हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 97 – देने की नीति… ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #97 🌻 देने की नीति… 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

कड़ाके की ठंड पड़ी। पृथ्वी पर रेंगने वाले कीटक उससे सिकुड़ कर मरने लगे। वन्य प्राणियों के लिए आहार की समस्या उत्पन्न हो गई। लोग शीत निवारण के लिए जलावन ढूंढ़ने निकले। सब के शरीर अकड़ रहे थे तो भी कष्ट निवारण का उपाय किसी से बन नहीं पड़ रहा था।

वृक्ष से यह सब देखा न गया। इन कष्ट पीड़ितों की सहायता के लिए उसे कुछ तो करना ही चाहिए। पर करें भी तो क्या। उसके पास न बुद्धि थी, न पुरुषार्थ, न धन और न अवसर।

फिर भी वह सोचता ही रहा- क्या मेरे पास कुछ भी नहीं है? भला ऐसा कैसे होगा? सर्वथा साधन हीन तो इस सृष्टि में एक कण भी नहीं रचा गया है? गहराई से विचार किया तो लगा कि वह भी साधनहीन नहीं है। पत्र-पल्लवों की प्रचुर संपदा प्रकृति ने उसे उन्मुक्त हाथों से प्रदान की है। वृक्ष ने संतोष की साँस ली। पुलकन उसके रोम-रोम में दौड़ गई।

वृक्ष ने अपने सारे पत्ते जमीन पर गिरा दिए। रेंगने वालों ने आश्रय पाया, पशुओं को आहार मिला, जलावन को समेट कर मनुष्यों ने आग तापी और जो रहा बचा सो खाद के गड्ढे में डाल दिया। दुम हिलाते रंग बदलते गिरगिट अपनी कोतर से निकला और वृक्ष से पूछने लगा- अपनी शोभा सम्पदा गँवाकर तुम ढूँठ बन गये। इस मूर्खता में आखिर क्या पाया?

वृक्ष गिरगिट को निहारता भर रहा पर उत्तर कुछ नहीं दिया। कुछ समय उपरान्त बसन्त आया। उसने ढूँठ बनकर खड़े हुए वृक्ष को दुलारा और पुराने पके पत्तों के स्थान पर नई कोपलों से उसका अंग प्रत्यंग सजा दिया। यह तो उसके दान का प्रतिदान था। अभी उपहार का अनुदान शेष था सो भी बसन्त ने नये बसंती फूलों से मधुर फलों से लाद कर पूरा कर दिया। वृक्ष गौरवान्वित था और सन्तुष्ट भी।

गिरगिट फिर एक दिन उधर से गुजरा। वृक्ष पहले से अधिक सम्पन्न था। उसने देने की नीति अपना कर खोया कम और पाया ज्यादा यह उसने प्रत्यक्ष देखा।

पूर्व व्यंग की निरर्थकता का उसे अब आभास हुआ सो लज्जा से लाल पीला होता हुआ वह फिर अपने पुराने कोंतर में वापिस लौट गया।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ बारिश ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

सुश्री रुचिता तुषार नीमा

(युवा साहित्यकार सुश्री रुचिता तुषार नीमा जी द्वारा आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा बारिश।) 

☆ लघुकथा – बारिश ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

आज आसमान पर बादल छाए थे, मानसून का आगमन हो चुका था। सभी को खुशी थी कि अब इस तपती गर्मी से निजाद मिलेगी। लेकिन शोभा ताई अपनी झोपड़ी में बैठे बैठे ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि पहली बारिश के बाद ही झोपड़े में पानी भर जाएगा, फिर अपने छोटे छोटे बच्चों को लेकर कहा जायेगी।

हे ईश्वर! जब तक कहीं रहने का इंतजाम न हो,तब तक कैसे भी करके बादलों को बरसने से रोक लो।

तभी नगर पालिका की गाड़ी बस्ती के बाहर आकर रूकी, कि पूरी बारिश में बस्ती के लोगों के रहने के लिए सरकार ने पुराने स्कूल में व्यवस्था की है। सब लोग अपना काम का सामान लेकर उधर रहने जा सकते हैं।

तभी बादल बरसने लगे और अब शोभा ताई भी बारिश में खुशी से झूम रही थी।

© सुश्री रुचिता तुषार नीमा

इंदौर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #116 – स्वप्न…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 116 – स्वप्न…! ☆

पावसात भिजताना “तिला”

आठवणारा मी

आज माझ्या फुटपाथ वरच्या झोपडीची

तारांबळ बघत होतो

आणि…

पावसाचं पाणी झोपडीत येऊ नये म्हणून

माझ्या माऊलीची चाललेली धडपड

नजरेत साठवत होतो

इतक करूनही..झोपडीत

निथळणार पाणी थेट तिच्या

काळजाला भिडत होत

आणि…

काय कराव या विचारानेच

तिच्या डोळ्यात पाणी कसं

अगदी सहज दाटत होत

कुटुंबातली लेकरं

अर्ध्या-मुर्ध्या कपड्यावर

मनसोक्त भिजत होती

माझी माय मात्र

आपल्या तुटपुंज्या संसाराची

स्वप्ने आवरत होती

तिची स्वप्ने म्हणजे तरी

काय असणार?

एका बंद पेटीत कोंडलेली चार दोन भांडी

आणि संसारा प्रमाणे फाटलेली

बोचक्यात बांधुन ठेवलेली काही लुगडी

फुटपाथ वरच्या संसारात

असतच काय खरतर

आवरायला कमी आणि सावरायला जास्त

कुठेही गेल की

चुल तेवढी बदलत जाते आणि..

फिरता संसार घेऊन फिरणार्‍या

माझ्या माऊलीची स्वप्न मात्र

ती बंद पेटीच पहात असते…!

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆☆ लघुकथा – मोनू मिल गया ☆☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “मोनू मिल गया )

☆ लघुकथा – मोनू मिल गया ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

“यह देखो विशाल, यह वही बच्चा नहीं है, जिसकी कल के स्थानीय अखबार में शाम को गुमशुदा होने की खबर छपी थी?” पत्नी वीणा ने आज का अखबार मेरे आगे करते हुए कहा।

मैंने गौर से देखा, “हां, लग तो वही रहा है।”

“मैं अभी कल वाला अखबार लाती हूं”, वह गई और तुरंत ढूंढ कर ले आई, “यह देखो विशाल, वही बच्चा है।”

“हां, वही है”, मैंने लापरवाही से कहा, “आज के समाचार में लिखा है कि बच्चा मिल गया है और कुलदीप नगर चौकी में है। वहीं कुलदीप नगर के पास से मिला है। पता नहीं कैसे चला गया वहां? कल के अखबार में लिखा था कि पीतमपुरा कॉलोनी के पास की झुग्गियों में रहता है, जो यहां से काफी दूर है।”

“चलो छोड़ो, यह कल की खबर में ही उसके घर का फोन नंबर दिया हुआ है। एक काम करो, जल्दी से फोन लगाकर उसके घर वालों को सूचित कर दो।” वीणा ने बेसब्री से कहा।

“कमाल करती हो तुम भी”, मुझे यह पागलपन सा लगा, “अखबार में उसके मिलने की खबर छप चुकी है। उसके घर वालों को पता नहीं कब का पता चल चुका होगा। छोड़ो तुम…।”

“एक बार करने में हर्ज ही क्या है? क्या पता, पता न चला हो?” वीणा ने फिर आग्रह किया, “वैसे भी वह झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोग हैं, पढ़े लिखे या पैसे वाले नहीं, जो किसी भी तरह पता लगा लेंगे। पता नहीं उन पर क्या बीत रही होगी, खासकर मां पर। तुम्हें मेरी कसम, एक बार फोन करो तो सही, प्लीज।”

मैंने हथियार डालते हुए कहा, “चलो ठीक है, मैं करता हूं, देना फोन।”

जैसे ही उधर से आवाज आई, मैंने पूछा, “आपका बच्चा गुम हुआ था, मिल गया क्या?”

“नहीं जी, आपको कुछ पता है?” एक उत्सुक और बेचैन-सी आवाज थी।

“जी हां, अभी अखबार में पढ़ा। आपका बच्चा कुलदीप नगर चौकी में है। आप ले आएं जाकर।” मैंने संक्षेप में कहा।

“जी, जी जी”, उसने धन्यवाद भरे स्वर में कहा।

फोन रखते-रखते में मुझे जोर की खुशी भरी पुकार सुनाई दी, “मोनू की मां, मोनू की मां, सुनो, मोनू मिल गया, मोनू मिल गया…।”

***

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – नींद ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  लघुकथा – नींद ??

आँखों में गहरी नींद बसती थी। फिर नींद में अबोध सपनों ने दख़ल दिया। आगे सपने वयस्क हो चले। वयस्कता भी कब तक टिकती! जल्दी ही सपनों से मन उचाट हो गया और चिंताओं से नींद प्रायः उचटने लगी। समय के साथ चिंताएँ भी रूप बदलती गईं और आँखों में खालीपन भरने लगा। खालीपन के चलते नींद लगभग बेदख़ल हो गई। दिन फिरे और बेदख़ल नींद शनैः-शनैः उल्टे पाँव लौटने लगी। रात में कम, दिन में अधिक आधिपत्य जमाने लगी। फिर एक दिन, रात-दिन की परिधि को समेटकर नींद, आँखों के साथ पूरी देह में गहरे उतर गई। समय साक्षी है, यह नींद इतनी गहरी थी कि फिर कभी नहीं खुली।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 129 – लघुकथा – लेटर बॉक्स ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “लेटर बॉक्स”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 129 ☆

☆ लघुकथा – लेटर बॉक्स

शहर का एक मोड़, चौराहे से हटकर एक पेड़ के नीचे लाल रंग का खड़ा लेटर बॉक्स, अपनी कहानी कह रहा था। लगभग अस्सी साल के बुजुर्ग रामाधार रोज घर से निकलकर लाठी का सहारा लिए चलते – चलते वहां आते थे।

डाकिया बाबू का इंतजार करते हुए बैठे मिलते थे। प्रतिदिन की तरह केवल सरकारी ऑफिस के काम निपटाने वाली कागज और कुछ कार्ड निकलते थे। जिन्हें डाकिया बाबू लेकर चला जाता।

रामाधार को रोज बैठा देख उन्हें पूछा करते… “दादा किसकी चिट्ठी का इंतजार करते हो।” दादा रामाधार हंस कर कहते…. “मेरा बेटा बरसों से विदेश में है वहां से वह चिट्ठियां लिखेगा। उनका इंतजार करता हूं। कभी-कभी उसकी चिट्ठी आ जाती है। मैं रोज देखने आता हूं कि शायद आज आया होगा।”

डाकिया बाबू ने कहा…” दादा अब यह ‘लेटर बॉक्स’ सरकारी जैसा हो गया है। इसमें अब काम की चिट्ठियां कोई नहीं डालता। जमाना बदल गया है। कम से कम अब पारिवारिक चिट्ठियां तो कभी नहीं आती है।”

रामाधार को कान से कम सुनाई देता था। वह भी… “सरकारी नौकरी में ही गया है।” डाकिया बाबू को उन्होंने जवाब दिया। डाकिया बाबू अपना काम कर, लेटर बॉक्स बॉक्स बंद किए और चले जाते थे।

आज फिर निश्चित समय पर रामाधार वहां पर बैठे थे। उनके हाथ में एक चिट्ठी थी। डाकिया बाबू आए। खुश होकर उन्होंने कहा… “आज से साल भर पहले यह कार्ड आया था। आज ही के दिन।”

“आज मेरी चिट्ठी जरूर आएगी।” डाकिया बाबू ने देखा उनके हाथ में हैप्पी फादर डे का कार्ड अंग्रेजी के शब्दों में छपा लिखा था। डाकिया बाबू ने पत्रों को इकट्ठा किया। रामाधार जी की दो चिट्ठियां आई थी।

खुशी से झूम उठे। डाकिया बाबू से पढ़ने को कहा डाकिया बाबू ने पत्र पढ़ा….” मेरा तबादला कहीं और हो गया है पिताजी। अब मैं आपको पत्र नहीं लिख पाऊंगा। अपना ख्याल रखना।”

वह दोनों चिट्ठियों को लेकर घर की ओर चल पड़ा। एक चिट्ठी डाकिया बाबू को भी मिली। वह वहां पर पढ़ने लगे…. सरकारी आदेश था ‘यहां से लेटर बॉक्स को तुरंत हटा दिया जाए कहीं और सरकारी ऑफिस में रखवा दिया जाए।’

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 96 – कर्मो का लेखा जोखा… ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #96 🌻 कर्मो का लेखा जोखा… 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक महिला बहुत ही धार्मिक थी ओर उसने ने नाम दान भी लिया हुआ था और बहुत ज्यादा भजन सिमरन और सेवा भी करती थी किसी को कभी गलत न बोलना, सब से प्रेम से मिलकर रहना उस की आदत बन चुकी थी. वो सिर्फ एक चीज़ से दुखी थी के उस का आदमी उस को रोज़ किसी न किसी बात पर लड़ाई झगड़ा करता। उस आदमी ने उसे कई बार इतना मारा की उस की हड्डी भी टूट गई थी। लेकिन उस आदमी का रोज़ का काम था। झगडा करना। उस महिला ने अपने गुरु महाराज जी से अरज की हे गुरुदेव मेरे से कौन सी भूल हो गई है। मै सत्संग भी जाती हूँ सेवा भी करती हूँ। भजन सिमरन भी आप के हुक्म के अनुसार करती हूँ। लेकिन मेरा आदमी मुझे रोज़ मारता है। मै क्या करूँ।

गुरु महाराज जी ने कहा क्या वो तुझे रोटी देता है महिला ने कहा हाँ जी देता है। गुरु महाराज जी ने कहा फिर ठीक है। कोई बात नहीं। उस महिला ने सोचा अब शायद गुरु की कोई दया मेहर हो जाए और वो उस को मारना पीटना छोड़ दे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उस की तो आदत बन गई ही रोज़ अपनी घरवाली की पिटाई करना। कुछ साल और निकल गए उस ने फिर महाराज जी से कहा की मेरा आदमी मुजे रोज़ पीटता है। मेरा कसूर क्या है। गुरु महाराज जी ने फिर कहा क्या वो तुम्हे रोटी देता है। उस महिला ने कहा हांजी देता है। तो महाराज जी ने कहा फिर ठीक है। तुम अपने घर जाओ। महिला बहुत निराश हुई के महाराज जी ने कहा ठीक है।

वो घर आ गई लेकिन उस के पति के स्वभाव वैसे का वैसा रहा रोज़ उस ने लड़ाई झगडा करना। वो महिला बहुत तंग आ गई। कुछ एक साल गुज़रे फिर गुरु महाराज जी के पास गई के वो मुझे अभी भी मारता है। मेरी हाथ की हड्डी भी टूट गई है। मेरा कसूर क्या है। मै सेवा भी करती हूँ। सिमरन भी करती हूँ फिर भी मुझे जिंदगी में सुख क्यों नहीं मिल रहा। गुरु महाराज जी ने फिर कहा वो तुजे रोटी देता है। उस ने कहा हांजी देता है। महाराज जी ने कहा फिर ठीक है। परन्तु इस बार वो महिला जोर जोर से रोने लगी और बोली की महाराज जी मुझे मेरा कसूर तो बता दो मैंने कभी किसी के साथ बुरा नहीं किया फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है।

