हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 240 ☆ कहानी – ‘एक कमज़ोर आदमी की कहानी’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी कहानी – एक कमज़ोर आदमी की कहानी। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 240 ☆

☆ कहानी – एक कमज़ोर आदमी की कहानी

उमाकान्त निश्चिंतता ओढ़े हुए ट्रेन के डिब्बे में सवार हो गये, लेकिन बेटे के चेहरे पर  उद्विग्नता साफ दिखती थी। पिता की अटैची उनकी सीट के ऊपर सामान रखने वाली जगह में जमा कर रविकान्त बोला, ‘पापा आप सुनते नहीं हैं। मैं एक दिन की छुट्टी लेकर चला चलता। कौन सी मुसीबत आने वाली थी?’

उमाकान्त हँसकर बोले, ‘यहाँ से बैठकर सीधे हबीबगंज में उतर जाना है। कौन कहीं गाड़ी बदलना है या जर्नी ब्रेक करना है। मेरे साथ जाते और तुरन्त लौटते। व्यर्थ की भागदौड़। मैं आराम से चला जाऊँगा। वहाँ तो कोई न कोई लेने आएगा। पहुँचते ही फोन करूँगा।’

रविकान्त चुप हो गया।

उमाकान्त व्यवस्थित हो कर बैठ गये। यह इंटर-सिटी गाड़ी थी, यानी सिर्फ बैठने की व्यवस्था। दूरी भी तो ज़्यादा नहीं थी, लगभग साढ़े छः घंटे की। उन्हें खिड़की के पास वाली सीट मिल गयी थी। बगल में एक सज्जन थे और उनकी प्यारी सी आठ दस साल की बच्ची। बातचीत से मालूम हुआ उन्हें भी हबीबगंज जाना था।

उमाकान्त अब बहुत कम शहर से बाहर निकलते थे। दो साल पहले पत्नी की मृत्यु के बाद वे पूरी तरह हिल गये थे। मृत्यु का एकदम निर्मम रूप सामने आ गया था। उमाकान्त को लगा जैसे ज़िन्दगी का खेल खेलते खेलते वे अचानक दर्शक-दीर्घा में आ गये हों। ज़िन्दगी की गतिविधियों से जी उचट गया था। बस रस्म- अदायगी रह गयी थी।

अब अकेले रहने या कहीं अकेले जाने पर उन्हें अवसाद और व्यर्थता-बोध घेरने लगता था। अकेले सफर करने पर अचानक भय और बेचैनी का अनुभव होता। उन्हें लगता उन्हें कुछ हो जाएगा और उनके परिवार वालों को पता भी नहीं लगेगा। वे बेचैनी में किसी परिचित चेहरे को ढूँढ़ने लगते जिसकी मदद से वे अपने भय से उबर सकें।

उमाकान्त सुशिक्षित व्यक्ति थे। वे जानते थे कि ये सब भावनाएं आधारहीन हैं, लेकिन उनके उभरने पर उनका कोई वश नहीं चलता था। वे अपने मन में चलती ऊहापोह के दृष्टा मात्र बन कर रह जाते थे। अचानक नकारात्मक विचारों का रेला आता और वे मन पर नियंत्रण खोकर बदहवास होने लगते।

फिलहाल उनके सफर की वजह यह थी कि भोपाल में, उनके सहकर्मी रहे मेहता जी की नातिन की शादी थी और मेहता जी ने अनेक बार फोन करके उन्हें बता दिया था कि उनकी चरन- धूल पड़े बिना कार्यक्रम अधूरा माना जाएगा। मेहता जी उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे और ‘दादा’ कह कर संबोधित करते थे। उमाकान्त मेहता जी को समझाने में असफल रहे थे कि अब वे अपनी चरन-धूल घर की चौहद्दी में गिराना ही पसन्द करते हैं, सफर अब उनके लिए छोटी-मोटी त्रासदी होता है।

ट्रेन चल पड़ी और रविकान्त दूर तक चिन्तित आँखों से उनकी तरफ देखता रहा। उमाकान्त अब अपने को सँभालने में लग गये। वे उस भय और अवसाद को काबू में रखना चाहते थे जो अकेले में उन्हें घेरता था। वह कब अचानक मन के किसी कोने से उठकर उन्हें जकड़ने लगेगा, यह जानना उनके लिए संभव नहीं था। ऐसे मौकों पर वे कोशिश में रहते थे कि आसपास के लोगों पर उनकी कमज़ोरी ज़ाहिर न हो।

उनकी बगल में बैठी बालिका अपने पिता से बातें करने में मशगूल थी। बहुत चंचल और बातूनी लगती थी। वह लगातार पिता से कुछ सवाल किये जा रही थी। पिता शान्त स्वभाव के दिखते थे। वे धीमी आवाज़ में उसके सवालों के जवाब दे रहे थे। ज़ाहिर था कि बेटी पिता की लाड़ली थी।

अचानक लड़की उमाकान्त से बोली, ‘दादा जी, मैं खिड़की वाली सीट पर आ जाऊँ? मुझे वहाँ अच्छा लगेगा।’

