(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा “ *गंगाजल*”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 113 ☆
लघु कथा *गंगाजल*
पहली बार गंगा स्नान के लिए गोमती गांव से इलाहाबाद जा रही थीं। बरसों की भावना और मन में उत्साह बहुत था। स्टेशन से गंगा तट की दूरी बहुत ज्यादा हैं। इसलिए एक आटो वाले के साथ अन्य लोगों के साथ अपने नाती को लेकर बैठ गई।
स्नान पूजन के बाद गंगा जल बाॅटल में भर बड़े जतन और श्रद्धा से गोद में लेकर उसी आटो से वापस स्टेशन आने लगी।
अत्यधिक भीड़ और धूप की वजह से रास्ते में आटो चालक जो शुगर पेशेंट था। अचानक उसे चक्कर सा आने लगा। उसने तुंरत आटो रोकने की कोशिश की और गिर पड़ा।
बाकी सभी बैठे यात्री अपनी अपनी गंगा जल की बाॅटल और सामान ले उतर कर भागने लगे। गोमती ने जल्द ही गंगा जल की बाॅटल खोल मुंह पर छींटा मारा और जल पिलाया।साथ में रखे खाने का सामान भी दिया।
सभी कहने लगे कितनी मेहनत से तुम गंगा जल ले जा रही थीं और इस आटो वाले को पिला कर जूठा कर लिया। नाती भी डांटने लगा इतना खर्च किएऔर आपने गंगा जल यूं ही खराब कर दिया।
आटो चालक चंगा हो चलाने की स्थिति में आ गया। बाकी महिलाओं ने कहा अब तुम पूजन के लिए क्या ले जाओगी।
गोमती मंद मंद मुस्कान के साथ बोली मेरी पूजा तो जन्मों जन्मों के लिए हो गई।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #79 – कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूँढे बन माँहि!! ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक बार भगवान दुविधा में पड़ गए। लोगों की बढ़ती साधना वृत्ति से वह प्रसन्न तो थे पर इससे उन्हें व्यावहारिक मुश्किलें आ रही थीं। कोई भी मनुष्य जब मुसीबत में पड़ता,तो भगवान के पास भागा-भागा आता और उन्हें अपनी परेशानियां बताता। उनसे कुछ न कुछ मांगने लगता। भगवान इससे दुखी हो गए थे।
अंतत: उन्होंने इस समस्या के निराकरण के लिए देवताओं की बैठक बुलाई और बोले- देवताओं !! मैं मनुष्य की रचना करके कष्ट में पड़ गया हूं। कोई न कोई मनुष्य हर समय शिकायत ही करता रहता है, जिससे न तो मैं कहीं शांति पूर्वक रह सकता हूं,न ही तपस्या कर सकता हूं। आप लोग मुझे कृपया ऐसा स्थान बताएं जहां मनुष्य नाम का प्राणी कदापि न पहुंच सके।
प्रभू के विचारों का आदर करते हुए देवताओं ने अपने-अपने विचार प्रकट किए।
गणेश जी बोले- आप हिमालय पर्वत की चोटी पर चले जाएं।
भगवान ने कहा- यह स्थान तो मनुष्य की पहुंच में है। उसे वहां पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा।
इंद्रदेव ने सलाह दी कि वह किसी महासागर में चले जाएं।”
वरुण देव बोले आप अंतरिक्ष में चले जाइए।
भगवान ने कहा- एक दिन मनुष्य वहां भी अवश्य पहुंच जाएगा।
भगवान निराश होने लगे थे। वह मन ही मन सोचने लगे- क्या मेरे लिए कोई भी ऐसा गुप्त स्थान नहीं है, जहां मैं शांतिपूर्वक रह सकूं ?
अंत में सूर्य देव बोले- प्रभू !! आप ऐसा करें कि मनुष्य के हृदय में बैठ जाएं। मनुष्य अनेक स्थान पर आपको ढूंढने में सदा उलझा रहेगा। पर वह यहाँ आपको कदापि न तलाश करेगा।
ईश्वर को सूर्य देव की बात पसंद आ गई। उन्होंने ऐसा ही किया। वह मनुष्य के हृदय में जाकर बैठ गए। उस दिन से मनुष्य अपना दुख व्यक्त करने के लिए ईश्वर को ऊपर, नीचे, दाएं,बाएं,आकाश, पाताल में ढूंढ रहा है पर वह मिल नहीं रहे। मनुष्य अपने भीतर बैठे हुए ईश्वर को नहीं देख पा रहा है।
( ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत।sअब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं प्रेरणास्पद लघुकथा “राम जाने”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 106 ☆
☆ लघुकथा- राम जाने☆
बाबूजी का स्वभाव बहुत बदल गया था। इस कारण बच्चे चिंतित थे। उसी को जानने के लिए उनका मित्र घनश्याम पास में बैठा था, “यार! एक बात बता, आजकल तुझे अपनी छोटी बेटी की कोई फिक्र नहीं है?”
बाबू जी कुछ देर चुप रहे।
“क्या होगा फिक्र व चिंता करने से?” उन्होंने अपने मित्र घनश्याम से कहा, “मेरे बड़े पुत्र को मैं इंजीनियर बनाना चाहता था। उसके लिए मैंने बहुत कोशिश की। मगर क्या हुआ?”
“तू ही बता?” घनश्याम ने कहा तो बाबूजी बोले, “इंजीनियर बनने के बाद उसने व्यवसाय किया, आज एक सफल व्यवसायी है।”
“हां, यह बात तो सही है।”
“दूसरे बेटे को मैं डॉक्टर बनाना चाहता था,” बाबू जी बोले, “मगर उसे लिखने-पढ़ने का शौक था। वह डॉक्टर बन कर भी बहुत बड़ा साहित्यकार बन चुका है।”
“तो क्या हुआ?” घनश्याम ने कहा, “चिंता इस बात की नहीं है। तेरा स्वभाव बदल गया है, इस बात की है। ना अब तू किसी को रोकता-टोकता है न किसी की चिंता करता है। तेरे बेटा-बेटी सोच रहे हैं कहीं तू बीमार तो नहीं हो गया है?”
“नहीं यार!”
“फिर क्या बात है? आजकल बिल्कुल शांत रहता है।”
“हां यार घनश्याम,” बाबूजी ने एक लंबी सांस लेकर अपने दोस्त को कहा, “देख- मेरी बेटी वही करेगी जो उसे करना है। आखिर वह अपने भाइयों के नक्शे-कदम पर चलेगी। फिर मेरा अनुभव भी यही कहता है। वही होगा जो होना है। वह अच्छा ही होगा। तब उसे चुपचाप देखने और स्वीकार करने में हर्ज ही क्या है,” कहते हुए बाबूजी ने प्रश्नवाचक मुद्रा में आंखों से इशारा करके घनश्याम से पूछा- मैं सही कह रहा हूं ना?
और घनश्याम केवल स्वीकृति में गर्दन हिला कर चुप हो गया।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा- यात्रा और यात्रा
जीवन में लोगों से आहत होते-होते थक गया था वह। लोग बाहर से कहते कुछ, भीतर से सोचते कुछ। वह विचार करता कि ऐसा क्यों घटता है? लोग दोहरा जीवन क्यों जीते हैं? फिर इस तरह तो जीवन में कोई अपना होगा ही नहीं! कैसे चलेगी जीवनयात्रा?
बार-बार सोचता कि क्या साधन किया जाय जिससे लोगों का मन पढ़ा जा सके? उसकी सोच रंग लाई। अंततः मिल गई उसे मन के उद्गार पढ़ने वाली मशीन।
विधाता भी अजब संजोग रचता है। वह मशीन लेकर प्रसन्न मन से लौट रहा था कि रास्ते में एक शवयात्रा मिली। कुछ हड़बड़ा-सा गया। पढ़ने चला था जीवन और पहला सामना मृत्यु से हो गया। हड़बड़ाहट में गलती से मशीन का बटन दब गया।
मशीन पर उभरने लगा शव के साथ चल रहे हरेक का मन। दिवंगत को कोई पुण्यात्मा मान रहा था तो कोई स्वार्थसाधु। कुछ के मन में उसकी प्रसिद्धि को लेकर द्वेष था तो कुछ को उसकी संपत्ति से मोह विशेष था। एक वर्ग के मन में उसके प्रति आदर अपार था तो एक वर्ग निर्विकार था। हरेक का अपना विचार था, हरेक का अपना उद्गार था। अलबत्ता दिवंगत पर इन सारे उद्गारों या टीका-टिप्पणी का कोई प्रभाव नहीं था।
आज लंबे समय आहत मन को राहत अनुभव हुई। लोग क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, किस तरह की टिप्पणी करते हैं, उनके भीतर किस तरह के उद्गार उठते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है अपनी यात्रा को उसी तरह बनाए रखना जिस तरह सारे टीका, सारी टिप्पणियों, सारी आलोचनाओं, सारी प्रशंसाओं के बीच चल रही होती है अंतिमयात्रा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।
☆ कथा-कहानी #95 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 6- दोई दीन से गए … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
॥ पानी कौ धन पानी में, नाक कटी बेईमानी में ॥
शाब्दिक अर्थ : गलत तरीके से कमाया हुआ धन पानी में बह जाता है और बेईमानी करने के कारण समाज में बेईज्ज्ती होती है सो अलग।
गलत तरीके से धन कमाने की बुंदेलखंड में कभी भी प्रसंशा नहीं की जाती रही है। धंधे व्यापार में जो लोग बेईमानी करते हैं वे समाज में कभी भी श्रद्धा के पात्र नहीं रहे। बुंदेलखंड में ऐसा माना जाता रहा है कि हत्या-हराम से धन कमाने वाले की बड़ी दुर्गति होती है और बदले में उन्हे कष्ट भोगना पड़ता है। यह कहावत भी इसी नैतिक शिक्षा को लेकर है व इसकी पीछे की कहानी ऐसी है कि एक दूध बेचने वाली ग्वालिन थी उसे पैसा जल्दी से जल्दी कमाने की बड़ी ललक थी। इसलिए उसने दूध में पानी मिला मिला कर बेचना चालू कर दिया। कुछ ही महीनों में उसने बहुत धन कमा लिया और इस रकम से एक बढ़िया सोने की नथ बनवाई। नई नई नथ पहन कर और खुशी में मिठाई खाते हुये वह ग्वालिन अपने गाँव की ओर चल पड़ी। रास्ते भर वह नथ को अपनी मिठाई लगी उंगलियों से छूती जाती और कल्पना करती कि उसकी नाक में नथ कितनी सुन्दर लग रही होगी। वह अपना चेहरा देखने हेतु ललचा ही रही थी कि रास्ते में एक कुआं पडा। उसने कुएं में झाक कर अपना चेहरा देखा और नाक में पहनी हुयी नथ देख देख कर बहुत खुश हो रही थी और अपने प्रियतम से मिलने वाली प्रसंशा की कल्पना कर रही थी। इतने में एक पक्षी ने उसकी नाक में लगी मिठाई को देखकर झपट्टा मारा, जिससे नथ उसकी नाक को फाड़ती हुयी कुएं के पानी में जा गिरी और उसकी नाक मुफ्त में ही कट गई। तभी से यह कहावत चल पड़ी। इसी कहावत से मिलती हुयी एक और नीति आधारित कहावत है –
“जो धन जुरें अधर्म सें, बरस दसक ठहराय।
बरस ग्यारवीं लगत ही जरा मूंढ सें जाय॥“
शाब्दिक अर्थ : अधर्म से अर्जित किया हुआ धन, केवल दस वर्ष तक ही रुक पाता है। ग्यारवें वर्ष के लगते ही वह समूल नष्ट हो जाता है। अत: अधर्म की कमाई से बचने का प्रयत्न करना चाहिए।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– परम संतोषी के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा – कहानी # 18 – परम संतोषी भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
कुछ पर्वों को बैंक की शाखाओं में मिल जुल कर साथ मनाने की परंपरा प्राचीन है.अगर आप इसे दीपावली, होली, ईद या क्रिसमस समझ रहे हैं तो गलत हैं. ये पर्व होते हैं ऑडिट और इंस्पेक्शन तथा वार्षिक लेखाबंदी. दिवाली की तरह इनकी तैयारी भी पहले से शुरू हो जाती है, जिम्मेदारी से भरे अधिकारी विनम्र हो जाते हैं और पर्सनल रिलेशन को दुरुस्त करने में लग जाते है. सारी शिकवा शिकायतों को एड्रेस करने की प्रणाली काम करने लगती है. ये वो पर्व होते हैं जो रुटीन एकरसता को भंगकर, कर्मक्षेत्र में श्रेष्ठ प्रदर्शन की भावना से लोगों को चुस्त और दुरुस्त करने का कारण बन जाते हैं. ऐसे लोग भी जिसमें हमारे संतोषी साहब भी हैं,ब्रांच की बनती हुई टीम स्प्रिट में अपना और अपनी तरह का योगदान देने में ना नुकर नहीं करते. शाखाएं सिर्फ शाखा प्रबंधक नहीं चलाते हैं बल्कि कुशल प्रबंधन के चितेरे हमेशा अपने स्टॉफ रूपी टीम के “not playing but leading from the front” समान कप्तान होते हैं. बैंक शाखाएँ मानवीय संबंधों की उष्णता और मिठास से चलती हैं.शायद प्रशासन और प्रबंधन में यही बारीक अंतर है. जो समझ जाते हैं वो शाखा से विदा होने के बाद भी अपनी टीम के दिलों पर राज करते हैं और जो समझना छोड़कर मैं मैं की खोखली अकड़ में अकड़े रहते हैं, वो अपने उच्चाधिकारियों के लिये भी सरदर्द और इनकांपीटेंसी का उदाहरण बन जाते हैं और शाखा का स्टाफ भी समोसा छाप फेयरवेल पार्टियों के बाद या तो उनको भूल जाता है या याद आने पर मन ही मन या रंगीन पार्टियों में गालियां देता है.
