हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 120 ☆ लघुकथा – क्लीअरेंस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘क्लीअरेंस’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 120 ☆

☆ लघुकथा – क्लीअरेंस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘सर! इस फॉर्म पर आपके साईन चाहिए। परीक्षा है, क्लीअरेंस करवाना है‘ – विभाग प्रमुख से एक छात्रा ने कहा।

‘ठीक है। आपने विभागीय ग्रंथालय की सब पुस्तकें वापस कर दीं?’

‘सर! मैंने ग्रंथालय से एक भी पुस्तक नहीं ली थी। जरूरत ही नहीं पड़ी।‘

‘अच्छा, पिछले वर्ष पुस्तकें ली थीं आपने?‘

‘नहीं सर, कोविड था ना! ऑनलाईन परीक्षा हुई थी, तो गूगल से ही काम चल गया। सर! पाठ्यपुस्तकें भी नहीं खरीदनी पड़ीं। बी.ए. के तीन साल ऐसे ही निकल गए’ – छात्रा बड़े उत्साह से बोल रही थी।

‘सर! जल्दी साईन कर दीजिए प्लीज, ऑफिस बंद हो जाएगा।‘

हूँ —–

पास बैठे एक शिक्षक महोदय बोले – ‘सर! मैं तो कब से कह रहा हूँ, किताबें कॉलेज के ग्रंथालय को वापस कर देते हैं। विद्यार्थी पाठ्यपुस्तकें तो पढ़ते नहीं हैं, ग्रंथालय से पुस्तकें लेकर क्या पढ़ेंगे?‘

‘ठीक कह रहे हैं सर आप, गूगल से ही पढ़ाई हो जाती है अब तो ‘– छात्रा यह कहती हुई क्लीअरेंस फॉर्म पर साईन लेकर तेजी से बाहर निकल गई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #142 – “बाल कहानी – जूते चप्पल की लड़ाई” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य  – बाल कहानी – जूते चप्पल की लड़ाई)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 142 ☆

 ☆ “बाल कहानी – जूते चप्पल की लड़ाई” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

पुराने समय की बात है। एक ही कोठरी में एक जूता और एक चप्पल रहती थी। जूता चमड़े का बना था और उसकी एड़ी ऊँची थी, जबकि चप्पल कपड़े की बनी थी और उसका तलवा चपटा था।

जूता को अपने आप पर बहुत गर्व था। उसने सोचा कि इस चप्पल से कहीं अधिक उपयोगी है।

“मैं चमड़े से बना हूँ,” जूता ने कहा।

“मैं मजबूत और टिकाऊ हूं। मुझे किसी भी मौसम में पहना जा सकता है। मैं औपचारिक अवसरों के लिए बिल्कुल सही हूं।”

चप्पल प्रभावित नहीं हुई।

“आप मजबूत और टिकाऊ हो सकते हैं,” चप्पल ने कहा। “लेकिन मैं अधिक सहज हूं। मैं अधिक व्यावहारिक भी हूं। मुझे समुद्र तट से लेकर किराने की दुकान तक कहीं भी पहना जा सकता है। मैं हर रोज पहनने के लिए एकदम सही हूं।”

दोनों में कई दिनों तक इस पर बहस होती रही। अंत में, उन्होंने यह देखने के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित करने का निर्णय लिया कि कौन अधिक उपयोगी है।

अगले दिन जूता-चप्पल खरीददारी के लिए निकले। जूता एक रेस्तरां में गया था, जहां हर किसी ने उसकी प्रशंसा की। वाह बहुत खूबसूरत है। चप्पल समुद्र तट पर गई। वह आरामदायक और सुंदर थी। सभी ने कहा कि चप्पल अच्छी व आरामदायक है।

घूमते-घमते जूता और चप्पल दोनों थक गए। वे एक बेंच पर बैठ गए और एक दूसरे को देखने लगे।

“तुम्हें पता है,” जूता ने कहा, “आप सही कह रही थी कि आप अधिक आरामदायक और सुंदर हो। मुझे यकीन है कि मैं समुद्र तट पर पहन कर नहीं जा सकता हूं। लेकिन मैं देख सकता हूं कि आप बहुत खूबसूरत हो।”

“धन्यवाद,” चप्पल ने कहा, “लेकिन आप इतने बुरे नहीं हो। आप निश्चित रूप से मुझसे ज्यादा स्टाइलिश हो। मुझे लगता है कि हम दोनों की अपनीअपनी क्षमता और ताकत है।”

जूता और चप्पल एक दूसरे को देखकर मुस्कराए। वे दोनों अपने-अपने तरीके से उपयोगी थे, और दोनों को उनके व्यक्तिगत गुणों के लिए सराहा जा सकता हैँ।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

03-02-2023 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – वादा☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – वादा ??

अपनी समस्याएँ लिए प्रतीक्षा करता रहा वह। उससे समाधान का वादा किया गया था। व्यवस्था में वादा अधिकांशतः वादा ही रह जाता है। अबकी बार उसने पहले के बजाय दूसरे के वादे पर भरोसा किया। प्रतीक्षा बनी रही। तीसरे, चौथे, पाँचवें, किसीका भी वादा अपवाद नहीं बना। वह प्रतीक्षा करता रहा, समस्या का कद बढ़ता गया।

आज उसने अपने आपसे वादा किया और खड़ा हो गया समस्या के सामने सीना तानकर।…समस्या हक्की-बक्की रह गई।..चित्र पलट गया। उसका कद निरंतर बढ़ता गया, समस्या लगातार बौनी होती गई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ पितृ दिवस विशेष – “कि, मैं जिन्दा हूंँ अभी” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

☆ लघुकथा – पितृ दिवस विशेष – “कि, मैं जिन्दा हूंँ अभी” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

(पिता  हर साल बूढ़े होते हैं,  पुराने नहीं ।  आज “फादर्स डे ” पर सभी के पिताओं को प्रणाम किया तो मेरी ये पुरानी लघुकथा नई हो गई और जवान भी। नहीं पढ़ी हो तो पढ़िए। पढ़ी भी हो तो पिता को प्रणाम समझ, पुनः पढ़िए।)

” एक री-टेक और “

” देखिए हीरो साब,  पहले आप इस बूढ़े एक्स्ट्रा को खींचकर एक चाँटा मारेंगे। चार सेकेण्ड तक चाँटे की गूँज सुनाई देगी। फिर आप अपना डायलॉग कहेंगे। यह चाँटेवाला सीन पूरी फिल्म की जान है। ” हीरो को शाॅट समझाते हुए डायरेक्टर ने कहा।

