हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 121 – लघुकथा – दायरा… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है प्रेमविवाह  एवं नए परिवेश में  पुराने विचारधारा के बीच सामंजस्य पर आधारित अतिसुन्दर लघुकथा  “दायरा … ”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 121 ☆

☆ लघुकथा – दायरा 

मोबाइल पर मैसेज देखकर सुधीर समझ नहीं पा रहा था कि अपनी पत्नी को क्या कहे – – – कि पिताजी ने अकेले ही घर बुलाया है। इसी बीच वैशाली आकर कहने लगी…. मुझे मायके जाना है। हालांकि मेरा वहां कोई नहीं पर, जहां पुराना घर है वहां के सभी लोग मुझे मानते हैं और मम्मी पापा की इच्छा थी कि मैं घर की देखभाल करते रहूँगी।

बस बात बनती देख सुधीर ने चुपचाप हा कह दिया।

तुम अपने घर चली जाना, मुझे ऑफिस के काम से बाहर जाना हैं। आज सुधीर बस में बैठ कर अपने घर  के बारे में सोच रहा था। शायद पिताजी मुझे माफ करेंगे या नहीं क्योंकि कुछ साल पहले जहां पर पढ़ाई करने गया था, वहीं एक लड़की से अपनी पसंद से शादी कर लिया था।

पिताजी अपनी जगह सही थे क्योंकि पुराने ख्यालात और घर परिवार की रजामंदी को सर्वोपरि माना जाता था। शादी के बाद पत्नि को घर लेकर गया किन्तु, पिताजी ने घर के अंदर पैर भी रखने नहीं दिया।

वैशाली ने इसका कोई विरोध नहीं किया चुपचाप रही, सुधीर उल्टे पांव उसको लेकर शहर चला गया था। समय जैसे चलता रहा, कहना चाह रहा हो… जो गलती ने सुधीर किया है वह कोई बड़ी गलती नहीं है। आजकल यह सब होने लगा है।

सुधीर के पिता जी प्राइवेट काम करते थे। आफिस में कुछ रुपये पैसों का बड़ा घोटाला हुआ। उसकी वजह से कार्यवाही हुई अपनी सफाई में सुधीर के पिताजी कुछ नहीं कह सके!!! इस कारण उनको निकाल दिया गया था। घर की स्थिति बिगड़ने लगी थी। किसी तरह वैशाली को पता चला। अपनी सादगी, सहजता और कार्यकुशलता से सास ससुर को सहायता करने लगी।

जिसका सुधीर को बिल्कुल भी एहसास नहीं था परंतु बाप बेटे के मनमुटाव को कम नहीं कर सकी।

पिताजी अपनी अड़ी पर थे.. बेटा आकर माफी मांग ले और सुधीर संदेह में रहा.. कि शायद पिताजी माफ नहीं करेंगे।

बस रुकते ही बैग उठा पगडंडी के रास्ते घर के दरवाजे पर पहुंचा। सामने पिताजी की गोद में अपनी बिटिया को देखकर कुछ देर के लिए आवाक हो गया।

आंखों पर ज़ोर देकर फिर से देखा.. हाथ में पानी का गिलास लिए वैशाली निकलकर दरवाजे पर खड़ी थी। पिताजी ने अपने अंदाज में कहा…बहू समझा दे इसको बेटा ही घर का चिराग, सहारा या बैसाखी नहीं होता.. बहू भी बन सकती है।

सुधीर पिता जी के इस बदले रुप को समझ नहीं पाया।

गिलास ले कर एक ही सांस में पानी पी डाला। उसकी समझ में अब आने लगा कि जब भी बाहर होता था वैशाली अपने ही मायके जाने की जिद करती थी। आज समझ में आया वह मायके नहीं उसके घर आती थीं।

पिताजी और मां का सहारा बन चुकी वैशाली विश्वास, दया, ममता और मां पिता जी की बेटी बन चुकी थी।

सिर झुकाए वह वैशाली के प्रति कृतज्ञ था कितना विशाल दायरा है। वह झूठ बोल कर उसे क्या समझाना चाह रहा था?

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 85 – दोषारोपण ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #85 – 🌻 दोषारोपण 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक आदमी रेगिस्तान से गुजरते वक़्त बुदबुदा रहा था, “कितनी बेकार जगह है ये, बिलकुल भी हरियाली नहीं है और हो भी कैसे सकती है यहाँ तो पानी का नामो-निशान भी नहीं है।

तपती रेत में वो जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था उसका गुस्सा भी बढ़ता जा रहा था. अंत में वो आसमान की तरफ देख झल्लाते हुए बोला- क्यों भगवान आप यहाँ पानी क्यों नहीं देते? अगर यहाँ पानी होता तो कोई भी यहाँ पेड़-पौधे उगा सकता था और तब ये जगह भी कितनी खूबसूरत बन जाती!

ऐसा बोल कर वह आसमान की तरफ ही देखता रहा मानो वो भगवान के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हो! तभी एक चमत्कार होता है, नज़र झुकाते ही उसे सामने एक कुंवा नज़र आता है!

वह उस इलाके में बरसों से आ-जा रहा था पर आज तक उसे वहां कोई कुँवा नहीं दिखा था… वह आश्चर्य में पड़ गया और दौड़ कर कुंवे के पास गया। कुंवा लाबालब पानी से भरा था. 

उसने एक बार फिर आसमान की तरफ देखा और पानी के लिए धन्यवाद करने की बजाये बोला – “पानी तो ठीक है लेकिन इसे निकालने के लिए कोई उपाय भी तो होना चाहिए !!”

उसका ऐसा कहना था कि उसे कुँवें के बगल में पड़ी रस्सी और बाल्टी दिख गयी।एक बार फिर उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ! वह कुछ घबराहट के साथ आसमान की ओर देख कर बोला, “लेकिन मैं ये पानी ढोउंगा कैसे?”

तभी उसे महसूस होता है कि कोई उसे पीछे से छू रहा है,पलट कर देखा तो एक ऊंट उसके पीछे खड़ा था!अब वह आदमी अब एकदम घबड़ा जाता है, उसे लगता है कि कहीं वो रेगिस्तान में हरियाली लाने के काम में ना फंस जाए और इस बार वो आसमान की तरफ देखे बिना तेज क़दमों से आगे बढ़ने लगता है।

अभी उसने दो-चार कदम ही बढ़ाया था कि उड़ता हुआ पेपर का एक टुकड़ा उससे आकर चिपक जाता है।उस टुकड़े पर लिखा होता है –

मैंने तुम्हे पानी दिया,बाल्टी और रस्सी दी। पानी ढोने  का साधन भी दिया,अब तुम्हारे पास वो हर एक चीज है जो तुम्हे रेगिस्तान को हरा-भरा बनाने के लिए चाहिए। अब सब कुछ तुम्हारे हाथ में है ! आदमी एक क्षण के लिए ठहरा !! पर अगले ही पल वह आगे बढ़ गया और रेगिस्तान कभी भी हरा-भरा नहीं बन पाया।

मित्रों !! कई बार हम चीजों के अपने मन मुताबिक न होने पर दूसरों को दोष देते हैं। कभी हम परिस्थितियों को दोषी ठहराते हैं,कभी अपने बुजुर्गों को,कभी संगठन को तो कभी भगवान को ।पर इस दोषारोपण के चक्कर में हम इस आवश्यक चीज को अनदेखा कर देते हैं कि – एक इंसान होने के नाते हममें वो शक्ति है कि हम अपने सभी सपनो को खुद साकार कर सकते हैं।

शुरुआत में भले लगे कि ऐसा कैसे संभव है पर जिस तरह इस कहानी में उस इंसान को रेगिस्तान हरा-भरा बनाने के सारे साधन मिल जाते हैं उसी तरह हमें भी प्रयत्न करने पर अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए ज़रूरी सारे उपाय मिल सकते हैं.

👉 दोस्तॊ !! समस्या ये है कि ज्यादातर लोग इन उपायों के होने पर भी उस आदमी की तरह बस शिकायतें करना जानते है। अपनी मेहनत से अपनी दुनिया बदलना नहीं! तो चलिए, आज इस कहानी से सीख लेते हुए हम शिकायत करना छोडें और जिम्मेदारी लेकर अपनी दुनिया बदलना शुरू करें क्योंकि सचमुच सब कुछ तुम्हारे हाथ में है !!

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! (सम्पूर्ण यात्रा वृत्तांत) ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! (सम्पूर्ण यात्रा वृत्तांत) ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(ई-अभिव्यक्ति द्वारा अपने प्रबुद्ध पाठकों के लिए डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी  के अत्यंत रोचक यात्रा वृत्तांत “काशी चली किंगस्टन!” को धारावाहिक रूप से 21 भागों में प्रकाशित किया गया है। पाठक एवं  लेखक मित्रों के विशेष अनुरोध एवं उनकी सुविधा के लिए हम यहाँ पर सम्पूर्ण यात्रा वृत्तांत के लिंक्स  ई-बुक के स्वरुप में  प्रकाशित कर रहे हैं। आशा है आपको यह प्रयोग पसंद आएगा। आप अपनी सुविधानुसार निम्न लिंक्स पर क्लिक कर सम्पूर्ण यात्रा वृत्तांत पढ़ सकते हैं।)

 

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 1  – ज़फर के शहर में

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 2 – पहली उड़ान 

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 3  –  मझधार

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 4  –  हम हैं ऊपर, आसमाँ नीचे

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 5  –  परदेश

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 6  –  किंग्सटन

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 7  –  नायाग्रा

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 8  –  नायाग्रा जलप्रपात

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 9  –  प्रपात के पीछे

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 10  –  नीहार- नंदिनी

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 11  –  अंबुनाथ का दरबार

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 12  –  चल घर राही आपुनो

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 13  –  बेटी का घर

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 14  –  क्वीनस् यूनिवर्सिटी और किंग्सटन

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 15  –  कैटारॅकी नदी और कैटारॅकी मार्केट

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 16  –  उतरा भूत मेपल की डाल से

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 17  –  हजार द्वीपों का सफर

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 18  –  पंचमेल खिचड़ी

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 19  –  जंगल जंगल पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है! (गुलज़ार)

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 20  –  घूमने को जगह और भी हैं कनाडा में, किंग्सटन के सिवा

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 21  –  पूरब की ओर

 

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 21 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 21 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

पूरब की ओर

ज्यों ज्यों जाने का दिन नजदीक आ रहा था, त्यों त्यों झूम के चेहरे पर उदासी के बादल मँडराने लगे। आखिर वो दिन तो आ ही गया….दुनिया के मेले में हम सब आते हैं, जीवन-नाटक करके फिर क्या पाते हैं ?

