हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 50 – Representing People – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 50 – Representing People – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.

समूहों का प्रतिनिधित्व करना याने पहले उनका विश्वास अर्जित करना ही होता है. उनकी भावनाओं और समस्याओं को समझना भी पड़ता है. समस्या का समाधान भले ही देर से हो या न हो पर भावनाओं के प्रति संवेदनशील होना वांछित होता है. प्रजातांत्रिक प्रणाली में प्रतिनिधि चुने तो जाते हैं पर चुने जाने के बाद निश्चिंतता, परत दर परत विश्वास को क्षीण भी करती जाती है. अलगाव, संवादहीनता, संपर्कहीनता,और असंवेदनशीलता वे शब्द और प्रवृत्तियां हैं जो विश्वास को अविश्वास में परिणित करते हैं.

गांधीजी और जयप्रकाश नारायण अपने स्वराज्य प्राप्ति और इमरजेंसी हटने और जनता की सरकार के लक्ष्य की प्राप्ति के बाद पटल से दूर हुये तो आंदोलनों से सृजित जनजन का उत्साह, समर्पण और त्याग की भावनाओं का जो ज्वार था, वो धीरे धीरे शांत होता गया. ये हर जनप्रतिनिधि की सबसे बड़ी क्षति होती है.

इस देश से भ्रष्टाचार हटे, चाहते सभी थे पर हट जायेगा ये उम्मीद शायद किसी को नहीं थी. भ्रष्टाचारी दंडित हों ताकि इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगे,इसके लिये लोकपाल की अवधारणा लेकर अन्ना हज़ारे अपने साथियों के साथ आगे आये पर आमरण अनशन करना और फिर उसे तोड़ने के लिये मनाने में ही पूरा खेला चलता रहा. जनआकांक्षाओं को आकार देता आंदोलन, जनआंदोलन तो बना पर हासिल कुछ कर नहीं पाया. भ्रष्टाचार पर अंकुश न लगना था न लगा और ये उस जनप्रतिनिधित्व की असफलता थी जिसने भावनाओं को उभारा और फिर साथियों सहित पटल से गायब हो गये.

जनआकांक्षाओं को लेकर किये गये आंदोलनों से जब जनप्रतिनिधि या नेतृत्व ओझल हो जाते हैं तो एक शून्य सा बन जाता है. इन जागृत भावनाओं को encash करने के लिये जो दोयम दर्जे के, डुप्लीकेट और स्वार्थी नेता, गद्दी पर विराजते हैं, इनकी पहचान लच्छेदार भाषा, चापलूसों का घेरा, विलासितापूर्ण जीवनशैली, घमंड और असभ्रांत भाषा शैली होती है. ये लोगों के दिलों में उम्मीद जगाते हैं और फिर बाद में डर प्रत्यारोपित करते हैं. अपनी जनप्रतिनिधित्व की अयोग्यताओं को दौंदने की कला से छुपाने की योग्यता से छुपाने में सिद्ध हस्त होते हैं. फरियादी की न केवल फरियाद गलत बल्कि वो भी गलत है, नेताजी का अपमान करने के लिये आया है, ये उनके आसपास इकट्ठे चापलूस बड़ी दबंगई से समझा देते हैं. अयोग्यता का एहसास, स्थायी रुप से आंतरिक भय में परिणित हो जाता है और वन टू वन संवाद की जगह दरबार और दरबारी प्रणाली का आश्रय लिया जाता है. लोकतंत्र और प्रजातंत्र की जगह दरबार तंत्र विकसित होता है. धीरे धीरे इस दरबार तंत्र के मायाजाल में ,समूह के ये नकली नुमाइंदे भ्रमित होकर उलझ जाते हैं और जब इनका दौर निकल जाता है तो इनके हिस्से में उपेक्षा, अपमान, उलाहने और धृष्टता ही आती है.जो इन्होंने बोया है, वही काटते हैं. भय तो पहले से ही होता है, इसके अतिरिक्त शंका, कुशंका, जनसमूह से संवादहीनता, तथाकथित धर्मगुरुओं की शरण स्थायी प्रतिफल है जो इनके साथी बनते हैं.

ये शायद अंत नहीं है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 156 ☆ “कुर्सी का सवाल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “कुर्सी का सवाल”)  

☆ लघुकथा # 156 ☆ “कुर्सी का सवाल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

नेता जी हमसे हमेशा भाषण लिखवाते हैं फिर सुबह चार बजे उठकर भाषण को चिल्ला चिल्ला कर रटते हैं। आज के भाषण में हमने तुलसीदास जी की ये चौपाई का जिक्र कर दिया……

सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस |

राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ||

नेताजी ने इस चौपाई को सौ बार पढ़ा पर उन्हें याद नहीं हो रही थी और न इसका मतलब समझ आ रहा था तो उन्होंने चुपके से फोन करके हमें अकेले में बुलाया और कहने लगे इस बार के भाषण में ये क्या लिख दिया है हमारे समझ में नहीं आ रहा है, इसका असली मतलब बताइये। हमने कहा कि तुलसीदास जी ने इन चार लाइनों में कहा है कि  मंत्री, वैद्य और गुरु —ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से  प्रिय बोलते हैं तो राज्य, शरीर एवं धर्म – इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है ।

नेताजी कुछ सोचते रहे फिर बोले – नाश हो जाता है तो कोई बात नहीं, हमारी कुर्सी तो सलामत रहेगी न……..?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #142 ☆ एक आत्म कथा – समाधि का वटवृक्ष ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 142 ☆

☆ ‌एक आत्म कथा – समाधि का वटवृक्ष ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

एक बार मैं देशाटन के उद्देश्य से घर से निकला जंगलों के रास्ते गुजर रहा था, कि सहसा उस नीरव वातावरण में एक आवाज तैरती सुनाई दी।

“अरे ओ यायावर मानव! कुछ पल मेरे पास रूक और मेरी भी राम कहानी सुनता जा और अपने जीवन के कुछ कीमती पल मुझे देता जा। ताकि जब मैं इस जहां से जाऊं तो मेरी अंतरात्मा का बोझ थोडा़ सा हल्का हो जाय।”

जब मैंने कौतूहल बस अगल बगल देखा तो वहीं पास में ही जड़ से कटे पड़े धराशाई वटवृक्ष से ये आवाज़ फिज़ा में तैर रही थी। और दयनीय अवस्था में गिरा पड़ा वह वटवृक्ष मुझसे आत्मिक संवाद करता अपनी राम कहानी सुनाने लगा था, मैंने जब ध्यानपूर्वक उसकी तरफ देखा तो पाया कि उसके तन पर मानवीय अत्याचारों की अनेक अमानवीय कहानियां अंकित थी।उसका तना जड़ से कटा गिरा पड़ा था और उसके पास ही उसकी अनेकों छोटी-छोटी शाखाएं भी कटी बिछी  पड़ी थी।

