हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा “चेष्टा” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा चेष्टा.)

☆ लघुकथा – चेष्टा  ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

आपने देखा होगा कि ज्यादातर बिना पढ़े लिखे लोग अपनी जेब में एक सुंदर और कीमती कलम रखे मिल जाते हैं।

और जिन्हें समय से कुछ लेना-देना नहीं, वे लोग कीमती घड़ी का इस्तेमाल करते मिल जाते हैं।

गंजों के पास कीमती कंघी मिल जाएगी।

पढ़ें फारसी बेचें तेल-जिन्हें दो अक्षर पढ़ना नहीं आता उनके पास सुंदर फ्रेम की कीमती ऐनक  मिल जाएगी।

समझ के परे है जो होते नहीं हैं वे वही दिखने की चेष्टा क्यों करते हैं?

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 217 ☆ लघुकथा – एक रहस्यमय मौत ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है ममता की पराकाष्ठा प्रदर्शित करती एक सार्थक कहानी एक रहस्यमय मौत। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 217 ☆

☆ लघुकथा – एक रहस्यमय मौत  

नवीन भाई का स्वास्थ्य कुछ दिनों से नरम-गरम चल रहा है। ब्लड-प्रेशर ऊपर नीचे हो रहा है। सत्तर पार की उम्र हुई, इसलिए कई लोगों के हिसाब से यह स्वाभाविक है।

डॉक्टर कहता है कि दवा के अलावा भी कुछ और उपाय अपनाने चाहिए। खाने में नमक कम करें, तनाव से बचें, नींद पूरी लें, चीज़ों को ज़्यादा गंभीरता से न लें, योगा करें, ध्यान करें, प्राणायाम करें, जब टाइम मिले आँखें मूँद कर शान्त बैठें, चिन्ता के लिए दरवाज़ा न खोलें।

नवीन भाई की रुचि कभी अध्यात्म में नहीं रही। पूजा-पाठ के लिए नहीं बैठते। परिवार के ठेलने पर सबके साथ मन्दिर चले जाते हैं। तीर्थ यात्रा पर भी परिवार के पीछे-पीछे चले जाते हैं। मित्रों से सत्संग करने की सलाह मिलती है तो हँसकर ‘मोमिन’ का शेर सुना देते हैं— ‘आख़िरी वक्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे।’

नवीन भाई संवेदनशील व्यक्ति हैं। किसी की भी पीड़ा सुनकर द्रवित हो जाते हैं। किसी के भी साथ हुए अन्याय को पढ़कर अस्थिर हो जाते हैं। कई बार क्रोध का उफ़ान उठता है। बेचैन हो जाते हैं। शायर ‘अमीर मीनाई’ के शेर को चरितार्थ करते हैं— ‘खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर, सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।’ परिवार वालों का सोचना है कि यह अनावश्यक ‘पर-दुख कातरता’ ही उनके ब्लड-प्रेशर बढ़ने की वजह है।

अब नवीन भाई डॉक्टर की हिदायतों का पालन करने की कोशिश करते हैं। जब खाली होते हैं तो आँखें मूँद कर बैठ जाते हैं। परेशान करने वाले विचारों को ठेलने की कोशिश करते हैं। यूक्रेन, इज़रायल-गाज़ा, मणिपुर, उज्जैन, उन्नाव, हाथरस, लखीमपुर खीरी, जंतर मंतर, किसानों की आत्महत्या, परीक्षाओं के पेपर की लीकेज, बेरोज़गारी, भुखमरी, असमानता, वैज्ञानिक सोच को छोड़कर बाबाओं के दरबार में जुटती नयी पीढ़ी, नेताओं के झूठ और पाखंड, जाति-धर्म के दाँव-पेंच— ये सारे प्रेत बार-बार उनके दिमाग पर दस्तक देते हैं और वे बार-बार उन्हें ढकेलते हैं। अखबार और टीवी में परेशान करने वाली खबरों और दृश्यों को देखकर अब आँखें फेर लेते हैं। मित्रों के दुखड़े एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने की कोशिश करते हैं।

धीरे-धीरे नवीन भाई को सफलता मिलने लगी। उन्हें घेरने और परेशान करने वाले प्रेतों की आमद कम होने लगी। दिमाग हल्का रहने लगा। अब वे घंटों आँखें मूँदे बैठे रहते। कहीं कोई परेशान करने वाला विचार नहीं। ‘मूँदौ आँख कतउँ कोउ नाहीं।’ ब्लड-प्रेशर ने नीचे का रुख किया। घर वाले भी निश्चिन्त हुए।

अब नवीन भाई का दिमाग बिना अधिक श्रम के चिन्तामुक्त, विचारमुक्त रहने लगा। आँख मूँदते ही समाधि लग जाती। दिमाग में सन्नाटा हो जाता। कभी-कभी नींद लग जाती। घर वाले भी उन्हें तभी हिलाते-डुलाते जब स्नान-भोजन का वक्त होता।

एक दिन नवीन भाई की समाधि अखंड हो गयी। आँखें मूँदीं तो फिर खुली ही नहीं। घर वालों ने हिलाया डुलाया तो ढह गये।

डॉक्टर परेशान है कि जब ब्लड-प्रेशर करीब करीब नॉर्मल हो गया तो नवीन भाई की मृत्यु अचानक कैसे हो गयी। यह अब भी रहस्य बना हुआ है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #155 – बाल कथा – “चाबी वाला भूत” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय बालकथा  “चाबी वाला भूत)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 155 ☆

 ☆ बालकहानी – चाबी वाला भूत ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

बेक्टो सुबह जल्दी उठा. आज फिर उसे ताले में चाबी लगी मिलीं. उसे आश्चर्य हुआ. ताले में चाबी कहां से आती है ?

वह सुबह चार बजे से पढ़ रहा था. घर में कोई व्यक्ति नहीं आया था. कोई व्यक्ति बाहर नहीं गया था. वह अपना ध्यान इसी ओर लगाए हुए था. गत दिनों से उस के घर में अजीब घटना हो रही थी.  कोई आहट नहीं होती. लाईट नहीं जलती. चुपचाप चाबी चैनलगेट के ताले पर लग जाती.

‘‘हो न हो, यह चाबी वाला भूत है,’’ बेक्टो के दिमाग में यह ख्याल आया. वह डर गया. उस ने यह बात अपने दोस्त जैक्सन को बताई. तब जैक्सन ने कहा, ‘‘यार ! भूतवूत कुछ नहीं होते है. यह सब मन का वहम है,’’

बेक्टो कुछ नहीं बोला तो जैक्सन ने कहा, ‘‘तू यूं ही डर रहा होगा.’’

‘‘नहीं यार ! मैं सच कह रहा हूं. मैं रोज चार बजे पढ़ने उठता हूं.’’

‘‘फिर !’’

‘‘जब मैं 5 बजे बाहर निकलता हूं तो मुझे चैनलगेट के ताले में चाबी लगी हुई मिलती है.’’

‘‘यह नहीं हो सकता है,’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘भूत को तालेचाबी से क्या मतलब है ?’’

‘‘कुछ भी हो. यह चाबी वाला भूत हो सकता है.’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘यदि तुझे यकिन नहीं होता है तो तू मेरे घर पर सो कर देख है. मैं ने बड़ वाला और पीपल वाले भूत की कहानी सुनी है.’’

जैक्सन को बेक्टो की बात का यकीन नहीं हो रहा था. वह उस की बात मान गया. दूसरे दिन से घर आने लगा. वह बेक्टो के घर पढ़ता. वही पर सो जाता. फिर दोनो सुबह चार बजे उठ जाते. दोनों अलगअलग पढ़ने बैठ जाते. इस दौरान वे ताला अच्छी तरह बंद कर देते.

आज भी उन्हों ने ताला अच्छी तरह बंद कर लिया. ताले को दो बार खींच कर देखा था. ताला लगा कि नहीं ? फिर उस ने चाबी अपने पास रख ली.

ठीक चार बजे दोनों उठे. कमरे से बाहर निकले. चेनलगेट के ताले पर ताला लगा हुआ था.

दोनों पढ़ने बैठ गए. फिर पाचं बजे उठ कर चेनलगेट के पास गए. वहां पर ताले में चाबी लगी हुई थी.

‘‘देख !’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘मैं कहता था कि यहां पर चाबी वाला भूत रहता है. वह रोज चेनल का ताला चाबी से खोल देता है,’’ यह कहते हुए बेक्टो कमरे के अंदर आया. उस ने वहां रखी. चाबी दिखाई.

‘‘देख ! अपनी चाबी यह रखी है,’’ बेक्टो ने कहा तो जैक्सन बोला, ‘‘चाहे जो हो. मैं भूतवूत को नहीं मानता.’’

‘‘फिर, यहां चाबी कहां से आई ?’’ बेक्टो ने पूछा तो जैक्सन कोई जवाब नहीं दे सकता.

दोपहर को वह बेक्टो को घर आया. उस वक्त बेक्टो के दादाजी दालान में बैठे हुए थे.

जैक्सन ने उन को देखा. वे एक खूटी को एकटक देख रहे थे. उन की आंखों से आंसू झर रहे थे.

