(हमें प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)
हजार द्वीपों का सफर
लेक ऑन्टारिओ के किनारे बसे शहरों से आप बड़े लॉच या जहाज से इन द्वीपों के सफर में जा सकते हैं। जहाज पर बैठे बैठे आप उन द्वीपों के सामने से लेक ऑन्टारिओ या सेंट लॉरेन्स नदी या कैटारॅकी नदी की लहरों पर हिचकोले खाते हुए चलते रहिए। गैनानॅक से भी आप लॉच से जा सकते हैं। किंग्सटन से तो बस जहाज ही चलता है। करीब तीन घंटे का सफर है। पर हमलोगों को तो जहाज चार घंटे तक घुमाता रहा।
बेटी को लेकर हम लोग लाइन में खड़े थे। बस उसी कॅनफेडरेशन हॉल के सामने सड़क पार बायीं तरफ एक लाल खूबसूरत बस के सामने से हम आगे बढ़ रहे थे। सिर पर धूप का शामियाना। यहाँ की टूरिस्ट बसें भी देखने लायक हैं। उनकी बगल में बड़े बड़े अक्षरों में लिखा है – ट्रॉली। उनमें बैठ कर आये हुए विदेशी सैलानी यहाँ उतर रहे हैं और लाइन में लगे जा रहे हैं। सर पर हैट, आँखों पर गॉगल्स। ज्यादातर लड़कियां तो बस सूरजमुखी बनी खड़ी हैं। अर्थात सूरज और उनके हाथ पैरों के बीच कपड़े का कोई पर्दा नहीं। न, न इसका कोई गलत अर्थ न निकालें। पेट के ऊपर गंजी टाईप कुछ, और नीचे पांव पर पाव भर पैंट। फुटनोट – हाफ का आधा।
‘एक्सक्यूज मी मिस्टर, हमलोगों को क्या इसी लाइन में खड़ा होना है?’ एक अधेड़ साहब ने पूछा।
मैं भी बड़े आत्मविश्वास के साथ जवाब देता हूँ,‘बिलकुल। आपको तकलीफ हो रही हो तो थोड़ी देर उस जगह छाँह में बैठ लीजिए।’ जैसे कि मैं आये दिन यहाँ क्रूज सफर में आता रहता हूँ।
वैसे उधर एक और शीशे की छतवाला जहाज भी पानी पर तैर रहा है। उसके यात्री उसमें बैठ चुके हैं। वह डाइनिंग स्पेशलवाला जहाज है, यानी भ्रमण प्लस भोजन। अब वह भों भों कर रहा है। रुखसत होने की तैयारी में लगा हुआ है।
उधर हमारे जहाज में जहाँ भीतर पहुँचने की सीढ़ी लगी हुई है, वहाँ दो सज्जन खड़े होकर संगीतमय स्वागत कर रहे हैं। एक सिक्सटी प्लस, वो गिटार बजा कर गा रहा है। दूसरा बिलो फिफटी, एक क्लैरिओनेट टाइप कुछ बजा रहा है। पधारो म्हारे देस !
