि तुम नहीं समझ पाओगे, न्यायालय नहीं समझ पाया, जो अपने आपको देशभक्त कहते हैं ऐसे बड़े नेता नहीं समझ पाए।
दरअसल 25 साल में मेरी शादी बीएसएफ के एक बड़े अधिकारी से हुई, शादी के बाद हम पति पत्नी ने तय किया था कि बच्चा दो साल बाद पैदा करेंगे, होने वाली संतान को ऐसे संस्कार देंगे कि वह बेईमानी, भ्रष्टाचार, लफ्फाजी का विरोध करे और उसके अंदर देशसेवा के लिए जुनून पैदा हो। शादी के बाद उनकी पोस्टिंग कुछ बेहद खतरनाक इलाकों में हुई, उन दिनों माओवादियों का आतंक अपनी चरम सीमा में था। मेरे बहादुर पति में रणनीति कौशल अदभुत था उनके कर्तव्य के जज्बे और समाज के लिए बेहतर करने की उनकी जिजीविषा विख्यात थी। नक्सल आपरेशन के दौरान चरमपंथियों के साथ हुई आमने सामने की लड़ाई में अचानक उनके शहीद हो जाने की खबरों से मेरी पूरी दुनिया धराशायी हो गई, मेरे इर्दगिर्द जो कुछ भी था नष्ट हो गया……. वे बक्से में आये तिरंगे में लिपटे हुए……
मैं बहुत रोई, रोते-रोते मुझे याद आया कि उन्होंने हमेशा मुझसे मजबूत बने रहने के लिए कहा था और ये भी कहा था कि हमारी संतान देशसेवा के लिए हमेशा न्यौछावर रहेगी। रोते रोते मेरे अंदर देशभक्ति और देशसेवा का जज्बा पैदा हो गया। मैंने उनके पोस्टमार्टम होने के पहले डाक्टर से अनुनय-विनय किया कि हमारा परिवार देश के लिए मर मिटा है स्वतंत्रता आंदोलन में हमारे श्वसुर के पिता शहीद हुए थे अभी उनका एकमात्र नाती और मेरे बहादुर पति नक्सल आपरेशन के दौरान शहीद हो गए। पीढ़ियों से देशसेवा के लिए बलिदान देने में हमारा परिवार आगे रहा है। मैंने रोते हुए डाक्टर से मांग की कि पोस्टमार्टम के पहले मृत पति का स्पर्म संरक्षित किया जाए ताकि मैं शहीद की पत्नी आईव्हीएफ तकनीक से मां बनकर संतान पैदा कर सकूं और होने वाली संतान को देशसेवा के लिए देश को समर्पित कर सकूं। गृहस्थ जीवन में मातृत्व सुख पाना हर महिला का सपना होता है और अधिकार भी। परिवार के सभी लोग भी चाहते हैं कि वंश बढ़े और चले…… पर डाक्टर एक ना माना, वह केसरिया गमछा डालकर पोस्टमार्टम करने जब चल पड़ा तो मैंने प्रतिशोध किया, मीडिया के लोगों को बुला लिया। बाद में डाक्टर और मीडिया के लोगों ने सलाह दी कि न्यायालय से ऐसा आदेश प्राप्त करें।
मैंने न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया, जज से गुहार लगायी – ” मी लार्ड… मेरे पति नक्सल आपरेशन के बहादुर बड़े अधिकारी थे जो नक्सलियों से आमने सामने की लड़ाई के दौरान शहीद हो गए। पति के मरणोपरांत उनके स्पर्म से आईव्हीएफ तकनीक के सहारे वह मां बनना चाहती है, गृहस्थ जीवन में मातृत्व सुख पाना हर महिला का सपना होता है और अधिकार भी। परिवार के सभी लोग भी चाहते हैं कि उनका वंश बढ़े और चले। इसलिए न्यायालय से हाथ जोड़कर विनती है कि मृत पति के पोस्टमार्टम के पहले पति का स्पर्म संरक्षित करने के लिए सरकार को आदेश देंवे।”
जज साहब का कहना था कि भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान द्वारा तैयार सहायक प्रजनन तकनीक नियम के मसौदे के अनुसार भारत में यह दिशा निर्देश तो हैं कि यदि मौत के पहले स्पर्म संरक्षित किया गया हो तो मरणोपरांत उसके इस्तेमाल से गर्भधारण किया जा सकता है लेकिन मरणोपरांत स्पर्म संरक्षित करने का स्पष्ट प्रावधान नहीं है।