उमाकान्त तुरन्त राज़ी हो गये। अब लड़की के पिता बीच में थे और वे कोने में। उमाकान्त बेटियों को बहुत प्यार करते थे, विशेषकर चौदह-पन्द्रह साल तक की। अल्हड़, बेफिक्र और बिन्दास। उनकी कॉलोनी में जब इसी उम्र की लड़कियाँ शाम को साइकिलें लेकर हँसते, बातें करते चक्कर लगातीं तब उन्हें लगता जैसे चिड़ियों का चहचहाता झुंड कॉलोनी में उड़ान भर रहा हो। सोयी हुई कॉलोनी जैसे जाग जाती।

लड़की के हाथ में मोबाइल था, जो शायद पिता का था। बीच बीच में वह सिर झुका कर उस पर उँगलियाँ फेरने लगती।

चार घंटे बाद गाड़ी इटारसी स्टेशन पर रुकी। लड़की के पिता उठे, बोले, ‘पानी लेकर आता हूँ। गरम हो गया है।’

लड़की बोली, ‘मेरे लिए चिप्स और चॉकलेट आइसक्रीम का कोन लाना।’

पिता ‘देखता हूंँ’ कह कर उतर गये। थोड़ी दूर तक दिखायी पड़े, फिर भीड़ में ओझल हो गये। लड़की मोबाइल से खेल रही थी।

थोड़ी देर बाद अचानक गाड़ी चल पड़ी। लड़की के पिता अभी लौटे नहीं थे। लड़की का ध्यान उधर गया। वह खिड़की में मुँह डालकर ‘पापा, पापा’ चिल्लाने लगी। गाड़ी ने गति पकड़ ली लेकिन लड़की के पिता नहीं लौटे। लड़की ने उमाकान्त की तरफ चेहरा घुमाया। उसका चेहरा भय से विकृत और आँखों में आँसू थे। वह फिर चिल्लायी, ‘पापा’।

उमाकान्त के मन में सुगबुगाता अपना भय और अवसाद कहीं दुबक गया। वे लड़की की हालत देखकर परेशान हो गये। उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘रो मत। किसी दूसरे डिब्बे में चढ़ गये होंगे। अभी आ जाएँगे। ऐसा हो जाता है।’

काफी देर हो गयी, लेकिन लड़की के पिता का कहीं पता नहीं था। लड़की लगातार रोये जा रही थी। अचानक लड़की के मोबाइल पर फोन आया। पिता बोल रहे थे। वे उसके लिए आइसक्रीम ढूँढ़ते  प्लेटफार्म पर छूट गये थे। वैसे भी उनमें वह फुर्ती नहीं दिखती थी जो ऐसे मौकों पर ज़रूरी हो जाती है।

पिता ने बेटी को बताया कि उन्होंने भोपाल फोन कर दिया था, उसकी माँ समय से स्टेशन पहुँच जाएगी। घबराने की कोई बात नहीं है।

उमाकान्त ने लड़की के हाथ से फोन ले लिया। पिता से कहा कि वे बिल्कुल चिन्ता न करें। वे भोपाल तक उनकी बेटी की देखभाल करेंगे। अलबत्ता उसे लेने के लिए कोई स्टेशन ज़रूर पहुँच जाए।

पिता से बात खत्म होते ही माँ का फोन आ गया। वे खासी घबरायी थीं। बेटी की कुशलक्षेम पूछने के बाद वे उसे बार-बार ढाढ़स बँधाती रहीं। साथ ही यह आश्वासन भी कि वे स्टेशन ज़रूर पहुँच जाएँगीं। लड़की ने उन्हें भी बताया कि बगल वाली सीट के दादा जी उसकी देखभाल कर रहे हैं।

थोड़ी देर में डिब्बे का टी.टी. ई. भी लड़की का हालचाल लेने आ गया। उसके पास इटारसी से स्टेशन मास्टर का फोन आया था कि हबीबगंज तक लड़की की देखभाल करता रहे और उसे वहाँ परिवार वालों को सौंप दे।

लड़की अब काफी शान्त हो गयी थी। उसका भय लगभग खत्म हो गया था। उमाकान्त को भी अभी तक अपने भय को जगह देने की फुरसत नहीं मिली थी।

वे अब लड़की को बहलाने में लग गये। उन्होंने उसे बताया कि कैसे जब वे कई साल पहले वैष्णो देवी गये थे तब जम्मू में उस वक्त ट्रेन चल दी थी जब वे बुक-स्टॉल पर पत्रिकाएँ देख रहे थे। तब उन्होंने दौड़ कर ट्रेन पकड़ी थी, और उस वक्त उनके हाथ में जो झटका लगा उसका दर्द कई दिन तक रहा। उन्होंने पूरे अभिनय के साथ लड़की को यह कहानी सुनायी। उसे बताया कि अब भी उस घटना को याद करके वे सिहर उठते हैं। लड़की उनकी बातों को रुचि लेकर सुनती रही।

उमाकान्त के पास बिस्कुट थे। इसरार करके उन्होंने लड़की को खिलाये। फिर उसे व्यस्त रखने के लिए उसके परिवार के बारे में पूछते रहे। उसके दो भाइयों, स्कूल, क्लास, सहेलियों, पसन्द-नापसन्द के बारे में तफसील से जानकारी ली। उनकी पूरी कोशिश रही कि लड़की को अपने अकेलेपन का एहसास न हो।