धीरे धीरे हम जहाजासीन होते हैं। यहाँ भी चढ़ने के पहले वही। फोटू खि्ांचवाइये और जाते समय दक्षिणा देते हुए लेते जाइये! वहाँ टूरिस्ट काउंटर में जो लड़का बैठा था, उसी ने जहाज की मोटी रस्सी को किनारे लगे खूटोँं से अलग करके जहाज पर फेंक दिया। लंगर-बंधन हुआ मुक्त। अब तो केवल तरंगमालाओं का आह्वान। उर्मियां बुला रही हैं – आ जाओ, जी भर के देख लो हमारी अठखेलियां, धूप को बांहों में भर कर कैसे हम पानी में लोट पोट हो जाती हैं! जरा देखो हमारे बीच कैसे इतने सारे लोग अपना जीवन बिता रहे हैं। पढ़ लो उनका रोजनामचा।
चल पड़ा जलयान। अंदर दाखिल होते ही नीचे दायें एक घेरे के बीच छोटा सा मंच। उसके बिलकुल सामने खाने पीने के सामानों का एक काउंटर। काउंटर के दोनों तरफ से सीढियां़ ऊपर जा रही हैं। दूसरे डेक पर उनलोगों का स्थान है, जिन्होंने भ्रमण के साथ भोजन का भी बिल चुकाया है। इसके ऊपर खुला डेक, खुला आसमान। रेलिंग के पास खड़े खड़े आप आस पास के नजारों का दीदार कीजिए। हम तीनों बिलकुल नीचेवाले में बैठे थे। क्योंकि वहाँ धूप न थी। संगीत का कार्यक्रम आरंभ हो गया। भाषा कुछ भी हो, भले ही गीत गले से निकलते हों, मगर वे हियरा को छू जाते हैं।
निचली डेक पर हम सभी कुर्सिओं पर बैठे हैं। बीच से आने जाने का रिक्त स्थान। हमारी बायीं ओर कोरिया या जापान के सैलानी। उनके बच्चे खूब धूम मचा रहे हैं। फर्श पर बैठ कर कुछ खेल भी रहे हैं। इतने में रिकॉर्डेड कमेंट्री षुरू हो गयी – इनमें करीब 1864 द्वीप हैं। कोई डियर आइलैंड, तो कोई हावे और कोई वुल्फ आइलैंड। कुछेक केवल नंबर से ही जाने जाते हैं। जैसे जे ई 15,17 और 18।
हम मंत्रमुग्ध होकर बगल की खिड़की से बाहर देख रहे हैं। ‘अरे देखो उस टापू पर तो केवल एक ही मकान है! वाह!’
‘वाह या बापरे ? उनलोगों को अकेलापन कचोटता नहीं होगा?’
‘सो क्यां? उनके पास तो अपनी नाव है। देखो न, कितनों के पास पानी पर चलनेवाला स्कूटर है। छोटे लॉच या नाव तो यहाँ गृहस्थी की जरूरी जिंसों में से एक है।’
‘अरे वो रहे दोनों। लहरों के बीच से स्कूटर पर रेस लगा रहे हैं।’
सफेद लहरें माला की शक्ल में दूर दूर तक तैर रही हैं। कौन जाने विजय माल्य किसके कंठ की शोभा होगा ! बगल से एक छोटा लॉच गुजर गया। अपनी ठोढ़ी को सामने की ओर ऊँचा करके, पानी को चीरता हुआ……। नाव पर बैठे कुछ लोग जा रहे हैं। वे हाथ हिला रहे हैं। झूम और उसकी माँ भी हाथ हिला रही हैं।
सामने टापू पर अपने घर के सामने एक किताब हाथ में लेकर धूप से नहाती एक बुढ़िया हाथ हिला रही है। बस एक सुकून का गीत हौले हौले चारां ओर फैलता जा रहा है। जरा गौर से सुनिए। फ़ैज़ अहमद फै़ज़ की आवाज कहीं गूँज रही है? उनकी एक गजल कुछ यूँ शुरू होती है :- रंग पैरहन (लिबास) का, खुशबू जुल्फ लहराने का नाम/मौसमे-गुल है तुम्हारे बाम (छत, अटारी)पर आने का नाम।………हमसे कहते हैं चमन वाले, गरीबाने-चमन(जो चमन से बाहर चले गये या कर दिये गये हों)/तुम कोई अच्छा-सा रख लो अपने वीराने का नाम।