” ऐसी बात है,  तो हीरो आज खुद स्टंट करेगा।

सिर्फ चाँटा मारने की एक्टिंग नहीं, बल्कि सच में चाँटा मरूँगा। तभी सीन में रियलिटी आएगी।”

हीरो के इस सहयोग पर पूरी युनिट खुशी से उछल पड़ी। वह बूढ़ा एक्स्ट्रा चाँटा खाने के पहले ही अपना गाल सहलाने लगा। निर्माता ने हँसते हुए उससे कहा-” अबे, डरता क्या है ? हीरो का चाँटा खाकर तेरा भी कल्याण हो जायेगा। घबरा मत। चाँटे के हर शाॅट पर तुझे सौ रुपए एक्स्ट्रा मिलेंगे।”

शाॅट की तैयारी होने लगी। कैमरा, लाइट, साइलेंस, यस; एक्शन। होरो ने खींचकर बूढ़े के गाल पर चाँटा मारा और अपना डायलॉग बोला।

” कट ” , डायरेक्टर ने कहा-” देखिए हीरो साब, आपको चार सेकेण्ड रुककर डायलॉग बोलना है। ये सीन फिर से लेते हैं।”  इतने-से शाॅट के लिए री-टेक करवाना हीरो को अपमानजनक लगा। मगर वह मान गया। फिर से वही तैयारी और वैसा ही “कट “। ” देखिए हीरो साब, इस बार आप ज्यादा रुक गए। प्लीज, एक बार और।” डायरेक्टर ने हीरो को पुनः समझाया।

“नहीं-नहीं। बस अब पैक-अप। मेरे हाथ थक गए हैं। अब मूड नहीं है।” हीरो के इस जबाब से सारी युनिट उदास हो गई।

सभी ने हीरो को समझाना शुरू किया-” मान जाइए ना, आज यह शाॅट लेना बहुत जरूरी है। आपने शाॅट बहुत ही अच्छा दिया। बस थोड़ा टाइमिंग हो जाए तो यह एक सीन पूरी फिल्म पर छा जाएगा। बस, सिर्फ एक री-टेक और प्लीज,”

कहते हुए निर्माता हाथ-पैर जोड़ने लगा। एक असिस्टेंट हीरो के हाथ पर आयोडेक्स मलने लगा। ना-नुकुर कर आखिर हीरो मान ही गया।एक नए जोश के साथ शाॅट की तैयारी शुरू हो गई।

” देखिए, अब कोई गड़बड़ नहीं होनी चाहिए।”

ओके,  यस रेडी…एक्शन. ..और “कट” ! इस बार बूढ़े एक्स्ट्रा ने शाॅट बिगाड़ दिया था। सारी युनिट उस पर टूट पड़ी ” कौन है ये एक्स्ट्रा ? कौन लाया इसे ? इतना–सा सीन ठीक से नहीं कर सका।

निकाल दो इसे। कल से दूसरा एक्स्ट्रा आयेगा।

“बड़ी मुश्किल से तो हीरोजी राजी हुए थे। अब कौन मनायेगा उन्हें।”

आखिर रोता हुआ बूढ़ा, हीरो के पैरों पर गिर पड़ा। ” साब, प्लीज एक शाॅट और दे दीजिए।मेरी नौकरी का सवाल है। अब गलती नहीं होगी।” आँखों के आँसू चाँटे खाए लाल-लाल  गाल पर लुढ़कने लगे। हीरो को दया आ गई। आखिर वे मान ही गए। हीरो के मानते ही युनिट का गुस्सा बूढ़े के प्रति जाता रहा।और इस बार शाॅट ओके हो गया। हीरो को अच्छा शाॅट देने पर सभी बधाइयाँ  देने लगे।चाँटा मारनेवाले हाथ को सहलाने लगे।पूरी युनिट खुश थी कि चलो आज का काम निपट गया।

एक्स्ट्राओं का पेमेण्ट होने लगा।बूढ़े को चार बार चाँटा खाने के चार सौ अतिरिक्त मिले।एक कोने में खड़े बूढ़े से लाइनमैन ने पूछा-” तुम्हें तो तीस साल हो गए एक्स्ट्रा का रोल करते हुए,  फिर आज तुमसे गलती कैसे हुई ? “

” दरअसल मैं लालच में आ गया था। प्रोड्यूसर ने हर री–टेक पर सौ रुपए ज्यादा देने को कहा था। जब दो बार हीरो की गलती से री-टेक हुआ तो मैंने सोचा एक री-टेक मैं भी जान-बूझकर कर दूँ तो चौथा शाॅट तो लेना ही पड़ेगा मुझे आज लड़की की परीक्षा-फीस  चार सौ जो भरनी थी।”

यह कहकर वह खुशी-खुशी अपने लाल हुए गालों को थपथपाने लगा। इस री-टेक में उसने अपनी जिन्दगी का बेहतरीन शाॅट जो दिया था।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #197 ☆ कथा-कहानी – ‘जीवन-राग’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसंवेदनशील एवं विचारणीय कहानी ‘जीवन-राग’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 197 ☆

☆ कथा कहानी ☆ ‘जीवन-राग’

अंततः अविनाश का मकान पूरा हो गया। मकान का निर्माण शुरू होने से पहले ठेकेदार एक बूढ़े को चौकीदारी के लिए ले आया था। बूढ़े की उम्र काफी थी। निम्न वर्ग के लोग इस उम्र में पूर्णतया अप्रासंगिक हो जाते हैं, पूरी तरह बेटे- बहुओं पर निर्भर। घर की देखभाल के लिए रखे गये चौकीदारों की स्थिति दिलचस्प होती है। शुरू में उनका पूरे मकान पर अधिकार होता है, कहीं भी रहें, कहीं भी सोयें, कहीं भी भोजन बनायें। फिर जैसे-जैसे मकान की ‘फिनिशिंग’ होती जाती है, वे कमरा-दर-कमरा बाहर होते जाते हैं। फिर होता यह है कि उनका मकान में प्रवेश लगभग निषिद्ध हो जाता है और उनकी दिनचर्या मकान और उसकी चारदीवारी के बीच की जगह में महदूद हो जाती है, वह भी अनेक प्रतिबंधों के साथ।

बूढ़े का शरीर जर्जर हो गया था। चेहरे पर बढ़ी हुई दाढ़ी और कपड़ों की गंदगी उसके लिए ध्यान देने की बातें नहीं रह गयी थीं। आँख से भी उसे कम दिखायी देता था, लेकिन शायद आँख का इलाज या ऑपरेशन उसके बूते के बाहर था। सर पर एक पटका लपेटे वह अक्सर नंगे पाँव ही घूमता दिखता था। शाम को वह कंधे पर कहीं पड़ी लकड़ियों की बोरी लादे मकान की तरफ लौटता दिख जाता था। उससे मिलने कोई परिचित नहीं आता था। उसकी ज़िन्दगी तनहा थी, अविनाश की कॉलोनी में उसे पूछने वाला कोई नहीं था। सहज जिज्ञासा होती थी कि वह किस गाँव या परिवार से टूट कर यहाँ अकेला अपनी बाकी ज़िन्दगी गुज़ार रहा है।

अविनाश के गृह-प्रवेश के बाद बूढ़ा स्वतः सेवामुक्त हो गया। लेकिन उसने घर छोड़ा नहीं। वह अब भी गेट के आसपास बैठा दिख जाता था। उसकी गठरी- मुटरी भी वहीं एक कोने में रखी थी। प्रवेश के दो-तीन दिन बाद एक सवेरे अविनाश ने मुलायम स्वर में बूढ़े से कहा, ‘दादा, अब यहाँ का आपका काम तो खतम हो गया। अब कहीं और काम देख लो। गाँव लौटना हो तो लौट जाओ।’

बूढ़ा बोला, ‘काम ही देखना पड़ेगा। गाँव में बैठे बैठे रोटी कौन देगा?’

अविनाश ने कहा, ‘बेटे बहू तो होंगे?’

बूढ़ा बोला, ‘हैं, लेकिन उन्हें और उनके बाल-बच्चों को ही पूरा नहीं पड़ता, हमें बैठे-बैठे कौन खिलाएगा? वे खुद ही काम की तलाश में जगह-जगह डोलते फिरते हैं।’

अविनाश बोला, ‘ठीक है, दो-चार दिन में कहीं काम देख लो।’

बूढ़े को मकान छोड़ने का नोटिस मिल गया था। वह समझ गया था कि अब इस जगह पर वह अवांछित था।

दो दिन बाद बूढ़ा अविनाश के सामने आकर खड़ा हो गया। करुण स्वर में बोला, ‘बाबू जी, काम मिलना तो मुश्किल है। लोग मेरा बुढ़ापा देखकर दूर भागते हैं। मजदूरी करने लायक शरीर नहीं है। आप कहो तो कुछ दिन और यहीं पड़ा रहूँ। यहाँ पौधे लगा दूँगा, उनकी देखभाल करूँगा। बाहर की साफ-सफाई कर दूँगा। जो पैसे आप देंगे, ले लूँगा। अकेले का खर्चा ही कितना है!’

अविनाश की समझ में नहीं आया क्या कहे। उसने पत्नी की राय ली। विचार हुआ कि बूढ़ा अब निर्बल है, जीवन अधिक नहीं है। कभी भी दुनिया से विदा होने की स्थिति बन सकती है। एक तरह से आखिरी वक्त काटने की बात है। शहर से बाहर अविनाश का एक छोटा सा फार्म- हाउस था। तय हुआ कि बूढ़े को वहाँ रख दिया जाए। वही बनाता-खाता रहेगा, देख-भाल भी होती रहेगी। अभी वहाँ कोई नहीं रहता। कुछ पैसे दे देंगे तो बूढ़े की गुज़र-बसर होती रहेगी।

सुनकर बूढ़ा खुश हो गया। बोला, ‘ठीक है। वहीं अकेले में भगवान का नाम लूँगा और आप के फारम की देखभाल करूँगा। जो आप ठीक समझें दे दीजिएगा। अब जिन्दगी कितने दिन की है?’

अविनाश ने उसे फार्म-हाउस पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर बूढ़ा प्रसन्न हो गया क्योंकि उसे लगा यहाँ वह बिना किसी नियंत्रण या टोका- टाकी के निश्चिंत रह सकेगा। मकान की चौकीदारी में जो बाद में एक एक फुट की बेदखली होती जाती है, वह यहाँ नहीं होगी। जब शरीर बिलकुल लाचार हो जाए तभी यहाँ से छुट्टी की नौबत आएगी। तब तक यहाँ चैन की नींद सो सकता है। यहाँ शक्ति से ज्यादा काम करने की कोई विवशता भी नहीं होगी।

फार्म-हाउस पहुँचाने से पहले अविनाश ने बूढ़े के बेटों के नाम, गाँव का पता वगैरः नोट कर लिया। कभी बूढ़ा अचानक चल बसे या ज़्यादा बीमार हो जाए तो परिजनों को सूचित करना ज़रूरी होगा।

उसे छोड़ने के तीन-चार दिन बाद अविनाश फार्म-हाउस पहुँचा तो वहाँ की बदली हालत को देखकर आश्चर्यचकित रह गया। पहले सारे फार्म-हाउस में फुटों गहरे सूखे पत्ते फैले हुए थे, सब तरफ बेतरतीबी थी। बूढ़े ने तीन चार दिन में ही सारे पत्ते बुहार कर ज़मीन साफ कर दी थी। बाहर पड़ी सारी चीज़ें है करीने से लग गयी थीं।

अविनाश यह आशंका लेकर आया था कि बूढ़ा वहाँ पहुँचकर कहीं बीमार न हो गया हो, क्योंकि वहाँ न कोई उसकी सुध लेने वाला था, न खबर देने वाला। लेकिन वहाँ पहुँचकर उसने आश्चर्य से देखा कि बूढ़ा नीम के पेड़ पर चढ़ा दातुन तोड़ रहा था। उसे देखकर वह ‘झप’ से पेड़ से कूदा।

अविनाश ने अचंभे से कहा, ‘पेड़ पर क्यों चढ़े दादा? गिरोगे तो बुढ़ापे में हाथ पाँव टूट जाएँगे। यहाँ कोई खबर देने वाला भी नहीं है। अकेले पड़े रहोगे।’

बूढ़ा अपने टूटे दाँत दिखा कर हँसा, बोला, ‘बाबू जी, पेड़ों पर चढ़ते जिन्दगी कट गयी। यह तो छोटा सा पेड़ है। इससे क्या गिरेंगे? आप फिकर न करें।’

अविनाश वहाँ थोड़ी देर रहा। बूढ़े ने वहाँ अपनी उपस्थिति की छाप छोड़ दी थी। चलते वक्त उसने अविनाश को पौधों की लिस्ट बनवा दी जो वह वहाँ लगाना चाहता था। फूलों वाले पौधों की लिस्ट अलग बनवा दी। लगा वह फार्म-हाउस की कायापलट में लगा था। उसकी अपनी आयु भले ही शेष हो रही हो, वह चिरजीवी वृक्षों को रोपने और उस स्थान में फूलों की खूबसूरती बिखेरने के लिए कमर कसे था।

अगली बार अविनाश आया तो बूढ़ा गेट पर ताला लगा कर गायब था। दरयाफ्त करने पर मालूम हुआ कि वह आगे मोड़ पर चाय के टपरे में जमा है। अविनाश ने आगे बढ़कर देखा तो पाया कि वह चार छः स्थानीय लोगों के बीच में चाय की चुस्कियों के साथ गपबाज़ी में मशगूल है। अविनाश को देखकर उठ आया, बोला, ‘अकेले में कभी-कभी तबियत घबराती है तो उधर जाकर बैठ जाता हूँ। दो चार लोग बात करने को मिल जाते हैं। थोड़ी देर के लिए मन बहल जाता है।’

अविनाश ने गौर किया कि फार्म हाउस पर आकर बूढ़ा चुस्त हो गया था। अब उसके कपड़े भी पहले से ज़्यादा साफ रहते थे। शायद कारण यह हो कि यहाँ पर्याप्त पानी और जगह मिल जाती थी। कॉलोनी में वह मुरझाया रहता था। अविनाश ने उसे यहाँ भेजते वक्त सोचा था कि अब वह निरंतर कमज़ोर ही होगा, लेकिन यहाँ आकर वह टनमन हो गया था।

अविनाश ने देखा कि यहाँ आकर बूढ़े के संबंधों का दायरा बढ़ गया है। जैसे यहाँ आकर वह खुल गया है। गेट के पास से निकलने वालों से उसकी राम-राम होती रहती है। वहीं से वह निकलने वालों की कुशल-क्षेम लेता रहता है। कभी कोई सब्ज़ी या फल बेचने वाली स्त्री सहज रूप से गेट के भीतर आकर टोकरी उतारकर सुस्ताने और बूढ़े से घर-गृहस्थी की बातें करने बैठ जाती है। बूढ़ा जैसे अपने जैसे लोगों से बात करने को अकुलाता रहता है।

उस दिन उसने उसने अविनाश से दो दिन की छुट्टी माँगी। बोला, ‘कल सहजपुर में मेला लगेगा। हर साल जाता हूँ। अच्छा लगता है। गाँव के लोग भी मिल जाएँगे। वहाँ से एक दिन के लिए गाँव चला जाऊँगा। बहुत दिन से नाती-नातिनों को नहीं देखा। उनकी याद आती है। थोड़े टॉफी- बिस्कुट लेता जाऊँगा तो खुश हो जाएँगे।’

अविनाश ने कहा, ‘वे तो कभी तुम्हें पूछते नहीं। कोई देखने भी नहीं आता। क्यों उनका मोह पाले हो?’

बूढ़ा दाँत निकाल कर बोला, ‘बच्चों की ममता तो लगती ही है। उनके माँ-बाप दो जून की रोटी के जुगाड़ में लगे रहते हैं, हमारी फिकर कहाँ से करेंगे? उनके बाल-बच्चे पलते रहें यही बहुत है।’

दो दिन की छुट्टी काट कर बूढ़ा लौटा तो उसने अविनाश को खबर भिजवा दी कि लौट कर आ गया है। अविनाश आया तो देखा आठ दस साल के दो लड़के वहाँ धमाचौकड़ी मचाये हैं और बूढ़ा खुशी में मगन उनकी क्रीड़ा देख रहा है। अविनाश को देखकर बोला, ‘नाती हैं, मँझले बेटे के बच्चे। आने लगा तो साथ चिपक गये। सोचते हैं मेरे पास बहुत पैसे हैं, खूब टॉफी- बिस्कुट खिलाऊँगा। हम से जो बनेगा कर देंगे। दो तीन दिन में बाप आकर ले जाएगा।’

कुछ दिन बाद दीवाली का पर्व आया। अविनाश ने रात को फार्म-हाउस पर सपरिवार आकर पूजा की। बूढ़ा तत्परता से उसकी मदद को हाज़िर था। दूसरे दिन अविनाश सामान वापस ले जाने आया तो जगह-जगह ‘मौनियाँ ‘ की टोलियाँ नाचती गाती घूम रही थीं। रंग-बिरंगे कपड़े, कमर में घंटियों की माला और हाथ में मोरपंख। सिर में बहुत सारा चमकता हुआ तेल। टोली का एक आदमी एक कान पर हाथ रखकर कवित्त कहता और नर्तक कवित्त के छोर पर हुंकार भर कर नर्तन शुरू कर देते। वे ऐसे ही दिन भर गाँव-गाँव घूमते थे।

नर्तकों की एक टोली अविनाश के गेट के पास जमी थी। उसने देखा बूढ़ा भी, बहुत उत्साहित, दर्शकों की टोली के पीछे खड़ा था। अचानक गायक ने कवित्त शुरू किया और उसका छोर पकड़ कर नर्तकों ने हुंकार भर कर, उछल कर, मोर पंख नचाते हुए मृदंग की थाप पर नर्तन शुरू कर दिया। अविनाश ने विस्मय से  देखा, टोली के पीछे बूढ़ा भी दोनों हाथ उठाकर, आँखें बन्द किये, पैरों को दाहिने बायें फेंककर नाचने में मशगूल हो गया है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – धराशायी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – धराशायी ??

उसे जीतने की आदत थी, सो जीतता रहा सदा।

फिर अपनों ने घेरा, रिश्तों ने उसे कमज़ोर कर दिया।

इस बार उसके बच्चे हथियार लेकर सामने खड़े थे। उसने आत्मसमर्पण कर दिया।

कुछ समय बाद वह धराशायी था।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 160 – सभी का आदर करें ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं बालसुलभता  पर आधारित एक विचारणीय  एवं शिक्षाप्रद बाल लघुकथा “सभी का आदर करें ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 160 ☆

☆ लघुकथा – 🙏 सभी का आदर करें 🙏

 

हमारी भारतीय परंपरा और बड़े बुजुर्गों का कथन – सदैव हमें जीवन में लाभ पहुँचाता है। ऐसा ही एक कथन “सभी का आदर करें” हमें बचपन से सिखाया जाता है।

कृति का आज दसवां जन्मोत्सव है सुबह से ही घर में तैयारियाँ हो रही थी। मेहमानों का आना जाना लगा था। मम्मी- पापा से लेकर नौकर चाकर सभी प्रसन्न होकर अपना – अपना काम कर रहे थे।

शानदार टेबल सजा हुआ था। मेहमान एक के बाद एक करके उपहार देते जा रहे थे। कृति भी बहुत खुश नजर आ रही थी। मम्मी पापा दोनों सर्विस वाले थे। घर पर आया एक मालिश वाली बाई थी। जो कभी दादी कभी मम्मी और कभी-कभी कृति के बालों, हाथ पैरों पर मालिश कर उसके दिन भर की थकान को दूर कर देती थी।

कृति की दादी पुरानी कहानियों के साथ-साथ वह सभी बातें सिखाती थी। जो अक्सर हम दादी नानी के मुँह से सुना करते हैं। दादी कहती अपने से बड़ों का और सभी का सदैव सम्मान आदर करना चाहिए, क्योंकि सभी के आशीर्वाद में ईश्वर की बात छुपी होती है।

कृति के मन पर भी यह बात बैठ गई थी। वह भी बहुत ही मिलनसार थी। परंतु मम्मी की थोड़ी नाराजगी रहती इस वजह से चुप हो जाया करती थी। मम्मी कहती छोटों को मुंह नहीं लगाना चाहिए।

कृति ने देखा मालिश वाली अम्मा अपने पुराने से झोले में कुछ निकालती फिर रख लेती। उसे वह दे नहीं पा रही थी। उसे लग रहा था इतने सारे सुन्दर गिफ्ट में बेबी मेरा छोटा सा बाजा का क्या करेगी।

कृति दौड़कर आया बाई के पास आई और पैर छू लिए और बोली अम्मा मेरे लिए कुछ नहीं लाई हो। बस फिर क्या था आया अम्मा की आँखों से आँसू बह निकले और अपने झोले से निकालकर वह  मुड़े टुडे कागजों से बंधा खिलौना कृति के हाथों में दे दिया।

कृति ने झट उस खिलौने को निकाल कर मुँह से बजाने लगी और पूरे दालान में लगे सजावट के साथ-साथ भागने लगी। एक बच्चा, दूसरा बच्चा और पीठ पीछे बच्चों की लाइन लगती गई। बच्चों की रेलगाड़ी बन चुकी थी। आगे-आगे कृति उस बाजे को बजाते हुए और बच्चे एक दूसरे को पकड़े पकड़े दौड़ लगा रहे थे।

सभी लोग ताली बजा रहे थे। फोटोग्राफर ने खूब तस्वीरें निकाली। दादी ने खुश होकर कहा.. “अब मुझे चिंता नहीं है मेरी कृति अनमोल कृति है उसने सभी का आदर करना सीख लिया है।”

मालिश वाली बाई मम्मी से कह रही थी.. “खेलने दीजिए मेम साहब मैं अच्छे से मालिश कर उसकी थकान उतार दूंगी”, परंतु वह जानती थी। कृति तो आज उसको आदर दें उसे खुश कर रही है। दिल से दुआ निकली जुग जुग जिये बिटिया रानी ।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ पुराने ज़माने के लोग ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा – पुराने ज़माने के लोग )

☆ लघुकथा ☆ पुराने ज़माने के लोग ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

जिन दिनों बसों की अनिश्चितकालीन हड़ताल चल रही थी, उन्हीं दिनों में एक दिन अविनाश ने पिता से कहा, “पापा, गाँव से तीन‌‌-चार बार दादी का फ़ोन आ चुका है कि आकर मिल जाओ। कल चलें हम? परसों संडे को वापस आ जाएँगे।”

“क्यों नहीं? कौन-कौन जाएगा?”

“आप, मम्मी, मैं और सुनीता चारों चलेंगे।”

“क्यों न जनक को भी साथ ले लें, उसे भी गाँव जाना है, बसों की हड़ताल की वजह से नहीं जा पा रहा है। गाड़ी में सीट तो है ही।” जनक उनका बचपन का दोस्त था, उन्हीं के गाँव का और अब इसी शहर में रह रहा था। वे दोनों अक्सर एक साथ ही गाँव जाया करते थे।

“नहीं पापा, गाड़ी में चार आदमी ही आसानी से बैठ सकते हैं। और फिर प्राइवेसी भी तो कुछ होती है। कोई पराया साथ हो तो इन्जाॅय कैसे कर सकते हैं। मैं तो अकेला भी होऊँ तो किसी बाहर वाले को बैठाना पसंद नहीं करता।”

“यह तुम्हारी सोच है बेटा! मैं तो सोचता हूँ कि ख़ुद थोड़ी तकलीफ़ भी सहनी पड़े तो भी दूसरे को सुख देने की कोशिश की जानी चाहिए और हमें तो कोई तकलीफ़ सहनी ही नहीं है। गाड़ी में सीट है, सिर्फ़ पौन घंटे का रास्ता है।” नंदकिशोर को ‘पराया’ शब्द हथौड़े की तरह लगा था।

“पुराने ज़माने के लोग! हमेशा औरों के लिए सोचते रहे, तभी तो कभी ज़िंदगी को इन्जाॅय नहीं कर पाए। कभी अपने लिए जी कर देखिये पापा!”

नंदकिशोर कहना चाहते थे – किसी और के लिए जी कर देखो बेटा, असली आनंद उसी में है। यह आनंद का अभाव ही तुम में इन्जाॅय की तृष्णा पैदा करता है। तृष्णा कभी मरती नहीं है, इसीलिये लगातार इन्जाॅय करते हुए भी तुम कभी संतोष का अनुभव नहीं करते- पर प्रकटत: उन्होंने पूछा, “कल पक्का वापस आना है?”

“आना तो होगा ही, परसों ऑफ़िस भी तो जाना है।”

“तो फिर तुम हो आओ बेटा! मैं तो तीन-चार दिन रुकूँगा। एक दिन में मेरा मन नहीं भरता।”

अविनाश अपनी माँ और पत्नी के साथ गाँव के लिए रवाना हो गया। उसके जाने के पंद्रह-बीस मिनट के बाद नंदकिशोर ने स्कूटी उठाई और जनक को साथ लेकर गाँव की ओर चल दिए।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वह लिखता रहा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – वह लिखता रहा ??

‘सुनो, रेकॉर्डतोड़ लाइक्स मिलें, इसके लिए क्या लिखा जाना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

‘अश्लील और विवादास्पद लिखकर चर्चित होने का फॉर्मूला कॉमन हो चुका। रातोंरात (बद)नाम होने के लिए क्या लिखना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

‘अमां क्लासिक और स्तरीय लेखन से किसीका पेट भरा है आज तक? तुम तो यह बताओ कि पुरस्कार पाने के लिए क्या लिखना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

‘चलो छोड़ो, पुरस्कार न सही, यही बता दो कि कोई सूखा सम्मान पाने की जुगत के लिए क्या लिखना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

वह लिखता रहा हर साँस के साथ, वह लिखता रहा हर उच्छवास के साथ। उसने न लाइक्स के लिए लिखा, न चर्चित होने के लिए लिखा। कलम न पुरस्कार के लिए उठी, न सम्मान की जुगत में झुकी। उसने न धर्म के लिए लिखा, न अर्थ के लिए, न काम के लिए, न मोक्ष के लिए।

उसका लिखना, उसका जीना था। उसका जीना, उसका लिखना था। वह जीता रहा, वह लिखता रहा..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #195 ☆ कहानी – एक मुख़्तसर ज़िन्दगी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसंवेदनशील एवं विचारणीय कहानी ‘एक मुख़्तसर ज़िन्दगी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 195 ☆

☆ कहानी ☆  एक मुख़्तसर ज़िन्दगी

विष्णु अपने माँ-बाप की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा था। पिताजी पढ़े-लिखे आदमी थे। एक स्कूल में टीचर। पढ़े-लिखे आदमियों की उम्मीदें बेपढ़े-लिखे आदमियों की तुलना में कुछ ज़्यादा होती हैं क्योंकि उन्हें दुनिया की जानकारी होती है। विष्णु के पिता ने भरसक अपने बेटों को काबिल बनाने की कोशिश की थी। दोनों बड़े बेटे काम लायक पढ़कर नौकरी में लग गये थे, लेकिन विष्णु का मन पढ़ने में नहीं लगा। स्कूल की परीक्षा किसी तरह पास करके वह कॉलेज में तो गया, लेकिन कॉलेज की डिग्री नहीं ले पाया।

कॉलेज में उसे एक ग्रुप मिल गया था जिसका लीडर एक पैसे वाला लड़का था। नाम अरुण। वह शहर के एक बड़े व्यापारी का बेटा था। पढ़ने-लिखने के बारे में उसका नज़रिया साफ था। उसे ज्ञान की नहीं, डिग्री की ज़रूरत थी जिससे उसे अपने समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त हो सके और ब्याह-शादी के मामले में उसकी स्थिति कमज़ोर साबित न हो। उसे नौकरी की ज़रूरत नहीं थी। इसलिए कॉलेज में कक्षा में बैठने के बजाय उसका ज़्यादातर वक्त कैंटीन में या इधर उधर ठलुएबाज़ी में गुज़रता था। उसके पिछलग्गू भी कक्षाएँ छोड़कर उसके पीछे डोलते रहते थे, यद्यपि उन सब की हैसियत उस जैसी नहीं थी। विष्णु भी उन्हीं में से एक था। अभी उसे भविष्य की चिन्ता नहीं थी। यही काफी था कि आज का दिन मस्ती में गुज़र रहा था।

अरुण ने ही विष्णु को कार चलाना सिखाया। उसके सैर-सपाटे की पूरी जानकारी उसके घर में न पहुँचे इसलिए वह ड्राइवर को पच्चीस पचास रुपये देकर कहीं भेज देता था और फिर स्टियरिंग विष्णु को सौंप देता था। विष्णु को कार चलाने में बड़ा मजा आता था। अरुण ने ही उसे ड्राइविंग लाइसेंस दिलवाया।

पिताजी विष्णु की लापरवाही से दुखी थे, लेकिन उनकी सारी सीख विष्णु के सिर पर से निकल जाती थी। उसे इस बात की कल्पना नहीं थी कि उसका भविष्य उसके वर्तमान से भिन्न हो सकता था। लगता था कि कल आज का ही विस्तार होगा।

विष्णु प्रथम वर्ष की परीक्षा में नहीं बैठा और इसके साथ ही अच्छी नौकरी पाने की उसकी संभावनाएँ खत्म हो गयीं। लेकिन उसे अभी समझ नहीं आयी क्योंकि अभी कोई बड़ा झटका नहीं लगा था। माता-पिता की कृपा से उसकी ज़िन्दगी की गाड़ी लुढ़क रही थी।

अरुण के साथ उसका घूमना-घामना  चलता रहा। कॉलेज से नाम कट जाने के बावजूद वह अब भी अरुण के पीछे-पीछे कॉलेज में डोलता रहता था। अरुण पास हो गया था क्योंकि घर में उसके लिए हर विषय के ट्यूटर लगे थे।

लेकिन विष्णु के पिता को उसका परीक्षा में न बैठना और फिर बेमतलब घूमना अखर रहा था। अब उसे गाहे-बगाहे उनकी झिड़की सुनने को मिल जाती थी। उनका कहना था कि यदि उसे उनके बताये रास्ते पर नहीं चलना है तो वह अपनी पसन्द का रास्ता चुने, लेकिन आवारागर्दी और व्यर्थ की ठलुएबाज़ी बन्द करे। उनके विचार से विष्णु अपनी हरकतों से उन्हें और अपनी माँ को तकलीफ दे रहा था, जिसका कोई औचित्य नहीं था।

विष्णु के भाई भी गाहे-बगाहे उसे ताना देने से नहीं चूकते थे। उनकी नज़र में वह खामखाँ बूढ़े माँ-बाप पर बोझ बना हुआ था। उनकी बातें सुन सुन कर विष्णु के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान में दीमक लगने लगी थी। माँ अभी खामोशी से उसके सामने भोजन की थाली रख देती थी, लेकिन अब निवाला विष्णु के गले में अटकने लगा था। उसे समझ में आने लगा था कि जो रोटी वह खा रहा है वह बेइज़्ज़ती की है। खाना खाते वक्त अब उसकी नज़र थाली से ऊपर नहीं उठती थी।

मुश्किल यह थी कि उसकी पढ़ाई को देखते हुए अच्छी नौकरी की कोई संभावना नहीं थी और घर में इतनी पूँजी नहीं थी कि वह  अपना कोई व्यवसाय शुरू कर सके। भाइयों को तनख्वाह के अलावा अच्छी ऊपरी कमाई भी होती थी, लेकिन उनके रुख को देखते हुए उनसे कुछ मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। पिता-माता विष्णु को क्या देते हैं इस पर भी उनकी नज़र रहती थी।

विष्णु समझ गया कि अब बिना हाथ-पाँव चलाये काम नहीं चलेगा। मटरगश्ती से पूरी ज़िन्दगी नहीं काटी जा सकती। उसने अरुण से कहा कि उसे किसी निजी प्रतिष्ठान में नौकरी दिलवा दे और अरुण ने उसे आश्वस्त किया कि वह जल्दी उसे कहीं काम पर लगवा देगा।

एक हफ्ते बाद ही अरुण ने उसे एक टैक्सी-मालिक के पास भेज दिया जिसकी आठ दस टैक्सियाँ चलती थीं। उसका दफ्तर बस-स्टैंड के परिसर में था।

टैक्सी-मालिक को उसके जानने वाले बाबूभाई के नाम से पुकारते थे। वह मज़बूत काठी का अधेड़ आदमी था। हमेशा दस बारह दिन की बढ़ी दाढ़ी और पान से चुचुआते ओंठ। बात में पूरा व्यवसायी।

विष्णु से पहली भेंट में ही बोला, ‘कसाले का काम है, आराम की बात दिमाग से निकाल दो। दिन रात में कभी भी ड्यूटी हो सकती है, सवारी का क्या भरोसा! हम जरूरी आराम देने की कोशिश करेंगे, लेकिन कोई गारंटी नहीं दे सकते। सवारी के साथ पूरी ईमानदारी रखना है। सवारी गाड़ी में पर्स, सामान छोड़ देती है। उसमें गड़बड़ नहीं होना चाहिए। गड़बड़ी की तो बिना रू-रियायत के पुलिस में दे देंगे। सवारी दस तरह की होती है, सबके साथ एडजस्ट करने की आदत डालनी होगी। बदतमीजी बिलकुल नहीं। अभी पगार पाँच हजार होगी। बाहर भेजेंगे तो दो सौ रूपया रोज खाना- खूराक का देंगे। मंजूर हो तो जब से आना हो आ जाओ।’

विष्णु को सुनकर झटका लगा, लेकिन अभी उसके पास कोई विकल्प नहीं था। सोचा, कम से कम भाइयों का मुँह तो बन्द होगा। अभी अकेला छड़ा है, जब शादी होगी तब तक शायद कोई बेहतर नौकरी मिल जाए। पाँच हजार में से डेढ़ दो हजार माँ को देगा तो उन्हें भी अच्छा लगेगा और खुद उसे भी।

हफ्ते भर में ही उसकी समझ में आ गया कि टैक्सी- ड्राइवर का काम कितना मुश्किल  है। काम का कोई निश्चित समय नहीं। जब सवारी को दरकार हो, लेकर चल पड़ो। सब कुछ सवारी के हिसाब से, ड्राइवर के आराम के लिए कोई गुंजाइश नहीं। कुछ सवारियाँ इतनी बदतमीज़ होतीं कि उनके साथ चार कदम जाना सज़ा होती, लेकिन फिर भी शिष्टता का नाटक करते हुए उनकी सेवा में घंटों रहना पड़ता। पैसे के मद में झूमते लोग, ड्राइवर को आदमी भी न समझने वाले। मालिक भी ऐसा कि कभी-कभी घर पहुँच कर नहा-धो भी नहीं पाता कि बुलावा आ जाता, ‘जल्दी चलो, सवारी खड़ी है। बाहर जाना है।’

सवारी लेकर शहर से बाहर जाता तो मालिक की हिदायत रहती— ‘गाड़ी या तो गैरेज में रखना है या नजर के सामने। कुछ भी नुकसान हुआ तो जिम्मेदारी तुम्हारी।’ नतीजतन अक्सर गाड़ी के भीतर ही सोना पड़ता, चाहे कितनी भी असुविधा क्यों न हो। इसके अलावा सवारी यह उम्मीद करती कि उसे जिस वक्त भी आवाज़ दी जाए वह हाज़िर मिले। दो चार आवाज़ें लगाने के बाद सवारी की त्यौरियाँ चढ़ जातीं।

बाहर अक्सर टॉयलेट की सुविधा न मिलती। निर्देश मिलता, ‘बोतल लेकर सड़क के आसपास कहीं चले जाओ। वहीं कहीं नल पर नहा लेना।’

एक बार एक सवारी को लेकर उसके गाँव गया था। वहाँ पहुँचकर उसने सवारी से एक कप चाय की फरमाइश कर दी तो सवारी ने कुपित होकर सीधे बाबूभाई को फोन लगा कर उसकी गुस्ताखी की शिकायत कर दी। जैसा कि अपेक्षित था, बाबूभाई ने बाजारू भाषा में उस की खूब खबर ली और विष्णु ने आगे सवारी से कोई भी फरमाइश करने से तौबा कर ली।

विष्णु लगातार कोशिश कर रहा था  कि कहीं ऐसी जगह नौकरी मिल जाए जहाँ काम के घंटे निश्चित हों और पगार भी कुछ बेहतर हो। लेकिन दुर्भाग्य से कहीं जम नहीं रहा था ।अब उसे समझ में आ रहा था कि पढ़ाई बीच में छोड़ कर उसने कितनी बड़ी गलती की थी।

उसके पिता को यह नौकरी पसन्द नहीं थी, लेकिन माँ का खयाल और था। उनकी नज़र में वह काम-धाम से लग गया था, इसलिए अब उसकी शादी हो जानी चाहिए थी। उनके हिसाब से शादी-ब्याह की एक उम्र होती है। घर अपना था, बाकी भगवान पूरा करता है।

माँ ने ज़िद करके जल्दी ही उसकी शादी एक सामान्य परिवार में करा दी। शायद कहीं विष्णु की भी इच्छा रही हो क्योंकि उसे लगता था कि दो आदमियों का खर्च वह उठा सकता है। घर अपना होने के कारण इज्जत का फालूदा बनने की गुंजाइश कम थी। लड़की के बाप को बताया गया कि लड़का एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में नौकरी करता है।

शादी के बाद रश्मि के साथ विष्णु के कुछ दिन अच्छे कटे। एक दिन के लिए बाबूभाई ने उसे एक गाड़ी दे दी कि पेट्रोल भरा कर घूम-घाम ले। रश्मि ने उससे पूछा कि गाड़ी किसकी है, तो विष्णु का जवाब था, ‘अपनी ही समझो।’ उस दिन शहर के सभी दर्शनीय स्थानों की सैर हुई। खाना- पीना भी बाहर हुआ। रश्मि खूब आनंदित हुई।

लेकिन ये सुकून ज़्यादा दिन नहीं चला। एक रात ग्यारह बजे बाबूभाई का आदमी उनके सुख में खलल डालने आ गया। किसी सवारी को लेकर तुरन्त जाना था। रश्मि के ऐतराज़ के बावजूद विष्णु को जाना पड़ा। मना करने का मतलब नौकरी से हाथ धो लेना था, और शादी के बाद नौकरी उसकी और बड़ी ज़रूरत बन गयी थी।

फिर यह आये दिन की बात हो गयी। बाबूभाई का आदमी कभी भी सर पर सवार हो जाता, न रात देखता न दिन। रश्मि का माथा गरम होने लगा। कहती, ‘मैं कह देती हूँ कि तुम घर में नहीं हो।’ विष्णु उसके हाथ जोड़कर झटपट तैयार होकर भाग खड़ा होता।

रश्मि नाराज़ रहने लगी। वह विष्णु से पूछती थी कि यह कैसी नौकरी है जिसमें कभी भी पकड़ कर बुला लिया जाता है? उसने अभी तक ऐसी नौकरियाँ ही देखी थीं जिनमें आदमी सुबह काम पर जाता है और शाम को सब्ज़ी-भाजी लेकर वापस आ जाता है। उधर विष्णु जाता तो हफ्तों लौट कर न आता।

एक दिन विष्णु बाहर से लौटकर घर आया तो रश्मि की चिट्ठी उसका इंतज़ार कर रही थी। लिखा था— ‘मैं जा रही हूँ। अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती। जब कोई ढंग की नौकरी मिल जाए तो खबर करना। तब तक मुझे मत बुलाना।’

विष्णु बदहवास ससुराल पहुँचा, लेकिन रश्मि उससे नहीं मिली। उसके बड़े भाई ने बेरुखी से कहा, ‘कोई ठीक नौकरी ढूँढ़ लीजिए तो हम भेज देंगे। तब तक रश्मि को यहीं रहने दीजिए।’

विष्णु को आघात लगा। उसने सोचा था कि उसकी कठोर और थकाने वाली दिनचर्या के बाद रश्मि उसके लिए ठंडी छाँह होगी। उसे बताया गया था कि पति-पत्नी का रिश्ता जन्म- जन्म का होता है। उसका दिल टूट गया। वह, परास्त, घर लौट आया। जब वह घर पहुँचा तो बाबूभाई का आदमी उसे ढूँढ़ता फिर रहा था। एक जोड़े को लेकर चार दिन के लिए पचमढ़ी जाना था।

जाने वाले नवविवाहित दिखते थे। दोनों एक दूसरे में रमे थे, दीन दुनिया से बेखबर। विष्णु का मन ड्यूटी करने का बिलकुल नहीं था। उस जोड़े का प्यार देखकर उसे चिढ़ हो रही थी। उसे लग रहा था प्यार व्यार सब ढोंग है। ढोंग न होता तो रश्मि उसे छोड़कर इस तरह कैसे चली जाती?

सफर के दौरान गाड़ी में भी वह जोड़ा एक दूसरे से लिपट-चिपट रहा था। विष्णु का दिमाग भिन्ना गया। पलट कर युवक से बोला, ‘ठीक से बैठिए। दुनिया देखती है।’

युवक गुस्से से आगबबूला हो गया। डपट कर बोला, ‘गाड़ी रोक।’

गाड़ी रुकने पर वह विष्णु से धक्का-मुक्की करने लगा। बोला, ‘तेरी यह हिम्मत! दो कौड़ी का आदमी।’

विष्णु ने अपना सन्तुलन खो दिया। उसने क्रोध में युवक को ज़ोर का धक्का दिया तो वह ज़मीन पर ढह गया। भय से विस्फारित नेत्रों से वह चिल्लाने लगा— ‘हेल्प, हेल्प, ही विल किल मी।’ उसकी पत्नी मुँह पर मुट्ठियाँ रखकर चीख़ने लगी।

विष्णु के मन में क्रोध का स्थान भय ने ले लिया। वह गाड़ी लेकर वापस भागा। पीछे मुड़ मुड़ कर देख लेता था कि पुलिस की या अन्य गाड़ी पीछा तो नहीं कर रही है। बदहवासी में उसे होश नहीं था कि गाड़ी की स्पीड कितनी ज़्यादा है। दूसरी तरफ उस पर यह डर भी हावी था कि बाबूभाई उसे कोई बड़ी सज़ा दिये बिना नहीं छोड़ेगा। इन्हीं दुश्चिंताओं के बीच फँसे विष्णु के सामने अचानक एक लड़का आ गया और उसे बचाने के चक्कर में गाड़ी सन्तुलन खोकर एक पेड़ से चिपक गयी।

राहगीरों ने खींच-खाँचकर विष्णु को गाड़ी से बाहर निकाला। गाड़ी की तरह उसका शरीर भी पिचक गया था। उसे सड़क के किनारे लिटा दिया गया। कोई दयालु गाड़ीवाला सौभाग्य से गुज़रे तो कुछ मदद की गुंजाइश बने।

जब बाबूभाई को दुर्घटना की खबर मिली तो वह बोला, ‘गनीमत है कि गाड़ी का बीमा था, वर्ना लौंडे ने तो कबाड़ा ही कर दिया था।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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