परवा सुट्टी म्हणून हॉटेलात जेवायला जायचा प्लॅन ठरला. सहकुटुंब ठाण्याच्या एका नवीनच चालू झालेल्या मस्त हॉटेलात गेलो. आम्ही बसतो न बसतो तेवढ्यात आमच्या शेजारच्याच टेबलवर चौघे जण येऊन बसले. दोन पुरुष आणि दोन बायका. जोडपी वाटत नव्हती. मित्रमैत्रीणीच असावेत. चाळीशीच्या आसपासचे असतील.
आम्ही काय ऑर्डर करायची ते ठरवत होतो. त्या चौघांचाही विचारविनिमय चालू होता. त्यातला एक जण दिसायला जरा वेगळाच होता. अतिशय कृश शरीर. टक्कल. आणि सतत धाप लागल्यासारखं पण मोठ्या आवाजात बोलणं. बाकीचे तिघे मात्र सामान्य माणसासारखे वागत-बोलत होते. आमची ऑर्डर देउन झाली. त्यांनीही चौघांमध्ये ८-९ डीशेस मागवल्या. मी, बायको आणि मुलीने एकमेकांकडे पाहिलं. ‘किती अधाशीपणा’ असा भाव तिघांच्याही नजरेत होता.
दोघांच्याही टेबलवर ऑर्डर प्रमाणे डिशेस येऊ लागल्या. खाताना अर्थातच गप्पा चालू होत्या. त्या चौघांच्या गप्पाटप्पा चालू होत्या. विषयांतर होत होत ‘शाळेत शिकलेलं किती उपयोगी पडतं’ ह्या विषयावर बोलणं आलं. दोघीपैकी एक जण म्हणाली,” ए जो कोणी पायथागोरस थिअरमचं स्टेटमेंट म्हणून दाखवेल त्याला माझ्याकडून चॉकलेट ब्राऊनी”. लगेच तो वेगळा दिसणारा पुरुष मोठ्याने बोलू लागला,” So long as the physical state of the conductor remains the same, the current flowing through a conductor is directly proportional to the potential difference applied across its ends.”
वा! वा!वा! तिघांनीही त्याचं तोंडभरून कौतुक करून टाळ्या वाजवल्या आणि लगेच वेटरला चॉकलेट ब्राऊनी ची ऑर्डर दिली. आता तर टेबलवर जागाच उरली नव्हती. आधी मागवलेल्या आठ डिश सुद्धा जवळपास तशाच होत्या. बहुतेक डिशेस चाखल्यादेखील नव्हत्या. एकदोन फक्त नुसती चव घेऊन ठेवल्यासारख्या.
आम्हाला तिघांनाही तो प्रकार विचित्र वाटला. एकतर अन्नाची नासाडी. मोठमोठ्याने बोलणं. कहर म्हणजे पायथागोरस थियरम म्हणून ओहम्स लॉ म्हणून दाखवणं. वर इतरांनी त्याचंच कौतुक करणं. आम्ही नजरेनेच एकमेकांशी बोलत होतो. ‘असे काय हे मूर्ख, माजोरडे’ ह्यावर आमचं एकमत झालं. आम्ही आपसात दुसरं बोलणं चालू केलं तरी बाजूच्या टेबलवरचा प्रकार खटकत होताच.
दोघांचंही जेवण जवळपास एकत्रच आटोपलं. बिलं आलं. मी आणि तो कार्ड स्वाईप करण्यासाठी काउन्टरपाशी गेलो. त्याने मला जरासं ढकलूनच स्वतःच कार्ड पुढे केलं. मी जराशा त्रासिक नजरेने त्याच्याकडे पाहिलं. तो बिल देऊन ते दोघे मित्र पान खाऊया म्हणून टपरीकडे वळले.
मागून येणाऱ्या दोघींशी माझी नजरानजर झाली. आमच्या चेहऱ्यांवरची नापसंती त्यांना स्पष्ट दिसली असावी. त्यांच्यातली एक जण (ब्राऊनीचं बक्षीस देणारी) पुढे येऊन म्हणाली,” सॉरी..तुम्हाला हे सगळं विचित्र वाटत असेल ना…आम्ही मस्तवाल, माजलेले आहोत असं वाटत असेल.” मी उत्तरादाखल केवळ खांदे उडवले. ती पुढे म्हणाली, “तुम्ही ऐकणार असाल तर मी काही सांगू का?”. मी, बायको आणि मुलगी गोंधळून उभे राहिलो. दरवाजाची वाट मोकळी करून थोडे बाजूला उभे राहिलो.
ती बोलू लागली,” ‘त्याचं’ वागणं-बोलणं ह्याकडे दुर्लक्ष करा. He is terminally ill. कदाचित दिवाळीपर्यंत तो आपल्यात नसेल. त्याच्याच आग्रहाखातर ही आम्हा बालमित्रमैत्रिणींची छोटीशी फेयरवेल पार्टी होती…त्याच्यासाठीच… त्याच्याच खर्चाने….” तिला हुंदका आवरला नाही.
आम्ही तिघेही सुन्न होऊन आळीपाळीने त्याच्याकडे, त्या दोघींकडे आणि एकमेकांकडे पाहत उभे राहिलो. त्याचं कृश शरीर, टक्कल, धाप लागल्यासारखं बोलणं हे सगळं आता पटत होतं. आता दोघींपैकी दुसरी स्त्री म्हणाली,” आणि हो..त्याने पायथागोरस थियरम म्हणून ओहम्स लॉ म्हणून दाखवला. हे आम्हालाही कळलं. पण आम्हाला हसवण्याचा त्याचा हा प्रयत्न होता हेही आम्हाला कळत होतं. बाय द वे, He is M.Tech., Ph.D from IIT”. त्यामुळे… now you understand?”
इतक्यात पानं घेऊन ते दोघे आले. “Let’s go buddies…Hurry…Time is running…” असं बोलत ‘त्या’ने त्या दोघींच्या हातातल्या पार्सलच्या पिशव्या घेतल्या. पिशव्या घेता घेता त्याने आमच्याकडे पाहिलं. आमचे चेहरे पाहून त्याला सारं समजलं. तो मोठ्याने म्हणाला,” ओह गॉड, पचकल्या का ह्या दोघी? सगळं सांगितलं असेलच.” थोडं स्वतःशीच तर थोडं आमच्याकडे पाहून हसत तो म्हणाला,” ह्यांना वाटतंय मी दिवाळी पर्यंत तरी असेन..पर आपुन का प्लॅन अलगीच है। दसऱ्यालाच सीमोल्लंघन”. असं म्हणून त्याने त्या पार्सल केलेल्या डिशेस वाटण्यासाठी सिग्नल जवळ उभ्या असलेल्या भिकारीणीला आणि एक तृतीयपंथीयाला जवळ बोलवलं. जाता जाता मला उद्देशून “Sorry for the push at the counter…But you know…I don’t have much time left…Need to hurry..” असं म्हणून तो चालू लागला.
त्याच्या पाठमोऱ्या आकृतीकडे पाहून आम्हाला पायथागोरसचा नवीनच सिद्धांत समजत होता…
(सकारात्मकता) वर्ग + (समाधान) वर्ग = (जीवन जगणं) वर्ग.