सफेद पाल को हवा में ऊपर उठा कर याक्ट तैर रहे हैं। सफेद पंखों को पवन में लहराते हुए पंछी उड़ रहे हैं। नौकाओं के पीछे सफेद फेनराशि। दिमाग के तहखाने में बंद होती श्वेत स्मृतियां ……
हमारे पीछे जो बूढ़े से सज्जन बैठे हैं, वो उठकर खिड़की के शीशे को बंद कर देते हैं। मैं ने मन ही मन कहा,‘अरे भाई, आपलोगों को ठंड लग रही है? हम लोग तो गर्म देश के वासी हैं। फिर भी देखिए हम चंगे हैं। ’मियां बीवी स्वेटर पहने बैठे हैं, फिर भी ……
साहिल पर अनगिनत दरख्तों की छाँह। रंग बिरंगे कॉटेज यहाँ वहाँ नदी किनारे खड़े हैं। जाने किस पाहुन के इंतजार में।
कमेंट्री का धारा प्रवाह चुप होता है तो तुरंत संगीत का कार्यक्रम उस छोटे से स्टेज से शुरु हो जाता है। ‘आइये, आपलोग डेक के बीचो बीच खाली जगह में आकर हमारी हिम्मत अफजाई तो कीजिए!’युवक कलाकार घोषणा करता है। खड़े हो गये हंगरी का एक जोड़ा। पत्नी का हाथ पकड़ कर पति उन्हें घूमा घूमा कर खूब नाच रहा है।
हमारे सामने की सीट पर बैठा एक सुंदर सा नन्हा अपने पापा से चिपका हुआ है। माँ से ज्यादा वह मुन्ना अपने पापा से घुला मिला है।
नदी के बीच बीच में बड़े बड़े पत्थर आधी डुबकी लगा कर खड़े हैं। जैसे पानी के अंदर गोता लगायें तो उन्हें ठंड लग जायेगी। जिस तरह बनारस के घाटों पर आयी हुई कई बुढ़िया नहाती हैं।
‘अरे वो देखो कितने रंग बिरंगे बत्तख!’
‘हाँ, सब प्लास्टिक के खिलौने हैं। एक कतार में सब तैर रहे हैं, लहरों में हिल डुल रहे हैं। मानो बच्चों को अपने पास बुला रहे हां।’
ऑन्टारिओ लेक से सेंट लारेंस, फिर सेंट लारेंस से कैटॉरकी नदी। अर्णवयान चलता जा रहा है। आसमान में जाने कब अर्णोद घिर आये हैं। लीजिए भाई, हम गैनॉनक पहुँच गये हैं। किंग्सटन से 28 किमी. दूर। मगर जल मार्ग से तो और ज्यादा होगा? यकीन नहीं होता।
‘वो जो सामने द्वीप दिख रहा है। उसके आधे में अभय अरण्य है, और आधा लोगों की निजी संपत्ति।’
‘वो रहा बनारस की जैतपुरा छमुहानी की तरह नदी और झील से निकली पाँच छह धारायें। हर दो धाराओं के बीच एक एक टापू। दरिया की कई-मुहानी।’
हर द्वीप में खड़े हैं जाने कितने मेपल,‘किस देश से आये हो, आगंतुक?’ दूर साहिल के पास वही किंग्सटन याक्ट क्लब की तरह जाने कितनी सफेद नावे खड़ी हैं। अरे वो रहा अमेरिका – दाहिनी ओर। वो है इंडियाना आइलैंड। नील हरी नदी पूछ रही है,‘अब तो बोलो कहाँ रहा तुमलोगों के अपने मुल्क का सरहद? यह पानी किस देश का है? कनाडा का, या अमेरिका का? तो आखिर क्यों तुम इंसान दो गज जमीन के लिए लड़ मरते हो? अरे अभागे, तुम लोग तो अपने वतन के आखिरी मुगल बादशाह को उतनी जमीन भी दे न सके थे, तो? मालूम है न वो एक कवि तो था ही, साथ ही तुम्हारे पहले स्वतंत्रता संग्राम का चुने हुए सेनापति भी रहा।’
मेरी बगल में बेटी, उसकी बगल में खिड़की की ओर श्रीमतीजी। वो खूब हाथ हिला रही हैं। आज झूम ने माँ को माडर्न बना दिया है। जीन्स और टॉप के लिबास में हैं वो। बेटी ने सजाया है मां को। मैं ने उनको छेड़ने के लिए झूम से कहा,‘जरा अपनी मां से पूछ – तेरी इस बगल जो शख्स बैठा है, उसे वो पहचानती भी हैं?’