वह धरती के सीने पर गिरा पड़ा था, बिल्कुल महाभारत के भीष्म पितामह की तरह, उसके चेहरे पर चिंता और विषाद की असीम रेखाएं खिंची पड़ी थी। वहीं पर उसके हृदय में और अधिक लोकोपकार न कर पाने की गहरी पीड़ा भी थी।

उसका हृदय तथा मन मानवीय अत्याचारों से दुखी एवं बोझिल था। उसने अपने जीवन काल के बीते पलों को अपनी स्मृतियों में सहेजते हुए मुझसे कहा।

“प्राकृतिक प्रकीर्णन द्वारा पक्षियों के उदरस्थ भोजन से बीज रूप में मेरा जन्म एक महात्मा की कुटिया के प्रांगण के भीतर धरती की कोख से हुआ था। धरती की कोख में एक नन्हे बीज रूप में मैं पड़ा पड़ा ठंडी गर्मी सहता पड़ा हुआ था कि एक दिन काले काले मेघों से पड़ती ठंडी  फुहारों से तृप्त हो उस बीज से नवांकुर फूट पड़े थे।जब मेरी कोमल लाल लाल नवजात पत्तियों पर महात्मा जी की निगाहें पड़ी,तो वे मेरे रूप सौन्दर्य पर रीझ उठे थे। उन्होंने लोक कल्याण की भावना से मुझे उस कुटिया प्रांगण में रोप दिया था। वे रोज सुबह शाम पूजा वंदना के बाद बचे हुए अमृतमयी गंगाजल  से मेरी जड़ों को सींचते तो उसकी शीतलता से मेरी अंतरात्मा निहाल हो जाती, और मैं खिलखिला उठता।।

इसी तरह समय अपनी मंथर गति से चलता रहा और समय के साथ मेरी आकृति तथा छाया का दायरा विस्तार लेता जा रहा था।इसी बीच ना जाने कब और कैसे महात्मा जी को मुझसे पुत्रवत स्नेह हो गया था।

मुझे तो पता ही नहीं चला, वे रोज कभी मेरी जड़ों में खाद पानी डाला करते, और कभी मेरी जड़ों पर मिट्टी डाल चबूतरा बना लीपा पोता करते, और परिश्रम करते करते जब तक कर बैठ जाते तो मेरी शीतल छांव‌ से उनके मन को अपार शांति मिलती। मेरी शीतल घनेरी छांव  उनकी सारी पीड़ा और थकान हर लेती। उनके चेहरे पर उपजे आत्मसंतुष्टि का भाव देख मैं भी अपने सत्कर्मो के आत्मगौरव के दर्प से भर उठता।मेरा चेहरा चमक उठता और मेरी शाखाएं झुक झुक कर अपने धर्म पिता के गले में गलबहियां डालने को व्याकुल हो उठती।

गुजरते हुए समय के साथ मेरे विकास का क्षेत्र फल बढ़ता गया। अब मैं जवान हो चला था, और मैंने हरियाली की एक चादर तान दी थी अपने धर्म पिता के कुटिया के उपर तथा सारे प्रांगण को अपनी सघन शीतल छांव से ढंक दिया था। मेरी शीतल छांव‌ का एहसास धूप से जलते पथिक तथा मेरे पके फल खाते पंक्षियो के कलरव से सारा कुटिया प्रांगण गूंज उठता तो उसे सुनकर महात्मा जी का चेहरा अपने सत्कर्मों के आत्मगौरव से खिल उठता और उनके चेहरे काआभा मंडल देख मेरा मन मयूर नाच उठता। और उनकी प्रेरणा मेरे सत्कर्मो की प्रेरक बना जाती। और मैं भी लोकोपकार की आत्मानुभूति से संतुष्ट हो जाता। एक संत के सानिध्य का मेरी जीवन वृत्ति पर बड़ा ब्यापक असर पड़ा था। मेरी वृति भी लोकोपकारी हो गई थी।अब औरों के लिए दुख और पीड़ा सहने में ही मुझे आनंद मिलने लगा था।मैं लगातार कभी वर्षा कभी गर्मी की लू कभी पाला और तुषार  की प्राकृतिक आपदाओं को झेलते हुए भी निर्विकार भाव से तन कर खड़ा रहा आंधियों तूफानों के झंझावातों को झेल लोककल्याण हेतु तन कर खड़ा  लड़ता रहा।अब औरों के लिए खुद पीड़ा सहने  में ही मुझे सुखानुभूति होने लगी थी।और महात्मा जी ने मेरी जड़ों के नीचे बने चबूतरे को ही अपनी साधना स्थली बना लिया था। और लोगों का आना-जाना और सत्संग करना महात्मा जी के दैनिक जीवन का अंग बन गया था। मैंने अपने जीवन काल में महात्मा जी की वाणी और सत्संग के प्रभाव से अनेकों लोगों की जीवन वृत्ति बदलते देखा है। और एक दिन महात्मा जी को जीवन की पूर्णता पर इस नश्वर संसार से विदा होते भी देखा। अब मेरी उस  छाया के नीचे  बने चबूतरे को महात्मा जी  का समाधि स्थल बना दिया गया था।तब से अब तक महात्मा जी के सानिध्य में बिताए पलों ‌को अपने स्मृतिकोश में सहेजे, लोककल्याण की आस अपने हृदय में लिए उस समाधि को अपनी घनी शीतल छांव‌ में आच्छादित किए वर्षों से ज्यों का त्यों खड़ा हूं। मैंने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा। मैं कभी पंछियों का आश्रय बना, तो कभी थके-हारे पथिक की शरणस्थली।

पर हाय ये मेरी किस्मत! ना जाने क्यूं? ये मानव मुझसे रूठ गया। यह मुझे नहीं पता। वो अब तक अपने तेज धार कुल्हाडे से मुझे चोट पहुंचाता रहा, मैं शांत हो उस दर्द और पीड़ा को सहता रहा और वो अपना स्वार्थ सिद्धि करता रहा।

परंतु आज इन बेदर्द इंसानों ने सारी हदें पार कर दी, और मेरी सारी जड़े काट कर मुझे मरने पर विवस कर दिया। क्यों कि  उन बेदर्द इंसानों ने वहां भव्य मंदिर को बनाने का निर्णय ले लिया है, इस क्रम में पहली बलि उन्होंने मेरी ही ली है।

और इस प्रकार मैंने सोचा कि जब मैं इस जग से जा ही रहा हूं तो क्यों न अपनी राम कहानी तुम्हें सुनाता जाऊं, ताकि मरते समय मेरे मन की मलाल पीड़ा और घुटन थोड़ी कम हो जाय, और सीने का बोझ थोडा़ हल्का हो जाय। मैं अपने आखिरी समय में अल्पायु मृत्यु को प्राप्त हो, लोगों की और सेवा न कर पाने की टीस मन में लिए जा रहा हूं। मेरा तुमसे यही निवेदन है कि मेरी पीड़ा और दर्द से सारे समाज को अवगत करा देना। ताकि यह मानव समाज अब और हरे वृक्ष न काटे।इस प्रकार पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते देते उस वृक्ष की आंखें छलछला उठी, उसकी जुबां ख़ामोश हो गई। वह वटवृक्ष मर चुका था, उस समाधि के वटवृक्ष की दयनीय स्थिति देखकर मेरा भावुक हृदय चीत्कार कर उठा था।  मैं इंसानी अत्याचारों का शिकार हुए उस धराशाई वटवृक्ष को निहार रहा था, अपलक किंकर्तव्यविमूढ़ असहज असहाय हो कर।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 108 – मन के पार जाना ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #108 🌻 मन के पार जाना 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

मन के पार जाना, उन्मन होना। जिसको झेन सन्त ‘नो माइंड’ कहते हैं।

एक ऐसी दशा अपने भीतर खोज लेनी है जहां कुछ भी स्पर्श नहीं करता। और वैसी दशा भीतर छिपी पड़ी है। वही है आत्मा। और जब तक उसे न जाना तब तक उस एक को नहीं जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। उस एक को जानने से फिर द्वंद्व मिट जाता है। फिर दो के बीच चुनाव नहीं रह जाता, अचुनाव पैदा होता है। उस अचुनाव में ही आनंद है, सच्चिदानंद है।

जनक के जीवन में एक उल्लेख है।

जनक रहते तो राजमहल में थे, बड़े ठाठ— बाट से। सम्राट थे और साक्षी भी। अनूठा जोड़ था। सोने में सुगंध थी। भगवान बुद्ध साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं। भगवान महावीर साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं, सरल बात है। सब छोड़ कर साक्षी हैं। जनक का साक्षी होना बड़ा महत्वपूर्ण है। सब है और साक्षी हैं।

एक गुरु ने अपने शिष्य को कहा कि तू वर्षों से सिर धुन रहा है और तुझे कुछ समझ नहीं आती। अब तू मेरे बस के बाहर है। तू जा, जनक के पास चला जा। उसने कहा कि आप जैसे महाज्ञानी के पास कुछ न हुआ तो यह जनक जैसे अज्ञानी के पास क्या होगा? जो अभी महलों में रहता, नृत्य देखता है। आप मुझे कहां भेजते हैं? लेकिन गुरु ने कहा, तू जा।

गया शिष्य। बेमन से गया। न जाना था तो भी गया, क्योंकि गुरु की आज्ञा थी तो अज्ञानवश गया। था तो पक्का कि वहां क्या मिलेगा। मन में तो उसके निंदा थी। मन में तो वह सोचता था, उससे ज्यादा तो मैं ही जानता हूं।

जब वह पहुंचा तो संयोग की बात, जनक बैठे थे, नृत्य हो रहा था। वह तो बड़ा ही नाराज हो गया। उसने जनक को कहा, महाराज, मेरे गुरु ने भेजा है इसलिए आ गया हूं। भूल हो गई है। क्यों उन्होंने भेजा है, किस पाप का मुझे दंड दिया है यह भी मैं नहीं जानता। लेकिन अब आ गया हूं तो आपसे यह पूछना है कि यह अफवाह आपने किस भांति उड़ा दी है कि आप ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं?

यह क्या हो रहा है यहां? यह राग—रंग चल रहा है। इतना बड़ा साम्राज्य, यह महल, यह धन—दौलत, यह सारी व्यवस्था, इस सबके बीच में आप बैठे हैं तो ज्ञान को उपलब्ध कैसे हो सकते हैं? त्यागी ही ज्ञान को उपलब्ध होते हैं।

 

सम्राट जनक ने कहा, तुम जरा बेवक्त आ गए। यह कोई सत्संग का समय नहीं है। तुम एक काम करो, मैं अभी उलझा हूं। तुम यह दीया ले लो। पास में रखे एक दीये को दे दिया और कहा कि तुम पूरे महल का चक्कर लगा आओ। एक—एक कमरे में हो आना। मगर एक बात खयाल रखना, इस महल की एक खूबी है; अगर दीया बुझ गया तो फिर लौट न सकोगे, भटक जाओगे।

बड़ा विशाल महल था। दीया न बुझे इसका खयाल रखना। सब महल को देख आओ। तुम जब तक लौटोगे तब तक मैं फुरसत में हो जाऊंगा, फिर सत्संग के लिए बैठेंगे। वह गया युवक उस दीये को लेकर। उसकी जान बड़ी मुसीबत में फंसी। महलों में कभी आया भी नहीं था। वैसे ही यह महल बड़ा तिलिस्मी, इसकी खबरें उसने सुनी थीं कि इसमें लोग खो जाते हैं, और एक झंझट। और यह दीया अगर बुझ जाए तो जान पर आ बने। ऐसे ही संसार में भटके हैं, और संसार के भीतर यह और एक झंझट खड़ी हो गई। अभी संसार से ही नहीं छूटे थे और एक और मुसीबत आ गई।

लेकिन अब महाराजा जनक ने कहा है और गुरु ने भेजा है तो वह दीये को लेकर गया बड़ा डरता—डरता। महल बड़ा सुंदर था; अति सुंदर था। महल में सुंदर चित्र थे, सुंदर मूर्तियां थीं, सुंदर कालीन थे, लेकिन उसे कुछ दिखाई न पड़ता।

वह तो इसे ही देख रहा है कि दीया न बुझ जाए। वह दीये को सम्हाले हुए है। और सारे महल का चक्कर लगा कर जब आया तब निश्चित हुआ। दीया रख कर उसने कहा कि महाराज, बचे। जान बची तो लाखों पाए,लौट कर घर को आए। यह तो जान पर ऐसी मुसीबत हो गई, हम सन्यासी आदमी और यह महल जरूर उपद्रव है, मगर दीये ने बचाया।

सम्राट ने कहा, छोड़ो दीये की बात; तुम यह बताओ, कैसा लगा? उसने कहा, किसको फुरसत थी देखने की? जान फंसी थी। जान पर आ गई थी। दीया देखें कि महल देखें? कुछ देखा नहीं।

सम्राट ने कहा, ऐसा करो, अब आ गए हो तो रात रुक जाओ। सुबह सत्संग कर लेंगे। तुम भी थके हो और यह महल का चक्कर भी थका दिया है। और मैं भी थक गया हूं। बड़े सुंदर भवन में बड़ी बहुमूल्य शय्या पर उसे सुलाया। और जाते वक्त सम्राट कह गया कि ऊपर जरा खयाल रखना। ऊपर एक तलवार लटकी है। और पतले धागे में बंधी है—शायद कच्चे धागे में बंधी हो। जरा इसका खयाल रखना कि यह कहीं गिर न जाए। और इस तलवार की यह खूबी है कि तुम्हारी नींद लगी कि यह गिरी।

उसने कहा, क्यों फंसा रहे हैं मुझको झंझट में? दिन भर का थका—मादा जंगल से चल कर आया, यह महल का उपद्रव और अब यह तलवार! सम्राट ने कहा, यह हमारी यहां की व्यवस्था है। मेहमान आता है तो उसका सब तरह का स्वागत करना।

रात भर वह पड़ा रहा और तलवार देखता रहा। एक क्षण को पलक झपकने तक में घबराए कि कहीं तलवार भ्रांति से भी समझ ले कि सो गया और टपक पड़े तो जान गई। सुबह जब सम्राट ने पूछा तो वह तो आधा हो गया था सूखकर, कि कैसी रही रात? बिस्तर ठीक था?

उसने कहा, कहा की बातें कर रहे हैं! कैसा बिस्तर? हम तो अपने झोपड़े में जहां जंगल में पड़े रहते थे वही सुखद था। ये तो बड़ी झंझटों की बातें हैं। रात एक दीया पकड़ा दिया कि अगर बुझ जाए तो खो जाओ। अब यह तलवार लटका दी। रात भर सो भी न सके, क्योंकि अगर यह झपकी आ जाए.. .उठ—उठ कर बैठ जाता था रात में। क्योंकि जरा ही डर लगे कि झपकी आ रही है कि तलवार टूट जाए। कच्चे धागे में लटकी है।

गरीब आदमी हूं कहां मुझे फंसा दिया! मुझे बाहर निकल जाने दो। मुझे कोई सत्संग नहीं करना। सम्राट ने कहा, अब तुम आ ही गए हो तो भोजन तो करके जाओ। सत्संग भोजन के बाद होगा। लेकिन एक बात तुम्हें और बता दूं कि तुम्हारे गुरु का संदेश आया है कि अगर सत्संग में तुम्हें सत्य का बोध न हो सके तो जान से हाथ धो बैठोगे। शाम को सूली लगवा देंगे। सत्संग में बोध होना ही चाहिए।

उसने कहा, यह क्या मामला है? अब सत्संग में बोध होना ही चाहिए यह भी कोई मजबूरी है? हो गया तो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ। यह मामला…। सम्राट जनक ने कहा तुम्हें राजाओं—महाराजाओं का हिसाब नहीं मालूम। तुम्हारे गुरु की आज्ञा है। हो गया बोध तो ठीक, नहीं हुआ बोध तो शाम को सूली लग जाएगी। अब वह भोजन करने बैठा। बड़ा सुस्वादु भोजन है, सब है, मगर कहां स्वाद? अब यह घबराहट कि तीस साल गुरु के पास रहे तब बोध नहीं हुआ, इसके पास एक सत्संग में बोध होगा कैसे?

किसी तरह भोजन कर लिया। सम्राट ने पूछा, स्वाद कैसा— भोजन ठीक—ठाक? उसने कहा, आप छोड़ो। किसी तरह यहां से बच कर निकल जाएं, बस इतनी ही प्रार्थना है। अब सत्संग हमें करना ही नहीं है।

सम्राट ने कहा, बस इतना ही सत्संग है कि जैसे रात तुम दीया लेकर घूमे और बुझने का डर था, तो महल का सुख न भोग पाए, ऐसा ही मैं जानता हूं कि यह दीया तो बुझेगा, यह जीवन का दीया बुझेगा यह बुझने ही वाला है।

रात दीये के बुझने से तुम भटक जाते। और यह जीवन का दीया तो बुझने ही वाला है। और फिर मौत के अंधकार में भटकन हो जाएगी। इसके पहले कि दीया बुझे, जीवन को समझ लेना जरूरी है। मैं हूं महल में, महल मुझमें नहीं है।

रात देखा, तलवार लटकी थी तो तुम सो न पाए। और तलवार प्रतिपल लटकी है। तुम पर ही लटकी नहीं, हरेक पर लटकी है। मौत हरेक पर लटकी है। और किस भी दिन, कच्चा धागा है, किसी भी क्षण टूट सकता है। और मौत कभी भी घट सकती है। जहां मौत इतनी सुगमता से घट सकती है वहां कौन उलझेगा राग—रंग में न: बैठता हूं राग—रंग में; उलझता नहीं हूं।

अब तुमने इतना सुंदर भोजन किया लेकिन तुम्हें स्वाद भी न आया। ऐसा ही मुझे भी। यह सब चल रहा है, लेकिन इसका कुछ स्वाद नहीं है। मैं अपने भीतर जागा हूं। मैं अपने भीतर के दीये को सम्हाले हूं। मैं मौत की तलवार को लटकी देख रहा हूं। फांसी होने को है। यह जीवन का पाठ अगर न सीखा, अगर इस सत्संग का लाभ न लिया तो मौत तो आने को है।

मौत के पहले कुछ ऐसा पा लेना है जिसे मौत न छीन सके। कुछ ऐसा पा लेना है जो अमृत हो। इसलिए यहां हूं सब, लेकिन इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।

यह जो सम्राट जनक ने कहा : महल में हूं महल मुझमें नहीं है; संसार में हूं संसार मुझमें नहीं है, यह ज्ञानी का परम लक्षण है। वह कर्म करते हुए भी किसी बात में लिप्त नहीं होता। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, साक्षी होना। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, निस्तर्ष मानस:। मन के पार हो जाना।

जैसे ही मन के पार हुए, एकरस हुए। मन में अनेक रस हैं, मन के पार एकरस। क्योंकि मन अनेक है इसलिए अनेक रस हैं। भीतर एक मन थोड़े ही है,जैसा सभी सोचते हैं। भगवान महावीर ने कहा है, मनुष्य बहुचित्तवान है। एक चित्त नहीं है मनुष्य के भीतर, बहुत चित्त हैं। क्षण— क्षण बदल रहे हैं चित्त। सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। चित्त तो बदलता ही रहता है। इतने चित्त हैं।

आधुनिक मनोविज्ञान कहता है, मनुष्य पोलीसाइकिक है। वह ठीक भगवान महावीर का शब्द है। पोलीसाइकिक का अर्थ होता है, बहुचित्तवान। बहुत चित्त हैं।

गुरुजी कहा करते थे, मनुष्य भीड़ है, एक नहीं। सुबह बड़े प्रसन्न हैं, तब एक चित्त था। फिर जरा सी बात में खिन्न हो गए और दूसरा चित्त हो गया। फिर कोई पत्र आ गया मित्र का, बड़े खुश हो गए। तीसरा चित्त हो गया। पत्र खोला, मित्र ने कुछ ऐसी बात लिख दी, फिर खिन्न हो गए; फिर दूसरा चित्त हो गया।

चित्त चौबीस घंटे बदल रहा है। तो चित्त के साथ एक रस तो कैसे उपलब्ध होगा? एक रस तो उसी के साथ हो सकता है, जो एक है। और एक भीतर जो साक्षी है; उस एक को जान कर ही जीवन में एकरसता पैदा होती है। और एकरस आनंद का दूसरा नाम है।

‘सर्वदा आकाशवत निर्विकल्प ज्ञानी को कहां संसार है, कहां आभास है, कहां साध्य है, कहां साधन है?’ वह जो अपने भीतर आकाश की तरह साक्षीभाव में निर्विकल्प होकर बैठ गया है उसके लिए फिर कोई संसार नहीं है।

संसार है मन और चेतना का जोड़। संसार है साक्षी का मन के साथ तादात्म्य। जिसका मन के साथ तादात्म्य टूट गया उसके लिए फिर कोई संसार नहीं। संसार है भ्रांति मन की; मन के महलों में भटक जाना। वह दीया बुझ गया साक्षी का तो फिर मन के महल में भटक जाएंगे। दीया जलता रहे तो मन के महल में न भटक पाएंगे।

इतनी सी बात है। बस इतनी सी ही बात है सार की, समस्त शास्त्रों में। फिर कहां साध्य है, कहां साधन है। जिसको साक्षी मिल गया उसके लिए फिर कोई साध्य नहीं, कोई साधन नहीं। न उसे कुछ विधि साधनी है, न कोई योग, जप—तप; न उसे कहीं जाना है, कोई मोक्ष, कोई स्वर्ग, कोई परमात्मा; न ही उसे कहीं जाना, न ही उसे कुछ करना। पहुंच गया।

साक्षी में पहुंच गए तो मुक्त हो गए। साक्षी में पहुंच गए तो पा लिया फलों का फल। भीतर ही जाना है। अपने में ही आना है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – लौटना ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा – लौटना)

☆ लघुकथा – लौटना ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

“उसे गये साल भर हो गया। कहता था, कुछ बनकर दिखाऊँगा। क्या कभी उसे अपने पिता की याद नहीं आई होगी? मुझे बहुत बार लगा कि वह दरवाज़े के बाहर खड़ा मुझे पुकार रहा है। हर बार वह पुकार मेरा भ्रम साबित हुई। क्या वो कभी नहीं लौटेगा युगल?”

“ईश्वर पर यक़ीन करो। वह अवश्य आएगा। यूँ कोई अपने घर-परिवार को भूल थोड़े ही जाता है। बेटा है वो तुम्हारा, ज़रूर याद करता होगा।”

“नहीं आ पाया तो कोई चिट्ठी ही भेज देता!”

“ये आजकल के बच्चे भी बहुत ज़िद्दी हैं। वह अवश्य ही बड़ा आदमी बनकर आएगा।”

“यह जो कुत्ता है न, साल-डेढ़ साल पहले इतना सा पिलूरा था। मैंने इसे पाला नहीं था, पर यह सारा दिन हमारे दरवाज़े पर बैठा किंकियाता रहता। कभी-कभी मैं इसे रोटी का टुकड़ा डाल देता था, बस। इसको भगाने की मैंने बहुत कोशिश की, पर यह नहीं गया। इसके शोर और गंदगी से परेशान होकर मैं इसे बोरे में भरकर तीस किलोमीटर दूर शहर में छोड़ आया, यह दो दिन बाद ही लौट आया। यह तो कुत्ता है और वो इन्सान होकर भी …”

“कुत्ते, कबूतर तो लौट आते हैं दोस्त ! ये तो इन्सान ही है जो…!”

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 101 ☆ ये पब्लिक है —☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘ये पब्लिक है —’।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 101 ☆

☆ लघुकथा – ये पब्लिक है — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

राजा का दरबार सजा  था। सभी विभागों के मंत्री अपनी – अपनी गद्दी पर आसीन थे। ‘अच्छे दिन आएंगे एक दिन– ’की मीठी धुन पार्श्वसंगीत की तरह बज रही थी। राजा एक – एककर मंत्रियों से देश के राजकाज के बारे में पूछ रहा था। मंत्रीगण भी बड़े जोश में थे। गृह मंत्री बोले –‘ सुशासन है, भाईचारा है महाराज ! भ्रष्टाचार,घूसखोरी खत्म कर दी हमने। रिश्वत ना लेंगे, ना देंगे। सब कुछ व्यवस्थित चल रहा है देश में।‘ मंत्री जी ने गरीबी, बेरोजगारी जैसी अनेक समस्याओं को अपने  बटुए में चुपके से डाल डोरी बाँध दी। राजा मंद – मंद मुस्कुरा रहा था।

वित्त मंत्री खड़े हुए – महाराज! गरीबों को गैस सिलेंडर मुफ्त बाँटे जा रहे हैं। किसानों को कम ब्याज पर कर्ज दिया जा रहा है। गरीबों के लिए ‘तुरंत धन योजना’  शुरू की है और भी बहुत कुछ। किसानों की आत्महत्याओं, महंगाई के मुद्दे को उन्होंने जल्दी से अपने बटुए  में खिसका दिया। धुन बज उठी – ‘अच्छे दिन आएंगे एक दिन — -’। राजा मंद – मंद मुस्कुरा रहा था।

रक्षा मंत्री की बारी आई, रोब-दाब के साथ राजा को खड़े होकर सैल्यूट मारा और बोले – हमारी सेनाएं चौकस हैं। सीमाएं सुरक्षित हैं। कहीं कोई डर नहीं। नक्सलवाद, आतंकवादी हमले, शहीद सैनिकों की खबरें, सब बड़े करीने से इनके बटुए  में दफन हो गईं। राजा मुस्कुराते हुए ताली बजा रहा था।

अब शिक्षा मंत्री तमाम शिष्टाचार निभाते हुए सामने आए – शिक्षा के क्षेत्र में तो आमूल-चूल परिवर्तन किए गए हैं महाराज! नूतन शिक्षा नीति लागू हो रही है, फिर देखिएगा —। गरीबों को मुफ्त शिक्षा दी जा रही है। शिक्षकों के  भर्ती  घोटाले, महाविद्यालयों में पाँच – सात हजार पर काम करते शिक्षक जैसे ना जाने कितने मुद्दे इनके भी बटुए में  चले ही गए।

राजा – मंत्री सब एक सुर  में बोल रहे थे और ‘अच्छे दिन आएंगे एक दिन’ की ताल पर मगन मन थिरक रहे थे।

राजा के दरबार के एक कोने में ‘अच्छे दिन’ की आस में अदृश्य जनता खड़ी थी। राजा उसे नहीं, पर वह सब देख – सुन और समझ रही थी। ये पब्लिक है,सब जानती है —

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #119 – लघुकथा – “राम जाने” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय लघुकथा – “राम जाने।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 119 ☆

☆ लघुकथा – राम जाने ☆ 

बाबूजी का स्वभाव बहुत बदल गया था। इस कारण बच्चे चिंतित थे। उसी को जानने के लिए उनका मित्र घनश्याम पास में बैठा था, “यार! एक बात बता, आजकल तुझे अपनी छोटी बेटी की कोई फिक्र नहीं है?”

बाबू जी कुछ देर चुप रहे।

“क्या होगा फिक्र व चिंता करने से?” उन्होंने अपने मित्र घनश्याम से कहा, “मेरे बड़े पुत्र को में इंजीनियर बनाना चाहता था। उसके लिए मैंने बहुत कोशिश की। मगर क्या हुआ?”

“तू ही बता?” घनश्याम ने कहा तो बाबूजी बोले, “इंजीनियर बनने के बाद उसने व्यवसाय किया, आज एक सफल व्यवसाई है।”

“हां, यह बात तो सही है।”

“दूसरे बेटे को मैं डॉक्टर बनाना चाहता था,” बाबू जी बोले, “मगर उसे लिखने-पढ़ने का शौक था। वह डॉक्टर बन कर भी बहुत बड़ा साहित्यकार बन चुका है।”

“तो क्या हुआ?” घनश्याम ने कहा, “चिंता इस बात की नहीं है। तेरा स्वभाव बदल गया है, इस बात की है। ना अब तू किसी को रोकता-टोकता है न किसी की चिंता करता है। तेरे बेटा-बेटी सोच रहे हैं कहीं तू बीमार तो नहीं हो गया है?”

“नहीं यार!”

“फिर क्या बात है? आजकल बिल्कुल शांत रहता है।”

“हां यार घनश्याम,” बाबूजी ने एक लंबी सांस लेकर अपने दोस्त को कहा, “देख- मेरी बेटी वही करेगी जो उसे करना है। आखिर वह अपने भाइयों के नक्शे-कदम पर चलेगी। फिर मेरा अनुभव भी यही कहता है। वही होगा जो होना है। वह अच्छा ही होगा। तब उसे चुपचाप देखने और स्वीकार करने में हर्ज ही क्या है,” कहते हुए बाबूजी ने प्रश्नवाचक मुद्रा में आंखों से इशारा करके घनश्याम से पूछा- मैं सही कह रहा हूं ना?

और घनश्याम केवल स्वीकृति में गर्दन हिला कर चुप हो गया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

07/02/2018

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#150 ☆ लघुकथा – हिंदी और बदलती सोच… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “हिंदी और बदलती सोच…”)

☆  तन्मय साहित्य # 150 ☆

☆राजभाषा मास विशेष –  लघुकथा – हिंदी और बदलती सोच… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

लघुकथा

 

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घर पर आए मेहमान का स्वागत करते हुए अपने दस वर्षीय पोते विनोद को विद्यासागरजी ने उन्हें प्रणाम करने का संकेत किया।

“नमस्ते अंकल जी” कहते हुए विनोद ने मेहमान के घुटनों को एक हाथ से छूते हुए प्रणाम करने की रश्म निभाई।

“कौन सी कक्षा में पढ़ते हो बेटे?”

“क्लास सिक्स्थ में “

“कौन सी स्कूल में”

“अंकल,  डी पी एस- देहली पब्लिक स्कूल”

“अरे वाह! वहाँ तो पूरे अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई होती है ना?”

“हाँ भाई सा.! ए – टू जेड इंग्लिश मीडियम में,  बीच में ही विद्यासागर जी सगर्व भाव से बोल पड़े। और तो और वहाँ आपस में भी हिंदी में बात करना एलोड नहीं है, साथ में बहुत सारी अदर एक्टिविटीज भी सिखाते हैं।”

“सिखाने की बात से याद आया, भाई जी, अब तो ये छुटकू इंग्लिश शब्दों में मेरी भी गलतियाँ निकालने लगा है, कल ही मार्केट जाते समय मैंने कहा कि बेटू – ट्राफिक बहुत बढ़ गया है आजकल।”

तो कहने लगा “दादूजी आप गलत बोल रहे हो, ट्राफिक नहीं ट्रैफिक या ट्रॉफिक बोलते हैं।”

यह बताते हुए विद्यासागर जी का चेहरा पुनः गर्व से दीप्त हो उठा।

“ये तो बहुत अच्छी बात है। अच्छा विद्यासागर जी, वहाँ हिंदी भी तो एक विषय होगा ना?”

“अब क्या बताएँ भाई जी, है तो हिंदी विषय सिलेबस में, पर कहाँ पढ़ पाते हैं ये आज के बच्चे, अब इसे ही देखो हिंदी वर्णमाला और हिंदी की गिनती भी ठीक से नहीं आती जब कि इंग्लिश में फर्राटे से सब कुछ बता देगा ये, फिर एक विजयी मुस्कान तैर गयी चेहरे पर।”

“तो आप क्यों नहीं पढ़ाते इन्हें घर पर हिंदी ?”

“आप भी तो जानते हैं अब आज के समय में कहाँ बखत रह गयी हिंदी की भाई जी!”

“इसलिए समय के साथ जो चल रहा है वही ठीक है।”

ज्ञातव्य हो कि कईं सम्मान-अलंकरणों से सम्मानित विद्यासागर जी हिंदी के एक सुविख्यात वरिष्ठ साहित्यकार है।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 49 – Representing People – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 49 – Representing People – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.

1977 से 1980 और फिर 1989 से 2014 तक के वर्षों के बीच बनी केंद्र सरकारों का ध्यान, येन केन प्रकारेण विघटन से बचने के लिये समझौतों में ही निकल जाता रहा. भ्रष्टाचार और एक के बाद एक घोटाले, सरकारों की कमजोरी और नियत पर शक पैदा कर रहे थे. इस बीच ही आंतकवाद अपने चरम पर था और आतंकवादियों के होसले बुलंद. नागरिक भयभीत थे कि कब कोई घटना, उन पर संकट बन जाये. जनआकांक्षा स्थिर सरकार और मजबूत, निर्भीक और स्वतंत्र नेतृत्व चाहती थी. वर्तमान सत्तारूढ़ दल ने जनआकांक्षा को पहचाना और नये चेहरे के साथ चुनावी समर में कदम रखा. ये भी जनआकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व था, लोग जो चाहते थे और जिस बात की कमी महसूस कर रहे थे, वो विकल्प उनके सामने था. बाकी जो हुआ, वह कहने की ज़रूरत नहीं है. पर शायद हर शासक और नेतृत्व को ये समझने की जरूरत है कि वो अपने एजेंडे और कार्यप्रणाली से ऊपर वरीयता, इस बात पर दें कि लोग क्या चाहते हैं और क्या ये उनके लिये आवश्यक, न्यायोचित है. वरना हर वो नेतृत्व जो लोगों को भ्रमित करता है या फिर खुद भी भ्रम में रहता है, अक्सर अपना प्रतिनिधित्व का अधिकार खो बैठता है और निर्मम इतिहास उसे डस्टबिन के सुपुर्द ही करता है.

कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का रिप्रसेंटेशन, सामान्यतः निकटगामी मुद्दों के लिये ही होता है, शिक्षण संस्थान खुलने या नहीं खुलने का, एडमीशन में पक्षपात का, डोनेशन और फीस का, कॉलेजों, हॉस्टल की आंतरिक व्यवस्था का, परीक्षा होने या नहीं होने का, रिजल्ट में अनावश्यक देरी, शिक्षण संस्थानों के नियंत्रकों द्वारा छात्रों के लिये अहितकर निर्णयों के लिये. अगर छात्र संघ के चुने हुये (और सुलझे हुये भी), प्रतिनिधि हैं तो अक्सर मामले बातचीत से हल हो जाते हैं जब तक कोई राजनैतिक दखलंदाजी न हो तो, वरना महानगरीय शिक्षण संस्थानों में ये प्रतिष्ठा का सवाल भी बन जाता है. जब प्रतिनिधित्व तो हो पर आंदोलन का निर्णय कोई और ही, अपने फायदे के लिये ले रहा हो. फिर तो छात्रसंघ के ये पदाधिकारी, छात्रों के प्रतिनिधि नहीं बल्कि किसी परिपक्व और शातिर राजनेता के मोहरे बन जाते हैं .शिक्षण संस्थानों में अगर चुने हुये प्रतिनिधि न हों तो कोई भी आंदोलन अपनी जायज़ मांगों से भटककर गलत दिशा पकड़ लेता है. मुझे सागर विश्वविद्यालय के शिक्षण सत्र 1972-73 का एक वाकया याद है जब चार हॉस्टल के छात्रों को निलंबित कर दिया गया था और निर्वाचित प्रतिनिधि न होने के कारण, प्रोटेस्ट को गलत दिशा देने वाला छात्र तो फरार हो गया पर भीड़ के रूप में फालोअर्स के लिए नुकसानदेह रहा.

कॉलेज और विश्वविद्यालयों से लेकर हर संस्थानों और राजनैतिक परिदृश्य में भी, जिम्मेदार, परिपक्व और समझदार नेतृत्व आवश्यक होता है वरना आंदोलन निष्कर्ष हीन और अहितकर ही होते हैं. आंदोलनों की सफलता यही है कि प्रतिनिधित्व और पदासीन एक टेबल पर आकर मामले को हल करने का प्रयास करें हमारे वेज़ सेटलमेंट, वार्तालाप से ही हल हुये हैं और जहाँ न्यायालय जाना पड़ा वहाँ बस तारीख पर तारीख और वकील की फीस दर फीस. ये स्थिति प्रबंधन के लिये सर्वश्रेष्ठ होती है क्योंकि वो अगले दस बीस सालों के लिये चिंतामुक्त हो जाता है. हम पैंशनर्स इसे साक्षात अनुभव कर रहे हैं. नादान हैं वो लोग जो फैसले और राहत का इंतजार करते हैं.

Representing the people का अर्थ यही है कि उनकी न्यायोचित मांगों को आवाज और ताकत दी जाय, वो सुनी जायें और उनके समाधान मिलें. मुंबई में कपड़ा मिलों के बंद होने का कारणों का विश्लेषण यह भी इंगित करता है कि एक कारण मार्केट परिदृश्यों को नजरअंदाज कर मज़दूर नेता दत्ता सामंत द्वारा अनाप शनाप मांगे रखना और नतीजा मिलों के बंद होने से मजदूरों को बेरोजगार होना पड़ा. मांग और देने वाले के अस्तित्व के बीच का असंतुलन ही पब्लिक सेक्टर की असफलता का कारक बना और सरकारों को निजीकरण की तरफ बढ़ना पड़ा. निजीकरण, बेहतर सर्विस के पर्दे में छुपी अभिजात्य सोच को प्रोत्साहित करता है और श्रमजीवियों को टॉरगेट के नाम पर टाइमलेस और लिमिट लेस शोषण के रास्ते खोलता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण, होम डिलीवरी वाले कोरियर बॉय हैं जिन्हें फिक्स टाइम में आर्डर की डिलीवरी करनी पड़ती है वरना आर्थिक नुकसान और नौकरी से हाथ धोने की स्थिति का सामना करना पड़ता है. ये युवक बाकायदा डिग्री धारक होते हैं और बेरोजगारी के कारण, अपनी बाइक सहित इन समस्याओं के जाल में उलझे रहते हैं. कौन हैं जो इनको रिप्रसेंट करेंगे. ये वह लडाई है जो लग्जरी और मजबूरी के बीच लड़ी जा रही है and no body is representing these people.  

श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #159 ☆ कहानी – एटिकेट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय कहानी  ‘एटिकेट ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 159 ☆

☆ कहानी – एटिकेट

गौरी के सामने वाले मकान में नये किरायेदार आ गये हैं। युवा पति-पत्नी और बूढ़ी माँ। दो छोटे बच्चे हैं, दोनों बेटे। बड़ा चार पाँच साल का होगा और छोटा ढाई तीन का। गौरी का मन बार-बार उस घर में जाने के लिए उझकता है। संबंध बनाने और निभाने की उसे आदत है। नये लोगों के प्रति मन में उत्सुकता है। लेकिन उसकी आदत छिद्रान्वेषण या निन्दा-पुराण की नहीं है। अभी तक पड़ोसियों से उसके संबंध प्रेम और मैत्री के रहे हैं और शहर छोड़ देने के बाद भी गौरी से उनका प्रेम-सूत्र अक्षत रहता है।
जल्दी ही पता चल गया कि सामने वाले दंपति सक्सेना हैं। बड़े लड़के का घर का नाम पिंटू और छोटे का गोलू है। बच्चे सुन्दर और प्यारे हैं। गौरी का उस परिवार से खाने-पीने की चीज़ों के आदान-प्रदान का सिलसिला चल पड़ा है।

उनका छोटा बेटा गोलू खूब नटखट और चंचल है। माँ-बाप ने अभी से उसे किसी नर्सरी में डाल दिया है। सवेरे से स्कूल की ड्रेस में सज-धज कर नेकर की जेबों में हाथ डाले गेट के सामने घूमता है तो बहुत भला लगता है। स्कूल जाने के नाम पर रोता नहीं, खुश खुश चला जाता है।