लेखक : श्री हर्षद वा. आचार्य
संग्राहिका : स्नेहलता गाडगीळ
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है शिक्षा के क्षेत्र में राजनीतिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘वोट के बदले नोट’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 109 ☆
☆ लघुकथा – वोट के बदले नोट ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
हैलो रमेश ! क्या भाई, चुनाव प्रचार कैसा चल रहा है ?
बस चल रहा है । कहने को तो शिक्षा क्षेत्र का चुनाव है लेकिन कथनी और करनी का अंतर यहाँ भी दिखाई दे ही जाता है । कुछ तो अपने बोल का मोल होना चाहिए यार ? मुँह देखी बातें करते हैं सब, पीठ पीछे कौन क्या खिचड़ी पका रहा है, पता ही नहीं चलता ?
अरे छोड़ , चुनाव में तो यह सब चलता ही रहता है। जहाँ चुनाव है वहाँ राजनीति और जहाँ राजनीति आ गई वहाँ तो —–
पर यह तो विद्यापीठ का चुनाव है, शिक्षा क्षेत्र का! इसमें उम्मीदवारों का चयन उनकी अकादमिक योग्यता के आधार पर ही होना चाहिए ना !
रमेश किस दुनिया में रहता है तू ? अपनी आदर्शवादी सोच से बाहर निकल। अकादमिक योग्यता, कर्मनिष्ठा ये बड़ी – बड़ी बातें सुनने में ही अच्छी लगती हैं । तुझे पता है क्या कि अभय ने कई मतदाताओं के वोट पक्के कर लिए हैं ?
कैसे ? मुझे तो कुछ भी नहीं पता इस बारे में ।
इसलिए तो कहता हूँ अपने घेरे से बाहर निकल, आँख – कान खुले रख । खुलेआम वोट के बदले नोट का सौदा चल रहा है । बोल तो तेरी भी बात पक्की करवा दूं ? ठाठ से रहना फिर, हर कमेटी में तेरा नाम और जिसे तू चाहे उसका नाम डालना। चुनाव में खर्च किए पैसे तो यूँ वापस आ जाएंगे और सब तेरे आगे – पीछे भी रहेंगे ।
नहीं – नहीं यार, शिक्षक हूँ मैं, वोट के बदले नोट के बल पर मैं जीत भी गया तो अपने विद्यार्थियों को क्या मुँह दिखाऊंगा। अपनी अंतरात्मा को क्या जवाब दूंगा ?
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा –“गंदगी”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 130 ☆
☆ लघुकथा – “गंदगी” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
” गंदगी तेरे घर के सामने हैं इसलिए तू उठाएगी।”
” नहीं! मैं क्यों उठाऊं? आज घर के सामने की सड़क पर झाड़ू लगाने का नंबर तेरा है, इसलिए तू उठाएगी।”
” मैं क्यों उठाऊं! झाड़ू लगाने का नंबर मेरा है। गंदगी उठाने का नहीं। वह तेरे घर के नजदीक है इसलिए तू उठाएगी।”
अभी दोनों आपस में तू तू-मैं मैं करके लड़ रही थी। तभी एक लड़के ने नजदीक आकर कहा,” मम्मी! वह देखो दाल-बाटी बनाने के लिए उपले बेचने वाला लड़का गंदगी लेकर जा रहा है। क्या उसी गंदगी से दाल-बाटी बनती है?”
यह सुनते ही दोनों की निगाहें साफ सड़क से होते हुए गंदगी ले जा रहे लड़के की ओर चली गई। मगर, सवाल करने वाले लड़के को कोई जवाब नहीं मिला।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
श्री भास्कर साधना आरम्भ हो गई है। इसमें जाग्रत देवता सूर्यनारायण के मंत्र का पाठ होगा। मंत्र इस प्रकार है-
💥 ।। ॐ भास्कराय नमः।। 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – भूकंप
पहले धरती में कंपन अनुभव हुआ। फिर जड़ के विरुद्ध तना बिगुल फूँकने लगा। इमारत हिलती-सी प्रतीत हुई। जो कुछ चलायमान था, सब डगमगाने लगा। आशंका का कर्णभेदी स्वर वातावरण में गूँजने लगा, हाहाकार का धुआँ अस्तित्व को निगलने हर ओर छाने लगा।
उसने मन को अंगद के पाँव-सा स्थिर रखा। धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा। अब बाहर और भीतर पूरी तरह से शांति है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है बीते कल औरआज को जोड़ती एक प्यारी सी लघुकथा “नववर्ष की बधाइयाँ ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 146 ☆
लघुकथा नववर्ष की बधाइयाँ 🥳
एक बहुत छोटा सा गाँव, शहर से कोसों दूर और शहर से भी दूर महानगर में, आनंद अपनी पत्नी रीमा के साथ, एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे। अच्छी खासी पेमेंट थी।
दोनों ने अपनी पसंद से प्रेम विवाह किया था। जाहिर है घर वाले बहुत ही नाराज थे। रीमा तो शहर से थी। उसके मम्मी – पापा कुछ कहते परंतु बेटी की खुशी में ही अपनी खुशी जान चुप रह गए, और फिर कभी घर मत आना। समाज में हमारी इज्जत का सवाल है कह कर बिटिया को घर आने नहीं दिया।
आनंद का गाँव मुश्किल से पैंतीस-चालीस घरों का बना हुआ गांव। जहाँ सभी लोग एक दूसरे को अच्छी तरह जानते तो थे, परंतु पढ़ाई लिखाई से अनपढ़ थे।
बात उन दिनों की है जब आदमी एक दूसरे को समाचार, चिट्ठी, पत्र-कार्ड या अंतरदेशीय और पैसों के लिए मनी ऑर्डर फॉर्म से रुपए भेजे जाते थे। या ज्यादा पढे़ लिखे लोग तीज त्यौहार पर सुंदर सा कार्ड देते थे।
आनंद दो भाइयों में बड़ा था। सारी जिम्मेदारी उसकी अपनी थी। छोटा भाई शहर में पढ़ाई कर रहा था। शादी के बाद जब पहला नव वर्ष आया तब रीमा ने बहुत ही शौक से सुंदर सा कार्ड ले उस पर नए साल की शुभकामनाओं के साथ बधाइयाँ लिखकर खुशी-खुशी अपने ससुर के नाम डाक में पोस्ट कर दिया।
छबीलाल पढ़े-लिखे नहीं थे। जब भी मनीआर्डर आता था अंगूठा लगाकर पैसे ले लेते थे। यही उनकी महीने की चिट्ठी होती थी।
परंतु आज इतना बड़ा गुलाबी रंग का कार्ड देख, वह आश्चर्य में पड़ गए। पोस्ट बाबू से पूछ लिया…. “यह क्या है? जरा पढ़ दीजिए।” पोस्ट बाबू ने कहा “नया वर्ष है ना आपकी बहू ने नए साल की बधाइयाँ भेजी है। विश यू वेरी हैप्पी न्यू ईयर।”
पोस्ट बाबू भी ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था आगे नहीं पढ़ सका। इतने सारे अंग्रेजी में क्या लिखा है। अंतिम में आप दोनों को प्रणाम लिखी है। वह मन ही मन घबरा गये और इतना सुनने के बाद…
छबीलाल गमछा गले से उतार सिर पर बाँध हल्ला मचाने लगे… “सुन रही हो मैं जानता था यही होगा एक दिन।”
“अब कोई पैसा रूपया नहीं आएगा। मुझे सब काम धाम अब इस उमर में करना पड़ेगा। बहू ने सब लिख भेजा है इस कार्ड पर पोस्ट बाबू ने बता दिया।”
दोनों पति-पत्नी रोना-धोना मचाने लगे। गाँव में हवा की तरह बात फैल गई कि देखो बहू के आते ही बेटे ने मनीआर्डर से पैसा भेजना बंद कर दिया।
बस फिर क्या था। एक अच्छी खासी दो पेज की चिट्ठी लिखवा कर जिसमें जितनी खरी-खोटी लिखना था। छविलाल ने पोस्ट ऑफिस से पोस्ट कर दिया, अपने बेटे के नाम।
रीमा के पास जब चिट्ठी पहुंची चिट्ठी पढ़कर रीमा के होश उड़ गए। आनंद ने कहा…. “अब समझी गाँव और शहर का जीवन बहुत अलग होता है। उन्हें बधाइयाँ या विश से कोई मतलब नहीं होता और बधाइयों से क्या उनका पेट भरता है?
