(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘दुख में सुख’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 124 ☆
☆ लघुकथा – दुख में सुख ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
गर्मी की छुट्टियों में मायके गयी तो देखा कि माँ थोड़ी ही देर पहले कही बात भूल रही है। अलमारी की चाभी और रुपए पैसे रखकर भूलना तो आम बात हो गयी। कई बार वह खुद ही झुंझलाकर कह उठती— ‘पता नहीं क्या हो गया है ? कुछ याद ही नहीं रहता- कहाँ- क्या रख दिया ?’ झुकी पीठ के साथ वह दिन भर काम में लगी रहती। सुबह की एक चाय ही बस आराम से पीना चाहती। उसके बाद घर के कामों का जो सिलसिला शुरू होता वह रात ग्यारह बजे तक चलता रहता। रात में सोती तो बिस्तर पर लेटते ही झुकी पीठ में टीस उठती।
माँ की पीठ अब पहले से भी अधिक झुक गयी थी पर बेटियों के मायके आने पर वह सब कुछ भूलकर और तेजी से काम में जुट जाती। उसे चिंता रहती कि मायके से अच्छी यादें लेकर ही जाएं बेटियां। माहौल खुशनुमा बनाने के लिए वह हँसती-गुनगुनाती, नाती-नातिन के साथ खेलती, खिलखिलाती…?
गर्मी की रात, थकी-हारी माँ नाती – पोतों से घिरी छत पर लेटी है। इलाहाबाद की गर्मी, हवा का नाम नहीं। वह बच्चों से जोर-जोर से बुलवा रही है- ‘चिडिया, कौआ, तोता सब उड़ो, उड़ो, उड़ो, हवा चलो, चलो, चलो,’ बच्चे चिल्ला- चिल्लाकर बोलने लगे, उनके लिए यह अच्छा खेल था।
माँ उनींदे स्वर में बोली – ‘बेटी, जब से थोड़ा भूलने लगी हूँ, मन बड़ा शांत है। किसी की तीखी बात थोड़ी देर असर करती है फिर किसने क्या ताना मारा……. कुछ याद नहीं। हम औरतों के लिए बहुत जरूरी है यह।’ ठंडी हवा चलने लगी थी। माँ कब सो गयी पता ही नहीं चला। चाँदनी उसके चेहरे पर पसर गयी।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – मित्रता
जब मैं आर्थिक अभावों से जूझ रहा था, वह चुपचाप कुछ नोट मेरे बटुए में रख रहा था।…जब मैं रास्तों की भुलभुलैया पर किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा था, वह मेरे लिए सही राह चुनने की जुगत कर रहा था।…जब दुनियावी मसलों से मेरा माथा फटा जा रहा था, वह मेरे सिर पर ठंडा तेल लगा रहा था।…मेरे चारों ओर जब ‘स्वार्थ’ लिखा जा रहा था, हर लिखे के आगे वह ‘नि’ उपसर्ग लगा रहा था।
….और आज मैं उससे कह रहा हूँ, ‘मित्रता दिवस की औपचारिक शुभकामनाएँ!’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सर्वधर्म समभाव का संदेश देती एक सार्थक लघुकथा “प्रेम प्याली”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 166 ☆
☆ लघुकथा – प्रेम प्याली ☆
बहुत ही प्यारा सा नाम “प्याली” । परंतु केवल नाम ही काफी नहीं होता, वह कौन है, कहां से आई, माता पिता कौन है? किस बिरादरी की है उसे कौन से भगवान की पूजा करनी चाहिए? सारे सवालों को लेकर आज वह फिर पेड़ के नीचे बैठी अपने आप को अकेला महसूस कर रही थी।
कैसे जानूँ? किससे पूछूं? यही सोच रही थी, कि सामने से पुतला दहन करने के लिए बीस पच्चीस नौजवान युवक तेज रफ्तार से सड़क से निकल कर जा रहे थे।
प्याली का घर यूँ कह लीजिए सड़क के किनारे एक पन्नी लगी टूटा फूटा कच्चा मिट्टी का ईट दिखाई देता दीवारों से घिरा एक कमरा। जिसमें प्याली में अपना बचपन देखा पालन-पोषण करने के हिसाब से उसने सिर्फ अपनी जिसे सभी वहाँ पर दादी कहते थे। उसी के साथ रहती थी।
आज प्याली बड़ी हो चुकी थी दादी से हर बार सवाल करती… “दादी अब तो बता दो मैं कौन हूं? मेरा बचपन, मेरी पहचान और मेरा धर्म क्या है?”
