हरे भरे खेत से कुछ दूर, चिड़िया, कौए, तोते, मुनिया, मैना और दूसरे पक्षी चिन्तामग्न दिखाई दिए। एक बुद्धिजीवी जो पक्षियों की भाषा जानता था,वहां से गुजर रहा था।
उसने उनसे कहा—कितने डरे हुए और चिन्तित हो तुम ? बात क्या है ?
अरे! खेत में खड़ा है वो “बिजूका” है।
उसके भेजे में भूसा है।
कपड़े भी दूसरे के हैं।
हाथ पाँव, आँखें – सब कुछ नकली है !
उसकी मूंछें भी !
एक कौआ जो बड़ी देर से सुन रहा था, बोला–‘—-”’–“और तुम”—–?
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘तुम संस्कृति हो ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 132 ☆
☆ लघुकथा – तुम संस्कृति हो ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
शादी की भीड़ -भाड़ में अचानक मेरी नजर उस पर पड़ी- ‘अरे! यह तो संस्कृति है शायद? पर वह कैसे हो सकती है?’ मेरा मन मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था। चेहरा तो मिल रहा है लेकिन रहन–सहन? भला कोई इतना कैसे बदल सकता है? हाँ, यह सुना था कि वह विदेश में है और वहीं उसने शादी भी कर ली है। हम साथ ही पढ़े थे। स्कूल से निकलने पर कुछ सहेलियां छूट जाती थीं और कॉलेज के बाद तो कौन कहाँ गया, किसकी कहाँ शादी हुई, कुछ अता-पता ही नहीं रहता था। उस समय ‘फेसबुक’ तो थी नहीं। फिर से ध्यान उसकी ओर ही चला गया। तब तक उसने ही मुझे देख लिया, बड़ी नफासत से मुझसे गले मिली – ‘हाय निशा, बहुत अच्छा लगा यार तुम मिल गईं, कहाँ रहती हो तुम ? कितने सालों बाद हम मिल रहे हैं ना!‘ ना जाने कितनी बातें उसने उस पल बोल दीं। उसके पास से परफ्यूम की तेज गंध आ रही थी। चेहरे पर मेकअप की गहरी परत चढ़ी हुई थी जिससे वह अपनी उम्र छुपाने की भरसक कोशिश कर रही थी। स्टाइलिश बालों पर परमानेंट कलर किया हुआ था। अंग्रेजी के लहजे में हिंदी बोलती हुई वह बहुत बनावटी लग रही थी। मैं अब भी मानों सकते में थी, हिचकिचाते हुए मैंने धीरे से पूछ ही लिया – ‘तुम संस्कृति ही हो ना?’ उसे झटका लगा – ‘अरे! पहचाना नहीं क्या मुझे?’ मैंने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा – ‘बहुत बदल गई हो तुम, मेरे दिमाग में कॉलेज वाली सीधी – सादी संस्कृति का चेहरा बसा हुआ था।‘
वह खिलखिला कर हँस पड़ी – ‘यार! पर तुम वैसी की वैसी रहीं, ना लुक्स में बदलीं, ना सोच में। मैं बीस साल से कनाडा में रहती हूँ, जैसा देश वैसा भेष। मैंने नाम भी बदल लिया मुझे सब सैंडी बुलाते हैं, अच्छा है ना?’ मैंने ओढ़ी हुई मुस्कान के साथ कहा –‘हाँ, तुम पर सूट कर रहा है। अपने बच्चों को हिंदी सिखाई है?’ – मैंने पूछा। उसे मेरा प्रश्न बेमानी लगा, बोली – ‘क्या करेंगे हिंदी सीखकर? कौन- सा अब उन्हें यहाँ वापस आना है।‘
वह बोलती जा रही थी और मुझे उसके माता -पिता याद आ रहे थे, जो हमेशा अपना देश, बोली-भाषा, खान-पान में देसीपन के इर्द-गिर्द जिया करते थे। बच्चों को अपना देश, अपनी माटी के संस्कार दिए थे उन्होंने। खरे देसीपन के वातावरण में पली–बढ़ी संस्कृति सैंडी क्यों बन गई?
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – नजरबट्टू।)
शर्बरी सुबह कॉलेज जा रही थी तभी रास्ते में पाखी और शंन्मुखा से मुलाकात हो जाती है।
अरे वाह आज कितना बढ़िया हुआ हम सभी सहेलियां एक साथ कॉलेज जा रही हैं। आज सुबह से मैं तुम लोगों को याद कर रही थी आज तो मेरी सब इच्छा पूरी हो रही है, हम सभी ऑटो से चलते हैं।
तभी उन्हें कुछ दूर पर रास्ते में कालिंदी दीदी रोती हुई दिखती हैं और उनके साथ एक आदमी है वह लोग गाड़ी में बैठ कर जा रहे हैं।
दीदी के साथ क्या हुआ? अचानक पाखी ने अपने दोस्तों से कहा।
“ऑटो वाले भैया उस गाड़ी के पीछे पीछे चलो?”
