(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – सबसे ऊँची ज़मीन)
☆ लघुकथा – सबसे ऊँची ज़मीन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
लुटे पिटे, पस्त लोगों का क़ाफ़िला सरहद पार करते ही रुक गया। सबने एक दूसरे को देखा – किसी की उँगली कटी हुई थी, किसी के कंधे पर ज़ख़्म था तो किसी के सिर पर। कोई लंगड़ाता हुआ चला आया था तो कोई रोता हुआ। लगभग सभी के जिस्मों पर ख़ून के सूख चुके या सूख रहे धब्बे थे। ख़ैरियत सिर्फ़ इतनी थी कि जान बच गई थी। अब सब इस तरफ़ की धरती को देख रहे थे, जहाँ उनका बसेरा होने वाला था। एक शख़्स ने कहा – इधर की ज़मीन उधर से ऊँची तथा पवित्र लग रही है।
ज़्यादातर लोगों ने उसकी बात से सहमति जताई। तभी एक छः महीने का बच्चा भूख से रोया। उसकी माँ की एक छाती बलवाइयों ने काट दी थी। माँ ने बच्चे को बची रह गई छाती से चिपका लिया और उसे दूध पिलाती हुई उसके सिर पर हाथ फिराने लगी।
उसी शख़्स ने फिर कहा – मैं ग़लत था, कोई भी ज़मीन बच्चे को दूध पिलाती माँ की छाती से ऊँची तथा पवित्र नहीं हो सकती। फिर सभी ने सिर झुकाकर सहमति जताई। इस बार सबके हाथ जुड़े हुए थे, आँखें चू रही थीं।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “अर्धनारीश्वर“.)
☆ लघुकथा – अर्धनारीश्वर ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
जब उसकी पत्नी नहीं रही तो नल पर पानी लेने उसे ही सड़क पर आना पड़ा। नल पर मोहल्ले की महिलाओं का पूरा वर्चस्व था।
एक के बाद एक महिलाएं पानी भरती जाती और वह टुकुर-टुकुर दूर से खड़ा देखता रह जाता। जब भी कभी उसने बीच में घुसने की कोशिश की तो उसे डांट दिया जाता।
जब पूरी महिला मंडली पानी भर लेती तब कहीं उसका नंबर आता। इस कारण उसका गृह कार्य पिछड़ जाता, ऑफिस भी प्राय; लेट हो जाता। फलस्वरुप उसे रोज ही डांट खानी पड़ती।
वह अंदर ही अंदर परेशान था, पर इसका कोई उपाय उसे समझ में नहीं आ रहा था।
अंततः उसे एक उपाय सूझा। उसने अपने केश बढ़ाए और अर्धनारीश्वर का रूप धारण कर लिया। वह भोंडेपन से कमर हिलाकर पानी लेने आता। उसे देखते ही महिलाएं तितर बितर हो जाती, जिसका फायदा उसे मिलता और उसका सारा गृह कार्य समय पर निबट जाता। अब उसे अपने बास की छत झिड़कियां नहीं खानी पड़ रही थी। अर्धनारीश्वर बनने का उसे पूरा फायदा मिल रहा था।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “सहानुभूति…”।)
☆ लघुकथा – ‘सहानुभूति’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
अमीरों की बस्ती में बीस बाइस साल की सुंदर सी लड़की रोटी चोरी करते जब पकड़ी गई तो पुलिस ने झोपड़ी में बीमार सत्तर साल के मजदूर को पकड़ा। इसी मजदूर ने उसे पाला पोसा था, उसने बताया कि भोपाल गैस त्रासदी की रात तालाब के किनारे नौ-दस महीने की रोती हुई लड़की मिली थी, रोती हुई लड़की के पास एक महिला अचेत पड़ी थी शायद मर चुकी थी। तब से जब ये थोड़ी बड़ी हुई तो अमीरों के घर बर्तन साफ करके गुजारा करती रही।
बस्ती में न उसे कोई बहन कहता न कोई उसे बेटी कहता। इस बस्ती में उसने सिर्फ एक रिश्ता ही ज्यादा देखा कि प्रत्येक नजर उसके युवा तन पर फिसलती और वासना के अजनबी रिश्ते को जोड़ने का प्रयास करती। होली दीवाली, रक्षाबंधन सारे त्यौहार उसके लिए बेमानी। किसी पवित्र रिश्ते की सुगन्ध के लिए वह तरसती ही रही।
एक दिन जब बड़े साहब की पत्नी मायके गई थी और उस दिन मौसम भी बेईमान था, साहब ने उसे गर्म पकौड़ी बनाने कहा, खौलते तेल में पकौड़ी जब तैर रहीं थीं तो साहब ने पीछे से उसके ब्लाउज में हाथ डाल दिए, कड़ाही पलट गयी थी, खौलते तेल से बेचारी का चेहरे, गले और स्तनों में फफोले पड़ गये थे, सुंदर चेहरा बदसूरती में तब्दील हो गया था।
कुछ दिन बाद जब वह ठीक होकर काम पर जाने लगी तो उसे आश्चर्य हुआ सभी घरों के साहब अब उसे बहन, बेटी जैसे संबोधनों से सहानुभूति देने लगे थे।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा ‘वक्त वक्त की बात-‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 212 ☆
☆ लघुकथा – वक्त वक्त की बात☆
अम्माँजी अब अट्ठानवे पार की हुईं। अभी टनमन हैं। अपने सब काम खुद कर लेती हैं। किसी का हाथ नहीं थामना पड़ता। बड़ी बहू को बीनने-फटकने में मदद देती रहती हैं। सबेरे मुँह अँधेरे उठकर घर में कुछ न कुछ खड़बड़ करने लगती हैं।
अम्माँजी परिवार के मित्रों-परिचितों के बीच अजूबा बनी हुई हैं। जो घर में आता है वह पहले उन्हीं के हाल-चाल पूछता है। घर में आने वाले के लिए उनके ‘दर्शन’ ज़रूरी होते हैं। दर्शन के बाद लोग उनके पास बैठ जाते हैं, कहते हैं, ‘अम्माँजी, हमारे सिर पर हाथ धर दो। हम भी कम से कम सत्तर पार हो जाएँ। अभी तो उम्मीद कम है।’ अम्माँजी को भी इन बातों में मज़ा आता है। मिलने वाला लौट कर अपने घर जाता है तो वहाँ सबसे पहले अम्माँजी की कैफियत ही ली जाती है।
परिवार के लोग भी अम्माँजी के कारण उन्हें मिलते महत्व से खुश होते हैं। बहुत से लोग सिर्फ अम्माँजी के दर्शन के लिए आते हैं। मन्दिर की देवी की तरह पहले उनके दर्शन करके ही आसन ग्रहण करते हैं। अम्माँजी के तीन बेटे हैं। वे बड़े बेटे गजराज के साथ रहती हैं।
लेकिन गजराज अम्माँजी जैसे खुशकिस्मत नहीं रहे। तम्बाकू खाने की लत लगी थी। उसे ही जबड़े में दबाये दबाये सो जाते। गले में तकलीफ रहने लगी। डॉक्टर ने जाँच की। कहा, ‘लक्षण अच्छे नहीं हैं। दवा लिखता हूँ। नियम से खाइए और तीन-तीन महीने में जाँच कराइए। रोग बढ़ा तो फिर दूसरा ट्रीटमेंट कराना पड़ेगा।’
गजराज ठहरे लापरवाह। दवा खाने में लापरवाही हो जाती, जाँच कराने में भी। अन्ततः वे कमज़ोर होते होते तेहत्तर साल की उम्र में दुनिया से विदा हो गये।
परिवार पर दुख का पहाड़ टूटा। अम्माँजी इस बड़ी विपत्ति के आघात से संज्ञाशून्य हो गयीं। अब वे दिन भर घर के किसी कोने में चुप बैठी रहतीं। खाने-पीने की याद दिलानी पड़ती। परिवार की ज़िन्दगी को जैसे लकवा लग गया।
अब जो मिलने वाले आते उनसे अम्माँजी बचतीं। ऐसा लगता है जैसे उन्हें किसी बात पर शर्म आती हो। लोग आते तो उन्हें प्रशंसा के बजाय सहानुभूति से देखते। मुँह से ‘च च’ की ध्वनि निकलती। बाहर निकलते तो साथियों से कहते, ‘अम्माँजी का भाग्य देखो। बेटा चला गया, वे अभी तक बैठी हैं। भगवान ऐसी किस्मत किसी को न दे। ऐसी लम्बी उम्र से क्या फायदा!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री दिनेश अवस्थी जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। आदरणीय श्री दिनेश जी, परसाई की नगरी जबलपुर से हैं । उन्हें परसाई साहित्य से अगाध प्रेम है । उन्होंने परसाई रचनावली के समस्त 6 खंडों की रचनाओं की एकीकृत सूची बनाई है। वे स्वयं भी व्यंग्य, कहानी आदि लिखा करते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी ममता।)
☆ कथा कहानी ☆ ममता ☆ श्री दिनेश अवस्थी ☆
एक परिवार की कहानी है। वैसे तो यह कहानी सैकड़ों परिवार की है। पति-पत्नी के चार बेटे थे। बेटी नहीं थी। मध्यमवर्गीय सामान्य परिवारों की तरह पति-पत्नी बेटी न होने का रोना रोते और बेटी न होने पर भीतर ही भीतर खुश होते। तीन बेटे पूर्णतः स्वस्थ थे। सबसे छोटा चौथा बेटा, शरीर से स्वस्थ किन्तु मंद-बुद्धि था। तीनों बेटे पढ़-लिख गए पर मंदबुद्धि नहीं पढ़ पाया। तीनों स्वस्थ बेटे इतने भी योग्य नहीं थे कि कोई बड़ी आर्थिक-क्षमता धारण करते। पिता की पेंशन तीनों की आय से अधिक थी। अपने मित्र के यहां ऑफिस कार्य कर वे अतिरिक्त आय पा लेते थे । पिता की अधिक आय ने तीनों स्वस्थ बेटों को रोक रखा था वरना बेटों की अधिक आय पिता की उपेक्षा और बदतमीजी का कारण बनती ही है।
सामान्यतः पेंशन यानि आधा वेतन पूरी अवहेलना और तिरस्कार लेकर आता है। पिता इस मामले में भाग्यशाली थे। कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण तीनों बेटे पिता के प्रति आज्ञाकारी और विनम्र थे। पेंशन तथा अतिरिक्त आय के साथ अपनी कमाई मिलाकर वे किसी तरह पिता के घर के भीतर ‘अपना घर’ चला रहे थे।
मंद बुद्धि बेटा घर पर ही बैठा रहता था। जिस घर में पर्याप्त अर्थ नहीं होता वहां बहुत सी बातें दिखने और घटने लगती हैं। बचपन में बड़े भाई छोटे को घोड़ा बनकर पीठ पर बैठाते थे अब पीठ पर चढ़े बिना ही वह उन्हें भारी दिखने लगा। दिन प्रतिदिन वह और भारी लगने लगा था। मंद बुद्धि छोटा भाई उन्हें मुफ्त की रोटी तोड़ने वाला दिखने लगा। बड़ी भाभी द्वारा कभी दिया गया संबोधन बैल अब सबकी जुबान पर था। बात होने लगी थी कि बैल जैसा है, कुछ न करे तो मजदूरी ही करे। चारों में तीसरा बेटा मुंह फट और उद्दंड प्रवृत्ति का था, बोला- इन कलेक्टर साहब को पिता जी की शह है।
कहते हैं कि बेटा मजदूरी नहीं करेगा, मेरी इज्जत का सवाल है। अब कौन बताए कि रिटायर हेड क्लर्क की ऐसी कौन-सी इज्जत होती है जो इन साहब के मजदूरी करने से चली जाएगी। घर में सर्वाधिक आय वाली पेंशन का दबाव काम कर जाता। स्वस्थ बेटे मन मसोस कर रह जाते।
बैल के मजदूरी करने के प्रस्ताव ने प्रारंभ में पिता और मां दोनों को ही चोट पहुंचायी। ताजा रिटायर हो चुके किंतु पूरे वेतन के प्रभाव से मुक्त न हो सके पिता अधिक आहत हुए थे। मंद बुद्धि बेटे के लिए बैल शब्द से आहत उनका अहंकार बोला- मैं अभी जिंदा हूं। अपनी पेंशन से इसे खिला सकता हूं। मेरे बाद इसकी मां को पेंशन मिलेगी वो इसे खिलाएगी। मां के बाद भी तो मंद बुद्धि बेटे को जीवित रहना है तब उसे कौन खिलाएगा? पेंशन तब बंद हो जायेगी। इसका उत्तर न तो पिता के पास था और न ही मां के पास। पिता को लगता था कि मृत्यु उपरांत शरीर रहित होकर भी वे परिवार को वैसे ही नियंत्रित करेंगे जैसे अभी कर रहे हैं। पारिवारिक सदस्य उन्हें तब भी मानेंगे जैसा कि अभी मानते हैं। वे यह भूल जाते थे कि उन्हें माने जाने का कारण पेंशन तो तब नहीं रहेगी। तब क्या? अभी ही अगर उनकी पेंशन नहीं होती और बेटों की आय से अधिक नहीं होती, तब इसी लोक में उनकी दुर्गत होती। वे यह नहीं सोच पाए कि मृत्यु उपरांत न तो उनकी चेतना रहेगी, न स्मरण शक्ति और न ही अनुभूति होगी। तब मंद बुद्धि बेटा खाता है या नहीं उसकी मुझे क्या फिक्र करना? मृत्यु उपरांत मैंने किसी अन्य परिवार में जन्म ले लिया तब क्या होगा? इस परिवार की परिचय पुस्तिका के दहन उपरांत ही तो मुझे किसी दूसरे परिवार में स्थान मिलेगा।
यह भी हो सकता है कि उस पार का जीवन, इस पार के जीवन से सरल न हो। उस पार कया होगा ? प्रतिकूल होगा या अनुकूल होगा ? इस पार की चिंताओं को रखने की जगह, उस पार मिलेगी कि नहीं ? इस पार की जिंदगी का अभ्यस्त व्यक्ति यही समझकर अनुमान लगाता है कि उस पार भी, इस जीवन से भिन्नता नहीं होगी। इस कहानी के परिवार का मुखिया भी ‘इस पार की चिंता’ से ग्रस्त रहता था। उस पार तो शरीर नहीं जाता, आत्मा जाती है। आत्मा को भूख नहीं लगती, उसे छत की आवश्यकता नहीं होती, वह कभी बीमार नहीं पड़ती, वह कभी बालक और वृद्ध नहीं होती फिर चिंता से उसका क्या संबंध ?
