हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 210 – डोर बेल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित हृदयस्पर्शी लघुकथा डोर बेल”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 210 ☆

🌻लघु कथा🌻 डोर बेल🌻

 

बचपन सभी का बहुत प्यारा होता है। बचपन की यादें सारी जिंदगी जीने का मकसद बन जाती है।

किसी का बचपन संवर कर अच्छा किसी का बहुत अच्छा और किसी का स्वर्णिम बन जाता है। परन्तु कुछ का बचपन एक किस्सा बन जाता है।

मिट्टी का घरौंदा धीरे- धीरे घर बना। और रहने लगा एक परिवार। मासूम सी बिटिया अपने छोटे भाई और माँ पिताजी के साथ।

पिता जी बड़े प्यार से बिटिया को डोरबेल बुलाते थे, क्योंकि बाहर से आने के पहले ही वह दरवाजे पर खड़ी मिलती थी।

ठंड अपने पूर्ण जोश से दस्तक दे रही थी। रात पाली काम करके आज पिता जी लौटे। उनके हाथ एक खुबसुरत रंगबिरंगा कंबल था।

आज डोर बेल दरवाजे पर नही आई। माँ ने कहा शायद ठंड की वजह से सिमटी पडी सो रही है। पिताजी डोरबेल के पास पहुंचे। पर यह क्या???

डोर बेल तो ठंड से अकड गई थी। तुरंत दौड़ कर सरकारी अस्पताल ले जाया गया। जहाँ डा. ने कहा कि देर हो गई।

पिता जी कंबल में लपेटे डोरबेल को ले जा रहे थे। कानों में उसकी घंटी  बजी – – – पिता जी डोर बेल टूट गई।

चौक के पास एनाउंसमेंट नेताओं का हो रहा था। सभी को कंबल बाँटा जा रहा है। अपना आधार कार्ड दिखा कर कंबल लेते जाए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 266 ☆ लघुकथा – अपना अपना धर्म ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम लघुकथा – ‘अपना अपना धर्म‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 266 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अपना अपना धर्म

नवीन भाई रिटायर होने के बाद घोर धार्मिक हो गये हैं। पहले दोस्तों के साथ बैठकर कभी-कभी सुरा-सेवन हो जाता था। दफ्तर में भी दिन भर में हजार पांच सौ रुपया ऊपर के कमा लेते थे। अब सब प्रकार के पापों से तौबा कर ली है। अब लौं नसानी, अब ना नसैंहौं। परलोक की फिक्र करना है।

अब रोज नहा-धो कर नवीन भाई करीब एक घंटा पूजा करते हैं। सभी देवताओं की स्तुति  गाते हैं। बाद में भी बैठे-बैठे ध्यानस्थ हो जाते हैं। बार-बार आंख मूंद कर हाथ जोड़ते हैं, कानों को हाथ लगाते हैं। शाम को कॉलोनी के छोटे से मन्दिर में बैठ जाते हैं। वहां अन्य भक्तों से सत्संग हो जाता है, शंका-निवारण भी हो जाता है। हर साल तीर्थ यात्रा का प्लान भी बन गया है। परिवार के सदस्य उनके ‘सुधरने’ से प्रसन्न हैं।

नवीन भाई के घर में खाना बनाने वाली लगी है। पहले कई खाना बनाने वालीं काम छोड़ चुकीं क्योंकि नवीन भाई को खाने में मीन-मेख निकालने की आदत रही। लेकिन रिटायरमेंट के बाद वे शान्त और सहनशील हो गये हैं।

कुछ दिन पहले घर में खाना बनाने के लिए केसरबाई लगी है। बड़ी धर्म-कर्म वाली है। घर में प्रवेश करते ही बच्चों समेत सबसे हाथ जोड़कर ‘राधे-राधे’ कहती है। सफेद साड़ी पहनती है जिसका छोर गर्दन में लपेटकर पुरी भक्तिन बनी रहती है। रास्ते में किसी मन्दिर से चन्दन का सफेद टीका लगा लेती है। किचिन में घुसते ही मोबाइल पर भजन चालू कर लेती है और उसके साथ सुर में सुर मिलाकर गुनगुनाती रहती है। टीवी पर कोई धार्मिक चैनल चलता हो तो काम भूल कर बड़ी देर तक वहीं खड़ी रह जाती है।

नवीन भाई की पत्नी उससे प्रसन्न रहती हैं क्योंकि वह किसी बात को लेकर झिकझिक नहीं करती। अपने में मगन रहती है। लेकिन नवीन भाई को उसके गुनगुनाने से चिढ़ होती है। उसका सुर फूटते ही उनके ओंठ टेढ़े हो जाते हैं।

केसरबाई को आने में कई बार देर होती है। कहीं बिलम जाती है। आने पर बताती है कि रास्ते में कहीं कथा या भागवत सुनने बैठ गयी थी। सुनकर नवीन भाई का रक्तचाप बढ़ता है। मन को एकाग्र करना मुश्किल होता है। बीच में एक बार तीन-चार दिन के लिए मिसेज़ चौबे के साथ वैष्णो देवी चली गयी थी। तब भी नवीन भाई का बहुत खून जला था। मिसेज़ चौबे हर साल एक महिला को अपने खर्चे पर अपने साथ तीर्थ यात्रा पर ले जाती हैं। उनके खयाल से ऐसा करने से उन्हें अतिरिक्त पुण्य की प्राप्ति होती है। 

नवीन भाई केसरबाई की भक्ति से चिढ़ते हैं क्योंकि उन्होंने पढ़ा है कि हर आदमी का निश्चित धर्म होता है और उसे अपने धर्म के हिसाब से ही काम करना चाहिए। दूसरे के धर्म की नकल नहीं करनी चाहिए। केसरबाई  का धर्म दूसरों की सेवा करना है, इसीसे उसका कल्याण होगा। उसके मुंह से धर्म-कर्म की बातें उन्हें फालतू लगती हैं। वे गीता का हवाला देते हैं कि अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

कई बार नवीन भाई का मन होता है कि वे केसरबाई से कहें कि धर्म-कर्म की बातें छोड़कर अपने काम की तरफ ध्यान दे। फिर यह सोचकर चुप रह जाते हैं कि वह कहीं नाराज़ होकर उनका काम न छोड़ दे। बिना बखेड़ा किये उनका काम करती रहे, यही बहुत है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मुस्कान ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। उनके ही शब्दों में – “1982 में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारम्भ, 2011 से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अखिल विश्व गायत्री परिवार में स्वयंसेवक के रूप में 2022 तक सतत कार्य। माँ गंगा एवं हिमालय से असीम प्रेम के कारण 2011 से गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में शांतिकुंज आश्रम हरिद्वार में निवास। यहाँ आने का उद्देश्य आध्यात्मिक उपलब्धि, समाजसेवा या सिद्धि पाना नहीं वरन कुछ ‘ मन का और हट कर ‘ करना रहा। जनवरी 2022 में शांतिकुंज में अपना संकल्पित कार्यकाल पूर्ण कर गृह नगर भोपाल वापसी एवं वर्तमान में वहीं निवास।” आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की एक अप्रतिम लघुकथा “मुस्कान। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।) 

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – मुस्कान ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

(यह किसी भी संवेदनशील लेखक की मनोवैज्ञानिक दृष्टि ही हो सकती है। इस लघुकथा के संदर्भ उनके ही शब्दों में – “दो तीन पूर्व मैंने इस स्थिति को डाकघर में देखा है, कथा हेतु संवाद बदले गये हैं ।”)

बैंक में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुये अमोल पंक्ति में लगा हुआ था। लगभग बारह बजे का समय था तो बैंक में ग्राहकों की भीड थी और उसके आगे भी काफी लोग लगे हुये थे।

समय व्यतीत करने के लिये वह अपने स्थान से आसपास देख रहा था, बार बार उसका ध्यान उसके वाले काउंटर पर काम कर रहे कर्मचारी की ओर जा रहा था। लगभग चौबीस पच्चीस की आयु वाला युवा जिस गति से कंप्यूटर चला रहा था उसी गति से तेज स्वर में सामने खडे लोगों से भी उलझने जैसी बातें भी कर रहा था। झल्लाहट, हल्का क्रोध, रोष उसकी बातों से प्रकट हो रहा था। अगले ग्राहक ने सौ के नोटों की बहुत सी गड्डियां काउंटर पर रखीं, उसने आंखें तरेर कर उसे देखा और फटाफट नोट मशीन में रख दिये। जमा पर्ची की रसीद पर जोर से मुहर लगाई और पटकते हुये काउंटर की खिडकी पर रखी। अगले ग्राहक को जोर से बोला- लाइये आपका क्या काम है, यूं ही देखते मत रहिये।

उसके इस व्यवहार को देख कर पंक्ति में खडे लोग अनेक प्रकार की टिप्पणियां कर रहे थे। अचानक उसका कोई फोन आया जिसे सुनते हुये भी उसने सामने वाले को आवेश में ही कुछ उत्तर दिया। तनाव उसके मुख पर स्पष्ट देखा जा सकता था।

उसी समय पीछे से उसकी ही आयु का अन्य युवक आया और झुक कर उससे धीमे स्वर में कुछ बात की जिसे सुनकर उसके चेहरे पर एक निर्मल मुस्कुराहट आई जिसने उसका रूप ही बदल गया था।

पांच मिनट बाद अमोल की बारी आई, उस कर्मचारी को देखते हुये उसने कहा साहब आप मुस्कुराते हुये बहुत स्मार्ट लगते हैं। यह सुनकर उसके मुख पर अनेक भाव आकर चले गये और तत्काल ही उसने कहा क्या मतलब, आप अपना काम कहिये।

अमोल ने भी मुस्कुराते हुये कहा मुझे अपना एटीएम कार्ड नया बनवाना है मैं सभी आवश्यक कागज लाया हूं, यह कह कर उसे आवेदन सौंप दिया। कर्मचारी कागज देखने लगा तभी अमोल फिर कहा सर आपकी स्माइल अच्छी लगती है। यह सुनकर उसने दृष्टि उठाई और पुनः वैसे ही मुस्कुराते हुये कहा सर इतनी भीड में कहां मुस्कुरा सकते हैं। झट अमोल ने कहा देखिये अभी तो मुस्कुराये कि नहीं, इसपर उसकी मुस्कुराहट और गहरी हो गई और उसने कहा आपका कार्ड परसों तक घर आ जायेगा। धन्यवाद, और कुछ काम हो तो कहिये।

पंक्ति से निकलते हुये अमोल ने देखा पीछे खडे सारे ग्राहकों के चेहरे पर भी एक मीठी-सी मुस्कान थी।  

 ©  सदानंद आंबेकर

म नं सी 149, सी सेक्टर, शाहपुरा भोपाल मप्र 462039

मो – 8755 756 163 E-mail : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #195 – लघुकथा — सेवा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “अथकथा में, हे कथाकार!)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 195 ☆

☆ लघुकथा — सेवा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

दो घंटे आराम करने के बाद डॉक्टर साहिबा को याद आया, ” चलो ! उस प्रसूता को देख लेते हैं जिसे आपरेशन द्वारा बच्चा पैदा होगा, हम ने उसे कहा था,” कहते हुए नर्स के साथ प्रसव वार्ड की ओर चल दी. वहां जा कर देखा तो प्रसू​ता के पास में बच्चा किलकारी मार कर रो रहा था तथा दुखी परिवार हर्ष से उल्लासित दिखाई दे रहा था.

” अरे ! यह क्या हुआ ? इस का बच्चा तो पेट में उलझा हुआ था ?”

इस पर प्रसूता की सास ने हाथ जोड़ कर कहा, ” भला हो उस मैडमजी का जो दर्द से तड़फती बहु से बोली— यदि तू हिम्मत कर के मेरा साथ दे तो मैं यह प्रसव करा सकती हूं.”

” फिर ?”

” मेरी बहु बहुत हिम्मत वाली थी. इस ने हांमी भर दी. और घंटे भर की मेहनत के बाद में ​प्रसव हो गया. भगवान ! उस का भला करें.”

” क्या ?” डॉक्टर साहिबा का यकीन नहीं हुआ, ” उस ने इतनी उलझी हुई प्रसव करा दूं. मगर, वह नर्स कौन थी ?”

सास को उस का नाम पता मालुम नहीं था. बहु से पूछा,” बहुरिया ! वह कौन थी ? जिसे तू 1000 रूपए दे रही थी. मगर, उस ने लेने से इनकार कर दिया था.”

” हां मांजी ! कह रही थी सरकार तनख्वाह देती है इस सरला को मुफ्त का पैसा नहीं चाहिए.”

यह सुनते ही डॉक्टर साहिबा का दिमाग चक्करा गया था. सरला की ड्यूटी दो घंटे पहले ही समाप्त हो गई थी. फिर वह यहां मुफ्त में यह प्रसव करने के लिए अतिरिक्त दो घंटे रुकी थी.

” इस की समाज सेवा ने मेरी रात की डयूटी का मजा ही किरकिरा कर दिया. बेवकूफ कहीं की,” धीरे से साथ आई नर्स को कहते हुए डॉक्टर साहिबा झुंझलाते हुए अगले वार्ड में चल दी.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 48 – फुर्सत…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – फुर्सत।)

☆ लघुकथा # 48 – फुर्सत श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

आज सुबह से कमल जी गुस्से में बड़बड़ाये जा रही थी । आजकल जाने क्या हो गया है बहू बेटे और मेरी अपनी बेटी को भी मेरे लिए समय नहीं है?

दिन भर सब घूमते फिरते हैं पर मुझे अपने साथ नहीं ले जाते?

मेरे बहू बेटे तो दिन भर मशीन की तरह पैसे कमाने में लगे हैं। बच्चों को हॉस्टल भेज दिया है मेरे लिए कोई सोचता ही नहीं कि मैं क्या करूं?

क्या हुआ माँ आओ चाय पी लो?

क्यों आज महारानी चाय नहीं बनाएगी?

एक काम तो करती थी वह भी नहीं होगा?

नहीं मां आज उसे ऑफिस जल्दी जाना था। प्रोग्राम है, वह चली गई रात में आएगी और आज खाने वाली भी नहीं आ रही है काम वालों की छुट्टी है तो तुम्हारे लिए खाना कुछ आर्डर कर दूं या कुछ बना दूं?

मैं ऑफिस में खा लूंगा।

नहीं नहीं तू रहने दे?

तुम्हारे साथ चलती हूं मुझे अपनी मौसी के घर में छोड़ दे आज हम दोनों बहन खूब घूमेंगे और बातें करेंगे।

ठीक है पर विमला मौसी को फोन तो कर दो?

यह तुम लोग करते हो फोन करना?

फोन में आरती पूजा कर लेना? हम अपनी बहन से  मिलेंगे तो क्या वह भगा देगी?

ठीक है अच्छा जल्दी तैयार हो।

अगर कोई दिक्कत होगी तो मां मुझे फोन करना मैं शाम को तुम्हें वहाँ से ले लूंगा।

विमल खाने बनाने में लगी रहती है वह कहती है कि चल बाहर जो पहाड़ी पर शिवजी का मंदिर है आज वही चलते है। बाजार भी चलेंगे बहुत दिन हो गया साड़ी खरीदें ।

दीदी  खाना बना रही हूं अभी बच्चे स्कूल से आ रहे होंगे पहले अपने बच्चों को संभाला अब नाती  को संभालती हूं। तुम्हारी बहू श्वेता तो बिटिया की तरह ही है, कितना ध्यान देती है पर सब की किस्मत ऐसी कहां?

ठीक है तू भी अपनी किस्मत सुधार लें मेरे घर 2 दिन रह? घर काटने को दौड़ता है।

तुम तो बचपन से ही ऐसी हो।

मन तो मेरा भी बहुत करता है।

क्या हो गया बड़ी मौसी आते ही मेरी बुराई शुरू कर दी?

नहीं नहीं बेटा कमल जी ने कहा- आज हम सोच रहे थे कि हम सभी मिलकर घूमने चलते हैं पहाड़ी वाले मंदिर।

मौसी आप बुढ़िया लोगों के साथ में मंदिर जाकर क्या करूंगी? माल या कहीं और चलती तो जरूर चलती।

आपके पास काम धंधे हैं नहीं  फुर्सत में हो मेरी भी सास को तुम अपने जैसी बिगाड़ दोगी।

तुम दोनों को वृद्ध आश्रम भेजना पड़ेगा।

देख मैं अपनी बहन को लेकर जा रही हूं और तू इस तरह मुझे ताने मत सुना। हम तुम्हारी सास हैं। जैसे तुम लोगों को फुर्सत में टाइम चाहिए। ऐसे हमें भी तुमसे फुर्सत चाहिए तू अपनी सास की चिंता मत कर अब अपना घर संभाल…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 265 ☆ कथा-कहानी – एक बेचेहरा आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम कहानी – ‘एक बेचेहरा आदमी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 265 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ एक बेचेहरा आदमी

 ‘कैसी मंहगाई है कि चेहरा भी,
बेच के अपना खा गया कोई।’

  – कैफ़ी आज़मी

जोगिन्दर कॉलेज के दिनों से वैसा ही था— काइयां, ख़ुदगर्ज़ और रंग बदलने में माहिर। कॉलेज में वह अपनी ज़रूरत के हिसाब से दोस्तियां बदलता रहता था। इम्तिहान के दिनों में वह ज़हीन लड़कों पर अपना प्रेम बरसाता था, और फिर जुलाई से फरवरी तक के लिए उनके प्रति तटस्थ हो जाता था।

कॉलेज में उसने राजनीति भी की थी। शुरू में वह कुछ छात्र-नेताओं का चमचा बना रहा।  इस मामले में भी वह निष्ठावान नहीं था। नेता की ताकत के घटते ही वह अपनी निष्ठा भी बदल लेता था। उसका हाल कुछ कुछ उन आदिम कबीलों की स्त्रियों जैसा था जो अपने गांव के बीच में गोल बनाकर गप लड़ातीं,अपने कबीले और किसी दूसरे कबीले के पुरुषों के बीच होती लड़ाई को आराम से देखती थीं, और विजेता कबीले के पुरुषों के साथ खुशी-खुशी हो लेती थीं।

फिर धीरे-धीरे वह कुशल छात्र-नेता बन गया। वहां भी वह प्राचार्य के सामने हंगामा करके दूसरे छात्रों को प्रभावित करता था और फिर स्थिति जटिल होने पर धीरे से खिसक लेता था। छात्रों को धोखे में रखकर वह अन्ततः अपना ही उल्लू सीधा करता था। धीरे-धीरे उसने शहर के राजनितिज्ञों से अपने सूत्र बना लिये और फिर उनकी मदद से एक प्राइवेट संस्थान में घुस गया। सरकारी नौकरी में घुस जाना भी उसके लिए मुश्किल नहीं था, लेकिन वह किसी भी कीमत पर शहर नहीं छोड़ना चाहता था।

उस प्राइवेट संस्थान में उसने तेज़ी से तरक्की की। उसकी मेज़ें बड़ी तेज़ी से बदलीं। पुरानी घटिया टेबिल से वह नयी चमकदार टेबिल पर आया और फिर जल्दी ही वह टेलीफोन वाली टेबिल पर पहुंच गया, जिसके पीछे गद्देदार आरामदेह कुर्सी थी।इस दौड़ में उसके कई सीनियर उससे पीछे रह गये और वह दफ्तर में ईर्ष्या और द्वेष का पात्र बन गया। इसके साथ ही उसके आसपास कुछ चापलूसों चुगलखोरों का समूह भी तैयार हुआ जो उसकी स्थिति का लाभ उठाना चाहते थे।

जोगिन्दर की तरक्की की वजह यह थी कि वह शुरू से ही दफ्तर के काम के बजाय मालिक के बंगले के चक्कर लगाने को महत्व देता था। सवेरे-शाम उसका स्कूटर मालिक के बंगले के पोर्च में देखा जा सकता था। मालिक से बहुत से निजी काम वह इसरार करके ले लेता और फिर  उन्हें कराने के लिए दौड़ता रहता था। दफ्तर में जोगिन्दर की रणनीति का पता सबको चल गया था, इसलिए उसके अफसर उससे छेड़छाड़ नहीं करते थे।

जोगिन्दर ने अपने सूत्र खूब फैला रखे थे, इसीलिए उसे कोई भी काम करा लेने में दिक्कत नहीं होती थी। वह खुशामद से लेकर पैसे तक फेंकता चलता था, इसीलिए उसका काम कहीं रुकता नहीं था। झूठी आत्मीयता दिखाने और बात करने में वह सिद्ध था। जिससे काम कराना हो उसकी पारिवारिक समस्याओं और निजी दिक्कतों से वह बात शुरू करता था और फिर धीरे-धीरे मुद्दे की बात पर आता था। उनके भी बहुत से काम वह साध देता था। इसीलिए उसका संपर्क-क्षेत्र निरन्तर व्यापक होता जाता था। लगता था कोई काम उसके लिए असंभव नहीं है। लेकिन आदमी के पद से हटते ही जोगिन्दर की प्रेम की टोंटी उसके लिए कस जाती थी।

जब कभी वह मिलता, उसके चेहरे पर  आत्मसंतोष की चमक दिखती थी। अपने रंग-ढंग के प्रति कोई मलाल उसके चेहरे पर नज़र नहीं आता था। मैं जानता था कि वह अपनी कारगुज़ारियों से बहुतों का हक छीन रहा है, बहुतों को दुखी कर रहा है, लेकिन उसे इन सब बातों की परवाह नहीं थी।

वह कभी-कभी कॉफी हाउस में टकरा जाता था और फिर थोड़ा वक्त उसके साथ गुज़र जाता था। मेरी तरफ से कोई कोशिश न होने पर भी वह बात को अपनी ज़िन्दगी के ‘स्टाइल’ पर ले आता था और फिर उसे उचित ठहराने के लिए तर्क देने लगता। ऐसे मौकों पर वह किसी अपराध-बोध से ग्रस्त लगता था। वह कहता, ‘ज़िन्दगी के साथ एडजस्ट करना ज़रूरी है। सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट का ज़माना है। जो आज के ज़माने में अपने को ढाल नहीं पता वह उसी तरह खत्म हो जाता है जैसे अनेक आदिम जीव खत्म हो गये।’

कई बार मेरे साथ राजीव भी होता। वह मेरे मुकाबले ज़्यादा असहिष्णु है। वह नाखुश होकर कहता, ‘फ़िटेस्ट से तुम्हारा मतलब क्या है? फ़िट कौन है?’

जोगिन्दर का चेहरा उतर जाता, लेकिन वह हार नहीं मानता था। कहता, ‘फ़िट से मेरा मतलब है कि अब मैटीरियलिज़्म का ज़माना है। पैसे की कीमत है। पैसे के बिना सोसाइटी में कोई इज़्ज़त नहीं होती। ‘वैल्यूज़ फैल्यूज़’ की बातें अब बेमतलब हो गयी हैं। इस बात को समझना चाहिए।’

राजीव भीतर दबे गुस्से से पहलू बदलकर कहता, ‘पैसे तो सभी कमाते हैं, लेकिन सवाल यह है कि कितना, किस तरह से और कितनी तेज़ी से पैसा चाहिए। बहुत ज़्यादा और बहुत तेज़ी से पैसा चाहिए तो वह गलत तरीके से ही मिल सकता है। सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट का सिद्धान्त आदमी पर लागू नहीं होता। आदमी का काम सिर्फ गलत चीजों के हिसाब से अपने को ढालना ही नहीं, ज़माने को बिगड़ने से रोकना भी है। तुम अपने तरीकों को जस्टिफाई करने के लिए ये सब गलत तर्क मत दो।’

जोगिन्दर अपनी उंगलियों को तोड़ने मरोड़ने लगता और उसकी नज़रें झुक जातीं। वह अक्सर जवाब देता, ‘बिना पैसे के ज़िन्दगी की ज़रूरतें पूरी नहीं हो सकतीं। ज़िन्दगी में थोड़ा बेरहम और स्वार्थी होना ही पड़ता है।’

राजीव का गुस्सा उसके चेहरे पर झलक जाता। बात को खत्म करते हुए वह कड़वाहट से कहता, ‘ठीक कहते हो। पैसा ज़रूर चाहिए। सवाल सिर्फ यह  है कि वह आदमी की तरह कमाया जाए या केंचुए,लोमड़ी और सुअर की तरह।’