महाराज कुछ देर शांत हुए और फिर बोले बेटी तेरा पति पिछले जन्म में तेरा बेटा था। तू उस की सोतेली माँ थी। तू रोज़ उस को सुबह शाम मारती रहती थी। और उस को कई कई दिन तक भूखा रखती थी। शुक्र मना के इस जन्म में वो तुझे रोटी तो दे रहा है। ये बात सुन कर महिला एक दम चुप हो गई। गुरु महाराज जी ने कहा बेटा जो कर्म तुमने किए है उस का भुगतान तो तुम्हें अवश्य करना ही पड़ेगा फिर उस महिला ने कभी महाराज से शिकायत नहीं की क्योंकि वो सच को जान गई थी।

इसलिए हमे भी कभी किसी का बुरा नहीं करना चाहिए सब से प्रेम प्यार के साथ रहना चाहिए। हमारी जिन्दगी में जो कुछ भी हो रहा है सब हमारे कर्मो का लेखा जोखा है। जिस का हिसाब किताब तो हमे देना ही पड़ेगा।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – बड़ी नदी, छोटी नदी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बड़ी नदी, छोटी नदी ।)

☆ लघुकथा – बड़ी नदी, छोटी नदी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

“आज तो बहुत मुश्किल से पहुँच पाई हूँ मैं तुम्हारे पास, एक निगोड़े पत्थर ने मेरा रास्ता रोक दिया था।” छोटी नदी ने बड़ी नदी में मिलते हुए कहा।

“कितनी कमज़ोर हो तुम! एक मामूली पत्थर तुम्हारा रास्ता रोक देता है। मुझे देखो, कोई पत्थर आए तो सही मेरे सामने, अपने बहाव में बहाकर ऐसी जगह छोड़ती हूँ, जहाँ वह ताउम्र धूप में जलता रहता है।” बड़ी नदी बोली।

“तंज़ मत करो बहन। देखो न, पूरी ताक़त से पत्थर से लड़ती हुई मैं तुम्हारे पास पहुँची हूँ, आधी-अधूरी ही सही।”

“आधी-अधूरी हो या पूरी – तुम न भी आओ तो क्या फ़र्क़ पड़ता है मुझे? तुम से पहले बीसियों तुम जैसी छोटी और ओछी नदियाँ मुझमें मिलती हैं। हर रोज़ कोई न कोई नदी मुझे तुम जैसी ही व्यथा सुनाने लगती है। तंग आ चुकी हूँ मैं, कान पक गए हैं मेरे!”

“ऐसा न कहो। हमारा मिलन तो आत्माओं के मिलन जैसा है। कितना पवित्र उद्देश्य है इस मिलन का। हम सब मिलकर लाखों, करोड़ों लोगों की प्यास बुझाती  हैं। इनमें कितने साधनहीन, लाचार और ग़रीब लोग शामिल हैं। नाम बेशक तुम्हारा ही होता है, पर सहयोग और समर्थन तो हमारा भी है।”

“हुँह, तुम्हारा सहयोग और समर्थन?”

“हाँ बहन। अपने उद्गम स्थल पर तो तुम हम जैसी ही हो। हम जैसी छोटी-छोटी नदियाँ तुम में मिलती जाती हैं और तुम बड़ी होती जाती हो।”

“ओह, तुम कहना यह चाहती हो कि मेरा वजूद तुम जैसी छोटी नदियों की वजह से है। तुम छोटी नदियों और छोटे लोगों की यही दिक़्क़त है। तुम समझते हो कि कोई बड़ा है तो तुम्हारी वजह से। सुनो, अगर तुम जैसी नदियों का विलय मुझमें नहीं होता तो अनदेखी रह जातीं तुम, साँप की तरह पत्थरों से लिपटी-लिपटी पत्थरों में ही खो जातीं। मेरी वजह से तुम सार्थक होती हो, तुम्हारी वजह से मैं नहीं।”

“इतना अहंकार अच्छा नहीं बहन। मुझे कोई श्रेय नहीं लेना, पर छोटी से छोटी चीज़ का भी मूल्य होता है। सृष्टि सबके सहयोग से ही क़ायम है।”

“अच्छा! तो ऐसा करो, वापस ले लो अपना सहयोग। देखूँ तो सृष्टि पर क्या असर होता है?”

छोटी नदियाँ विमुख हो गईं। अगले दिन से बड़ी नदी दुबली होने लगी। कुछ ही दिनों में नदी एक लंबे अधमरे साँप जैसी दिखने लगी, जिसके फन पर एक बड़ा पत्थर आ गिरा था और जिसकी आँखों में एक छटपटाती याचना ठहर गई थी।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 94 ☆ जब आवै संतोष धन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘जब आवै संतोष धन’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 94 ☆

☆ लघुकथा – जब आवै संतोष धन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

योग के एक सप्ताह के कोर्स का अंतिम दिन। गुरु जी का आदेश था कि आज सबको साथ बैठकर भोजन करना है और खाना  भी अपने घर से अपनी पसंद का ही  लाना है। सब बहुत खुश थे, ऐसा लग रहा था कि ना जाने कब से मन-  माफिक भोजन मिला ही नहीं। उसने पत्नी से अपनी मनपसंद चीजें बनवाईं। पत्नी ने छोटे- छोटे डिब्बों में बड़े करीने से अचार, चटनी, पापड़ से लेकर पति की पसंद की सब्जी, मिठाई सब चीजें रख दीं। योग की कक्षा में एक पेड़ के नीचे सबको गोलाकार बैठा दिया और कहा गया – ‘सब अपनी – अपनी थाली में अपना खाना परोस लें।‘  सबके सामने रखीं थालियां तरह – तरह के व्यंजनों से  सज गईं।  गुरु जी का आदेश हुआ – ‘ अब ये थालियां आगे बढ़ाई जाएंगी।‘  मतलब ? एक बेचैन साधक ने पूछा। गुरु जी मुस्कुराते हुए बोले – ‘अपनी थाली अपने आगेवाले व्यक्ति को देते जाइए। इस प्रकार थालियां गोलाकार तब तक घूमती रहेंगी जब तक मैं रुकने का आदेश नहीं देता।‘  हर किसी की थाली एक – दूसरे के हाथों से  होती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। किसी की आँखें अपनी मनपसंद थाली का पीछा कर रही थीं तो कोई अनेक व्यंजनोंवाली थाली पर नजर गढ़ाए बैठा था। पर थालियाँ तो आगे ही सरकती जा रही थीं ।  थोड़ी देर बाद गुरु जी ने कहा – रुको, अब जिसके हाथ में जो थाली है उसे अपने सामने रखो और भोजन शुरू करो।

 योग की कक्षा यहीं समाप्त होती है।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #117 – बालकथा – जबान की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय बालकथा –  “जबान की आत्मकथा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 117 ☆

☆ बालकथा – जबान की आत्मकथा ☆ 

” आप मुझे जानते हो?” जबान ने कहा तो बेक्टो ने ‘नहीं’ में सिर हिला दिया. तब जबान ने कहा कि मैं एक मांसपेशी हूं.

बेक्टो चकित हुआ. बोला, ” तुम एक मांसपेशी हो. मैं तो तुम्हें जबान समझ बैठा था.” 

इस पर जबान ने कहा, ” यह नाम तो आप लोगों का दिया हुआ है. मैं तो आप के शरीर की 600 मांसपेशियों में से एक मांसपेशी हूं. यह बात और है कि मैं सब से मजबूत मांसपेशी हूं. जैसा आप जानते हो कि मैं एक सिरे पर जुड़ी होती हूं. बाकी सिरे स्वतंत्र रहते हैं.”

जबान में बताना जारी रखो- मैं कई काम करती हूं. बोलना मेरा मुख्य काम है. मेरे बिना आप बोल नहीं सकते हो. अच्छा बोलती हूं. सब को मीठा लगता है. बुरा बोलती हूं. सब को बुरा लगता है. इस वजह से लोग प्रसन्न होते हैं. कुछ लोग बुरा सुन कर नाराज हो जाते हैं.

मैं खाना खाने का मुख्य काम करती हूं. खाना दांत चबाते हैं. मगर उन्हें इधरउधर हिलानेडूलाने का काम मैं ही करती हूं. यदि मैं नहीं रहूं तो तुम ठीक से खाना चबा नहीं पाओ. मैं इधरउधर खाना हिला कर उसे पीसने में मदद करती हूं.

मेरी वजह से खाना स्वादिष्ट लगता है. मेरे अंदर कई स्वाद ग्रथियां होती है. ये खाने से स्वाद ग्रहण करती है. उन्हें मस्तिष्क तक पहुंचाती है. इस से ही आप को पता चलता है की खाने का स्वाद कैसा होता है?

जब शरीर में पानी की कमी होती है तो मेरे द्वारा आप को पता चलता है. आप को प्यास लग रही है. कई डॉक्टर मुझे देख कर कई बीमारियों का पता लगाते हैं. इसलिए जब आप बीमार होते हो तो डॉक्टर मुंह खोलने को कहते हैं. ताकि मुझे देख सकें.

मैं दांतों की साफसफाई भी करती हूं. दांत में कुछ खाना फंस जाता है तब मुझे सब से पहले मालूम पड़ता है. मैं अपने खुरदुरेपन से दांत को रगड़ती रहती हूं. इस से दांत की गंदगी साफ होती रहती है. मुंह में दांतों के बीच फंसा खाना मेरी वजह से बाहर आता है.

मेरे नीचे एक लार ग्रंथि होती है. इस से लार निकलती रहती है. यह लार खाने को लसलसा यानी पानीदार बनाने का काम करती है. इसी की वजह से दांत को खाना पीसने में मदद मिलती है. मुंह में पानी आना- यह मुहावरा इसी वजह से बना है. जब अच्छी चीज देखते हो मेरे मुंह में पानी आ जाता है.

कहते हैं जबान लपलपा रही है. या जबान चटोरी हो गई. जब अच्छी चीजें देखते हैं तो जबान होंठ पर फिरने लगती है. इसे ही जबान चटोरी होना कहते हैं. इसी से पता चलता है कि आप कुछ खाने की इच्छा रखते हैं.

यदि जबान न हो तो इनसान के स्वाभाव का पता नहीं चलता है. वह किस स्वभाव का है? इसलिए कहते हैं कि बोलने से ही इनसान की पहचान होती है. यदि वह मीठा बोलता है तो अच्छा व्यक्ति है. यदि कड़वा या बेकार बोलता है तो खराब व्यक्ति है. 

यह सब कार्य मस्तिष्क करवाता है. मगर, बदनाम मैं होती हूं. मन कुछ सोचता है. उसी के अनुसार मैं बोल देती हूं. इस कारण मैं बदनाम होती हूं. मेरा इस में कोई दोष नहीं होता है. 

जबान इतना बोल रही थी कि तभी बेक्टो जाग गया. जबान का बोलना बंद हो गया. 

‘ओह! यह सपना था.’ बेक्टो ने सोचा और आंख मल कर उठ बैठा. उसे पढ़ कर स्कूल जाना था. मगर उस ने आज बहुत अच्छा सपना देखा था. वह जबान से अपनी आत्मकथा सुन रहा था. इसलिए वह बहुत प्रसन्न था.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28/03/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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