वह पास में ही सिलाई का काम सीखती थी। स्कूल का तो सिर्फ नाम सुना था पढ़ने लिखने की बात तो कोसों दूर थी।
अचानक जोर से हल्ला-गुल्ला गुल्ला मचने लगा। चौक पर पुलिस की गाड़ी सायरन बजाती आने लगी पुतला दहन करने वाले तितर-बितर हो यहाँ वहाँ छुपने लगे।
एक बहुत ही खूबसूरत सा नौजवान युवक शायद चोट ज्यादा लगी थी। वह दौड़ कर जान बचाने प्याली की टूटी-फूटी झोपड़ी में घुस गया। थोड़ी देर बाद भीड़ शांत हो चुकी थी। पुलिस तहकीकात करती नौजवान युवकों को पकड़ – पकड़ कर ले जाने लगी। आँखों ने जाने क्या इशारा किया प्याली समझ नहीं सकी पर एक इंसानियत ममता, दया, बस वह बाहर खड़ी पुलिस वाले से बोली… “यहाँ कोई नहीं है। मैं तो दादी के साथ रहती हूं।” दादी जो अब तक देख रही थी। बाहर अपनी लकड़ी टेकते हुए निकली और बोली… “यह तो प्रेम प्याली की झोपड़ी है। साहब यहाँ जात-पात ऊंच नीच नहीं होता।”
पुलिस वाले चले गए नौजवान जो छुपा बैठा था दर्द से कराह रहा था।
प्याली ने उसके सामने गरम-गरम चाय का कप और एक ब्रेड का टुकड़ा रख दिया। प्याली देख रही थी उसने कही… “छोड़ क्यों नहीं देते यह सारा लफड़ा, जिंदगी बहुत अनमोल है, खुश होकर जियो।”
नौजवान युवक धीरे से बोला… “यह शरीर और यह जान दोनों तुम्हारा हुआ। क्या? तुम प्रेम प्याली बनना चाहोगी?” दादी ने चश्मा आँखों पर ऊपर चढ़ाते हुए देख कर हंसने लगी.. “क्यों नहीं! “दादी ने बताया” मैं दूसरे धर्म की थी समाज की नहीं थी। इसके पैदा होते ही इसकी माँ ने सदा – सदा के लिए मुझे छोड़ बेटे को लेकर चली गई थी। अब यह सिर्फ तुम्हारा प्रेम है। ऊंच-नीच का भेद नहीं सिर्फ तुम दोनों बाकी सब ऊपर वाले की मर्जी पर छोड़ दो।” बरसों बाद उसका अपना बेटा नहीं पर पोता घर लौट आया था। प्याली, दादी के गले झूल गई। प्रेम उठकर दादी के पैरों गिर पड़ा।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “पति और पुत्र के बीच “.)
☆ लघुकथा – पति और पुत्र के बीच ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
एक पिता अपने पुत्र को बुरी तरह डांट फटकार रहा था – बड़े गैर जवाबदार इंसान हो जी तुम। तुम्हारे कारण मेरा लाखों का धंधा चौपट हो गया। बाजार में मेरी साख धराशायी हो गई अलग से। मुझे तो मुंह दिखाने लायक भी नहीं छोड़ा है तुमने।
उधर पोता तालियां बजाकर आनंद ले रहा था। अपनी मां से बोला – मजा आ गया, दादू ने पापा की आज क्लास ले ली। मुझे भी कितना डांटते हैं पापा। मैं कितना असहाय हो जाता हूं तब। आप भी मेरी कुछ मदद नहीं कर पाती हो।
मां बोली- यह पीढ़ियों का भुगतान है पुत्र, पिता जब चाहे पुत्र को ठोका करें ढोल की नाईं।
उसे तो बस पिता के सामने हमेशा नतमस्तक बने रहना चाहिए बस।
‘नो, नेवर मम्मी, कम से कम मैं तो ऐसा पिता कभी नहीं बनूंगा। हमारे बीच प्यार का रिश्ता होगा। अलगाव की खाई खुदने ही नहीं दी जाएगी।’
उधर मां सोच रही थी – काश ऐसा होता तो औरत को पति और पुत्र के बीच बटकर नहीं रहना पड़ता। उसे जीवन भर दोनों के बीच कठपुतली बनी रहने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी दो एक संवेदनशील लघुकथा – मन )
☆ लघुकथा – मन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
मनोहर को गुज़रे बारह दिन हो गए थे। हर गुज़रे दिन साढ़े तीन साल के पोते नुराज़ ने अपने दादा को याद किया था। उसे बताया गया था कि उसके दादा भगवान जी से मिलने गए हैं। आज नुराज़ ने अपने पिता से कहा, “पापा, दादा जी को भगवान के पास गए बहुत दिन हो गए हैं। वे भगवान जी से अच्छी तरह मिल चुके होंगे। अब तो उन्हें वापस बुला लो।”
“अभी भगवान जी के साथ उनका ख़ूब मन लगा हुआ है, दादा भगवान जी के साथ मस्ती कर रहे हैं, अभी और मस्ती करने दो।”
“दादा जी तो कहते थे कि मेरे बिना कहीं भी उनका मन नहीं लगता। क्या भगवान जी मुझसे भी ज़्यादा अच्छे हैं?”
अब माहौल में सन्नाटा था। एक तरफ़ बिछोह से उत्पन्न गाढ़ी उदासी के साथ दादा के लौट आने की मासूम आश्वस्ति थी, दूसरी तरफ़ बेबस ख़ामोशी में लिपटा रुदन।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘गणेशचौथ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 123 ☆
☆ लघुकथा – गणेशचौथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
‘आज गणेश चौथ है आप भी व्रत होंगी?’ सासूजी खुद तो व्रत रखती ही थीं आस-पड़ोसवालों से भी पूछती रहतीं –‘ नहीं’ या ‘हाँ’ के उत्तर में सामने से एक प्रश्न दग जाता – ‘और आपकी बहू?’ ‘उसके लड़का नहीं है ना? हमारे यहाँ लड़के की माँ ही गणेशचौथ का व्रत रखती है। ‘
ना चाहते हुए भी मेरे कानों में आवाज पड़ ही जाती थी। तभी मैंने सुना आस्था दादी से उलझ रही है – ‘दादी। लड़के के लिए व्रत रखती हैं आप! लड़की के लिए कौन-सा व्रत होता है?’
‘ऐं — लड़कियों के लिए कोई व्रत रखता है क्या?’- दादी बोलीं
‘पर क्यों नहीं रखता’ – रुआँसी होती आस्था ने पूछा।
‘अरे, हमें का पता। जाकर अपनी मम्मी से पूछो, बहुत पढ़ी-लिखी हैं वही बताएंगी।’
आस्था रोनी सूरत बनाकर मेरे सामने खड़ी थी। आस्था के गाल पर स्नेह भरी हल्की चपत मैं लगाकर बोली – ‘ये पूजा- पाठ संतान के लिए होती है।’
‘संतान मतलब?’