यह बात मैं तुम्हें पहले ही बता चुका था। पर तुम नहीं मानी। देख लिया न। मेरे पिताजी ही नहीं अभी गांव में हर बुजुर्ग यही सोचता है। “
आज बरसों बाद मोबाइल पर व्हाटसप चला रही थी और बेटा- बहू ने लिखा था.. “May you have a wonderful year ahead. Happy New Year Mumma – Papa “..
रीमा की उंगलियां चल पड़ी “हैप्पी न्यू ईयर मेरे प्यारे बच्चों” समय बदल चुका था परंतु नववर्ष की बधाइयाँ आज भी वैसी ही है। जैसे पहली थीं।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील, हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा ‘मान जाओ ना माँ !’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 108 ☆
☆ लघुकथा – मान जाओ ना माँ ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
मम्माँ किसी से मिलवाना है तुम्हें।
अच्छा, तो घर बुला ले उसे, पर कौन है?
मेरा एक बहुत अच्छा दोस्त है।
मुझसे भी अच्छा? सरोज ने हँसते हुए पूछा।
इस दुनिया में सबसे पहले तुम ही तो मेरी दोस्त बनी। तुम्हारे जैसा तो कोई हो ही नहीं सकता मम्माँ, यह कहते हुए विनी माँ के गले लिपट गई।
अरे ! दोस्त है तो फिर पूछने की क्या बात है इसमें, आज शाम को ही बुला ले। हम सब साथ में ही चाय पियेंगे।
सरोज ने शाम को चाय – नाश्ता तैयार कर लिया था और बड़ी बेसब्री से विनी और उसके दोस्त का इंतजार कर रही थी। हजारों प्रश्न मन में उमड़ रहे थे। पता नहीं किससे मिलवाना चाहती है? इससे पहले तो कभी ऐसे नहीं बोली। लगता है इसे कोई पसंद आ गया है। खैर, ख्याली पुलाव बनाने से क्या फायदा, थोड़ी देर में सब सामने आ ही जाएगा, उसने खुद को समझाया।
तभी दरवाजे की आहट सुनाई दी। सामने देखा विनी किसी अधेड़ उम्र के व्यक्ति के साथ चली आ रही थी।
मम्माँ ! आप हमारे कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं – विनी ने कहा।
नमस्कार, बैठिए – सरोज ने विनम्रता से हाथ जोड़ दिए। विनी बड़े उत्साह से प्रोफेसर साहब को अपनी पुरानी फोटो दिखा रही थी। काफी देर तक तीनों बैठे बातें करते रहे। आप लोगों के साथ बात करते हुए समय का पता ही नहीं चला, प्रोफेसर साहब ने घड़ी देखते हुए कहा – अब मुझे चलना चाहिए।
सर ! फिर आइएगा विनी बोली।
हाँ जरूर आऊँगा, कहकर वह चले गए।
सरोज के मन में उथल -पुथल मची हुई थी। उनके जाते ही विनी से बोली – तूने प्रोफेसर साहब की उम्र देखी है? अपना दोस्त कह रही है उन्हें? कहीं कोई गलती न कर बैठना विनी – सरोज ने चिंतित स्वर में कहा।
विनी मुस्कुराते हुए बोली – पहले बताओ तुम्हें कैसे लगे प्रोफेसर साहब?
बातों से तो भले आदमी लग रहे थे पर –
तुम्हारे लिए रिश्ता लेकर आई हूँ प्रोफेसर साहब का, बहुत अच्छे इंसान हैं। मैंने उनसे बात कर ली है। सारा जीवन तुमने मेरी देखरेख में गुजार दिया। अब अपनी दोस्त को इस घर में अकेला छोड़कर मैं तो शादी नहीं कर सकती। मान जाओ ना माँ !
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
श्री भास्कर साधना आरम्भ हो गई है। इसमें जाग्रत देवता सूर्यनारायण के मंत्र का पाठ होगा। मंत्र इस प्रकार है-
💥 ।। ॐ भास्कराय नमः।। 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – चातक
माना कि अच्छा लिखते हो। पर कुछ ज़माने को भी समझो। हमेशा कोई गंगाजल नहीं पी सकता। दुनियादारी सीखो। कुछ मिर्च मसालेवाला लिखा करो। नदी, नाला, पोखर, गड्ढा जो मिले, उसमें उतर जाओ, अपनी प्यास बुझाओ। सूखा कंठ लिये कबतक जी सकोगे?
…चातक कुल का हूँ मैं। पिऊँगा तो स्वाति नक्षत्र का पानी अन्यथा मेरी तृष्णा, मेरी नियति बनी रहेगी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो हिंदी तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती भाषाओं में अनुवाद हो चुकाहै। आप‘कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)
☆ कथा-कहानी ☆ यामिनी विश्वासघातिनी ! ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆
काम काम और काम। मगर कोई न देता दाम। कई दिनों से सुबह से शाम तक खटते खटते कुमुद यानी कुमुदिनी का अस्थि पंजर ही मानो ढीला हो गया है। कूटभाषा में जिसे कहा जाता है खटिआ खड़ी हो जाना!
तिस पर हैं उसका अलि यानी पति यानी मधुकर। इधर कई दिनों से कुमुदिनी का मधु न पाकर मधुकर तिलमिलाये बैठे हैं। हर समय डसने को तैयार। यह तो भाग्य की विडंबना या किस्मत का विद्रूप ही कहिए कि शब्दकोष में ‘अलि’ का अर्थ अगर भौंरा है तो ‘अली’ का अर्थ है सखी।
वैसे मधुकर अब फिफटी प्लस हैं। बिटिया का ब्याह निपटा कर ससुर भी बन गये हैं। हफ्ता भर हुआ बेटी झिलमिल मायके आयी हुई है। इस खानदान के बच्चों में तो झिलमिल सबसे बड़ी है ही, उधर ननिहाल में भी वही सबसे बड़ी नातिन और भानजी। तो दीदी को चिढ़ाने और उसके साथ जमकर मजा लूटने सभी चचेरे और ममेरे भाई बहन भी हाजिर हो गये। इन्दौर से आये हैं चाचा चाची और उनके बच्चे। तो छोटी मौसी और मौसा शक्तिगढ़ से यहाँ पधारे हैं। सपरिवार। और सबकी आव भगत करते करते कुमुद का शहद बिलकुल करेला हो गया है। बड़ों में कोई अपनी डायबिटीज से पंजा लड़ाने बिना चीनी की चाय की माँग करता है तो किसी को चाहिए खड़ी चम्मच की चाय! (अमां यार, चीनी की कीमत जाए चूल्हे भांड़ में!) फिर सलीम को अगर गोभी के पराठे पसंद हैं, तो अकबर को चाहिए आलू के पराठे। और कई छोटे मियां तो जबतब हुक्म दे देते हैं, ‘मौसी! ताई! जरा मैगी बना दो न। बस दो मिनट तो लगेंगे। ’ दो मिनट न हुआ मानो किसी परकोटे से तोप दागी गयी…!
रामायण यहीं खतम नहीं होती ……
झिलमिल की चाची सरकारी अफसर हैं। जेठ के घर आते ही उनका सारा कलपुरजा ढीला पड़ जाता है। कहती हैं, ‘भई, यह तो ठहरा मेरा मायका। मैं तो बस यहाँ रेस्ट लेने ही आती हूँ। ’ अंततः देवर की शर्ट गंजी इत्यादि भी भाभी को ही ढूँढ कर देना पड़ता है।
उधर मौसी की अपनी दीदी से प्यार भरी माँग, ‘वो तो कहते हैं कि तेरे हाथ के बने छोले भठूरे में जो स्वाद है वो तो खाना खजाना रेस्टोरेंट के छोले भठूरे में भी नहीं। और हाँ, वो जो तेरी बंगालिन सहेली से तूने भापा दही सीखा है, वो जरूर बनाना। पिछली बार तो वो जीभ चाटते रह गये थे। ’
तो दिन भर सबकी खिदमत करते करते कुमुदिनी मानो मूर्तिमान पतझड़ हो गयी है। हाड़ कँपाती ठंड में भी पसीने से लथपथ। देखसुन कर मौका मिलते ही मधुकर ने ए.के. फिफटी सेवेन चला दिया, ‘जरा ठंग से साड़ी भी नहीं पहन सकती? घर में दामाद आनेवाला है …’
‘ज्यादा बकिए मत। कितनी हाथ बँटानेवालीवालिओं को आपने मेरी मदद के लिए रखा है? इसीलिए तो कहती हूँ कि मैक्सी ही पहना करूँगी। ’
‘अरे यार, तुमसे तो कुछ कहना भी गुनाह है। अरे जरा ठीकठाक दिखो इसीलिए तो …’
‘अब मुझको क्या देखिएगा? देखने के लिए तो समधिन भी ला दी है मैंने। ’
सीरियल यहीं खतम नहीं होता। खाने के बाद सबका सोने का इंतजाम करना। सारे भाई बहन तो कम्प्यूटर और टीवी लेकर देर रात तक ऊधम मचाते रहते हैं। उधर अम्मांजी की बगलवाले कमरे में देवर और देवरानी। इनके अपने बिस्तर पर कुमुद की बहन और बहनोई। तो बेचारे मधुकर सोये तो सोये कहाँ? ‘अब सो कर क्या करेंगे जब दिल ही टूट गया’ के अंदाज में किसी अतृप्त रूह की तरह यहाँ से वहाँ भटकते फिरते हैं। इधर कई रातों से पराये धन की तरह पत्नी से दूर दूर रहने के कारण भी मधुकर का पारा चढ़ा हुआ है। मौका मिलते ही डंक मारने से वह पीछे नहीं हटता, ‘मैं हूँ कौन? मेरी औकात ही क्या है? घर का नौकर यानी बैल। सब्जी लाओ, तो रसवंती से मिठाई लाने सुग्गा गली तक दौड़ो। बस, फिर कौन पहचानता है? अब तो किसी दिन यही पूछ बैठोगी – ‘भाई साहब, आप हैं कौन? किससे मिलना है? क्या चहिए? ’’
इधर तो हर रात कुमुद झिलमिल को लेकर ही सोती रही। नतीजा – ड्राइंगरुम का सोफा ही बना मधुकर की विरह शय्या। मगर कल शाम को जमाई राजा आ पहुँचे हैं। अब? खुशकिस्मती से कुमुद के ससुर ने कई कमरे बना रक्खे थे, तभी तो सबका निपटारा हो सका। मगर मधुकर कहाँ जाये? छतवाले कमरे में? वहाँ क्या क्या नहीं है? पतंग परेता से लेकर बेड पैन, पेंट के डिब्बे, टूटी हुई कुर्सी, बिन पेंदे की बाल्टी और माताजी के जमाने की महरी शामपियारी की खटिआ इत्यादि। शामपियारी तो कब की रामप्यारी हो गयी, बस उसका स्मृतिशेष यहीं रह गया।
कुमुद के मातापिता के काफी दिनों से अभिलाष रहा कि वे यहाँ आकर विश्वनाथजी का दर्शन कर लें। दामाद ने कई बार उनलोगों से कहा भी है, ‘बाबूजी, आपलोग तो कभी हमारे यहाँ आते ही नहीं। ’ इतने दिनों बाद मौका मिला। नातिन उसके पति के साथ आ रही है, तो नाना नानी भी उनसे मिलने आ पहुँचे। फिर उन्हें भी तो एक अलग कमरा चाहिए। आते ही कुमुद की माँ ने चारों ओर अपने सामानों को करीने से रख दिया। अल्मारी में ब्लडप्रेशर और थाइरायड की दवाइयाँ, टेबुल पर बजरंगबली का फोटो, बगल में एक छोटा सा सुंदरकांड। आले पर हरिद्वारबाबा का चूरन।
डिनर समाप्त। झिलमिल नाना नानी के कमरे में बैठे बातें कर रही है। छोटे छोटे साले सालियाँ जीजा को लेकर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। मगर वो बेचारा सोने को अकुला रहा है। उस माई के लाल को पता नहीं कि उसके खिलाफ कौन सा शकुनि षडयंत्र रचा जा रहा है। चचेरा साला नन्हा धोनी ने पूछा, ‘जीजू, जब आप पहली बार प्लेन में चढ़े तो डर नहीं लग रहा था? प्लेन की खिड़की से देखने पर नीचे कार वार कितनी बड़ी बड़ी दिखती हैं? ’
जीजा के बिस्तर पर झिलमिल का भाई जय और उसके चचेरे भाई ने मिलकर झिलमिल की जगह दो तकिये को रखकर एक लिहाफ से इस तरह ढक दिया है कि लग रहा है वहाँ कोई सो रहा है। उनलोगों ने नानी को पटा रक्खा है। जय ने नानी को इशारा किया। नानी जाकर जमाई से बोली, ‘झिलमिल की तबियत खराब हौ। तोहे जरा बुलावा थइन। ’
‘क्या हो गया?’ कहते हुए आनंद निरानन्द होकर उधर दौड़ा।
वह कमरे के अंदर घुसा और दरवाजा बाहर से बंद हो गया। ‘क्या हो गया, डार्लिंग?’ कहते हुए उसने ज्यों लिहाफ को झकझोरा तो लो लिहाफ पलंग पर और उसके नीचे – यह क्या? सिर्फ तकिया! आनन्द झुँझलाते हुए दरवाजे की ओर लपका,‘नानी, झिलमिल कहाँ गयी? वह ठीक है न? ’
बाहर सभी खिलखिलाकर हँस रहे थे। अंदर आनन्द खिसिया रहा था। सारे बच्चे चिल्लाने लगे, ‘आज दीदी हमलोगों के साथ सोयेगी। आप अकेले ही सो जाइये। ’
हहा ही ही काफी देर तक चलती रही। आखिर नानी ने समझौता एक्सप्रेस चलाया। और इन घनचक्करों के चलते कुमुद को ख्याल ही न रहा कि उसके पति परमेश्वर ने कहाँ आसन जमाया है। रात गहराती गयी।
कुछ ऐसा ही तो हुआ था छोटे देवर की शादी के समय। नई दुलहन की बिदाई हो गई थी। घर में लोगों का सैलाब। नीचे बैठके में टेंटवाले का गद्दा चादर बिछाकर एकसाथ सबका सोने का इंतजाम किया गया था। कुमुद का हालत पंचर। बस, कहीं जगह मिले और आँखें बंद कर ले। उसने छोटी ननद ननकी के हाथों एक जयपुरी रजाई देकर कहा,‘इसे लेकर नीचे जा। मैं ऊपर से सब निपटा कर पहुँच रही हूँ। तेरी बगल में मेरी जगह रखना। ’
सीढ़ी से ननकी नीचे उतरी ही थी कि उसका रास्ता रोककर उसका रखवाला खड़ा हो गया, ‘मायके आकर तो मुझे जैसे पहचानती ही नहीं। ’
‘क्या कर रहे हैं जी, हाथ छोड़िये। भाभी वाभी कोई देख लेगी तो क्या कहेगी?’
‘क्या कहेगी – मेरी बला से। मैं तुम्हारी भाभिओं का हाथ थोड़े न थाम रहा हूँ! साक्षात अग्नि को साक्षी मानकर तुम्हारा हाथ थामा है मैं ने। खुद तो इतनी मुलायम जयपुरी रजाई के नीचे सोवोगी। और मैं? बनारसी भैया के पास कौन माई का लाल सो सकता है? ऐसे नाक बज रहे हैं कि पूछो मत। अरे बापरे! बार्डर में भेज दिया जाए तो पाकिस्तानी फौज ऐसे ही भाग खड़ी होगी। ’ कहते कहते अद्र्धांगिनी के हाथ से रजाई लेकर वे एक किनारे सीधे हो गये। ननकी जाकर द्विजा बुआ की रजाई के अंदर घुस गयी। करीब आधे घंटे बाद कुमुद जब सोने के लिए नीचे आई तो वहाँ सुर संग्राम छिड़ा हुआ था। फुर्र फुर्र ….घर्र घर्र….फच्च्…तरह तरह की नासिका ध्वनि से कमरा गुंजायमान् हो रहा था….
मद्धिम रोशनी में कुमुद ने वह रजाई तो पहचान ली। जैसे थका हारा बैल घर लौटकर सीधे सानी भूसा से भरी अपनी नाँद में मुँह घुसा देता है ,उसी तरह वह भी उस रजाई के अंदर घुस गई। और अंदर जाते ही,‘हाय राम! आप? नन्दोईजी ,आप यहाँ कैसे? ननकी कलमुँही कहाँ मर गयी? छि छि!’
फिर उतनी रात गये तहलका मच गया। मानो सोते हुए लोगों के ऊपर से कोई बिल्ला दौड़ गया है। या पुण्यभूमि काशी की किसी टीन की छत पर बंदरों का झुंड उतर आया है और भरतनाट्यम् कर रहा है!
ननकी तो हँस हस कर लोटपोट हो रही थी, ‘भाभी, तुम्हारा इरादा क्या है? ’
‘चुप बेशर्म! तुझसे मैं ने कहा था न कि तेरी बगल में मेरे लिए जगह रखना। बड़ी आयी प्रीतम प्यारी। वो रजाई उनको क्यों देने गई? चुड़ैल कहीं की। ’
खैर वो कहानी तो अब ब्लैक एंड व्हाइट जमाने की हो चुकी है। मगर आज की रात …..
कमरों के बीच डाइनिंगटेबुल के पास दो कुर्सिओं को हटाकर कुमुद वहीं कमल के पत्ते की तरह फैल गयी। उधर मारे ठंड के एवं गुस्से से भी मधुकर काँप रहा था। क्योंकि सबको लिहाफ और कंबल देते देते जाने किसके पास उसकी रजाई पहुँच गयी है। कुमुद ने भी ध्यान नहीं दिया। बलमवा बेदरदी! तो मधुकर ही क्यों माँगने जाये? मगर इतने जाड़े में बदन पर सिर्फ सोयेटर चढ़ा लेने से क्या नींद आती है? गयी कहाँ रानी? इधर मेरी हैरानी! पिंजरे में बंद षेर की तरह मन ही मन गुर्राते हुए वह ऊपर चला आया। डाइनिंग स्पेस की ओर झाँकते ही उसने मन ही मन यूनानी दार्शनिक आर्किमेडीज की तरह कह उठा, ‘इउरेका! मिल गैल, रजा! ’ स्वाधिकार बोध से सिकन्दर की तरह वह रजाई के अंदर घुसने का प्रयास करता है….. और तभी ……
उधर कुमुद गहरी नींद में गोते लगाते लगाते एक ख्वाब देख रही थी। मानो घर में किसी की शादी का तामझाम चल रहा है। मेहमान भोजन कर चुके हैं। इतने में – अरे ओ मईया! – छत से पाइप के सहारे एक बंदर नीचे उतर आया है। और वो कलमुँहा कुमुद के तकिया के नीचे से चाभी निकाल रहा है। मिठाईवाले कमरे का ताला खोलने? हे बजरंबली, यह तुम्हारी कैसी लीला? कुमुद अपनी पलकें खोले बिना ही चिल्लाने लगी,‘बंदर! बंदर! चोर -! बचाओ! ’
तुरंत मधुकर ने पुरानी फिल्मों के विलेन की तरह उसका मुँह दाब लिया,‘ऐ चुप!चुप! मैं हूँ। चिल्ला क्या रही हो? ’
शोरगुल – धूम धड़ाका! देखते देखते तीनों कमरों के दरवाजे खुल जाते हैं। देवर की जिज्ञासा,‘क्या हुआ भाभी? इतना शोरगुल किस बात का? ’
दूसरे दरवाजे से झिलमिल की मौसी जॅभाई लेते हुए तिरछी नजर से इधर देख रही थी, ‘दीदी, यहाँ तो सिर्फ जीजू ही हैं। क्यों बेकार का चिल्ला रही है? सबकी नींद खराब कर रही है। ’
झिलमिल और जय की नानी भी तीसरे दरवाजे पर,‘बचपन से तोर यही बुरी आदत नाहीं गैल, कुमुद। सपना देखे क इ भी कोई टेम भैल? चल भूतभावन शिवव का नाम ले आउर सुत जा। ’
इतने में फतेहपुर सीकड़ी के बुलन्द दरवाजे की तरह चौथा दरवाजा खुल गया और वहाँ जमाईराजा आनन्द स्वयम् आ बिराजमान हो गया। दामाद भी अपने सास ससुर की ओर देख रहा है। निगाह में कार्ल माक्र्स की ‘क्रिटिकल क्रिटिसिज्म’……
उधर फर्श पर लेटे मधुकर और कुमुद को काटो तो खून नहीं। आधुनिक नाटकों के फ्रिज शॉट की तरह दोनों प्रस्तरवत जकड़ गये हैं। न हिलना, न डुलना। और दृष्य कुछ ऐसा है – कुमुद के ऊपर मधुकर ऐसे झांक रहा है मानो कमल के फूल के ऊपर भौंरा। एक अद्भुत स्टिल फोटोग्राफी! मानो किसी पुरानी ईस्टमैनकलर हिन्दी फिल्म का पोस्टर दीवार पर चस्पा है। एक हॉट सीन!
