हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 305 ☆ कथा-कहानी – “मुक्ति” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 305 ☆

?  कथा-कहानी – “मुक्ति” ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

वह शहर के नामचीन कालेज में हिन्दी के प्रोफेसर हैं। आंखों में चश्मा चढ़ चुका है। सर के बालों में भी इतनी सफेदी तो आ ही गई है कि वे वरिष्ठ माने जाने लगे हैं। अब सभा गोष्ठियों में उन्हें अध्यक्ष के रूप में आखिर तक बैठना होता है। गंभीरता का सोबर सा मंहगा दुशाला लपेट, फुलपैंट के साथ घुटनो तक लम्बा खादी का कुर्ता पहनने का ड्रेस कोड उन्होंने अपना लिया है। वरिष्ठता की उम्र के इस संधि स्थल पर बच्चे पर फड़फड़ाते स्वयं उनके घोंसले बनाने दूर शहरों में उच्च शिक्षा के लिये पढ़ने जा चुके हैं।

बड़े से घर पर वे और उनकी पत्नी ही रह गई हैं। और रह गई है, घर और उनकी देखभाल करने के लिये निशा। निशा उनके बंगले के निकट ही बस्ती में रहती है। निशा साफ सुथरी हाई स्कूल पास कोई पैंतीस बरस की शांत लेडी है। निशा तब से उनके घर को संभाले हुये है, जब बच्चे स्कूल में थे। कहते हैं न कि यदि किसी को समझना हो तो पता कीजीये कि उनके ड्राइवर, घर के नौकर चाकर कितने लम्बे समय से उनके पास कार्यरत हैं। बच्चे निशा को दीदी कहते हैं। और गाहे बगाहे सीधे निशा दीदी को फोन करके उनकी तथा अपनी मम्मी की कैफियत भी पता कर लेते हैं। निशा अधिकार पूर्वक उनकी चाय से शक्कर गायब कर देती है। वह सोहबत में कोलेस्ट्राल जैसे बड़े और भारी भरकम शब्द सीख गई है, जिनका इस्तेमाल कर उनके लिये अंडे की सफेदी का ही आमलेट बनाती है।

आशय यह है कि निशा प्रोफेसर के परिवार के सदस्य के मानिन्द ही बन चुकी है। ये और बात है कि निशा का एक शराबी पति और एक उत्श्रंखल बेटा भी है। जिनका पेट निशा ही पाल रही है। प्रोफेसर साहब के परिवार को देख निशा के अरमान भी होते हैं कि उसका बच्चा भी अच्छा पढ़ लिख ले और जिंदगी में कुछ ठीक ठाक कर ले। निशा अधिकारों के प्रति सचेत है, भले ही वह किचन में खाना बना रही हो पर उसके कान चल रहे ड्राइंग रूम में टी वी पर चल रहे समाचार सुन रहे होते हैं। क्रिकेट का उसे शौक है, इतना कि खास निशा के लिये प्रोफेसर साहब को हाट स्टार की सदस्यता लेनी पड़ी, क्योंकि वर्ल्ड कप के प्रसारण दूरदर्शन पर नहीं आ रहे थे। निशा ने पार्षद से लड़ भिड़ कर स्वयं के लिये उज्जवला योजना का गैस सिलेंडर तक हासिल कर लिया है। वह आयुष्मान योजना का कार्ड जैसी सरकारी योजनाओ का लाभ भी ले लेती है।

उस दिन निशा ने चहकते हुये आगामी छुट्टी को पिकनिक के लिये नर्मदा में लम्हेटा घाट से नौकायन का प्रस्ताव मैडम के सम्मुख रखा। मैडम की या प्रोफेसर साहब की और कोई व्यस्तता थी नहीं, इसलिये निशा का सुझाव सहजता से मान्य हो गया। पिकनिक की बास्केट निशा ने रेडी कर ली। ड्राइवर को भी निशा सीधे इंस्ट्रक्शन दे दिया करती थी। नियत समय पर निशा की अगुवाई में प्रोफेसर साहब का कारवां पिकनिक के लिये निकल पड़ा।

लम्हेटा घाट पर पहुंच एक नाविक का इंतजाम ड्राइवर ने कर लिया। और सभी नाव पर सवार हो गये। काले बेसाल्ट के पहाड़ कप काट अविरल धार से अपना मार्ग बनाती नर्मदा युगों युगों से बहे जा रही थी, दोनो तटों के उस अप्रतिम नयनाभिराम सौंदर्य को निहारते प्रोफेसर साहब विचारों में खो गये। नर्मदा अर्वाचीन नदी है, इसका प्रवाह पश्चिम की ओर है। मध्य भारत की जीवन रेखा के रूप में मान्यता प्राप्त नर्मदा चिर कुंवारी सदा नीरा के रूप में प्रतिष्ठित हैं। स्कंद पुराण का पूरा एक खण्ड ही नर्मदा पर है। मगरमच्छ की सवारी करने वाली नर्मदा मैया की परिक्रमा सदियों से आस्था प्रेमी जन करते रहे हैं। इस १३१२ किलोमीटर की इस परकम्मा में आस्था, विश्वास, रहस्य, रोमांच, और खतरों के संग प्रकृति के विलक्षण सौंदर्य के सानिध्य के अनुभव निहित हैं। गंगा को ज्ञान, यमुना को भक्ति, ब्रम्हपुत्र को तेज, गोदावरी को ऐश्वर्य, कृष्णा को कामनापूर्ति और लुप्त हो चुकी सरस्वती को आज भी विवेक के प्रतिष्ठान के लिये पूजा जाता है। नदियों कि यही प्रतिष्ठा भारतीय संस्कृति की विशेषता है जो जीवन को प्रकृति से जोड़ती है। वे सोच रहे थे विदेश यात्राओं में जब पश्चिम की निर्मल स्वच्छ नदियों का प्रवाह दिखता है तो लगता है कि नदियों की पूजा करने वाले भारत को क्यों नदी स्वच्छता अभियान चलाने पड़ते हैं।

प्रोफेसर साहब की तंद्रा टूटी, निशा मैडम को बता रही थी कि बीच नदी में यह जो चट्टान है उस पर एक शिवालय है, जहाँ हर मनोकामना पूरी होती है। निशा भोले बाबा से यही मनाने आई है कि उसके पति की शराब से उसे मुक्ति मिले। उसने बताया कि कल तो उसके पति ने इतनी ज्यादा पी ली कि पुलिस उसे सड़क से पकड़कर ले गई है, वह कह रही थी कि यहां से लौटकर उसे छुड़ाने जाना होगा, वह बोली अब और सहन नहीं होता, अब तो न केवल निशा को बेवजह अपने ही बेटे को भी मारता है। अब वह चाहती है कि भोले बाबा उसे इस सबसे मुक्ति दें। प्रोफेसर साहब कुछ कहकर निशा की आस्था और भोले बाबा पर भरोसे को नहीं तोड़ना चाहते थे, वे मन ही मन हंस पड़े और सोचने लगे अपनी हर बेबसी को काटने के लिये मनुष्य ने चमत्कार की आशा में भगवान को गढ़ लिया है। क्या आस्था मनोवैज्ञानिक उपचार ही है ?
शाम हो चली थी, सूरज दूसरे गोलार्ध में सुबह करने यहां से बिदा ले रहा था। रक्ताभ लालिमा से आसमान नहा रहा था, वीराने में हवा की सरसराहट और नर्मदा के प्रवाह का कलकल नाद गुंजायमान था। मैडम नाव से ही झुककर अपने हाथों से नर्मदा जल से किलोल कर रही थीं, नाव किनारे की तरफ वापस पहुंचने को थी। शायद निशा भोले बाबा से अपनी प्रार्थना दोहराये जा रही थी, क्योंकि उसकी आँखें उसी शिवालय वाली चट्टान को निहारे जा रहीं थीं।

पिकनिक मनाकर सब घर पहुंचे, रात हो गई थी, इसलिये मैडम ने ड्राइवर से निशा को उसके घर ड्राप करवा दिया।

अगली सुबह, प्रोफेसर साहब के घर अजीब सा सन्नाटा था। निशा के घर से आई खबर ने प्रोफेसर साहब को झकझोर दिया। वे और उनकी पत्नी तुरंत ही निशा के घर पहुंचे।

निशा का घर शोक में डूबा हुआ था। निशा की आंखें सूजी हुई थीं और चेहरा उदास था। मेडम ने निशा को सांत्वना दी और उसके पति के निधन पर श्रद्धांजलि अर्पित की। निशा ने बताया, शराब उसे पी गई। पुलिस ने उसे हवालात में डाल दिया था, जहां उसकी तबियत बिगड़ गई, उसे अस्पताल शिफ्ट कर मुझे खबर दी गई। खबर मिलते ही मैं तुरंत अस्पताल पहुंची, लेकिन वह नहीं बच पाया।

ढ़ाड़स बंधाने के लिये प्रोफेसर साहब का शब्द कोष उन्हें बौना लग रहा था। उनकी पत्नी ने निशा को धैर्य रखने के लिए कहा और कहा, “तुम हमारे परिवार की सदस्य हो। हम तुम्हारे साथ हैं। निशा की आंखों में आंसू थे, वह जानती थी कि उसके पास अब भी एक परिवार है। प्रोफेसर साहब सोच रहे थे इसे भोले बाबा की कृपा कहें ? या मुक्ति कहें ?

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #187 – बाल कथा – “चतुराई धरी रह गई” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  बाल कथा – “चतुराई धरी रह गई”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 187 ☆

☆ बाल कथा – चतुराई धरी रह गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

चतुरसिंह के पिता का देहांत हो चुका था. उस ने अपने छोटे भाई कोमलसिंह को बंटवारा करने के लिए बुलाया, “बंटवारे के पहले खाना खा लेते है. ” खाने परोसते हुए चतुरसिंह ने कोमलसिंह से कहा.

कोमलसिंह ने जवाब दिया, “ भैया ! बंटवारा आप ही कर लेते. मुझे अपना हिस्सा दे देते. बाकि आप रख लेते. मुझे बुलाने की क्या जरुरत थी ?”

“नहीं भाई. मै यह सुनना बरदाश्त नहीं कर सकता हूँ कि बड़े भाई ने छोटे भाई का हिस्सा मार लिया, ” कहते हुए चतुरसिंह ने भोजन की दो थाली परोस कर सामने रख दी.

एक थाली में मिठाई ज्यादा थी. इस वजह से वह थाली खालीखाली नजर आ रही थी. दूसरी थाली में पापड़, चावल, भुजिए ज्यादा थे. वह ज्यादा भरी हुई नज़र आ रही थी. मिठाई वाली थाली में दूधपाक, मलाईबरफी व अन्य कीमती मिठाइयाँ रखी थी.

“जैसा भी खाना चाहो, वैसी थाली उठा लो,” चतुरसिंह ने कहा, वह यह जानना चाहता था कि बंटवारे के समय कोमलसिंह किस बात को तवज्जो देता है. ज्यादा मॉल लेना पसंद करता है या कम.

चूँकि कोमलसिंह को मीठा कम पसंद था. इसलिए उस ने पापड़भुजिए वाली थाली उठा ली, “भैया मुझे यह खाना पसंद है, ” कहते हुए कोमलसिंह खाना खाने लगा.

चतुरसिंह समझ गया कि कोमलसिंह को ज्यादा मल चाहिए. वह लालची है. इस कारण  उस ने ज्यादा खाना भरी हुई थाली ली है. इसे इस का मज़ा चखाना चाहिए. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने बंटवारे के लिए नई तरकीब सोच ली.

खाना खा कर दोनों भाई कमरे में पहुंचे. चतुरसिंह ने घर के सामान के दो हिस्से कर रखे थे.

“इन सामान में से कौनसा सामान चाहिए ?” चतुरसिंह ने सामने रखे हुए सामान की ओर इशारा किया.

एक ओर फ्रीज़, पंखें, वाशिंग मशीन रखी थी. दूसरी ओर ढेर सारे बरतन रखे थे. चुंकि कोमलसिंह के पास फ्रीज़, पंखे, वाशिंग मशीन थी. उस ने सोचा कि भाई साहब के पास यह चीज़ नहीं है. इसलिए ये चीज़ भाई साहब के पास रहना चाहिए.

यह सोचते हुए कोमलसिंह ने बड़े ढेर की ओर इशारा कर के कहा, “मुझे यह बड़ा वाला ढेर चाहिए. ”

चतुरसिंह मुस्कराया, “ जैसी तेरी मरजी. यूँ मत कहना कि बड़े भाई ने बंटवारा ठीक से नहीं किया, ” चतुरसिंह अपनी चतुराई पर मंदमंद मुस्कराता हुआ बोला. जब कि वह जानता था कि उसे ज्यादा कीमती सामान प्राप्त हुआ है.

कोमलसिंह खुश था. वह अपने बड़े भाई की मदद कर रहा था.

“अब इन दोनों ढेर में से कौनसा ढेर लेना पसंद करोगे ?” चतुरसिंह ने अपने माता की जेवरात की दो पोटली दिखाते हुए कहा.

कोमलसिंह ने बारीबारी दोनों पोटली का निरिक्षण किया, एक पोटली भारी थी, दूसरी हल्की व छोटी. उस ने सोचा कि चतुरसिंह बड़े भाई है. इसलिए उन्हें ज्यादा हिस्सा चाहिए.

“भैया ! आप  बड़े है. आप का परिवार बड़ा है, इसलिए आप बड़ी पोटली रखिए, ” कोमलसिंह ने छोटी पोटली उठा ली, “यह छोटी पोटली मेरी है.”

“नहीं नहीं भाई, तुम बड़ी पोटली लो, “ चतुरसिंह ने बड़ी पोटली कोमलसिंह के सामने रखते हुए कहा.

“नहीं भैया, आप बड़े है, बड़ी चीज़ पर आप का हक बनता है, ” कहते हुए कोमलसिंह ने छोटी पोटली रख ली.

चतुरसिंह चकित रह गया. उस ने बड़ी पोटली में चांदी के जेवरात रखे थे. छोटी पोटली में सोने के जेवरात थे. वह जानता था कि कोमलसिंह लालच में आ कर बड़ी पोटली लेगा. जिस में उस के पास चांदी के जेवरात चले जाएँगे और वह सोने के जेवरात ले लेगा.

मगर, यहाँ उल्टा हो गया था.

अब की बार चतुरसिंह ने चतुराई की, “ कोमलसिंह इस बार तू बंटवारा करना. नहीं तो लोग कहेंगे कि बड़े भाई ने बंटवारा कर के छोटे भाई को ठग लिया, “ चतुरसिंह ने कोमलसिंह को ठगने के लिए योजना बनाई.

कोमलसिंह कोमल ह्रदय था. वह बड़े भाई साहब का हित चाहता था. बड़े भाई के ज्यादा बच्चे थे. इसलिए वह चाहता था कि जमीन का ज्यादा हिस्सा बड़े भाई साहब को मिले. इसलिए वह चतुरसिंह को अपने पैतृक घर पर ले गया.

“भाई साहब ! यह अपने पैतृक मकान है. पिताजी ने आप के जाने के बाद इसे बनाया था, ” कोमलसिंह ने कहा.

चतुरसिंह ने देखा कि एक ओर दो मकान और तीन मंजिल भवन खड़ा है, दूसरी ओर एक दुकान के पास से अन्दर जाने का गेट है. यानि एक ओर बहुमंज़िल भवन के साथ दो दुकान बनी हुई थी. दूसरी ओर एक दुकान और पीछे जाने का गेट था.

चतुरसिंह नहीं चाहता था कि जेवरात की तरह ठगा जाए इसलिए उस ने कहा, “ कोमलसिंह तुम ही बताओ. मुझे कौनसा हिस्सा लेना चाहिए ?”

“ भाई साहब, मेरी रॉय में तो आप दूसरा हिस्सा ले लेना चाहिए, ” कोमलसिंह ने कहा तो चतुरसिंह चकित रह गया.

छोटा भाई हो कर बड़े भाई को ठगना चाहता है. खुद बहुमंजिल मकान और दो दुकान हडप करना चाहता है. मुझे एक दुकान और छोटासा बाड़ा देना चाहता है. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमलसिंह, मेरा परिवार बड़ा है, इसलिए मै चाहता हूँ कि यह बहुमंजिल मकान वाला हिस्सा में ले लूँ. ”

इस पर कोमलसिंह ने कहा, “ भैया ! आप हिस्सा लेने से पहले यह दूसरा हिस्सा देख ले. ” कोमलसिंह ने चतुरसिंह से कहा. वह चाहता था कि बड़े भाई को ज्यादा हिस्सा मिलें. क्यों कि दूसरे हिस्से के अंदर १० मकान और लंबाचौडा खेत था, साथ ही बहुत सारे मवेशी भी थे.

मगर, चतुरसिंह ने सोचा कि छोटा भाई उसे ठगना चाहता है. इसलिए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमल, मुझे कुछ नहीं देखना है, यह दूसरा हिस्सा तेरे रहा, पहला हिस्सा मेरे पास रहेगा.”

“भैया ! एक बार और सोच लो, ” कोमलसिंह ने कहा, “ आप को ज्यादा हिस्सा चाहिए, इसलिए आप यह दूसरा हिस्सा ले लें.”

चतुरसिंह जानता था कि खाली जमीन के ज्यादा हिस्से से उस का यह बहुमंजिल मकान अच्छा है. इसलिए उस ने छोटे भाई की बात नहीं मानी. सभी पंचो के सामने अपने अपने हिस्से का बंटवारा लिख लिया.

“भैया. एक बार मेरा हिस्सा भी देख लेते, ” कहते हुए कोमलसिंह चतुरसिंह को अपना हिस्सा दिखने के लिए दुकान के पास वाले गेट से अंदर गया.

आगेआगे कोमलसिंह था, पीछेपीछे चतुरसिंह चल रह था. जैसे ही वे गेट के अंदर गए, उन्हें गेट के पीछे लम्बाचौड़ा खेत नजर आया. सामने की तरफ १० भवन बने हुए था. कई मवेशी चर रहे थे.

यह देख कर चतुरसिंह ढंग रह गया, “कोमल यह हिस्सा पापाजी ने कब खरीदा था ?”

“ भैया ! आप के जाने के बाद, ” कोमलसिंह ने बताया, “ इसीलिए मै आप से कहा रहा था कि आप बड़े है, आप को बड़ा हिस्सा चाहिए, मगर, आप माने नहीं, ”

मगर, अब चतुरसिंह क्या करता ? उस की चतुराई की वजह से वह स्वयम ठगाया जा चूका था. वह चुप हो गया.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 118 – बैंक : हमारी कहानी ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा   “जीवन यात्रा“

☆ कथा-कहानी # 118 – app, logo, media, popular, social, whatsapp बैंक : हमारी कहानी  ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆ 

ग्रुप के शुरुआती दौर की पोस्ट है. कमानिया के पास गनपत मिल गया, अकेला था हमने पूछा गुरुजी कहां गये? बोला बड़कुल के यहां से खोबे की जलेबी लेने गये हैं. हमने तुरंत मौके का फायदा उठाते हुये कहा “गनपत भैया, जरा पास की स्टेट बैंक की ब्रांच चले जाओ. गनपत ने साफ मना कर दिया, बोला गुरु जी से बिना पूछे मैं कहीं नहीं जाता. हमने कहा तुम जाओ तो सही, हम उनसे पोस्टफेक्टो सेंक्शन ले लेंगे.

गनपत कुछ देर तक तो हमको ऊपर से नीचे तक देखता रहा, फिर धृष्टता से व्यंग्य भरी मुस्कान फेंककर पूछा: ये क्या होता है और इससे क्या गुरुजी हमारी क्लास नहीं लगायेंगे.

हमने कहा कि ये बैंक की शब्दावली है जब नियंत्रक को शाखा प्रबंधक पर पूरा विश्वास हो कि ये गड़बड़ नहीं करेगा या अगर कर भी लिया तो हमारे हिसाब में गड़बड़ नहीं करेगा तो वो शाखाप्रबंधक के कान में विश्वास या अंधविश्वास का मंत्र फूंक देते हैं और काम सबका चलता रहता है. खैर बात तो गनपत के सर के ऊपर से अर्जुन के तीर के समान सांय से गुजर गई और उसने फिर से, इस बार मजबूती से हमारे सम्मान की वाट लगाते हुये फिर मना कर दिया.

हमने अगला तीर निशाने में लगाने की फिर कोशिश की कि गनपत, गुरुजी हमारे बड़े भाई के समान हैं, वो हमारे ग्रुप में भी हैं जिसमें हम एडमिन बन कर बैठे हैं.

गनपत : कौन सा ग्रुप?

मैं : बैंक : हमारी कहानी

गनपत :इसमें क्या होता है?

मैं : हम लोग बैंक में जो काम करते थे न, उसकी कहानी कहते हैं. बाहर की बात भी कर सकते हैं पर पकापकाया माल एलाउड नहीं है, लोग बहुत अच्छे हैं, मान गये हैं, हमको सब लोग पसंद भी हैं. इत्ता तो नौकरी करते वक्त भी नहीं करते थे.

रोज बॉस की डांट खाते थे.

गनपत :और ये एडमिन क्या होता है.

मैं : ये बिना पावर बिना वेतन का अधिकारी होता है.

गनपत : ये तो हमको भी गुरुजी बताये थे कि शाखा में चेक पास करने और पेटीकेश का मनमुताबिक उपयोग करने के अलावा कोई डायरेक्ट अधिकार नहीं होता और जो अधिकार होता है वो अधिकार कम फसौवल ज्यादा हैं. पर एडमिन भैया आपको तन्खा नहीं मिलती, मानदेय तो मिलता होगा.

एडमिन : मानदेय मतलब मान देना पड़ता है गनपत, अब जल्दी से बैंक जाकर पता कर लो कि चल रही है क्या हमारे बिना.

गनपत : जाने की क्या जरूरत, यहीं कमानिया के पास खड़े होकर बता रहे हैं, बहुत बढ़िया चल रही है, पहले से बेहतर चल रही है क्योंकि नये लड़के तो कंप्यूटर के मास्टर हैं, सब खुद ही ठीक कर लेते हैं. आप बिल्कुल भी चिंता मत पाले, अपने ग्रुप पर ध्यान दो, कभी कभी भटक जाता है. अब मैं जा रहा हूँ, वो देखिए गुरुजी आ रहे हैं.

हमने नपे तुले कदमों से बड़कुल के सामने महावीर दूध भंडार की तरफ रुख किया और ऑर्डर प्लेस किया एक केसरिया दूध मलाई मारके. गिलास गरम लगा तो ऑंख खुल गई, वास्तविकता में पत्नी ने हमारी कनिष्ठा उंगली चाय के कप से टच कर दी थी.

गुरुजी से पोस्टफेक्टो सेंक्शन की उम्मीद से 💐🙏

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 41 – गोबर गणेश…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी, पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 41 – गोबर गणेश श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

माॅं तुम हमेशा मुझे पढ़ने को क्यों बोलती रहती हो?

मैं घर का सारा काम भी तो करता हूं और तुम्हारी कितनी मदद करता हूं। क्या यह सब तुम्हें अच्छा नहीं लगता? तुम और पिताजी हमेशा मुझे डांटे रहते हो। बड़े भाई बहनों को तो तुम लोग कुछ नहीं बोलते मुझे हमेशा क्यों रहते हो दिमाग में गोबर भरा  है। गोबर गणेश की तो पूजा भी करते हैं।

बेटा हम तुम्हारे भले की ही बात कहते हैं। देखा! गणेश जी को भी कुछ अरसे बाद रखें और विसर्जित कर देते हैं। जीवन भर हम भी नहीं रहेंगे और तुम्हारा जीवन कैसे चलेगा?

बाद में तुम पछताओगे और समय निकल जाने के बाद किसी की कोई कीमत नहीं होती। जितनी जल्दी यह सब बातें तुम अपने दिमाग में समझ लोगे उतना ही अच्छा रहेगा।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 304 ☆ बाल कथा – “पिंटू का स्कूल” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 304 ☆

?  बाल कथा – “पिंटू का स्कूल” ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पिंटू 5 वर्ष का नटखट बच्चा है। उसका एक छोटा भाई है चिंटू । पापा से जिद करके पिंटू ने एक पपी पाला था। उसने प्यार से पपी का नाम ब्राउनी रखा था। चिंटू पिंटू और ब्राउनी खूब खेला करते थे। पिंटू को अपनी टीचर की तरह पढ़ाना बहुत अच्छा लगता था। वह चिंटू और ब्राउनी को बैठाकर अपनी क्लास लगाता था। धीरे धीरे उसने ब्राउनी को अखबार उठाकर लाना और उसे पकड़ना सिखा दिया था।

एक दिन ब्राउनी अखबार पकड़कर पढ़ने का नाटक कर रहा था, और पिंटू चिंटू यह देखकर मस्ती से हँस रहे थे । तभी वहां से पड़ोस में रहने वाले अंकल निकले । ब्राउनी की अखबार पढ़ने की मजेदार हरकत को उन्होंने अपने मोबाईल से कैद कर लिया ।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 206 – विवशता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “विवशता”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 206 ☆

🌻लघु कथा🌻 🍃विवशता 🍃

किताबों के ढेर की छंटनी की जा रही थी। अभय के बेटे ने कहा–पापा अब इन किताबों का कोई मतलब नहीं है। पुराने हो चुके हैं और सब बेकार हो गए हैं। इन्हें कबाड़ में देकर घर को साफ किजिए।

उन्हीं किताबों के ढेर से झांकती एक तस्वीर अचानक अभय के दिलों दिमाग को झंकृत कर गई। तब कलर फोटो का जमाना नहीं था। बड़े मुश्किल से किसी काम के लिए फोटो खिंचवाई जाती थी और उसे सहेज कर रखा जाता।

एक से दो फोटो वह भी पासपोर्ट साइज। ऐसा लगता मानो जाने कितने पैसे लग रहे हैं, किसी फार्म के लिए।

किताबों को उठा अपने सीने के पास शर्ट से पोछते अभय के अनायास नेत्र भर उठे। आज का समय होता तो शायद वह भी इसे गर्ल फ्रेंड, लिव इन रिलेशन का नाम दे देता।

परंतु न हिम्मत और न किसी प्रकार की सहायता। धीरे से फोटो निकाल कर हाथों से साफ करके देख रहा था पीछे स्याही हल्की हो चुकी थी पर लिखा दिखाई दे रहा था – – सिर्फ तुम्हारी।

अभय का बेटा मोबाइल चलाते-चलाते बाहर आया। पापा को छोटी सी तस्वीर को गौर से देखते भावविभोर होते देखा वह बोल उठा– पापा गर्लफ्रेंड या लिंव इन रिलेशन।

कितने सहज रूप से वह इस वाक्य को पापा को कह सुनाया। अभय ने भी बेटे के कंधे पर हाथ रख आँसू पोछते हुए कहा – – – बेटा सिर्फ चाहत।

जो आंखों की थी और आज भी है। अब बोलने की पारी बेटे की थी। बेटे ने बड़ी ही समझदारी और गंभीरता से कहा – – पापा अब यह कहाँ मिलता है। आप बड़े भाग्यवान है और कसकर गले लग गया।

अभय बेटे की विवशता और जमाने का चलन दोनों समझ रहे थे। शायद वह अपनी बेटे को समझा भी रहे थे काश वह समय लौट आता!!!!!

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – पिपासा – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “–पिपासा –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — पिपासा — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

संजय का काम था धृतराष्ट्र को महाभारत युद्ध का हाल सुनाए। वह सुना ही रहा था कि धृतराष्ट्र ने बड़ी ही दीनता से कहा, “सुनने भर से मेरा काम नहीं चलेगा संजय। मुझे यह युद्ध दिखाओ।” यह अंदर की उसकी पिपासा थी। देखने के लिए उसे आँखें तो चाहिए। संजय ने अपनी आँखें दे कर उसे युद्ध दिखाया। उसने देखा उसके बेटे जयी हो रहे थे। यही थी उसकी पिपासा। संजय ने धीरे से अपनी आँखें वापस ले लीं।

***
© श्री रामदेव धुरंधर

11 – 09 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 40 – गंदा बच्चा…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – गंदा बच्चा।)

☆ लघुकथा # 40 – गंदा बच्चा श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

तुम  कोई काम ढंग से नहीं करते हो?

नंदिनी ने अपने छोटे 6 साल की बेटे प्रियांशु से कहा।

प्रियांशु ने जवाब दिया हां मैं बहुत बुरा हूं बड़ा भाई अनुराग बहुत अच्छा है और अभी मेरा जो दोस्त मिला था अभिनव वह भी बहुत अच्छा है। उसके साथ बड़े अच्छे से हंस हंस के बात कर रही थी।  मेरी मैडम भी कहती है कि पूरी क्लास के बच्चे बहुत बदमाश हो।  जिसे तुम अच्छा बोल रही थी और उसे टॉफी भी दी ।  मुझे तो कुछ दिलाती ही नहीं हो और मैं इतना ही गंदा हूं तो अब मैं मॉल के बाहर बैठ जाता हूं। तुम सब घर जाओ मैं नहीं जाऊंगा। नानी ने पैसे दिए थे आइसक्रीम और पॉपकॉर्न खाकर यहीं बैठा हूं। तभी उसके पिताजी किशोर ने आवाज लगाई तुम दोनों मां बेटे क्या कर रहे हो मुझे ऑफिस भी जाना है। सामान की खरीदारी हो गई हो तो कृपया घर चलो।

हां पापा। हम मां को ही पता नहीं क्या-क्या खरीदना रहता है। उटपटांग सामान खरीदती है और जब मैं कुछ बात कहता हूं तो गुस्सा हो जाती है और मुझे गंदा बच्चा कहती है। मेरे सब दोस्तों को अच्छा बच्चा कहती है। या तो आज से  मेरे दोस्तों को ही घर में रख ले। आप मुझे अपने साथ ऑफिस ले चलो। चलो हम चलते हैं।

क्या हुआ बेटा इतने नाराज क्यों हो तुम? तुम बहुत अच्छे लड़के हो।

चलो हम लोग आइसक्रीम और पॉपकॉर्न लेकर गाड़ी में बैठते हैं। एक बात नहीं समझ में आई बेटा तुमने कहा कि मैडम भी तुमको गंदा कह रही है, यह सब बातें तुम्हारे दिमाग में डाली किसने?

क्या करूं आजकल मेरा पढ़ाई लिखाई किसी काम में मन नहीं लग रहा है।

अरे तुम अभी  क्लास वन में हो। इतने छोटे  बच्चे होकर तुम ऐसी बातें कर रहे हो। तुम तो खेल पढ़ाई सब में अच्छे थे। क्या करूं आजकल मुझे कोई खेलने देता ही नहीं है। मां भी पीछे पड़ गई है फर्स्ट आना है।

चलो आज मैं तुम्हारे साथ खेलता हूं। मां को छोड़ो और तुम्हें जो काम अच्छा लगे तुम वह करो लेकिन बेटा जीवन में पढ़ाई भी बहुत जरूरी है और तुम्हारी मां और मैडम दुनिया में बहुत लोग बहुत कुछ कहते रहेंगे लेकिन तुम पढ़ाई और अपने नंबरों से सब का मुंह बंद करो तो तुम्हें खेलने से भी कोई नहीं रोकेगा।

क्या पापा सच में ऐसा करने से होगा.?

हां बेटा मैं छोटा था तो मुझे भी तुम्हारी तरह सब लोग गंदा ही रहते थे। यदि मैं सब की बातों की परवाह करता तो क्या आज मैं अपनी खुद की एक कंपनी चला पाता। देखो एक बात याद रखो पढ़ाई और खेलना सब समय से करो तुम।

चलो क्या हो रहा है मनिका बाप बेटे मेरी बुराई कर रहे हो। नहीं माँ घर चलकर मैं पढ़ाई करूंगा फिर शाम को हम और पापा खेलेंगे। आज से मैं पापा के साथ ही रहूंगा आप हर बात अच्छी तरह से समझते हैं। माँ तो यह बात समझती ही नहीं कि मैं कचरा का डिब्बा गंदा नहीं हूं?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 257 ☆ कथा-कहानी – बाइसिकिल ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय कथा – ‘बाइसिकिल । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 257 ☆

☆ कथा कहानी ☆ बाइसिकिल 

कुसुम को लगा जैसे एक सैलाब आया और हर चीज़ को नेस्तनाबूद करता हुआ गुज़र गया। उस एक घटना ने दुनिया की हर चीज़ की शक्ल बदल दी। रोज़ के पहचाने लोगों के चेहरे भी जैसे दूसरे हो गये।

दोनों जेठानियों और देवरानी ने उसे गले से लगाकर काफी आंसू बहाये। ससुर ने कई बार उसके सिर पर हाथ फेरा,कहा, ‘बेटी, कलेजे को पत्थर करो और इन लड़कियों के मुंह की तरफ देखो। ओंकार तो चला गया। अब तुम्हीं इनकी मां भी हो और बाप भी। विपत्ति में धीरज से काम लेना चाहिए। फिर तुम्हारे दोनों जेठ हैं, देवर है, हम हैं। हमारे रहते तुम्हें क्या चिन्ता है?’
परिचितों, पड़ोसियों ने सुना तो ‘च च’ किया। कच्ची गृहस्थी है, कैसे नैया पार होगी? सब एक-एक कर कुसुम के घर आये, सिर लटकाये, अपनी सहानुभूति ज़ाहिर की और फिर उठकर अपने-अपने काम में लग गये।

पांच छ: दिन तक कुसुम को न अपना होश रहा, न लड़कियों का। उसे लगता रहा जैसे बहुत सी छायाएं उसके आसपास गुज़रती रहती हैं, बहुत से शब्द बोले जाते हैं, लेकिन उसका उनसे कोई ताल्लुक नहीं है।

तेरहीं के दिन ससुर ने तीनों लड़कों की बैठक जोड़ी, कहा, ‘भैया, जो कुछ हुआ सो तुम्हारे सामने है। मृत्यु पर किसी का वश नहीं है। अब तुम्हारा जो कर्तव्य बनता है सो करो। ओंकार का फंड का कुछ रुपया जरूर मिलेगा, लेकिन बहू उसे खा-पी डालेगी तो फिर कल के दिन लड़की की शादी कैसे होगी? इसलिए तुम लोग दो दो हजार रुपये हर महीने कुसुम को दो तो उसका काम चले।’

दोनों बड़े भाइयों शीतल प्रसाद और रामनरेश ने धीरे से ‘ठीक है’ कहा।

छोटा भाई सुनील गंभीर होकर बोला, ‘बाबूजी, सबका हिस्सा बराबर मत रखो। मैं बारह हजार रुपये तनख्वाह पाता हूं। दो हजार रुपये इधर दे दूंगा तो अपने बाल-बच्चों को क्या खिलाऊंगा?’

पिता जवाहरलाल सिर खुजाने लगे, बोले, ‘ठीक है, तो तुम एक हजार दे देना।’

जवाहरलाल बड़े लड़के के घर में रहते थे। अब अपने सामान के साथ कुसुम के घर में आ गये। कुसुम को कुछ सहारा हुआ। दिन  अब चींटी की चाल से रेंगने लगे। कुसुम  का दिन तो जैसे तैसे कट जाता, लेकिन रात पहाड़ हो जाती। एक तरफ सुख के दिनों की यादों का हुजूम, दूसरी तरफ भविष्य  की खौफनाक डायनों के नाच।

बूढ़े ससुर सो जाते तो उनके गाल गुब्बारे जैसे फूलने-पिचकने लगते और खुले मुंह से फू-फू  की आवाज़ निकलने लगती। कुसुम उनकी तरफ दया के भाव से देखती। आराम की उम्र में किस्मत ने उनके ऊपर एक नई ज़िम्मेदारी डाल दी थी। सो जाने पर वे एकदम निरीह, बेचारे हो जाते और अनेक काले साये बेखौफ सब तरफ से कुसुम को पकड़ने लगते। दरवाज़े पर हवा की दस्तक होते ही वह शंकित होकर उठकर बैठ जाती। बैठकर दोनों लड़कियों के शरीर पर अपने हाथ रख लेती। रात के सन्नाटे में घर के आसपास किसी आदमी की बातचीत सुनकर उसके रोंगटे खड़े हो जाते। वह रात रात भर कमरे में घूमती। ज़रा सी आहट होते ही बड़ी देर तक दरवाज़े पर कान लगाये सुनती रहती।

भाइयों से पांच  हज़ार रुपये महीने आने लगे थे, लेकिन मंझले रामनरेश का दिमाग रुपए देते वक्त दूसरे महीने में ही खराब होने लगा। कुसुम को जिस तरह गुस्से से मसलते हुए दो हज़ार के नोट उन्होंने दिये उससे कुसुम को उनकी मन:स्थिति कुछ कुछ ज्ञात हो गयी।

इसके बाद वे चौथे पांचवें दिन आते और कुसुम की लड़कियों पर अपना गुस्सा उतार कर चले जाते। उन्हें उनके चलने फिरने, पहनने ओढ़ने में खोट ही खोट दिखायी पड़ता। लड़कियां उन्हें देखकर इधर-उधर छिप जातीं।

बाज़ार में कहीं मंझले चाचा लड़कियों को देख लेते तो उनकी मुसीबत कर देते, ‘क्यों आयी हो? कहां जा रही हो? आवारा जैसी घूमती हो।’ लड़कियों को रोना आ जाता।

एक दिन रामनरेश पिता से बोले, ‘बाबूजी! सुमन और सुनीता को रिक्शे से स्कूल भेजना कोई जरूरी है? मुश्किल से आधा किलोमीटर की दूरी होगी। बात यह है कि जब हम अपने बच्चों का पेट काट कर पैसा देते हैं तो कुसुम को भी सोच समझ कर खर्च करना चाहिए।’

जवाहरलाल धीरे से बोले, ‘देखेंगे।’

तीसरे महीने रामनरेश कुसुम को सिर्फ एक  हज़ार रुपये पकड़ा गये। बोले, ‘अभी ज़्यादा पैसे नहीं हैं। बाकी बाद में दे दूंगा।’ उस महीने फिर उन्होंने कुछ नहीं दिया।

फिर उनका यही रवैया हो गया। हर बार हज़ार रुपये पकड़ा जाते और बाकी देने का आश्वासन दे जाते।

छह सात माह गुज़र गये। एक दिन कुसुम ने ससुर से कहा, ‘सुमन सुनीता की फ्राकें  फट रही हैं। कुछ और पैसों का इन्तजाम हो जाता  तो उनके लिए कपड़े खरीद लेती।’

ससुर बोले, ‘मैं आज रामनरेश से कहूंगा।’

वे शाम को घूम घामकर लौटे तो हाथ में छोटी सी पोटली थी। बोले, ‘बेटी, उसके पास पैसे तो नहीं थे। ये प्रीति और दीपा की फ्राकें दी हैं।  थोड़ा कॉलर फट गया है, वैसे अच्छी हैं। थोड़ा सुधार कर काम आ जाएंगीं।’

उन फ्राकों को उलट पलट कर देखते कुसुम की आंखों में पानी भरने लगा।

कुछ दिनों बाद फिर समस्या पैदा हुई। सुमन की परीक्षा फीस के लिए कुसुम के पास पैसे नहीं थे। फिर ससुर से कहा। वे बोले, ‘ठीक है। इन्तजाम करता हूं ।’

घूम कर वापस लौटे तो कुछ परेशान थे। बोले, ‘बेटा, शीतल घर पर नहीं था। रामनरेश का हाथ खाली है। लेकिन फिक्र मत करना। इन्तजाम हो जाएगा।’

थोड़ी देर बाद ही रामनरेश गुस्से से फनफनाते घर में आ गये। खड़े-खड़े ही बोले, ‘देखो भाई, थोड़ा हमारे ऊपर दया करो। यहां कोई पैसे का पेड़ नहीं लगा है कि हिलाओ और बटोर लो। लड़की जात है, ज्यादा पढ़ाना जरूरी नहीं है। लेकिन यहां तो यह हाल है कि कहा था रिक्शा छुड़ा दो तो वह भी नहीं हुआ। अब हम आगे के लिए कह देते हैं कि हमें जो पूजेगा सो देंगे। आगे मांगने की जरूरत नहीं है।’

कुसुम ने ससुर की तरफ देखा और ससुर ने गंजे सिर पर हाथ फेरते हुए आंखें झुका लीं। लड़कियां किवाड़ों से चिपकी सिकुड़ी जा रही थीं।

कुसुम अपने मोहल्ले की एक महिला को बाइसिकिल पर अपने घर के सामने से रोज़ आते जाते देखती थी। वह महिला वेशभूषा से विधवा दिखती थी। लगता था वह कहीं काम करती थी। एक दिन कुसुम पता लगाकर उस महिला के घर पहुंच गयी। महिला ने उसका स्वागत किया। उनके घर में चार बच्चे थे— दो लड़के और दो लड़कियां।

वे श्रीमती जोशी थीं। कुसुम ने उनके परिवार के बारे में पूछताछ की। उन्होंने दुखी भाव से बताया कि उनके पति का तीन साल पहले एक मोटर दुर्घटना में निधन हो गया था। ससुराल और मायके वाले मदद करने की स्थिति में नहीं थे। वे बोलीं, ‘महीने दो-महीने तो मरी सी पड़ी रही, फिर सोचा बच्चों का भाग्य अब मेरे ही भरोसे है। एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली। शुरू में बाहर आने जाने में बहुत घबराहट होती थी। अब नहीं होती। अब मुझे संतोष है कि मैं बच्चों की मदद करने लायक हूं। किसी तरह गाड़ी चल रही है। आप भाग्यवान हैं कि आपको रिश्तेदारों की मदद मिल रही है।’

कुसुम ने सोच कर कहा, ‘आपके स्कूल में मुझे नौकरी मिल सकती है?’

श्रीमती जोशी आश्चर्य से बोलीं, ‘आपको नौकरी की क्या ज़रूरत है?’

कुसुम बोली, ‘आप पता लगाइएगा। मैं नौकरी करना चाहती हूं।’

श्रीमती जोशी बोलीं, ‘ठीक है। मैं पता लगा कर बताऊंगी।’

चार-पांच दिन बाद कुसुम एक दिन ससुर से बोली, ‘बाबूजी, सदर बाजार के नर्सरी स्कूल में आठ हजार  रुपये की मास्टरी मिल रही है। कर लूं?’

ससुर परेशान होकर बोले, ‘अरे बेटा, तू हमारे घर की बहू होकर आठ हजार रुपल्ली की नौकरी करेगी? उतनी दूर रोज कैसे जाएगी बेटी? हमारे खानदान में औरतों ने कभी नौकरी नहीं की। ऐसा मत कर।’

कुसुम चुप हो गयी।

अगले महीने रामनरेश रुपये देने नहीं आये। पिता उनके घर गये, फिर लौटकर बहू से बोले, ‘बेटी, अभी उसके पास पैसे नहीं हैं। दो एक दिन में दे देगा।’

पीछे आंगन में ओंकार की साइकिल पड़ी थी। उस पर धूल बैठ गयी थी। दोनों टायर चिपके हुए थे। ससुर कई बार कह चुके थे कि उसे बेच दिया जाए। हजार दो-हजार रुपये  तो मिल ही जाएंगे। लेकिन कुसुम ओंकार की चीज़ों को बेचना बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी।

एक दिन वह ससुर से बोली, ‘बाबूजी, मैं सोचती हूं कि अपनी साइकिल को कटवा कर लेडीज़ साइकिल बनवा लें।’

ससुर बोले, ‘लेडीज़ साइकिल का क्या करेगी बेटी?’

कुसुम बोली, ‘सुमन के काम आ जाएगी। अभी हर चीज के लिए आपको दौड़ना पड़ता है। फिर छोटे-मोटे काम वह कर लाएगी।’

ससुर बोले, ‘जैसी तुम्हारी मर्जी।’

फिर एक रात मोहल्ले वालों ने एक अजब नज़ारा देखा। सड़क पर एक लेडीज़ साइकिल पर कुसुम सवार थी और उसे दोनों तरफ से संभाले हुए दोनों बेटियां। कुसुम साइकिल चलाना सीख रही थी। बिजली की रोशनी में साइकिल की सीट पर उसके कूल्हे बड़े बेहूदे ढंग से हरकत करते थे। लड़कियां उसे ढकेलतीं और साइकिल डगमग होती, सड़क के एक किनारे से दूसरे किनारे को चली जाती। कई बार साइकिल  गिरती और उसके साथ कुसुम भी ज़मीन पर फैल जाती। मोहल्ले के स्त्री पुरुषों ने यह दृश्य सहानुभूति, प्रशंसा, उपहास और मज़ाक के भाव से देखा।

साइकिल की करीब एक सप्ताह प्रैक्टिस के बाद एक दिन कुसुम ससुर से बोली, ‘बाबूजी, मैने स्कूल की नौकरी कर ली है। कल से मैं काम पर जाऊंगी।’

ससुर ने खामोशी से एक बार उसकी तरफ देखकर आंखें झुका लीं।

धीरे-धीरे बात फैली। सब भाइयों तक बात पहुंची कि कुसुम अब साइकिल पर बैठकर नौकरी करने जाती है। तीनों घरों ने एक राहत की सांस ली।

शीतल प्रसाद दुखी भाव से कुसुम के पास पहुंचे। बोले, ‘नौकरी की क्या जरूरत थी? आखिर हमसे जो बन रहा था कर ही रहे थे।’

कुसुम ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भाई साहब, आपने बहुत किया। आखिर कब तक आपके ऊपर बोझ डालते?’

रामनरेश भी कुसुम के पास पहुंचे। उनके मुंह पर राहत का भाव था। झूठी सहानुभूति के स्वर में बोले, ‘भई, नौकरी की क्या जरूरत थी? आखिर हम आगे पीछे पैसे तो देते ही।’

कुसुम ने कहा, ‘नहीं भाई साहब, आखिर आपके भी बाल बच्चे हैं। सबकी अपनी अपनी जिम्मेदारियां हैं।’

फिर तीनों परिवारों के लोग बारी-बारी से कुसुम  के घर गये। सब ने कुसुम से बड़े प्यार और बड़ी इज़्ज़त से बातें कीं। सब ने बारी-बारी से सुमन और सुनीता के सिर पर हाथ फेरा। फिर सब ने उस लेडीज़ साइकिल को गौर से देखा जो उनके लिए एक अजूबा बनी हुई थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #246 – लघुकथा – अनूठी बोहनी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा अनूठी बोहनी” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #246 ☆

☆ लघुकथा – अनूठी बोहनी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

साँझ होने को आई किन्तु आज एक पैसे की बोहनी तक नहीं हुई रामदीन की।

बाँस एवं उसकी खपच्चियों से बने फर्मे के टंग्गन में गुब्बारे, बाँसुरियाँ, और फिरकी, चश्मे आदि करीने से टाँग कर वह रोज सबेरे घर से निकल पड़ता है।

गली, बाजार, चौराहे व घरों के सामने कभी बाँसुरी बजाते, कभी फिरकी घुमाते और कभी फुग्गों को हथेली से रगड़ कर आवाज निकालते ग्राहकों/ बच्चों का ध्यान अपनी ऒर आकर्षित करता है रामदीन बच्चों के साथ छुट्टे पैसों की समस्या के हल के लिए वह अपनी  बाईं जेब में घर से निकलते समय ही कुछ चिल्लर रख लेता है। दाहिनी जेब आज की बिक्री के पैसों के लिए खाली होती।

आज कोई बिक्री न होने से खिन्न मन  रामदीन अँधेरा होने से पहले घर लौटते हुए रास्ते में एक पुलिया पर कुछ देर थकान मिटाने के लिए बैठकर बीड़ी पीने लगा। उसी समय सिर पर एक तसले में कुछ जलाऊ उपले और लकड़ी के टुकड़े रखे मजदुर सी दिखने वाली एक महिला एक हाथ से ऊँगली पकड़े एक बच्चे को लेकर उसी पुलिया पर सुस्ताने लगी।

गुब्बारों पर नज़र पड़ते ही वह बच्चा अपनी माँ से उन्हें दिलाने की जिद करने लगा। दो-चार बार समझाने के बाद भी बालक मचलने लगा, तो उसके गाल पर एक चपत लगाते हुए उसे डाँटने लगा दी कि,

“दिन भर मजूरी करने के बाद जरा सी गलती पर ठेकेदार ने आज पूरे दिन के पैसे हजम कर लिए और तुझे फुग्गों की पड़ी है।” बच्चा रोने लगता है।

पुलिया के एक कोने पर बैठे रामदीन का इन माँ-बेटे पर ध्यान जाना स्वाभाविक ही था।

वह उठा और रोते हुए बच्चे के पास गया। एक गुब्बारा, एक बाँसुरी और एक फिरकी उसके हाथों में दे कर सर पर हाथ रख उसे चुप कराया। फिर अपनी बाईं जेब में हाथ डालकर  उसमें से इन तीनों की कीमत के पैसे निकाले और अपनी दाहिनी जेब में रख लिए।

अचानक हुई इस अनूठी और सुखद बोहनी से प्रसन्न मन मुस्कुराते हुए रामदीन घर की ओर चल दिया।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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