‘‘यार बेक्टो !’’ जैक्सन ने यह देख कर बेक्टो से पूछा, ‘‘तेरे दादाजी ये क्या कर रहे है ?’’ उसे कुछ समझ में नहीं आया था. इसलिए उस ने बेक्टो से पूछा.

‘‘मुझे नहीं मालुम है,’’ बेक्टो ने जवाब दिया, ‘‘कभीकभी मेरे दादाजी आलतीपालती मार कर बैठ जाते हैं.  अपने हाथ से आंख, मुंह और नाक बंद कर लेते हैं. फिर जोरजोर से सीटी बजाते हैं. वे ऐसा क्यों करते हैं ? मुझे पता नहीं है ?’’

‘‘वाकई !’’

‘‘हां यार. समझ में नहीं आता है कि इस उम्र में वे ऐसा क्यो ंकरते हैं.’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘कभीकभी बैठ जाते हैं. फिर अपना पेट पिचकाते हैं. फूलाते है. फिर पिचकाते हैं. फिर फूलाते हैं. ऐसा कई बार करते हैं.’’

‘‘अच्छा !’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘तुम ने कभी अपने दादाजी से इस बारे में बातं की है ?.’’

‘‘नहीं यार,’’ बेक्टो ने अपने मोटे शरीर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘दादाजी से बात करूं तो वे कहते हैं कि मेरे साथ घुमने चलो तो मैं बताता हूं. मगर, वे जब घुमने जाते हैं तो तीनचार किलोमीटर चले जाते हैं. इसलिए मैं उन से ज्यादा बात नहीं करता हूं.’’

यह सुनते ही जैक्सन ने बेक्टा के दादाजी की आरे देखा. वह एक अखबार पढ़ रहे थे.

‘‘तेरे दादाजी तो बिना चश्में के अखबार पढ़ते हैं ?’’

‘‘हां. उन्हें चश्मा नहीं लगता है.’’ बेक्टो ने कहा.

जैक्सन को कुछ काम याद आ गया था. वह घर चला गया. फिर रात को वापस बेक्टो के घर आया. दोनों साथ पढ़े और सो गए. सुबह चार बजे उठ कर जैक्सन न कहा, ‘‘आज चाहे जो हो जाए. मैं चाबी वाले भूल को पकड़़ कर रहूंगा. तू भी तैयार हो जा. हम दोनों मिल कर उसे पकड़ेंगे ?’’

‘‘नहीं भाई ! मुझे भूत से डर लगता है,’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘तू अकेला ही उसे पकडना.’’

जैक्सन ने उसे बहुत समझाया, ‘‘भूतवूत कुछ नहीं होते हैं. यह हमारा वहम है. इन से डरना नहीं चाहिए.’’ मगर, बेक्टो नहीं माना. उस ने स्पष्ट मना कर दिया, ‘‘भूत से मुझे डर लगता है. मैं पहले उसे नहीं पकडूंगा.’’

‘‘ठीक है. मैं पकडूगा.’’ जैक्सन बोला तो बेक्टो ने कहा,  ‘‘तू आगे रहना, जैसे ही तू पहले पकड़ लेगा. वैसे ही मैं मदद करने आ जाऊंगा,’’

दोनों तैयार बैठे थे. उन का ध्यान पढ़ाई में कम ओर भूत पकड़ने में ज्यादा था.

जैक्सन बड़े ध्यान से चेनलगेट की ओर कान लगाए हुए बैठा था. बेक्टो के डर लग रहा था. इसलिए उस ने दरवाजा बंद कर लिया था.

ठीक पांच बजे थे. अचानक धीरे से चेनलगेट की आवाज हुई. यदि उसे ध्यान से नहीं सुनते, तो वह भी नहीं आती.

‘‘चल ! भूत आ गया ,’’ कहते हुए जैक्सन उठा. तुरंत दरवाजा खोल कर चेनलगेट की ओर भागा.

चेनलगेट के पास एक साया था. वह सफेदसफेद नजर आ रहा था. जैक्सन फूर्ति से दौड़ा. चेनलगेट के पास पहुंचा. उस ने उस साए को जोर से पकड़ लिया. फिर चिल्लाया, ‘‘अरे ! भूत पकड़ लिया.’’

‘‘चाबी वाला भूत !’’ कहते हुए बेक्टो ने भी उस साए को जम कर जकड़ लिया.

चिल्लाहट सुन कर उस के मम्मीपापा जाग गए. वे तुरंत बाहर आ गए.

‘‘अरे ! क्या हुआ ? सवेरेसवेरे क्यों चिल्ला रहे हो ?’’ कहते हुए पापाजी ने आ कर बरामदे की लाईट जला दी.

‘‘पापाजी ! चाबी वाला भूत !’’ बेक्टो साये को पकड़े हुए चिल्लाया.

‘‘कहां ?’’

‘‘ये रहा ?’’

तभी उस भूत ने कहा, ‘‘भाई ! मुझे क्यो ंपकड़ा है ? मैं ने तुम्हारा क्या ंबिगाड़ा है ?’’ उस चाबी वाले भूत ने पलट कर पूछा.

‘‘दादाजी आप !’’ उस भूत का चेहरा देख कर बेक्टो के मुंह से निकल गया, ‘‘हम तो समझे थे कि यहां रोज कोई चाबी वाला भूत आता है,’’ कह कर बेक्टो ने सारी बात बता दी.

यह सुन कर सभी हंसने लगे. फिर पापाजी ने कहा, ‘‘बेटा ! तेरे दादाजी को रोज घुमने की आदत है. किसी की नींद खराब न हो इसलिए चुपचाप उठते हैं. धीरे से चेनलगेट खोलते हैं. फिर अकेले घुमने निकल जाते हैं.’’

‘‘क्या ?’’

‘‘हां !’’ पापाजी ने कहा, ‘‘चुंकि तेरे दादाजी टीवी नहीं देखते हैं. मोबाइल नहीं चलाते हैं. इसलिए इन की आंखें बहुत अच्छी है. ये व्यायाम करते हैं. इसलिए अधेरे में भी इन्हें दिखाई दे जाता है. इसलिए चेनलगेट का ताला खोलने के लिए इन्हें लाइट की जरूरत नहीं पड़ती है..’’

यह सुन कर बेक्टो शरमिंदा हो गया,. वह अपने दादाजी से बोला, ‘‘दादाजी ! मुझे माफ करना. मैं समझा था कि कोई चाबी वाला भूत है जो यहां रोज ताला खोल कर रख देता है.’’

‘‘यानी चाबी वाला जिंदा भूत मैं ही हूं,’’ कहते हुए दादाजी हंसने लगे.

बेक्टो के सामने भूत का राज खुल चुका था. तब से उस ने भूत से डरना छोड़ दिया.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29.12.2018

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 216 ☆ कथा कहानी – कबाड़ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है ममता की पराकाष्ठा प्रदर्शित करती एक सार्थक कहानी ‘कबाड़’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 216 ☆

☆ कहानी – कबाड़ 

चन्दन माता-पिता को गाँव से शहर ले आया है। वे अभी तक गाँव में ही थे। अभी तक छोटे भाई की पढ़ाई की वजह से गाँव में रहना ज़रूरी था। अब वह मजबूरी ख़त्म हो गयी है। भाई कंप्यूटर की डिग्री लेकर पुणे में एक कंपनी में नौकरी पा गया है। अब माँ-बाप को वक्त ही काटना है।

चन्दन सरकारी कॉलेज से बी.ई. की डिग्री लेकर विद्युत मंडल में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त हो गया था। पिता सन्तराम की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी। गाँव की दस बारह एकड़ ज़मीन के बूते दो बेटों की पढ़ाई कैसे हो सकती थी। भद्रलोक में गिनती होने के कारण खुद हल की मुठिया नहीं थाम सकते थे। मज़दूरों के भरोसे ही खेती होती थी, इसलिए हाथ में कम ही आता था।

स्कूल की पढ़ाई खत्म कर चन्दन बी.ई.  की प्रवेश-परीक्षा में बैठा था। जब परिणाम आया और वह पास हुआ तो वह खुशी से पागल हो गया, लेकिन सुसमाचार के बावजूद पिता का मुँह उतर गया। शहर में रहने का खर्च और फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई। कैसे व्यवस्था होगी?