मैंने फिर गुहार लगाई – “मी लार्ड…. चैक गणराज्य में ऐसा प्रावधान तो है और अन्य देशों में भी मरणोपरांत स्पर्म संरक्षण के प्रावधान हैं। इंसान तो इंसान है वह इसी धरती पर पैदा हुआ है इसलिए इंसानियत के नाते एक शहीद की विधवा के मातृत्व सुख के सपने को साकार करने के लिए उसके पक्ष में निर्णय लेने हेतु निवेदन है। मेरा नेक इरादा है कि मैं वंशवृद्धि के लिए मां बनकर अपनी संतान को देशसेवा के लिए समर्पित करना चाहतीं हूं। इस देश में राजनैतिक दांव-पेंच के निपटान के लिए रात में भी कोर्ट खोली जा सकती है। समलैंगिकों को उनकी मर्जी के अनुसार उनके अधिकार दिए जा सकते हैं। बड़े बड़े मानव अधिकारों के संगठन के लोग अपनी मंहगी गाड़ियों में बड़े बोर्ड लगाकर अपने जलवे दिखा रहे हैं, बड़े बड़े नेता सरकार और न्यायालय के निर्णय की परवाह न करते हुए मंदिर निर्माण के लिए बयानबाजी कर रहे हैं। लिव इन रिलेशनशिप को बढ़ावा देकर समाजिक विकृति पैदा की जा सकती है। धारा 377 लायी जा सकती है तो शहीदों की विधवाओं के सपने और उनके अधिकार देने में क्यों दिक्कत आ रही है जबकि एक शहीद की विधवा शपथपत्र देकर वादा कर रही है कि होने वाली संतान को देश की रक्षा के लिए न्यौछावर कर देगी।”
सरकार ने सरोगेसी नियमन विधेयक पास जरूर कर दिया है पर इस तकनीक का एक स्याह पक्ष यह भी रहा है कि इससे कोख बेचने वाली सरोगेट माताओं को शारीरिक और मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, विडंबना है कि अपनी कोख बेचकर दूसरों को संतान सुख देने वाली महिलाओं को इसके एवज में उचित पैसे और मान सम्मान भी नहीं दिया जाता, वे आर्थिक और शारीरिक शोषण की शिकार होतीं हैं।
“मी लार्ड….. आर्मी, बीएसएफ, पुलिस, डिफेंस जैसे विभागों में काम करने वालों के परिवारों के हितों को सुरक्षित रखने के लिए मेरी मांग उचित है अतः सरकार को तुरंत आदेश दिए जाएं कि मृत पति के पोस्टमार्टम के पहले स्पर्म संरक्षित किया जाए।”
मैं फफक – फफक कर रोती रही पर किसी ने कुछ नहीं सुना, सब अपनी नौकरी बचाने की चिंता में मेरी मांग को अनदेखा कर रहे थे, और बूढ़े सास – श्ववसुर को लोगों ने भड़का के डरा दिया कि सरकार और न्यायालय की पेचीदगियों में पड़ोगे तो बेटे की डेडबाडी खराब हो जाएगी…. बेटे की आत्मा की शांति के लिए जरूरी है कि उसका समय पर दाह संस्कार कर दिया जाए…… मैं मजबूर थी। रोते रोते आंखों में आंसू सूख गए थे। तब से मैं ये जान गई कि उनकी आत्मा की शांति के लिए शहीदों के परिवारों और शहीदों की विधवाओं की बेहतरी के लिए काम किया जाए और अपनी पीड़ा और ख्वाहिश को विस्तार देते हुए दूसरों के अधिकारों के लिए लड़ा जाए।
शहीद होंने के कारण सरकार पैसे और नौकरी तो दे देगी पर न्यायालय और सरकार मेरे बहादुर पति के स्पर्म की कुछ बूंदे नहीं दे पाई जिससे मातृत्व सुख से वंचित एक शहीद की विधवा बिलखती रह गई, पर मैं हिम्मत नहीं हारने वाली, आखिरी दम तक आर्मी, बीएसएफ, पुलिस, डिफेंस वालों की ऐसी पीड़ित बहनों के लिए लड़ती रहूंगी।
मैं देख रही हूँ कि मेरी बातों को सुनकर तुम्हारी आँखें नम हो रहीं हैं और नम आँखों से सहानुभूति छलक रही है पर मेरे दिल दिमाग में मेरे बहादुर पति की आखिरी दम तक देश सेवा की भावना मेरे अन्दर गुबार बनकर फैल गई है। और सुनो सहानुभूति छलकाने वालों से मुझे कोई सहानुभूति नहीं है, ऐसे लोगों से मैं सख्त नफरत करतीं हूं।
तुमने प्रश्न किया है इसलिए मैं बता देना चाहती हूं कि मैंने गांव गांव के ऐसे युवकों के घरों को ढूंढ लिया है जिन्होंने बहकावे में आकर नक्सलवाद का रुख किया और मुठभेड़ में मारे गए, नाहक ही उनके बच्चे अनाथ हो गए। इन दिनों ऐसे बच्चों को गोद लेकर उनको अच्छा नागरिक बनाने के प्रयास में व्यस्त हो गईं हूं।