शंन्मुखा ने कहा- “भैया पैसे की चिंता मत करो हम तुम्हें पैसे देंगे पूरे।”
उनकी गाड़ी एक रेस्टोरेंट के पास रूकती है तीनों सहेलियां भी पीछे-पीछे उसी रेस्टोरेंट में जाती हैं ।
ओह ! ये क्या लड़का तो दीदी से पैसे मांग रहा है? तभी अचानक दौड़कर पाखी दीदी के पास जाती है।
“ये कौन है दीदी?”
पाखी हमारे ऑफिस का बॉस है। मुझसे गलत काम कराना चाहता है ऑफिस में और मेरे साथ अभद्र भाषा का भी उपयोग करता है और मुझे बदनाम करने की धमकी भी दे रहा है मेरा कोई नहीं है यह बात इसे पता है इसलिए मेरी मजबूरी का फायदा उठाकर रहा है।
“दीदी दीदी आप चिंता मत करो।”
वह जोर जोर से चिल्लाने लगती हैं बहुत सारे लोग इकट्ठे हो जाते हैं, होटल के स्टाफ की मदद से उसे पुलिस में पकड़ दिया ।
कालिंदी ने कहा – तुम लोगों ने आज मुझे मुसीबत से बचा लिया।
दीदी आप नौकरी की चिंता मत करो, जब तक नौकरी नहीं मिलती तब तक आप मां के साथ टिफिन सर्विस में मदद करना।
कालिंदी ने गंभीर स्वर में कहा- “आज जो कुछ भी हुआ उस विषय में किसी को कुछ मत कहना।”
तुम सभी छोटी बहनों ने मुझे इस दलदल से बाहर निकाला आज पार्टी मेरी तरफ से…।
सभी एक दूसरे को देख कर जोर से हंसने लगती हैं और कहती है दीदी हमने आपके उदासी की वजह जान ली। कालिंदी कहती है अरे ! नज़र बट्टू तुम लोगों ने मेरे जीवन की बुरी नजर को उतार दिया।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी लघुकथा “उष्णता”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 174 ☆
☆ लघुकथा – 🌞उष्णता🌞☆
ठंड की अधिकता को देखते आज कक्षा में उपस्थित सभी बच्चों को ठंड से बचने और मिलने वाली गर्मी यानी उष्णता के बारे में बताया जा रहा था।
सूर्य से मिलने वाली उष्णता का जीवन में कितना महत्व है। गर्म कपड़े पहन हम अपने शरीर को कैसे गर्म रख सकते हैं। अध्यापिका ने बड़े ही सहज ढंग से मुर्गी के अंडे को मुर्गी कैसे अपने पंखों के नीचे दबाकर उसे गर्म करती है। यह भी बता रही थी।
वेदिका बड़े ही गौर से सब सुन रही थी। इसी बीच अध्यापिका ने बताया की मांँ के आंचल की उष्णता से एक नया जीवन मिलता है। और गर्भ से एक नया जीव जन्म लेता है यानी कि गर्भ में भी बालक पलता और संवरता है।
वेदिका के बाल सुलभ मन में माँ का स्पर्श क्या होता है, उसे नहीं मालूम था। क्योंकि बताते हैं वेदिका अभी संभल भी नहीं पाई थी कि वह अपनी माँ को खो चुकी थी।
पिताजी ने अपने ऊपर सारा भार लेकर उसे माता-पिता बन कर पाला और धीरे-धीरे वह बड़ी हुई। परिवार के बड़े बुजुर्गों के कहने पर पिताजी ने दूसरी शादी कर लिया।
सौतेली मां ब्याह कर आई। बहुत अच्छी थी। वेदिका का मन बहुत कोमल था। माँ भी उसका बहुत ख्याल और प्यार करने लगी, परंतु कभी उसे ममता से भर कर गले या सीने से नहीं लगाई।
उसकी आवश्यकता, जरूरत की सारी चीज पूरी करती परंतु कहीं ना कहीं ममता के आँचल के लिए तरस रही वेदिका बहुत ही परेशान रहती थी।
आज दिन का तापमान बहुत कम था। ठंड लिए बारिश होने लगी। वेदिका का मन आज सुबह से खराब था। शायद उसे हल्की सी ताप भी चढ़ी थी। वह फिर भी स्कूल गई थी।
स्कूल में अचानक बहुत तेज बुखार और चक्कर की वजह से वह गिर गई।
अध्यापिका ने उसे कसकर गले लगा लिया। हल्की हाथ की थपकी देती रही और वेदिका कुछ न बोल सकी।
घर में फोन करके मम्मी – पापा को बुलाया गया। अध्यापिका ने वेदिका के हृदय भाव को उसकी मम्मी से बात करके, उसे अधिक से अधिक प्यार दुलार देने को कहा।
माँ की आँखें ममता से भर गई। वेदिका के मासूम सवाल को अध्यापिका ने उसकी माँ से बताया… कि वह मुर्गी के अंडे और उससे बनते चूज़े को कैसे अपनी नरम पंखों से गर्म करके जीवन देती है। यह सवाल उसके दिलों दिमाग पर था।
माँ ने वेदिका को गोद में लेकर आज हृदय से चिपका कर बालों पर हाथ फेरने लगी। वेदिका की आँखों से आँसू लगातार बहने लगी। वह कसकर अपनी माँ को बाहों में समेट आज जीवन भर की उष्णता पा चुकी थीं। पिताजी ने हौले से अपनी आँखें पोछते कहा… आज मैं अपने जीवन और जीवन की परीक्षा से जीत गया।
वेदिका भरी ठंड में माँ की ममता रुपी उष्णता से भर गई थीं।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक मनोरंजक लघुकथा – “आंखों में क्या जी, गजब की हलचल”)
☆ लघुकथा – “आंखों में क्या जी, गजब की हलचल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
पहली बार आंख की महिला डाक्टर को दिखाया तो बोली – आपकी आंखें बहुत अच्छी हैं, प्यारी हैं।
दूसरी बार दिखाया तो बोली – अब तो हर तीन महीने में दिखाना ही पड़ेगा।
तीसरी बार दिखाया तो बोली – अब आपको अपने आंखों की जीवन भर रखवाली करनी पड़ेगी, क्योंकि कोई आपकी आंख चुरा भी सकता है….
महिला डॉक्टर से डरकर आंखों के पुरूष डाक्टर को जब दिखाया तो बोला – गलतफहमी में मत रहना ये ग्लूकोमा के प्रारंभिक लक्षण हैं…..
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘शहीद’।)
☆ लघुकथा – भेदभाव…. ☆
पंडाल में,श्री गणेश जी की भव्य मनोहर मूर्ति विराजमान थी,पंडाल रोशनी से जग मग हो रहा था,भक्तों में धार्मिक भावना,और धार्मिक उल्लास नजर आ रहा था,भजन मंडली, भजन कीर्तन कर रही थी सभी रसास्वादन कर रहे थे, मैं अपने परिवार के साथ, पत्नि और बेटी के साथ उपस्थित था,आयोजन भव्य था,तभी श्रीगणेश आरती की घोषणा हुई,और आरती शुरू हुई,जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा…. आरती संपन्न हुई,सभी आरती ले रहे थे,तभी मेरी बेटी ने मुझसे कहा,पापा भगवान श्री गणेश जी की आरती में,बांझन को पुत्र देत,क्यों,,पुत्री क्यों नहीं,यह तो पुत्र और पुत्री के मध्य भेदभाव है ना,समाज में ऐसा भेदभाव क्यों,,
मैं सोच में पड़ गया,,आज तक ये ही आरती गाता आ रहा हूं,,कभी किसी ने प्रश्न नहीं किया,मेरे मन में भी कभी ख्याल नहीं आया,,आरती में बांझन को पुत्र देत क्यों,,पुत्री क्यों नहीं,,
घर आकर विचार किया, कि आरती तो किसी व्यक्ति ने ही लिखी होगी,सुधार तो हो सकता है,और आरती में थोड़ा सुधार किया,,,बांझन की गोद भरे,,निर्धन को माया,
अब मैं यही आरती गाता हूं,आप भी विचार कीजिए,आपको मेरी सोच अच्छी लगे, तो आप भी यही आरती गाएं,ताकि पुत्री के साथ भेदभाव न हो
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘अम्माँ को पागल बनाया किसने ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 131 ☆
☆ लघुकथा – अम्माँ को पागल बनाया किसने ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
‘भाई! आज बहुत दिन बाद फोन पर बात कर रही हूँ तुमसे। क्या करती बात करके? तुम्हारे पास बातचीत का सिर्फ एक ही विषय है कि ‘अम्माँ पागल हो गई हैं’। उस दिन तो मैं दंग रह गई जब तुमने कहा –‘अम्माँ बनी-बनाई पागल हैं। भूलने की कोई बीमारी नहीं है उन्हें।’
‘मतलब’? मैंने पूछा
‘जब चाहती हैं सब भूल जाती हैं, वैसे फ्रिज की चाभी ढ़ूंढ़कर सारी मिठाई खा जाती हैं। तब कैसे याद आ जाता है सब कुछ? अरे! वो बुढ़ापे में नहीं पगलाईं, पहले से ही पागल हैं।’
‘भाई! तुम सही कह रहे हो – वह पागल थी, पागल हैं और जब तक जिंदा रहेंगी पागल ही रहेंगी।‘
‘अरे! आँखें फाड़े मेरा चेहरा क्या देख रहे हो? तुम्हारी बात का ही समर्थन कर रही हूँ।’ ये कहते हुए अम्माँ के पागलपन के अनेक पन्ने मेरी खुली आँखों के सामने फड़फड़ाने लगे।
‘भाई! अम्माँ का पागलपन तुम्हें तब समझ में आया, जब वह बेचारी बोझ बन गईं तुम पर। पागल ना होतीं तो तुम पति-पत्नी को घर से बाहर का रास्ता ना दिखा दिया होता? तुम्हारी मुफ्त की नौकर बनकर ना रहतीं अपने ही घर में। सबके समझाने पर भी अम्माँ ने बड़ी मेहनत से बनाया घर तुम्हारे नाम कर दिया।‘ मेरा राजा बेटा’ कहते उनकी जबान नहीं थकती थी, पागल ही थीं ना बेटे-बहू के मोह में? बात- बात में एक दिन मुझसे कह गईं – ‘बेटी ! बच्चों के मोह में कभी अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी ना मार बैठना, मेरी तरह।‘
भाई! फोन रखती हूँ। कभी समय मिले तो सोच लेना अम्माँ को पागल बनाया किसने??