राम राम करते गाड़ी हबीबगंज पहुँच गयी। रात के करीब साढ़े दस बज गये थे। गाड़ी यहीं खत्म होती थी। लड़की व्यग्रता से खिड़की से बाहर झाँकने लगी। तभी भीड़ के बीच से एक महिला दौड़ती हुई आती दिखायी पड़ी। वह चिन्ता से बदहवास थी। खिड़की के पास आकर ‘गीता,गीता’ पुकारने लगी। लड़की भी खड़ी होकर ‘मम्मी, मम्मी’ पुकार रही थी। माँ ने उसे देख लिया था।

उमाकान्त ने लड़की का हाथ पकड़ा और उसे दरवाज़े तक पहुँचा दिया। पीछे पीछे टी.टी.ई. भी आया। वह माँ-बेटी को दफ्तर में ले जाकर इत्मीनान करेगा कि लड़की सही हाथों में सौंप दी गयी।

माँ बेटी को छाती से चिपका कर आँसू बहा रही थी। लड़की ने उमाकान्त का परिचय माँ से कराया और माँ ने हाथ जोड़कर उन्हें धन्यवाद दिया। उमाकान्त को लेने मेहता जी का बेटा आ गया था। ट्रेन से उतरते उतरते उमाकान्त उस भय और अवसाद को ढूँढ़ने लगे जो इस घटना-चक्र के बीच कहीं गुम हो गया था।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – थपेड़े – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  थपेड़े ।) 

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – थपेड़े – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

आकाश प्रेम से देखता था, चाँद आत्मीयता से तकता था, पृथ्वी खुशी से स्पंदित होती थी। यह एक बालक के जन्म का उत्सव था। अच्छा करने में बालक की अद्भुत लगन थी। पर बालक बड़ा होने की प्रक्रिया में परिवर्तित दिखायी दिया। तब तो आकाश, चाँद और पृथ्वी का उत्सव शिथिल पड़ गया। बालक पूर्व जन्म से कुछ ले कर धरती पर आया था जिसे जमाने के थपेड़ों ने नष्ट करके उसे अपने धरातल पर खड़ा कर लिया था।
***

© श्री रामदेव धुरंधर

17– 04 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 139 ☆ लघुकथा – दिन छुट्टी का ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा दिन छुट्टी का ?। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 139 ☆

☆ लघुकथा – दिन छुट्टी का ?  ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

रविवार का दिन। छुट्टी के दिन सबके काम इत्मीनान से होते हैं। बच्चे तो दस बजे तक सोकर उठते हैं। रिया सबसे पहले नहाने चली गई, छुट्टी के दिन बाल ना धो तो फिर पूरे हफ्ते समय ही नहीं मिलता। ऑफिस से लौटते हुए सात बज जाते हैं फिर वही रात के खाने की तैयारी। उसने नहाकर पूजा की और सीधे रसोई में चली गई नाश्ता बनाने। रविवार को नाश्ता में कुछ खास चाहिए सबको। आज नाश्ते में इडली बन रही है। नाश्ते करते-करते ही ग्यारह बज गए। बच्चों को आवाज लगाई खाने की मेज साफ करने को। तभी पति की आवाज सुनाई दी –‘सुनो! मेरी पैंट शर्ट भी वाशिंग मशीन में डाल देना। ‘ झुंझला गई – ‘अपने गंदे कपड़े भी धोने को नहीं डालते, बच्चे तो बच्चे ही हैं, पर ये —

बारह बजने को आए, जल्दी से खाने की तैयारी में लग गई। दाल-चावल , सब्जी बनाते-बनाते दो बजने को आए। गरम-गरम फुलके खिलाने लगी सबको। तीन बजे उसे खाना नसीब हुआ। रसोई समेटकर कमर सीधी करने को लेटी ही थी कि बारिश शुरू हो गई। अरे, मशीन से निकालकर कपड़े बाहर डाल दिए थे, जब तक बच्चों को आवाज लगाएगी कपड़े गीले हो जाएंगे, खुद ही भागी। सूखे कपड़े तह करके सबकी अल्मारियों में रख दिए जो थोड़े गीले थे कमरे में सुखा दिए। शाम को फिर वही क्रम रात का खाना, रसोई की सफाई— । छुट्टी के दिन के लिए कई काम सोचकर रखती है पर कई बार रोजमर्रा के काम में ही रविवार निकल जाता है। छुट्टीवाले दिन कुछ ज्यादा ही थक जाती है। छुट्टी का तो इंतजार ही अच्छा होता है बस। थककर चूर हो गई, आँखें बोझिल हो रही थीं कि पति ने धीरे से कंधे पर हाथ रखकर कहा– ‘आज सारा दिन मैं घर पर था पर तुम दो मिनट आकर बैठी नहीं मेरे पास, क्या करती रहीं सारा दिन? प्यार करती हो ना मुझसे? वह जैसे नींद में ही बोली— ‘प्यार?’ आगे कुछ बोले बिना ही वह गहरी नींद में सो गई।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 101 – मिलन मोशाय : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  मिलन मोशाय : 2

☆ कथा-कहानी # 101 –  मिलन मोशाय : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

मिलन बाबू जब धीरे धीरे वाट्सएप ग्रुप में रम गये तो उन्होंने पाया कि दोस्तों से बातचीत और हालचाल की जगह वाट्सएप ग्रुप में फारवर्डेड मैसेज पोस्ट करने का ही चलन बन गया है, त्यौहारों पर बधाई संदेशों के तूफानों से मिलन मोशाय परेशान हो गये, चार पढ़ते चालीस और आ जाते.फिर पढ़ना छोड़ा तो मैमोरी फुल, दोस्तों ने डिलीट फार ऑल का हुनर सिखाया तो फिर तो बिना पढ़े ही डिलीट फॉर ऑल का ऑप्शन बेधड़क आजमाने लगे.

इस चक्कर में एक बार किसी का SOS message भी डिलीट हो गया तो भेजने वाला मिलन बाबू से नाराज़ हो गया, बोलचाल बंद हो गई. पहले जब वाट्सएप नहीं था तब मिलन बाबू अक्सर त्यौहारों पर, जन्मदिन पर ,एनिवर्सरी पर, अपने दिल के करीबियों और परिचितों से फोन पर बात कर लेते थे. किसी के निधन की सूचना पर संभव हुआ तो अंत्येष्टि में शामिल हो जाते थे या फिर बाद में मृतक के घर जाकर परिजनों से मिल आते थे पर अब तो सब कुछ वाट्सएप ग्रुप में ही होने लगा. मिलन बाबू सारी मिलनसारिता और दोस्तों को भूलकर दिनरात मोबाइल में मगन हो गये और ईस्ट बंगाल क्लब के फैन्स के अलावा उनके कुछ दुश्मन, उनके घर में भी बन गये जो खुद को नज़रअंदाज किये जाने से खफा थे और उनमें नंबर वन पर उनकी जीवनसंगिनी थीं. कई तात्रिकों की सलाह ली जा चुकी है और ली जा भी रही है जो इस बीमारी का निदान झाड़फूंक से कर सके.निदान उनके कोलकाता के दुश्मन याने ईस्ट बंगाल क्लब के फैन ने ही बताया कि दादा, फिर से मिलन मोशाय बनना है तो वाट्सएप को ही डिलीट कर डालो. जब गोलपोस्ट ही नहीं रहेगी तो गोल भी नहीं हो पायेगा.आप भी खुश रहेंगे और घर वाले भी.

😊😊

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 190 – शिकन – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है पारिवारिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “शिकन”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 190 ☆

🌻 लघुकथा 〰️ शिकन 〰️

माथे या ललाट पर पड़ने वाली मोटी पतली आडी़ रेखाओं को शिकन कहते हैं। आज से थोड़े पहले पुराने वर्षों में देखा जाए और सोचा जाए तो बुजुर्ग लोग बताया करते थे…. कि देखो वह साधु बाबा ज्ञानी ध्यानी आए हैं। उनके ललाट पर कई रेखाएं(शिकन) हैं। बहुत ही विद्वान और शास्त्र जानते हैं। कोई भी प्रश्न जिज्ञासा हो सभी का समाधान करते हैं।

सभी के बताए अनुसार अजय भी इस बात को बहुत ही ध्यान से सुनता था। दादी – दादा की बातों को बड़े गौर से मन में रख नौ वर्ष का बालक अपने ज्ञान बुद्धि विवेक से जान सकता था कि क्या अभी करना और क्या नहीं करना है।

परंतु बच्चों के मन में कई सवाल उठता है। पहले वह देखा करता था कि दादाजी बड़े ही खुश होकर उठते बगीचे की सैर करते और दिनचर्या निपटाकर अपने-अपने कामों में लगे सभी के साथ बातचीत करते अपना समय व्यतीत करते थे।

परंतु वह देख रहा था कि कुछ दिनों से दादा जी के माथे पर एक दो लकीरें  बनी हुई दिखाई दे रही हैं।

बच्चे ने  गौर से देखा और चुपचाप रहा परंतु देखते-देखते उनके माथे पर कई रेखाएँ/ शिकन बढ़ने लगी थी।

आज खाने की टेबल पर सभी भोजन कर रहे थे। दादाजी के माथे की ओर देख अजय दादी से कहने लगा… दादी – दादी देखो दादाजी अब ज्ञानी ध्यानी बनने लगे हैं। उनको भी बहुत सारी बातों का ज्ञान हो गया है। साधु संत बन जाएंगे।

दादी – दादा के चेहरे का रंग उड़ने लगा। अपने पोते की बातों का… कैसा अर्थ निकाल रहा है?