बेटी ने पूछ ही लिया।
‘कौन?’ भार्या ने मुड़कर मुझको देखा। उनकी भ्रुकुटि ऊपर उठ गई। आँखें चार हुईं। वो मुस्कुरा रही है।
फिल्म में होता नहीं है? पलट, पलट। पलट गई तो पट गई।
नीचे बैठे जापानी/कोरियन बच्चे भी ऊब चुके हैं। बाप मां परेशान। ‘कान्हा, यह बुरी बात है। गैर के घर से माखन चुराना तुम्हे शोभा नहीं देता। तुम आखिर बेटे किसके हो?’….कुछ ऐसा ही कह कर मातायें आँख दिखा रही हैं।
वो रहे झील के किनारे किनारे बसे चार चार पाँच पाँच की संख्या में मकान। अद्भुत, सुंदर! कहीं लिखा हैः-गरमी में यहाँ आकर डेरा डालिए। पहले से बुक करवा लीजिए।
अर्णवपोत के अंदर घोषणा – यहाँ मकान लेने के लिए जेब में भारी भरकम रकम होनी चाहिए। हो पास में यदि कुबेर का खजाना, तब तुम मिस्टर यहाँ तशरीफ लाना।
गैनानॉक से जहाज मुड़ कर वापस लौट रहा है। जिंदगी की हर राह पे लगा रहता है आना और जाना। बांग्ला में दादी नानिओं का एक गीत है – हरि दिन तो गैलो सन्धे होलो, पार करो आमारे। कुछ कीर्तन के सुर में। सत्यजीत राय ने उसे ‘पथेर पाँचाली’ में प्रयोग भी किया है। पंचमदा ने उसी सुर से ‘किताब’ फिल्म के एक गीत को नवाजा है। जरा उसका अगड़म बगड़म अनुवाद गुनगुना लें – हरि दिन ढला घिर शाम आयी, कहाँ है किनारा ? कौड़ी नहीं गांठ में मेरी, ओ तारनहारा !
अतिशयोक्ति को क्षमा करें। यहां किसी द्वीप के ‘एक वर्गफुट क्षेत्र’ में जितने पेड़ होंगे, क्या हमारे पूरी काशी में उतने हैं ? मैं अपनी शंकर नगरी का अपमान नहीं कर रहा हूँ। बस नाटक के तथाकथित ‘ब्रेख्टियन स्टाइल’ में आपसे सवाल कर रहा हूँ,‘जरा सोचिए, क्या पेड़ न काटने के लिए हमें अपनी जेब से चवन्नी भी खर्च करनी पड़ती है?’
यहाँ किसी छोटे से द्वीप में भी हरियाली की छाजन इतनी मजबूत होती है कि सूर्य रश्मि की हिम्मत भी नहीं होती कि किसी आश्रम का शांति भंग करे।
तीन घंटे का सफर करीब चार घंटे में खतम। संगीतमय दृश्यावलोकन एवं जलयात्रा। गायक कोई विदाई गीत सुना रहा है। गीत की भाषा तो कुछ पल्ले नहीं पड़ रही है। कभी अंग्रेजी, तो एकाध बार शायद स्पैनिश में भी। इस बीच ओले ओले वाला साल्सा डान्स भी हो गया। हमारे सामने बैठी अकेली बुढ़िया बाला उठ कर नाचने लगी। उस हंगरियन जोड़े से जरा दूर हटकर। लाजवाब थिरकन! हे अपरिचिता, क्या जिंदगी में तुम्हारे कदम से कदम मिलानेवाला कोई शख्स मिला नहीं ? आज अकेली क्यों हो?
एक जापानी गुड़िया उस हंगरियन जोड़े से सट कर नाचने लगी। सभी तालियां बजा रहे हैं। उल्लास का परिंदा पंख फरफरा रहा है, उड़ रहा है उस नीलाकाश की ओर……
सामने दीख रहा है वो लाइट हाइस जैसी मीनार। रास्ते में और कई थीं। किसी जमाने में इन्हें तट रक्षकों के लिए बनायी गयी थी। आज वे नदियां से दरिया तक प्रकाश बिखेर रही हैं। उनके माथे पर तिकोना लाल टोप।
लहरों ने जब साहिल को देखा/लगा कि मंजिल मिल गई
मकतब से आ मुन्ने की बांछे / मां को छूकर खिल गई ।
© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी