हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ एक बड़ी-सी लघुकथा – “ट्रकों की धड़कन” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक संवेदनशील कथा  – “ट्रकों की धड़कन”)

☆ कथा-कहानी ☆ एक बड़ी-सी लघुकथा – “ट्रकों की धड़कन” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

(गुलजार के जन्मदिन की खुमारी में लिखी एक लघुकथा। इसमें दो बार गुलजार का नाम आने से ये अपने आप बड़ी हो गई।)

हाई-वे पहले बना कि ट्रक का ईज़ाद पहले हुआ, ये मुर्गी-अंडे जैसा सवाल है। ये दोनों बने ही एक-दूजे के लिए हैं। बिना ट्रक के हाई-वे और बिना हाई-वे के ट्रक, इसकी कल्पना भी करो, तो आपका चालान हो जाएगा। आप किसी भी हाई-वे पर चले जाइए, वहाँ आपको चलते हुए ट्रक दिखाई र्देंगे, खड़े हुए ट्रक दिखाई देर्गे और कहीं-कहीं तो हाई-वे के किनारों की झाड़ियों को अपनी बांहों में समेटे ‘‘गुलज़ार’’ का गीत गाते हुए भी दिखाई देंगे-‘‘औंधे पड़े रहे कभी करवट लिए हुए।’’ हाई-वे पर ट्रक दौड़ रहे होते हैं समझिए सारा देश दौड़ रहा है।

ट्रान्सपोर्टरों की हड़ताल क्या हुई, पहिया क्या थमा, पूरा देश यकायक थम-सा गया। बेचारे ट्रक हाई-वे के किनारों पर चुपचाप उदास खड़े हैं। बिना ट्रकों के हाई-वे की हालत हारे हुए एमएलए, चूसे गए आम और अभी-अभी पत्नी से ताजा डाँट खाए हुए पति के जैसी हो गई। न धुआँ, न हॉर्न, न शोरशराबा, कर्फ्यू का-सा माहौल हो गया। बच्चे मजे से क्रिकेट खेल रहे हैं। अँधे, हाई-वे ऐसे पार कर रहे हैं जैसे खटिया से उठकर घर का आंगन पार कर रहे हों। हड़ताल से हाई-वे का डिमोशन हो गया। माँएं अपने बच्चों से कहने लगीं- ‘‘इधर गली में मत खेलो, रिक्षे, साइकिल की मार लग जाएगी,

उधर हाई-वे पर मजे से खेलो।’’ लंबी-चौड़ी सुनसान सड़कें पिकनिक स्पॉट बन गई । दो-एक ने तो खाली जगह देख शादी का रिसेप्शन तक दे दिया। कल तक अपने रोबीले व्यक्तित्व, विशाल काया और उग्र स्वभाव के कारण हर आने-जाने वालों के साथ दादागिरी करते, दौड़ते ट्रक, आज डरे-डरे कोने में मुँह छिपाए यूँ खड़े हैं कि हर ऐरा-गैरा उसे छेड़ जाता है। साइकिल वाला मुँह चिढ़ाते हुए निकल जाता है और पैदल वाला उसके खड़े होने की विवशता का उपयोग कर लेता है।

हड़ताल के चौथे दिन ढ़ाबे के आसपास खड़े ट्रक आपस में बतिया रहे थे। -‘‘पता नहीं, ये हड़ताल कब खत्म होगी। चार दिन हो गए भूख से मरे जा रहे हैं। -गलत समझते हैं लोग, कि हम डीज़ल से चलते हैं। हमारी असली खुराक तो सड़कें होती हैं। डीज़ल तो हम यूँ ही बड़े लोगों की देखा देखी भूख जगाने के लिए सूप की तरह पीते हैं। कसम ले लो इन चार दिनों में दो इंच भी चले हैं। ये हड़ताल वाले क्यों नहीं सोचते हमारे बारे में, क्या हम में जान नहीं होती ?’’ -एक ट्रक बोला। -‘‘होती क्यों नहीं,’’ दूसरा ट्रक बोला-‘‘हम में भी जान होती है, -मेरा मालिक रात का खाना खाकर जब चलने को तैयार होता है तो बच्चों की खैरियत के बहाने अपनी बीवी से ऐसी-ऐसी बातें करता है कि सैकड़ों मील दूर उसकी बीवी के हाथ से मोबाइल छूट जाता है। वह इतनी   दूर होकर भी मारे लाज के अपना चेहरा हथेलियों में छिपा लेती है और मेरा मालिक हलो-हलो करके हँसता रहता है। फिर बीवी और बच्चों की तस्वीर चूमकर जब स्टीयरिंग संभालता है तो मैं भी रोमांचित हो जाता हूँ और -‘‘जल्दी चल गड़िये मैनूँ यार से मिलना है’’ के गीत पर अपनी महबूबा सड़कों से लिपटकर और भी ऐसी तेजी से दौड़ता हूँ।  आठ का एवरेज ऐसे ही दस पर नहीं आता । और क्या सबूत चाहिए कि हम में भी जज्बा होता है, हम में भी जान होती है।’’

‘‘प्यार ही नहीं हमें आदमियों की तरह गुस्सा भी आता है’’ तीसरा ट्रक बोला-‘‘उस दिन आरटीओ वाले ने चालान भी काटा, ऊपर से दो सौ की रिश्वत भी ली- सोचा चलो ये भी सिस्टम का एक हिस्सा है। मैं चुप रहा। पर इसके लिए जब मेरे मालिक को हाथ-पैर भी जोड़ना पड़ा तो मेरा डीज़ल खौल गया, मैंने गुस्से से कहा-‘‘ओय  आरटीओ के बच्चे, किसी दिन सिविल ड्रेस में मिलना, ऐसा चालान काटूंगा कि न तू दंड भरने लायक रहेगा और न हाथ-पैर जोड़ने लायक रहेगा।’’ -पर मेरी आवाज़ हवा में खो गई।, सारा गुस्सा पीना पड़ा, किसी ने महसूस नहीं किया कि हम में भी जान होती है।’’

तभी चार-पाँच ट्रक उस कोने में खड़े बूढ़े ट्रक से एक साथ बोल पड़े-‘‘दादा, तुमने तो दुनिया देखी है, मुल्क की कोई सड़क ऐसी नहीं होगी, जहाँ आपके पाँव न पड़े हों! ये दुनियावाले आखिर कब समझेंगे कि हम में भी जान होती है।’’

बूढ़ा ट्रक एक लंबी ठंडी सांस लेकर बोला-‘‘ये साइंस, पेड़-पौधों तक तो आ गया है कि उनमें जान होती है, -पर अभी तक लोह-लक्कड़ तक नहीं पहुँचा- और पहुँचेगा भी नहीं। उसके लिए किसी खास किस्म की लेबोरेटरी से गुजरना होता है। कभी-कभी कोई नसीबवाला ही उससे गुजरता है।’’

-‘‘दादा बताओ ना, क्या आप भी कभी उस लेबोरेटरी से गुजरे ? क्या आपके जीवन में वो क्षण आया, जब कोई दूसरा महसूस करें कि हम में भी जान होती है?’’

-‘‘हाँ एक बार आया था,’’ बूढ़ा ट्रक अपने अतीत में खोते हुए बोला, -‘‘बात पुरानी है, जब मेरा मालिक बंता पहली बार ट्रक लेकर निकला था, अभी तो उसकी मूँछें भी नहीं फूटी थीं, पर सरदार के बच्चों का पाँव एक्सीलेटर तक पहुँचा कि वो ट्रक चलाने लगता है। उसकी माँ बहुत रो रही थी। और खुश भी थी कि, उसका बेटा कमाने जा रहा है। – पर रो इसलिए रही थी, कि दस साल पहले बंता का बाप ट्रक एक्सिडेंट में मर चुका था। माँ नहीं चाहती थी, कि उसका बंता भी ट्रक चलाए। पर ट्रक और सरदार की जोड़ी ज़मीन पर तो तय नहीं होती , आसमान से उतरती  है। यहाँ तो ‘‘गुलज़ार’’ बनने के लिए भी संपूरन सिंह (गुलज़ार का असली नाम) को कुछ दिन गैरेज में काम करना होता है। पर माँ है कि रोये जा रही थी- पराया देश, आँधी-तूफान, खराब सड़कें, पुलिसवाले, गुंडे-मवाली इन सबका सामना करते हुए ट्रक चलाना, सरहद पर दुश्मनों से घिरे अकेले गोली चलाने जैसा दुष्कर काम है।’’ (और दोनों ही जगह प्राय: सरदार ही होते हैं) माँ ने दसों बार ऊपर हाथ उठाकर रब से अरदास की। बीसों बार गुरू ग्रंथ साहब पर मथ्था टेका।दूसरे चार-पाँच ड्राइवरों ने धीरज भी दिया-‘‘बीजी, तू  फिकर मत कर, जब तक बंतो पक्का नहीं होता, हम उसे अकेला नहीं छोड़ेंगे।’’ बंता भी बोला-‘‘माँ तू फिकर मत कर, मैं गाड़ी धीरे चलाऊंगा। किसी से उलझूंगा भी नहीं। फिर अब तो मोबाइल आ गया, मैं हर घंटे तुमसे बात करूँगा’’ पर माँ है कि रोये जा रही थी। वैसे भी ट्रक ड्राइवरों की माँएं कुछ ज्यादा ही संवेदनशील होती हैं। एक्सिडेंट की ख़बर सुनते ही उसका कलेजा मुँह को आ जाता है, भले ही उस वक्त  उसका बेटा उसके सामने खाना खा रहा होता है, तो भी।

आखिर बिदा का क्षण आ ही गया। बंतो ने जैसे ही माँ के पैर छुए, उसे गले लगाती माँ ऐसी चीख पड़ी मानो बेटी पहली बार ससुराल जा रही है। आसपास के सभी की आँखें छलक उठी। बंतो  आँख पोंछता हुए स्टीयरिंग संभाला और वाहे गुरू की जय बोल चाबी घुमाई और जैसे ही मैं चला, बंतो की माँ झट से मेरे पास आई और मुझे थपथपाते धीरे से बोली-‘‘मेरे बंतो का खयाल रखना!’’

तब मुझे लगा, न केवल मुझ में जान है, बल्कि कोई दूसरा भी महसूस कर रहा है, कि मुझ में भी जान है।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 98 ☆ पुत्र का मान ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘पुत्र का मान’।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 98 ☆

☆ लघुकथा – पुत्र का मान ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

तुमने अपने भाई को फोन किया ? पिता ने बड़ी बेसब्री से बेटी से दिन में तीसरी बार पूछा।

नहीं, हम करेंगे भी नहीं। वह जब आता है गाली-गलौज करता है। आप दोनों को भी कितनी गालियां सुनाता था। दो समय का खाना भी बिना ताना मारे नहीं देता था आपको।हम यह सब सहन नहीं कर पा रहे थे इसलिए आप दोनों को अपने घर ले आए।

वह तो ठीक है बेटी! पर माँ का अंतिम समय है – पिता ने दुखी स्वर में कहा, उसे तो बताना ही पड़ेगा। क्या पता कब प्राण निकल जाए।

तब देखा जाएगा। जब हम अपनी ससुराल में रखकर आप दोनों की देखभाल कर सकते हैं तो आगे भी सब निभा सकते हैं। आप उसकी चिंता मत करिए।

पिता ने सोचा बेटी के घर में माँ चल बसीं तो बेटा समाज को क्या मुँह दिखाएगा। मौका पाकर बेटे को फोन कर बता दिया। बेटा – बहू घड़ियाली आँसू बहाते आए और बोले क्या हाल कर दिया मेरी माँ का। जी – जान से वर्षों माता- पिता की सेवा करनेवाली बहन पर माँ की ठीक से देखभाल ना करने के आरोप लगाए।

‘राम नाम सत्य है’ के उद्घोष के साथ माँ की अंतिम यात्रा बेटे के घर से निकल रही थी। अर्थी को कंधा देकर बेटे ने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया था और पिता ने पुत्र का मान बचाकर।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – बच्च न मारना ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – बच्च न मारना ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(स्वतंत्रता दिवस पर कुछ सवाल करतीं लघुकथा)

ऐसा अक्सर होता ।

मैं खेतों में जैसे ही ताजी सब्जी तोड़ने पहुंचता,  तभी मेरे पीछे बच्च न मारना की गुहार मचाता हुआ दुम्मन मेरे पास आ पहुंचता। थैला लेकर खुद सब्जी तोड़ कर देता । मैं समझता कि वह अपने लाला का एक प्रकार से सम्मान कर रहा है।

एक दिन दुम्मन कहीं दिखाई नहीं दिया । मैं खुद ही सब्जी तोडने लगा । जब तक इस काम से निपटता,  तब वही पुकार मेरे कानों में गूंज उठी- लाला जी, बच्च नहीं मारना । लाला जी,,,,,,

लेकिन पास आते आते वही सब्जी के पौधों और बेलों को रूंड मुंड देखकर उदास हो गया ।

एकाएक उसके मुंह से निकला- आखिर आज वही बात हुई, जिसका डर था,,

-क्या हुआ ?

-लाला जी, आज आपने बच्च मार ही दिया न,,,?

-क्या मतलब ? मैंने क्या किया है ?

-आप लाला लोग तो थैला भरने की सोचेंगे,  कल की नहीं सोचेंगे। बच्च का मतलब बहुत छोटी सब्जी,  जिस पर आज नहीं बल्कि कल की आशाएं लगाई जाती हैं । यदि उसे भी आज ही तोड़ लिया जाए तो  तोड़ने कल आप खेतों में क्या पायेंगे ?

-अरे, गलती हो गई।

मैं चला तोड़ने मेरा थैला किसी अपराधी की गठरी समान भारी हो गया। मैं किसी को कह भी नही सका कि मैंने तो सब्जी ही खराब की हैं,  लेकिन जो नेता अगली पीढी को राजनीति की अंधी दौड में दिशाहीन किए जा रहे हैं, वे देश के कल को बर्बाद नहीं कर रहे?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – घड़ी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि –  लघुकथा – घड़ी ??

अंततः यमलोक को झुकना पड़ा। मर्त्यलोक और यमलोक में समझौता हो गया। समझौते के अनुसार जन्म के साथ ही बच्चे की कलाई पर यमदूत जीवनकाल दर्शाने वाली घड़ी बांध जाता। थोड़ी समझ आते ही अब हर कोई कलाई पर बंधी घड़ी की सूइयाँ पीछे करने लग गया।

वह अकाल मृत्यु का युग था। उस युग में हर कोई जवानी में ही गुज़र गया।

केवल एक आदमी उस युग में बेहद बुजुर्ग होकर गुज़रा। सुनते हैं, उसने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी बचपन में ही उतार फेंकी थी।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – अधूरे ख्वाब ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना कौस्तुभ जी की एक विचारणीय लघुकथा अधूरे ख्वाब। 

 ☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – अधूरे ख्वाब ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆ 

सृजन माता-पिता का इकलौता बेटा था, दोनों का सपना था बेटा बड़ा होकर बहुत बड़ा गायक बने क्योंकि वह कभी नहीं बन पाये इसीलिए बेटे को सिंगर बनाने के लिए जी जान से जुट गए।

ढाई साल की उम्र से ही टीचर संगीत सिखाने घर आने लगे थे । सृजन को बस एक ही काम करना पड़ता था गाना गाना और सिर्फ गाना।सृजन का बचपन संगीत के सुर में उलझ कर रह गया।

धीरे-धीरे पूरा घर रिकॉर्ड्स वाद्य यंत्रों और सीडी प्लेयर्स से भर गया था।

आजकल अच्छे गायक बनने के लिए सबसे पह टीवी प्रोग्राम में आना जरूरी था इसलिए टीवी शो के लिए कड़ी जद्दोजहद, हफ्तों की प्रक्रिया और धूप गर्मी को झेलते हुए आखिरकार सृजन ऑडिशन राउंड में आ पहुचा, लेकिन तीसरे राउंड में पास नहीं हुआ ।

माता-पिता को हताश निराश और खुद की नाकामी पर सुंदर ने डिप्रेशन का सुर पकड़ लिया और नर्वस ब्रेकडाउन के साथ एक बचपन खत्म हो गया,,,,,,,,