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – धन तेरस।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 245 ☆
लघुकथा – धन तेरस
क्या हुआ आज त्यौहार के दिन मुंह क्यों लटकाये हुये हो, काम वाली मीना के चेहरे को पढ़ते हुये बरखा ने उससे पूछा। दुखी स्वर में अपने कान दिखाते हुये धीमे स्वर में मीना बोली, मैडम जी आज धन तेरस के दिन मुझे कान की बाली गिरवी रखनी पड़ी। क्यों बरखा ने त्वरित प्रति प्रश्न किया ? पुलिस वाले ने लड़के की मोटर सायकिल जब्त कर ली थी क्योंकि बेटा गाड़ी तेज चला रहा था। पांच हजार देने पड़े बाली गिरवी रखकर। त्यौहार मनाने के लिये जबरन वसूली कर रहे हैं।
बरखा ने संजो संजो कर पाँच हजार इकट्ठे कर रखे थे कि धन तेरस पर कुछ खरीदी करूंगी। उसने पल भर कुछ सोचा और रुपये निकाल लाई, मीना को रुपये देते हुये बोली जाओ पहले अपनी बाली छुड़ा कर ले आओ, कल मुझे दिखाना जरूर। दिये जलाते हुये मैं तय नहीं कर पा रहा था कि धन तेरस किसने मनाया ? मीना के लडके ने, पोलिस वाले ने, काम वाली मीना ने या बरखा मैडम ने।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – जो बोओगे, वही काटोगे
…मुझे कोई पसंद नहीं करता। हरेक, हर समय मेरी बुराई करता है।
.. क्यों भला?
…मुझे क्या पता! वैसे भी मैंने सवाल किया है, तुमसे जवाब चाहिए।
… अच्छा, अपना दिनभर का रूटीन बताओ।
… मेरी पत्नी गैर ज़िम्मेदार है। सुबह उठाने में अक्सर देर कर देती है। समय पर टिफिन नहीं बनाती। दौड़ते, भागते ऑफिस पहुँचता हूँ। सुपरवाइजर बेकार आदमी है। हर दिन लेट मार्क लगा देता है। ऑफिस में बॉस मुझे बिल्कुल पसंद नहीं करता। बहुत कड़क है। दिखने में भी अजीब है। कोई शऊर नहीं। बेहद बदमिज़ाज और खुर्राट है। बात-बात में काम से निकालने की धमकी देता है।
…सबको यही धमकी देता है?
…नहीं, उसने हम कुछ लोगों को टारगेट कर रखा है। ऑफिस में हेडक्लर्क है नरेंद्र। वह बॉस का चमचा है। बॉस ने उसको तो सिर पर बैठा रखा है।
… शाम को लौटकर घर आने पर क्या करते हो?
… बच्चों और बीवी को ऑफिस के बारे में बताता हूँ। सुपरवाइजर और बॉस को जी भरके कोसता हूँ। ऑफिस में भले ही होगा वह बॉस, घर का बॉस तो मैं ही हूँ न!
…अच्छा बताओ, इस चित्र में क्या दिख रहा है?
…किसान फसल काट रहा है।
…कौनसी फसल है?
…गेहूँ की।
…गेहूँ ही क्यों काट रहा है? धान या मक्का क्यों नहीं?
…कमाल है। इतना भी नहीं जानते? उसने गेहूँ बोया, सो गेहूँ काट रहा है। जो बोएगा, वही तो काटेगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥
🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय🕉️
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