आज 29 जुलाई है। बुधवार। बरामदे में बैठे केवाईसी के मैदान की ओर देख रहा हूँ। सोमवार को तो कई बच्चे आये थे। साथ में उनकी माँ या डैडी। बीच बीच में इन्सट्रक्टर आकर निर्देश दे रहा था। फिर कोई खेलने लगता, कोई योगा करता तो कोई नाव लेकर झील पर निकल जाता। पर देख रहा हूँ, आज केवाईसी में कुछ कम ही बच्चे खेलने आ रहे हैं। उतनी चहल पहल नहीं है।

सुबह 11 बजे घर से रवाना दिया था। नाश्ते में सिन्नी। तुर्की शब्द शिरिनी से यह बांग्ला शब्द बना है। बंगालिओं के घरों में एकादशी या पूर्णिमा के दिन या विवाह, उपनयन या अन्नप्राशन जैसे शुभ अनुष्ठानों के पश्चात सत्यनारायण भगवान के लिए थैंक्स गिविंग सेरिमनी होती है। उसमें सिन्नी बनाना अनिवार्य है। मैदा, दूध, नारियल की खुरचन एवं केले आदि से। बतासे के साथ तो यह अमृत बन जाती है। अब देखिए, हमारे घरेलू जीवन की इतनी रोजमर्रे की पूजा में जो चीज बनती है, उसका नाम तो तुर्की से ही आया है। तो -?

 झूम ने कल रात ही यह बनाकर भगवान एवं बालगोपाल को भोग चढ़ाया था। आज नाश्ते में वही है। कहा जाता है अतिथि जब घर से चलने लगते हैं तो अपनी थाली को बिलकुल सफा चट करके न खायें। चावल व सब्जी के दो दाने छोड़ते जायें। ताकि इस घर में फिर से उनकी थाल लगे। झूम की सास ने उसे यह सब खूब बताया है। उसने हमदोनों से कहा,‘बाबा, माँ, सब कुछ खा मत लेना। दो चार दाने थाली पर छोड़ते जाना।’

स्वाभाविक है बेटी चाहती है कि उसके बाबा माँ उसके पास दोबारा आये। मगर हम जैसों के लिए बारबार सागर पार आना क्या इतना आसान है?

रास्ते में दो जगह जैम मिला। पहले तो किंग्सटन पार करते करते हाईवे पर जैम। रुपाई राजधानी ओटावा जाने वाली सड़क से होकर आगे बढ़ा। दूसरी जगह एक एक्सिडेंट हुआ था। मगर मजाल है कि कोई कतार तोड़ कर पंक्ति को ठेंगा दिखाकर आगे बढ़े? सब शंबूक गति से चलते जा रहे हैं।

हमारे दाहिने वही सेंट लॉरेन्स नदी। नदी किनारे वही सुंदर सुंदर एक तल्ले या मुश्किल से दो तल्ले मकान। पेड़ पत्तियों से भरे अपने सर हिला हिला कर हमें अलविदा कर रहे हैं। खलील गिब्रान (जन्मःः6 जनवरी,1883,ब्शारी, लेबानन, ऑटोमन सीरिया में, मृत्युःः10 अप्रैल 1931, 48 साल की उम्र में न्यूयार्क सीटी, अमेरिका में। वे कवि, चित्रकार, लेखक, दार्शनिक क्या नहीं थे?) ने उनके लिए लिखा है :- पेड़ वे कविताएँ हैं, जो धरती ने आकाश पर लिखी है ! तो भाई पेड़ों को काटने का मतलब है सारी कविताओं का, जिन्दगी के समूचे रस का सत्यानाश!

बीच बीच में दोनों ओर मक्के के खेत। रुपाई कह रहा था बायोफुयेल के चक्कर में गेहूँ वगैरह की पैदावर कम करके सभी इसी क्रैश क्रॉप की तरफ जा रहे हैं। भविष्य में इंसान खायेगा क्या? फुएल, कंक्रीट और रुपये ?

मॉन्ट्रीयल घुसने के बाद तो एअरपोर्ट पहुँचने के लिए जलेबिया पेंच से गुजरना पड़ता है। यहाँ बायें, वहाँ दायें। फिर पीछे 406 नम्बर सड़क से उधर 56 में। बापरे!कार के सामने लगे मोबाइल से अनवरत दिशानिर्देश। गुगल मैप से कह रहा हैः- यहाँ से 300मी. जाकर बायें मुड़िये। आप इस समय पैगामॉन्ट शहर में प्रवेश कर रहे हैं। आदि इत्यादि वगैरह…..

यूल एअरपोर्ट में प्रवेश हो चुका है। चेक इन लगेज का हस्तांतरण हो गया। सिक्योरिटी क्लीयरेंस के पहले हम थोड़ी देर बेटी दामाद के संग समय बीता रहे हैं। झूम की मां का केबिन बैगेज कुछ फुला हुआ था। वजन स्वीकृत भार से ज्यादा नहीं। झूम के कानों पर रुपाई का ग्रामोफोन बजने लगा,‘यह इतना मोटा कैसे हो गया? तुमने पहले से चेक नहीं किया? दिल्ली से स्पाइस जेट से बनारस जाने में होगी दिक्कत। डोमेस्टिक फ्लाइट में सात किलो ही ले जा सकते हैं।’

‘अरे उसमें माँ का हैन्ड बैग है, बस। वजन कुछ भी नहीं।’ मेरी बेटी समझाने लगी।

मगर वह मास्टरी करने से बाज कहाँ आता?, ‘बाबा माँ को तो मजा लेते हुए आराम से जाना चाहिए। क्या इनको तकलीफ देने के लिए हमलोगों ने यहाँ बुलाया है? वगैरह वगैरह’…. सुभाषितम्

मेरी मुनिया कितना समझाये ?

आते हुए मॉन्टी्रयल में एक जगह ‘‘ढाबे’’ पर उतरा था, चारों ओर सब फ्रेंच में ही लिखा था। एअरपोर्ट में भी ज्यादातर घोषणायें फ्रेंच में। फिर वही अंग्रेजी और फं्रासीसी के झगड़े में फँसा बेचारा हिन्दुस्तानी बनारसी बाबू मोशाय।

आते समय तारीख के हिसाब से केवल एक(?) ही दिन में यानी 30 तारीख भोर के पहले दिल्ली से रवाना होकर तीस तारीख की शाम को यूल पहुँच गये थे। मगर जाते समय 29,30 और 31 …..तारीख के हिसाब से तीन दिन लग रहे हैं। सूर्योदय पहले उधर ही जो होता है।

अब और क्या कहें? चलते वक्त बेटी के सर पर सिर्फ हाथ फेरता रहा। मुँह से एक शब्द भी न निकला। रुपाई को गले लगाया। उसकी माँ मुझसे काफी मजबूत है। उसने झूम को सीने में जकड़ लिया। बेटी के कानों में कुछ कह रही है। मैं कुछ कह क्यां नहीं पा रहा हूँ ?

पीछे रह गयी सुख स्मृतियां, केवल अनदेखे आँसुओं को पलकों में छुपाये हम परिन्दे पर चढ़ बैठे। कनाडा की भूमि, तुम्हें सलाम! तुम्हारी गोद में ही हम छोड़ जा रहे हैं हमारे बिटिया दामाद को।

वापसी में तो बहुत कुछ वैसा ही। यूल से ऐम्सटर्डम की फ्लाइट में तो सफाई ठीक ठाक थी। मगर ज्यों ज्यों ऐम्सटर्डम से हम दिल्ली की नजदीक पहुँचते गये वाश रुम में हम लोगों का ठप्पा लगता गया। प्लेन में हम ही लोगों का बहुमत जो था। नतीजतन बेसिन का पानी नीचे जा नहीं रहा था। कारण? सूर्ती या गुटका का नाम सुना है आपने? या अल्लाह, हम आखिर ऐसे क्यों हैं ?

फिर दिल्ली में जब एअरपोर्ट के निकास द्वार के पास रात में बैठा था, तो एकबार वाशरुम जाना पड़ा। देखा कि एक सज्जन ने जब बेसिन में अपना हाथ धो लिया, तो एक सफाई कर्मचारी ने तुरंत चार पॉच टिशू पेपर उनकी ओर बढ़ा दिया। लगा इतनी अच्छी आव भगत! मगर तुरंत देखा दस रुपया रूपी लक्ष्मी का हस्तांतरण। मामला समझ में आ गया।

रात्रि के करीब एक बजे हम इन्दिरागांधी एअरपोर्ट के ऊपर गगन में चक्कर काट रहे थे। सामने स्क्रीन पर सूचनायें आ रही थीं। आप अपने गन्तव्य से 32 किमी दूर है, 19 किमी दूर हैं, फिर 27 किमी। यह कैसे भाई? दूरी घट कर बढ़ गयी, क्यों ? मैं गलत तो नहीं न लिख रहा हूँ ? एकबार चाँद दीख गया। पूर्णिमा करीब है? फिर देखा नीचे धरती पर जाने कितने तारे बिखरे पड़े हैं। झिलमिलाती दिल्ली। इतना सुंदर! आँखों ने मन से कहा,‘देख लो जी भर के।’ मन पूछता है,‘ऐसा ही झिलमिलाता रूप हमारे देश के हर घर का नहीं हो सकता ?बोलो चुप न रहो।’

आह, दुष्यंत कुमार, आप ने यह क्यों लिखा ? :- कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए, / कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए। हे कवि कहिए – कब ये हालात बदलेंगे?

मातृभूमि में उतर कर एअरपोर्ट में नब्बे रुपये की एक चाय से हम ने उदर को पहला संदेशा भेजा। चलो बनारस की दहलीज पर हम खड़े हैं। भोर होते होते डोमेस्टिक एअरपोर्ट जाने के लिए बस की लाइन में लग गये। जिन लोगों ने यह फ्री टिकट नहीं लिया, उन्हें बस में चढ़ने के बाद दक्षिणा देनी पड़ी।

इसे नमक हरामी न समझे। आते समय डोमेस्टिक एअरपोर्ट पर हमने ब्रेड पकौड़ा लिया था। 106 के दो। बिलकुल चीमड़। लग रहा था कब घर पहुँचे। वहाँ सिगरा सिटी बस स्टैंड का माहौल था। एक एक द्वार के सामने खड़ी एअरहोस्टेस चिल्ला रही हैं,‘जयपुर! जयपुर! प्लेन अब छूटनेवाला है।’ कोई उधर से हाँक रही हैं, ‘मुंबई के तीन यात्री अभी नहीं आये। उनके नाम हैं ……!’ फिर,‘बेंगलूरूवाले इधर आइये।’बिलकुल प्राइवेट बस कंडक्टर के अंदाज में सब चिल्ला रही हैं। बाकी है तो बस प्लेन की दीवार को पीटना ….ढम्…ढम्…ढम्….

सामने देखा गेरुआ धोती पहने एक सन्यासी चक्कर काट रहे हैं। मैं समझ गया हम मार्गभ्रष्ट नहीं हुए हैं। हो न हो, हमारी मंजिले मक्सूद एक ही है।

अबकी बार फिल्मों की तरह बस से चढ़कर प्लेन तक पहुँचा। सीढ़ी चढ़कर हुआ गरूड़ासीन। क्रीऊ मेम्बर में बस दो। चलो चलो जल्दी चलो। उड़ो आसमां में।

मन उतावला। वहाँ घर में अबतक क्या होता रहा! फोन पर बातें तो होती रहीं, फिर भी ….। उबासी, आँखें मुँदी जा रही हैं। वक्त क्या ठहर गया? प्लेन उड़ रहा है न?

वो रहा अपना बनारस! नीचे वरुणा की रेख। अब प्लेन से उतरिये जनाब। यहाँ भी रिमझिम हो रही है। जल्दी से ऊँचे आँगन पर लपक कर चढ़ गये। घुटने से बेपरवाह। बाहर मेरा भतीजा और साला अपनी छोटी सी कार लेकर खड़े हैं। मैं चिल्लाता हूँ,‘ताऊ रे – !’

वो मेरा ताऊ, और मैं उसका ताऊ। वो फोटो खींच रहा है – हमारे आगमन का। हँसते हुए आ गया। पता चला आज ही उसे वापस बंगलूरू जाना है। मैं ने एक चांटा जमा दिया,‘ एकदिन और ठहर नहीं सकता था?’

‘क्या करूँ ताऊ? छुट्टी जो नहीं मिली।’

मैं चुप। हाँ, हमारे बच्चे बड़े हो गये हैं। उनके लिए हमारी गोद तो काफी छोटी पड़ गयी है। कार चल निकली।

पंछी अब अपने घोंसले की ओर जा रहा है। बाबतपुर से बनारस। जनवादी शायर मेयार सनेही के हरहुआ गाँव में देखा लड़कियॉँ बैग पीठ पर लादे स्कूल जा रही हैं। आजकल इन जगहां में भी कितनी चहल पहल रहती है। बस, कुछेक साल पहले यहाँ वीरानी छाई रहती थी।

राहे जिन्दगी पर सबका सफर जारी है। हम सब तो बस मुसाफिर हैं। थक कर बैठ सकते हैं। चोट लगने पर आह कर सकते हैं। तन या मन में आघात लगे तो रो सकते हैं। फिर किसी साथी का हाथ थाम लेंगे। और चलते रहेंगे ……

इस घुमक्कड़ परिन्दे को इस समय रवीन्द्रनाथ की दो पंक्तियॉँ याद आ रही हैं (कतो अजानारे जानाइले तुमि, कतो घरे दिले ठॉँई……) अन्जानों को मैं ने जाना/घर घर जाकर ठौर बनाया/निकट दूर को करके देखा /भाई बन वो चलकर आया!

और इस समय …………अब कितनी देर में पहुँचेंगे अपने घर ? आज पिताजी माताजी इस धरती पर होतें तो बैठे सोचते रहते -‘बेटा बहू कब घर पहुॅँचेगा? कनाडा से आने में भला क्या इतनी देर लगती है?’ चलो चलो….. चले चलो……

हम तो पच्छिम से पूरब की ओर चले जा रहे हैं। और पूर्वदिशा में ही न होता है एक नया सूर्यादय ? 

 – समाप्त – 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 103 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 14 – बरस लगेंगी ऊतरा… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 103 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 14 – बरस लगेंगी ऊतरा… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (14)  गतांक से आगे

रामायण पाण्डे कथा भी बाँच लेते और थोड़ी बहुत जानकारी ज्योतिष की भी रखते थे। गाँव के लोग अक्सर गुमे हुये गाय बैल व चोरी गई चीजों का पता लगाने पांडेजी के पास आते और कार्य सिद्ध हो जाने पर अपने खेत से उपजी भाटा-भाजी, कुम्हड़ा, लौकी, तरोई  आदि  उन्हे दक्षिणा में दे जाते। बरसात आती तो किसान मंदिर में रामायण को घेर बैठ जाते और बरखा कब होगी या नक्षत्रों की स्थिति पूंछते । रामायण अपना पंचांग निकालते और गणना कर बताते कि

“बरस लगेंगी ऊतरा, माँड पियेंगे कूतरा।“  (ऊतरा नक्षत्र लगते ही वर्षा शुरू हो गई है इसलिए  बाकी नक्षत्रों में भी पानी खूब बरसेगा)

जब चित्रा नक्षत्र लग जाता और बारिश होने लगती तो रामायण किसानों को सलाह देते

“चित्रा बरसें तीन भये, गोऊँ सक्कर माँस। चित्रा बरसें तीन गये, कोदों तिली कपास॥“

(चित्रा नक्षत्र में पानी बरसने वाला है इसलिए गेहूँ और गन्ना की फसल अच्छी होगी पर कोदों तिली व कपास मत बोना इसकी फसल खराब होगी।)

कभी कभी तो रामायण दो तीन महीने पहले ही अकाल की भविष्यवाणी कर देते। जब किसान घबरा कर कारण पूंछते तो कहते कि

“पंचमी कातिक सुकल की , जो होबैं सनिवार। तौ दुकाल भारी परें ,मचिहै हाहाकार॥ “

(इस बार कार्तिक शुक्ल पंचमी को शनिवार का दिन पड़ने वाला है इसलिए भारी अकाल पड़ेगा पहले से व्यवस्था रखो )

कभी कभी औरतें भी मंदिर आती और पंडिताइन के पास बैठ जाती गप्पें करती और अपना भविष्य जानने के लिए धीरे से उकसाती। औरतों को बस दो ही चिंता होती एक अगली संतान मौड़ा होगा  की मौड़ी और दूसरी पिछले साल जन्मा मौड़ा जिंदा रहेगा कि नहीं।

ऐसी ही सास बहू की जोड़ी को रामायण ने एक दिन मंदिर की ओर आते देखा। ‘दोनों पेट से थी’ , रामायण समझ गए कि कैसा प्रश्न सामने आने वाला है। उन्होने पंडिताइन से कहा

‘भागवान तुमाए जजमान आ रय हें, लाओ हमाइ पोथी पत्रा दे देओ’।

सास बहू ने आते ही पहले पंडिताइन को पायें लागी कहा और फिर ओट से पंडित जी को। ‘सूखी रहा का’ आशीर्वाद से दोनों को संतोष न हुआ और दोनों एक साथ अपने बढ़े हुये पेट पर हाथ का इशारा कर पूंछ बैठी ‘ का हुईहे महराज।‘ 

रामायण चुप रहे तो सास बोल पड़ी जा बहू तो चार चार मौडियन की मतारी हो गई है हमाओ कुल कैसे चलहे महराज ।‘

रामायण उस दिन कुछ ज्यादा ही मूड में थे बोल उठे

‘सास बहू की एकई सोर, लच्छों कड़ गई पांखा फोर।‘ (जहाँ सास बहू का प्रसव एक साथ होता है, वहाँ लक्ष्मी नहीं टिकती और पांखा(दीवार) फोड़कर भी  निकल जाती है, परिवार गरीब हो जाता है।)

सास को रामायण का यह व्यंग्य समझ में न आया, बहू से बोली पंडितजी को दंडवत करो और मौड़ा पैदा हो ऐसा आशीर्वाद माँगो।

अब रामायण से रहा न गया मन ही मन सोचा कि कैसी सास है बहू पेट से है और उसे दंडवत प्रणाम करने को कह रही है। खैर बिना विलंब किए उन्होने पुत्र होने की आशीष दी पर सास को इंगित कर यह कहावत भी जड़ दी

‘सावन घोरी भादों गाय, माघ मास जो भैंस ब्याय। जेठे बहू आषाढ़ें सास, तौ घर हू है बाराबाट॥‘

(जिस घर में सावन में घोड़ी, भादों में गाय व माघ मास में भैंस बियाती है और जेठ में बहू तथाआषाढ़ में सास का प्रसव होता है तो ऐसा घर बुरी तरह विनष्ट हो जाता है।) 

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 26 – स्वर्ण पदक – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)   

☆ कथा कहानी # 26 – स्वर्ण पदक🥇 – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

नलिन कांत बैंक की शाखा के वरिष्ठ बैंकर थे. याने सेवानिवृत्त पर आदरणीय. उन्हें मालुम था कि मान सम्मान मांगा नहीं जाता, भय से अगर मिले तो तब तक ही मिलता है जब तक पद का भय हो या फिर सम्मान देने वाले के मन में भय अभी तक विराजित हो. मेहनत और ईमानदारी से कमाया धन और व्यवहार से कमाया गया मान अक्षुण्ण रहता है, अपने साथ शुभता लेकर आता है. नलिनकांत जी ने ये सम्मान कमाया था अपने मधुर व्यवहार और मदद करने के स्वभाववश.

उनके दो पुत्र हैं स्वर्ण कांत और रजत कांत. नाम के पीछे उनका केशऑफीसर का लंबा कार्यकाल उत्तरदायी था जब इन्होने गोल्ड लोन स्वीकृति में अपनी इस धातु को परखने की दिव्यदृष्टि के कारण सफलता पाई थी और लोगों को उनकी आपदा में वक्त पर मदद की थी. उनकी दिव्यदृष्टि न केवल बहुमूल्य धातु के बल्कि लोन के हितग्राही की साख और विश्वसनीयता भी परखने में कामयाब रही थी.

बड़ा पुत्र स्वर्ण कांत मेधावी था और अपने पिता के सपनों, शिक्षकों के अनुमानों के अनुरूप ही हर परीक्षा में स्वर्ण पदक प्राप्त करता गया. पहले स्कूल, फिर महाविद्यालय और अंत में विश्वविद्यालय से वाणिज्य विषय में स्वर्ण पदक प्राप्त कर, अपनी शेष महत्वाकांक्षाओं को पिता को समर्पित कर एक राष्ट्रीयकृत बैंक में परिवीक्षाधीन अधिकारी याने प्राबेशनरी ऑफीसर के रूप में नियुक्ति प्राप्त कर सफलता पाई. बुद्धिमत्ता, शिक्षकों का शिक्षण, मार्गदर्शन और मां के आशीषों से मिली ये सफलता, अहंकार से संक्रमित होते होते सिर्फ खुद का पराक्रम बन गई.

क्रमशः …

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 20 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 20 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

घूमने को जगह और भी हैं कनाडा में, किंग्सटन के सिवा

जैसे जैसे रुपाई को मौका मिलता वह हमें लेकर आस पास के दर्शनीय स्थलों को घुमा ले आता। रोज ही बिटिया का मुँह और सूखने लगता – वापस जाने के दिन जो नजदीक आने लगे हैं। मगर क्या करूँ?

‘आज हम नैपानी चलेंगे। वहाँ जंगल है, खेत है, रास्ते के दोनों ओर सुंदर सुंदर कॉटेज हैं। एक छोटा सा कस्बा है नैपाची।’ रुपाई प्रदत्त इन्फार्मेशन।

रास्ते में बारिश शुरु हो गई। खेतों पर छोटे छोटे ट्रैक्टर चल रहे हैं। दोनों ओर मक्के के खेत। और वो देखिए लकड़ी के बने खलिहान। कितने बड़े हैं! खलिहान के पीछे अंदर की गर्मी निकलने के लिए चिमनी बनी है।

ओडेशा टाउन के पास एक जगह लिखा है लॅयालिस्ट विलेज। फिर वही इतिहास। यानी यहाँ के लोग ब्रिटिश शासन के समर्थक थे। फ्रांसीसिओं के नहीं। ऐसे आपको और जगह भी देखने को मिलेंगे।

कार जहाँ पार्क की गई उसकी बगल में अद्भुत सब पत्थरों से दीवार या बाड़नुमा बनी है। उन पत्थरों पर आप एक एक स्तर को देख सकते हैं। कुछ ऐसे ही पत्थर हैं जोशीमठ के आगे बद्रीनाथ के रास्ते पर। केदार के रास्ते दूसरे ढंग के पत्थर हैं। इन पत्थरों की दास्तान भी जरा सुनिए। पंद्रह हजार साल पहले लौरेनटाइड बर्फ की परत बनी थी, जो बारह हजार साल पहले पिघलने लगी। इसी से ग्लेशियल लेक का निर्माण हुआ। बनी ऑन्टारिओं झील। एक जगह यह पूरी दास्तान लिखी हुई है।

यहाँ नैपानिस नदी से निर्झर निकल कर दाहिने से बांये बहती जा रही है। नदी पर दो पुल बने हैं। एक पास में। दूसरा वहीं दूर। सामने एक फव्वारा छलाँग लगा रहा है। सामने नदी की धारा के बीच पत्थरों की सेज पर माँ बतख अपने बच्चों के साथ सो रही है। उसकी चोंच पीछे पीठ पर पंखों के बीच अलसायी सी पड़ी हुई है। कभी कभी गले को तान कर माँ नेक एक्सरसाईज कर ले रही है। बच्चे टुकुर टुकुर माँ को निहार रहे हैं। दोस्त, केवल दृश्यों का मजा लूटिए। इन नयन मनोहर नजारों से अपने नयनों को तृप्त कीजिए। निर्झर के गीत सुनिए। बस…….

यहाँ से हम पहुँचे बाथ। इंग्लैंड के बाथ से ही यह नाम लिया गया है। यहाँ लॅयालिस्ट क्लब भी है। एक जगह इंग्लैंड का यूनियन जैक लटक रहा है। एंग्लिकन चर्च से आगे हम पहुँचे बाथ म्यूजियम। झील के किनारे होने के कारण यहाँ प्राचीन काल में मछलिओं का व्यवसाय ही होता रहा। तो फैक्टरी लेन की पुरानी फिशरी बिल्डिंग के तराजू वगैरह रक्खे हुए हैं। पंसारी के तराजू में एक पैन एक तरफ, जिस पर सामान रखा जाता था। और स्केल पर पाँच पाउंड के बाट को खिसका कर दूरी के अनुसार उसका वजन कर लिया जाता।

यहाँ के सर्वप्रथम अधिवासी मछली पकड़ते थे। फिर बच जाने पर बेचने लगे। उस समय बार्टर यानी सिर्फ माल का लेन देन करके ही व्यवसाय होता था। फिर उद्योग बना और मछलियां निर्यात की जाने लगी। काशी पर ऐसा कोई म्यूजियम है?

यहाँ रूथ डुकास की पेंटिंगस हैं। वही कनाडा के चित्र बनाने वाले सर्वप्रथम चित्रकार हैं। उनके बने चित्रों में रेड इंडियनस् के पास कोई घोड़ा नहीं है। आखिर घोड़ा तो पर्तुगीज/स्पेनीश लोग ही यहाँ लेकर आये थे। वो देखिये अल्मारी के भीतर लौरेन्टाइन आर्चाइक काल की कुल्हाड़ी का मोटा सेल्ट से बना अगला हिस्सा, जिससे चोट की जाती है, वो रखा है। उधर ग्राउन्ड स्लेट से बने भाले का अग्रभाग। अरे मैडम, वो है आपलोगों की पसंद की चीज। उस जमाने की इस्त्री। पहिये पर खड़ा एक पुराना वाशिंग मशीन। अरे इसके ऊपर एक नन्हे से बास्केट में दो तीन साबुन के टुकड़ें भी हैं। और मिट्टी के बने उन तंबाकु सेवन की पाइप को तो देखिए। साथ ही मिट्टी के बर्तन।

इतने अच्छे म्यूजियम देखने के बाद हम लौट चले। उस रोज वुल्फ आइलैंड से लौटते समय तो एक और तमाशा हो गया था। रुपाई ने कहा था – डेढ़ बजे की फेरी है। जल्दी जल्दी वहाँ पहुँचे तो पता चला सवा एक बजे जहाज चल चुका है। अगली फेरी ढाई बजे। चलो कर लो इंतजार। एक घंटा हाथ पर हाथ धरे बैठे रहो। ऊपर चिलचिलाती धूप। पेट में छछूंदर का तहलका। डन बैठकी। रुपाई के मुखमंडल पर दार्शनिक चिंतन के मेघ। मैं श्रीमती के कान में भुनभुनाता हूँ,‘ये लोग आसानी से खाने पीने का सामान साथ ला सकते थे। मगर सब केवल डरते हैं कि भोजन साथ ले जाना अनुमोदित है कि नहीं। अरे भाई अंदर न ले जाने देते तो वहीं बैठे गपर गपर खा लेते, और क्या?’

मिजाज का उतार चढ़ाव देखने से अच्छा है कि हम चलें लहरों की उछल कूद देखें। मैं, झूम और उसकी माँ जेटी के पास टहलने लगे। रुपाई कार को इंतजार करनेवालों की लाइन में लगा कर उसी में बैठा रहा। बाहर धूप, पर भीतर कुछ ठंडा। वहाँ और दो एक सैलानी टहल रहे हैं। एक कोरियन लड़की ने हमारी फोटो खींच दी। हमने मुस्कुराते हुए कहा,‘थैंक्यू !’

जहाज जहाँ लगता है वहाँ जेटी पर लिखा है एमर्जेन्सी एव्याकुएशन (अंग्रेजी) या ‘एव्याकुएशन द्य अरजेन्स’(फ्रेंच)। फ्रांसीसी का मजा देखिए – फारसी अरबी की तरह – ‘जन्नत की राह’ के लिए ‘राहे जन्नत’!

यहाँ की घड़िओं की बैटरी कभी खतम नहीं होती है क्या? वाह रे वक्त की पाबंदी। ठीक 2.20 पर जहाज का आगमन। दूर से उसका भोंप सुनाई पड़ा। जेटी पर लगते ही उधर के यात्री इस पार उतर रहे हैं। फिर हमारी पारी। चढ़ने लगे। एक के बाद एक गाड़ियाँ। सामने साईकिल सँभाले हुए खड़े हैं बच्चे, बूढ़े, बुढ़िया। यहाँ उम्रदराज महिलायें भी मन की मलिका होती हैं। फेशियल करवा रही हैं, तरह तरह के नेल पॉलिश लगा रही हैं, टैटू करवा रही हैं, साईकिल लेकर वुल्फ आइलैंड घूमने आई हैं। और हमारे यहाँ ?-‘अब का होई बचवा? जिनगी में का धरल हौ? पता नाहीं भगवान हम्में काँहे नांही बुला ले थउअन कि यहू दिन देखे के पड़ थौ!’ फिर बहू बेटे की समालोचना या परम बेचारे भगवान को कोसना।

और वक्त की पाबंदी? महाशय, जरा सोचिए हमारे ही देश में दक्षिण में अगर कोई ट्रेन 3.20 पर छूटती है तो वह 3.30 भी नहीं होता। क्यों और कैसे? मगर हमारे इलाके में? ‘अरे भइया, दू तीन घंटा लेट कौनो लेट हौ? अगर उ टरेन आता (‘आती’ नहीं) ही नहीं, तो आप का उखाड़ लेते? अरे कितनी बार तो सिंगल (सिग्नल) डाउने नहीं होता। जल्दी बाजी में कहीं एक्सिडेंटे हो जाए तो सीधे घर नहीं जमलोक पहुँच जाइयेगा।’ प्रवचन सुधा सुनिए।

बारंबार मैं अपने देश की बात क्यों इस भ्रमण कथा में लिख रहा हूँ ? मैं अगर किसी दूसरे की माँ को देखूँ कि वह सुंदर बनारसी पहन रक्खी हैं, उनके गले में हाथां में सोने के सुंदर गहने हैं और मेरी माँ तो बस फटी साड़ी में ही घूम रही हैं, तो मेरे मन में टीस नहीं होगी? इतना सुंदर होते हुए भी मेरा मादरे वतन इतना असुंदर क्यों है? हम उसके लिए कर क्या रहे हैं?

हम लौट चले हैं। अब जरा इस राजमार्ग की यातायात व्यवस्था को ही देख लीजिए। सन् 2014 में हमारे देश में कुल 4.89.400 सड़क हादसे हुए। शहरी क्षेत्र में 2.26.415 और ग्रामीण क्षेत्र में 2.62.985 और मौत ? 56.663 शहरी क्षेत्र में तथा 83.008 ग्रामीण क्षेत्र में।(अमर उजाला. 21.9.15) यानी वहाँ गाँववाले ही ज्यादा हादसों के शिकार होते हैं। पर यहाँ की सड़क देखिए और यहाँ की रफ्तार। एक भी कार-कंकाल आपको सड़क किनारे पड़े नहीं मिलेंगे। कोई फालतू में भों पों घों घों करके ठकुरई नहीं जताता। मैं ने तो एक बार रुपाई से पूछ ही बैठा,‘अरे बेटे, यहाँ की सभी कारें गूँगी हैं क्या?’

एक महीने तक हमने कोई हार्न नहीं सुना। यह अतिशयोक्ति नहीं, मादरे वतन की कसम!

किंग्सटन के आस पास पर्थरोड और बेडफोर्ड मिल्स दो भूतहा गांव है। यानी उन्हें कुछ लोगों के बसने के लिए बनाया तो गया था। मगर कोई वहाँ पहुँचा नहीं। अरे साहब, हमारे देश से कुछ आबादी लेते क्यों नहीं आते?

फिर एक सुबह कन्या जामाता ले चले मैलोरी टाउन लैंडिंग। वही जल जंगल और जमीन की दास्तान। वहाँ सेंट लॉरेन्स आइलैंड पार्क में दिन भर तफरीह कीजिए। वहाँ के म्यूजियम में वहाँ पाये जाने वाले कीड़े मकौड़े और तितलियां अल्मारी में रखे हुए हैं। क्या रंग है! ‘बीट्ल’ जाति के कीड़ों के तो अद्भुत रंग होते हैं। लगता है वे अँगूठी में लगाने वाले नगीने हों।

वहीं मेज पर जंगल के बारे में किताबें भी रक्खी हुई हैं। एक शिक्षा – कभी ग्रिजली बीअर से अगर आप की भेंट हो तो जोर शोर से चिल्लाइयेगा। मगर बबुआ, उस विशालकाय दीर्घरोमा को देख कर कंठ से आवाज निकलेगी तभी न आप चिल्लाइयेगा ?

आगे जाकर नदी के पानी में पैर डुबो कर हम बैठे रहे। मैं पत्थर पर लेटे लेटे देख रहा था – कैसे आकाश की नीलिमा पिघल पिघल कर झील के पानी में समा जा रही थी। धरती की छाती पर जल और व्योम का यह कैसा सेतु बंधन है! लहरें खिलखिला रही हैं, परिंदे पूछ रहे हैं, मैं तो बस देखे जा रहा हूँ ……..

वापसी में झील पर एक और सेतु बंधन देखा। अगल बगल दो छोटे छोटे द्वीप। दोनों पर बस एक एक कॉटेज। और दोनों को जोड़ते हुए छोटा सा पुल। सड़क से देखने पर लगता मानो कोई खिलौनों का संसार रमा बसा है।

घर लौटते लौटते रात काफी हो गई। रुपाई ने सास से कहा,‘ माँ, अब घर पहुँचकर खाना वाना क्या बनाना? रास्ते से ही कुछ लेते चलें।’   

किंग्सटन का ही एक मोहल्ला है पोर्टसमाउथ। वहाँ पहुँचकर कार सुस्ताने लगी। यहाँ सामने असंख्य नावें रखी हुई हैं। यहाँ उनसे ट्रेनिंग दी जाती है और स्पोर्टस की तैयारी होती है। वहीं एक चीनी परिवार कैस डेलाइट रेस्टूरेंट चलाता है। रुपाई सीढ़ी से चढ़ गया। एक बच्चा कुर्सी पर बैठकर अपने दादाजी के साथ कैरम खेल रहा था। उसकी माँ ने आर्डर लिया। थोड़ी देर में दो गरमा गरम पैकेट लेकर हम घर पहुँचे। अजी धीरज की परीक्षा मत लो। चलो लगाओ प्लेट। मगर एक बनारसी हाथ मुँह धोये बिना भोजन को हाथ कैसे लगाये ?

मेनू में क्या क्या नाम है बाबा ! चिकन विथ जिंजर सैलाड। जेनरल ताओं चिकन। साथ में फॉर्चून कूकी। खाने के बाद झूम ने एक कूकी मेरी तरफ बढ़ा दी,‘बाबा, जरा इस रैपर को खोलकर कूकी खाओ।’

मैं ने बिटिया आज्ञा का पालन किया।

‘अब उसमें क्या लिखा है, देखो।’

अरे हाँ ! उस रैपर के अंदर तो कुछ बातें लिखी हैं।

‘इसमें आपके बारे में कुछ लिखा होता है। शायद आपके जीवन के लिए दिशा निर्देश भी हो!’

मैं पढ़ रहा था -‘तुम में सारी दुनिया जीतने की ताकत है। मगर अतीत के बारे में सोचा न करो। बस भविष्य के सुनहरे स्वप्नों को देखो। और तुम्हारे शुभ नम्बर हैं – 3, 5, 55, 15…’… ऐसा ही कुछ…

चारों ओर की हताशा में फँसा इंसान कह उठता है,‘अरे ये लोग कैसे सच सच सब बता देते हैं?’

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – खुद को देख लो ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “खुद को देख लो)

☆ लघुकथा – खुद को देख लो ☆

आज कई सालों के बाद मैं उस खेल के मैदान में था, जहां बचपन से लेकर जवानी तक, दोस्तों के संग खेला करता था। मैंने इधर उधर नजर दौड़ाई, कि कहीं कोई परिचित मिल सके। इसी खोज में मेरी नजर अपने ही एक दोस्त पर पड़ी, जो कुछ लोगों के बीच खड़ा बातचीत में व्यस्त था।

मैंने उसके कंधे को थपथपाया, “राहुल, मैं दीपक।” उसने एकदम चौंक पर मुझे देखा और ख़ुशी से चिल्लाया, “अरे दीपक, कैसे हो यार? आज इतने सालों बाद अचानक?”

“हां, बस याद खींच लाई तुम सब दोस्तों की। पुराने दिन ताजा करने आया हूं”, मैंने हर्षातिरेक से कहा, “और तुम सुनाओ, कैसे हो? घर परिवार में क्या चल रहा है?…” और हमारी बातें शुरू हो गईं। वह सबको छोड़ कर मेरे साथ मैदान में घूमने लगा। बातों का सिलसिला जारी था।

बैडमिंटन कोर्ट के पास पहुंचकर अचानक मुझे ख्याल आया, “यार, यहां दो मोटे-मोटे भाई आया करते थे खेलने सुबह-सुबह, याद है?”

“हां बिल्कुल, वही जो इतने भारी थे कि उनसे हिला भी नहीं जाता था, और हम सभी मिलकर उनका खूब मजाक उड़ाते थे।” राहुल ने कहा।

“पर कमाल के थे वो यार, उन पर कभी कोई असर नहीं होता था। मैं और राकेश तो कई बार सीधा-सीधा मुंह पर ही बोल देते थे। पर वाकई, लाजवाब था भई उनका संयम और हौंसला। न तो उन्होंने आना छोड़ा, और न हमारा ताना सुन कर कभी कुछ कहा”, मैंने मजाक भरे लहजे में कहा, “वैसे हैं कहां वह दोनों आजकल? कुछ अता-पता भी है उनका या नहीं? मिल जाते तो देखता, कितने ग्राम वजन कम हुआ है उनका।”

“हां, हैं ना”, राहुल भी हंस पड़ा, “वह देखो, वह जो दो सफेद टी-शर्ट में खड़े हैं।”

“वे पतले-पतले से”, मैंने कहा, “क्यों मजाक कर रहे हो यार, हाथी जैसे वह दोनों घोड़े जैसे कैसे हो गए? यह दोनों तो बड़े चुस्त और फुर्तीले लग रहे हैं।” मेरे लिए यह अविश्वसनीय था।

“वही हैं। दोनों ने मिलकर एक फिटनेस सेंटर खोला हुआ है, जो शहर में सबसे बढ़िया है”, राहुल बता रहा था, “अपनी मेहनत, लगन, सहनशीलता और आत्मविश्वास से उन्होंने यह मुकाम हासिल किया है। वह आज यहाँ के युवाओं के आदर्श हैं।”

 मैं सुन रहा था, और मेरा बाहर निकलता जा रहा पेट मेरा मजाक उड़ा रहा था, जैसे कह रहा हो, ‘लो, अब खुद को देख लो…।‘

 

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 18 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 18 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

पंचमेल खिचड़ी

यानी फुटकर घटनायें। अर्थात स्मृतियों की अठन्नी चवन्नियाँ।

किंग्सटन में बैठे आम का स्वाद लेने की बात तो आपको मालूम हो चुकी है। वहाँ का एक और फल है नेक्टारिन। बड़े साइज के आलू बुखारे जैसा। वही रूप, वही रंग और वही रस। बल्कि और भी मीठा।

फिर रसमलाई के रसास्वादन के पश्चात एक दूसरा मीठा भी चखिये। ये हैं बकलावा। सोनपपड़ी का दूर का रिश्तेदार। यह तुर्की ऑटोवान साम्राज्य की मिठाई है। वहॉँ से पहुँची ग्रीस, फिर यूरोप होते हुए कनाडा। और आखिरी मंजिल मेरा पेट।

अजी आप यकीन नहीं कीजियेगा एक रोज तो मेट्रो बाजार से हमें कोहड़े के फूल भी मिल गये। प्लास्टिक के एक पैकेट में सात। फिर उसे बेसन से लपेट कर, तेल में छान कर ‘पोड़ेर भाजा’ बनाना। कोहड़े से बनारसिओं का आत्मिक रिश्ता है। पूछिए – वो कैसे? अरे भाई कुम्हड़े को काशीफल कहते हैं कि नहीं ? खिड़की के बाहर रिमझिम बारिश का नजारा हो, हाथ में आपकी पसन्दीदा किताब हो, बगल की टेबुल पर मेरी भौजी ने आपके लिए गरमा गरम कोहड़े की यह भाजी पेश की हो और संगति के लिए एक कप चाय। तो उमर खैय्याम ने जैसे लिखा है – जन्नत उतर आये धरती पर। न, न…..पहले आजमा लीजिए, फिर राय जाहिर कीजिए।

मॉन्ट्रीयल के होटल में मैं ने एक चीज ख्याल की थी कि यहाँ बत्तियों के स्विच हमारे हिसाब से उल्टे हैं। यानी, वहाँ की तरह ऑन करने के लिए ऊपर से नीचे नहीं, बल्कि नीचे से ऊपर उठाइये। झूम के घर में या नायाग्रा के होटल में भी वही बात।

सड़क के दोनों ओर लगे बिजली के खंभे तो लकड़ी के बने होते ही हैं, यहाँ मकान बनाने में भी लकड़ी का खूब इस्तेमाल होता है। बस कंक्रीट के फ्रेम के बीच लकड़ी की दीवार। निजी मकानों में ज्यादातर लकड़ी की खपत। उसी की छत, उसी की दीवार। फिर भी यह देश कितना हरा भरा है !

यहाँ अपनी सेहत के लिए लोग दिनभर टहल रहे होते हैं, या दौड़ रहे होते हैं। दौड़नेवालों की कलाई में एक किसिम की घड़ी बँधी होती है, जिससे वे यह हिसाब लगा सकते हैं कि उस वर्जिश के दौरान उनकी कितनी कैलोरी ऊर्जा खर्च हुई। उसी हिसाब से आप और ज्यादा कसरत कीजिए या कम।

कॉनफेडरेशन हॉल के ठीक पीछे है मार्केट स्कैवर। बहुत ही विशाल किसी फुटबॉल फील्ड जितना लंबा चौड़ा ऑगन जैसा। यहाँ सप्ताह के दो दिन यानी शनिवार और मंगलवार को किसान अपनी अपनी गाड़ी से ताजी सब्जियाँ लेकर आते हैं। चारों ओर फूलों की दुकान लग जाती हैं। करीब ग्यारह से शाम तीन बजे तक की दुकानदारी।

मार्केट स्कैवर का फर्श भी पत्थर से बने हैं। इस चौरस जगह के दक्षिण में खड़ा है कॉनफेडरेशन हॉल। उत्तर पश्चिम कोने में निरंतर उछल रहा है एक फव्वारा। इस पूरे इलाके को घेर कर बेंच रक्खी हुई हैं। माँ बाप अपने बच्चों को लाकर फव्वारे के पास खड़ा कर दे रहे हैं,‘वो देखो!’

कोई पानी के कतरों में अपनी हथेली को फैला दे रहा है। एक अपना हाथ हिला रहा है,‘मैं नीचे कूद जाऊँगा, ममी।’

एक शाम को वहाँ बैठा ही था कि दूर से बैगपाइप की धुन सुनाई देने लगी। यह स्कॉटलैंड का बाजा है। उधर लेक ऑन्टारिओ के सामने कॉनफेडरेशन हॉल के उस पार वे बजा रहे होंगे। वहाँ कुछ न कुछ हर शाम को होता रहता है। इस मार्केट में मैं ने एकबार नुक्कड़ नाटक जैसा कुछ देखा था। नाटक नहीं, बल्कि साईकिल लेकर करामात। अभिनेता कुछ कहते भी जा रहे थे। बीच बीच में दर्शक हँस भी रहे थे।

यहाँ आकर बैठिये तो आपके पैरों के पास कबूतर और बादामी सफेद सीगल पक्षी आकर बैठ जायेंगे। सबकी अपनी अपनी उम्मीद है। तभी तो कुछ पाने की जिद है।

शनिवार की शाम हम दोनों इधर मार्केट स्क्वैर की ओर आ रहे थे तो देखा प्रिन्सेस स्ट्रीट के मोड़ पर एक आदमी एक कुर्सी पर बैठे गिटार बजा रहा है। उसके सामने पटरी पर उसका हैट रखा है। और हैट के अंदर फुटकर पड़े हुए हैं। यानी शाहंशाही अंदाज में भीख माँगना। शनि और रविवार की शाम को यह कार्यक्रम चलता है। चलते चलते हमारे देश के भिखारिओं के सिरमौर के बारे में भी जरा सुन लीजिए। कॅलरस् ऑफ इंडिया में भारत के तीन टॉप मंगनों का नाम दिया था। सर्वप्रथम हैं भारत जैनःः इनका मासिक आय है 90.000 से 1.3 लाख, पैरेल और मुंबई में इनके दो फ्लैट है, संपत्ति की कीमत 70 लाख से 1.2 करोड़, इनका परिवार स्कूल सप्लाई का धंधा करता है, दो दुकान इनलोगां ने किराये पर उठायी है।

दूसरे नंबर पर हैं – संबाजी कालेःः आय- 80.000 से 1 लाख प्रति माह। एक फ्लैट और दो मकानों का मालिक। और…….  

तीसरे नम्बर पर हैं – कृष्णा कुना – आय -50.000 से 70.000 प्रति माह। एक फ्लैट के मालिक। 

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, अमीर भया न कोय। कर फैलाने की कला से धन बरसा होय! 

किंग्सटन का हर रास्ता इतना साफ सुफ होने बावजूद शनिवार रविवार को अगर आप उस शाहजादी मार्ग यानी प्रिन्सेस स्ट्रीट पर जाते हैं तो फुटपाथ के नजदीक श्वान कृत गंदगी देख सकते हैं। ऐसा क्यों? उन दोनों दिन दुकानें बंद रहती हैं, इसलिए ? सैटर्डे नाइट फीवर या शनि का प्रकोप ?

ढन्न्….ढन्न्…….घंटा सात बार बजा। मगर चहुँदिशि जरा अपनी नजर घुमा कर देखिए। कितना उजाला है, धूप है! केवल छाया के कारण ही मैं यहाँ बैठ ले रहा हूँ।

देखिए देखिए उन दो लड़कों को। स्केट बोर्ड पर प्रैक्टिस कर रहे हैं। दोनों लहराते हुए पहुँच गये बीच के विशाल अंगणा में। लकड़ी के एक तख्ते के नीचे दो जोड़े पहिये लगे हैं। उसी पर खड़े होकर वे मजे से चले जा रहे हैं। उछल उछल कर करतब प्रैक्टिस कर रहे हैं। कभी हवा में उछल कर पैरों के नीचे स्केट बोर्ड को घुमा लेते हैं, तो कभी उस पर सीधे खड़े होने का प्रयास कर रहे हैं। यानी अपने मन के हुक्म से पैरों को नचाना।

आधे घंटे में रोलर स्केटिंग करते हुए कोई घूमने आ गया। एक लड़का साइकिल का हैंडिल छोड़कर हाथों को पंखों की तरह फैलाकर साइकिल चला रहा है। पंख फैलाकर आनन्द पंछी उड़ रहा है…..

जब जाड़े में यहाँ बर्फ ही बर्फ बिछी होती है तो आइस स्केटिंग के लिए सारा िंकंग्सटन इकठ्ठा हो जाता है। क्या नजारा होता होगा ! सफेद तुषार पर इतने सारे किशोर किशोरियाँ, युवक युवतियाँ छक कर मस्ती की मय पी रहे हैं …….     

दो किशोरियां फव्वारे के पास से गुजर जाती हैं। अरे ठहर क्यों गयीं ? एक ने मुड़ कर फव्वारे के पानी में सिक्का उछाल दिया। वो हँस रही है।

विशिंग फाउन्टेन!? हम जीते हैं इस दुनिया में दिल में लिए अरमान, होगी पूरी मनौतियां कब, खुदा बस देना ध्यान ! और दो परिवार आये। उनके बच्चे भी उसी तरह अपने अपने डैडी से कह रहे हैं, ‘मुझे भी फव्वारे में सिक्का उछालने दो न !’

एक नन्हा तो बिलकुल नीचे झाँक रहा है। अरे मत कर बेटा! चलो भाई, भगवान खुश हो न हो, तुम तो खुश हुए। बस इन्हीं उम्मीदों पर ही तो दुनिया जीती है …..

खुदा को खुश करने के लिए इंसान क्या क्या नहीं करता ? इसबार बकरीद के पहले 25.9.2015. के अंग्रेजी हिन्दू से एक समाचार पढ़िए – ज़ीहिज्जा की दसवीं को होनेवाली बकर ईद के लिए श्रीनगर के कोई सैयद साहब भेड़ खरीदने गये हुए हैं। वे मोल भाव कर रहे हैं। उन्हें तीन भेंड़ चाहिए। क्योंकि उनके तीन बेटे हैं।

जब खुदा ने हजरत इब्राहीम से कहा था – ‘ऐ इब्राहीम, तुम मेरे लिए अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो।’ तो हजरत ने सोचा – मेरी औलाद से बढ़कर मेरे लिए कौन सी चीज प्यारी होगी ? सो मर्वः पहाड़ की चोटी पर अपने बेटे इस्माइल को ले जाकर उन्होंने उसीकी गर्दन में छुरी रख दी। मगर अल्लाह की करामात देखिए कि बेटे की गर्दन में छुरी रखते समय ज्यों उन्हांने अपनी आँखें बंद कर लीं, तो किसी मेमने की मिमियाने की आवाज उनके कानों में पड़ी। आँख खोलते ही – यह क्या! उनके बेटे की जगह तो एक मेमना खड़ा है ! अल्लाह के दूत जिब्राइल ने इस्माइल की जगह उसे रख दिया था। उन्होंने कहा, ‘इब्राहीम, परवरदिगार ने तुम्हारी सौगात स्वीकार कर ली है!’

तो क्या इसीलिए अपने बच्चों की संख्या गिनगिन कर आप कुर्बानी की भेंड़ खरीदीएगा ? क्या इसीसे अल्लाह खुश हो जायेंगे ?

यही कथा बाइबिल के जेनेसिस में भी है। वहाँ अब्राहाम के बेटे का नाम आइजैक है। खैर एक काबिले गौर बात यह भी है कि अब्राहाम या इब्राहीम को शादी के पच्चीस साल बाद यह बेटा प्राप्त हुआ था। ईश्वर के कहने पर उसी को …….

देखिए, दास्तानों की एक ही धारा सारे धर्मों में से होकर गुजरती है। जैसे गंगा यहाँ गंगा है, तो आगे चलकर यही कहीं हुगली है तो कहीं पद्मा। फिर भी क्रिश्चियन और मुसलमानों के बीच क्रुसेड यानी जंग होती रहीं। फिर हमारे कर्ण भी तो आरी से अपने बेटे को ही काट कर उसका दान दे रहा था।

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 17 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 17 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

हजार द्वीपों का सफर    

लेक ऑन्टारिओ के किनारे बसे शहरों से आप बड़े लॉच या जहाज से इन द्वीपों के सफर में जा सकते हैं। जहाज पर बैठे बैठे आप उन द्वीपों के सामने से लेक ऑन्टारिओ या सेंट लॉरेन्स नदी या कैटारॅकी नदी की लहरों पर हिचकोले खाते हुए चलते रहिए। गैनानॅक से भी आप लॉच से जा सकते हैं। किंग्सटन से तो बस जहाज ही चलता है। करीब तीन घंटे का सफर है। पर हमलोगों को तो जहाज चार घंटे तक घुमाता रहा।

बेटी को लेकर हम लोग लाइन में खड़े थे। बस उसी कॅनफेडरेशन हॉल के सामने सड़क पार बायीं तरफ एक लाल खूबसूरत बस के सामने से हम आगे बढ़ रहे थे। सिर पर धूप का शामियाना। यहाँ की टूरिस्ट बसें भी देखने लायक हैं। उनकी बगल में बड़े बड़े अक्षरों में लिखा है – ट्रॉली। उनमें बैठ कर आये हुए विदेशी सैलानी यहाँ उतर रहे हैं और लाइन में लगे जा रहे हैं। सर पर हैट, आँखों पर गॉगल्स। ज्यादातर लड़कियां तो बस सूरजमुखी बनी खड़ी हैं। अर्थात सूरज और उनके हाथ पैरों के बीच कपड़े का कोई पर्दा नहीं। न, न इसका कोई गलत अर्थ न निकालें। पेट के ऊपर गंजी टाईप कुछ, और नीचे पांव पर पाव भर पैंट। फुटनोट – हाफ का आधा।

‘एक्सक्यूज मी मिस्टर, हमलोगों को क्या इसी लाइन में खड़ा होना है?’ एक अधेड़ साहब ने पूछा।

मैं भी बड़े आत्मविश्वास के साथ जवाब देता हूँ,‘बिलकुल। आपको तकलीफ हो रही हो तो थोड़ी देर उस जगह छाँह में बैठ लीजिए।’ जैसे कि मैं आये दिन यहाँ क्रूज सफर में आता रहता हूँ।

वैसे उधर एक और शीशे की छतवाला जहाज भी पानी पर तैर रहा है। उसके यात्री उसमें बैठ चुके हैं। वह डाइनिंग स्पेशलवाला जहाज है, यानी भ्रमण प्लस भोजन। अब वह भों भों कर रहा है। रुखसत होने की तैयारी में लगा हुआ है।                      

उधर हमारे जहाज में जहाँ भीतर पहुँचने की सीढ़ी लगी हुई है, वहाँ दो सज्जन खड़े होकर संगीतमय स्वागत कर रहे हैं। एक सिक्सटी प्लस, वो गिटार बजा कर गा रहा है। दूसरा बिलो फिफटी, एक क्लैरिओनेट टाइप कुछ बजा रहा है। पधारो म्हारे देस ! 

धीरे धीरे हम जहाजासीन होते हैं। यहाँ भी चढ़ने के पहले वही। फोटू खि्ांचवाइये और जाते समय दक्षिणा देते हुए लेते जाइये! वहाँ टूरिस्ट काउंटर में जो लड़का बैठा था, उसी ने जहाज की मोटी रस्सी को किनारे लगे खूटोँं से अलग करके जहाज पर फेंक दिया। लंगर-बंधन हुआ मुक्त। अब तो केवल तरंगमालाओं का आह्वान। उर्मियां बुला रही हैं – आ जाओ, जी भर के देख लो हमारी अठखेलियां, धूप को बांहों में भर कर कैसे हम पानी में लोट पोट हो जाती हैं! जरा देखो हमारे बीच कैसे इतने सारे लोग अपना जीवन बिता रहे हैं। पढ़ लो उनका रोजनामचा।

चल पड़ा जलयान। अंदर दाखिल होते ही नीचे दायें एक घेरे के बीच छोटा सा मंच। उसके बिलकुल सामने खाने पीने के सामानों का एक काउंटर। काउंटर के दोनों तरफ से सीढियां़ ऊपर जा रही हैं। दूसरे डेक पर उनलोगों का स्थान है, जिन्होंने भ्रमण के साथ भोजन का भी बिल चुकाया है। इसके ऊपर खुला डेक, खुला आसमान। रेलिंग के पास खड़े खड़े आप आस पास के नजारों का दीदार कीजिए। हम तीनों बिलकुल नीचेवाले में बैठे थे। क्योंकि वहाँ धूप न थी। संगीत का कार्यक्रम आरंभ हो गया। भाषा कुछ भी हो, भले ही गीत गले से निकलते हों, मगर वे हियरा को छू जाते हैं।

निचली डेक पर हम सभी कुर्सिओं पर बैठे हैं। बीच से आने जाने का रिक्त स्थान। हमारी बायीं ओर कोरिया या जापान के सैलानी। उनके बच्चे खूब धूम मचा रहे हैं। फर्श पर बैठ कर कुछ खेल भी रहे हैं। इतने में रिकॉर्डेड कमेंट्री षुरू हो गयी – इनमें करीब 1864 द्वीप हैं। कोई डियर आइलैंड, तो कोई हावे और कोई वुल्फ आइलैंड। कुछेक केवल नंबर से ही जाने जाते हैं। जैसे जे ई 15,17 और 18।

हम मंत्रमुग्ध होकर बगल की खिड़की से बाहर देख रहे हैं। ‘अरे देखो उस टापू पर तो केवल एक ही मकान है! वाह!’

‘वाह या बापरे ? उनलोगों को अकेलापन कचोटता नहीं होगा?’

‘सो क्यां? उनके पास तो अपनी नाव है। देखो न, कितनों के पास पानी पर चलनेवाला स्कूटर है। छोटे लॉच या नाव तो यहाँ गृहस्थी की जरूरी जिंसों में से एक है।’

‘अरे वो रहे दोनों। लहरों के बीच से स्कूटर पर रेस लगा रहे हैं।’

सफेद लहरें माला की शक्ल में दूर दूर तक तैर रही हैं। कौन जाने विजय माल्य किसके कंठ की शोभा होगा ! बगल से एक छोटा लॉच गुजर गया। अपनी ठोढ़ी को सामने की ओर ऊँचा करके, पानी को चीरता हुआ……। नाव पर बैठे कुछ लोग जा रहे हैं। वे हाथ हिला रहे हैं। झूम और उसकी माँ भी हाथ हिला रही हैं।

सामने टापू पर अपने घर के सामने एक किताब हाथ में लेकर धूप से नहाती एक बुढ़िया हाथ हिला रही है। बस एक सुकून का गीत हौले हौले चारां ओर फैलता जा रहा है। जरा गौर से सुनिए। फ़ैज़ अहमद फै़ज़ की आवाज कहीं गूँज रही है? उनकी एक गजल कुछ यूँ शुरू होती है :- रंग पैरहन (लिबास) का, खुशबू जुल्फ लहराने का नाम/मौसमे-गुल है तुम्हारे बाम (छत, अटारी)पर आने का नाम।………हमसे कहते हैं चमन वाले, गरीबाने-चमन(जो चमन से बाहर चले गये या कर दिये गये हों)/तुम कोई अच्छा-सा रख लो अपने वीराने का नाम।

सफेद पाल को हवा में ऊपर उठा कर याक्ट तैर रहे हैं। सफेद पंखों को पवन में लहराते हुए पंछी उड़ रहे हैं। नौकाओं के पीछे सफेद फेनराशि। दिमाग के तहखाने में बंद होती श्वेत स्मृतियां ……

हमारे पीछे जो बूढ़े से सज्जन बैठे हैं, वो उठकर खिड़की के शीशे को बंद कर देते हैं। मैं ने मन ही मन कहा,‘अरे भाई, आपलोगों को ठंड लग रही है? हम लोग तो गर्म देश के वासी हैं। फिर भी देखिए हम चंगे हैं। ’मियां बीवी स्वेटर पहने बैठे हैं, फिर भी ……

साहिल पर अनगिनत दरख्तों की छाँह। रंग बिरंगे कॉटेज यहाँ वहाँ नदी किनारे खड़े हैं। जाने किस पाहुन के इंतजार में।

कमेंट्री का धारा प्रवाह चुप होता है तो तुरंत संगीत का कार्यक्रम उस छोटे से स्टेज से शुरु हो जाता है। ‘आइये, आपलोग डेक के बीचो बीच खाली जगह में आकर हमारी हिम्मत अफजाई तो कीजिए!’युवक कलाकार घोषणा करता है। खड़े हो गये हंगरी का एक जोड़ा। पत्नी का हाथ पकड़ कर पति उन्हें घूमा घूमा कर खूब नाच रहा है।

हमारे सामने की सीट पर बैठा एक सुंदर सा नन्हा अपने पापा से चिपका हुआ है। माँ से ज्यादा वह मुन्ना अपने पापा से घुला मिला है।

नदी के बीच बीच में बड़े बड़े पत्थर आधी डुबकी लगा कर खड़े हैं। जैसे पानी के अंदर गोता लगायें तो उन्हें ठंड लग जायेगी। जिस तरह बनारस के घाटों पर आयी हुई कई बुढ़िया नहाती हैं। 

‘अरे वो देखो कितने रंग बिरंगे बत्तख!’

‘हाँ, सब प्लास्टिक के खिलौने हैं। एक कतार में सब तैर रहे हैं, लहरों में हिल डुल रहे हैं। मानो बच्चों को अपने पास बुला रहे हां।’ 

ऑन्टारिओ लेक से सेंट लारेंस, फिर सेंट लारेंस से कैटॉरकी नदी। अर्णवयान चलता जा रहा है। आसमान में जाने कब अर्णोद घिर आये हैं। लीजिए भाई, हम गैनॉनक पहुँच गये हैं। किंग्सटन से 28 किमी. दूर। मगर जल मार्ग से तो और ज्यादा होगा? यकीन नहीं होता।

‘वो जो सामने द्वीप दिख रहा है। उसके आधे में अभय अरण्य है, और आधा लोगों की निजी संपत्ति।’

‘वो रहा बनारस की जैतपुरा छमुहानी की तरह नदी और झील से निकली पाँच छह धारायें। हर दो धाराओं के बीच एक एक टापू। दरिया की कई-मुहानी।’

हर द्वीप में खड़े हैं जाने कितने मेपल,‘किस देश से आये हो, आगंतुक?’ दूर साहिल के पास वही किंग्सटन याक्ट क्लब की तरह जाने कितनी सफेद नावे खड़ी हैं। अरे वो रहा अमेरिका – दाहिनी ओर। वो है इंडियाना आइलैंड। नील हरी नदी पूछ रही है,‘अब तो बोलो कहाँ रहा तुमलोगों के अपने मुल्क का सरहद? यह पानी किस देश का है? कनाडा का, या अमेरिका का? तो आखिर क्यों तुम इंसान दो गज जमीन के लिए लड़ मरते हो? अरे अभागे, तुम लोग तो अपने वतन के आखिरी मुगल बादशाह को उतनी जमीन भी दे न सके थे, तो? मालूम है न वो एक कवि तो था ही, साथ ही तुम्हारे पहले स्वतंत्रता संग्राम का चुने हुए सेनापति भी रहा।’

मेरी बगल में बेटी, उसकी बगल में खिड़की की ओर श्रीमतीजी। वो खूब हाथ हिला रही हैं। आज झूम ने माँ को माडर्न बना दिया है। जीन्स और टॉप के लिबास में हैं वो। बेटी ने सजाया है मां को। मैं ने उनको छेड़ने के लिए झूम से कहा,‘जरा अपनी मां से पूछ – तेरी इस बगल जो शख्स बैठा है, उसे वो पहचानती भी हैं?’

बेटी ने पूछ ही लिया।

‘कौन?’ भार्या ने मुड़कर मुझको देखा। उनकी भ्रुकुटि ऊपर उठ गई। आँखें चार हुईं। वो मुस्कुरा रही है।

फिल्म में होता नहीं है? पलट, पलट। पलट गई तो पट गई।

नीचे बैठे जापानी/कोरियन बच्चे भी ऊब चुके हैं। बाप मां परेशान। ‘कान्हा, यह बुरी बात है। गैर के घर से माखन चुराना तुम्हे शोभा नहीं देता। तुम आखिर बेटे किसके हो?’….कुछ ऐसा ही कह कर मातायें आँख दिखा रही हैं।

वो रहे झील के किनारे किनारे बसे चार चार पाँच पाँच की संख्या में मकान। अद्भुत, सुंदर! कहीं लिखा हैः-गरमी में यहाँ आकर डेरा डालिए। पहले से बुक करवा लीजिए।

अर्णवपोत के अंदर घोषणा – यहाँ मकान लेने के लिए जेब में भारी भरकम रकम होनी चाहिए। हो पास में यदि कुबेर का खजाना, तब तुम मिस्टर यहाँ तशरीफ लाना।

गैनानॉक से जहाज मुड़ कर वापस लौट रहा है। जिंदगी की हर राह पे लगा रहता है आना और जाना। बांग्ला में दादी नानिओं का एक गीत है – हरि दिन तो गैलो सन्धे होलो, पार करो आमारे। कुछ कीर्तन के सुर में। सत्यजीत राय ने उसे ‘पथेर पाँचाली’ में प्रयोग भी किया है। पंचमदा ने उसी सुर से ‘किताब’ फिल्म के एक गीत को नवाजा है। जरा उसका अगड़म बगड़म अनुवाद गुनगुना लें – हरि दिन ढला घिर शाम आयी, कहाँ है किनारा ? कौड़ी नहीं गांठ में मेरी, ओ तारनहारा !

अतिशयोक्ति को क्षमा करें। यहां किसी द्वीप के ‘एक वर्गफुट क्षेत्र’ में जितने पेड़ होंगे, क्या हमारे पूरी काशी में उतने हैं ? मैं अपनी शंकर नगरी का अपमान नहीं कर रहा हूँ। बस नाटक के तथाकथित ‘ब्रेख्टियन स्टाइल’ में आपसे सवाल कर रहा हूँ,‘जरा सोचिए, क्या पेड़ न काटने के लिए हमें अपनी जेब से चवन्नी भी खर्च करनी पड़ती है?’

यहाँ किसी छोटे से द्वीप में भी हरियाली की छाजन इतनी मजबूत होती है कि सूर्य रश्मि की हिम्मत भी नहीं होती कि किसी आश्रम का शांति भंग करे।

तीन घंटे का सफर करीब चार घंटे में खतम। संगीतमय दृश्यावलोकन एवं जलयात्रा। गायक कोई विदाई गीत सुना रहा है। गीत की भाषा तो कुछ पल्ले नहीं पड़ रही है। कभी अंग्रेजी, तो एकाध बार शायद स्पैनिश में भी। इस बीच ओले ओले वाला साल्सा डान्स भी हो गया। हमारे सामने बैठी अकेली बुढ़िया बाला उठ कर नाचने लगी। उस हंगरियन जोड़े से जरा दूर हटकर। लाजवाब थिरकन! हे अपरिचिता, क्या जिंदगी में तुम्हारे कदम से कदम मिलानेवाला कोई शख्स मिला नहीं ? आज अकेली क्यों हो?

एक जापानी गुड़िया उस हंगरियन जोड़े से सट कर नाचने लगी। सभी तालियां बजा रहे हैं। उल्लास का परिंदा पंख फरफरा रहा है, उड़ रहा है उस नीलाकाश की ओर……

सामने दीख रहा है वो लाइट हाइस जैसी मीनार। रास्ते में और कई थीं। किसी जमाने में इन्हें तट रक्षकों के लिए बनायी गयी थी। आज वे नदियां से दरिया तक प्रकाश बिखेर रही हैं। उनके माथे पर तिकोना लाल टोप।

लहरों ने जब साहिल को देखा/लगा कि मंजिल मिल गई

मकतब से आ मुन्ने की बांछे / मां को छूकर खिल गई ।         

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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