हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – मसीहा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी  एक विचारणीय लघुकथा मसीहा ।)

☆ लघुकथा – मसीहा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

पीढ़ियों से प्रजा मसीहाओं के भरोसे रहती आई थी। हर राजा में प्रजा ने मसीहा देखा और हर बार छली गई। प्रजा अकर्मण्य नहीं थी ,पर ‘कर्म करो और फल की चिन्ता मत करो’ के सिद्धांत में उसकी गहरी आस्था थी। प्रजा कर्म करती, फल राजा या दरबारी भोग लेते। अब हालत यह थी कि भूख थी, खेत बंजर हो गये थे। प्यास थी, नदियों में पानी नहीं था। हाथ थे, हाथों के लिए कोई काम नहीं था। लोग बिना किसी पवित्र उद्देश्य के मर रहे थे। प्रजा सदा की तरह मसीहे की प्रतीक्षा कर रही थी।

ऐसी निराशा के बीच प्रजा ने अपने नये राजा में भी मसीहे को देखा। प्रजा का दृढ़ विश्वास था कि यह सचमुच का मसीहा साबित होगा। उसकी वाणी में ओज था, चेहरे पर आत्मविश्वास। वह शेर की तरह चलता था, बाज़ की तरह देखता था, कृष्ण की तरह वस्त्र धारण करता था। प्रजा नये मसीहे की पूजा करने लगी। मसीहे का हर झूठ प्रजा को सच से भी ज़्यादा विश्वसनीय तथा मोहक लगता। हर मसीहे की तरह नया मसीहा भी जानता था (बल्कि औरों से कहीं बेहतर जानता था) कि जैसे प्यार हर व्यक्ति के भीतर सहज ही उपस्थित रहता है, ठीक वैसे ही प्यार से कई गुणा अधिक घृणा भी सहज ही उपस्थित रहती है। उसने पहले प्रजा के भीतर गौरव जगाया कि उसकी प्रजा सर्वश्रेष्ठ है। प्रजा को अपनी क़ीमत समझ में आई। फिर मसीहे ने उनके भीतर की घृणा को कुरेदकर उसमें आग लगा दी। चूँकि घृणा सृष्टि की सर्वाधिक विस्फोटक सामग्री है, सो जल्दी ही आग पूरी रियासत में फैल गई। अब प्रजा रक्त से फाग खेलती है। उसे न रोटी चाहिए, न पानी, न काम। प्रजा ख़ून देखकर अट्टहास करती है और मसीहे की जय-जयकार करती है। उसका दृढ़ विश्वास है कि रक्त की नींव पर जल्दी ही उसके स्वर्णिम भविष्य की भव्य इमारत बनने वाली है।

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#127 ☆ लघुकथा – सम्मान – सुरक्षा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “कोई बात नहीं…”)

☆  तन्मय साहित्य  #127 ☆

☆ लघुकथा –  सम्मान – सुरक्षा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

“हम जरा बाहर जा रहे हैं, पिताजी!”

बहु के साथ दरवाजे से निकलते हुए बेटे ने कहा।

“ठीक है बेटे।”

“कुछ लाना तो नहीं है आपके लिए?”

“नहीं।”

“लौटने में हमें कुछ देर हो सकती है”

“कोई बात नहीं”

भले ही बच्चे पूछते नहीं है अब मुझसे, पर बता के तो बाहर जाते हैं, सोचते हुए बुजुर्ग सुखलाल इसी में संतुष्ट थे।

यह अलग बात है कि, घर से निकलते  समय उनके लिए यह बताना भी कितना जरूरी रहता है कि,

“पिताजी! दरवाजा ठीक से बंद कर लेना”

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – डर के आगे जीत है- (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – डर के आगे जीत है- (2) ??

उसे लगता इस समय बाहर मृत्यु खड़ी है। दरवाज़ा खुला कि उसका वरण हुआ। सो घंटों वह दरवाज़ा बंद रखती। स्नान करने जाती तो कई बार दो घंटे भीतर ही दुबकी रहती। वॉशरूम में रुके रहना उसकी मजबूरी बन चुकी थी। मन जब प्रतीक्षारत मृत्यु के चले जाने की गवाही देता, वह चुपके से दरवाज़ा खोलकर बाहर आती।

आज फिर वह बाथरूम में थर-थर काँप रही थी। मौत मानो दरवाज़ा तोड़कर भीतर प्रवेश कर ही लेगी। एकाएक सारा साहस बटोरकर उसने दरवाज़ा खोल दिया और निकल आई मौत का सामने करने!

आश्चर्य..! दूर-दूर तक कोई नहीं था। उसका भय काल के गाल में समा चुका था।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 104 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 15 – राजा मारै गाँव कौ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 104 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 15 – राजा मारै गाँव कौ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (15)  

राजा मारै गाँव कौ, कहन कौन सौं जाय।

बाड लगाई खेत खौं , बाड खेत खौं खाय ॥

शाब्दिक अर्थ :- यदि गाँव का प्रमुख ग्राम के निवासियों के साथ अत्याचार करने लगे तो ग्रामीण किससे शिकायत करने जाएँगे। बाड़ खेत की रक्षा करने के लिए होती है अब यदि बाड़ ही खेत को खा जाय तो क्या किया जा सकता है।

रामायण को हिरदेपुर आए 15 वर्ष हो गए और उन्होने सजीवन का विवाह भी महोबे जाकर कर दिया। विवाह के दो तीन वर्ष बाद भोला का जन्म हुआ और रामायण पाण्डे पितामह बन गए। दुर्भाग्य से भोला के जन्म के दो वर्ष के अंदर ही रामायण पाण्डे और उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया और मंदिर की सारी व्यवस्था अपने पिता की ही भाँति सजीवन देखने लगे। यह सब साल 1925 के आसपास की घटनाएँ थी। महात्मा गांधी के किस्से सारे देश में सुने  और सुनाए जाने लगे थे और दमोह भी उससे अछूता न था। अंग्रेजों और उनके द्वारा नियुक्त कर्मचारियों व जमींदारों से त्रस्त जनता गांधीजी की बातें कर स्वयं को दिलासा देती और ऐसी चर्चाओं में सजीवन पाण्डे भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते।

साल 1933 की दीवाली के बाद चर्चा फैली कि  महात्मा गांधी दमोह आने वाले हैं। फिर क्या था सारे शहर में माहौल बनते देर न लगी। सजीवन का स्टेशन की शंकर जी की मड़ैया पर नित्य आना जाना था। वहाँ से वे नया नए समाचार लाते। संझा बेला हिरदेपुर के मंदिर में चौपाल लग उठती और सजीवन पाण्डे दो-चार भजन सुनाने के बाद गांधी आगमन की चर्चा करना न भूलते।

‘काय पंडितजी दमोह में का खबर है सुन रय गांधी बब्बा आवे वारे हें।‘ एक ग्रामीण ने पूंछा

‘हओ दो दिसंबर की तारीख मुकरर भाई हेगी अहीर भइया।‘ सजीवन ने जबाब दिया।

‘जे गांधी बब्बा को आयें और दमोह का करबे आ रए।’ रज्जु काछी ने पूंछा

अरे वे बड़े महात्मा हें, अंग्रेजन से लड़ रय। देश में सुराज आबे वारो हेगों। ‘ चौपाल में से कोई बोला।

‘सुनी है उनने चंपारण में और गुजरात में किसानन के लाने भारी अंदोलन करो।‘ एक और आवाज आई

‘हाँ भाइयो महात्मा गाँधी गढ़ाकोटा से होते हुये दमोह आएँगे और रास्ते में हमारा गाँव भी पड़ेगा हमे उनके स्वागत की तैयारी करनी है।‘ ऐसा कह सजीवन ने चौपाल समाप्ति की घोषणा कर दी।

गाँव में शूद्र भी अच्छी खासी संख्या में रहते थे और बड़ी दरिद्री का जीवन यापन करते थे, चौपाल व पंचायत में तो आते पर कहीं दूर बैठ बाते सुनते। बोलने का अधिकार उन्हे न था। जब गांधीजी के स्वागत की बात चौपाल में तय हुयी तो सजीवन पाण्डे ने ठाकुर साहब से विनती करी

‘राजा अपने गाँव के शूद्रन खों भी गांधी बब्बा के स्वागत के लाने इक्क्ठे होबे को हुकुम जारी कर देव।“

‘अरे वे का करहें उते आके, उन्हे इन सब बातों की का समझ।‘ ठाकुर साहब ने अनमने ढंग से कहा।

‘राजा दमोह में खबर हेगी की गांधी बब्बा इनयी औरन के लाने जा यात्रा कर रय हें।‘ सजीवन बोले।

‘पंडतजू जे ओरें ढ़ोर हें इन्हे खेतन में काम कर्ण देओ, मारे पै मर्दन चढाबे की कोशिश ने करो (निर्बल को सबल बनाने की कोशिश मत करो) ।‘ ठाकुर साहब ने थोड़ी झुझंलाहट के साथ कहा। 

‘राजा जे ओरें भी तुमाई परजा हें, पंडितजी महराज साँची के रय हेंगे, उनकी बात मान लेओ।‘ बटेशर यादव, परम लाल काछी ने भी सजीवन की बात का समर्थन कर दिया।

सभी की राय को स्वीकार करने के अलावा  ठाकुर साहब के पास कोई चारा न रहा और उन्होने परमा कोरी तथा धनुआ चमार को गांधीजी के स्वागत कार्यक्रम में सब लोगों को लेकर आने का हुकुम दे दिया।   

फिर क्या था गाँधीजी के आगमन के दिन  हिरदेपुर को खूब सजाया गया, रास्ते के दोनों ओर केले के बड़े बड़े तने गाड़े गए आम के पत्तों के बंदनवार सजाये गए और रास्ते में तरह तरह के फूल बिछाए गए। सारा गाँव क्या स्त्री क्या पुरुष, क्या बूढ़े क्या जवान सब सड़क के दोनों ओर लाइन बनाकर खड़े हो गए।   सजीवन पाण्डे और उनकी भजन मण्डली गाने लगी ‘ गाँधी बब्बा आएँगे हमारे कष्ट हरेंगे।‘

गांधीजी का काफिला जब हिरदेपुर गाँव से गुजरा तो सजीवन पाण्डे भी उसके पीछे पीछे दमोह की ओर चल दिये। गांधीजी तो हरिजन सेवक संघ के द्वारा तय कार्यक्रम के अनुसार हरिजन बस्ती में एक गुरुद्वारे की नीव रखने चले गए। सजीवन पाण्डे गल्ला मंडी के सभास्थल पर पहुँच गए। जनता में भारी उत्साह था सब तरफ लोग ही लोग नज़र आ रहे थे और गांधी जी के जयकारे की गूँज के अल्वा कुछ सुनाई न देता था। शाम होते होते गांधीजी सभा स्थल पर पहुँच गए और फिर उनका भाषण चालू हुआ। वे खूब बोले पर सबसे ज्यादा ज़ोर हरिजनों को लेकर रहा। गुरुद्वारे की नीव रखने की चर्चा की और जनता से कहा की भगवान के मंदिर हरिजन भाइयों के लिए खोल दे। सभा से लौटते हुये सजीवन ने मन ही मन तय कर लिया कि हिरदेपुर के गरीबा बसोर  व उसकी बस्ती के निवासियों  को अब वे शूद्र नहीं हरिजन मानेंगे और मंदिर में अपने इन भाइयों के प्रवेश के लिए गाँव के सभी लोगों को तैयार करेंगे।  अपनी कुटिया में वे पहुँचे ही थे कि   पंडिताइन ने उलाहना दिया कि ‘किधर निकाल गए थे अच्छा हुआ कि तुम्हारे  दमोह निकल जाने की बात कटोरीबाई खबासन ने हमे बता दी।‘ सजीवन ने भी पंडिताइन को पूरा हाल सुनाया और अपने संकल्प की बात भी कह दी।

‘भोला की अम्मा अब अपने मोड़ा को नाव आज से मोहन दास रख दओ हमने।‘ सजीवन बोले

‘नई भोला के दद्दा हम महात्माजी  को नाव न लेबी हम तो मोड़ा को भोला के नाव से पुकारब, तुम चाहो तो स्कूल में उखो नाव महातमाजी के नाव पर लिखा दईओ। ‘ पंडिताइन ने जबाब दिया।

दूसरे दिन सजीवन ने परमा खबास और उसकी घरवाली कटोरीबाई खबासन के हाथों पूरे गाँव को मंदिर बुलवा डाला। सुबह सुबह कलेवा कर सारा गाँव मंदिर में आ जुटा, बसोरन टोला और चमार पुरवा से भी सभी लोग आए और मंदिर की परछाई से दूर डरे सहमे से बैठ गए। किसी को अनुमान न था क्या होने वाला है। सब एक दूसरे से बुलौआ का कारण पूंछ रहे थे की सजीवन की मधुर आवाज सुनाई दी।

भाइयो कल दमोह की गल्ला मंडी में महात्मा जी की भारी सभा हुई। सभा के पहले महात्मा गांधी दमोह में बसोरन मोहल्ला गए वहाँ उन्होने हमारे बसोर भाइयों के लिए गुरुद्वारे की नीव रखी और दो सौ रुपया दान दिया। गांधीजी पूरे भारत में हमारे इन्ही भाइयों के लिए घूम घूम कर चन्दा एकत्रित कर रहे हैं। दमोह में तो अंग्रेजों ने भी गांधीजी को चन्दा दिया। गांधीजी कहते हैं की हमारे यह भाई भी भगवान की संतान हैं और इसलिए वे अछूत नहीं है हरिजन हैं। गांधीजी की इच्छा का मान रखने के लिए मैं चाहता हूँ की अपने गाँव हिरदेपुर का शिव मंदिर भी हमारे इन्ही हरिजन भाइयों के लिए खोल दिया जाय। हमारे यह भाई भी भगवान का दर्शन करें, भोग प्रसाद पायें और छुआछूत का भेद इस गाँव से मिट जाय।‘ ऐसा कह सजीवन ने सारे ग्रामीणों की ओर आशा भरी निगाहों से देखा।

सजीवन की बात सुन बटेसर यादव थोड़ा भिनके और अपनी असहमति दिखा दी। मनीराम बनिया भी सजीवन की बात से सहमत न था बोला

‘पंडितजी वेद पुराण इन ओरन को अछूत मानत हैं आप उलटी गंगा न बहाओ।‘

परम लाल काछी और अन्य काछी व पटेल वैसे तो  बसोरो और चमारों के हितैषी थे क्योंकि इन जातियों के लोग उनके खेतों में दिन रात मेहनत करते थे पर वे भी छुआछूत के सामाजिक बंधन को त्यागना नहीं चाहते थे। हरिजन तो बिचारे चुपचाप बैठे रहे उनकी हिम्मत ही न हुई की कुछ कह सकें। सवर्णों की उपस्थिति में उनकी बिसात ही क्या थी कि मुख खोल सकें।

जब कोई सहमति न बन सकी तो बात ठाकुर साहब पर छोड़ दी गई। ठाकुर साहब,जो अकले  तख़्त पर गाव तकिया के सहारे बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे, बोले

‘भाइयो महात्मा गांधी बड़े आदमी हैं वे चाहे जो कहे, चाहे जिसके हाथ का छुआ पानी पीयें पर हम अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे। वेद पुराण इन्हे अछूत कहते हैं। इनका जनम हम लोगों की सेवा चाकरी के लिए हुआ है। हमारे पुरखों ने धरम की रक्षा के लिए लड़ाइयाँ लड़ी हम अपने गाँव में यह नई प्रथा नहीं चलने देंगे। इन अछूतो के लिए हम अपने पुरखों का मंदिर नहीं खोल सकते।‘

‘राजा यह सब आपकी प्रजा हैं, आपके जैसे ही ईश्वर ने इन्हे भी बनाया हैं।‘ सजीवन ने बीच में टोका।

ठाकुर साहब ने तीक्ष्ण निगाहों से सजीवन की ओर देखा और कहा ‘पंडित जी यह मंदिर हमारे कक्काजू  ने आपको धर्म की रक्षा के लिए दिया था अधर्म फैलाने के लिए नहीं।‘

‘राजन हम भी आपसे अनुनय कर रहें हैं अब जमाना बदल रहा है, इन भाइयों को मंदिर में दर्शन की अनुमति दे कर पुण्य कमाओ।‘ सजीवन बोले

आज तक ठाकुर साहब के सामने इतनी बहस करने की हिम्मत किसी की न हुई थी। सजीवन की दलीलों का ठाकुर साहब के पास कोई जबाब भी न था और सजीवन के तर्कों ने उन्हे क्रोधित कर दिया। वे गुस्से में बोले ‘ सजीवन पंडित हम कुछ नहीं जानते, हमारा मंदिर इन अछूतो के लिए नहीं कुल सकता, तुम इस मंदिर को और  कुटिया को कल तक खाली कर दो।‘ इतना कह सभा बर्खास्त कर ठाकुर साहब चल दिये। उनको जाता देख सारे गाँव वाले भी उठ कर चल दिये। भीड़ में से किसी ने पंडित रामायण पांडे की  ओर इशारा कर कहा ‘ पांडे चले हते  अपनों वजन बढ़ावे पर मूँढ मुडात ओरा पड गये’। ( पाण्डेजी चाह रहे थे कि उनका मान सम्मान बढ़े, वे गाँव के नेता बन जाएँ पर यह क्या काम शुरू होने के पहले ही विघ्न पड़ गया।)

मंदिर के आसपास केवल  कुत्तों के भोकने की आवाजें शेष रह गई थी।

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 27 – स्वर्ण पदक – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)   

☆ कथा कहानी # 27 – स्वर्ण पदक 🥇 – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

रजतकांत छोटा भाई था, पढ़ाई से ज्यादा, खेल उसे आकर्षित किया करते थे और स्कूल के बाकी शिक्षकों की डांट फटकार उसे स्पोर्ट्स टीचर की ओर आकर्षित करती थी, जो उसकी खेल प्रतिभा के कारण उससे स्नेह करते थे. जब देश में क्रिकेट का जुनून सर चढ़कर बच्चों के मन को आकर्षित कर रहा था, दीवाना बना रहा था, उस वक्त रजतकांत हाकी में जन्मजात निपुणता लेकर अवतरित हुआ था. मेजर ध्यानचंद की उसने सिर्फ कहानियां सुनी थीं पर वे अक्सर उसके सपनों में आकर ड्रिबलिंग करते हुये गोलपोस्ट की तरफ धनुष से छूटे हुये तीर के समान भागते दिखाई देते थे.  जब रजत को मुस्कुराते हुये देखकर गोल मारते थे तो गोलपोस्ट पर खटाक से टकराती हुई बॉल और गोल ….के शोरगुल की ध्वनि से रजतकांत की आंख खुल जाती थी.

सपनों की शुरुआत रात में ही होती है नींद में,पर जागते हुये सपने देखने और उन्हें पूरा करने का ज़ुनून कब लग जाता है, पता ही नहीं चलता. स्वर्णकांत और रजतकांत की आयु में सिर्फ तीन साल का अंतर था पर पहले स्कूल और फिर कॉलेज में उम्र के अंतर के अनुपात से क्लास का अंतर बढ़ता गया. जब स्वर्णकांत विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त कर बैंक की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, रजतकांत कला संकाय में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने की लड़ाई लड़ रहे थे. डिग्रियां उनका लक्ष्य कभी थी ही नहीं पर हां कॉलेज की हाकी टीम के वो कप्तान थे, सपनों में ध्यानचंद से सीखी गई ड्रिबलिंग, चुस्ती, तेज दौड़ने का स्टेमिना, विरोधी खिलाड़ी को छकाते हुये बाल छीन कर गोलपोस्ट की तरफ बढ़ने की कला जो हॉकी के मैदान में दिखाई देती थी, वो दर्शकों को दीवाना बना देती थी और पूरा स्टेडियम रजत रजत के शोर से गूंजने लगता था जब उनके पास या इर्दगिर्द बॉल आती थी.पर दर्शकों को ,सत्तर मिनट के इस खेल में जो दिखाई नहीं देती थी, वह थी “उनका टीम को एक सूत्र में बांधकर लक्ष्य को हासिल करने की कला”. इस कारण ही उनकी टीम हर साल विश्वविद्यालय की हॉकी चैम्पियन कहलाती थी और स्वर्ण पदक पर सिर्फ रजत के कॉलेज का दावा, स्वीकार कर लिया गया था.