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

मो 9479774486

जबलपुर मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 150 ☆ “सहानुभूति” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “सहानुभूति”)  

☆ कथा-कहानी # 150 ☆ लघुकथा –  “सहानुभूति” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्याह अंधेरे को चीरती अमरकंटक एक्सप्रेस अपनी पूरी स्पीड से दौड़ रही है। कड़ाके की ठंड में सामने की बर्थ में दाढ़ी वाला आदमी कांप रहा है, पतला सा कंबल ओढ़े वह धुप्प अंधेरे में भागते पेड़ पौधों को ताक रहा है। अचानक ट्रेन एक छोटे से प्लेटफार्म में रुकती है, कुछ यात्री शयनयान में घुसते हैं, उसकी निगाह एक सुंदर सी नवयौवना पर जाती है, काले लम्बे बाल सुन्दर नाक नक्श वाली वह नवयुवती जगह तलाशती हुई उस दाढ़ी वाले से अनुनय विनय करके उसके बगल में बैठ जाती है। 

ट्रेन अपनी स्पीड पकड़ लेती है। घड़ी की सुइयां रात्रि साढ़े बारह बजने का संकेत दे रहीं हैं। सभी यात्री अपनी अपनी बर्थ में सो गए हैं, कुछ जाग रहे हैं। 

युवती दाढ़ी वाले से सटती जा रही है और वह बेचारा संकोचवश खिड़की तरफ दबा जा रहा है। बड़ी देर बाद युवती ने ऐसा क्या किया कि वह आदमी चौकन्ना सा होकर अपने कंबल को बार बार समेटने लगा, शहडोल स्टेशन आने को है कि अचानक मैंने देखा युवती दाढ़ी वाले की सोने की चैन खींच चुकी थी एवं युवती ने चिल्लाना शुरू कर दिया था, बचाओ….. बचाओ ये दाढ़ी वाला आदमी मेरी इज्जत लूटने की कोशिश कर रहा है, इस बीच मैंने देखा उसने अपना ब्लाउज फाड़ लिया और साड़ी के पल्लू को पेटीकोट से अलग कर दिया। कोलाहल से कोच के अधिकांश लोग जाग गये एवं हम लोगों की बर्थ के पास काफी लोग इकट्ठे हो गए, गाड़ी स्टेशन पर खड़ी हो गई, उस युवती ने रोना धोना शुरू कर दिया है, भीड़ बढ़ रही है, भीड़ से मारो… मारो.. की आवाज से दाढ़ी वाला आदमी कांप उठा है, पर वह चुपचाप अपनी जगह पर ही बैठा हुआ है। भीड़ की आवाजें सुनकर वहां से गुजर रहे पुलिस वाले दौड़कर कोच में घुसे तब तक भीड़ ने उस दाढ़ी वाले को लात घूसों से तर कर दिया है और पुलिस वालों के आते ही उस पर कई डण्डे पड़ चुके हैं। वह कराह उठा, वह बेचारा हक्का बक्का सा मार खाते हुए कुछ बोलना चाहता था पर उसकी आवाज कोलाहल में गुम हो जाती थी। मैंने भी भीड़ और पुलिस को समझाने की कोशिश की तो दो चार डण्डे मुझे भी पड़ चुके थे। युवती बिफरती हुई धीरे धीरे कोच से बाहर भागने की फिराक में थी, भीड़ के कुछ लोग उसकी सुंदरता से घायल से हो गये थे और उस दाढ़ी वाले को कोस रहे थे। एक ने मां बहन की गाली बकते हुए कहा – साला चलती ट्रेन में युवती की इज्जत पर हाथ डाल रहा था। पुलिस वाले उस दाढ़ी वाले पकड़ कर घसीटते हुए प्लेटफार्म पर उतार रहे थे, वह लगातार अपने कंबल को मुंह में दबाए हुए कह रहा था – साब मेरी कोई ग़लती नहीं है बल्कि उस युवती ने मेरे सोने की चैन खींच ली है, ऐसा सुनते ही पुलिस वाले ने उस पर लातों की बरसात कर दी वह पस्त होकर जमीन पर गिर गया। पुलिस वाले ने जैसे ही उसका कंबल पकड़ कर घसीटना चाहा, कंबल पुलिस वाले के साथ में आ गया और भीड़ यह देखकर दंग रह गयी कि उस दाढ़ी वाले के दोनों हाथ कटे हुए थे और वह बेचारा अपाहिज कराह उठा। अचानक भीड़ उस युवती को तलाशने मुड़ गई, पर वह युवती भाग चुकी थी। भीड़ से आवाज आई कि ये आदमी उस युवती का ब्लाउज और साड़ी तो फाड़ ही नहीं सकता, इसके तो दोनों हाथ ही नहीं है, जरुर वह युवती जेबकतरे गैंग से संबंधित होगी पर रोज चलने वाले ये सिपाही जरूर युवती को जानते होंगे। इतना सुनते ही पुलिस वाले डण्डा पटकते हुए आगे बढ़ गये…..

इंजन की ओर हरी बत्ती चमक उठी, इंजन सीटी बजा रहा है, भीड़ देखते देखते ट्रेन में समा गई, लोग व्याकुल होकर खिड़कियों से झांक रहे हैं, अनायास मेरे हाथ जंजीर तक पहुंच गये और एक झटके के साथ ट्रेन रुक गई, भीड़ का हुजूम दाढ़ी वाले की तरफ टूट पड़ा, मेरे बाजू वाला यात्री भीड़ के चरित्र पर हंस पड़ा, दाढ़ी वाले के लिए सहानुभूति की लहर फैल चुकी थी और भीड़ ने उस दाढ़ी वाले को अपने सर पर उठा लिया फिर ट्रेन धीरे से चल पड़ी ….।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – किसान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – किसान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

मित्रो, यह मेरी लेखन यात्रा की सबसे पहली लघुकथा है , जो अपने ही संपादन में प्रकाशित प्रयास पत्रिका के लघुकथा विशेषांक में सन् 1970 में लिखी और प्रकाशित की । कहते हैं कि पुराने चावल बहुत स्वादिष्ट होते हैं । क्या, इस लघुकथा में ऐसी कोई महक आ रही है ? बताइएगा जरूर।

-कमलेश भारतीय

जब उसने बैलाें काे खेताें की तरफ हांका ! तब उसे लगा कि उसमें असीम शक्ति है । वह बहुत कर सकता है ! बहुत कुछ । जब उसने बीज बाेया ! तब उसे लगा कि उसने अपने दिल से छाेटा हिस्सा खेत में बिखेर दिया । जब उसने सिंचाई की ! तब उसे लगा अपना स्नेह बहा दिया । और फ़िर अंकुर फूटे-उसके सपने जन्मने लगे । और फसलें लहलहाने लगीं । उसके सपने लहलहाने लगे । उसे लगने लगा कि समूचा आकाश रंगीन ताराें सहित उसके खेताें में उतर आया है ।

फसल लाद कर घर से बैल-गाड़ी हांकने लगा ताे पत्नी ने अपनी फ़रमाइशें रख दीं । वह मुस्कराता रहा । मंडी में उसने बैलगाड़ी राेकी ताे उसे महसूस हुआ मानाें किसी श्मशान में आ रुका है ! जहां छाेटे-बड़े गिद्ध पहले से उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।

फसल बिक़ी – हिसाब बना ।

जाने किसने किससे बेईमानी की थीं । वह उधार के हाथाें नक़द का दांव हार गया । ब्याज के हाथाें मूल गंवा आया । वह फ़िर खाली हाथ था । फटे हाल था । बैल भूखे थे । वह भूखा था । वह लालपरी के संग काेई लाेक-संगीत गुनगुनाता हुआ वापिस जा रहा था आैर उसे लग रहा था कि आकाश बहुत ऊंचा है तथा तारे कितने फ़ीके हैं ! रात कितनी अजब अंधेरी है । गांव तक पहुंच पायेगा कि नहीं?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 103 – ननद-भाभी और रक्षाबंधन ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #103 🌻 ननद-भाभी और रक्षाबंधन 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बहन ने अपनी भाभी को फोन किया और जानना चाहा …”भाभी, मैंने जो भैया के लिए राखी भेजी थी, मिल गयी क्या आप लोगों को” ???

भाभी : “नहीं दीदी, अभी तक तो नहीं मिली”।

बहन : “भाभी कल तक देख लीजिए, अगर नहीं मिली तो मैं खुद जरूर आऊंगी राखी लेकर, मेरे रहते भाई की कलाई सूनी नहीं रहनी चाहिए रक्षाबंधन के दिन”।

अगले दिन सुबह ही भाभी ने खुद अपनी ननद को फोन किया : “दीदी आपकी राखी अबतक नहीं मिली, अब क्या करें बताईये”??

ननद ने फोन रखा, अपने पति को गाड़ी लेकर साथ चलने के लिए राजी किया और चल दी राखी, मिठाई लेकर अपने मायके ।

दो सौ किलोमीटर की दूरी तय कर लगभग पांच घंटे बाद बहन अपने मायके पहुंची।

फ़िर सबसे पहले उसने भाई को राखी बांधी, उसके बाद घर के बाक़ी सदस्यों से मिली, खूब बातें, हंसी मजाक औऱ लाजवाब व्यंजनों का लंबा दौर चला  ।

अगले दिन जब बहन चलने लगी तो उसकी भाभी ने उसकी गाड़ी में खूब सारा सामान रख दिया… कपड़े, फल, मिठाइयां वैगेरह।

विदा के वक़्त जब वो अपनी माँ के पैर छूने लगी तो माँ ने शिकायत के लहजे में कहा… “अब ज़रा सा भी मेरा ख्याल नहीं करती तू, थोड़ा जल्दी जल्दी आ जाया कर बेटी, तेरे बिना उदास लगता है मुझें, तेरे भाई की नज़रे भी तुझें ढूँढ़ती रहती हैं अक़्सर”।

बहन बोली- “माँ, मैं समझ सकती हूँ आपकी भावना लेकिन उधर भी तो मेरी एक माँ हैं और इधर भाभी तो हैं आपके पास, फ़िर आप चिंता क्यों करती हैं, जब फुर्सत मिलेगा मैं भाग कर चली आऊंगी आपके पास”।

आँखों में आंसू लेकर माँ बोली- “सचमुच बेटी, तेरे जाने के बाद तेरी भाभी बहुत ख्याल रखती है मेरा, देख तुझे बुलाने के लिए तुझसे झूठ भी बोला, तेरी राखी तो दो दिन पहले ही आ गयी थी, लेकिन उसने पहले ही सबसे कह दिया था कि इसके बारे में कोई भी दीदी को बिलकुल बताना मत, राखी बांधने के बहाने इस बार दीदी को जरुर बुलाना है, वो चार सालों से मायके नहीं आयीं”।

बहन ने अपनी भाभी को कसकर अपनी बाहों में जकड़ लिया और रोते हुए बोली… “भाभी, मेरी माँ का इतना भी ज़्यादा ख़याल मत रखा करो कि वो मुझें भूल ही जाए”।

भाभी की आँखे भी डबडबा गईं।

बहन रास्ते भर गाड़ी में गुमसुम बेहद ख़ामोशी से अपनी मायके की खूबसूरत, सुनहरी, मीठी यादों की झुरमुट में लिपटी हुई बस लगातार यही प्रार्थना किए जा रही थी… “हे ऊपरवाले, ऐसी भाभी हर बहनों को मिले!”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – लैंस ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि – लघुकथा – लैंस ??

….दादू, स्कैनर ख़राब हो गया है। कैमरा की इमेज कैप्चर कैपेसिटी ख़त्म हो गई है। स्टोरेज भी फुल हो गया है। अब फोटो नहीं आएगी।

वह सोचने लगा, आँख का लैंस तो ताउम्र फोटो खींचता है। बल्कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, दिखना भले कम होता जाये, स्कैनिंग की क्षमता बढ़ती जाती है। स्टोरेज कभी फुल नहीं होता। चित्र धुँधलाते ज़रूर हैं पर याद का लेप लगाने पर गहरे होकर उभरते हैं।

…दादू, टेक इट ईजी। कूल…आजकल टेक्नोफास्ट एज है। लेटेस्ट टेकनीक है। इंजीनियरिंग इज ऑन इट्स टॉप। कल ठीक करा लाऊँगा।

सचमुच तकनीक और इंजीनियर में फ़र्क तो है, उसने सोचा और आँख का लैंस हौले से मूँद लिया।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 102 – मन के पार जाना ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #102 🌻 मन के पार जाना 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

मन के पार जाना, उन्मन होना। जिसको झेन सन्त नो माइंड कहते हैं।

एक ऐसी दशा अपने भीतर खोज लेनी है जहां कुछ भी स्पर्श नहीं करता। और वैसी दशा भीतर छिपी पड़ी है। वही है आत्मा। और जब तक उसे न जाना तब तक उस एक को नहीं जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। उस एक को जानने से फिर द्वंद्व मिट जाता है। फिर दो के बीच चुनाव नहीं रह जाता, अचुनाव पैदा होता है। उस अचुनाव में ही आनंद है, सच्चिदानंद है।

जनक के जीवन में एक उल्लेख है।

जनक रहते तो राजमहल में थे, बड़े ठाठ— बाट से। सम्राट थे और साक्षी भी। अनूठा जोड़ था। सोने में सुगंध थी। भगवान बुद्ध साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं। भगवान महावीर साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं, सरल बात है। सब छोड़ कर साक्षी हैं। जनक का साक्षी होना बड़ा महत्वपूर्ण है। सब है और साक्षी हैं।

एक गुरु ने अपने शिष्य को कहा कि तू वर्षों से सिर धुन रहा है और तुझे कुछ समझ नहीं आती। अब तू मेरे बस के बाहर है। तू जा, जनक के पास चला जा। उसने कहा कि आप जैसे महाज्ञानी के पास कुछ न हुआ तो यह जनक जैसे अज्ञानी के पास क्या होगा? जो अभी महलों में रहता, नृत्य देखता है। आप मुझे कहां भेजते हैं? लेकिन गुरु ने कहा, तू जा।

गया शिष्य। बेमन से गया। न जाना था तो भी गया, क्योंकि गुरु की आज्ञा थी तो आज्ञानवश गया। था तो पक्का कि वहां क्या मिलेगा। मन में तो उसके निंदा थी। मन में तो वह सोचता था, उससे ज्यादा तो मैं ही जानता हूं।

जब वह पहुंचा तो संयोग की बात, जनक बैठे थे, नृत्य हो रहा था। वह तो बड़ा ही नाराज हो गया। उसने जनक को कहा, महाराज, मेरे गुरु ने भेजा है इसलिए आ गया हूं। भूल हो गई है। क्यों उन्होंने भेजा है, किस पाप का मुझे दंड दिया है यह भी मैं नहीं जानता। लेकिन अब आ गया हूं तो आपसे यह पूछना है कि यह अफवाह आपने किस भांति उड़ा दी है कि आप ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं?

यह क्या हो रहा है यहां? यह राग—रंग चल रहा है। इतना बड़ा साम्राज्य, यह महल, यह धन—दौलत, यह सारी व्यवस्था, इस सबके बीच में आप बैठे हैं तो ज्ञान को उपलब्ध कैसे हो सकते हैं? त्यागी ही ज्ञान को उपलब्ध होते हैं।

सम्राट जनक ने कहा, तुम जरा बेवक्त आ गए। यह कोई सत्संग का समय नहीं है। तुम एक काम करो, मैं अभी उलझा हूं। तुम यह दीया ले लो। पास में रखे एक दीये को दे दिया और कहा कि तुम पूरे महल का चक्कर लगा आओ। एक—एक कमरे में हो आना। मगर एक बात खयाल रखना, इस महल की एक खूबी है; अगर दीया बुझ गया तो फिर लौट न सकोगे, भटक जाओगे।

बड़ा विशाल महल था। दीया न बुझे इसका खयाल रखना। सब महल को देख आओ। तुम जब तक लौटोगे तब तक मैं फुरसत में हो जाऊंगा, फिर सत्संग के लिए बैठेंगे। वह गया युवक उस दीये को लेकर। उसकी जान बड़ी मुसीबत में फंसी। महलों में कभी आया भी नहीं था। वैसे ही यह महल बड़ा तिलिस्मी, इसकी खबरें उसने सुनी थीं कि इसमें लोग खो जाते हैं, और एक झंझट। और यह दीया अगर बुझ जाए तो जान पर आ बने। ऐसे ही संसार में भटके हैं, और संसार के भीतर यह और एक झंझट खड़ी हो गई। अभी संसार से ही नहीं छूटे थे और एक और मुसीबत आ गई।

लेकिन अब महाराजा जनक ने कहा है और गुरु ने भेजा है तो वह दीये को लेकर गया बड़ा डरता—डरता। महल बड़ा सुंदर था; अति सुंदर था। महल में सुंदर चित्र थे, सुंदर मूर्तियां थीं, सुंदर कालीन थे, लेकिन उसे कुछ दिखाई न पड़ता।

वह तो इसे ही देख रहा है कि दीया न बुझ जाए। वह दीये को सम्हाले हुए है। और सारे महल का चक्कर लगा कर जब आया तब निश्चित हुआ। दीया रख कर उसने कहा कि महाराज, बचे। जान बची तो लाखों पाए, लौट कर घर को आए। यह तो जान पर ऐसी मुसीबत हो गई, हम सन्यासी आदमी और यह महल जरूर उपद्रव है, मगर दीये ने बचाया।

सम्राट ने कहा, छोड़ो दीये की बात; तुम यह बताओ, कैसा लगा? उसने कहा, किसको फुरसत थी देखने की? जान फंसी थी। जान पर आ गई थी। दीया देखें कि महल देखें? कुछ देखा नहीं।

सम्राट ने कहा, ऐसा करो, अब आ गए हो तो रात रुक जाओ। सुबह सत्संग कर लेंगे। तुम भी थके हो और यह महल का चक्कर भी थका दिया है। और मैं भी थक गया हूं। बड़े सुंदर भवन में बड़ी बहुमूल्य शय्या पर उसे सुलाया। और जाते वक्त सम्राट कह गया कि ऊपर जरा खयाल रखना। ऊपर एक तलवार लटकी है। और पतले धागे में बंधी है—शायद कच्चे धागे में बंधी हो। जरा इसका खयाल रखना कि यह कहीं गिर न जाए। और इस तलवार की यह खूबी है कि तुम्हारी नींद लगी कि यह गिरी।

उसने कहा, क्यों फंसा रहे हैं मुझको झंझट में? दिन भर का थका—मादा जंगल से चल कर आया, यह महल का उपद्रव और अब यह तलवार! सम्राट ने कहा, यह हमारी यहां की व्यवस्था है। मेहमान आता है तो उसका सब तरह का स्वागत करना।

रात भर वह पड़ा रहा और तलवार देखता रहा। एक क्षण को पलक झपकने तक में घबडाए कि कहीं तलवार भ्रांति से भी समझ ले कि सो गया और टपक पड़े तो जान गई। सुबह जब सम्राट ने पूछा तो वह तो आधा हो गया था सूखकर, कि कैसी रही रात? बिस्तर ठीक था?

उसने कहा, कहा की बातें कर रहे हैं! कैसा बिस्तर? हम तो अपने झोपड़े में जहां जंगल में पड़े रहते थे वहीं सुखद था। ये तो बड़ी झंझटों की बातें हैं। रात एक दीया पकड़ा दिया कि अगर बुझ जाए तो खो जाओ। अब यह तलवार लटका दी। रात भर सो भी न सके, क्योंकि अगर यह झपकी आ जाए.. .उठ—उठ कर बैठ जाता था रात में। क्योंकि जरा ही डर लगे कि झपकी आ रही है कि तलवार टूट जाए। कच्चे धागे में लटकी है।

गरीब आदमी हूं कहां मुझे फंसा दिया! मुझे बाहर निकल जाने दो। मुझे कोई सत्संग नहीं करना। सम्राट ने कहा, अब तुम आ ही गए हो तो भोजन तो करके जाओ। सत्संग भोजन के बाद होगा। लेकिन एक बात तुम्हें और बता दूं कि तुम्हारे गुरु का संदेश आया है कि अगर सत्संग में तुम्हें सत्य का बोध न हो सके तो जान से हाथ धो बैठोगे। शाम को सूली लगवा देंगे। सत्संग में बोध होना ही चाहिए।

उसने कहा, यह क्या मामला है? अब सत्संग में बोध होना ही चाहिए यह भी कोई मजबूरी है? हो गया तो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ। यह मामला…। सम्राट जनक ने कहा तुम्हें राजाओं—महाराजाओं का हिसाब नहीं मालूम। तुम्हारे गुरु की आज्ञा है। हो गया बोध तो ठीक, नहीं हुआ बोध तो शाम को सूली लग जाएगी। अब वह भोजन करने बैठा। बड़ा सुस्वादु भोजन है, सब है, मगर कहां स्वाद? अब यह घबड़ाहट कि तीस साल गुरु के पास रहे तब बोध नहीं हुआ, इसके पास एक सत्संग में बोध होगा कैसे?

किसी तरह भोजन कर लिया। सम्राट ने पूछा, स्वाद कैसा— भोजन ठीक—ठाक? उसने कहा, आप छोड़ो। किसी तरह यहां से बच कर निकल जाएं, बस इतनी ही प्रार्थना है। अब सत्संग हमें करना ही नहीं है।

सम्राट ने कहा, बस इतना ही सत्संग है कि जैसे रात तुम दीया लेकर घूमे और बुझने का डर था, तो महल का सुख न भोग पाए, ऐसा ही मैं जानता हूं कि यह दीया तो बुझेगा, यह जीवन का दीया बुझेगा यह बुझने ही वाला है।

रात दीये के बुझने से तुम भटक जाते। और यह जीवन का दीया तो बुझने ही वाला है। और फिर मौत के अंधकार में भटकन हो जाएगी। इसके पहले कि दीया बुझे, जीवन को समझ लेना जरूरी है। मैं हूं महल में, महल मुझमें नहीं है।

रात देखा, तलवार लटकी थी तो तुम सो न पाए। और तलवार प्रतिपल लटकी है। तुम पर ही लटकी नहीं, हरेक पर लटकी है। मौत हरेक पर लटकी है। और किस भी दिन, कच्चा धागा है, किसी भी क्षण टूट सकता है। और मौत कभी भी घट सकती है। जहां मौत इतनी सुगमता से घट सकती है वहां कौन उलझेगा राग—रंग में न: बैठता हूं राग—रंग में; उलझता नहीं हूं।

अब तुमने इतना सुंदर भोजन किया लेकिन तुम्हें स्वाद भी न आया। ऐसा ही मुझे भी। यह सब चल रहा है, लेकिन इसका कुछ स्वाद नहीं है। मैं अपने भीतर जागा हूं। मैं अपने भीतर के दीये को सम्हाले हूं। मैं मौत की तलवार को लटकी देख रहा हूं। फांसी होने को है। यह जीवन का पाठ अगर न सीखा, अगर इस सत्संग का लाभ न लिया तो मौत तो आने को है।

मौत के पहले कुछ ऐसा पा लेना है जिसे मौत न छीन सके। कुछ ऐसा पा लेना है जो अमृत हो। इसलिए यहां हूं सब, लेकिन इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।

यह जो सम्राट जनक ने कहा: महल में हूं महल मुझमें नहीं है; संसार में हूं संसार मुझमें नहीं है, यह ज्ञानी का परम लक्षण है। वह कर्म करते हुए भी किसी बात में लिप्त नहीं होता। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, साक्षी होना। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, निस्तर्षमानस:। मन के पार हो जाना।

जैसे ही मन के पार हुए, एकरस हुए। मन में अनेक रस हैं, मन के पार एकरस। क्योंकि मन अनेक है इसलिए अनेक रस हैं। भीतर एक मन थोड़े ही है,जैसा सभी सोचते हैं। भगवान महावीर ने कहा है, मनुष्य बहुचित्तवान है। एक चित्त नहीं है मनुष्य के भीतर, बहुत चित्त हैं। क्षण— क्षण बदल रहे हैं चित्त। सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। चित्त तो बदलता ही रहता है। इतने चित्त हैं।

आधुनिक मनोविज्ञान कहता है, मनुष्य पोलीसाइकिक है। वह ठीक भगवान महावीर का शब्द है। पोलीसाइकिक का अर्थ होता है, बहुचित्तवान। बहुत चित्त हैं।

गुरजिएफ कहा करते थे, मनुष्य भीड़ है, एक नहीं। सुबह बड़े प्रसन्न हैं, तब एक चित्त था। फिर जरा सी बात में खिन्न हो गए और दूसरा चित्त हो गया। फिर कोई पत्र आ गया मित्र का, बड़े खुश हो गए। तीसरा चित्त हो गया। पत्र खोला, मित्र ने कुछ ऐसी बात लिख दी, फिर खिन्न हो गए; फिर दूसरा चित्त हो गया।

चित्त चौबीस घंटे बदल रहा है। तो चित्त के साथ एक रस तो कैसे उपलब्ध होगा? एक रस तो उसी के साथ हो सकता है, जो एक है। और एक भीतर जो साक्षी है; उस एक को जान कर ही जीवन में एकरसता पैदा होती है। और एकरस आनंद का दूसरा नाम है।

‘सर्वदा आकाशवत निर्विकल्प ज्ञानी को कहां संसार है, कहां आभास है, कहां साध्य है, कहां साधन है?’ वह जो अपने भीतर आकाश की तरह साक्षीभाव में निर्विकल्प होकर बैठ गया है उसके लिए फिर कोई संसार नहीं है।

संसार है मन और चेतना का जोड़। संसार है साक्षी का मन के साथ तादात्म्य। जिसका मन के साथ तादात्म्य टूट गया उसके लिए फिर कोई संसार नहीं। संसार है भ्रांति मन की; मन के महलों में भटक जाना। वह दीया बुझ गया साक्षी का तो फिर मन के महल में भटक जाएंगे। दीया जलता रहे तो मन के महल में न भटक पाएंगे।

इतनी सी बात है। बस इतनी सी ही बात है सार की, समस्त शास्त्रों में। फिर कहां साध्य है, कहां साधन है। जिसको साक्षी मिल गया उसके लिए फिर कोई साध्य नहीं, कोई साधन नहीं। न उसे कुछ विधि साधनी है, न कोई योग, जप—तप; न उसे कहीं जाना है, कोई मोक्ष, कोई स्वर्ग, कोई परमात्मा;न ही उसे कहीं जाना, न ही उसे कुछ करना। पहुंच गया।

साक्षी में पहुंच गए तो मुक्त हो गए। साक्षी में पहुंच गए तो पा लिया फलों का फल। भीतर ही जाना है। अपने में ही आना है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares
image_print