तभी दादाजी बोल उठे…. हाँ हांँ बेटा हम और तुम्हारी दादी अब साधु बनेंगे और यहाँ से दूर शहर के बाहर जो बगीचा वाला आश्रम है। वहाँ जाकर रहेंगे और वहाँ प्रभु भजन करेंगे।

बेटे बहु समझ नहीं पा रहे थे कि हमारी गुप्त योजना को मम्मी- पापा कैसे समझ गए और नन्हें अजय ने उसे जाने अनजाने ही कैसे पूरी शिद्दत  से बाहर कर दिया।

तभी अजय भौंहे चढ़ा कर बोल उठा… दादाजी मेरी भी एक लकीर बन रही है। अब मैं भी आपके साथ चलूँगा क्योंकि पता नहीं कब यह बहुत सारी बन जाए आपके माथे जैसी तो आप मुझे आगे – आगे बताते जाना मैं आपसे रोज कहानी सुना करूंगा।

मैं भी एक दिन विद्वान बन जाऊंगा। दादा ने गले लगाते हुए कहा – – – नहीं नहीं बेटे अभी तुम्हारी उम्र नहीं है। शिकन – – बुड्डे होने पर बनती है। इसके लिए बुड्ढा होना पड़ता है।

अजय जिद्दमें अड़ा रहा आपको देख – देख कर मेरे माथे में भी शिकन बन जाएगी। मैं तो आपके साथ ही चलूंगा।

दादा- दादी पोते को लेकर सीने से लगाए हंसते हुए रोने लगे। शायद बेटा बहू समझ चुके थे कि अब उनके माथे में लकीरें बनना आरंभ हो जाएगी। माथे को पोंछते वह जाकर मम्मी- पापा के चरणों पर झुक गया।

ना जाने क्या सोच वह गले से लग रो पड़ा। अजय ने कहा… देखो मैं भी साधु बन गया है ना दादाजी, बता दिया तो पापा रोने लगे।

दादा दादी की आँखों से अश्रु धार बहने लगी। माथे की शिकन मिटाते वे अपने बेटे बहु को गले से लगा लिये।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “सारे आम”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ “सरेआम” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

-भई यह घर आपने बहुत ही सही लोकेशन पर लिया है । इसकी बायीं ओर मार्केट, दायीं ओर मार्केट और बिल्कुल सीधे जाओ तो लोकल बस व ऑटो मिलने के लिए चौक ! बहुत खुशकिस्मत हो आप !

जब हमने मकान खरीदा तब आसपास के लोगों का यही कहना था । वैसे हम इसी मकान में पिछले पांच साल से किराये पर रह रहे थे । तब छत पराई लगती थी, अब अपनी लगने लगी !

शुरू शुरू में हमने भी यह बात महसूस की थी और अब तो लोगों ने इस पर मोहर लगा दी थी ।

हम यानी आमतौर पर मैं और बेटी ही बायीं ओर की मार्केट शाम को सब्ज़ी, दूध और दूसरे जरूरी सामान लेने जाते हैं । पत्नी को बाज़ार जाने का कम ही शौक है । वह कहती है कि आप गांव में रहते थे तो आप ही जाइये सब्ज़ियां लेने ! अब पांच साल तो किसी अनजान जगह और शहर में अपनी और दूसरों की पहचान में लग ही जाते हैं और हमारी भी मार्केट वालों से जान पहचान हो गयी । इतना भरोसा तो जीत ही लिया कि यदि भूलवश कमीज़ बदलते समय पैसे डालने रह गये और दुकान पर सामान खरीदने के बाद पता चला तो दुकानदार कहने लगे कि कोई बात नहीं भाई साहब, आप सामान ले जाओ‌ ! आप पर भरोसा है । हमारे पैसे कहीं नहीं जाते ! आ जायेंगे ! यह तो बरसों का भरोसा है और बनते बनते बनता है ! यही नहीं आस पड़ोस भी अब दिन त्योहार पर घर की घंटी बजा कर उसमें शामिल होने का न्यौता देने लगा ! हालांकि पहले पहल हमें पंजाब से होने के चलते रिफ्यूजी तक मानते रहे और यह दंश भी देश के किसी हिस्से में रहने पर झेलना ही पडता है सबको! अपने ही देश में रिफ्यूजी! फिर दिन बीतने के साथ साथ सब हंसने खेलने लगे हमसे!

अब मार्केट में सब्ज़ी की रेहड़ियां शाम के समय खूब लगती हैं, जैसे पूरी सब्ज़ी मंडी ही चलकर इस मार्केट में रेहड़ियों पर लद कर आ गयी हो ! शाम के समय खूब चहल पहल और कितने ही कुछ जाने और कुछ अनजाने चेहरे देखने को मिलते हैं ! पर एक बात मेरी समझ में न आ रही थी कि आखिर शाम के धुंधलके में या अंधेरा छा जाने पर ये रेहड़ी वाले बिजली कहां से लेते हैं ? इनकी रेहड़ियां इतनी जगमगाती कैसे हैं ?

इसका भी रहस्य खुला सिमसिम की तरह ! एक दिन हम थोड़ा जल्दी ही मार्केट चले गये । क्या देखता हूँ कि एक आदमी हर रेहड़ी वाले से बीस बीस रुपये वसूल कर रहा है, बिल्कुल फिल्मी स्टाइल में ! जैसे ही बीस रुपये हाथ में आते, रेहड़ी पर रोशनी जगमगाने लग जाती ! यह कैसा जादू है ? रेहड़ी वाले गरीब आदमी, मुंह खोलते भी डरते ! क्या करिश्मा है और बिना कनैक्शन बिजली आती कहां से है ? वैसे तो एक आम आदमी को इससे क्या लेना देना ? अरे आखें बंद कर, कानों में रुई डाल और चुपचाप सामान खरीद और सुरक्षित घर को लौट! वो लिखा रहता है न कि घर कोई आपका इ़तज़ार कर रहा है तो ऐसे में न बायें देख, न दायें, सीधा घर को देख और घर चल ! पर मुझसे रहा नहीं जा रहा था। फिल्मी हीरो तो था नहीं कि उससे भिड़ जाता! बस, अंदर ही अंदर कसमसाता रहता कि आखिर यह हफ्ता वसूली क्यों ? वे गरीब, परदेसी रेहड़ी वाले खामोश रुपये देते रहते ! देखते समझते तो और भी होंगे लेकिन वे मस्त लोग थे, सौदा सुल्फ लिया और ये गये और वो गये ! कौन क्या कर रहा है, इससे क्या मतलब ?

पता चला कि यह सरेआम बिजली चोरी प्रशासन के ध्यान में आ ही गयी और आखिरकार यह हफ्ता वसूली कुछ दिन रुकी और फिर आठवां आश्चर्य हुआ जब सुनने में आया कि उसी अधिकारी की ट्रांसफर हो गयि, जिसने यह बिजली चोरी रोकी थी ! हैं घोर कलयुग ? रेहड़ी वाले राहत की सांस भी न ले पाये कि हफ्ता वसूली फिर शुरू ! सुनने में आया कि जो बिजली कनैक्शन देने आता था, वह तो मोहरा भर था, असली बाॅस तो उस एरिया का बड़ा नेता था ! अब यह बात कितनी सच, कितनी झूठ, हम बीच बाज़ार कुछ नहीं कह सकते भाई ! हमें माफ करो !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #167 – बाल कहानी – मोना जाग गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक “बाल कहानी – मोना जाग गई)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 167 ☆

बाल कहानी – मोना जाग गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

मोना चकित थी। जिस सुंदर पक्षी को उसने देखा था वह बोल भी रहा था। एक पक्षी को मानव की भाषा बोलता देखकर मोना बहुत खुश हो गई।

उसी पक्षी ने मोना को सुबह-सवेरे यही कहा था,

चिड़िया चहक उठी

उठ जाओ मोना।

चलो सैर को तुम

समय व्यर्थ ना खोना।।”

यह सुनकर मोना उठ बैठी। पक्षी ने अपने नीले-नीले पंख आपस में जोड़ दिए। मोना अपने को रोक न सकी। इसी के साथ वह हाथ जोड़ते हुए बोली, “नमस्ते।”

पक्षी ने भी अपने अंदाज में ‘नमस्ते’ कहा। फिर बोला,

“मंजन कर लो

कुल्ला कर लो।

जूता पहन के

उत्साह धर लो।।”

यह सुनकर मोना झटपट उठी। ब्रश लिया। मंजन किया। झट से कपड़े व जूते पहने। तब तक पक्षी उड़ता हुआ उसके आगे-आगे चलने लगा।

मोना का उत्साह जाग गया था। उसे एक अच्छा मित्र मिल गया था। वह झट से उसके पीछे चलने लगी। तभी पक्षी ने कहा,

“मेरे संग तुम दौडों

बिल्कुल धीरे सोना।

जा रहे वे दादाजी

जा रही है मोना।।”

“ओह! ये भी हमारे साथ सैर को जा रहे हैं,” मोना ने चाहते हुए कहा। फिर इधर-उधर देखा। कई लोग सैर को जा रहे थे। गाय जंगल चरने जा रही थी।

पक्षी आकाश में कलरव कर रहे थे। पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी थी। पहाड़ों के सुंदर दिख रहे थे। तभी पक्षी ने कहा,

“सुबह-सवेरे की

इनसे करो नमस्ते।

प्रसन्नचित हो ये

आशीष देंगे हंसते।।”

यह सुनते ही मोना जोर से बोल पड़ी, “नमस्ते दादा जी!”

तभी उधर से भी आवाज आई, “नमस्ते मोना! सदा खुश रहो।”

यह सुनकर मोना चौंक उठी। उसने आंखें मल कर देखा। वह बिस्तर पर थी। सामने दादा जी खड़े थे। वे मुस्कुरा रहे थे, “हमारी मोना जाग गई!”

“हां दादा जी,” कहते हुए मोना झट से बिस्तर से उठी, “दादा जी, मैं भी आपके साथ सैर को चलूंगी,” कह कर वह मंजन करके तैयार होने लगी।

“हां क्यों नहीं!” दादा जी ने कहा।

यह देख सुनकर उसकी मम्मी खुश हो गई।

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-01-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 100 – मिलन मोशाय : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  मिलन मोशाय : 1

☆ कथा-कहानी # 100 –  मिलन मोशाय : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

“मिलन चक्रवर्ती ” जब अपने बचपन के कोलकाता डेज़ को याद करते हैं तो उनकी फुटबाल सदृश्य गोल गोल आंखों से आँसू और दिल से एक हूक निकलने लगती है.बचपन से ही दोस्तों के मामले में लखपति और दुश्मनों के मामले में भी लखपति रहे थे और ये दोस्तियां स्कूल और कॉलेज से नहीं बल्कि फुटबॉल ग्राउंड पर परवान चढ़ी थीं. मोहनबगान के कट्टर समर्थक, मिलन मोशाय हर मैच के स्थायी दर्शक, हूटर, चियरलीडर सबकुछ थे और उनकी दोस्ती और दुश्मनी का एक ही पैरामीटर था. अगर कोई मोहनबगान क्लब का फैन है तो वो दोस्त और अगर ईस्ट बंगाल क्लब वाला है तो दुश्मन जिसके क्लब के जीतने पर उसकी पिटाई निश्चित है पर उस बंदे को घेरकर कहां मोहन बगान क्लब की हार की भड़ास निकालनी है, इसकी प्लानिंग स्कूल /कॉलेज़ में ही की जाती थी. जब भी ये टारगेट अकेले या मात्र 1-2 लोगों के साथ सपड़ में आ जाता तो जो गोल मिलन बाबू का क्लब फुटबाल ग्राउंड में नहीं कर पाया, वो एक्सट्रा टाईम खेल यहां खेला जाता और फुटबाल का रोल यही बंदा निभाता था. यही खेल मिलन मोशाय के साथ भी खेला जाता था जब ईस्ट बंगाल क्लब हारती थी. पर दोस्ती और दुश्मनी का ये खेल फुटबाल मैच के दौरान या 2-4 दिनों तक ही चला करता था जब तक की अगला मैच न आ जाय. फुटबाल मैच उन दिनों टीवी या मोबाइल पर नहीं बल्कि ग्राउंड पर देखे जाते थे और अगर टिकट नहीं मिल पाई तो ट्रांजिस्टर पर सुने जाते थे. हर क्रूशियल मैच की हार या जीत के बाद नया ट्रांजिस्टर खरीदना जरूरी होता था क्योंकि पिछला वाला तो मैच जीतने की खुशी या मैच हारने के गुस्से में शहीद हो चुका होता था. (फुटबाल में मोशाय गम नहीं मनाते बल्कि गुस्सा मनाते हैं.)

आज जब मिलन बाबू पश्चिम मध्य रेल्वे में अधिकारी हैं तो अपने ड्राइंग रूम के लार्ज स्क्रीन स्मार्ट टीवी पर सिर्फ फुटबाल मैच ही देखते हैं. नाम के अनुरूप मिलनसारिता कूट कूट कर भरी है और अपने हर दोस्त को और हर उस ईस्ट बंगाल क्लब के फैन को भी जो कोलकाता से दूर होने के कारण अब उनका दोस्त बन चुका है, उसके जन्मदिन, मैरिज एनिवर्सरी पर जरूर फोन करते हैं. अगर उनकी मित्र मंडली के किसी सदस्य के या उसके परिवार के साथ कोई हादसा होता तो भी फोन पर बात करके उसके दुःख में सहभागी बनने का प्रयास करते रहते थे.जब कभी कोलकाता जाना होता तो कम से कम ऐसे मित्रों से जरूर घर जाकर मिलते थे. मिलन मोशाय न केवल मिलनसार थे बल्कि अपने कोलकाता के दोस्तों से दिल से जुड़े थे. ये उनकी असली दुनियां थी जिसमें उनका मन रमता था. बाकी तो बस यंत्रवत काम करना, परिवार के साथ शॉपिंग और सिटी बंगाली क्लब के आयोजन में परिवार सहित भाग लेना उनके प्रिय शौक थे.

डॉक्टर मुखर्जी की सलाह पर उन्होंने टेबल टेनिस खेलना शुरु किया जिसमें एक्सरसाईज़ भी होती थी और मनोरंजन भी. यहां बने उनके कुछ मित्रों की सलाह पर प्रोग्रसिव जमाने के चालचलन को फालो करते हुये उन्होंने स्मार्ट फोन ले डाला और जियो की सिम के दम पर वाट्सएप ग्रुप के सदस्य बन गये.

जारी रहेगा :::

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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Select हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 20 – भीख ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – भीख।)

☆ लघुकथा – भीख श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

ऑफिस जाने की बहुत जल्दी मैं गोपाल ने चौराहे पर लाल बत्ती देखे कर  बहुत जोर से गुस्सा मैं बड़बड़ने लगा  पता नहीं क्यों लोग चौराहे पर खड़े हो जाते हैं।

10 वर्ष का लड़का उसके स्कूटर को पूछने लगा और उसने कहा कि साहब   ₹50 देकर पुण्य कमा लो।

गोपाल ने कहा मुझे अगर पुण्य कमाने का शौक होता तो मैं मंदिर में जाता यहां नहीं आता?

हरी बत्ती जलती हुई और वह गाड़ी स्टार्ट किया तभी उसके कान में एक संवाद सुनाई दिया तू भी धंधा में नया नया आया है स्कूटी की तरफ नहीं जाते हैं कार,बड़ी गाड़ी की तरफ जाते हैं वह लोग ही पैसे देते हैं यह लोग तो बस ऐसा ही ज्ञान देते हैं।

गोपाल को अपमानित सामाजिक श्रेष्ठता बौद्ध का दर्द ज्यादा दरिया दिल दिखाते हुए उसने उस लड़के को बुलाकर ₹100 दिए।

उस लड़के ने कहा बाबूजी आप ही अपना रुपया रख लो शायद आप के काम आए ऐसा कह कर जेब में डाल दिया।

अपनी भी विवशता थी और अपमान से हृदय छलनी हो गया था और उन्होंने तुरंत स्कूटर स्टार्ट करके अपने ऑफिस की ओर कूच किया।

गोपाल  ने सोचा-  पहले लोग भीख देने पर दुआ देते थे पर अब भिखारियों की भी तरक्की हो गई है उनका भी स्तर और ठाट बाट बढ़ गया है यह नौकरी से अच्छा  धंधा है…..।

तभी उसे बॉस ने अपने केबिन में बुलाया – ऑफिस आने का यही समय है क्या?

गोपाल -दोनों हाथ जोड़कर अपने बॉस से माफी की भीख मांगने लगा  सर मुझे कुछ आवश्यक कार्य के कारण आज ऑफिस आने में देर हो गई…..।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 189 – भरतांश – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “भरतांश”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 189 ☆

🌻 लघुकथा 🙏भरतांश🙏

आज त्रेता युग बीते बरसों हो गए हैं। परंतु राम भरत मिलाप की कथा जहाँ भी होती है। सभी के मन को भाव विभोर कर देता है।

द्वेष, अहंकार, घृणा, जलन, बिना वजह बुराई सब अवगुण आदमी के बहुत जल्दी उजागर होते हैं। परन्तु ममता, करुणा, दया, प्रेम, सहानुभूति, क्षमा, श्रद्धा, आदि सभी गुण मानव उभरने नहीं देता।

रथी और देव का विवाह बड़े ही धूमधाम और पारिवारिक माहौल में संपन्न हुआ। कहते हैं परिवार में सभी सदस्यों को खुश नहीं रखा जा सकता। कहीं ना कहीं चूक हो ही जाती है और यदि नहीं हुआ तो समझो उस विवाह का प्रचार जोर-शोर  से नहीं होता। 

रथी के भैया राघव ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ा था। अपनी बहन के विवाह की तैयारी में।

विवाह बहुत ही सुंदर और सादगी से संपन्न हुआ, परंतु किसी बात से असंतुष्ट रथी का पति ‘देव’ अपने ससुराल से इस कदर नफरत करने लगा कि उसने रथी का आना – जाना, बात-चीत और यहाँ तक के की राखी के पवित्र बंधन को भेजने से भी मना कर दिया।

समय बिता गया। राघव भी अपने आप में खुद्दार था। घर परिवार के लिए कहीं ना कहीं से रथी की सलामती का पता लगा लेता था, परंतु कभी कोई संबंध नहीं रखा। ताकि उसकी बहन सुखी रह सके ।

आज एक भागवत कथा पारिवारिक माहौल में संपन्न हो रहा था। सभी परिजन सुनने पहुंचे थे।ऊँचे आसन पर विराजमान पंडित आचार्य जी, भगवान ठाकुर जी की मूर्ति और भव्य पंडाल।

कथा चल रही थी… भगवान राम और भरत के मिलन की। कथा को पंडित जी ने ऐसा शमां बांध रखा था कि सभी नर नारी भाव- विभोर हो उनकी कथा श्रवण कर रहे थे।

रथी ने देखा की भैया तो कभी आगे बढ़कर कोई बात नहीं करेंगे और देव उसे कभी करने नहीं देगा। आज उसके मन में अजीब सा सवाल और भरत मिलाप की कथा का अंश हृदय में हिलोरे ले रहा था।

भरत मिलाप की कथा सुनाते पंडित जी स्वयं रो रहे थे और सारा पंडाल आँसुओं से तरबतर था।

इतनी भावपूर्ण कथा सभी शांति पूर्वक बैठे सुन रहे थे। अचानक रथी सामने से उठकर पीछे अपने भैया की ओर “भैयायययययययया” कहते हुए दौड़ पड़ी।

आँसुओं की धार से वह डूबी दौड़कर अपने भैया राघव के गले से जा लिपटी। राघव शुन्य सा ताकता रहा।  कुछ बात नहीं कर पाया और कुछ बात बिगड़ न जाए। चुपचाप खड़ा रहा।

आस-पास सभी रिश्तेदारों, परिवार वालों ने रथी के इस काम को अपने-अपने तरीके से बोलना सुनना आरंभ कर दिया। परंतु रथी और राघव समझ रहे थे कि बरसों का प्यार आज भरत- मिलाप की कथा सुनकर उमड़ पड़ा। कितना भी मनुष्य कठोर क्यों न हो उसे भी पिघला देता है।

दूर खड़े देव ने देखा भाई – बहन का प्यार निश्चल। बिना कसूर के वह उसे सजा दे रहा था। कई वर्षों बाद आज उसे राम – भरत मिलाप लगने लगा।

राघव ने दूर से देखा दोनों बाहें फैला दिया। चुपचाप देव आकर उसमें समा गया। बाकी चारों तरफ पुष्प वर्षा हो रही थी। कुछ अपने इसका फायदा लेते रथी देव और  राघव पर भी पुष्प वर्षा कर आनंद मना रहे थे।

आज भी मानव के मन में भरत जैसा ही करुणा प्रेम का अंश छुपा है। बस उसे समझने की जरूरत है।

बड़े बूढ़े अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक बात करने लगे। पंडित जी ने भी जयकारा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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