इस कारण ही जब उनके परीक्षा पास नहीं करने के कारण उनके पिताजी नलिनीकांत नाराज़ होकर रौद्र रूप धारण करते थे, उनके कॉलेज के प्रिसिंपल और स्पोर्ट्स टीचर खुश हुआ करते थे और उन्हें कॉलेज में बने रहने का अभयदान दिया करते थे.

🏑 क्रमशः … 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – एक पंथ कई काज ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “एक पंथ कई काज)

☆ लघुकथा – एक पंथ कई काज ☆

“क्या बात, आजकल कार से काम पर आ-जा रहे हो। मजे ही मजे, आराम ही आराम, शान ही शान और मान ही मान है अब तो।” दोस्त आशुतोष ने कटाक्ष करते हुए कहा।

नसीब समझ गया। आशुतोष को फिजूलखर्ची से चिढ़ थी। शायद उसका कार में आना-जाना उसे फिजूलखर्ची लग रहा था। नसीब ने हंसकर कहा, “बेशक कार से आने जाने में मजा और आराम तो है ही, लोग इसे शान की सवारी कहते हैं, तो आदर-मान भी पूरा देते हैं। परंतु इसके साथ-साथ मेरे लिए और भी कई कारण हैं कार से आने-जाने के। हालांकि तुम जानते हो कि जब तक जरूरी ना हो मैं ऐसी चीजों पर खर्चा नहीं कर सकता।”

“और क्या कारण हैं भई, हम भी तो सुने?” आशुतोष थोड़ी-सी गंभीर मुद्रा में बोला।

“तुम तो जानते हो कि जब से मेरा बायाँ पैर दुर्घटनाग्रस्त हुआ है, मैं ठीक से पैर नीचे नहीं लगा पाता हूँ। तो स्कूटर-मोटरसाइकिल से कहीं आते-जाते समय परेशानी रहती है। इसलिए मैंने कार से आने जाने का निर्णय लिया है।” नसीब ने स्पष्ट किया।

“बात तो तुम्हारी सही है यार, एक-डेढ़ लाख के नीचे तो तुम पहले भी आ गए थे जब तुम्हारे साथ यह दुर्घटना हुई थी।” आशुतोष बात का समर्थन करते हुए बोला।

“इसके इलावा जैसा कि तुम जानते ही हो कि मैं कई सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़ा हुआ हूं, और मुझे सामाजिक और कल्याणकारी कार्य करने का भी शौक है। तो मुझे बहुत सा साजो-सामान अपने साथ रखना पड़ता है, जो मैं अब गाड़ी में ही अपने साथ रखता हूं। मुझे सुविधा रहती है और जरूरत पड़ने पर सामान की तुरंत पूर्ति भी हो जाती है।”

“यह भी सही है। कई लोग तो केवल दिखावे के लिए ही यह सब करते रहते हैं, तुम तो फिर भी…।” आशुतोष प्रभावित होता हुआ बोला।

“एक बात और, आते-जाते मुझे जो भी मिलता है मैं उसे लिफ्ट भी दे देता हूं। कई बार तो कुछ बहुत ही ज्यादा जरूरतमंद लोग मिल जाते हैं, जैसे किसी ने जल्दी से ट्रेन या बस पकड़नी है, कोई बीमार है, या किसी को कहीं बहुत जरूरी काम है, वगैरह-वगैरह; तो वह भी एक अच्छा काम साथ-साथ हो जाता है। इसमें मेरा जाता भी क्या है? मैंने तो आना-जाना होता ही है। कई लोग तो अब मजाक में मुझे ‘लिफ्टमैन’ के तौर पर भी जानने लगे हैं।”

“यानी ‘एक पंथ कई काज’।” आशुतोष अब संतुष्ट था।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 121 – लघुकथा – दायरा… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है प्रेमविवाह  एवं नए परिवेश में  पुराने विचारधारा के बीच सामंजस्य पर आधारित अतिसुन्दर लघुकथा  “दायरा … ”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 121 ☆

☆ लघुकथा – दायरा 

मोबाइल पर मैसेज देखकर सुधीर समझ नहीं पा रहा था कि अपनी पत्नी को क्या कहे – – – कि पिताजी ने अकेले ही घर बुलाया है। इसी बीच वैशाली आकर कहने लगी…. मुझे मायके जाना है। हालांकि मेरा वहां कोई नहीं पर, जहां पुराना घर है वहां के सभी लोग मुझे मानते हैं और मम्मी पापा की इच्छा थी कि मैं घर की देखभाल करते रहूँगी।

बस बात बनती देख सुधीर ने चुपचाप हा कह दिया।

तुम अपने घर चली जाना, मुझे ऑफिस के काम से बाहर जाना हैं। आज सुधीर बस में बैठ कर अपने घर  के बारे में सोच रहा था। शायद पिताजी मुझे माफ करेंगे या नहीं क्योंकि कुछ साल पहले जहां पर पढ़ाई करने गया था, वहीं एक लड़की से अपनी पसंद से शादी कर लिया था।

पिताजी अपनी जगह सही थे क्योंकि पुराने ख्यालात और घर परिवार की रजामंदी को सर्वोपरि माना जाता था। शादी के बाद पत्नि को घर लेकर गया किन्तु, पिताजी ने घर के अंदर पैर भी रखने नहीं दिया।

वैशाली ने इसका कोई विरोध नहीं किया चुपचाप रही, सुधीर उल्टे पांव उसको लेकर शहर चला गया था। समय जैसे चलता रहा, कहना चाह रहा हो… जो गलती ने सुधीर किया है वह कोई बड़ी गलती नहीं है। आजकल यह सब होने लगा है।

सुधीर के पिता जी प्राइवेट काम करते थे। आफिस में कुछ रुपये पैसों का बड़ा घोटाला हुआ। उसकी वजह से कार्यवाही हुई अपनी सफाई में सुधीर के पिताजी कुछ नहीं कह सके!!! इस कारण उनको निकाल दिया गया था। घर की स्थिति बिगड़ने लगी थी। किसी तरह वैशाली को पता चला। अपनी सादगी, सहजता और कार्यकुशलता से सास ससुर को सहायता करने लगी।

जिसका सुधीर को बिल्कुल भी एहसास नहीं था परंतु बाप बेटे के मनमुटाव को कम नहीं कर सकी।

पिताजी अपनी अड़ी पर थे.. बेटा आकर माफी मांग ले और सुधीर संदेह में रहा.. कि शायद पिताजी माफ नहीं करेंगे।

बस रुकते ही बैग उठा पगडंडी के रास्ते घर के दरवाजे पर पहुंचा। सामने पिताजी की गोद में अपनी बिटिया को देखकर कुछ देर के लिए आवाक हो गया।

आंखों पर ज़ोर देकर फिर से देखा.. हाथ में पानी का गिलास लिए वैशाली निकलकर दरवाजे पर खड़ी थी। पिताजी ने अपने अंदाज में कहा…बहू समझा दे इसको बेटा ही घर का चिराग, सहारा या बैसाखी नहीं होता.. बहू भी बन सकती है।

सुधीर पिता जी के इस बदले रुप को समझ नहीं पाया।

गिलास ले कर एक ही सांस में पानी पी डाला। उसकी समझ में अब आने लगा कि जब भी बाहर होता था वैशाली अपने ही मायके जाने की जिद करती थी। आज समझ में आया वह मायके नहीं उसके घर आती थीं।

पिताजी और मां का सहारा बन चुकी वैशाली विश्वास, दया, ममता और मां पिता जी की बेटी बन चुकी थी।

सिर झुकाए वह वैशाली के प्रति कृतज्ञ था कितना विशाल दायरा है। वह झूठ बोल कर उसे क्या समझाना चाह रहा था?

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 85 – दोषारोपण ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #85 – 🌻 दोषारोपण 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक आदमी रेगिस्तान से गुजरते वक़्त बुदबुदा रहा था, “कितनी बेकार जगह है ये, बिलकुल भी हरियाली नहीं है और हो भी कैसे सकती है यहाँ तो पानी का नामो-निशान भी नहीं है।

तपती रेत में वो जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था उसका गुस्सा भी बढ़ता जा रहा था. अंत में वो आसमान की तरफ देख झल्लाते हुए बोला- क्यों भगवान आप यहाँ पानी क्यों नहीं देते? अगर यहाँ पानी होता तो कोई भी यहाँ पेड़-पौधे उगा सकता था और तब ये जगह भी कितनी खूबसूरत बन जाती!

ऐसा बोल कर वह आसमान की तरफ ही देखता रहा मानो वो भगवान के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हो! तभी एक चमत्कार होता है, नज़र झुकाते ही उसे सामने एक कुंवा नज़र आता है!

वह उस इलाके में बरसों से आ-जा रहा था पर आज तक उसे वहां कोई कुँवा नहीं दिखा था… वह आश्चर्य में पड़ गया और दौड़ कर कुंवे के पास गया। कुंवा लाबालब पानी से भरा था. 

उसने एक बार फिर आसमान की तरफ देखा और पानी के लिए धन्यवाद करने की बजाये बोला – “पानी तो ठीक है लेकिन इसे निकालने के लिए कोई उपाय भी तो होना चाहिए !!”

उसका ऐसा कहना था कि उसे कुँवें के बगल में पड़ी रस्सी और बाल्टी दिख गयी।एक बार फिर उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ! वह कुछ घबराहट के साथ आसमान की ओर देख कर बोला, “लेकिन मैं ये पानी ढोउंगा कैसे?”

तभी उसे महसूस होता है कि कोई उसे पीछे से छू रहा है,पलट कर देखा तो एक ऊंट उसके पीछे खड़ा था!अब वह आदमी अब एकदम घबड़ा जाता है, उसे लगता है कि कहीं वो रेगिस्तान में हरियाली लाने के काम में ना फंस जाए और इस बार वो आसमान की तरफ देखे बिना तेज क़दमों से आगे बढ़ने लगता है।

अभी उसने दो-चार कदम ही बढ़ाया था कि उड़ता हुआ पेपर का एक टुकड़ा उससे आकर चिपक जाता है।उस टुकड़े पर लिखा होता है –

मैंने तुम्हे पानी दिया,बाल्टी और रस्सी दी। पानी ढोने  का साधन भी दिया,अब तुम्हारे पास वो हर एक चीज है जो तुम्हे रेगिस्तान को हरा-भरा बनाने के लिए चाहिए। अब सब कुछ तुम्हारे हाथ में है ! आदमी एक क्षण के लिए ठहरा !! पर अगले ही पल वह आगे बढ़ गया और रेगिस्तान कभी भी हरा-भरा नहीं बन पाया।

मित्रों !! कई बार हम चीजों के अपने मन मुताबिक न होने पर दूसरों को दोष देते हैं। कभी हम परिस्थितियों को दोषी ठहराते हैं,कभी अपने बुजुर्गों को,कभी संगठन को तो कभी भगवान को ।पर इस दोषारोपण के चक्कर में हम इस आवश्यक चीज को अनदेखा कर देते हैं कि – एक इंसान होने के नाते हममें वो शक्ति है कि हम अपने सभी सपनो को खुद साकार कर सकते हैं।

शुरुआत में भले लगे कि ऐसा कैसे संभव है पर जिस तरह इस कहानी में उस इंसान को रेगिस्तान हरा-भरा बनाने के सारे साधन मिल जाते हैं उसी तरह हमें भी प्रयत्न करने पर अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए ज़रूरी सारे उपाय मिल सकते हैं.

👉 दोस्तॊ !! समस्या ये है कि ज्यादातर लोग इन उपायों के होने पर भी उस आदमी की तरह बस शिकायतें करना जानते है। अपनी मेहनत से अपनी दुनिया बदलना नहीं! तो चलिए, आज इस कहानी से सीख लेते हुए हम शिकायत करना छोडें और जिम्मेदारी लेकर अपनी दुनिया बदलना शुरू करें क्योंकि सचमुच सब कुछ तुम्हारे हाथ में है !!

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! (सम्पूर्ण यात्रा वृत्तांत) ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! (सम्पूर्ण यात्रा वृत्तांत) ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(ई-अभिव्यक्ति द्वारा अपने प्रबुद्ध पाठकों के लिए डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी  के अत्यंत रोचक यात्रा वृत्तांत “काशी चली किंगस्टन!” को धारावाहिक रूप से 21 भागों में प्रकाशित किया गया है। पाठक एवं  लेखक मित्रों के विशेष अनुरोध एवं उनकी सुविधा के लिए हम यहाँ पर सम्पूर्ण यात्रा वृत्तांत के लिंक्स  ई-बुक के स्वरुप में  प्रकाशित कर रहे हैं। आशा है आपको यह प्रयोग पसंद आएगा। आप अपनी सुविधानुसार निम्न लिंक्स पर क्लिक कर सम्पूर्ण यात्रा वृत्तांत पढ़ सकते हैं।)

 

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 1  – ज़फर के शहर में

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 2 – पहली उड़ान 

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 3  –  मझधार

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 4  –  हम हैं ऊपर, आसमाँ नीचे

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 5  –  परदेश

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 6  –  किंग्सटन

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 7  –  नायाग्रा

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 8  –  नायाग्रा जलप्रपात

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 9  –  प्रपात के पीछे

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 10  –  नीहार- नंदिनी

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 11  –  अंबुनाथ का दरबार

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 12  –  चल घर राही आपुनो

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 13  –  बेटी का घर

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 14  –  क्वीनस् यूनिवर्सिटी और किंग्सटन

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 15  –  कैटारॅकी नदी और कैटारॅकी मार्केट

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 16  –  उतरा भूत मेपल की डाल से

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 17  –  हजार द्वीपों का सफर

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 18  –  पंचमेल खिचड़ी

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 19  –  जंगल जंगल पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है! (गुलज़ार)

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 20  –  घूमने को जगह और भी हैं कनाडा में, किंग्सटन के सिवा

काशी चली किंगस्टन! – भाग – 21  –  पूरब की ओर

 

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 21 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 21 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

पूरब की ओर

ज्यों ज्यों जाने का दिन नजदीक आ रहा था, त्यों त्यों झूम के चेहरे पर उदासी के बादल मँडराने लगे। आखिर वो दिन तो आ ही गया….दुनिया के मेले में हम सब आते हैं, जीवन-नाटक करके फिर क्या पाते हैं ?