‘हमारे बच्चे और क्या।‘
आस्था के चेहरे पर भाव आँख – मिचौली खेल रहे थे। सासूजी पूजा करने बैठीं, तिल के लड्डूओं का भोग बना था। उन्होंने अपने बेटे रजत को टीका करने के लिए आरती का थाल उठाया ही था कि रजत ने अपनी बेटियों को आगे कर दिया – ‘पहले इन्हें माँ’। तिल की सौंधी महक घर भर में पसर गयी थी।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक शिक्षाप्रद बाल कथा –“स्वच्छता के महत्व”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 146 ☆
☆ बाल कथा – “स्वच्छता के महत्व” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
एक बार की बात है, लिली नाम की एक छोटी लड़की थी जिसे साफ-सुथरा रहना पसंद नहीं था। वह अक्सर नहाना छोड़ देती थी और दिन में केवल एक बार अपने दाँत ब्रश करती थी। उसकी माँ उसे हमेशा बाथरूम का उपयोग करने के बाद हाथ धोने के लिए याद दिलाती थी, लेकिन लिली आमतौर पर भूल जाती थी।
एक दिन, लिली पार्क में खेल रही थी जब वह गिर गई और उसके घुटने में खरोंच आ गई। वह बैंडेड लेने के लिए घर गई, लेकिन उसकी माँ ने देखा कि उसके हाथ गंदे थे।
“लिली,” उसकी माँ ने कहा, “तुम्हें अपने घुटने पर बैंडेड लगाने से पहले अपने हाथ धोने होंगे। रोगाणु कट में प्रवेश कर सकते हैं और इसे बदतर बना सकते हैं।”
“लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहती,” लिली ने रोते हुए कहा। “मेरे हाथ साफ़ हैं।”
“नहीं, वे नहीं हैं,” उसकी माँ ने कहा। “आप अपने नाखूनों के नीचे सारी गंदगी देख सकते हैं।”
लिली अनिच्छा से बाथरूम में गई और अपने हाथ धोए। जब वह वापस आई तो उसकी मां ने उसके घुटने पर पट्टी बांध दी।
“देखो,” उसकी माँ ने कहा। “वह इतना बुरा नहीं था, है ना?”
“नहीं,” लिली ने स्वीकार किया। “लेकिन मुझे अभी भी हाथ धोना पसंद नहीं है।”
“मुझे पता है,” उसकी माँ ने कहा। “लेकिन साफ़ रहना ज़रूरी है। रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं, और आप बीमार नहीं होना चाहते हैं, है ना?”
लिली ने सिर हिलाया. “नहीं,” उसने कहा। “मैं बीमार नहीं पड़ना चाहता।”
“तो फिर तुम्हें अपने हाथ धोने होंगे,” उसकी माँ ने कहा। “हर बार जब आप बाथरूम का उपयोग करते हैं, खाने से पहले और बाहर खेलने के बाद।”
लिली ने आह भरी। “ठीक है,” उसने कहा. “मेँ कोशिश करुंगा।”
और उसने किया. उस दिन से, लिली ने अपने हाथ अधिक बार धोने का प्रयास किया। यहां तक कि वह दिन में दो बार अपने दांतों को ब्रश करना भी शुरू कर दिया। और क्या? वह बार-बार बीमार नहीं पड़ती थी।
एक दिन लिली अपनी सहेली के घर पर खेल रही थी तभी उसने अपनी सहेली के छोटे भाई को गंदे हाथों से कुकी खाते हुए देखा। लिली को याद आया कि कैसे उसकी माँ ने उससे कहा था कि रोगाणु तुम्हें बीमार कर सकते हैं, और वह जानती थी कि उसे कुछ करना होगा।
“अरे,” उसने अपनी सहेली के भाई से कहा। “आपको उस कुकी को खाने से पहले अपने हाथ धोने चाहिए।”
छोटे लड़के ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। “क्यों?” उसने पूछा।
“क्योंकि तुम्हारे हाथों पर कीटाणु हैं,” लिली ने कहा। “और रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं।”
छोटे लड़के की आँखें चौड़ी हो गईं। “वास्तव में?” उसने पूछा।
“हाँ,” लिली ने कहा। “तो जाओ अपने हाथ धो लो।”
छोटा लड़का बाथरूम में भाग गया और अपने हाथ धोये। जब वह वापस आया, तो उसने बिना किसी समस्या के अपनी कुकी खा ली।
लिली को ख़ुशी थी कि वह अपने दोस्त के भाई की मदद करने में सक्षम थी। वह जानती थी कि स्वच्छ रहना महत्वपूर्ण है, और वह खुश थी कि वह दूसरों को भी स्वच्छता के महत्व के बारे में सिखा सकती है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – सीसीटीवी
शहर में लगे सीसीटीवी कैमरों से उसका धंधा लगभग चौपट हो चला था। मॉल, दुकानें, बंगले, सोसायटी कोई जगह नहीं छूटी थी जहाँ सीसीटीवी नहीं था। अनेक स्थानों पर तो उसी की तरह चोर कैमरा लगे थे। सब कुछ रेकॉर्ड हो जाता।
आज सीसीटीवी और चौकीदारों को मात देकर वह उच्चवर्ग वाली उस सोसायटी के एक फ्लैट में घुस ही गया। तिजोरी तलाशते वह एक कमरे में पहुँचा और सन्न रह गया। बिस्तर पर जर्जर काया लिए एक बुढ़िया पड़ी थी जो उसे ही टकटकी लगाये देख रही थी। बुढ़िया की देह ऐंठी जा रही थी, मुँह से बोल नहीं निकल रहे थे। शायद यह जीवन को विदा कहने का समय था।
क्षण भर के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ। फिर निश्चिंत होकर अपने काम में जुट गया। बहुत जल्दी नकदी और कुछ जेवर उसके हाथ में थे। ऐहतियातन उसने दो-तीन बार बुढ़िया को देखा भी। मानो कुछ कहना चाह रही हो या पानी मांग रही हो या परिजनों को जगाने की गुहार लगा रही हो। लौटते समय उसने अंतिम बार बुढ़िया की ओर देखा। देह ऐंठी हुई स्थिति में ज्यों की त्यों रुक गई थी, आँखें चौड़ी होकर शून्य ताक रही थीं।
लौटते हुए भी उसे सीसीटीवी कैमरों से अपना बचाव करना पड़ा। खुश था कि बहुत माल मिला पर अजीब बेचैनी निरंतर महसूस होती रही। बुढ़िया की आँखें लगातार उसे अपनी देह से चिपकी महसूस होती रहीं। पहले टकटकी लगाए आँखें, फिर आतंक में डूबी आँखें, फिर कुछ अनुनय करती आँखें और अंत में मानो ब्रह्मांड निहारती आँखें।
अमूमन धंधे से लौटने के बाद वह गहरा सो जाता था। आज नींद कोसों दूर थी। बेचैनी से लगातार करवटें बदलता रहा वह। उतरती रही उसकी आँखों में सीसीटीवी कैमरों से बचने की उसकी जद्दोज़हद और बुढ़िया की आँखें। आँखें खोले तो वही दृश्य, बंद करे तो वही दृश्य। प्ले, रिप्ले…, रिप्ले, रिप्ले, रिप्ले। वह हाँफने लगा।
आज उसने जाना कि एक सीसीटीवी आदमी के भीतर भी होता है। कितना ही बच ले वह बाहरी कैमरों से, भीतर के कैमरा से खींची तस्वीर अमिट होती है। इसे डिलीट करने का विकल्प नहीं होता।
उसका हाँफना लगातार बढ़ रहा था और अब उसकी आँखें टकटकी बांधे शून्य को घूर रही थीं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।
☆ कथा कहानी ☆ दोरंगी लेन☆ डॉ. हंसा दीप ☆
फोन पर उसकी आवाज से लगा था कि वह एक उम्रदराज महिला होगी। अपना सामान लेकर कार से जब मैं वहाँ पहुँची तो मेरा अनुमान सही निकला। मुझे देखते ही बोली– ओरा?
मैंने “हाँ” कहते हुए सिर झुकाया। मेरा प्रतिप्रश्न था- एंजिला?
उसने हामी भरी। ध्यान से देखने पर लगा कि उसकी उम्र साठ से पैंसठ के बीच होगी। वह एक श्वेत महिला थी। बाल करीने से सेट किए हुए थे। सारे बाल सफेद होते हुए भी मुँह पर तेज था। कपड़े महंगे व अच्छे थे। चेहरा तटस्थ था। न जाने क्यों उसकी मुस्कान मुझे सहज नहीं लगी। एक थोपी हुई मुस्कान से स्वागत किया उसने। ऐसे, जैसे कि उसे आते-जाते किराएदारों से बात करने की आदत हो। पहले भी कई छात्र यहाँ रह कर गए होंगे। वेस्टर्न यूनिवर्सिटी पास होने से इस छोटे-से कस्बे ‘फरगस’ में मेडिसिन के छात्रों का आना-जाना लगा रहता होगा।
अंदर आकर एक नजर डाली। घर पुराना था। फर्नीचर, तस्वीरें, सजावट के तौर-तरीके, हर एक चीज से, उनके आकार-प्रकार से एंटिक सामान की अनुभूति हो रही थी। सुसज्जित कमरे ऐसे थे मानो किसी भी एक चीज को हटा दें तो खालीपन उभर कर सामने आ जाएगा। शायद एंजिला के तटस्थ चेहरे की तरह इनका भी अपना एक अतीत होगा, जो गाहे-बगाहे अपनी आपबीती सुनाकर एक दूसरे का मन बहला देता होगा। वह मुझे अपना कमरा दिखाने नीचे ले गयी।
हाथ में चाबी पकड़ाते बोली- “कुछ भी चाहिए तो मुझसे कहना।”
वह चली गयी। चाबी लेते हुए मैंने करीब से देखा उसे। गिनी-चुनी झुर्रियों को छोड़ दें तो चेहरा सौम्य लेकिन भाव रहित था। मैंने अपने कमरे में नज़र दौड़ायी। वहाँ एक साफ चादर-तकिए के साथ पलंग था, टेबल थी, छोटा-सा फ्रिज़, स्टोव व किचन काउंटर था। साथ ही लगा हुआ स्नानघर और शौचालय भी था। यानी एक छात्र के रहने लायक समुचित सुविधाएँ थीं। मैं अपने आप में सहमी हुई थी। घर की हर चीज मानों मुझे मेरे रंग का अहसास करा रही थी। फिर चाहे वे पलंग पर बिछे सफेद चादर-तकिए हों या फिर बाथरूम में टंगे सफेद टॉवेल हों। किचन के सफेद केबिनेट हों या सफेद छत हो। अश्वेत को घर में जगह देना श्वेत लोगों के लिए आसान नहीं होता होगा।
खैर, पहला दिन था। एंजिला से पहली मुलाकात थी। जगह अच्छी लग रही थी। अपनी इंटर्नशिप के लिए मुझे कुछ महीने इस गाँव में रुकना था। मेरा अपने काम पर आना-जाना शुरू हुआ तो उससे आमना-सामना होने लगा। गुड मॉर्निंग, गुड नाइट के अलावा पिछले तीन दिनों में कोई बात नहीं हुई, न ही उसके चेहरे में कोई अंतर नजर आया। एक खामोशी ओढ़े आवाज निकलती और हवा में खो जाती। चाहे शुभप्रभात का ताजा अभिवादन हो या शुभरात्रि का अलसाया हुआ, एंजिला के चेहरे को पढ़ना बहुत मुश्किल था। धीरे-धीरे यह भी मेरे व्यस्त समय का एक हिस्सा बन गया। यंत्रवत लौटकर कमरे में चली जाती और अगले दिन सुबह तैयार होकर अपने काम पर।
एक महीना हो चला था। अब कुछ मित्र थे जिनके साथ समय कटता। एक दिन काम के बाद हमने फिल्म देखने जाने की योजना बना ली। स्वाभाविक ही एंजिला को सूचित करने की कोई जरूरत नहीं समझी। रोज के नियमित समय से तकरीबन ढाई घंटे लेट घर पहुँची तो अंधेरा गहरा गया था। उसे बाहर बेचैनी से घूमते पाया। मुखमुद्रा बदली हुई थी। चिंता की रेखाएँ कुछ झुर्रियों को पारदर्शी कर रही थीं।
मैंने पूछा- “कहीं आप मेरा इंतजार तो नहीं कर रही थीं?”
“नहीं।” कहकर वह तेज कदमों से भीतर चली गयी।
मुझे अच्छा नहीं लगा। शायद वह मेरे आने का इंतजार ही कर रही थी। यूँ बगैर कुछ कहे उसका जाना चुभ गया। उसकी चुप्पी मुझे खलने लगी थी। यह मौन टकराहट कचोटती थी। अपने अंदर छुपी वह धारणा दिन-ब-दिन बलवती हो रही थी कि मेरा अश्वेत होना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। उसके न बोलने की यही वजह है। न बोले, लेकिन एक मुस्कान तो दे ही सकती है। गुड मॉर्निंग बोलती भी है, तो चेहरा ऐसा सपाट रहता है मानो कोई रिकॉर्डिंग बजा दी हो। मैं कुछ भी बोलूँ, चाहे कोई सवाल हो या जवाब। मेरे चेहरे का भाव और हाथ पैर, सब मेरे साथ बोलने लगते हैं, पल दर पल बदलते हैं। उसके मुँह से आवाज भर निकलती, शेष अंग उस आवाज का साथ नहीं देते। ऐसा लगता मानों सारे अंगों का एक दूसरे से संपर्क टूट गया हो। एक बार में एक अंग ही काम करता हो। अतीत जब पीछा नहीं छोड़ता तो अंतर्मन के भावों पर ताले लग जाते होंगे; ऐसा ही कुछ एंजिला की खामोशी के पीछे होगा।
खैर, उसका अतीत जो भी हो। मुझे अपने काम से काम रखना है। वैसे भी हम दोनों के बीच के अंतर को कभी पाटा नहीं जा सकता। बहुत होशियार छात्र होने के बावजूद एक बात मुझे हमेशा सालती रही है। अपने व्यक्तित्व को लेकर तमाम ऐसी हीन भावनाएँ थीं जो कभी-कभी मेरी प्रतिभा को भी दबाने का प्रयास करतीं। तब मैं इस माहौल में खुद को मिस-फिट समझती। हालाँकि किताबें मेरे दिमाग में फिट होती रहतीं। मेडिसिन की पढ़ाई करके मैं बहुत आगे जाना चाहती थी ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों की मदद कर सकूँ। मेरे ममा-पापा ने भी अपने जीवन भर यही किया था। मेरे लिए सपने भी देखे मगर बाहर भेजने से डरते थे। मेरी स्कालरशिप और अदम्य इच्छा ने उन्हें बाध्य कर दिया था कि मुझे न रोकें, जाने दें, अपने रास्ते खुद बनाने दें। मैं भी एक नयी दुनिया देखना चाहती थी। बहुत सोच-समझकर यही तय हुआ था कि मैं टोरंटो जाने का सुनहरा अवसर न खोऊँ।
टोरंटो आने के बाद किसी से भी मिलते हुए इस बात पर ध्यान जाता कि सामने वाला कौन है- श्वेत, अश्वेत, या फिर एशियन। मैं युगांडा से आयी थी, एक अश्वेत। वहाँ कभी ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ क्योंकि वहाँ हम सब एक जैसे थे। बाहरी काले रंग से भीतर की रंग-बिरंगी दुनिया का कोई वास्ता नहीं होता। बेखबर होकर सपनों की दौड़ लगाते। मैंने दाखिला तो बी.एससी. में लिया मगर बहुत तेजी से अपने कदम बढ़ाते हुए तीसरे वर्ष के अंत में ही वेस्टर्न यूनिवर्सिटी में मेडिसिन में चयन हो गया। कैनेडा में आने के तीन सालों के अंदर ही मैंने ऐसी छलांग लगायी कि अपने इलाके के लोगों में मेरा नाम हो गया। अत्याधुनिक व्यवस्था में, विकसित देश में पढ़ाई करके डॉक्टर बनने का हौसला अंदर ही अंदर कुलाँचे मारता रहा।
आ तो गयी थी इस दुनिया में, लेकिन कई श्वेत छात्रों के बीच रहते हीनता से ग्रस्त होना स्वाभाविक था। न जाने भगवान ने हम अश्वेत लोगों को इतना काला क्यों बनाया। हमें गढ़ते हुए रंगों की इतनी कमी हो गयी कि काले रंग के अलावा कोई रंग बचा ही नहीं। जन्म के साथ ही अन्याय शुरू हो गया। और यह बात माँ ने मुझे बहुत अच्छी तरह समझायी थी- “तुम्हारे साथ कदम-कदम पर पक्षपात होगा। अपने लोगों के साथ उठना-बैठना। तुम कभी अकेले महसूस मत करना। अपना एक ग्रुप बनाना।” ऐसी कई चेतावनियाँ दी थीं। माँ का कहा एक वाक्य मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था- “हमारा रंग हमें अपंग बना देता है। यह जन्मजात अभिशाप है।” बहस करना चाहती, पर न कर पाती। ये माँ के अपने अनुभव थे। वे यूरोप गयी थीं पढ़ने के लिए लेकिन छह महीने में लौट आयी थीं। अपना तिरस्कार सह नहीं पायी थीं। यहाँ आकर मैं स्वयं उन लोगों से दूर रहती जो मुझे अपने रंग के दिखाई न देते। शायद यही वजह थी कि अभी तक ऐसा कोई कड़वा अनुभव नहीं हुआ था। मेरी कक्षाओं के कई साथी मेरे करीब आने का, दोस्ती करने का प्रयास करते लेकिन उनके एकतरफा प्रयास कारगर न होते। मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहती थी। किसी पक्षपात का शिकार होकर वापस लौटना बिल्कुल स्वीकार्य नहीं था। हालाँकि, इस बात से भी इनकार नहीं करती कि आज तक किसी ने भी टोरंटो में रंग को लेकर मुझ पर कोई फिकरा कसा हो, या फिर मुझे परेशान किया हो।
एंजिला को देखते ही स्वत: दूरियाँ बन गयी थीं। पैसे देकर सिर्फ एक किराएदार का संबंध रखना चाहती थी मैं। मेरा आत्मविश्वास मेरी पढ़ाई थी, न कि मेरे आसपास के लोग। वैसे भी मैं बेहद सफाई पसंद लड़की हूँ, मुझसे किसी को कोई तकलीफ हो ही नहीं सकती। उसकी बेरूखी को मैं तवज्जो नहीं देती।
एक दिन बहुत बर्फ गिर रही थी। पूरा लॉन बर्फ की सफेदी से घिरा था। एंजिला ने ड्राइव-वे साफ करवाने के लिए लोगों को रखा हुआ था। लेकिन बर्फ इतनी गिर रही थी कि अच्छा-खासा पहाड़ खड़ा हो गया था। मुझे बाहर जाना था। मैं चाबी लेकर अपनी कार की ओर बढ़ने लगी तो उसने मुझे कार चलाने से रोका। चेतावनी भी दी कि यहाँ की बर्फबारी टोरंटो से अधिक खतरनाक होती है। बर्फ जम कर आइस बन जाती है और गाड़ी के टायर स्लिप होने के कारण कोई भी दुर्घटना हो सकती है।
मैंने कहा- “मेरा जाना बहुत जरूरी है। मैं जल्दी ही लौट आऊँगी।” वह आश्वस्त नहीं थी। आज उसके चेहरे पर मैं गुस्सा देख रही थी जो उसकी आँखों में उतर आया था। उसके गुस्से में मेरी चिंता की झलक नहीं थी बल्कि उसकी बात मनवाने का रौब था। ये भी एक वजह थी कि मैं उसके खिलाफ जाना चाहती थी। इतने दिनों में एक बार भी सीधे मुँह बात तक नहीं की थी उसने मुझसे। आज चाहती है कि मैं उसकी बात मानूँ। मैं जहाँ जाना चाहूँ, जाऊँ, उसे रोकने का कोई हक नहीं। उसका निराकार चेहरा अब आकार ले रहा था, क्रोध से घिरा। उस भाव को वहाँ गहराते देख मेरा जाने का मन और अधिक प्रबल हो रहा था।
बगैर उसकी इच्छा की परवाह किए मैं तेजी से बाहर निकल गयी। गाड़ी स्टार्ट करके चल दी। उस समय मेरे शरीर का हर अंग ताकत से भरपूर था। न जाने बगावत की बू थी, या सफेदी को हराने की साजिश। एंजिला को, या फिर बर्फ को, क्योंकि दोनों ही सफेदी से भरपूर थे। जाने कैसा तैश था जो अंदर से मुझे शीतल कर रहा था।
यह शीतलता बहुत महंगी पड़ी मुझे। अंतत: मेरे साथ वही हुआ जिसकी आशंका एंजिला को थी। मेरी गाड़ी फिसल गयी। मैं बाल-बाल बची लेकिन गाड़ी को बहुत नुकसान हुआ। मैं जैसे-तैसे गाड़ी को टो-ट्रक के हवाले करके घर लौटी। थकान के मारे, ठंड के मारे मेरा बुरा हाल था। बहुत देर तक बाहर खड़ा रहना पड़ा था। घर लौटी तो देखा वह और ज्यादा गुस्से में है। जितना शांत चेहरा हुआ करता था उससे कई गुना ज्यादा त्योरियाँ चढ़ी हुई थीं। आँखें आग उगल रही थीं। कई दिनों से दबी चिंगारी को जैसे किसी ने फूँक मार-मारकर आग में तबदील कर दिया था, अंदर के भावों को झिंझोड़ कर बाहर निकाल दिया था!
उसने मुझसे बात नहीं की। लेकिन उसके अनकहे शब्द बहुत कुछ कह रहे थे। शायद यही– “तुम लोग सुनते नहीं हो।”
चेहरे पर जमा क्रोध की परतें मैं महसूस कर रही थी। मुझे उसके गुस्से पर गुस्सा आ रहा था। गाड़ी के लिए इंश्योरेंस कंपनी को रिपोर्ट करनी थी। ममा-पापा को नहीं बताया वरना उन्हें भी जवाब देना मुश्किल हो जाता। मैं न तो कुछ खा पायी, न उससे बात ही कर पायी। मुझे इस समय सहानुभूति की जरूरत थी, किसी के गुस्से की नहीं। आज मैं बहुत कठिन परिस्थितियों में बाल-बाल बची थी। वह कँपकँपी थी, खौफ था। मौत का सामना करते वे क्षण थे, जो लौट-लौटकर डरा रहे थे। गाड़ी का फिसलना, भड़ाम की आवाज के साथ पलट जाना और मेरा किसी तरह दरवाजा खोलना और बाहर निकलकर इमरजेंसी नंबर पर कॉल करना। पूरी फिल्म स्लो मोशन में कई बार चलती रही। हर दृश्य के साथ शरीर में झुरझुरी अभी भी थी। बहुत हिम्मत दिखाकर गाड़ी को टो-ट्रक के हवाले करके आयी थी। ऐसे में एंजिला के इस बर्ताव में मुझे नफरत की आग धधकती नजर आयी। अब मैंने भी ठान लिया कि मुझे उससे बात करने का कोई शौक नहीं। किराएदार और मकान मालिक का संबंध पैसों तक ही रहे। मुझ पर हुक्म चलाने का उसे कोई हक नहीं।
अब माहौल बदल चुका था। ममा-पापा की आशंकाएँ सच हो चली थीं। मेरे और उसके बीच की खाई और गहरी होती जा रही थी। आपसी पूर्वाग्रहों के बीच एक घर में रहते दो इंसान झुलस रहे थे। मैं पढ़ाई में सब कुछ भूल जाती थी लेकिन उसके पास तो समय ही समय था। वह शायद एक ही बात में उलझी रहती थी इसीलिए कई दिनों तक उसका चेहरा वैसा ही बना रहा। मुझे लगा कि वह अपने आप में इतनी खोयी रहती है कि एक बार किसी बात पर अड़ जाती है तो शायद महीनों तक उसके शरीर के हर हाव-भाव में वही बात रहती है। फिर चाहे उदासी हो, चुप्पी हो या फिर गुस्सा हो।
मैं गुस्से में थी, एंजिला भी। अब तो हमारे बीच गुड मॉर्निंग, गुड नाइट की औपचारिकता भी शेष नहीं रही थी। एक बार फिर से मेरे भीतर बँधी गाँठ में कसाव आया। मेरा आईना मुझे विद्रोही बनाता। भले ही मैं एक बड़ी डॉक्टर क्यों न बन जाऊँ मगर मेरा रंग मुझे सालता रहेगा। मैं और एंजिला, हम दोनों एक दूसरे से बेहद नाराज थे। उसकी नाराजगी का लेवल मुझसे कहीं अधिक था। आशंकाओं के चलते शीत युद्ध बढ़ता चला जा रहा था। बीतते दिनों के साथ मैं सहज होने लगी थी लेकिन वह नहीं। कई दिनों से उससे बात नहीं हुई थी। मैं कभी अपने प्रेजेंटेशन में, तो कभी अपने केस की स्टडी में व्यस्त रहती।
एक दिन रात में मैं गहरी नींद में थी कि एंबुलेंस के कानफोड़ू हार्न से मेरी नींद खुल गयी। धड़-धड़ करते बूटों की आवाज आयी और दरवाजा भी खुला। मैं तुरंत उठ कर ऊपर गयी। एंजिला को अस्पताल ले जाया जा रहा था। उसे सीने में दर्द हो रहा था। मैंने उसके साथ जाना उचित समझा। उसे अस्पताल में भर्ती कर लिया गया। शायद बायपास सर्जरी करनी पड़े। मैं रोज उसे देखने जाती पर कभी बात नहीं होती। या तो वह सो रही होती या फिर नर्स होती उसके आसपास।
कुछ समय बाद उसकी सर्जरी हुई और रिकवरी के बाद घर भेज दिया गया। उसकी मदद के लिए अस्पताल से एक नर्स लगा दी गयी थी जो उसकी सारी जरूरतों का ध्यान रखती। शनिवार की एक दोपहर मैं उसे रोज की तरह सोया हुआ देखकर अपने कमरे में लौट रही थी कि उसने मेरा हाथ पकड़ कर अपने पास बैठने को कहा। मैं उसके सामने बैठ गयी। हम दोनों के चेहरे सपाट थे, निर्विकार।
कुछ क्षणों के बाद उसने तकिए के नीचे से एक फोटो निकालकर मुझे बताया। उसमें मेरी उम्र की दो अश्वेत लड़कियाँ और अधेड़ उम्र का एक अश्वेत व्यक्ति एंजिला का हाथ थामे हुए था। फोटो देखने के बाद उसके चेहरे पर मेरी प्रश्नवाचक निगाहें टिक गयीं।
“ये मेरी बेटियाँ हैं।”
मैं अवाक उसका मुँह देख रही थी। वह शांत भाव से कहने लगी– “मैं अपने इस परिवार को खो चुकी हूँ।”
मैंने कहा- “ये?” जैसे एक बच्चा उलझी पहेली को सुलझाने की कोशिश करता है कुछ वैसी ही उलझन मेरे हर अंग से टपकते हुए उसके चेहरे पर जाकर टिक गयी थी।
“ये हैं मेरे पति, बच्चियों के पापा।”
“क्या?”
