हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ कठपुतली… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कठपुतली… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

मैं जड़ की जड़। वहीं की वहीं खड़ी रह गयी थी। लगा जैसे कोई प्रतिमा बनने का शाप दे दिया हो मुझे। क्या जो सुना वह वही था? जो सुना वह किसी नाटक का संवाद तो नहीं था। वह तो जिंदगी के किसी खास पल की गूंज थी।

-यहां मैं डायरेक्टर हूं और मैं ही हीरो। यह नाटक मेरे दम पर है। इस खेल तमाशे का दारोमदार मुझ पर है, तुम पर नहीं। समझीं।

पहली बार जैसे होश में आई और फिर जड़ की जड़ रह गयी। पहली बार सुनीं  नेपथ्य में अपनी छोटी सी बच्ची के रोने की आवाज़। पहली बार सुनी अपने पति की बात-इन नाटकों में कुछ नहीं रखा। जिंदगी देखो अपनी। नाटकों की झूठी शोहरत से बच्चे नहीं पल सकते। गृहस्थी नहीं चल सकती। लौट आओ।  लौट आओ।

सच। क्या मेरा पति ही सच कह रहा था? मैं उसे लगातार अनसुना करती थी और उसकी सज़ा आज पाई? क्या मैं नाटक में कुछ भी नहीं थी? क्या नाटक मेरे दम पर नहीं था? क्या नाटक में मेरा कोई मतलब नहीं था? मैं थी भी और नहीं भी? यानी मैं होकर भी नहीं थी? मेरी कोई जरूरत नहीं थी? मेरा होना कोई मायने नहीं रखता था? मेरे होने या न होने का कोई फर्क नहीं था। पर मुझे तो था। फिर मैं क्यों इनके साथ चलती रहूं?

वह सभागार जिसमें उस शाम हमारा शो होने वाला था पता नहीं कैसे मैंने वह पूरा किया। बाकी कांट्रैक्ट भी पूरे किए। फिर लौट आई अपने घर। कुछ दिन जैसे समझ ही नहीं आया कि मेरे साथ यह हुआ क्या? जिसके साथ मैंने शहर दर शहर की खाक छान कर नाटक मंडली को खड़ा किया, जमाया, वही कह गया बड़ी आसानी से -तुम्हें ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। यह नाटक मंडली चलती रहेगी क्योंकि मैं ही हूं इसका निर्देशक और नायक। जैसे कह रहे हों मैं ही हूं खलनायक भी।

-मैं कुछ भी नहीं?

-भ्रम में जीना हो तो जी लो। तुम कुछ नहीं।

यह क्या सुना था मैंने? क्या यही सुना  था मैंने?

-ठीक है। मैं कुछ नहीं तो अब से और आज से नहीं रहूंगी आपके साथ।

-मत रहो। चला लूंगा तुम्हारे बगैर। नाटक बंद नहीं हो जायेगा। जाओ।

-चली जाऊंगी। मैं पैसे के लिए नहीं आई थी आपके साथ। रंगकर्म के लिए आई थी। वह आपके बगैर भी हो सकता है। यह मैं भी साबित कर दूंगी। चैलेंज एक्सेप्टिड।

एक नारी जागी थी जैसे मूर्छा से। कितनी लम्बी मूर्छा रही। कितने बरस की मूर्छा रही।

खुद ही ऑफर दिया था। आप हमारे साथ आओ न। मैंने हिम्मत जुटाई। परिवार से लड़ी। सब कुछ सुना जो एक ब्याहता नहीं सुन सकती। सब सहा। पर नाटक मेरा जुनून बन गया। यहां से वहां। वहां से यहां। शहर दर शहर। देस ही नहीं परदेस। नाम। शोहरत। पर पैसा नहीं लिया एक भी। सिर्फ समर्पण। दिया ही दिया। कास्ट्यूम भी अपने खर्च पर। पर मिला क्या?

-जाओ। वहम में न जीओ। यह,,,बस यही सुनना था।

-तो सुनो। मैं भी आपके दम पर नहीं। अपने दम पर आई थी मंच पर। अपने दम पर लौट कर दिखा दूंगी। यह चैलेंज स्वीकार।

वह लौट आई। वही सारे कास्ट्यूम लेने घर भेज दिए जूनियर आर्टिस्ट जो मेरे ही पैसों से बने थे। मैंने चुपचाप सब सौंप दिए। ले जाओ। खुद बनवा लूंगी। अरे। आप साथ नहीं होंगे तो क्या मंच पर नहीं जाऊंगी? देखना एक दिन। इस तरह हमारे रास्ते अलग अलग हो गये थे। एक एक शहर में, एक ही संस्थान में हम अजनबी बन कर रह गये थे।

अंदर एक ज्वालामुखी धधकता रहता। कुछ कर दिखाना है। कुछ कर गुजरना है। इस कर गुजरने की गूंज मन में गूंजती रहती। सवाल यह भी कि नारी की कोई भूमिका नहीं? क्या कला की दुनिया में नारी सिर्फ शोभा की वस्तु है? नारी को इतना ही सम्मान है कि हमारी मर्जी से चलो। फिर वह चाहे कला हो या परिवार या समाज? सब एक ही डंडे से हांकते हैं  नारी को या नारी के लिए एक ही डंडा है या पैमाना है? कहीं कोई बदलाव नहीं? यह कैसा सशक्तिकरण? कैसा स्त्री विमर्श? नारी तो वहीं की वहीं। जस की तस।

फिर एक आइडिया आया। जैसे मैं कठपुतली बनी रही, क्या मैं कठपुतलियों के साथ नाटक नहीं कर सकती? पर कठपुतली तो कभी नचाई ही नहीं। खुद कठपुतली बन कर नाचती रही। फिर क्यों न पुरूष पात्रों का काम कठपुतलियों से लिया जाये? सही भी है। पुरूष को बता सकूं कि मैं नहीं। तुम कठपुतली हो। बस। सीखना शुरू किया। कठपुतली को नचाना। अपनी उंगलियों पर। मेरी बच्ची खुश थी । उसके चेहरे की मुस्कान मेरी जीत थी। मैं घर तो नहीं लौटी पर घर और नाटक के बीच संतुलन बनाना सीख गयी। आज मेरा कठपुतली शो था और मेरा पति सबसे आगे बैठा तालियां बजा रहा था। यह मेरी मंजिल थी।

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 90 – स्वधर्म ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #90 🌻 स्वधर्म 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक साधु गंगा में स्नान कर रहे थे. गंगा की धारा में बहता हुआ एक बिच्छू चला जा रहा था. वह पानी की तेज धारा से बच निकलने की जद्दोजहद में था. साधु ने उसे पकड़ कर बाहर करने की कोशिश की, मगर बिच्छू ने साधु की उँगली पर डंक मार दिया. ऐसा कई बार हुआ.

पास ही एक व्यक्ति यह सब देख रहा था. उससे रहा नहीं गया तो उसने साधु से कहा “महाराज, हर बार आप इसे बचाने के लिए पकड़ते हैं और हर बार यह आपको डंक मारता है. फिर भी आप इसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं. इसे बह जाने क्यों नहीं देते”

साधु ने जवाब दिया “ डंक मारना बिच्छू की प्रकृति और उसका स्वधर्म है. यदि यह अपनी प्रकृति नहीं बदल सकता तो मैं अपनी प्रकृति क्यों बदलूं?  दरअसल इसने आज मुझे अपने स्वधर्म को और अधिक दृढ़ निश्चय से निभाने को सिखाया है”

“आपके आसपास के लोग आप पर डंक मारें, तब भी आप अपनी सहृदयता न छोड़ें “

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 92 ☆ अनहोनी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘अनहोनी’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 92 ☆

☆ लघुकथा – अनहोनी ☆ 

कई बार दरवाजा खटखटाने पर भी जब रोमा ने दरवाजा नहीं खोला तो उसका मन किसी अनहोनी की आशंका से बेचैन होने लगा। ऐसा तो कभी नहीं हुआ। इतनी देर तो कभी नहीं होती उसे दरवाजा खोलने में। आज क्या हो गया ?  आज सुबह जाते समय वह बाथरूम से उससे कुछ कह रही थी लेकिन काम पर जाने की जल्दी में उसने  जानबूझकर उसकी आवाज अनसुनी कर दी। कहीं बेहोश तो नहीं हो गई ? दिल घबराने लगा, आस – पड़ोसवाले भी इकठ्ठे होने शुरू हो गए थे।

वह रोज सुबह अपने काम से निकल जाता और रोमा घर में सारा दिन अकेली  रहा करती थी। बेटी की शादी हो गई और बेटा विदेश में था। उसने कई बार पति को समझाने की कोशिश भी की कि अब उसे काम करने की कोई जरूरत नहीं है, उम्र के इस दौर में आराम से रहेंगे दोनों पति-पत्नी लेकिन पुरुषों को घर में बैठना कब रास आता है।  किसी तरह से घर का दरवाजा खोला गया। रोमा बाथरूम में बेहोश पड़ी थी उसे शायद हार्ट अटैक आया था। पड़ोसियों की मदद से वह रोमा को अस्पताल ले गया। रोमा को अभी तक होश नहीं आया था। वह उसका हाथ पकड़े बैठा था और सोच रहा था कि अगर आज भी रोज की तरह देर रात घर आता तो ?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – लाँग वॉक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – लाँग वॉक ??

तुम्हारा लाँग वॉक मार डालेगा मुझे…रुको..!.. इतना तेज़ मत चलो… मैं इतना नहीं चल सकती…दम लगने लगता है…हम कभी साथ नहीं चल सकते…, उसने कहा था। वह रुक गया। आगे जाकर राहें ही जुदा हो गईं।

बरसों बाद एक मोड़ पर मिले।…क्या करती हो आजकल?… लाँग वॉक करती हूँ, कई- कई घंटे… साथ वॉक करें कल? …नहीं मेरा वॉक बहुत कम हो गया है। मैं इतना नहीं चल सकता…दम लगने लगता है… हम कभी साथ नहीं चल सकते…, उसने फीकी हँसी के साथ कहा। राहें फिर जुदा हो गईं।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 31 – आत्मलोचन – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से  मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)   

☆ कथा कहानी # 31 – आत्मलोचन– भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

आत्मलोचन ने अंबानी – अदानी परिवार में मुँह में सोने का चम्मच दबाये हुये जन्म नहीं लिया था, बल्कि एक अत्यंत साधारण परिवार में जन्मजात कवच कुंडल जड़ित गरीबी के साथ धरती पर अवतरित हुये थे. बड़ी मुश्किल से मां बाप ने संतान का मुख देखा था तो इस दुर्लभ संतान का उपहार पाकर ईश्वर का वो सिर्फ आभार ही प्रगट कर सकते थे.

आत्मलोचन शिक्षा के प्रारंभिक काल से ही मेधावी छात्र निकले और उनके मुँह में सोने का चम्मच तो नहीं था पर इरादों में TMT के सरिया जैसी मजबूती जरूर थी. पता नहीं कब, पर बहुत जल्द उनको ये समझ आ गया था कि इस गरीबी को इस तरह से उतार फेंकना है कि उनके जीवन भर फिर कभी गरीबी से सामना करने की नौबत न आये. और इसका सिर्फ एक ही रास्ता था कि पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित करके सबसे बेहतर परिणाम हासिल किये जायें.

 ऐसा हुआ भी, धीरे धीरे उनकी निष्ठा, श्रम और इंटेलीजेंस से वो सारे इम्तिहान नंबर वन की पोजीशन से पास करते गये पर ये सफलता सिर्फ एकेडमिक थी. उनका स्वभाव दिन-ब-दिन कठोर और निर्मोही होता गया और निरंतर बढ़ते मेडल और पुरस्कार उनके मित्रों की संख्या भी कम करते गये. शायद उन्हें इनकी जरूरत भी महसूस नहीं हुई क्योंकि ये सब भी परिवार की आनुवांशिक गरीबी के शिकार थे और आत्मलोचन अपने जीवन से न केवल गरीबी हटाना चाहते थे, बल्कि वो सारे लोग वो सारी यादें भी, जो उन्हें गरीबी की याद दिलाती हों, हमेशा के लिये त्यागना चाहते थे. इतना ही नहीं बल्कि गरीबरथ पर यात्रा करने या गरीबी रेखा से संबंधित चैप्टर उनकी किताबों से और जेहन से गायब थे.

फिल्म एक फूल दो माली के “गीत गरीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा” पर उनका बिल्कुल भी विश्वास नहीं था और वो उसे अनसुना करने का पूरा प्रयास करते थे. गरीबी को मात देने की ये लड़ाई उन्होंने अपने TMT सरिया जैसे मज़बूत इरादों से आखिर जीत ही ली जब उन्होंने देश की सबसे कठिन, सबसे ज्यादा स्पर्धा वाली UPSC की परीक्षा भी प्राइम प्लेसमेंट के साथ क्लियर की और प्रशिक्षण के लिये लालबहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन मसूरी प्रस्थान किया.

गरीबी की आखिरी निशानी उनके शिक्षक मां-बाप थे जो उनके सपनों की उड़ान के सहभागी थे और फ्लाइट के टेकऑफ करने का इंतज़ार कर रहे थे. सामान्यतः IAS होने से बेहतर और प्रतिष्ठित सफलता का मापदंड भारतीय समाज़ में आज भी दूसरा नहीं है. तो अतीत की गरीबी के जन्मजात कवच कुंडल को अपनी काया और अपने मन मस्तिष्क से पूरी तरह त्यागकर “आत्मलोचन” ने अपने सुनहरे भविष्य की ओर अपने मज़बूत इरादों के साथ उड़ान भरी.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – महँगी घनिष्ठता ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ☆

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी की एक विचारणीय रचना महँगी घनिष्ठता

 ☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – महँगी घनिष्ठता ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ☆ 

पड़ोस के घर में दूर-दूर से जो परिचित आए उनमें से एक से घनिष्ठता बढ़ गई।  बड़े इतने प्यार से दीदी दीदी करते रहे। मैंने सोचा कि अच्छे लोगों से हमेशा परिचय और जान पहचान होनी चाहिए। फोन पर बातचीत के द्वारा पूरे घर परिवार से एक आत्मीयता बंध गई। शादी का कार्ड मिला फोन पर मुझसे कहा गया, नहीं तुम्हें तो बड़ी बहन का दर्जा निभाना है।

मैं भी स्नेह की डोर से बँधी कड़ी गर्मी में राजस्थान जैसी जगह पर सभी के लिए बेशकीमती तोहफ़े और  सामानों से लदी फदी पहुंची। आने जाने की टिकट, शादी की तैयारी का खर्च तो अलग था ही। वापस आते समय ₹1 भी मेरे हाथ पर नहीं रखा गया। कहा अरे आप तो बड़ी हैं, हम आपको क्या दें, यकायक मुझे महसूस हुआ कि वहां मेरे जैसी ही और भी बड़ी बहने मौजूद थी। 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

जबलपुर मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 89 – अभिमान ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #89 🌻 अभिमान 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा को यह अभिमान था कि – मैं ही राजा हूँ और सब जगत् का पालक हूँ, मनु आदि शास्त्रकारों के व्यर्थ विष्णु को गत् पालक कहकर शास्त्रों में घुसेड़ दिया है। एक बार एक संन्यासी शहर के बाहर एक पेड़ के नीचे जा बैठे। लोग उनकी शान्तिप्रद मीठी-मीठी बातें सुनने के लिए वहाँ जाने लगे। एक दिन राजा भी वहाँ गया और कहने लगा कि मैं ही सब लोगों का पालक हूँ।

यह सुनकर सन्त ने पूछा- तेरे राज्य में कितने कौए, कुत्ते और कीड़े हैं? राजा चुप हो गया। सन्त ने कहा- ’जब तू यही नहीं जानता तो उनको भोजन कैसे भेजता होगा? राजा ने लज्जित होकर कहा- ’तो क्या तेरे भगवान कीड़े-मकोड़े को भी भोजन देते हैं?  यदि ऐसा है तो मैं एक कीड़े को डिबिया में बंद करके रखता हूं, कल देखूँगा भगवान इसे कैसे भोजन देते हैं?

दूसरे दिन राजा ने सन्त के पास आकर डिबिया खोली तो वह कीड़ा चावल का एक टुकड़ा बड़े प्रेम से खा रहा था। यह चावल डिबिया बन्द करते समय राजा के मस्तक से गिर पड़ा था। तब उस अभिमानी ने माना कि भगवान ही सबका पालक है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – शत्रु ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा शत्रु।)

☆ लघुकथा – शत्रु ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

 (कविता के ऐसे तमाम शत्रुओं से क्षमा सहित)

– एक कवि आपसे मिलने के लिए द्वार पर हाथ बाँधे खड़ा है, आज्ञा हो तो उसे दरबार में आने दिया जाए ।

– कवि!! हमसे मिलने के लिए आया है, आश्चर्य! ये कवि कहे जाने वाले प्राणी तो जैसे पैदा ही राजाओं की निंदा के लिए हुए हैं ।

– पर यह कवि वैसा नहीं है ।

– कवि तो है न! तुम क्या नहीं जानते कि हम कवियों से और कवि हमसे कितना चिढ़ते हैं । कितने कवि हमारे कारागार में बंद हैं, कितनों पर मुकद्दमें चल रहे हैं, कितनों से हमारे दरबारी अपने स्तर पर लड़ रहे हैं ।

– जानता हूँ महाराज, पर इस कवि ने आपकी प्रशस्ति में कई चालीसे लिखे हैं, अब महाकाव्य लिखने की तैयारी में है । इस कवि ने प्रजा के बीच आपको अवतार के रूप में स्थापित करने का प्रण किया है ।

– अच्छा, उसका हमसे मिलने का प्रयोजन क्या है?

– वह आपको अपनी लिखी कविता की किताबें भेंट करना चाहता है ।

– किताबें! हा…हा…हा…हमने कभी कोई किताब पढ़ी है आज तक? और कविता के तो हम घोषित शत्रु हैं ।

– कविता का शत्रु तो वह भी है महाराज, अघोषित ही सही ।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #130 ☆ लघुकथा – समय की धार ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक विचारणीय लघुकथा  “समय की धार।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 130 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – समय की धार ☆

इंदु की बाहर पोस्टिंग हो जाने बाद आज उसका फोन आया. वहां के सारे हालचाल सुनाए और निश्चितता से कहा बहुत मजे से जिंदगी चल रही है.

हमने ना चाहते भी पूछ लिया अब शादी के बारे में क्या ख्याल है यह सुनते ही उसका गला भर आया.

उसने कहा..”माँ  बाबूजी भी इस बारे में बहुत फोर्स कर रहे हैं लेकिन मन गवाही नहीं दे रहा कि अब फिर से वही जिंदगी शुरू की जाए. पुराने दिन भुलाए नहीं भूलते।”

हमने समझाया ” सभी एक जैसे नही होते, हो सकता है कोई इतना बढ़िया इंसान मिले कि तुम पुराना सब कुछ भूल जाओ।”

“दी कैसे भूल जाऊं वह यादें… ,कितना गलत था मेरा वह निर्णय, पहले उसने इतनी खुशी दी और उसके बाद चौगुना दर्द, मारना -पीटना, भूखे रखना. उसकी माँ जल्लादों जैसा व्यवहार करती थी।”

“माँ बाप की बात को अनसुना करके बिना उनकी इजाजत के कोर्ट मैरिज कर ली और हमारे जन्म के संबंध एक पल में टूट गये।”

“देखो इंदु , अब तुम बीती बातों को भुला दो और अब यह आंसू बहाना बंद कर दो।”

“दी यह मैं जान ही नहीं पाई कि जो व्यक्ति इतना चाहने वाला था वह शादी के बाद ही गिरगिट की तरह रंग कैसे बदलने लगा।”

“इंदु अब तुम सारी बातों को समय की धार में छोड़ दो।”

“नहीं दी यह मैं नहीं भूल सकती, मैंने अपने माता पिता को बहुत कष्ट दिया, इसका उत्तर भगवान ने हमें दे दिया.”

“इंदु एक बात ध्यान रखना माता-पिता भगवान से बढकर है, वे अपनी संतान को हमेशा मांफ कर देते है।”

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – अक्षय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – अक्षय ??

बचपन में उसने तीन ‘द’ की कहानी पढ़ी थी। दानवों से दया, देवताओं से इंद्रिय दमन और मनुष्यों से दान अपेक्षित है।

वह अकिंचन था। देने के लिए कुछ नहीं था उसके पास। फिर वह अपनी रोटी में से एक हिस्सा दूसरों को देने लगा। प्यासों में बाँटकर पानी पीने लगा। छोटों को हाथ और बड़ों को साथ देने लगा।

सुनते हैं, अकिंचन का संचय सदा अक्षय रहा।

 

© संजय भारद्वाज

श्रीविजयादशमी, 2019, संध्या 5:17 बजे।

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares