(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “पैती”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 182 ☆
☆ लघुकथा ❤️ पैती ❤️
सनातन धर्म के अनुसार कुश को साफ सुथरा कर मंत्र उच्चारण कर उसे छल्ले नुमा अंगूठी के रूप में बनाया जाना ही पैती कहलाता है। जिसे हर पूजा पाठ में सबसे पहले पंडित जी द्वारा, उंगली पर पहनाया जाता है और इसके बाद ही पूजन का कार्य चाहे, कोई भी संस्कार हो किया जाता है।
सुधा और हरीश यूँ तो जीवन में किसी प्रकार की कोई चीज की कमी नहीं थीं। धन-धान्य और सुखी -परिवार से समृद्ध घर- कारोबार और अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे।
सृष्टि की रचना कब कहाँ किस और मोड़ लेती है कहा नहीं जाता।
सुखद वैवाहिक जीवन के कई वर्षों के बीत जाने पर भी संतान की इच्छा पूरी नहीं हो पाई थी।
कहते देर नहीं लगी की कोई दोष होगा। घर की शांति पूजा – पाठ नाना प्रकार के उपाय करते-करते जीवन आगे बढ़ रहा था। कहीं ना कहीं मन में टीस बनी थी।
क्योंकि सांसारिक जीवन में सबसे पहले.. अरे आपके कितने… बाल गोपाल और कैसे हैं? समाज में यही सवाल सबसे पहले पूछा जाता है।
फिर भी अपने खुशहाल जिंदगी में मस्त दोस्तों से मेलजोल अपनों से मुलाकात और रोजमर्रा की बातें चलती जा रही थी।
समय पंख लगाकर उड़ता चला जा रहा था। कहते हैं देर होती है पर अंधेर नहीं। आज सुधा का घर फूलों की सजावट से महक रहा था।
चारों तरफ निमंत्रण से घर में सभी मेहमान आए थे। सभी को पता चला कि आज कुछ खास कार्यक्रम है।
पीले फूलों की पट्टी और उस पर छल्ले नुमा कुश से बने…. नाम लिखा था पैती।
नए जोड़ों की तरह दोनों का रूप निखर रहा था। मंत्र उच्चारण आरंभ हुआ। गोद में नन्हा सा बालक रंग तो बिल्कुल भी मेल नहीं खा रहा था। पर नाक नक्श और सुंदर कपड़ों से सजे बच्चों को लेकर सुधा छम छम करती निकली।
फूलों की बरसात होने लगी सभी को समझते देर ना लगी कि सुधा और हरीश ने किसी अनाथ बच्चों को गोद लेकर उसे अपने पवित्र घर मंदिर और अपने हाथों की पैती बना लिया।
जितने लोग उतनी बातें परंतु पैती आज अपने मम्मी- पापा के हाथों में पवित्र और निर्मल दिखाई दे रहा था।
सुधा की सुंदरता बच्चे के साथ देव लोक में अप्सरा की तरह दिखाई दे रही थी। ममता और वात्सल्य से गदगद वह सुर्ख लाल छुई-मुई लग रही थी।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “मेरी अपनी कसौटी”।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ – मेरी अपनी कसौटी– ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
मैंने एक दिन भगवान पर क्रोधित हो कर उससे कहा था, “यह क्या भगवान, जब भी देखता हूँ तुम मुझे परेशानी की भट्टी में झोंकते रहते हो।” भगवान ने झट से कहा था, “तुम्हारी परेशानी का सारा जाला समेट लेता हूँ। भूत बन कर खाली – खाली बैठे रहना।” मैंने भगवान से हार मान कर क्षमा मांगते हुए कहा था, “सब यथावत रहने दो भगवान। मैं परेशानियों के बिना जी नहीं पाऊँगा।”
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अपनी ताकत।)
हेलो आपकी बड़ी मीठी आवाज है, मैं आपको नहीं पहचान पाई। आप कौन मुझे माफ करना सरला जी ने बड़ी सरलता पूर्वक कहा।
दीदी आप से मुलाकात हुई बहुत दिन हो गए आज जो आपके ऑफिस में मीटिंग हैं उसमें मैं भी हूं आप आ रही है न ।
हां एक कांफ्रेंस तो मेरे ऑफिस में होने वाली है?
हां दीदी मैं समृद्धि राय) पीहू हूं।
अरे पीहू बेटा कैसी हो? सुना तुमने बहुत तरक्की कर ली वह जो बड़ा मॉल खुला है अब तुम्हारे भी उसमें आधे शेयर हो गए हैं मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है। आज तबीयत ठीक नहीं थी मीटिंग में नहीं आने वाली थी लेकिन आज ऑफिस तुमसे मिलने के लिए जरूर आऊंगी।
दीदी बहुत अच्छा लगेगा आप के आशीर्वाद से ही मैं इतनी आगे बढ़ चुकी हूं मीटिंग शुरू होने से थोड़ा पहले आप आ जाएंगी तो अच्छा रहेगा। हम लोग बात कर लेंगे क्योंकि मीटिंग के दौरान अपनी पर्सनल बातें नहीं हो पाएगी।
ओके तो सुबह 9:00 बजे मिलते हैं, सरला जी ने कहते हुए फोन रखा और अपने दैनिक काम को जल्दी से निपटाने लगी और अपने ड्राइवर को बुलाकर कहा कि आज छुट्टी नहीं है मुझे ऑफिस लेकर जल्दी चलो।
ठीक है मैडम पर आप तो आज मंदिर जाने को कह रही थी? नहीं मंदिर बाद में चली जाऊंगी ऑफिस में थोड़ा काम है तुम रुकना।
सरला जी 9:00 बजे ऑफिस पहुंची। ऑफिस में साफ सफाई चल रही थी मैडम कॉन्फ्रेंस तो 11:00 बजे से है आप इतनी जल्दी आ गई? हां, मैं थोड़ा जल्दी आ गई आज की मीटिंग की तैयारी करनी है वही देख रही हूं?
बेचारी सरला जी इधर से उधर घूमती रही और उनका मन किया कि पीहू को फोन करे, जिस नंबर पर आया था कि तुम कहां रह गई। तभी उनके बॉस और सभी लोग आने लगें । उनके बॉस ने कहा-मीटिंग में एक मैडम आई हैं उनका नाम समृद्धि राय (पीहू) वह कह रही थी आप उन्हें जानती हैं।
जी सर पर मैडम आई नहीं ।
मैडम होटल में रुकी हैं उनको लेने के लिए गाड़ी भेज दीजिए?
जी सर सरला जी ने कहा।
आप दरवाजे पर फूल लेकर खड़े हो जाइए जब मैडम आएंगी तो आप उनका स्वागत यह फूलों की माला पहनाकर करिएगा जिससे उस मॉल में हमारे ऑफिस में बनाए हुए प्रोडक्ट अच्छे से बिक सके, ध्यान रखिएगा। जी सर कहते हुए सरला जी कुछ उधेड़बुन में लगी थी तभी पीहू आई ।
कैसी हैं आप बहुत दिन हो गया ।
सरला जी ने उनके गले में माला डाली और कहा बस आपका इंतजार कर रहे हैं ।
पीहू सरला जी को एक अभिमान भरी निगाह से देख रही थी और सभी लोग उससे पूछ रहे थे, मैडम आप चाय लेंगी या कुछ ठंडा मंगवाए। वह घमंड से सब की ओर देख रही थी और कह रही थी कि मुझे कुछ नहीं चाहिए आप लोग मीटिंग शुरू करिए और पेपर दिखाइए सरला मैडम। सरला जी को अंदर ही अंदर बहुत बुरा लग रहा था पर अपने नाम की तरह ही व सरल थी वह उठकर गई और मन ही मन यह समझ चुकी थी कि इससे पुराने बॉस ने काम ना आने के कारण ऑफिस से निकाला था सब दिन एक समान नहीं होता है।
— आप ना उन नेताओं की हिमायत न किया करें जो माँसाहारी हैं — शैवाल ने माँ से कहा।
— देखो बेटा ताजा दौर में कोई भी जानकारी किसी से छिपी नहीं है। केवल भारत में ही 80% माँसाहारी हैं। ऐसे में हिंसा और अहिंसा को लेकर क्या कहा जाये। बहुत बारीक सी रेखा है दोनों के बीच। क्या उन करीबी रिश्तों को इस बुनियाद पर खारिज किया जा सकता है कि वे माँसाहारी हैं? सारी दुनिया में धड़ल्ले से मांसाहार चल रहा है। प्राणियों की खेती होती है।
दवा के प्रयोग के लिये प्राणियों पर होने वाले जघन्य अत्याचारों को लेकर क्या सोचते हो। कत्लखाने और बीफ निर्यात हमारी भावनाओं से रुकेगा ?
— माॅम ! चलिए दूसरी बात करते हैं। अब तो वीगनिज़्म भी चल पड़ा है।
— तुम अपनी कहो। दूध के पदार्थों के बिना रह सकोगे।
— मैं बस इतना जानता हूं कि हम एक भी जीव को बचा सके तो धरती पर एहसान होगा।
— क्या इतना काफी नहीं कि हम शुद्ध शाकाहारी हैं।
— नहीं। हमें शब्दों में भी नैतिक बल भरना होगा। इतना तो कर ही सकते हैं।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी एक विचारणीय लघुकथा –“वैलेंटाइन दिवस“.)
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बदलाव की बयार।)
दुकान में एक गरीब औरत अपने बच्चे को गोदी में लेकर एक मैली सी साड़ी पहनी हुई सेठ जी के सामने खड़ी हो गई।
उसे देखकर दुकान के मालिक ने कहा – बहन जी आगे जाओ मैं दान देकर थक गया हूं सुबह से अभी तक दुकान में किसी ग्राहक ने कोई सामान की खरीदी नहीं की है?
– कोई बात नहीं सेठ जी आप अपने नौकर से कहिए, मुझे एक अच्छी सी साड़ी दिखाये। मेरे भाई की शादी है मुन्ना के लिए भी कपड़ा लेना है?
तभी सामने से दो नौकर (दुकान के कर्मचारी) आए और उन्होंने कहा – आप यहां पर आ जाइए और इनमें से जो भी आपको अच्छा लगे वह पसंद कर लीजिए। पहले आप यह बताइए कि आपको साड़ी कितने दाम की चाहिए?
– जो सामने गुलाबी वाली रखी है वह कितने की है?
– ये 800 की है क्या इतनी महंगी साड़ी ले पाओगी?
– हां ठीक है पैक कर दो।
– अपने बेटे का कपड़ा लेकर तुरंत काउंटर के पास गई और बोली कपड़े का कितना पैसा हुआ?
सेठ जी ने कहा – बहन जी आपके कपड़े देखकर मुझे लगा कि आप क्या खरीदोगी, जिनके कपड़े देखकर हम लोग दुकान का सारा सामान अच्छा दिखा रहे हैं उनके मुंह देखिए? इन्हें समय की कीमत भी नहीं पता है? इन सब मैडम लोगों को तो दोपहर का टाइम पास करना है।
– अभी मुझे काम पर भी जाना है।
– ठीक बात है बहन आप जब भी कपड़े लेने आओगी मैं आपको डिस्काउंट दूंगा और आप बच्चे का कपड़ा मेरी ओर से उपहार समझ के ले जाइए। आपसे सिर्फ ₹800 ही लेंगे।
– एक काम करने वाला ही दूसरे काम करने वाले की कीमत और समय की कीमत को समझ सकता है।
तभी दुकान में कुछ महिला जो बैठी थी वह एक दूसरे से कहती हैं- चलो! बहना हम चलते अपनी बेइज्जती करने के लिए थोड़ा ना बैठे हैं?
और वे अपनी कार में बैठकर चली जाती है ।
सेठ जी ने बड़ी कृतज्ञता से उस गरीब औरत से कहते हैं – बहन चाय पी लो ।
वह कहती है – नहीं भाई अगले बार आकर पियेंगे अब तो हमारा रिश्ता बन गया है । पेट के लिए भाई बहुत कुछ करना पड़ता है घायल की गति घायल ही जाने…. ।
हमारा शहर अब स्मार्ट सिटी बन गया है इसलिए यह सब मैडम जी लोग के लिए नदी के किनारे नगर पालिका द्वारा एक कैमरा लगा दिया गया है।
माननीय विधायक जी ने ऐलान किया है की जो बहन सबसे सुंदर दिखेगी उसे इनाम दिया जाएगा ।
उसी दौड़ में सब शामिल हैं। सौंदर्यीकरण शहर का हो रहा है लोग भी बदलाव की बयार में बह रहे हैं।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “अखंड सुहागन”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 181 ☆
☆ लघुकथा 🚩अखंड सुहागन🚩
सुहागन कहने से नारी का दमकता हुआ मुखड़ा माँथे पर तेज चमकती लाल बिंदी, माँग भरी सिंदूर की रेखा।
भवानी जगदंबा का मंदिर गुप्त नवरात्रि पर्व को जानने, समझने पूजन अर्चन करने सभी भक्त कतारों पर लगे भगवती की आराधना में लीन थे।
सखियों के साथ रश्मि जी, क्या कहें जैसा नाम वैसा रूप गुण और एक आकर्षक व्यक्तित्व की धनी। चेहरे पर तेज नैनों में ममता से भरी दो पुतलियां चारों तरफ निगाह… 🙏 सर्वे भवंतु सुखिनः की मनोकामना लिए सुहागले पूजन करने माँ भवानी के दरबार में पूरे विधि- विधान से पहुंच गई सखियों के साथ।
मंदिर प्रांगण में कई और भी मातृ- शक्तियों की टोलियाँ अपने-अपने समूह में सुहागले पूजा कर रही थी।
नारी की चंचलता और धरा की सुंदरता की कोई सीमा नहीं होती। पूजन का कार्यक्रम सभी सखियों के साथ विधि- विधान से हो रहा था।
आरती कर भोजन प्रसाद ग्रहण करने के समय!एक आकर्षक नयन नक्श वाली महिला, रंग गहरा काला, एक झोली पर कुछ लाल चुनरियाँ और गोद में एक अबोध मासूम बच्ची लिए धीरे-धीरे पास आते दिखी।
चुनरियाँ ले लो, चुनरियाँ ले लो,माई सुहागन चुनरियाँ ले लो।मै भी एक सुहागन हूँ।
छोटे बड़े भिन्न-भिन्न साइज की लाल – लाल चुनरी सब सखियों का मन मोह रही थी।
अचानक रश्मि ने अपनी भोजन की थाली से मुँह में जाती कौर को रोक कर देखने लगी।
यह कैसी सुहागन न मांग में सिंदूर न माँथे पर बिन्दीं। गोद में बच्ची और दुआएँ सदा सुहागन दे रही। अपने को सुहागन बता रही है।
वह उसे बिना पलक झपकाए देखती रही। डिब्बों से पूरा भोजन प्रसाद देते… उसके मन में विचार उठ रहा था कि?? क्या इनके साथ सुहागले पूजा नहीं होती होगी।
चुनरी वाली महिला अपने आप में बोले जा रही थी…. मैं कब सुहागन बनी पता नहीं चला, परंतु गोद में बच्ची आने पर माँ जरूर बन गई।
आंँखें चार होते देर ना लगी। जयकारा लगाते सभी बस में बैठ गंतव्य घर की ओर चल पड़े। रश्मि ने माता भगवती से दोनों कर जोड़ चुपके से प्रार्थना करती दिखीं… गालों पर अश्रुं मोती लुढ़क आये।
हे जगदंबिके सब की झोली भरना🙏 सभी को खुश सुहागन रखना।
उनकी प्रार्थना और बस से दूर जाती आवाज… चुनरी ले लो माता की की चुनरी ले लो!!!!! आप भी इस बात पर विचार करें।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – ‘दुनियादारी‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 228 ☆
☆ कहानी – दुनियादारी ☆
विपिन भाई के पैरों के नीचे से जैसे ज़मीन खिसक गयी। दस दिन की बीमारी में ही पत्नी दुनिया से विदा हो गयी। दस दिन में विपिन भाई की दुनिया उलट-पुलट हो गयी। पहले एक हार्ट अटैक और फिर अस्पताल में ही दूसरा अटैक। विपिन भाई के लिए वे पन्द्रह दिन दुःस्वप्न जैसे हो गये। लगता था जैसे अपनी दुनिया से उठ कर किसी दूसरी भयानक दुनिया में आ गये हों।
विपिन भाई सुशिक्षित व्यक्ति थे। जीवन की क्षणभंगुरता और अनिश्चितता को समझते थे। कई धर्मग्रंथों को पढ़ चुके थे और जानते थे कि जीवन अपनी मर्जी के अनुसार नहीं चलता, खासकर अपने से अन्य प्राणियों का। लेकिन यह अनुभव कि जिस व्यक्ति के साथ पैंतीस वर्ष गुज़ार चुके हों, जिसे संसार के पेड़-पौधों,ज़र-ज़मीन, नातों-रिश्तों से भरपूर प्यार हो, वह अचानक सबसे विमुख हो इस तरह अदृश्य हो जाएगा, हिला देने वाला था। लाख कोशिश के बावजूद विपिन इस आघात से दो-चार नहीं हो पा रहे थे।
विपिन भाई अपने घर में अपने दुख को लेकर भी नहीं बैठ सकते थे क्योंकि उनके दुख का प्रकट होना उनके बेटे बेटियों के दुख को बढ़ा सकता था। इसलिए वे सायास सामान्यता का मुखौटा पहने रहते थे ताकि बच्चे उनकी तरफ से निश्चिंत रह सकें।
पत्नी की मृत्यु के बाद कर्मकांड का सिलसिला चला। अब तेरहीं के साथ बरसी निपटाने का शॉर्टकट तैयार हो गया है ताकि वर्ष में शुभ कार्य चलते रहें। आजकल के नौकरीपेशा लड़कों के लिए तेरहीं तक रुकने का वक्त नहीं होता, पंडित जी से मृत्यु के तीन-चार दिन के भीतर सब कृत्य निपटाने का अनुरोध होता है। विपिन भाई के लिए यह सब अटपटा था, लेकिन यंत्रवत इन कामों के विशेषज्ञों के निर्देशानुसार करते रहे।
विपिन की पत्नी की मृत्यु का समाचार पढ़कर बहुत से लोग आये। कुछ सचमुच दुख- कातर, कुछ संबंधों के कारण रस्म-अदायगी के लिए। कहते हैं न कि धीरज,धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा विपत्ति में होती है। कुछ लोग देर से आये, कारण अखबार में सूचना पढ़ने से चूक गये या शहर से बाहर थे। जो नहीं आये उनके नहीं आने का विपिन भाई ने बुरा नहीं माना। ज़िन्दगी के सफर में जो जितनी दूर तक साथ आ जाए उतना काफी मानना चाहिए। ज़्यादा की उम्मीद करना नासमझी है।
विपिन भाई अब नई स्थितियों से संगति बैठा रहे थे और पुरानी स्मृतियों को बार-बार कुरेदने से बचते थे। पत्नी का प्रसंग घर में उठे तो उसे ज़्यादा खींचते नहीं थे, अन्यथा बाद में अवसाद घेरता था। अब भी सड़क पर चलते कई ऐसे लोग मिल जाते थे जो सड़क पर ही सहानुभूति जता लेना चाहते थे। फिर वही बातें कि सब कैसे हुआ, कहाँ हुआ, फिर अफसोस और हमदर्दी। विपिन को ऐसे राह-चलते ज़ख्म कुरेदने वालों से खीझ होती थी। जब घर नहीं आ सके तो राह में मातमपुर्सी का क्या मतलब?
एक व्यक्ति जिसका न आना उन्हें कुछ खटकता था वह दयाल साहब थे। एक सरकारी विभाग में बड़े अफसर थे। मुहल्ले के कोने पर उनका भव्य बंगला था। दुनियादार आदमी थे। शहर के महत्वपूर्ण आयोजनों में वे ज़रूर उपस्थित रहते थे। फेसबुक पर रसूखदार लोगों के साथ फोटो डालने का उन्हें ज़बरदस्त शौक था। विपिन को भी अक्सर सुबह पार्क में मिल जाते थे।
मुस्कुराकर अभिवादन करते। जब उनका प्रमोशन हुआ तब उन्होंने घर पर पार्टी का आयोजन किया था। विपिन को भी आमंत्रित किया था। हाथ मिलाते हुए सब से कह रहे थे, ‘क्लास वन में आ गया हूँ।’
कुछ दिन बाद वे विपिन के घर आ गये थे। बोले, ‘नयी कार खरीदी है। आइए, थोड़ी राइड हो जाए।’ मँहगी गाड़ी थी। रास्ते में बोले, ‘नये स्टेटस के हिसाब से पुरानी गाड़ी जम नहीं रही थी, इसलिए यह खरीदी।’ फिर हँसकर बोले, ‘लोन पर खरीदी है ताकि इनकम टैक्स का नोटिस न आ जाए। वैसे पूछताछ तो अभी भी होगी।’
विपिन की पत्नी की मृत्यु के बाद दयाल साहब अब तक विपिन के घर नहीं आये थे। विपिन को कुछ अटपटा लग रहा था। एक दिन जब वे स्कूटर पर दयाल साहब के बंगले से गुज़र रहे थे तब वे गेट पर नज़र आये, लेकिन विपिन को देखते ही गुम हो गये। एक और दिन वे विपिन को एक मॉल में नज़र आये, लेकिन उन्हें देखते ही वे भीड़ में ग़ायब हो गये। विपिन को इस लुकाछिपी का मतलब समझ में नहीं आया।
दिन गुज़रते गये और विपिन की पत्नी की मृत्यु को लगभग दो माह हो गये। परिवार अब बहुत कुछ सामान्य हो गया था। अब मातमपुर्सी के लिए किसी के आने की संभावना नहीं थी। विपिन चाहते भी नहीं थे कि अब कोई उस सिलसिले में आये।
उस शाम विपिन ड्राइंग रूम में थे कि दरवाज़े की घंटी बजी। खुद उठकर देखा तो दरवाज़े पर दयाल साहब थे। हल्की ठंड में शाल लपेटे। सिर पर बालों वाली टोपी। बगल में पत्नी। बिना एक शब्द बोले दयाल साहब, आँखें झुकाये, विपिन के बगल से चलकर अन्दर सोफे पर बैठ गये। घुटने सटे, हथेलियाँ घुटनों पर और आँखें झुकीं। पाँच मिनट तक वे मौन, आँखें झुकाये, बीच बीच में लंबी साँस छोड़ते और बार बार सिर हिलाते, बैठे रहे। उनके बगल में उनकी पत्नी भी मौन बैठी थीं। विपिन भाई भी स्थिति के अटपटेपन को महसूसते चुप बैठे रहे।
पाँच मिनट के सन्नाटे के बाद दयाल जी ने सिर उठाया, करुण मुद्रा बनाकर बोले, ‘इसे कहते हैं वज्रपात। इससे बड़ी ट्रेजेडी क्या हो सकती है। जिस उम्र में पत्नी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है उसी उम्र में उनका चले जाना। बहुत भयानक। हॉरिबिल।’
विपिन भाई को उनकी मुद्रा और बातों से तनाव हो रहा था। वे कुछ नहीं बोले।
दयाल साहब बोले, ‘मैंने तो जब सुना, मैं डिप्रेशन में चला गया। आपकी मिसेज़ को पार्क में घूमते देखता था। शी लुक्ड सो फिट, सो चियरफुल। मैंने तो इनसे कह दिया कि दुनिया जो भी कहे, मैं तो अभी दस पन्द्रह दिन विपिन जी के घर नहीं जा पाऊँगा। मुझ में हिम्मत नहीं है। आई एम वेरी सेंसिटिव। इस शॉक से बाहर आने में मुझे टाइम लगेगा।’
वे फिर सिर झुका कर खामोश हो गये। विपिन भाई उनकी नौटंकी देख खामोश बैठे थे। उन्हें लग रहा था कि यह जोड़ा यदि आधा पौन घंटा और बैठा तो उनका ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगेगा। लेकिन दयाल साहब उठने के मूड में नहीं थे। वे अपनी अभी तक की अनुपस्थिति की पूरी सफाई देने और उसकी भरपाई करने के इरादे से आये थे। अब उन्होंने अपने उन मित्रों-रिश्तेदारों के किस्से छेड़ दिये थे जो विपिन की पत्नी की ही तरह हार्ट अटैक की चपेट में आकर दिवंगत हो गये थे या बच गये थे।
समय लंबा होते देख विपिन ने औपचारिकतावश चाय के लिए पूछा तो दयाल जी ने हाथ उठाकर जवाब दिया, ‘अरे राम राम, अभी चाय वाय कुछ नहीं। चाय पीने के लिए फिर आएँगे।’ समय बीतने के साथ विपिन का दिमाग पत्थर हो रहा था। तनाव बढ़ रहा था। यह मुलाकात उनके लिए सज़ा बन गयी थी।
पूरा एक घंटा गुज़र जाने के बाद दयाल साहब ने एक लंबी साँस छोड़ी और फिर खड़े हो गये। विपिन भाई की तरफ दुखी आँखों से हाथ जोड़े और धीरे-धीरे बाहर की तरफ चले। विपिन भाई उनके पीछे पीछे चले। दरवाज़े पर पहुँचकर दयाल साहब मुड़े और विपिन भाई के कंधे से लग गये। बोले, ‘विपिन भाई, हम आपके दुख में हमेशा आपके साथ हैं। यू कैन ऑलवेज़ डिपेंड ऑन मी। आधी रात को भी बुलाओगे तो दौड़ा चला आऊँगा। आज़मा लेना।’
वे इतनी देर चिपके रहे कि विपिन का दम घुटने लगा। अलग हुए तो विपिन की साँस वापस आयी। विदा करके विपिन भाई वापस कमरे में आये तो थके से सोफे पर बैठ गये। हाथ से माथा दबाते हुए बेटी से बोले, ‘ये लोग अब क्यों आते हैं? इन्हें समझ में नहीं आता कि ये पहले से ही परेशान आदमी पर अत्याचार करते हैं। ये कैसी हमदर्दी है?’
फिर बोले, ‘मुझे एक सरदर्द की गोली दे दो और थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ दो।’
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी एक विचारणीय लघुकथा –“हिंदुस्तानी नीरो“.)
☆ लघुकथा – हिंदुस्तानी नीरो☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
यूक्रेनियों ने रसियन स्टॉर्म जी की यूनिट को 12 घंटे के लंबे ऑपरेशन में लगभग 1800 मीटर तक खदेड़ दिया-मोबाइल पर समाचार आ रहा था।
कोई हिंदुस्तानी नीरो नीम की छांव में लेट कर बांसुरी बजा रहा था।
हंसकर बोला – सालों से चल रहे इस भयानक युद्ध में पीछे और पीछे घिसटते हुए यूक्रेन ने यदि कुछ मीटर पीछे खदेड़ दिया तो क्या यह छोटी-मोटी कामयाबी है। उसके हौसले की दाद देनी चाहिए। कहकर हिंदुस्तानी नीरो फिर बांसुरी बजाने लगा।
कहते हैं कभी रोम जल रहा था और कोई नीरो हीरो बना बांसुरी बजा रहा था। उससे कहीं तो हिंदुस्तानी नीरो ज्यादा अच्छा निकला जो एक पिछड़ते देश को मिली छोटी सी कामयाबी पर बांसुरी बजाकर उसकी हौसला अफजाई कर रहा था।
निराशा में आशा के दो बोल भी बहुत मददगार बनते हैं। जीतने वाले की प्रशंसा तो हर कोई करता है पर हारे हुए की बैसाखी बनना छोटी-मोटी इंसानियत नहीं है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अति सुंदर बाल कथा – “घमंडी सियार”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 160 ☆
उस ने अपने से तेज़ दौड़ने वाला जानवर नहीं देखा था. चूँकि वह घने वन में रहता था. जहाँ सियार से बड़ा कोई जानवर नहीं रहता था. इस वजह से सेमलू समझता था कि वह सब से तेज़ धावक है.
एक बार की बात है. गब्बरू घोड़ा रास्ता भटक कर काननवन के इस घने जंगल में आ गया. वह तालाब किनारे बैठ कर आराम कर रहा था. सेमलू की निगाहें उस पर पड़ गई. उस ने इस तरह का जानवर पहली बार जंगल में देखा था. वह उस के पास पहुंचा.
“नमस्कार भाई!”
“नमस्कार!” आराम करते हुए गब्बरू ने कहा, “आप यहीं रहते हो?”
“हाँ जी,” सेमलू ने जवाब दिया, “मैं ने आप को पहचाना नहीं?”
“जी. मुझे गब्बरू कहते हैं,” उस ने जवाब दिया, “मैं घोड़ा प्रजाति का जानवर हूँ,” गब्बरू ने सेमलू की जिज्ञासा को ताड़ लिया था. वह समझ गया था कि इस जंगल में घोड़े नहीं रहते हैं. इसलिए सेमलू उस के बारे में जानना चाहता है.
“यहाँ कैसे आए हो?”
“मैं रास्ता भटक गया हूँ,” गब्बरू बोला.
यह सुन कर सेमलू ने सोचा कि गब्बरू जैसा मोताताज़ा जानवर चलफिर पाता भी होगा या नहीं? इसलिए उस नस अपनी तेज चाल बताते हुए पूछा, “क्या तुम दौड़भाग भी लेते हो?”
“क्यों भाई , यह क्यों पूछ रहे हो?”
“ऐसे ही,” सेमलू अपनी तेज चाल के घमंड में चूर हो कर बोला, “आप का डीलडोल देख कर नहीं लगता है कि आप को दौड़ना आता भी होगा?”
यह सुन कर गब्बरू समझ गया कि सेमलू को अपनी तेज चाल पर घमंड हो गया है इसलिए उस ने जवाब दिया, “भाई! मुझे तो एक ही चाल आती है. सरपट दौड़ना.”
यह सुन कर सेमलू हंसा, “दौड़ना! और तुम को. आता भी है या नहीं? या यूँ ही फेंक रहे हो?”
गब्बरू कुछ नहीं बोला. सेमलू को लगा कि गब्बरू को दौड़ना नहीं आता है. इसलिए वह घमंड में सर उठा कर बोला, “चलो! दौड़ हो जाए. देख ले कि तुम दौड़ सकते हो कि नहीं?”
“हाँ. मगर, मेरी एक शर्त है,” गब्बरू को जंगल से बाहर निकलना था. इसलिए उस ने शर्त रखी, “हम जंगल से बाहर जाने वाले रास्ते की ओर दौड़ेंगे.”
“मुझे मंजूर है,” सेमलू ने उद्दंडता से कहा, “चलो! मेरे पीछे आ जाओ,” कहते हुए वह तेज़ी से दौड़ा.
आगेआगे सेमलू दौड़ रहा था पीछेपीछे गब्बरू.
सेमलू पहले सीधा भागा. गब्बरू उस के पीछेपीछे हो लिया. फिर वह तेजी से एक पेड़ के पीछे से घुमा. सीधा हो गया. गब्बरू भी घूम गया. सेमलू फिर सीधा हो कर तिरछा भागा. गब्बरू ने भी वैसा ही किया. अब सेमलू जोर से उछला. गब्बरू सीधा चलता रहा.
“कुछ इस तरह कुलाँचे मारो,” कहते हुए सेमलू उछला. मगर, गब्बरू को कुलाचे मारना नहीं आता था. ओग केवल सेमलू के पीछे सीधा दौड़ता रहा.
“मेरे भाई, मुझे तो एक ही दौड़ आती है. सरपट दौड़,” गब्बरू ने पीछे दौड़ते हुए कहा तो सेमलू घमंड से इतराते हुए बोला, “यह मेरी लम्बी छलांग देखो. मैं ऐसी कई दौड़ जानता हूँ.” खाते हुए सेमलू ने तेजी से दौड़ लगाईं.
गब्बरू पीछेपीछे सीधा दौड़ता रहा. सेमलू को लगा कि गब्बरू थक गया होगा, “क्या हुआ गब्बरू भाई? थक गए हो तो रुक जाए.”
“नहीं भाई, दौड़ते चलो.”
सेमलू फिर दम लगा कर दौड़ा. मगर, वह थक रहा था. उस ने गब्बरू से दोबारा पूछा, “गब्बरू भाई! थक गए हो तो रुक जाए.”
“नहीं. सेमलू भाई. दौड़ते चलो.” गब्बरू अपनी मस्ती में दौड़े चले आ रहा था.
सेमलू दौड़तेदौड़ते थक गया था. उसे चक्कर आने लगे थे. मगर, घमंड के कारण, वह अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहता था. इसलिए दम साधे दौड़ता रहा. मगर, वह कब तक दौड़ता. चक्कर खा कर गिर पड़ा.
“अरे भाई! यह कौनसी दौड़ हैं?” गब्बरू ने रुकते हुए पूछा.
सेमलू की जान पर बन आई थी. वह घबरा गया था. चिढ कर बोला, “यहाँ मेरी जान निकल रही है. तुम पूछ रहे हो कि यह कौनसी चाल है?” वह बड़ी मुश्किल से बोल पाया था.
“नहीं भाई, तुम कह रहे थे कि मुझे कई तरह की दौड़ आती है. इसलिए मैं समझा कि यह भी कोई दौड़ होगी,” मगर सेमलू कुछ नहीं बोला. उस की सांसे जम कर चल रही थी. होंठ सुख रहे थे. जम कर प्यास लग रही थी.
“भाई! मेरा प्यास से दम निकल रहा है,” सेमलू ने घबरा कर गब्बरू से विनती की, “मुझे पानी पिला दो. या फिर इस जंगल से बाहर के तालाब पर पहुंचा दो. यहाँ रहूँगा तो मर जाऊंगा. मैं हार गया और तुम जीत गए.”
गब्बरू को जंगल से बाहर जाना था. इसलिए उस ने सेमलू को उठा के अपनी पीठ पर बैठा लिया. फिर उस के बताए रास्ते पर सरपट दौड़ाने लगा, कुछ ही देर में वे जंगल के बाहर आ गए.
सेमलू गब्बरू की चाल देख चुका था. वह समझ गया कि गब्बरू लम्बी रेस का घोडा है. यह बहुत तेज व लम्बा दौड़ता है. इस कारण उसे यह बात समझ में आ गई थी कि उसे अपनी चाल पर घमंड नहीं करना चाहिए. चाल तो वही काम आती है जो दूसरे के भले के लिए चली जाए. इस मायने में गब्बरू की चाल सब से बढ़िया चाल है.
यदि आज गब्बरू ने उसे पीठ पर बैठा कर तेजी से दौड़ते हुए तालाब तक नहीं पहुँचाया होता तो वह कब का प्यास से मर गया होता. इसलिए तब से सेमलू ने अपनी तेज चाल पर घमंड करना छोड़ दिया.