मंद बुद्धि बेटा कहां जानता था कि वह मुफ्त की नही खा रहा है। उपेक्षा के कटु वचनों और तिरस्कार को ग्रहण कर रोटी की कीमत अदा कर रहा है। संतोष-असंतोष, तटस्थता, आनंद, प्रसन्नता, दुख, चिंता, उपेक्षा और तिरस्कार में से किसी एक का साथ रोटी को चाहिए। बगैर किसी साथ के रोटी पेट में नहीं जाती।
रिटायरमेंट के दो वर्ष बाद पिता को भी छोटा बेटा मुफ्त की रोटी तोड़ने वाला लगने लगा। अब तक वे पूरे वेतन के प्रभाव से मुक्त हो चुके थे। मां के भीतर मातृत्व ने दो वर्ष तक मंद बुद्धि बेटे की छवि मुफ्त की रोटी तोड़ने वाली नहीं बनने दी । मां और अकेला मंद बुद्धि बेटा होते तब मां को वह नहीं खटकता। अकेली मां की ममता चार हिस्सों में विभाजित थी। ममता के तीन हिस्सों, मंद बुद्धि बेटे के चौथे हिस्से पर भारी पड़ने लगे। आखिर कब तक वह तीन गुने भारी हिस्सा का बोझ उठाती? उसे भी लगने लगा कि मंद बुद्धि बेटे की उपेक्षा और तिरस्कार ‘अधिक अनुचित’ नहीं है। उपेक्षा और तिरस्कार जब पाला बदलते हैं तब उनका कसैलापन, मीठे पन में बदल जाता है। ममता के चौथे हिस्से ने मां को बेटे का बैल होना नहीं दिखाया पर शेष तीन हिस्सों की तिगुनी ममता ने दूसरों के द्वारा ‘बैल’ तथा “मुफ्त की रोटी’ शब्दों के उच्चारण के प्रति उसके विरोध और आपत्ति को समाप्त कर दिया।
गाली, अपमान, तिरस्कार और घृणा को जीवन का सहज अंग स्वीकार कर लेने पर उनकी क्षमता का दंश कुंठित हो जाता है। भारतीयों ने गुलामी को इसी तरह से घातक की श्रेणी से उठाकर सहज जीवन-शैली में ढाल लिया था।
धीरे-धीरे मंद बुद्धि बेटे के प्रति मां की आंखों पर पड़ा ममता का परदा खिसकने लगा। बैठे-बैठे मुफ्त की रोटी तोड़ने वाले बेटे के प्रति पारिवारिक सदस्यों की उपेक्षा अब उसे अनुचित तो लगती थी पर आहत नहीं करती थी। आहत न करने वाली उपेक्षा और तिरस्कार बड़ी आसानी से सहन हो जाते हैं। सैकड़ों वर्षों तक अछूत और दलितों द्वारा आपत्तिविहीन जीवन यापन के पीछे का यही रहस्य है।
बच्चे जब छोटे थे तब अन्य कोई विकल्प न होने पर मां, घरों में बर्तन, झाड़ू-पोंछा कर चारों बच्चों का पेट पाल लेती। बच्चों और उसकी ममता के बीच अब समय आ खड़ा हुआ था। घरों में बर्तन मांज कर मंद बुद्धि बेटे को ‘पाल’ लेने की बात अब उसके दिमाग में आ ही नहीं सकती थी। प्रेम व्यक्तिगत और सार्वभौमिक गुण है। करुणा और त्याग भी सार्वभौमिक और व्यक्तिगत मूल्य है। सभ्यता के विकास में यह तय हुआ कि मानवीय-मूल्य तभी शिखर पाएँगे जब वे सार्वभौमिक होंगे। ममता सार्वभौमिक गुण नहीं है। ममता को चाहे जितना बड़ा, विराट कर देखा जाए पर है वह व्यक्तिगत मूल्य ही। व्यक्तिगत मूल्यों के बीच ममता का आकार अत्यंत संकुचित घेरे जैसा है। काश महिलाओं की ममता सार्वभौमिक होती जिसे उन्होंने पेटजायी संतान तक संकीर्ण घेरे म॑ं सीमित कर रखा है।
ममता यदि सार्वभौमिक होती तब यह दिव्य, आलौकिक गुण होता। तब आकाश गंगा में पृथ्वी की महिमा-गान के लिए खरबों-खबर पृष्ठ भी कम होते। सैकड़ों साल बाद जहाँ पहुँचने का सपना आज मनुष्य देख रहा है, वहां आज से पाँच सौ साल पहले पहुँच चुका होता।
बहुत सी ऊर्जाएं व्यर्थ हो जाती हैं । भाप के इंजन की भाप ऊर्जा का बहुत बड़ा भाग व्यर्थ चला जाता है। घरों में पहुंच रही विद्युत-ऊर्जा का बहुत बड़ा हिस्सा व्यर्थ हो जाता है। प्रसव-जन्य दर्द से उत्पन्न ममता का एक बड़ा हिस्सा, समय के साथ आगे जाकर व्यर्थ होता जाता है। चौबीसों घंटे छाती से चिपकाई गई नवजात बच्ची, बारह-तेरह बरस की होने पर पैसे लेकर लेकर मां द्वारा ही वेश्यालय के सुपुर्द कर दी जाती है।
छाती से चिपके नवजात शिशु सात-आठ बरस की उम्र में होटलों की झूठी प्लेटें साफ करने हेतु भेज दिए जाते हैं। गीतों और कहानियों में प्रतिष्ठा के ढेर पर बैठी ममता इतनी कमजोर होती है कि आठ साल के बच्चे को ठेकेदार द्वारा मां बहन की गालियों सहित अमानवीय तरीके से पीटे जाने पर कुछ नहीं कर सकती। विरोध तक नहीं कर सकती।
ममता तभी तक ममता है जब तक उसके समक्ष अर्थ और समय न खड़े हों। समय और अर्थ के आगे कैसी ममता? कहां का ममत्व ? समय और अर्थ के आगे कैसा प्रेम और कहां का स्नेह ?