बेचारा मधुकर करे तो क्या करे? सेल्फ डिफेन्स में कहना ही पड़ा,‘मेरी रजाई तो जाने किसको दे दी है। इतनी ठंड में मैं कैसे सोऊँ? यहाँ सोने आया तो ऐसे चिल्लाने लगी मानो डाकू मानसिंह घर के अंदर घुस आया है। ’
‘अच्छा तो यह बात है! हम लोग तो पता नहीं क्या क्या सोच रहे थे। ’ भाई एवं साढ़ूभाई ने कोरस में कहा।
दामाद के होठों पर शरारतभरी मुस्कान,‘तो मम्मीजी, अब हम सोने चलें? ’
सूरज के ढलते ही जैसे पंकज की पंखड़ियाँ बंद होने लगती हैं उसी तरह कुमुद ने भी आँखें बंद कर लीं। ऐसी हालात में दामाद से वह कैसे नजर मिलाती? मन ही मन वह सीता मैया की तरह कहने लगी,‘हे धरती मैया, मुझे अपनी गोद में समा जाने दो! इस लाज हया से बचा लो!’
तो दृष्यांत के बाद…..
वे सभी अपने अपने कमरे में जा चुके हैं। मधुकर अब क्या करता? जो होना था हो गया। वह अपना सा मुँह बनाकर अपनी अर्धांगिनी के पास उसी रजाई के अंदर लुढ़क गया ….. बस्स् …….
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सपनों की दुनियां की सैर कराती एक प्यारी सी लघुकथा “सच होता ख्वाब ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 145 ☆
लघुकथा 🥳 सच होता ख्वाब 🥳
मिनी को बचपन से सिंड्रेला की कहानी बहुत पसंद आती थी। कैसे सिंड्रेला को उसका अपना राजकुमार मिला। वह जैसे-जैसे बड़ी होने लगी ख्वाबों की दुनिया फलती – फूलती गई।
धीरे-धीरे पढ़ाई करते-करते मिनी अपने सुंदर रूप रंग और आकर्षक व्यक्तित्व के कारण सभी की प्यारी बन गई थी। घर परिवार में सभी उसको बहुत प्यार करते थे।
शहर से थोड़ी दूर पर उसका अपना घर था। घर के आसपास पड़ोसी और उसके साथ पढ़ने वाले शहर तक आया जाया करते थे। मिनी भी साथ ही सबके आती जाती थी। आज कॉलेज का फार्म भरने मिनी अपनी सहेलियों के साथ सिटी आई थी। काम खत्म होने के बाद सभी ने मॉल घूमने का प्रोग्राम बनाया।
मॉल में सभी घूम रहे थे अचानक मिनी की चप्पल टूट गई। सभी ने कहा… चल मिनी आज मॉल की दुकान से ही तुम्हारी चप्पल खरीद लेते हैं। दो तीन फ्रेंड मिलकर दुकान पहुंच गई। चप्पल निकाल- निकाल कर ट्राई करती जा रही थी। अचानक उसकी नजर सामने लगे बहुत बड़े आईने पर पड़ी। पीछे एक खूबसूरत नौजवान लड़का मिनी को बड़े ध्यान से देख रहा था। मिनी जितनी बार चप्पल जूते ट्राई करती वह इशारा करता और मुस्कुरा रहा था कि शायद हां या नहीं।
मिनी को भी उसका यह भाव अच्छा लगा। बाकी फ्रेंड को इसका बिल्कुल भी पता नहीं चला। अचानक एक सैंडल उसने उठाई। जैसे ही वह पैरों पर डाली। आईने की तरफ नजर उठाकर देखी वह नौजवान हाथ और आंख के ईशारे से परफेक्ट का इशारा कर मुस्कुरा रहा था।
मिनी को पहली बार एहसास हो रहा था, शायद उसके सपनों का राजकुमार है। उसने तुरंत सैंडल लिया। काउंटर पर बिल जमा कर देख रही थीं। वह नौजवान धीरे से एक कागज थैली में डाल रहा है।
मिनी मॉल से निकलकर उस कागज को पढ़ने लगी लिखा था…
मैं तुमको नहीं जानता, तुम मुझे नहीं जानती, परंतु मैं विश्वास दिलाता हूं तुम्हारी भावनाओं की इज्जत करता हूं। तुम्हारे चरण मेरे घर आएंगे तो मुझे बड़ी खुशी होगी। मैं तुम्हारे जवाब का इंतजार करूंगा
तुम्हारा पीयूष
उस कागज को मिनी ने संभाल कर रख लिया और घर में किसी से कुछ नहीं बताया। पर मन में बात जंच गई थी। आज बहुत दिनों बाद घर में पापा के नाम एक कार्ड देखकर चौक गई। पास में एक जूते चप्पल की दुकान का उद्घाटन हो रहा था। कार्ड को जैसे ही मिनी ने पढ़ा दिलो-दिमाग पर हजारों घंटियां बजने लगी।
मम्मी पापा ने कहा… मेरे दोस्त का बेटा शहर से आया है। उसने यहां एक दुकान शुरू की है। सब को बुलाया है मिनी तुम्हें भी चलना है।
मिनी को जैसे को पंख लग गए। शाम को मिनी बहुत सुंदर तैयार हो वही सैंडल पहन कर, जब दुकान पर पहुंची, फूलों के गुलदस्ते से सभी का स्वागत हुआ। मिनी सकुचा रही थी सामने पीयूष खड़ा था।
परंतु दोनों के मम्मी – पापा आंखों आंखों के इशारे से मंद- मंद मुस्कुरा रहे थे। उसने कहा…. मेरी सिंड्रेला आपका स्वागत है। फूलों की बरसात होने लगी मिनी कुछ समझ पाती इसके पहले मम्मी ने धीरे से उसका कागज दिखाया।
मिनी शर्म से लाल हो गई पता नहीं मम्मी ने कब यह पत्र पढ़ लिया। परंतु इससे उसे क्या??? उसको तो अपने ख्वाबों का राजकुमार मिल गया। आज उसका ख्वाब सच हो गया और वह बन गई सिंड्रेला। बहुत खुश हो रही थी मिनी।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है नई पीढ़ी और वरिष्ठ पीढ़ी की अपेक्षाओं के बीच ‘सौभाग्य’ और ‘दुर्भाग्य’ के अनुभवों को परिभाषित करती एक विचारणीय कहानी ‘नसीबों वाले ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 172 ☆
☆ कहानी ☆ नसीबों वाले ☆
(लेखक के कथा- संग्रह ‘जादू-टोना’ से)
अरविन्द जी अब घर में पत्नी के साथ अकेले हैं। दोनों बेटे अमेरिका में हैं और बेटी- दामाद बेंगलोर में। अरविन्द जी ने बेटों की सलाह पर सुरक्षा की दृष्टि से घर की चारदीवारी ऊँची करा ली है। अब घर के उस पार का कुछ नहीं दिखता। आकाश कुछ छोटा हो गया और आदमियों की शक्लें अब कम दिखती हैं, लेकिन क्या कीजिएगा? बेटों ने कहा, ‘गेट में ताला लगा कर भीतर निश्चिंत होकर रहिए। ‘ लेकिन दूसरा पक्ष यह है कोई दीवार फाँद कर आ जाए तो भीतर निश्चिंत होकर फजीहत कर सकता है।
दो साल से एक नेपाली लड़का मदद के लिए रख लिया था, लेकिन वह पन्द्रह दिन पहले देस गया तो लौट कर नहीं आया। उसके बाप का फोन आया था कि नक्सलवादियों की वजह से गाँव में रहना मुश्किल हो रहा है, फौरन आओ। अब पता नहीं वह लौटकर आएगा या नहीं। अरविन्द जी की पत्नी धीरे-धीरे घर का काम निपटाती रहती हैं। रिटायर्ड होने के कारण अरविन्द जी को किसी काम की जल्दी नहीं रहती। जल्दी काम निपटा कर बाकी समय बोर होने से क्या फायदा? काम जितना लंबा खिंच सके उतना अच्छा। इसलिए वे यथासंभव पत्नी को घर के कामों में सहयोग देते रहते हैं।
अरविन्द जी ने अपने बच्चों का कैरियर बनाने के लिए खूब तपस्या की। घर में सख्त अनुशासन लागू किया। शाम को सात से साढ़े आठ तक पढ़ने का पक्का टाइम। अरविन्द जी बच्चों के कमरे में केशर वाला दूध और फलों के स्लाइस रखकर बाहर से ताला लगा देते और खुद चौकीदार बनकर बाहर बैठ जाते। साढ़े आठ बजे तक न कोई कमरे में जाएगा, न कोई बाहर आएगा। हासिल यह हुआ कि उनके बच्चे परीक्षा में अच्छे अंकों से पास होते रहे।
खेल-कूद में हिस्सा लेने की उन्हें इजाज़त थी लेकिन एक सीमा तक। खेल सकते हैं लेकिन पढ़ाई के समय पर असर न पड़े। दूसरी बात यह कि इतने थकाने वाले खेल नहीं खेलना है कि घर लौटने पर पढ़ना-लिखना मुश्किल हो जाए। हल्के- फुल्के खेल खेले जा सकते हैं, लेकिन फुटबॉल हॉकी नहीं। जिन्हें स्पोर्ट्समैन का कैरियर बनाना हो वे ये थकाने वाले खेल खेलें। बच्चों के सोने का समय साढ़े नौ बजे था और सवेरे उठने का छः बजे। इस समय-चक्र में कोई व्यतिक्रम संभव नहीं था।
बच्चों पर अरविन्द जी के अनुशासन का आलम यह था कि एक बार उन्होंने बड़े बेटे अनन्त के एक दोस्त के घायल हो जाने पर भी उसे रात को जगाने से साफ मना कर दिया था। तब अनन्त एम.बी.बी.एस. पास कर ‘इंटर्नशिप’ कर रहा था। उसका दोस्त रात को दस ग्यारह बजे सड़क पर किसी वाहन की टक्कर से घायल हुआ। दोस्त दौड़े दौड़े अनन्त के पास आये कि उसकी मदद से अस्पताल में उचित चिकित्सा और ज़रूरी सुविधाएँ मिल जाएंगीं। लेकिन अरविन्द जी चट्टान बन गये। बोले, ‘अनन्त सो गया है। अब उसे जगाया नहीं जा सकता। ‘
उनका उत्तर सुनकर अनन्त के दोस्त भौंचक्के रह गये। बोले, ‘आप उसे एक बार बता तो दें, अंकल। वह खुद आ जाएगा। सवेरे उसे अफसोस होगा कि हमने उसे बताया क्यों नहीं। दीपक को काफी चोट लगी है। ‘
अरविन्द जी ने बिना प्रभावित हुए तटस्थ भाव से उत्तर दिया, ‘मैं समझता हूँ। आई एम सॉरी फॉर द बॉय, लेकिन अनन्त को जगाया नहीं जा सकता। नींद पूरी न होने पर दूसरे दिन का पूरा शेड्यूल गड़बड़ हो जाता है। बच्चों का कैरियर सबसे ज्यादा इंपॉर्टेंट है। आप टाइम वेस्ट न करें। लड़के को जल्दी किसी अच्छे अस्पताल में ले जाएँ। मैं सवेरे अनन्त को ज़रूर बता दूँगा। ‘
दूसरे दिन अनन्त को घटना का पता चला। वह अपने पिता को जानता था, इसलिए तकलीफ होने पर भी उसकी हिम्मत शिकायत करने की नहीं हुई।
अरविन्द जी की मेहनत और उनका अनुशासन रंग लाया और उनके तीनों बच्चे डॉक्टर बन गये। अब अरविन्द जी ज़िन्दगी में सुस्ताने के हकदार हो गए थे। कुछ दिनों में अवसर पाकर दोनों बेटे अमेरिका का रुख कर गये और बेटी की शादी बेंगलोर में बसे एक डॉक्टर से हो गयी। अरविन्द जी ने इतना ज़रूर सुनिश्चित किया कि बेटों की शादियाँ भारत में ही हों।
बेटों के उड़ जाने के बाद घर में अरविन्द जी और उनकी पत्नी अकेले रह गये। घर को छोड़कर लंबे समय तक बाहर रहा भी नहीं जा सकता था और घर को बेचकर भारत में अपनी जड़ें खत्म कर लेने का फैसला भी मुश्किल था।
हर साल दो-साल में अरविन्द जी बेटों के पास अमेरिका जाते रहते थे, लेकिन वहाँ उनका मन नहीं लगता था। उस देश की आपाधापी वाली ज़िन्दगी उन्हें रास नहीं आती थी। बेटे-बहू के घर पर न रहने पर कोई ऐसा नहीं मिलता था जिसके साथ बेतकल्लुफी से बातें की जा सकें।
पहली बार अनन्त के पास जाने पर अरविन्द जी को एक अजीब अनुभव हुआ। हर रोज़ शाम को वे देखते थे कि अनन्त के ऑफिस से लौटने के समय बहू काफी देर तक फोन पर व्यस्त रहती थी। पूछने पर मालूम हुआ कि अनन्त ऑफिस में इतना थक जाता था कि वापस कार चलाते समय कई बार उसे झपकी लग जाती थी। दो तीन बार एक्सीडेंट हुआ, लेकिन ज़्यादा हानि नहीं हुई। अब अनन्त के ऑफिस से रवाना होते ही बहू फोन लेकर बैठ जाती थी और उसे तब तक बातों में लगाये रहती थी जब तक वह घर न पहुँच जाए। यह देख कर अरविन्द जी के दिमाग में कई बार यह प्रश्न कौंधा कि ऐसी ज़िन्दगी और ऐसी कमाई की क्या सार्थकता है? लेकिन उन्हें वहाँ सब तरफ ऐसी ही भागदौड़ और बदहवासी दिखायी पड़ती थी।
अब और भी कई प्रश्न अरविन्द जी से जवाब माँगने लगे थे। एक दिन भारत में ‘ब्रेन ड्रेन’ पर एक लेख पढ़ा जिसमें लेखक ने शिकायत की थी कि इस गरीब मुल्क में एक डॉक्टर की ट्रेनिंग पर पाँच लाख रुपये से ज़्यादा खर्च होता है और फिर वे यहाँ के गरीब मरीज़ों को भगवान भरोसे छोड़कर अमीर मुल्कों के अमीर मरीज़ों की सेवा करने विदेश चले जाते हैं। लेखक ने लिखा था कि विदेश जाने वाले डॉक्टरों से उन पर हुआ सरकारी खर्च वसूला जाना चाहिए।
लेख को पढ़कर अरविन्द जी कुछ देर उत्तेजित रहे, फिर उन्होंने खुद को समझा लिया। अपने आप से कहा, ‘आदमी अपनी तरक्की नहीं ढूँढ़ेगा तो क्या यहाँ झख मारेगा? सब बकवास है, कोरा आइडियलिज़्म। ‘
अगली बार जब छोटा बेटा असीम भारत आया तो एक दिन बात बात में उन्होंने उससे उस लेख की बात की। असीम की प्रतिक्रिया थी— ‘रबिश! आदमी एजुकेशन के बाद बैस्ट अपॉर्चुनिटी नहीं लेगा तो क्या करेगा? जब बाहर अच्छे चांसेज़ हैं तो यहाँ क्यों सड़ेगा? पाँच लाख रुपये लेना हो तो ले लें। नो प्रॉब्लम। लेकिन हम तो वहीं जाएँगे जहाँ हमारे एडवांसमेंट की ज़्यादा गुंजाइश है। ‘
इस सारी उपलब्धि के बावजूद अरविन्द जी को घर का सूनापन कई बार ऐसा काटता है कि वे खीझकर पत्नी से कह बैठते हैं— ‘ऐसी तरक्की से क्या फायदा! अब हम यहांँ अकेले बैठे हैं और हमारी सुध लेने वाला कोई नहीं। परिन्दों की तरह पर निकले और उड़ गये। कुल मिलाकर क्या हासिल है?’
उनकी पत्नी सहानुभूति में हँसती है, कहती है, ‘आप की लीला कुछ समझ में नहीं आती। जब बच्चे यहाँ थे तब आप उनके कैरियर के पीछे पागल थे। अब वे अपने कैरियर की तलाश में निकल गये तो आप हाय-तौबा मचा रहे हैं। आपको किसी तरह चैन नहीं है। ‘
कई बार वे अपनी ऊँची चारदीवारी से बेज़ार हो जाते हैं, कहते हैं, ‘यह ऊँची चारदीवारी भी हमारी दुश्मन बन गयी है। पहले आदमी की शक्ल दिख जाती थी, कोई परिचित निकला तो सलाम-दुआ हो जाती थी, पड़ोसियों के चेहरे दिख जाते थे। अब इस ऊँची दीवार और गेट ने वह सब छीन लिया। दीवार से सिर मारते रहो। ऐसी सुरक्षा का क्या मतलब? जिनको अब मरना ही है उनकी सुरक्षा की फिक्र हो रही है। ‘
रिश्तेदारों का उनके यहाँ आना जाना बहुत सीमित रहा है। वजह रही है अरविन्द जी की रुखाई और उनकी अनुशासन-प्रियता। कोई भी उनके हिसाब से गलत समय पर आ जाए तो ‘यह भी कोई आने का समय है?’ कहने में उन्हें संकोच नहीं होता था। अपनी स्पष्टवादिता और सख़्ती के लिए वे बदनाम रहे। इसीलिए उनके बेटों के दोस्त हमेशा उनके घर आने से कतराते रहे।
फिर भी उनकी किस्मत से रश्क करने वालों की संख्या काफी बड़ी है। दोनों बेटे अमेरिका में और बेटी भी अच्छे घर में— एक सफल ज़िन्दगी की और क्या परिभाषा हो सकती है? उनसे मिलने जो भी परिचित आते हैं उनकी आँखें उनके बेटों की सफलता की गाथा सुनकर आश्चर्य और ईर्ष्या से फैल जाती हैं। कई उनके बेटों की प्रशंसा करने लगते हैं तो कई अपने नाकारा बेटों को कोसने लगते हैं।
अरविन्द जी के थोड़े से दोस्तों में एक बख्शी जी हैं। स्कूल में साथ पढ़े थे। तभी से दोस्ती कायम है। लेकिन संबंध बने रहने का श्रेय बख्शी जी को ही दिया जाना चाहिए क्योंकि वे अरविन्द जी की बातों के कड़वेपन से विचलित नहीं होते। जब मर्जी होती है गप लगाने के लिए आ जाते हैं और जब तक मर्जी होती है, जमे रहते हैं। चाय-नाश्ते की फरमाइश करने में संकोच नहीं करते।
बख्शी जी का स्थायी राग होता है अरविन्द जी के बेटों की उपलब्धियों की प्रशंसा करना और अरविन्द जी को परम सौभाग्यशाली सिद्ध करना। उनका अपना इकलौता बेटा शहर में ही नौकरी करता है और उन्हीं के साथ रहता है। बख्शी जी शिकायत करते हैं— ‘अपनी किस्मत देखो। इस उम्र में भी गृहस्थी की आधी ज़िम्मेदारियाँ मेरे सिर पर रहती हैं। बेटा ड्यूटी पर रहता है और बहू मुझे कोई न कोई काम पकड़ाती रहती है। कभी सब्ज़ी लाना है तो कभी पोते को स्कूल छोड़ना है। तुम सुखी हो, सब ज़िम्मेदारियों से बरी हो गये। ज़रूर पिछले जन्म के पुण्यकर्मों का सुफल पा रहे हो। ‘
पहले ये बातें सुनकर अरविन्द जी गर्व से फूल जाते थे, अब इन बातों से उन्हें चिढ़ होने लगी है।
अगली बार जब बख्शी जी ने उनके सौभाग्य की बात छेड़ी तो अरविन्द जी उन्हें बीच में ही रोक कर बोले, ‘अब ये सौभाग्य और दुर्भाग्य की बातें करना बन्द कर दो भाई। मुझे अच्छा नहीं लगता। तुम्हारा दुर्भाग्य है कि जब तुम मरोगे तो तुम्हारा बेटा और बहू तुम्हारे सामने होंगे, और मेरा सौभाग्य है कि हम दोनों में से किसी के भी मरते वक्त हमारे बेटे हमारे सामने नहीं होंगे। यह लगभग निश्चित है। सौभाग्य दुर्भाग्य की परिभाषा आसान नहीं है। बैठकर गंभीरता से सोचना पड़ेगा कि सौभाग्य क्या है और दुर्भाग्य क्या। चीज़ की कीमत तभी पता लगती है जब चीज़ हाथ से छूट जाती है। ‘
अरविन्द जी की बात बख्शी जी के पल्ले नहीं पड़ी। अलबत्ता उन्हें कुछ चिन्ता ज़रूर हुई। अरविन्द जी से तो उन्होंने कुछ नहीं कहा, बाद में उनकी पत्नी से बोले, ‘ये कुछ बहकी बहकी बातें कर रहे हैं, भाभी। लगता है बुढ़ापे का असर हो रहा है। इस उम्र में कभी-कभी ‘डिप्रेशन’ होना स्वाभाविक है। इन्हें डॉक्टर को दिखा कर कुछ विटामिन वगैरह दिलवा दीजिए। ठीक हो जाएँगे। ‘