ऐसे मौकों पर जोगिन्दर का चेहरा लाल हो जाता और वह जल्दी कॉफी खत्म करके उठ जाता।

लेकिन हमारी बहसों से उसकी दिनचर्या और उसकी ज़िन्दगी में कोई फर्क नहीं पड़ा। वह बराबर अपने मालिक के बंगले के चक्कर लगाता था और फिर उसके काम के लिए शहर में दौड़ता रहता था। हर चार छह महीने में उसके पास नया स्कूटर होता। उसके हाथों में अंगूठियों की संख्या भी बराबर बढ़ रही थी।

धीरे-धीरे उसका शरीर बेडौल हो रहा था। उसकी तोंद बेतरह बढ़ रही थी और उसकी आंखों के नीचे की खाल झूलने लगी थी। ये सब उसकी अनियंत्रित जीवन-शैली के सबूत थे।

फिर एक बार मुझे भ्रम हुआ जैसे उसके माथे के पास का कुछ हिस्सा पारदर्शी हो गया हो। मैंने उसे बार-बार देखा, लेकिन वह हिस्सा  मुझे नज़र नहीं आया। अगली बार मुझे लगा जैसे उसके चेहरे का कुछ और हिस्सा गायब हो गया हो। इस बार मुझसे उससे पूछे बिना नहीं रहा गया।

उसने कुछ चिन्तित भाव से उत्तर दिया, ‘तुम ठीक कह रहे हो। कोई अजीब बीमारी है। मुझे भी शुरू में पता नहीं चला। दफ्तर में लोगों ने बताया, तब शीशे में गौर से देखा। डॉक्टरों को दिखाया, लेकिन बीमारी उनकी समझ में नहीं आ रही है। रोग बढ़ रहा है। लोगों ने बाहर जांच कराने का सुझाव दिया है।’

अब वह जब भी मिलता, उसके चेहरे का कुछ और हिस्सा गायब मिलता। अन्ततः वह एक अजूबा बनने लगा। लोग उसके पास से गुज़रने पर रुक कर उसे देखने लगते।

फिर  वह कई दिन तक नहीं दिखा। एक दिन बाज़ार में किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। देखा, एक मोटा आदमी था, लेकिन गर्मी के बावजूद ऊनी टोपा पहने था और आंखों पर काला चश्मा। गरज़ यह कि पूरा चेहरा ढका था।

आवाज़ से मैं जान गया कि वह जोगिन्दर था। बोला, ‘मुंबई गया था, लेकिन वहां डॉक्टरों ने रोग लाइलाज बतलाया। चेहरा अब पूरी तरह गायब हो गया है, इसीलिए मुझे ‘इनविज़िबिल मैन’ की तरह यह टोपा और चश्मा पहनना पड़ा। टोपे चश्मे के बिना धड़ के ऊपर कुछ नहीं रहता।’

फिर कुछ रुक कर बोला, ‘मैंने रोग का कारण समझ लिया है, लेकिन मुझे कोई अफसोस नहीं है। ज़िन्दगी में कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। नो रिग्रेट्स। अगर बाकी सब कुछ ठीक-ठाक चले जो चेहरे के बिना काम चल सकता है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #194 – बालकथा- जादू से उबला दूध – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय बालकथा जादू से उबला दूध)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 194 ☆

☆ बाल कथा – जादू से उबला दूध ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

 “आओ रमेश,” विकास ने रमेश को बुलाते हुए कहा, “मैं जादू से दूध उबाल रहा हूँ। तुम भी देख लो।”

“हाँ, क्यों नहीं?, मैं भी तो देखें कि जादू से दूध कैसे उबाला जाता है?” रमेश ने बैठते हुए कहा।

” भाइयों, आपसे मेरा एक निवेदन है कि आप लोग मैं जिधर देखूँ उधर मत देखना। इस से जादू का असर चला जायेगा और आकाश से आने वाली बिजली से यह दूध गरम नहीं होगा।” विकास ने कहा और एक कटोरी में बोतल से दूध उँडेल दिया।

“अब मैं मंत्र पढूँगा। आप लोग इस दूध की कटोरी की ओर देखना।” यह कहकर विकास ने आसमान की ओर मुँह करके अपना एक हाथ आकाश की और बढ़ाया, ” ऐ मेरे हुक्म की गुलाम बिजली! चल जल्दी आ! और इस दूध की कटोरी में उतर जा।”

विकास एक दो बार हाथ को झटक कर दूध की कटोरी के पास लाया, “झट आ जा। लो वो आई,”  कहने के साथ विकास ने दूध की कटोरी की ओर निगाहें डाली। उस दूध की कटोरी में गरमागरम भाप उठ रही थी। देखते ही देखते वह दूध उबलने लगा। विकास ने दूध की कटोरी उठा कर दो चार दोस्तों को छूने के लिए हाथ में दी, ” देख लो, यह दूध गरम है?”

“हाँ,” नीतिन ने कहा,  “मैंने पहले भी कटोरी को छू कर देखा था। वह ठंडी थी और दूध भी ठंड था।”

अब विकास ने कटोरी का दूध बाहर फेंक दिया। तब बोला, ” यह दूध जादू से नहीं उबला था।”

“फिर?” रमेश ने पूछा।

 “मैं ने मंतर पढ़ने और बिजली को बुलाने के लिए ढोंग के बहाने इस दूध में चूने का डल्ला डाल दिया था। इससे दूध गरम हो कर उबलने लगा। यह कोई जादू नहीं है।”

“यह एक रासायनिक क्रिया है इसमें चूना दूध में उपस्थित पानी से क्रिया करके ऊष्मा उत्पन्न करता है। जिससे दूध गरम हो कर उबलने लगता है।” विकास ने यह कहा तो सबने तालियां बजा दी।

“लेकिन ऐसे दूध को खानेपीने में उपयोग न करें दोस्तों!” विकास ने सचेत किया।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 47 – इंतजार…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – इंतजार।)

☆ लघुकथा # 47 – इंतजार श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जयप्रकाश आज सुबह से चाय का इंतजार कर रहे थे। बहू ने आज चाय नहीं दी मुझे, आज घर में बढ़िया-बढ़िया खाने की खुशबू आ रही है क्या बात है? आज उषा बहू जल्दी ही खाना बना रही हो!

बहू जल्दी से चाय दे दो।

 हां बाबूजी देती हूं और ब्रेड खा लीजिए आज नाश्ता नहीं बना रही हूं क्योंकि सत्येंद्र के दोस्त वीर आ रहे हैं अपने पूरे परिवार के साथ इसलिए मुझे जल्दी से खाना बनाना है।

ठीक है बेटा। मेरी कोई मदद की जरूरत है?

उषा -“नहीं बापूजी”

मैं बाबूजी ठीक है मैं ऊपर कमरे में जाता हूं।

सत्येंद्र और बच्चे जल्दी से नाश्ता कर लो । अभी राखी आ जाएगी तो मेरी थोड़ी मदद हो जाएगी। घर कोई मत फैलाना।

बाबूजी मन ही मन सोचते हैं, आज घर में तो बहुत अच्छी खुशबू  पनीर की आ रही है, और खीर भी बनी है, पूड़ी कचौड़ी पापड़ आज तो बढ़िया खाना मिलेगा।

सत्येंद्र – “बाबू जी आप कमरे से बाहर नहीं निकलना जब मेरा दोस्त चला जाएगा तब हम आपको बुला लेंगे”।

दोपहर हो जाती है, बाबूजी को कोई आवाज नहीं आ रही है, बहुत जोर से भूख लगी है सोचते हैं, चलो मैं नीचे चल कर देखता हूं बड़ी शांति लग रही है, घर में कोई नहीं है।

कामवाली राखी से पूछते हैं- क्या हो गया राखी तुम बर्तन मांज रही हो। सब लोग कहां गए?

सब लोग तो भैया के साथ बाहर चले गए।

रसोई में खाना देखता हूं बापू जी कुछ बर्तन खाली करके मुझे दे दीजिए।

अरे इसमें तो कुछ भी नहीं है, मैं चाय बना लेता हूं और ब्रेड के साथ खा   लेता हूं। राखी तुम भी चाय लो।

वह मन में सोचते हैं – खाना नहीं है, शायद मेहमानों को खाना अच्छा लगा होगा। बहू मेरा ख्याल रखती है, जल्दबाजी में कहीं जाना पड़ा होगा। मैं ऊपर जाकर थोड़ी देर आराम कर लेता हूँ…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – कल्पित सत्य – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– कल्पित सत्य–” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — कल्पित सत्य — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

कल्पना का एक गाँव हुआ। उस गाँव में एक ऋषि रहता था। वहाँ के लोगों को अपने गाँव के ऋषि से बहुत संबल मिलता था। एक बार दिनों वर्षा न होने की वजह से खेत सूखते चले जा रहे थे। ऋषि ने खेतों को हरा भरा कर दिया था। जब भी तूफान आया ऋषि ने उसे मानो संगीत की खनकती ध्वनि में बदल दिया। नदियों में बाढ़ आती नहीं थी क्योंकि उन्हें ऋषि का आदेश यही था। काँटे स्वयं न जानते थे चुभन उन के संस्कार में है। अंधेरा हो भी तो प्रकाश के लिए ताकि कोई राही रास्ते में भटक न जाए। शिक्षा का अभाव चल रहा था तो ऋषि ने हर घर को पाठशाला में परिवर्तित कर दिया था। पढ़ाने वाले घर के वे ही लोग हुए जो अनपढ़ हो कर भी ऋषि की कृपा से शिक्षा के शिखर हो गए थे। ऋषि से कहा जाता था हम आप के शरणागत हैं। ऋषि इस अलंकरण से अपने को बचाने का प्रयास करते हुए कण कण में बसे भगवान से कहता था इन्हें भक्ति की अपनी शरण में आने का आमंत्रण दो प्रभु। मेरी शरण इतनी छोटी है कि मैं स्वयं उस में ठीक से समा नहीं पाता हूँ। इतने लोग आएँ तो मैं इन्हें कहाँ बिठाऊँगा?

संसार के आज के हजारों आदमी कल्पना के उस गाँव के ऋषि को अपनी दूरबीन से देख लेते हैं। दूरबीन को उसी तरह थामे वे उस ऋषि के पास पहुँच जाते हैं। हरेक ऋषि से यही कहता है मैं आप को जादूगर मान कर आप के पास आया हूँ। मेरे साथ चलिए मैं आप को अपने युग के विशाल मठ में बिठाऊँगा। आप भगवान होंगे। विज्ञापन की जिम्मेदारी मेरी होगी। निवेदन बस इतना है आप पैसा उगाएँ।

ऋषि के ना करने पर वे क्रोधित हो कर अपनी दूरबीन से कहीं और देखने लगते हैं। अब इन सब की एक ही चाह होती है कल्पना का वह गाँव भूल से भी सत्य का आकार न ले। यही होने से उस ऋषि की छवि मिट सकती है।

***
© श्री रामदेव धुरंधर
28 — 10 — 2018 

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – सोने का पिंजरा – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– सोने का पिंजरा–” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — सोने का पिंजरा — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

नामी धनवान के यहाँ बात पीछे ‘सोना’ रटने की जैसे एक परंपरा बन गई थी। कभी – कभी तो उनके यहाँ अपने घर – आंगन के कचरों के बारे में इस तरह से कहा जाता था मानो वह ‘सोना’ ही था, लेकिन पता नहीं किसकी नजर लग जाने से वह कचरा हो गया। लड़का उस घर में तो ‘सोना’ ही था। उनके यहाँ लड़की पैदा न हुई। लड़की के लिए कोई आकर्षण न होने पर भी सिर गर्व से तान कर कहा जाता था लड़की आती तो उसे ‘सोना’ मान कर सोने से निर्मित झूले में झुलाते। घर में चांदी, पीतल वगैरह तो पड़े ही रहते थे। पीतल की थाली हुई तो उसे महंगे सोने में परिवर्तित तो न कर पाते। पर नाम लिया तो सोने का ही। कहा जाता था सोने की थाली में खाने का मजा तो कुछ और ही होता है।

‘सोना सोना’ कहने वाले इस परिवार को पक्षी पालने का शौक हुआ। वे पालते तो तोता ही। तोता चाहे हरा होता है, लेकिन उन लोगों के लिए तोता सुन्दर होने से ‘सोना’ ही था। तोता खरीद लिया गया और अब उन्हें समझ आई पिंजरे के बारे में तो सोचा ही न गया। लोहे का पिंजरा खरीदा गया तो ‘सोना’ कह कर। तोता बहुत ध्यान से सुन रहा था। ‘सोना’ था तो उसने ले कर भागने का मनसूबा बना लिया। वह पक्षियों की जात में धनवान बन कर जीता। पहले से यह ज्ञान उसे न था तो इसी परिवार में उसे यह ज्ञान मिला। पास में ‘सोना’ है तो लोग सलाम करते हैं। तोता सोचता था आकाश में जब उड़े और अपनी जात के पक्षी उसे सलाम करें तो चुन चुन कर सलाम कबूल करेगा। ‘सोना’ से इतना गुमान तो आना ही चाहिए।

तोता अब तो अपनी समझ से सोना, लेकिन यथार्थ में लोहे का पिंजरा ले कर उड़ा। आकाश में उसे बोध हुआ वह तो महा कैद झेल रहा है। कहाँ वह चुन कर सलाम वरण करता, उलटे उसके सजातीय पक्षी तो उसे हँस हँस कर अपने पंखों से तालियाँ बजा रहे थे। तोते के दिमाग से अब यह भूत उतरा अपने पास ‘सोना’ होने से वह गुमान की जिन्दगी बसर कर सकता है। पर अपने पास ‘सोना’ था और इसका वह मोल जानता था तो इसे खेल — खेल में गँवाता नहीं। पक्षियों की अपनी दुनिया में लौट आने के लिए उसने विकल्प चुन लिया। वह ‘सोना’ किसी गरीब को दे देता। गरीब उसके ध्यान में था। एक दिन वह घायल होने पर डाली से गिर कर पेड़ के नीचे पड़े – पड़े कलप रहा था तो उस गरीब ने उसे पानी पिला कर नया जीवन दिया था।

तोता बल लगा कर उड़ा और उस गरीब के द्वार पर उतरा। गरीब ने उसे पहचान लिया। उस दिन तोता घाव से पीड़ित था और आज कैद से उसका दुख था। गरीब ने पिंजरा तोड़ कर उसे आजाद किया। पिंजरे में थका हारा हो जाने से तोता निष्प्राण सा हो गया था। गरीब ने उसे पीना पिला कर उसकी रुकती साँसों को गतिशील किया। तोता अब तो मग्न हो कर आकाश में उड़ चला। वह जब तक जीवित रहता उसे फक्र की अनुभूति होती रहती अपने जीवन दाता को ‘सोना’ दे कर अपना पक्षी जीवन कृतार्थ किया था।

***
© श्री रामदेव धुरंधर
05 — 11 — 2023

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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