लेकिन उनकी पत्नी मज़बूत थी। उन्होंने फैसला सुना दिया कि बेटे की पढ़ाई तो होगी, दिक्कतों का सामना किया जाएगा। सौभाग्य से चन्दन को सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश मिल गया और फिर कमज़ोर आर्थिक स्थिति के आधार पर छात्रवृत्ति भी मिल गयी। इस तरह पढ़ाई की गाड़ी झटके खाती हुई चलती रही। कई बार परिवार के थोड़े से ज़ेवर गिरवी रखने के लिए बाहर भीतर होते रहे। लेकिन चन्दन की माँ ने कभी हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने दाँत भींचकर पेट पर चार गाँठें लगा ली थीं। घर का खर्च एकदम न्यूनतम पर पहुँच गया था।

उस वक्त हालत यह थी कि चन्दन और उसका भाई रक्षाबंधन पर दस मील दूर अपनी चचेरी बहनों से राखी बँधाने के लिए तो बस से चले जाते, लेकिन बहनों को देने के लिए उन के पास कुछ न होता। सिर झुकाए राखी बँधवाते और शर्माते, झिझकते वापस आ जाते। घर की हालत यह कि ढंग का बिस्तरबंद तक नहीं था। एक पुराना कंबल था लेकिन उसमें छेद हो गये थे। कहीं जाने के मौके पर भारी संकट आ खड़ा होता। रिश्तेदारों से सूटकेस कंबल उधार लेना पड़ता था।

बी.ई. के अन्तिम वर्ष में पहुँचते-पहुँचते चन्दन विवाह-योग्य कन्याओं के पिताओं की नज़र में चढ़ गया। एक एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर साहब ने उसकी पक्की घेराबन्दी शुरू कर दी थी। उसके गाँव के चक्कर, छोटी मोटी भेंटें, योग्य सेवा के लिए हमेशा प्रस्तुत रहने का आश्वासन। साथ ही यह वादा भी कि आगे चन्दन का भविष्य बनाने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे। चन्दन की नौकरी लगते ही एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर साहब की कोशिशें परवान चढ़ीं और शादी संपन्न हो गयी। इस शादी की बदौलत चन्दन अब स्वतः बड़े लोगों की बिरादरी में शामिल हो गया। विभाग की तरफ से एक फ्लैट भी मिल गया। चपरासी रखने की पात्रता तो नहीं थी, लेकिन ससुर साहब के प्रताप से एक चपरासी भी सेवा के लिए हाज़िर रहने लगा।

चन्दन की पत्नी मनीषा अपने घर को खूब व्यवस्थित और सजा-सँवरा रखती थी। उसके पिता के प्रताप से घर में किसी चीज की कमी नहीं रहती थी। आराम की हर चीज़ घर में उपलब्ध थी। पिता की पोस्टिंग भोपाल में थी, लेकिन वह रोज़ बेटी के परिवार की खैर-खबर लेते रहते थे। कोई अटक-बूझ होने पर तत्काल भगवान विष्णु की तरह अभय मुद्रा में प्रकट भी हो जाते थे।

शादी के लगभग तीन साल बाद ही चन्दन के माता-पिता का बेटे के घर आना हुआ। अभी तक चन्दन के परिवार में कोई वृद्धि नहीं हुई थी। सन्तराम जी को अपने गाँव का परिवेश छोड़कर शहर में एडजस्ट होने में अड़चन होती थी। उठने-बैठने, खाने-पीने, सभी कामों में कुछ अटपटा लगता था। गाँव में उन्हें कैसे भी उठने- बैठने, बोलने-बताने की आदत थी। कहीं घंटों खड़े रहो तो किसी को कुछ गड़बड़ नहीं लगता था। यहाँ ऐसा नहीं था। देर तक कहीं खड़े रहो तो लोग घूरने लगते थे।

शुरू में सन्तराम शहर में उखड़े- उखड़े रहते थे। सब तरफ बिल्डिंग ही बिल्डिंग। खाली मैदान के दर्शन मुश्किल। आकाश भी आधा चौथाई दिखायी देता। चाँद-तारे दिख जाएँ तो अहोभाग्य। सड़कों के किनारे पेड़ ज़रूर लगे हैं। उनसे ही कुछ सुकून मिलता है।

सन्तराम बेटे-बहू से कहते, ‘आप लोग अपने आप में सिकुड़ते जा रहे हो। अपना टेलीफोन, अपना इंटरनेट, अपनी कार। दूसरों पर निर्भरता कम से कम हो और आदमी की सूरत कम से कम देखना पड़े। गाँव में दुआरे पर बैठ जाते हैं तो हर निकलने वाले से दो दो बातें होती रहती हैं। कोई मौजी हुआ तो घंटों वहीं ठमक जाएगा। एक ज़माने में हमारे अपने नाई, तेली, मोची और धोबी से संबंध होते थे। वे हमारी ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा होते थे और हम उनकी ज़िन्दगी के। अब कोई किसी को नहीं पहचानता। सब कुछ घर बैठे मिल जाता है तो चलने-फिरने की ज़रूरत कम होती जा रही है। इसीलिए वज़न बढ़ रहा है और घुटने की तकलीफें बढ़ रही हैं। ‘

चन्दन और मनीषा उनका प्रवचन सुनते रहते हैं। सन्तराम एक और मार्के की बात कहते हैं। कहते हैं, ‘हमारे देश में हाथ से काम करने वालों को कोई इज़्ज़त नहीं देता। बढ़ई, लुहार, दर्जी, धोबी, किसान, मज़दूर को कोई कुर्सी नहीं देता। हाथ से काम करने वालों को मज़दूरी भी बहुत कम मिलती है। इसीलिए कोई हाथ का काम नहीं करना चाहता। सब कुर्सी वाला काम चाहते हैं। सुन्दर भवन बनाने वाले राजमिस्त्री के घर स्कूटर मिल जाए तो बहुत जानो। कार कुर्सी वालों के ही भाग्य में लिखी है। ‘

बात करते-करते सन्तराम पीछे सोफे के कवर पर सिर टिका देते हैं और मनीषा को फिक्र सताने लगती है कि कहीं कवर पर तेल का दाग न पड़ जाए। उसे चैन तभी मिलता है जब ससुर साहब सिर सीधा कर लेते हैं। कभी बैठे-बैठे पाँव उठाकर सोफे पर रख लेते हैं और भय पैदा हो जाता है कि कोई इज़्ज़तदार मेहमान उस वक्त ड्राइंग-रूम में न आ जाए।

सन्तराम जी की एक परेशान करने वाली आदत यह है कि आसपास पड़े कील, स्क्रू, तार, रस्सी, डिब्बे जैसी चीज़ों को बीन बीन कर सँभाल कर रख लेते हैं। कहते हैं, ‘ये काम की चीज़ें हैं। कब इनकी ज़रूरत पड़ जाए, पता नहीं। फिर इधर उधर दौड़ते फिरो। ‘ इधर उधर पड़े कोरे कागज़ों और कपड़े के टुकड़ों को सँभाल कर अलमारी में रख देते हैं।

सन्तराम खाने की मेज़ पर भोजन शुरू करने से पहले आँख मूँद कर थोड़ी देर मौन हो जाते हैं। पहले मनीषा समझती थी कि शायद ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। फिर रहस्य खुला। बताया, ‘मैं आँख बन्द करके उन सब को याद करता हूँ जिन्होंने दिन रात मेहनत करके यह अन्न हमारे लिए पैदा किया। ‘ फिर हँस कर कहते हैं, ‘वैसे उस जमात में मैं भी शामिल हूँ। ‘

सन्तराम घर में बैठे-बैठे अचानक ग़ायब हो जाते हैं, फिर किसी घर के गेट से निकलते दिखते हैं। लोगों से मिले-जुले बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता। घर में चपरासी या काम करने वाली महरी से लंबा वार्तालाप चलता है। उनकी सारी कैफियत उनके पास है— कहाँ गाँव-घर है, कितने बाल-बच्चे हैं, गुज़र-बसर कैसे होती है, ज़िन्दगी में कितने सनीचर लगे हैं? दरवाजे़ पर कोई सर पर बोझा लेकर आ जाए तो बिना किसी का इन्तज़ार किये लपक कर उतरवा देते हैं।

सन्तराम को उनके इस्तेमाल की चीज़ों से मुक्त करना बहुत कठिन होता है। कुर्ते कॉलर और कफ पर और पायजामे पाँयचों पर छिन जाते हैं लेकिन उन्हें रिटायर नहीं किया जाता। उनकी मुक्ति तभी होती है जब वे अचानक ग़ायब कर दिये जाते हैं। जूतों की शक्ल-सूरत बिगड़ जाती है लेकिन वे चलते रहते हैं। फिज़ूलखर्ची उन्हें स्वीकार नहीं। मनीषा के पिता इस मामले में बिल्कुल भिन्न हैं। पुरानी चीज़ों से उनका बहुत जल्दी मोहभंग होता है, चाहे वह कार हो या कोई और चीज। पैसे खर्च करने में उन्हें दर्द नहीं होता। उनका उसूल है कि कमाने के लिए खर्च करना ज़रूरी है। खर्च का दबाव हो तभी आदमी कमाने के लिए हाथ-पाँव मारता है। उनके जीवन में  यह चरितार्थ भी होता है।

करीब एक माह बेटे के पास रहने के बाद सन्तराम को उनका गाँव बुलाने लगा। गाँव में जन्म लेने वालों को उनका गाँव मरणपर्यन्त पुकारता है। स्मृति में लहकता रहता है। सन्तराम गाँव की पुकार पर चल दिये और मनीषा के लिए यह समस्या छोड़ गये कि उनके छोड़े कबाड़ का वह क्या करे?

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 215 ☆ कथा कहानी – जोग ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है ममता की पराकाष्ठा प्रदर्शित करती एक सार्थक कहानी ‘जोग’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 215 ☆

☆ कहानी – जोग 

रामरती बेहाल है। खाना-पीना, सोना सब हराम है। मजूरी के लिए जाती है तो धड़का लगा रहता है कि कहीं शिब्बू बाबाजी के साथ चला न जाए। दिन-रात मनाती है कि बाबाजी गाँव से टर जाएँ, लेकिन बाबाजी भला क्यों जाने वाले? उनका चमीटा आठ दस दिन से गाँव में ही गड़ा है। बस-अड्डे के पास पुरानी धर्मशाला में टिके हैं। सवेरे से गाँव के लोग सेवा के लिए पहुँचने लगते हैं। कोई दूध लेकर पहुँचता है तो कोई चाय लेकर। कोई सीधा-पिसान लिये चला आता है। किसी चीज़ की कमी नहीं। सवेरे नहा धोकर पूजा करने के बाद बाबाजी शीशा सामने रखकर घंटों शरीर पर चंदन तिलक छापते, चेहरे और शरीर को हर कोण से निहारते रहते हैं।

शाम को खासी भीड़ हो जाती है। इनमें स्त्रियों की संख्या ज़्यादा होती है। चरन छूकर आसिरबाद लेने के लिए चली आती हैं। कई स्त्रियाँ समस्याओं के समाधान के लिए आती हैं— बहू को संतान का योग है कि नहीं? बेटा परदेस से कब लौटेगा? बेटे के बाप का रोग कब ठीक होगा? समस्याओं का अन्त नहीं है। बाबाजी कहते हैं स्त्रियाँ बड़ी पुन्यात्मा, बड़ी धरम-करम वाली होती हैं। उन्हीं के पुन्न से धरती टिकी हुई है।         

शाम को बाबाजी की चिलम खूब चलती है। सेवा करने वाले भी परसाद पा जाते हैं। इसीलिए बाबाजी की सेवा के लिए होड़ लगी रहती है। शाम को भजन-मंडलियाँ ढोलक-झाँझ लेकर बाबाजी के पास डट जाती हैं। देर रात तक भजन चलते हैं। बाबाजी मस्ती में झूमते रहते हैं। कभी मस्ती में खुद भी गाने लगते हैं। साथ साथ चिलम भी खिंचती रहती है।

शिब्बू भी दिन भर बाबाजी की सेवा में लगा रहता है। घर आता है तो बस रोटी खाने के लिए। रोटी खाने के बाद ऐसे भागता है जैसे गुड़ के लिए चींटे भागते हैं। कई बार दोपहर को आता ही नहीं। वहीं परसाद पाकर पड़ा रहता है। बाबाजी ने जाने क्या जादू कर दिया है। रात को बारह एक बजे घर लौटता है, चिलम के नशे में लस्त-पस्त। रामरती कुछ शिकायत करती है तो बाबाजी से सीखे हुए जुमले सुनाना शुरू कर देता है— ‘सिंसार के रिस्ते नाते झूठे हैं माता। यहाँ कोई किसी का नहीं। सब माया का परभाव है। गुरू से बढ़कर कोई नहीं। अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। पुन्न की जड़ पत्ताल।’

रामरती का हृदय सुलगता है, कहती है, ‘मैं दिन भर मजूरी करके तेरे पेट में अन्न डालती हूँ। तुझे बैठे-बैठे खाते सरम नहीं लगती?’

शिब्बू आँखें झपका कर सन्त की मुद्रा में कहता है, ‘अरे माता, जिसने करी सरम, उसके फूटे करम। इस सिंसार में किसी के करने से कुछ नईं होता।’
रामरती गुस्से में कहती है, ‘करने से तेरा नर भरता है। नईं करती तो भूखा मर जाता, अकरमी।’

शिब्बू ज्ञानी की नाईं मुस्करा कर कहता है, ‘अरे माता, जिसने चोंच दी है वोई दाना देगा। काहे की फिकर। गुरूजी तो कुछ नहीं करते, फिर भी आनन्द में रहते हैं।’

रामरती परेशान है क्योंकि गाँव में खबर गर्म है कि शिब्बू जोग लेगा, बाबाजी का चेला बन कर उन्हीं के साथ चला जाएगा। रामरती ने उसे बड़ी मुश्किल से, बड़ी उम्मीदों से पाला है। बाप दस साल पहले दारू पी पी कर मर गया था। शिब्बू से बड़ी एक बेटी है जिसकी शादी के लिए करजा काढ़ना पड़ा। अब रामरती खेतों में मजूरी करके घर चलाती है। शिब्बू का कोई भरोसा नहीं। एक दिन काम करता तो चार दिन आराम। बना- बनाया भोजन मिल जाता है, इसलिए बेफिक्र रहता है।

शिब्बू का बाप गाँव के बड़े लोगों की संगत में पड़ गया था। उसे इस बात का बड़ा गर्व था कि उसका उठना-बैठना हैसियत वालों में था। दरअसल वह भाँड़गीरी में उस्ताद था। लोगों की नकल और प्रहसन में वह माहिर था। इसीलिए वह बड़े लोगों के मनोरंजन का साधन बना रहता था। उसे चाटने-पोंछने के लिए कुछ न कुछ मिलता रहता था जिसमें वह बड़ा खुश रहता था। घर आता तो तर्जनी और अँगूठे से गोला बनाकर रामरती से कहता, ‘आज अंगरेजी पीने को मिली। मजा आ गया।’

धीरे-धीरे उसे लत लग गयी थी। दारू के लिए घर का सामान बेच देता। रामरती आँसू बहाती, लेकिन घर में सुनने वाला कोई नहीं था। फिर वह बीमार रहने लगा। खाना पीना कुछ नहीं पचता था। गाँव के अस्पताल के डॉक्टर को दिखाया तो उसने बताया, ‘पी पी पर इसका जिगर खराब हो गया है। शहर जाकर दिखाओ। यहाँ ठीक नहीं होगा।’

रामरती कहाँ दिखाये और कैसे दिखाये? आदमी उसकी आँखों के सामने घुलता घुलता चला गया।

शिब्बू के लिए रामरती ने बहुत कोशिश की कि वह पढ़-लिख जाए। उसने उसे गाँव के स्कूल में भर्ती भी करा दिया था, लेकिन उससे आगे उसके हाथ में कुछ नहीं था। वह खुद पढ़ी-लिखी थी नहीं, न उसके पास इतनी फुरसत थी कि शिब्बू की चौकीदारी करे। शिब्बू घर से बस्ता लेकर निकल जाता और फिर स्कूल बन्द होने के समय तक कुछ निठल्ले लड़कों के साथ तालाब के किनारे ‘गिप्पी’ खेलता रहता या आम तोड़ता रहता। उसका मन पढ़ने में नहीं लगता था।

रामरती को कुछ पता नहीं था। वह दाल-रोटी के जुगाड़ में ही उलझी रहती थी। एक दिन संयोग से उसने रास्ते में स्कूल के मास्टर जी को रोककर शिब्बू की प्रगति के बारे में पूछ लिया। जवाब मिला, ‘शिब्बू का तो कई महीने पहले गैरहाजिरी के कारण स्कूल से नाम कट गया है। अब वह स्कूल का छात्र नहीं है।’

सुनकर रामरती का दिल टूट गया। लड़के के भविष्य के उसके सारे सपने ध्वस्त हो गये। घर आकर उसने एक साँटी लेकर शिब्बू की खूब मरम्मत की, लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ। उसे जितना पीटा, उतना ही माँ का हृदय भी आहत हुआ।

शिब्बू अब गाँव में टुकड़खोरी में लग गया था। गाँव में लोग उसे छोटा-मोटा काम करने के लिए बुला लेते और बदले में उसे थोड़ा-बहुत पैसा या कुछ खाने को दे देते।
गाँव की स्त्रियाँ रामरती को सलाह देतीं, ‘लड़के का ब्याह कर दो। बहू आ जाएगी तो सुधर जाएगा। जिम्मेदार हो जाएगा।’

रामरती भुन कर जवाब देती, ‘नहीं सुधरेगा तो दो दो का पेट कौन भरेगा? फिर कुछ दिन बाद तीसरा भी आ जाएगा। मैं मजूरी- धतूरी करूँगी या बहू की चौकीदारी करूँगी? तब तुम कोई मदद करोगी क्या?’

सुझाव देने वाली भकुर कर आगे बढ़ जाती।

अब बाबाजी के आने से रामरती की जान और साँसत में पड़ गयी है। अगर सचमुच शिब्बू उनके साथ चला गया तो क्या होगा? उसके मन में कहीं न कहीं उम्मीद है कि वह सुधर जाएगा। बाबाजी ले गये तो उसकी उम्मीद बुझ जाएगी। फिर किसके लिए जीना और किसके लिए छाती मारना? सारे समय भगवान से मिन्नत करती रहती कि शिब्बू की मत ठीक बनी रहे।

एक दिन शिब्बू ने वही कह दिया जिसका उसे डर था। बोला, ‘बाई, मैंने बाबाजी से मंतर ले लिया है। उनका चेला बन गया हूँ। उन्हीं के साथ देस देस घूमूँगा। बड़ा आनन्द आएगा। गोबरधन भी जाएगा। वह भी चेला बन गया है।’

रामरती की जान सूख गयी। आँख से आँसू टपकने लगे। सारा आत्माभिमान गल गया। चिरौरी के स्वर में बोली, ‘बेटा, तू चला जाएगा तो मैं किसके सहारे जिऊँगी? अपनी महतारी को बुढ़ापे में बेसहारा छोड़ जाएगा? तू कहीं मत जा बेटा। मैं तुझे बैठे-बैठे खिलाऊँगी।’

शिब्बू ने सीखे हुए वाक्यों में जवाब दिया, ‘माता, कई जीवों के बच्चे दो चार दिन में ही माँ-बाप को छोड़ देते हैं। उनकी माता दुखी नहीं होती? सिंसार से मोह ममता नहीं रखना चाहिए।’

उधर गाँव में बाबाजी के साथ साथ शिब्बू की भी जयजयकार हो रही थी। लोग उसे देखकर हाथ जोड़ते। स्त्रियाँ उसके सामने पड़ जातीं तो बैठ कर आँचल का छोर धरती से छुआ कर माथे पर लगातीं। शिब्बू के पाँव ज़मीन पर नहीं थे। गर्व से उसकी आँखें मुँदी रहती थीं। लोग रामरती से कहते, ‘बड़ी भागवाली हो रामरती। लड़का खूब पुन्न कमाएगा। सब पिछले जनम के सतकरमों का फल है।’

रामरती के ससुर जीवित हैं। दूसरे बेटे के साथ रहते हैं। पढ़े-लिखे न होने के बावजूद  सयाने, समझदार हैं। रामरती अपना दुखड़ा लेकर उनके पास गयी। वे बोले, ‘बेटा, क्या करें? कुएँ में भाँग पड़ी है। सब जैजैकार करने में लगे हैं। तुम्हारी बिथा समझने वाला कौन है? मैंने शिब्बू को समझाया था, लेकिन वह पगला है। समझता नहीं। जैजैकार में फूला फिरता है।’

अब रामरती को लगता था बाबाजी कभी भी चेलों को लेकर खिसक जाएँगे। उसे न नींद आती थी, न मजूरी में मन लगता था। सारे वक्त आँखें शिब्बू को ही तलाशती रहती थीं।

गाँव में पुलिस चौकी थी। दरोगा जी सारे वक्त दुखी बैठे रहते थे क्योंकि गाँव के ज़्यादातर लोग भुक्खड़ थे। आमदनी की संभावना न के बराबर थी। दरोगा जी की नज़र में यह गाँव मनहूस था। एक दोपहर रामरती उनके पास जा पहुँची। बोली, ‘दरोगा जी, धरमसाला में जो बाबाजी आये हैं वे मेरे बेटे को चेला बना कर ले जा रहे हैं। मैं बेसहारा हो जाऊँगी। आप उन्हें रोको,नहीं तो मैं किसी कुएँ में डूब मरूँगी।’

दरोगा जी ने उसके चेहरे को टटोला कि कितना सच बोल रही है, फिर बोले, ‘बाई, मैं क्या कर सकता हूँ? तुम्हारा बेटा बालिग है तो वह अपनी मर्जी से कहीं भी जा सकता है।’

रामरती बोली, ‘वह बालग नहीं है।’

दरोगा जी टालने के लिए बोले, ‘कुछ प्रमाण-सबूत लाओ तो देखेंगे।’

रामरती ने जवाब दिया, ‘ठीक है। मैं इस्कूल से लिखवा कर लाऊँगी।’

रामरती के जाने के बाद दरोगा जी के दिमाग में कीड़ा रेंगा। थोड़ी देर में मोटरसाइकिल लेकर धर्मशाला पहुँच गये। बाबाजी आराम कर रहे थे। दरोगा जी को देख कर उठ कर बैठ गये। दरोगा जी नमस्कार करके बोले, ‘कैसे हैं महाराज?’

बाबा जी दोनों हाथ उठाकर बोले, ‘आनन्द है। खूब आनन्द है। बड़ा प्रेमी गाँव है।’

दरोगा जी ने इधर-उधर नज़र घुमायी, फिर बोले, ‘गाँव से कुछ चेले बनाये क्या?’

बाबा जी का मुँह उतर गया, बोले, ‘अरे नहीं। हम इतनी आसानी से चेला-वेला नहीं बनाते। मन मिले का मेला, चित्त मिले का चेला।बाबा सबसे भला अकेला।’

दरोगा जी बोले, ‘किसी नाबालिग लड़के को चेला मत बनाइएगा। माँ-बाप रिपोर्ट कर देंगे तो आप मुश्किल में पड़ जाओगे।’

बाबाजी घबरा कर बोले, ‘अरे नहीं महाराज! अपने राम इस चक्कर से दूर रहते हैंं।’

दरोगा जी मोटरसाइकिल पर सवार होकर चलते बने, लेकिन बाबाजी के कान खड़े हो गये। चेलों से पूछताछ की तो पता चला रामरती दरोगा जी के पास गयी थी।
शाम को बाबाजी शिब्बू से बोले, ‘बच्चा, अभी तुमको हमारे साथ नहीं जाना है। हमने जो मंतर दिया है उसे साधना है, नहीं तो तुम्हारी साधना कच्ची रह जाएगी। साल भर बाद हम फिर आएँगे, तब तुम्हें अपने साथ ले जाएँगे।’

उसी रात बाबाजी गाँव को सोता और रोता छोड़ कर सारा सीधा-पिसान लेकर अंतर्ध्यान हो गये। रामरती को पता चला तो उसने राहत की साँस ली।

सवेरे शिब्बू ने अपना सारा गुस्सा माँ पर उतारा। दाँत पीसकर बोला, ‘तुम्हीं ने सब गड़बड़ किया। न तुम दरोगा के पास जातीं, न गुरूजी गाँव छोड़कर जाते। लेकिन इससे क्या होता है? क्या गाँव में और बाबा नहीं आएँगे? मैं किसी के भी साथ भाग जाऊँगा।’

रामरती शान्त स्वर में बोली, ‘अभी तो मुसीबत टर गयी, भैया। जब फिर आएगी तो देखेंगे।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मराठी कथा – निर्णय… – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

श्री भगवान वैद्य प्रखर

☆ मराठी कथा – निर्णय… – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

वह छज्जे पर खड़ी है। बेचैन-सी। सड़क पर आंख लगाए।उसकी बाट जोहते। पंदरह -बीस मिनट पहले वह छत पर आयी थी तब दिन ढलने लगा था। पर साफ नजर आ रहा था। अब सब ओर से अंधियारा छाने लगा है। पश्चिमी आकाश का नारंगी टुकड़ा गहरा सुर्ख होता हुआ काला पड़ता जा रहा है।… अब तक तो आ जाना चाहिए था,उसने !… वैसे कोई जल्दी नहीं है। जितनी देर से आए, उतना अच्छा! …आज पहली बार घर में अकेले होंगे, वे दोनों! कल राहुल को पाचगणी पहुंचाकर दोनों आज सुबह ही घर लौटे हैं। राहुल नौ- साल का, गोलमटोल।सच कहें तो ‘बड़बड़ करनेवाला, थोड़ा शरारती है’, ऐसा कहा था उसने। पर उसे नहीं लगा वैसा शरारती! उसके साथ कोई विशेष बात भी नहीं की। औरों से कैसे खुलकर बातें करता रहता था! … समीप आनेपर कुछ सिंकुड़ -सा जाता है, ऐसा महसूस किया उसने। एक विचित्र दूरी का अहसास होता रहता। मेरे मन में ममता, आत्मीयता उमड़ी ही नहीं। ‘संग रहने से आज लगनेवाली दूरी कम होगी । अपनापन लगेगा।’ उसने कहा था। कौन कहें? पंदरह दिन लगा जैसे जबरन बिठा दिया गया है। मुझे भी घर में विचरण करते कैसा असहज, असामान्य-सा महसूस होता रहा! कभी लगता, राहुल मेरी ओर ऐसे देखता है जैसे उसके हक़ की कोई चीज मैं छीनकर बैठी हूं। कभी लगता, वैसा कुछ नहीं होगा, ये सब मेरे मन का भ्रम  है…! अपराध-बोध मेरे ही मन में घर कर बैठा है, शायद! कभी लगता, उसकी आंखों में  क्रोध, आक्रोश  है! कभी सोचती, वह विलक्षण, स्वाभाविक प्रेम क्या कभी उसके नैनों में, उसके मन में उपजेगा? …ये  विचार मन में आने भर- से कितनी बेचैनी लग रही है!

सौ. उज्ज्वला केळकर

आज राहुल नहीं है। उसकी मुंहबोली चाची भी आज सुबह ही अपने घर लौट गयी। रमेश सुबह आठ बजे घर से बाहर गया और वह एकदम सहज हो गयी। सहज और निश्चिंत।

आज पूरा दिन उसने घर संवारने में लगा दिया। बैठक के फर्निचर की रूपरेखा बदल दी। दरवाजे-खिड़कियों में चमकीले, नारंगी रंग के बड़ी मॉडर्न आर्ट-प्रिंट के परदे थे। उन्हें हटाकर नायलॉन पर बारीक नीले फूलों की डिजाइन वाले हलके नीले रंग के बड़ी-बड़ी झालरवाले परदे लगाए।  शेखर को नीला रंग खूब भाता था। घर को नाम भी उसने ‘नीलश्री’ दिया था। भीतर-बाहर सब ओर नीलाभ छटा। परदे, बेडशीट्‍स, कुशन-कवर्स…सब कुछ गहरे, हलके नीले रंग से सजा हुआ। आज उसने घर का विन्यास बदला और जाने-अनजाने में उसे नागपुर के घर का स्वरूप प्राप्त हो गया। बैठक के कॉर्नर के चौकोनी टी-पॉय पर एक फोटो-फ्रेम थी। बायीं ओर रमेश का पूर्णाकृति फोटो। दायीं ओर राहुल की मम्मी का। उसने राहुल की मम्मी का फोटो हटाया और उसके स्थान पर अपना फोटो रख दिया।

शेखर को बहुत पसंद था वह फोटो। विवाह की सालगिरह पर शेखर ने गहरे नीले रंग की प्रिंटेड जार्जेट लायी थी, उसके लिए। उसी दिन शाम को वह साड़ी पहनकर लंबी, काली चोटी पर मोगरे के फूलों का मोटा-सा गजरा सजाकर, घूमने गयी थी वह। शेख्रर बोला था,

“क्या क्यूट दिख रही हो आज तुम! चलो , फोटो निकालते हैं।”

बगीचे में ही जूही की बेला के नीचे उसने फोटो निकाला।

सोचने लगी, फिजूल लगाया मैंने यह फोटो! कोई दूसरा निकालकर लगाना चाहिए था।

देखते-देखते उसे फ्रेम में रमेश के चेहरे के स्थान पर शेखर का चेहरा दिखायी देने लगा। हँसमुख, तेजस्वी आंखों का शेखर। था तो काला-सांवला ही। पर तीखे नाक-नक्श। इतना बड़ा हो गया फिर भी चेहरे पर बाल-सुलभ भोलापन कायम! हँसता तो शुभ्र-धवल दंत-पंक्ति चमक उठती।

शाम को जलपान के लिए कुछ बनाया जाए कि भोजन ही जल्द तैयार करें? रमेश की क्या पसंद है, जान लेना चाहिए था। विगत आठ -दस दिनों से सब साथ-साथ ही रह रहे थे। पर रमेश की पसंद-नापसंद कुछ ध्यान में न आयीं मेरे। कहने को यहां सब के साथ थी मैं पर अपनी अलग दुनिया में रहे समान  ही थी । अपनेआप में मगन! आज वास्तव में अकेली हूं । आज घर व्यवस्थित करते-करते बुरीतरह  थक गयी हूं। चाय पीने से शायद ठीक लगे! पर उठकर उतना भी करने को मन नहीं हो रहा है।- तब भी वह उठी। रमेश थका-मांदा आएगा। खाने के लिए कुछ बनाया जाए!

स्कूटर पार्क करके रमेश ने कॉल-बेल दबायी। ‘टिंग…टिंग’ की आवाज घर की सीमा लांघकर छत पर पहुंच गयी। तब कहीं उसे वस्तुस्थिति पता चली। कोई घंटे भर से वह छत पर खड़ी थी। अपनेआप में उलझी हुई-सी। कॉलबेल की आवाज सुनकर वह नीचे आयी। उसने दरवाजा खोला। रमेश ने घर में प्रवेश किया। वहां का हाल देखकर वह कुछ हकबका गया।। अपना ही घर उसे बेगाना लगने लगा।हां, बैठक कुछ प्रशस्त लग रही थी। किनारे का दीवान, अपने स्थान पर न था। लंबाई में रखी हुई गोदरेज अलमारी और प्रशस्त ड्रेसिंग-टेबिल भीतरी दीवार के समीप शिफ्ट किये गये थे। विशेष बात यह थी कि दरवाजे-खिड़कियों के नीले रंग के परदों के कारण एक उदास गंभीरता घर में चक्कर काट रही है, ऐसा उसे लगा। उस पर स्टीरियो से उठते उदास गंभीर सुर उस पर बरस रहे हैं, ऐसा लगा उसे। ऋता थी तब यह कमरा तेज गति की चंचल, चैतन्यमयी स्वरलहरी से सराबोर होता। उसका स्वागत करने का तरीका भी कितना अद्‍भुत…! आते बराबर गले में बांहें डालकर चुंबन की वर्षा। जब देखो, इर्दगिर्द बतियाती, चहकती रहती। हंसना, रूठना, गुस्सा होना, झुंझलाना,प्यार करना, -सबकुछ बेपनाह।वह तो घर छॊड़कर चली गयी। पर उसकी पसंददीदा तमाम चीजें उसने सहेजकर रखी हुई थीं। आज वे कहीं नजर  नहीं आ रही थीं।उस कारण वह कुछ असहज -सा हो गया।

टी-पॉय पर चाय और हलवे की प्लेट रखकर वह भोजन की व्यवस्था के लिए भीतर मुड़ी।

‘अब खाना मत पकाओ। हम लोग बाहर ही चलते हैं भोजन के लिए ।वहां से किसी पिक्चर के लिए चलेंगे। शाहरुख खान-माधुरी की नयी पिक्चर लगी है।’

पिक्चर ऋता का वीक -पाइंट। हिंदी -अंगरेजी, कोई पिक्चर छोड़ती न थी वह! घर लौटने पर फिल्म की अभिनेत्रियां उस पर सवार होतीं और रातभर रंगरेलियां मनातीं।

‘मुझे हिंदी फिल्में बिल्कुल अच्छी नहीं लगतीं। उछलकूद,फूहड़,वही घिसा-पिटा कथानक। नृत्य ऐसे जैसे कवायद की जा रही हो! वही भाग-दौड़, मारपीट, असंभव घटनाओं की खिचड़ी। उसकी बजाए, सरस्वती हॉल में किशोरी अमोणकर का गायन है। वहां चले तो?’

‘पर मुझे क्लासिकल पसंद नहीं है। समझ में नहीं आता। तुम्हारी इच्छा हो तो आऊंगा पर केवल तुम्हें कंपनी देने की खातिर…।’

‘छोड़ो, जाने दो…।’ उसे सवाई गंधर्व की पुण्यतिथि के अवसरपर शेखर के साथ बितायीं रातें याद  आ गयीं।

वह रसोई में चली गयी। रमेश ने फ्रीज में से बर्फ निकाली। गिलास में विस्की उंडेली और धीरे-धीरे महफिल में रंग चढ़ने लगा। …उसने देखी। अनजाने में ही क्यों न हो, नापसंदगी, तिरस्कार की एक तीव्र लहर सरसरा उठी। खाना वैसे ठीक ही था। पर उसे उसमें कुछ मजा नहीं आया। ऋता को नॉन -वेज पसंद था। उसका सबकुछ कैसे चटकदार, स्पाइसी हुआ करता था।

‘कल से सब्जी, आमटी जरा चटकदार बनाओ’, उसने कहा।

‘हंऽ…’ बह बुदबुदायी। शेखर मिष्टान्न-प्रेमी था। उसे अधिक मिर्च भाती न थी। मिर्च , मसाले कमतर डालने की आदत पड़ गयी थी उसके हाथों को। अब यह आदत बदलनी पड़ेगी! इसके साथ और भी पता नहीं कौन-कौन सी आदतें बदलनी पड़ेगी…!

भोजन करके वह बैठक में आ गयी। प्लेअर पर भीमसेन की पुरिया की एल. पी. लगा दी और  सामनेवाले बरामदे में जाकर खड़ी हो गयी। बगिया की रातरानी की गंध उसके रोम-रोम में पुलक जगा रही थी। वह बैठक में आ गया।क्लासिकल की टेप सुनकर उसके माथे पर अनायास बल पड़ गए। उसे बरामदे में खड़ी देखकर वह बेडरूम की ओर मुड़ गया। बेड़-रूम की व्यवस्था भी बदल गयी थी। बेड-कवर्स भी उदास नीले रंग पर फूलों की बारीक प्रिंट वाले…कोने के टी-पॉय पर रखी न्यूड उठाकर वहां एक फ्लॉवर-पॉट रख दिया गया था। उसमें बगीचे में के इस्टर के फूल और बीचोबीच रातरानी की 2-3 ऊंची डंडियां। बैठक में बज रहे पुरिया के स्वर यहां भी दस्तक दे रहे थे।ये उदास स्वर धक्के-से दे रहे हैं, उसे लगा! कहीं की गरुड कथा लेकर वह अराम कुर्सी पर बैठ गया। उसकी बाट जोहते। …ऋता कभी ऐसी देर न करती!

‘भीतर जाना चाहिए, रमेश राह देख रहा होगा!’ उसने सोचा। पर वह घड़ी जितनी टलती जाए उतना बेहतर, दूसरी तरफ उसे लग रहा था। यह रातरानी की गंध जैसे चिमटती है वैसे ही चिमटता था शेखर। सूरज की कोमल किरणों से जैसे एकेक पंखुड़ी खिलती जाती है उसी प्रकार खिलता जाता, रोम-रोम…!

कैसे भला होगा रमेश का करीब आना…?

रमेश तलाकशुदा था तो शैला विधवा। एक शाम को घटित मोटर-सायकिल दुर्घटना में शैला का जीवन ध्वस्त हो गया। उसे भी अब चार साल हो चुके हैं। बहुत से जख्म भर चुके हैं। अकेलेपन की भी आदत पड़ चुकी। पुन: सिरे- से प्रारंभ नहीं। उसने तय कर लिया। …एक ही कमी थी जो भीतर कभी सालती रहती थी। बच्चा चाहिए था जिसे देखकर अगला जीवन जीया जा सकेगा। जीने का कोई अर्थ रहेगा। उमंग रहेगी। बेटा…बेटी कुछ भी …पर शेखर उसे अकेला छोड़ गया! …‘विवाह के बाद पांच साल प्लानिंग करेंगे। मौज-मस्ती करना। जीवन का आनंद लेना। फिर बच्चा। एक बार बच्चा हुआ कि पूरा ध्यान उसकी देखभाल पर देते आना चाहिए। दो तरफ ध्यान नहीं बंटना चाहिए’, वह कहता। वह भी सहमत थी। वह शेखर को मानती थी। पर जो नहीं होना चाहिए था, वह हो गया। अब लगता है, उस समय शेखर की बात का विरोध करना चाहिये था!

शैला सर्विस करती थी। इस लिहाज से, वह किसी पर बोझ न थी। तब भी रिश्तेदारों को चिंता लगी ही रहती थी। और जिम्मेवारी भी। सारा जीवन पड़ा था…युवा-वस्था…।

आरम्भ में उसका तीव्र विरोध था। पर अनुभव से समझ में आने लगा, जरा मुश्किल ही है। रिश्तेदारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। बिल्कुल सगा भाई भी हो तो क्या…? उसकी अपनी गृहस्थी, अपनी अड़चनें  हैं ही।

नैसर्गिक आवेग भी कभी-कभी बेचैन कर डालता। …उसी दौरान भाई के किसी मित्र ने रमेश के बारेमें बतलाया। जहां भी हो, कुछ-न-कुछ समझौता तो करना ही होगा! वह चुप्पी साधे रही। उसके इनकार न करने को ही भाई ने ‘स्वीकार’ समझ लिया और आगे सब कर डाला। … उसे जैसे छुटकारा मिल गया!

रमेश बुद्धिमान था। हरफनमौला था। सैंको सिल्क मिल्स के प्रोसेसिंग विभाग में चीफ टेक्निशियन था। पद अच्छा था। भविष्य में अच्छे प्रॉस्पेक्ट्‍स्‍ थे। दोनों ने परस्पर परिचय कर लिया। स्वभाव, आदतों से अवगत कराया। इस उम्र में और इन हालातों में दोनों को समझौता करना जरूरी था। उसके लिए दोनों ने मन बना लिया था। एक-दूसरे का साथ निभा पाएंगे, इस निर्णय पर पहुंच चुके थे, दोनों। उसने रमेश की ड्रिकिंग, स्मोकिंग के बारेमें कुछ नाराजगी व्यक्त की थी। पर उस समय मम्मी ने कहा था,

‘अरे, कुछ भी कहो, आखिर है तो पुरुष ही न! उस पर, घर में अकेला! आत्मीयता से, अपनेपन से देखनेवाला कोई भी नहीं। मन…शरीर बहलाने के लिए कोई तो साधन होना चाहिए न!…  हो जाएगा धीरे-धीरे कम। मालूम…जिन लोगों में रहना पड़ता है, जिनके साथ काम करना पड़ता है उनकी खातिर भी कुछ चीजें करनी पड़ती हैं!’

‘हंऽऽ…’ वह बोली। शेखर को किसी चीज का शौक न था।… उसने भी वचन दिया था, ‘अपनी आदतें कम करने का प्रयत्न करूंगा।’ इतने साल की आदतें। शरीर को, मन को। एकदम भला कैसे छूटेगीं? ऋता ने कभी विरोध नहीं किया था। कई बार तो वह खुद उसे ‘कंपनी’ दिया करती। पर तब सबकुछ  सीमित था।  ऋता के जाने के बाद ड्रिंक लेना ‘प्लेझर’ तक सीमित न रहकर एक आदत बन गयी थी। वह समझ रहा था पर इलाज न था।… मन बेकाबू हो गया कि सारा अकेलापन विस्की के पेग में डुबो देना! राहुल को, बजाए होस्टल में रखने के, घर में रखा होता तो आदतों पर जरा अंकुश होता। पर घर में कोई नहीं। राहुल पर नजर रखनेवाला, उसकी देखभाल करनेवाला। रमेश की शिफ्ट-ड्यूटी।आखिर होस्टल में रखना ही सुरक्षित, श्रेयस्कर  लगा। … वही तो सबकुछ है। उसकी देखभाल ठीक से होनी चाहिए!

ऋता चली गयी, इस कारण से देह की भूख थोड़े ही न समाप्त हो जाएगी? कब तक बाहर जाएंगे ? उसमें से कुछ कॉम्प्लिकेशंस…!

धीरे-धीरे राहुल बड़ा होगा। समझदार होगा। लोग तरह-तरह की बातें करने लगेंगे, अपने बारेमें…। उसकी बजाए…दोबारा विवाह…बतौर एक समझौता…और उसके एक मित्र ने रखा हुआ शैला का प्रस्ताब उसने स्वीकार कर लिया।दोनों समदु:खी…भुगते हुए…!

भीमसेन की एल. पी. समाप्त हो गयी। ‘रंग कर रसिया आओ अब…’ गुनगुनाते हुए उसने दरवाजा बंद किया। कदम भारी हो चुके थे। पर कभी न कभी तो भीतर जाना ही था…! विगत दो-तीन वर्षों में धुंधली पड़ रहीं शेखर की यादें इस घर में प्रवेश के बाद, विशेषकर पिछले पंदरह दिनों से, फिर  आने लगी थीं। मानो, उनकी चपेट में आ गयी थी वह! अच्छा हुआ, राहुल ने क्षणमात्र के लिए भी रमेश को अपने से दूर नहीं होने दिया। वह अपनी भावनाओं में खोयी रह सकी। अपितु अब वह पल निकट आ चुका है। यद्यपि शेखर की छाया कस कर पकड़ रही है, ऐसा उसे लगने लगा।

उसने बेडरूम में प्रवेश किया। उसकी आहट पाते ही रमेश मे अपनी ‘गरुड कथा’ एक ओर डाल दी। सिगरेट का टुकड़ा मसलकर ऐश-ट्रे के हवाले कर दिया। टेबल-लैम्प बुझाकर नाइट-लैम्प जला लिया। उसे अपने समीप खींचा। उसके मुंह से आती शराब की तीव्र गंध और उसमें मिली हुई सिगरेट की तेज तमाकू की दुर्गंध से उसे उबकाई-सी आने लगी। उसने अनजाने में ही गर्दन घुमा ली। ‘मैंने फिजूल इतनी जल्द हामी भर दी’, वह सोचने लगी।

‘ऋता कितनी उत्कटता से पास आया करती…ज्वार में उठी लहर की भांति लुटा दिया करती थी खुद को। सबकुछ सराबोर…!

जबकि यह ऐसी… बुझी-बुझी…बर्फ की तरह ठण्डी …चेतना शून्य…

वह भी बुझता…बुझता चला गया। उसकी ओर पीठ करके सो गया। मेरा निर्णय गलत तो नहीं न हो गया, यह सोचते हुए पुन: पुरानी यादों में खो गया। ऋता के साथ विवाह होने के बाद के पहले साल की उसकी यादों में खो गया…हमेशा की तरह!

 मूल लेखिका – -उज्ज्वला  केळकर

पता – वसंतदादा साखर कामगारभवन के पास, सांगली 416416

मो. 9403310170 Email-id – [email protected]

भावानुवाद  श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

30, गुरुछाया कालोनी, साईंनगर, अमरावती  444607

संपर्क : मो. 9422856767, 8971063051  * E-mail[email protected] *  web-sitehttp://sites.google.com/view/bhagwan-vaidya

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ लघुकथा – राज्य – लिप्सा – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम लघुकथा “राज्य – लिप्सा”।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ लघुकथा – राज्य – लिप्सा – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

राजा चंद्रललाट अपनी प्रजा की खुशहाली के लिए जंगल में तपस्या कर रहा था। उसके चेहरे पर घनीभूत दाढ़ी थी। तूफान के थपेडों और बरसात के निरंतर प्रहार से उसके शरीर के कपड़े चिथड़े हो गये थे। सहसा एक राक्षस उसके सामने प्रकट हुआ। तपस्या में लीन राजा ने आँखें न खोलीं तो राक्षस ने क्रोधित हो कर दावानल का हाहाकार मचा दिया। पर ईश्वर भक्त राजा का तो बाल बाँका न हुआ। राक्षस को अब निवेदन से कहना पड़ा, “राजन, आँखें खोलिये। मैं भूख से बिलख रहा हूँ। मैं जानता हूँ आप ही मेरी क्षुधा तृप्त कर सकते हैं। ”

किसी की क्षुधा का प्रश्न था तो दयावान राजा चंद्रललाट तपस्या से बाहर आ ही जाता। उसने आँखें खोलने पर अपने सामने भीमकाय राक्षस को खड़ा देखा। उसने भयमुक्त रह कर राक्षस से कहा, “मुझे दुख है मेरी तपस्या अपूर्ण रह गयी। पर तुम्हारी भूख भी तो मेरे लिए अर्थवान है। मैं तुम्हारे लिए भोजन का प्रबंध करता हूँ। ”

राक्षस ने यह सुनते ही गरज कर कहा, “तुम मुझे क्या खिलाओगे चावल तरकारी और फल। ना राजन, मुझे इससे तृप्ति नहीं होगी। मुझे तुम्हारी प्रजा का मांस चाहिए। मेरी भूख मिटाने के लिए अभी ही बीस तक अपनी प्रजा मुझे दो। ”

राजा ने मांस भक्षण का उसका इरादा जानते ही कहा, “तुम्हारी तृप्ति के लिए मैं अपनी प्रजा का बलिदान करने वाला राजा नहीं हूँ। यही बात है तो मेरा भक्षण कर लो। ”

राजा इतना कहते ही उसके सामने बैठ गया। पर यह तो ईश्वरीय माया थी। राक्षस विस्मयकारी दीप्ति से युक्त भगवान में बदल गया। उसने राजा पर फूलों की वृष्टि की और कहा — “लोग सच ही कहते हैं तुम प्रजा वत्सल राजा हो। राजन, अपनी तपस्या को पूर्ण समझो। मैं तुम्हें और तुम्हारी प्रजा को वरदान देता हूँ सफलता और खुशहाली से जगमगाते रहो। ”

यह राजा चंद्रललाट के चारण का लिखा हुआ नाटक था जो पूरे देश में मंचित होता रहता था। जब कि वास्तविक धरातल पर चंद्रललाट तो निरंकुश राजा था। पूर्णरूपेण क्रोधी, ईर्ष्या का खौलता सा अंगारा। लोगों को देखे तो प्यार से, लेकिन उसकी आंतरिक परिभाषा हो अपने शत्रु को देखने का उसे कष्ट झेलना पड़ रहा है।

राजा के हाथों बिके हुए क्रांतिकारी, सिपाही, राजा के मनगढंत कार्यकलापों को महिमा मंडित बना कर नित उसकी जीवनी लिखते रहने वाले शब्दों के मसीहे, राजा के लिए पालकी ढोने वाले पंडे पुजारी वगैरह घूम — घूम कर टोह लगाते रहते थे राजा चंद्रललाट पर आधारित नाटक का आम जनता पर प्रभाव पड़ता है कि नहीं।

© श्री रामदेव धुरंधर

15 – 10 – 2023

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 129 ☆ उंगली उठी तो ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है तेज भागती जिंदगी परआधारित एक विचारणीय लघुकथा उंगली उठी तो। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 129 ☆

☆ लघुकथा – उंगली उठी तो ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘चेतन! उधर देखो – ये क्या कर रहे हैं सब ? एक- सी मुद्रा में खड़े हैं, एक दूसरे की ओर उंगली दिखाते हुए।‘

‘कुछ कहना चाह रहे हैं क्या ?’ -सुयश बोला

‘हाँ, कुछ तो बोल रहे हैं, चेहरे पर गुस्सा दिख रहा है। पर सब एक ही तरह से खड़े हैं ?’

‘कोई मोर्चा निकल रहा है क्या ?’ – सुयश बोला

‘पता नहीं।’

चेतन! वे सब तो हँस रहे हैं लेकिन मुद्रा वैसी ही है एक दूसरे की ओर उंगली दिखाते हुए।

चेतन ने चारों ओर नजर दौड़ाई, इधर दौड़ा – उधर भागा, पर सब तरफ वही दृश्य, वैसी ही मुद्राएं । स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर, राजनीति का कार्यालय या —–। टेलीविजन के कार्यक्रमों में भी तो नेता, मंत्री सब एक- दूसरे की ओर उंगली दिखाते हैं। उसे बचपन का खेल याद आया स्टेच्यू वाला। ये सब स्टेच्यू हो गए हैं क्या ?

पर खेल में तो जो जिस मुद्रा में रहता था उसी में स्टेच्यू हो जाता था, हाँ अच्छे से याद है उसे। बचपन में बहुत खेला है यह खेल। लेकिन यहाँ तो सब एक – सी ही मुद्रा में दिख रहे हैं।

 किसी की उंगली अपनी तरफ उठती क्यों नहीं दिख रही ?

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #154 – लघुकथा – “सरकारी बल्ब” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  “सरकारी बल्ब)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 154 ☆

 ☆ लघुकथा – “सरकारी बल्ब” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

कमल को अपनी पुत्री का नाम कूपन से कटवाना था। वह नगर पालिका में बैठा था। तभी रोहित ने आकर कहा, “साहब! मेरा घर गांव से एक तरफ है। स्ट्रीट लाइट पर बल्ब लगवा दीजिए।” 

यह सुनकर कमल बोला, “साहब! मेरा घर भी वहां पर है। आप बल्ब मत लगाइएगा।”

यह सुनकर सीएमओ साहब ने रोहित के साथ-साथ कहा, “क्यों भाई! क्या बात हैं?”

“साहब, वह वापस फूट जाएगा,” कमल ने कहा तो रोहित बोला, “अजीब आदमी हो। अपने घर की गली में बल्ब लगवाने का मना कर रहे हो।”

सीएमओ साहब ने कमल को देखकर आंखें ऊंचका कर इशारे में पूछा-क्या बात है भाई?

“साहब! इनका पुत्र स्ट्रीट लाइट बल्ब को पत्थर से निशाना लगाकर फोड़ देता है। फिर मेरे जैसा व्यक्ति उनके पुत्र को बल्ब फोड़ने से रोकता है तो ये साहब कहते हैं- आपके बाप का क्या जाता है? सरकारी बल्ब है। फोड़ने दीजिए।”

यह सुनकर रोहित ने गर्दन नीचे कर दी और सीएमओ साहब बारी-बारी से दोनों को देखे जा रहे थे।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

23-09-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 236 ☆ लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 236 ☆

? लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर ?

काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट, हल्की नीली शर्ट, गले में गहरी नीली टाई, कंधे पर लैप टाप का काला बैग, और हाथ में मोबाइल… जैसे उसकी मोनोटोनस पहचान बन गई है. मोटर साइकिल पर सुबह से देर रात तक वह शहर में ही नही बल्कि आस पास के कस्बों में भी जाकर अपनी कंपनी के लिये संभावित ग्राहक जुटाता रहता, सातों दिन पूरे महीने, टारगेट के बोझ तले. एटीकेट्स के बंधनो में, लगभग रटे रटाये जुमलों में वह अपना पक्ष रखता हर बार, बातचीत के दौरान सेलिंग स्ट्रैटजी के अंतर्गत देश दुनिया, मौसम की बाते भी करनी पड़ती, यह समझते हुये भी कि सामने वाला गलत कह रहा है, उसे मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाना बहुत बुरा लगता पर डील हो जाये इसलिये सब सुनना पड़ता. डील होते तक हर संभावित ग्राहक को वह कंपनी का “ब्रांड एम्बेसडर” कहकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता जिसमें वह प्रायः सफल ही होता. डील के बाद वही “ब्रांड एम्बेसडर” कंपनी के रिकार्ड में महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता. बाद में कभी जब कोई पुराना ग्राहक मिलता तो वह मन ही मन हँसता, उस एक दिन के बादशाह पर. उसका सेल्स रिकार्ड बहुत अच्छा है, अनेक मौकों पर उसकी लच्छेदार बातों से कई ग्राहकों को उसने यू टर्न करवा कर कंपनी के पक्ष में डील करवाई है. अपनी ऐसी ही सफलताओ पर नाज से वह हर दिन नये उत्साह से गहरी नीली टाई के फंदे में स्वयं को फंसाकर मोटर साइकिल पर लटकता डोलता रहता है, घर घर.

इयर एंड पर कंपनी ने उसे पुरस्कृत किया है, अब उसे कार एलाउंस की पात्रता है,

आज कार खरीदने के लिये उसने एक कंपनी के शोरूम में फोन किया तो उसके घर, झट से आ पहुंचे उसके जैसे ही नौजवान काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट, हल्की भूरी शर्ट, गले में गहरी भूरी टाई लगाये हुये… वह पहले ही जाँच परख चुका था कार, पर वे लोग उसे अपनी कंपनी का “ब्रांड एम्बेसडर” बताकर टेस्ट ड्राइव लेने का आग्रह करने लगे, तो उसे अनायास स्वयं के और उन सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नौजवानो के खोखलेपन पर हँसी आ गई.. पत्नी और बच्चे “ब्रांड एम्बेसडर” बनकर पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे.. निर्णय लिया जा चुका था, सब कुछ समझते हुये भी अब उसे वही कार खरीदनी थी. डील फाइनल हो गई. सेल्स रिप्रेजेंटेटिव जा चुके थे. बच्चे और पत्नी बेहद प्रसन्न थे. आज उसने अपनी पसंद का रंगीन पैंट और धारीदार शर्ट पहनी हुई थी बिना टाई लगाये, वह एटीकेट्स का ध्यान रखे बिना धप्प से बैठ गया अपने ही सोफे पर. . आज वह “ब्रांड एम्बेसडर” जो था.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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