गोलू खूब सवेरे उठकर बाहर आ जाता है। घर के गेट का ‘लैच’ ऊपर से बन्द रहता है, लेकिन उसे खोलने की तरकीब उसने ढूँढ़ ली है। बन्दर की तरह गेट पर चढ़कर वह ‘लैच’ को पलट देता है और फिर उतरकर धक्का मारकर गेट को खोल देता है। इसके बाद जिधर मुँह घूम जाए, चल देता है। माँ-बाप जब बाहर आकर देखते हैं तो या तो पास के किसी घर के सामने रेत के ढेर पर खेलता मिलता है या फिर किसी पिल्ले को चूमते-चाटते। मुहल्ले में लोग उसे जानने लगे हैं, इसलिए कभी लंबा निकल जाए तो कोई न कोई हाथ पकड़ कर घर तक छोड़ जाता है।

गौरी का बेटा टीनू पाँच साल का है।एक दिन गोलू टीनू के पीछे पीछे गौरी के घर में दाखिल हो गया। वैसे भी वह फक्कड़ और मनमौजी है। किसी भी घर में घुसकर वहाँ खेलकूद में मस्त हो जाने में उसे कोई दिक्कत नहीं होती। जब भूख या नींद लगती है तभी उसे घर की याद आती है।

गौरी के घर में आकर भी वह टीनू के खिलौनों की छीन-झपट में लग गया। टीनू को अपने खिलौनों से मोह है, किसी को देने में तकलीफ होती है। इसलिए थोड़ी देर खूब हंगामा हुआ। टीनू खिलौनों को अपनी तरफ खींचता था तो गोलू अपनी तरफ। खिलौनों को हाथ आते न देख गोलू ने चिल्ला चिल्ला कर रोना शुरू कर दिया। गौरी ने आकर टीनू को समझाया और गोलू को खिलौने दिलवाये। गोलू खिलौने समेटकर एक कोने में जम गया और दीन-दुनिया को भूल कर खेलने में व्यस्त हो गया।

तब से गौरी के घर में गोलू के आने का सिलसिला शुरू हो गया। वह खिलौने लेकर एक तरफ जम जाता और फिर घर-द्वार भूल जाता। माँ आवाज़ देती तो कहता, ‘अबी नईं आयेंगे’ या ‘थोला लुको, आते हैं।’ माँ बुला बुला कर परेशान हो जाती, लेकिन उस पर कोई असर न होता। अन्ततः गौरी ही उसे समझा-बुझा कर घर भेजती।

घर जाते वक्त वह किसी खिलौने को कंधे से चिपका कर चल देता। फिर उसके और टीनू के बीच खींचतान और हंगामा होता। गौरी टीनू को समझा-बुझा कर खिलौना उसे दे देती, कहती, ‘सवेरे वापस आ जाएगा।’ सवेरे तक गोलू की माँ खिलौना लौटा जाती, तब टीनू को संतोष होता।

आज की संस्कृति के हिसाब से गोलू एकदम नासमझ था। टीनू कुछ खाने को मेज़ पर बैठता तो वह भी बगल की कुर्सी पर जम जाता, कहता, ‘हमें भी दो। हम भी खायेंगे।’ एक बार लेने पर मन न भरता तो कहता, ‘औल दो। खतम हो गया।’ टीनू हँसता। उसे गोलू की बातें अजीब लगती थीं। उसे स्कूल और घर में ‘एटीकेट’ की शिक्षा दी गयी थी। उसे सिखाया गया था कि चीज़ों की माँग सिर्फ अपने घर में करनी है। दूसरे घर में कोई दे तब भी ‘थैंक यू’ कह कर मना कर देना है। उस घर के लोग खाने पीने के लिए बैठने लगें तो धीरे से खिसक लेना है। लेकिन गोलू अभी शिक्षित नहीं है। नादान और भोला है। अभी उस पर नयी तालीम और तहज़ीब का असर नहीं है।

बाहर पॉपकॉर्न बेचने वाला आवाज़ लगाता है तो टीनू की फरमाइश पर गौरी खरीदने जाती है। तभी सामने से गोलू प्रकट हो जाते हैं। कहते हैं— ‘हमें भी।’ जब तक उनके माँ या बाप बाहर निकलते हैं तब तक वे पॉपकॉर्न का पैकेट लेकर चल देते हैं। यही हाल गुब्बारे वाले के आने पर होता है। टीनू को गुब्बारे अच्छे लगते हैं लेकिन खरीदते वक्त अपना हिस्सा लेने के लिए गोलू हाज़िर हो जाते हैं। गुब्बारा देने में थोड़ी भी टालमटोल हो तो वहीं हाहाकार शुरू हो जाता है। उसकी फरमाइशों पर गौरी को भी मज़ा आता है।

कई बार गोलू की माँ संकोच में पड़ जाती है लेकिन गौरी उन्हें समझा देती है। कहती है, ‘वह अपना अधिकार समझ कर माँगता है। उसके मन में भेद नहीं है, न वह तेरा-मेरा जानता है। आप खामखाँ परेशान होती हैं।’

कुछ दिनों से गोलू का आना कम हो गया है। शायद उसे कोई और अड्डा मिल गया है। वैसे बीच की सड़क पर अब भी वह खेलता या कहीं भी आराम से टाँगें पसारकर अपने में मशगूल दिख जाता है। उसका स्कूल जाना बदस्तूर ज़ारी है।

एक दिन गोलू की माँ गप-गोष्ठी के इरादे से गौरी के घर आ गयी। पीछे पीछे गोलू था। पहले से थोड़ा बड़ा और शान्त हो गया था। आने पर उसने पहले की तरह खिलौनों की तरफ ताक- झाँक नहीं की। अच्छे बच्चों की तरह शान्त कुर्सी पर बैठा रहा।

थोड़ी देर में गौरी फ्रिज खोल कर उसके लिए चॉकलेट ले आयी। उसकी तरफ बढ़ा कर बोली, ‘लो बेटे।’

गोलू ने अपने हाथ पीछे बाँध लिये, माँ की तरफ देख कर बोला, ‘नईं।’

गौरी को आश्चर्य हुआ, कहा, ‘क्या नखरा करता है! ले ले।’

गोलू ने चॉकलेट की तरफ और फिर माँ की तरफ देखा, फिर वैसे ही हाथ पीछे किये हुए बोला, ‘नईं, हम नईं लेंगे।’

उसकी माँ ने कहा, ‘ले ले बेटे, आंटी दे रही हैं।’

गोलू ने धीरे-धीरे हाथ बढ़ाकर चॉकलेट ले ली, फिर कहा, ‘थैंक यू, आंटी।’

उसकी माँ का चेहरा गर्व से दीप्त हो गया। बोलीं, ‘स्कूल में सिखाया है। अब पहले जैसे नहीं करता। कोई कुछ देता है तो मना कर देता है। ‘थैंक यू’ कहना भी सीख गया है।’
गौरी गोलू का मुँह देखती रह गयी। उसे लगा एक और बच्चा ईश्वर की दुनिया से निकल कर आदमी की दुनिया में दाखिल हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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