“ऐसे ही बर्फबारी में तीनों गए थे, वापस नहीं लौटे। उस दिन उन्होंने मेरी बात नहीं मानी थी, सालों बाद फिर से तुमने भी मेरी बात नहीं मानी।”
मैं जड़वत थी।
“तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं अपने आप को कभी माफ नहीं कर पाती। तुम्हारे यहाँ रहते मुझे घर में जैसे अपनी बेटियाँ दिखती रहीं। इसलिए अधिकार से तुम्हें बर्फ में जाने से मना करती रही।”
मैं अब उसके चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ रही थी। मेरे लिए संदेश भी था कि मुझे कुछ हो जाता तो वह किस भयानक सदमे से गुजरती। मैं क्या कहती! नि:शब्द थी। आज मेरा चेहरा उसके चेहरे की तरह भाव विहीन था। चार लोगों के उसके परिवार में अब वह अकेली है, वे तीनों नहीं हैं। जाने-अनजाने मैंने उसका दर्द भरा इतिहास दोहरा दिया था। वह दृश्य मेरे सामने था- किस तरह घर के तीन सदस्य बर्फबारी में निकल गए होंगे। वह चिंता कर रही होगी, और जब उसे खबर मिली होगी कि उनका एक्सीडेंट हो गया तो भरे-पूरे परिवार को खोकर उस पर क्या गुजरी होगी!
मैं कल्पना में बहुत दूर तक गयी और उन दृश्यों को जाकर वर्तमान में लौट आयी। यह सोचकर ही काँपती रही कि एंजिला ने स्वयं को कैसे संभाला होगा। मैं उसके प्रति सहानुभूति जताने लायक भी नहीं रही थी। किस मुँह से कुछ कहती! उस अतीत को जिसे वह भूलना चाहती है, मैं फिर एक बार उसके सामने लेकर आयी। उसके घायल मन को मैंने फिर लहूलुहान किया था। मेरा मन पश्चाताप में झुलस उठा।
मेरे रंग-रूप में उसे अपनी बेटियों का अक्स नजर आता होगा। उसने मुझे लेकर कई कल्पनाएँ बुन ली होंगी और मैं रंगों के चक्कर में अपने मन को बेरंग करती रही। पता नहीं उसका हाथ मेरे हाथ में था, या मेरा उसके हाथ में। अपनी आँखों की गीली पोरों में अब मैं सिर्फ स्पर्श को महसूस कर रही थी। भीतर बँधी कई गाँठें चटक-चटक कर टूट रही थीं। एक डॉक्टर बनना था मुझे जो लोगों की ग्रंथियाँ खोलता है, बाँधता नहीं।
मेरे सामीप्य से उसके चेहरे पर जो मुस्कान थी, वह बरसों तक बनी रहे, यह जिम्मेदारी मुझ पर थी। मेरे कंधों ने खुशी-खुशी यह जिम्मेदारी ओढ़ ली। हिमपात कहर ढा कर गुजर गया था, घर के बाहर भी और भीतर भी। घर की आबोहवा में ताजी धूप ने दस्तक दे दी थी। हर तरफ़ फैले दूधिया बर्फ के कण और एंजिला का चेहरा दोनों ही मुझे मुझसे मिला रहे थे।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं – पहाड़ पिता)
☆ दो लघुकथाएं – पहाड़ पिता ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
पहाड़ पिता – 1
वे लोग छैनियों और हथौड़ों से पहाड़ को काटकर रास्ता बनाने में जुटे थे। कुछ लोग उन्हें मूर्ख कहकर उन पर हँसते तो कुछ दयार्द्र हो जाते। यदा-कदा कोई पत्रकार भी मौक़े पर पहुँच जाता। एक दिन एक पत्रकार ने उनसे कहा, “किसलिये इतनी मेहनत कर रहे हो? ज़िला मुख्यालय पर धरना-प्रदर्शन करो। सरकार डायनामाइट से पहाड़ को उड़ाकर तुरत-फुरत रास्ता बना देगी। उन लोगों का मुखिया एकदम जैसे फुफकार उठा, “पहाड़ हमारा पिता है। कौन बेटा अपने पिता के चिथड़े उड़ते देख सकता है?”
“हुँह, पिता! सरकार हर रोज़ तुम्हारे पिता के चिथड़े उड़ाकर सड़कें बना रही है। क्या बिगाड़ लिया उसका तुमने और तुम्हारे पिता ने?”
“हम कुछ बिगाड़ पायें या नहीं, लेकिन पहाड़ पिता का कोप बहुत ख़तरनाक होता है। तुम देख रहे हो न, शहर धँस रहे हैं, बारिश या तो होती नहीं या कहर ढा देती है, ग़ुस्से में पहाड़ पिता ख़ुद को छलनी कर सड़कों और झीलों पर आ गिरते हैं। हम एक हथौड़ा मारते हैं और पहाड़ की देह सहला कर उससे प्रार्थना करते हैं कि ओ पहाड़ पिता सरकार को सद्बुद्धि दे, अपने बच्चों पर दया कर।”
पहाड़ पिता – 2
छैनियों और हथौड़ों से पहाड़ काटकर काफ़ी समय से बनाया जा रहा रास्ता आज बनकर तैयार हो गया था। वे बीस लोग जो इस काम में जी-जान से लगे थे, अब पहाड़ के सामने हाथ जोड़े खड़े थे। उनमें से एक आदमी जिसने सबसे पहले इस काम की शुरुआत की थी, पहाड़ से बात कर रहा था, “ओ पहाड़ पिता, तुम्हारे सीने पर ही यह रास्ता बन सकता था। हमने लगातार तुम्हें चोट पहुँचाई, इसके लिए क्षमा करना ओ पिता!” वह आदमी पहाड़ पर सिर रखे रो रहा था। उसके साथ उसके सब साथी भी रो रहे थे। कोई नहीं देख पाया कि पहाड़ ने उनके ये आँसू बादलों को सौंप दिए। अचानक बारिश शुरू हो गई। इसे शुभ शगुन माना गया। पहाड़ पिता अपने बच्चों पर मुग्ध था और उसके बच्चे उसे छू-छूकर नाच रहे थे।