अपने निर्धारित अंतराल पर किंतु बिना सूचना के वो पर्व आ ही गया जिसे इंस्पेक्शन कहा जाता है और जो हर शाखा प्रबंधक के कार्यकाल में घटता है. चूंकि यह शाखा मुख्य प्रबंधक शासित शाखा थी तो निरीक्षण पर सहायक महाप्रबंधक पधारे थे और उनके साथ थे मुख्य प्रबंधक. सहायक अभी तत्काल उपलब्ध नहीं था तो उसके बदले उनको आश्वासन मिला कि आप ब्रांच तो ओपन कीजिए, सही समय पर बंदा पहुंच जायेगा, खास जरूरत हो तो ब्रांच से ही मांग लेना, आपको कौन मना कर सकता है. वाकई बैंक और बारात में इनके आदेश की अवमानना असंभव और हानिकारक है पहले वर के पिता और दूसरा तो आप समझ ही गये होंगे, आखिर बैंक में तो आप भी थे सर जी.
इंस्पेक्शन के आगमन के साथ नियंत्रक महोदय का फोन आया, सारी व्यवस्थाओं की जानकारी ली, लक्ष्य दिया और हिदायत भी कि निरीक्षक महोदय को कोई भी शिकायत का अवसर नहीं देना.वार्तालाप खत्म होने के पहले ही नियंत्रक महोदय को अचानक याद आ गया और उन्होंने संतोषी जी की ईश्वरप्रदत्त प्रतिभा का संपूर्ण दोहन करने का निर्देश भी शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय को दिया. आज पहली बार शाखा के मुख्य प्रबंधक जी को संतोषी साहब के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने चैंबर में बुलाकर पहले तो उन्हें बैठ जाने का सम्मान दिया और फिर प्रेम की बूस्टर डोज़ के साथ कहा ” देखिये संतोषी साहब,आप वरिष्ठ हैं और अनुभवी भी.काम की चिंता आप छोड़ दीजिये,ये तो ये युवा ब्रिगेड संभाल ही लेगी.काम करने के दिन तो इन्हीं के हैं. आप तो इंस्पेक्शन टीम का ख्याल रखिये. इंस्पेक्शन की हालांकि कोई टीम नहीं होती, जो इसका हिस्सा होते हैं परिस्थितियों के कारण अंशकालिक समय का साथ होता है वरना पद, सर्किल, स्वभाव, शौक सब के व्यक्तिगत और अलग अलग ही होते हैं. पद से जुड़ा ईगो और निर्धारित समय में बदलते स्थानों पर काम पूरा करना, स्थानीय जलवायु और स्थान की विषमता अस्वस्थता और चिड़चिड़ापन व्यक्तित्व का हिस्सा बना देती हैं. संतोषी साहब बैंक के काम में भले ही 17/18/19 हों पर निरीक्षण के लिये पधारे अधिकारियों के प्रबंधन में 20 से भी ज्यादा कुशल थे. क्षेत्रीय प्रबंधक महोदय उनके गुणों से वाकिफ थे तो इन मामलों में उन पर विश्वास करते हुये ही उन्होंने संतोषी जी को वही रोल दिया जिसमें उनका प्रदर्शन पद्मश्री पुरस्कार की श्रेणी का रहता आया था.
दर असल अपने परिवार के साथ रहकर घर के सुस्वादु भोजन और अंतरंगता के साथ बैंक में काम करना सहज और मनोरंजक होता है. वहीँ निरीक्षण का असाइनमेंट ये सब सुविधायें छीन लेता है.तरह तरह की विषम जलवायु, छोटे बड़े सेंटर, अस्वच्छता से भरे हॉटल, सर्विस दे रहे होटल के कर्मचारियों का उबाऊ रूप, मसालेदार और सेहत के लिये हानिकारक भोजन व्यवस्था और अनवरत यात्राओं की मुश्किलें उनसे वो छीन लेती हैं जो ढलती उम्र में पैसों से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है याने सेहत. संतोषी जी मेहमानों की इस तकलीफ से वाकिफ थे तो वो समझते थे कि राहत कैसे दी जा सकती है और इंस्पेक्शन टीम का मूड किस तरह अनुकूल किया जा सकता है.
कथा जारी रहेगी और संतोषी जी अपने मेहमानों के संतोष के लिये क्या तरकीब प्रयोग में लाते हैं, जानने के लिए प्रतीक्षा करें …
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है अपने कर्मफलों से जीवन में पश्चात् पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “ *अभिलाषा *”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 112 ☆
लघु कथा ? *अभिलाषा *?
कामता प्रसाद अस्पताल के चक्कर लगा लगा कर थक चुके थे। नौकरी भी जाती रही। भाई भतीजे ने अपना मुंह मोड़ लिया था। पत्नी बेचारी दिनभर उनके साथ लगी रहती।
कामता प्रसाद को जीने की बहुत इच्छा थी। मन में कई सवाल थे, जिनका उनके पास कोई उत्तर नहीं था। जीवन की घटनाओं को लेकर बेटी को बोझ समझ उसे अनाथालय में डाल बेटे की चाहत से सदा सदा के लिए कुछ कारणवश संतान विहीन हो चुके थे। मां ने बड़े प्यार से उस समय उसे अभिलाषा नाम रख छोड़ा था।
कभी-कभी वह अनजान बन उसे अन्य बच्चों की तरह मिल-देखकर, कुछ देकर चली आती। जिसकी कामता प्रसाद को खबर नहीं थी।
दिल पर पत्थर रखकर जीवन को जी रही थी। समय पंख लगा कर चला। मेडिकल स्टाफ नर्स बन चुकी थी अभिलाषा। और बार-बार इस औरत को अपने पास आकर देखने से उसके मन में भी चाहत और एक अपनेपन की भावना बढ़ चुकी थी। पर समझ नहीं पाई कि वह उसकी अपनी मां हैं।
कई वर्षों बाद आज अचानक उसके हॉस्टल के सामने रोते रोते बेसुध हो आवाज लगा रही थी…. अभिलाषा, अभिलाषा। वार्डन कहा जो इच्छा दीदी है मुझे भुला दो।
मां ने बेटी को कसकर गले लगा लिया और बोली… आज पिता तुल्य इंसान का जीवन तुम्हारे हाथों है बचाओ बेटी। इच्छा हैरानी से बोली… बताइए तो सही क्या बात है। मां ने सारी कहानी एक ही सांस में रोते हुए कह सुनाई और बोली दोनों किडनी खराब हो चुकी है और जीने की बहुत ही इच्छा है।
कोई भी किडनी देने को तैयार नहीं है और ना हमारी सामर्थ है। तुम ही कर सकती हो। सांत्वना देकर उसे जाने को कह वह सोचने लगी।
डॉक्टर से कार्यवाही शुरु कर अपनी ही एक किडनी देने को तैयार हो गई। ये जीवन तो पिता जी ने पहले ही खतम कर चुके हैं। आपरेशन के बाद एक बेड पर पिताजी और दूसरे बेड पर बेटी। ठीक होने पर कामता प्रसाद ने इच्छा से कहा…. मेरे जीवन की अभिलाषा बनकर क्या मुझे माफ नहीं कर सकोगी बेटी??
अभिलाषा अनजान बन अपना रास्ता चलते बनी जैसे कभी कुछ हुआ और देखा सुना ही नहीं।
कामता प्रसाद के आंखों से खून के आंसू बहने लगे क्या?? ये जीना भी कोई जीना होगा?
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादकश्री विजय कुमार जी की एक विचारणीय लघुकथा “फ़ोन कॉल“।)
☆ लघुकथा – फ़ोन कॉल☆
सीमा सुबह पति को ऑफिस भेजकर फटाफट अपने सभी काम निपटा रही थी, क्योंकि आज बिजली का बिल जमा करवाने की अंतिम तिथि थी, अत: उसे बिजली का बिल भरने जाना था। तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी, काम छोड़कर सीमा ने मोबाइल उठाया, “हेल्लो, कौन बोल रहे हैं?”
“जी, मैं बैंक से रामकुमार बोल रहा हूँ। आपका एटीएम कार्ड ब्लाक हो गया है। आप अपने एटीएम कार्ड का सोलह डिजिट का नंबर बताएं। इसे नया बना कर दो घंटे में आपका एटीएम कार्ड चालू कर दिया जायेगा। आपको बैंक आने की भी जरूरत नहीं है। कार्ड आपके घर पर ही पहुंचा दिया जाएगा। अपना पिन नंबर भी बताएं, और हाँ, बैलेंस भी बताएं।”
एक साथ इतने सारे सवाल सुन कर सीमा चकरा गयी। वह पहले ही जल्दी में थी, इस नयी मुसीबत से और घबरा गयी। उसने आव देखा न ताव, तुरंत एटीएम कार्ड निकाला, कार्ड का नंबर और पिन कार्ड बतला दिया।
दस मिनट के अन्दर ही सीमा के मोबाइल पर दो मेसेज आ गए। उसके बैंक खाते से तीस हज़ार रुपए निकाले जा चुके थे।
सीमा और भी घबरा गयी। वह तुरंत बैंक गयी और बैंक मैनेजर से बैंक से फ़ोन आने की बात कही। तब बैंक मैनेजर ने बताया, “मैडम हमारे बैंक से आपको कोई फ़ोन नहीं किया गया है। ऐसे ही फ़ोन हमारे और भी कई ग्राहकों को किये गए हैं और उनके साथ भी ऐसा ही हुआ है, जो आपके साथ हुआ है। हमने तो अखबार में भी कई बार यह खबर छपवाई है कि हमारे बैंक से किसी को ऐसे फोन नहीं किये जाते, अत: कृपया अपना एटीएम कार्ड नंबर और पिन नम्बर किसी को भी न बताएं।”
सीमा को समझते देर नहीं लगी कि उस एक फ़ोन कॉल से वह ठगी जा चुकी थी।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #78 – महानता के लक्षण ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक संत थे। वह नदी तट पर आश्रम बनाकर रहते और अपने शिष्यों को शिक्षा देते थे। कुंभी नामक उनका एक शिष्य दिन-रात उनके पास ही रहता था। संत उसके प्रति काफी स्नेह रखते थे। एक दिन उसने संत से सवाल किया, ‘गुरुजी, मनुष्य महान किस तरह बन सकता है?’ संत बोले, ‘कोई भी मनुष्य महान बन सकता है लेकिन उसके लिए कुछ बातों को अपने दिलो-दिमाग में उतारना होगा।’
इस पर कुंभी बोला, ‘कौन सी बातों को?’ संत ने कुंभी की बात सुनकर एक पुतला मंगवाया। संत के आदेश पर पुतला लाया गया। संत ने कुंभी से कहा कि वह उस पुतले की खूब प्रशंसा करे। कुंभी ने पुतले की तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए। वह बड़ी देर तक ऐसा करता रहा। इसके बाद संत बोले, ‘अब तुम पुतले का अपमान करो।’
संत के कहने पर कुंभी ने पुतले का अपमान करना शुरू कर दिया। पुतला क्या करता! वह अब भी शांत रहा। संत बोले, ‘तुमने इस पुतले की प्रशंसा व अपमान करने पर क्या देखा?’ कुंभी बोला, ‘गुरुजी, मैंने देखा कि पुतले पर प्रशंसा व अपमान का कुछ भी फर्क नहीं पड़ा।’
कुंभी की बात सुनकर संत बोले, ‘बस महान बनने का यही एक सरल उपाय है। जो व्यक्ति मान-अपमान को समान रूप से सह लेता है, वही महान कहलाता है। महान बनने का इससे बढ़िया उपाय कोई और नहीं हो सकता।’
संत की इस व्याख्या से उनके सभी शिष्य सहमत हो गए और सबने प्रण किया कि वे अपने जीवन में प्रशंसा व अपमान को समान रूप से लेने का प्रयास करेंगे।