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘जेनरेशन गैप’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 127 ☆
☆ लघुकथा – जेनरेशन गैप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
‘माँ! मुझे हॉस्टल में नहीं रहना है, बहुत घुटन होती है वहाँ। शाम को सात बजे ही हॉस्टल में आकर कैद हो जाओ। लगता है जैसे जानवरों की तरह पिंजरे में बंद हों। मुझे अपने दोस्तों के साथ फ्लैट में रहना है। ‘
‘बेटी! अनजान शहर में लड़कियों के लिए हॉस्टल में रहना ही अच्छा होता है, सुरक्षा रहती है। हॉस्टल के कुछ नियम होते हैं, उन्हें मानना चाहिए। और मैं भी यहाँ निश्चिंत रहती हूँ ना!। ‘
‘ये नियम नहीं बंधन हैं, जेल में कैदी के जैसे। और नियम सिर्फ लड़कियों के हॉस्टल के लिए होते हैं? लड़कों के हॉस्टल में तो ऐसा कोई नियम नहीं होता कि उन्हें हॉस्टल में कब आना है और कब जाना है, उन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए क्या?’
माँ सकपकाई – ‘हाँ- हाँ — लड़कों के हॉस्टल में भी ये नियम होने चाहिए। पर लड़कियाँ अँधेरा होने से पहले घर आ जाएं तो मन निश्चिंत हो जाता है बेटी! अँधेरे में जरा डर बना रहता है। ‘
‘क्यों? क्या दिन में लड़कियाँ सुरक्षित हैं? आपको याद है ना! दिन में ट्रेन में चढ़ते समय क्या हुआ था मेरे साथ? ‘
‘हाँ – हाँ, रहने दे बस, सब याद है’ – माँ ने बात को टालते हुए कहा – ‘पर चिंता तो —– ‘
‘पर – वर कुछ नहीं, मुझे बताईए कि इसमें क्या लॉजिक है कि लड़कियों को घर जल्दी आ जाना चाहिए। हॉस्टल में बताए गए समय पर गेट के अंदर आओ, फिर मैडम के पास जाकर हाजिरी लगाओ। और यह चिंता- विंता की रट क्या लगा रखी है? कब तक यही कहती रहेंगी आप? बोलिए ना! ‘
माँ चुप रही — ‘आप मानती ही नहीं, खैर छोड़िए, बेकार है आपसे बात करना। आप कभी नहीं समझेंगी मेरी इन बातों को ’, यह कहकर बेटी पैर पटकती हुई चली गई।
बेटी की नजर में दुराचार की घटनाओं के लिए रात -दिन बराबर थे।
माँ की आँखों में रात के अंधकार में घटी बलात्कार की सुर्खियाँ जिंदा थीं।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “झोलाराम“.)
☆ लघुकथा – झोलाराम ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
एक था झोला राम। उसे झोला खरीदने का बड़ा शौक था। जहां भी कोई नया नायाब झोला दिखाई देता, उसे खरीद लेता।
बहुत सारे झोले उसके पास हो चुके थे।
एक दिन उसकी जिंदगी में बुरा समय आ गया। दाने दाने को मोहताज हो गया था झोला राम। जब फाका पड़ा तो उसने एक झोला बेच दिया। कुछ दिनों बाद दूसरा फिर तीसरा।
सुंदर और नायाब झोले, फटाफट बिक जाते।
एक दिन उसने पुराने और नए झोलों को मिलाकर एक नई डिजाइन का झोला बनाकर बाजार में पेश कर दिया।
झोले खूब बिके। एक दिन वह सेठ झोला राम बन गया। उसने अपने नए महल का नाम ‘झोला महल’ रखा।
फिर झोला बाग, झोला बाजार बनते रहे। वह अपने घर में झोले की पूजा पहले करता, दूजा काम बाद में होता।
‘झोला नगर’ बनते बनते सेठ झोला राम प्रसिद्धि के सोपान पार कर चुका था। एक दिन अखबार वाले चले आए और सेठ झोलाराम से उसकी सफलता का राज पूछने लगे।
झोलाराम बोला- ‘अपने शौक को बाजार तक पहुंचाने की कला भर आनी चाहिए बस, यही मैंने किया है। शौक और कला मिलकर माला माल कर सकते हैं।’
सेठ झोला राम का यह वक्तव्य दूसरे दिन शहर के सारे अखबारों में मुख पृष्ठ पर छापा गया था।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कहानी ‘दावत—‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 210 ☆
☆ कहानी – दावत-☆
नन्दू के कमरे में कुछ दिनों से रौनक है। लोगों का आना-जाना बना रहता है। बाहर बोर्ड लटक रहा है— ‘जयकुमार फैंस क्लब’। जयकुमार मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी है और नन्दू स्थानीय जयकुमार फैंस क्लब का अध्यक्ष है। एक तरह से वह क्लब का आजीवन अध्यक्ष है क्योंकि क्लब का सूत्रधार वही है। जयकुमार के लिए उसकी दीवानगी इंतहा से परे है। टीवी पर जयकुमार के दर्शन से ही वह धन्य हो जाता है।
कमरे में घुसते ही सब तरफ जयकुमार की बहार दिखती है। सब तरफ विभिन्न मुद्राओं में जय कुमार के फोटो हैं। चार फोटो नन्दू के साथ हैं जिनमें नन्दू गद्गद दिखायी पड़ता है। जयकुमार का एक लंबा-चौड़ा पोस्टर ठीक नन्दू की कुर्सी के पीछे है। दफ्तर में घुसने पर सबसे पहले नन्दू पोस्टर को प्रणाम करता है, फिर अगरबत्ती जलाकर उसके चारों तरफ घुमाता है। इसके बाद ही दफ्तर का कामकाज शुरू होता है। उसके क्लब में पन्द्रह बीस सदस्य हैं जो उसी की तरह क्रिकेट के दीवाने हैं। जयकुमार का मैच देश में कहीं भी हो, नन्दू दो चार दोस्तों के साथ ज़रूर देखने पहुँचता है। जयकुमार के क्रिकेट के सारे रिकॉर्ड उसकी ज़बान पर हैं। पूछने पर कंप्यूटर की तरह फटाफट आँकड़े फेंकता है।
जयकुमार फैंस क्लब हर साल धूमधाम से अपने हीरो का जन्मदिन मनाता है। कोई और जगह नहीं मिलती तो नन्दू के मकान की छत पर ही इन्तज़ाम हो जाता है। गाने-बजाने के अलावा पास की झोपड़पट्टी के पचीस-तीस लड़कों को भोजन कराया जाता है। नन्दू सदस्यों के अलावा आसपास के लोगों से कुछ चन्दा बटोर लेता है। शहर में क्रिकेट-प्रेमियों की संख्या अच्छी ख़ासी है, उनसे भी सहयोग मिल जाता है।
अभी आठ दिन बाद जयकुमार का जन्मदिन है, इसलिए दफ्तर में चहल-पहल है। नन्दू बेहद व्यस्त है। कार्यक्रम बनाने के अलावा दावत में बुलाये जाने वाले लड़कों को सूचित करना है। अखबारों में इस आयोजन की सूचना देनी है। आयोजन के बाद फिर फोटो और रिपोर्ट छपवानी होगी, जिसकी एक कॉपी जयकुमार को भेजी जाएगी। यह सब ठीक से निपटाने के लिए अखबारों के रिपोर्टरों को बुलाना होगा।
नन्दू के लिए झोपड़पट्टी के लड़कों को बुलाना मुश्किल काम है। एक बुलाओ तो दस लपकते हैं। इसलिए उसने झोपड़पट्टी में अपना ठेकेदार नियुक्त कर दिया है जो पलक झपकते लड़कों का इन्तज़ाम कर देता है और कोई हल्ला- गुल्ला या बदइंतज़ामी नहीं हो पाती।
ठेकेदार दम्मू है। अभी लड़का ही है। आठवीं तक किसी तरह स्कूल में सिर मारने के बाद घर में बैठ गया है। लेकिन है चन्ट, इसलिए लोगों के संकट-निवारण के पचासों काम हाथ में लिये रहता है। आदमी अक्लमंद हो तो काम और दाम की कमी नहीं रहती। चुनाव के वक्त दम्मू की व्यस्तता बढ़ जाती है। हर चुनाव में वह अच्छी कमाई कर लेता है।
दम्मू के पास झोपड़पट्टी के लड़कों की लिस्ट है जो उसके बुलाने पर हाज़िर हो जाते हैं, चाहे वह कहीं ड्यूटी करने का काम हो या भोजन करने का। जयकुमार के जन्मदिन की खबर फैलते ही लड़के दम्मू के आसपास मंडराने लगे हैं और दम्मू का रुतबा बढ़ गया है। वह अपनी छोटी सी नोटबुक में लड़कों के नाम जोड़ता-काटता रहता है। अक्सर किसी लड़के को सुनने को मिलता है— ‘अपनी शकल देखी है आइने में? कितने दिन से नहीं नहाया? वहाँ सबके सामने मेरी नाक कटवायेगा? बालों और कपड़ों की हालत देखो। कल बाल कटवा कर और ढंग के कपड़े पहन कर आना, तब सोचूँगा।’ लड़का शर्मिन्दा होकर खिसक लेता है। चौबीस घंटे बाद कपड़े-लत्ते ठीक कर फिर इंटरव्यू के लिए हाज़िर हो जाता है।
झोपड़पट्टी में सुरिन्दर भी रहता है। बारहवीं का छात्र है। पढ़ाई-लिखाई में अच्छा है। दम्मू उस पर मेहरबान रहता है। कहीं भोजन- पानी का जुगाड़ हो तो लिस्ट में सुरिन्दर को ज़रूर शामिल कर लेता है। सुरिन्दर को भी मज़ा आता है। घर में जो भोजन नसीब नहीं हो पाता वह बाहर मिल जाता है।
सुरिन्दर के पिता प्राइवेट फैक्टरी में मुलाज़िम हैं। तनख्वाह इतनी कि किसी तरह गुज़र-बसर हो जाती है। बाज़ार की चमकती हुई चीजों को बच्चों तक पहुँचाना उनके लिए कठिन है। हीनता और असमर्थता की भावना हमेशा जकड़े रहती है। उन्हें पसन्द नहीं कि उनका बेटा खाने-पीने के लिए इधर-उधर जाए, लेकिन सुरिन्दर उन्हें निरुत्तर कर देता है। कहता है, ‘पापा, इसमें हर्ज क्या है? सब तरह की चीजें खाने को मिल जाती हैं—पिज़्ज़ा, बर्गर,चाइनीज़ और चाहे जितनी आइसक्रीम। नो लिमिट। घर में तो ज्यादा से ज्यादा पराठा-सब्जी। खाते खाते बोर हो जाते हैं।’
पिता को जवाब नहीं सूझता। बाज़ार में भोजन की चीज़ों की विविधता बढ़ने के साथ निर्बल पिताओं की मुसीबत भी बढ़ रही है। घर का सामान्य भोजन अखाद्य हो गया है।
जन्मदिन की शाम दम्मू लड़कों की लिस्ट के साथ नन्दू के घर पर डट गया। कहीं कोई अवांछित लड़का शामिल न हो जाए। लड़कों का नाम बुलाकर नोटबुक में टिक लगाया जाता है। एक तरफ उन लड़कों का छोटा सा झुंड है जो दम्मू की लिस्ट में नहीं हैं। उनकी आँखों में उम्मीद है कि शायद लिस्ट का कोई लड़का हाज़िर न हो और उनकी किस्मत खुल जाए।
नन्दू का घर रंग-बिरंगे बल्बों से सजा है। कार्यक्रम ऊपर छत पर है। क्रिकेट के एक पुराने खिलाड़ी मुख्य अतिथि हैं। मुहल्ले के तीन चार गणमान्य लोग भी हैं। बाकी क्लब के सदस्य हैं।
कार्यक्रम शुरू होता है तो जन्मदिन का केक कटता है। सामने जयकुमार का फोटो है। ‘हैपी बर्थडे टु यू’ गाया जाता है। एक लोकल आर्केस्ट्रा भी बुलाया गया है।
क्लब के सचिव के प्रतिवेतन के बाद मुख्य अतिथि का भाषण हुआ। मुख्य अतिथि क्रिकेट के अपने दिनों की यादों में खो गये। भाषण लंबा खिंचा तो भोजन करने आये लड़के कसमसाने लगे। मुख्य अतिथि के भाषण के बाद अन्य अतिथियों के द्वारा क्लब को आशीर्वाद और शुभकामना देने का सिलसिला चला। फिर क्लब के अध्यक्ष के द्वारा कृतज्ञता-ज्ञापन। इसके बाद आर्केस्ट्रा शुरू हो गया जो एक घंटे तक चला। भोजनातुर लड़कों का धीरज छूट गया। आर्केस्ट्रा की धुनें कर्कश लगने लगीं। जैसे तैसे भोजन की नौबत आयी,लेकिन भोजन सामग्री की विविधता और प्रचुरता ने सारे गिले-शिकवे दूर कर दिये।
सुरिन्दर लौटकर घर में घुसा तो पिता सामने ही बैठे थे। उसे देखकर व्यंग्य से बोले, ‘हो गया मुफ्त का भोजन? मज़ा आया?’
सुरिन्दर सोफे पर पसर कर पेट पर हाथ फेरता हुआ बोला, ‘बहुत मजा आया पापा।’ फिर थोड़ी देर आँखें मूँदे रहने के बाद बोला, ‘पापा, दरअसल अब हमारा स्टैंडर्ड ऊँचा हो गया है। पिज़्ज़ा बर्गर के सिवा कुछ अच्छा लगता ही नहीं। ऐसे ही बीच-बीच में दावतें मिलती रहें तो काम चलता रहेगा।’
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “शाही विनम्रता“.)
☆ लघुकथा – शाही विनम्रता ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
‘हाय! मैं दिल्ली के तख्ते ताऊस का मालिक, शहंशाहों का शहंशाह, आज बेताज का बादशाह होकर ताजमहल के अंधेरे प्रकोष्ठ में कैद कर दिया गया हूं।’
शाहजहां ने ताजमहल के अंदर कैद होने पर उपरोक्त कथन बड़ी असहाय अवस्था में कहा था – ‘नहीं अब्बा हुजूर– यह कैद थोड़े ही है। मैंने तो आपके जज्बातों की कद्र की है। क्या यह सच नहीं है कि आपके दिल में अम्मा हुजूर के लिए बेइंतेहा प्यार था — और यह कि आप अपने आपको जरा भी दूर नहीं रख सकते इस खूबसूरत संगमरमरी इमारत से’।
‘यहां बेगम हुजूर अपनी तमाम यादगारों के कीमती दस्तावेज लेकर खामोश लेटी हैं — आपकी बेपनाह मोहब्बत प्यार की निशानी इस ताजमहल के प्रकोष्ठ में आपको खुश होना चाहिए शहंशाह आलम।’
शाहजहां के पुत्र ने पिता से विनम्रतापूर्वक वार्तालाप किया और बाहर पहरेदार को कैदी के पैरों में भारी बेड़ियां डालकर सख्त पहरे की हिदायत देकर स्वयं इमारत से बाहर चला गया।
(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। उनके ही शब्दों में – “1982 में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारम्भ, 2011 से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अखिल विश्व गायत्री परिवार में स्वयंसेवक के रूप में 2022 तक सतत कार्य।माँ गंगा एवं हिमालय से असीम प्रेम के कारण 2011 से गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में शांतिकुंज आश्रम हरिद्वार में निवास। यहाँ आने का उद्देश्य आध्यात्मिक उपलब्धि, समाजसेवा या सिद्धि पाना नहीं वरन कुछ ‘ मन का और हट कर ‘ करना रहा। जनवरी 2022 में शांतिकुंज में अपना संकल्पित कार्यकाल पूर्ण कर गृह नगर भोपाल वापसी एवं वर्तमान में वहीं निवास।” आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी की एक भावप्रवण लघुकथा “डर”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।)
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – डर☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆
राज्य की राजधानी की पुलिस लाइन में ”रा” साहब के बंगले पर आज काफी चहल-पहल है। स्टाफ के काफी लोग आज बंगले में विभिन्न काम करते हुये दिखाई दे रहे थे।
पहले आप को इन ”रा” साहब से पहचान करा दें। यह ”रा” यानि राव का लघु रूप है। राव साहब यानि श्री वी के आर सी राव, प्रांत के डी आई जी, नक्सल अभियान। पूरा नाम जानना चाहेंगे- वेमुला कृष्णप्पा रामचंद्र राव!! सारा स्टाफ राव राव बोलता तो जल्दी जल्दी में वह रा साहब सुनाई देने लगा। युवा आई पी एस अधिकारी और इस खतरनाक नक्सली इलाके में विशेष सक्षम अधिकारी के रूप में राजधानी की पोस्टिंग। काम में बहुत तेज तर्रार एवं अनुशासन में कठोरतम। उनके बोलने में बास्टर्ड, फूल, रास्कल, ब्लडी आदि शब्दों का सर्वाधिक उपयोग होता था। बात-बात में नक्सली इलाके में फिंकवाने की धमकी का प्रयोग सामान्य बात थी। अब तक कई सफल मुठभेडों का नेतृत्व भी कर चुके थे। कुल मिलाकर रौबीले और दबंग व्यक्तित्व के स्वामी थे ये ”रा” साहब। बहुत आवश्यक न हो तो सामान्यतः उनके सामने आने से सब कतराते थे।
आज उनके बंगले पर इस चहल-पहल का विशेष कारण है। पिछली रात उनकी मां आंध्र प्रदेश के उनके पैतृक गांव से अपने बेटे के पास आई थी। अभी तक अविवाहित रहे पुत्र से शायद विवाह की बात करने आई थी। अतः खानसामा से लेकर आफिस स्टाफ तक सब बंगले पर मदद हेतु उपस्थित थे।
बंगले के बैठकखाने में राव साहब अपनी माताजी के साथ बैठे थे। दक्षिणी रंगरूप से हटकर गौरवर्ण, तेजस्वी चेहरे पर चष्मा, इस आयु में भी श्याम केशों में करीने से सजी वेणी, ऐसी माता के साथ तेलुगु में संवाद चल रहा था। अंतर यह था कि इस संवाद में मां सतत बोल रही थी एवं पुत्र बस अम्मा, अम्मा, अम्मा इसी से उत्तर दे रहा था। साहब के चेहरे पर सदा दिखने वाला रौद्र भाव न होकर आज एक सौम्यता दिख रही थी।
इससे निवृत्त होकर माताजी अचानक आसपास के कर्मचारियों की ओर देखकर दक्षिणी उच्चारण के साथ बोलीं – सब तोडा इदर आओ। कैसा है तुम लोग? इदर सब टीक लगता ना जी ? अम रामा की अम्मा, इदर पैली बार आया। ये रामा…. बहुत कड़क ना जी ? बहुत गुस्सा करता ??
फिर साहब के निज सचिव अग्रवाल जी को इशारे से पास बुलाया और बहुत प्रेम से उनके सिर हाथ फेरते हुये बोलीं – ये तुमको कुच डांटता तो अमको बोलने का, अम उसकू डांटेगा। ये रामा ना, दिल से बहुत अच्चा है। अमे मालूम, तुम उसका बहुत ध्यान रखता, क्यों रामा, टीक बोला ना ? राव साहब बस मुस्कुरा दिये।
अग्रवाल साहब का कंठ भर आया, उन्हें लगा ज्यों उनकी स्वर्गवासी मां उनके सिर पर हाथ फेर रही हैं, उन्होंने अचानक झुक कर उनके चरण छू लिये।
सारा स्टाफ मौन खड़ा था, उन्हें लगा जिन ”रा” साहब से सारा विभाग डरता है, वे भी किसी से डरते हैं, पर यह डर, प्रेम का डर था।