आज 29 जुलाई है। बुधवार। बरामदे में बैठे केवाईसी के मैदान की ओर देख रहा हूँ। सोमवार को तो कई बच्चे आये थे। साथ में उनकी माँ या डैडी। बीच बीच में इन्सट्रक्टर आकर निर्देश दे रहा था। फिर कोई खेलने लगता, कोई योगा करता तो कोई नाव लेकर झील पर निकल जाता। पर देख रहा हूँ, आज केवाईसी में कुछ कम ही बच्चे खेलने आ रहे हैं। उतनी चहल पहल नहीं है।

सुबह 11 बजे घर से रवाना दिया था। नाश्ते में सिन्नी। तुर्की शब्द शिरिनी से यह बांग्ला शब्द बना है। बंगालिओं के घरों में एकादशी या पूर्णिमा के दिन या विवाह, उपनयन या अन्नप्राशन जैसे शुभ अनुष्ठानों के पश्चात सत्यनारायण भगवान के लिए थैंक्स गिविंग सेरिमनी होती है। उसमें सिन्नी बनाना अनिवार्य है। मैदा, दूध, नारियल की खुरचन एवं केले आदि से। बतासे के साथ तो यह अमृत बन जाती है। अब देखिए, हमारे घरेलू जीवन की इतनी रोजमर्रे की पूजा में जो चीज बनती है, उसका नाम तो तुर्की से ही आया है। तो -?

 झूम ने कल रात ही यह बनाकर भगवान एवं बालगोपाल को भोग चढ़ाया था। आज नाश्ते में वही है। कहा जाता है अतिथि जब घर से चलने लगते हैं तो अपनी थाली को बिलकुल सफा चट करके न खायें। चावल व सब्जी के दो दाने छोड़ते जायें। ताकि इस घर में फिर से उनकी थाल लगे। झूम की सास ने उसे यह सब खूब बताया है। उसने हमदोनों से कहा,‘बाबा, माँ, सब कुछ खा मत लेना। दो चार दाने थाली पर छोड़ते जाना।’

स्वाभाविक है बेटी चाहती है कि उसके बाबा माँ उसके पास दोबारा आये। मगर हम जैसों के लिए बारबार सागर पार आना क्या इतना आसान है?

रास्ते में दो जगह जैम मिला। पहले तो किंग्सटन पार करते करते हाईवे पर जैम। रुपाई राजधानी ओटावा जाने वाली सड़क से होकर आगे बढ़ा। दूसरी जगह एक एक्सिडेंट हुआ था। मगर मजाल है कि कोई कतार तोड़ कर पंक्ति को ठेंगा दिखाकर आगे बढ़े? सब शंबूक गति से चलते जा रहे हैं।

हमारे दाहिने वही सेंट लॉरेन्स नदी। नदी किनारे वही सुंदर सुंदर एक तल्ले या मुश्किल से दो तल्ले मकान। पेड़ पत्तियों से भरे अपने सर हिला हिला कर हमें अलविदा कर रहे हैं। खलील गिब्रान (जन्मःः6 जनवरी,1883,ब्शारी, लेबानन, ऑटोमन सीरिया में, मृत्युःः10 अप्रैल 1931, 48 साल की उम्र में न्यूयार्क सीटी, अमेरिका में। वे कवि, चित्रकार, लेखक, दार्शनिक क्या नहीं थे?) ने उनके लिए लिखा है :- पेड़ वे कविताएँ हैं, जो धरती ने आकाश पर लिखी है ! तो भाई पेड़ों को काटने का मतलब है सारी कविताओं का, जिन्दगी के समूचे रस का सत्यानाश!

बीच बीच में दोनों ओर मक्के के खेत। रुपाई कह रहा था बायोफुयेल के चक्कर में गेहूँ वगैरह की पैदावर कम करके सभी इसी क्रैश क्रॉप की तरफ जा रहे हैं। भविष्य में इंसान खायेगा क्या? फुएल, कंक्रीट और रुपये ?

मॉन्ट्रीयल घुसने के बाद तो एअरपोर्ट पहुँचने के लिए जलेबिया पेंच से गुजरना पड़ता है। यहाँ बायें, वहाँ दायें। फिर पीछे 406 नम्बर सड़क से उधर 56 में। बापरे!कार के सामने लगे मोबाइल से अनवरत दिशानिर्देश। गुगल मैप से कह रहा हैः- यहाँ से 300मी. जाकर बायें मुड़िये। आप इस समय पैगामॉन्ट शहर में प्रवेश कर रहे हैं। आदि इत्यादि वगैरह…..

यूल एअरपोर्ट में प्रवेश हो चुका है। चेक इन लगेज का हस्तांतरण हो गया। सिक्योरिटी क्लीयरेंस के पहले हम थोड़ी देर बेटी दामाद के संग समय बीता रहे हैं। झूम की मां का केबिन बैगेज कुछ फुला हुआ था। वजन स्वीकृत भार से ज्यादा नहीं। झूम के कानों पर रुपाई का ग्रामोफोन बजने लगा,‘यह इतना मोटा कैसे हो गया? तुमने पहले से चेक नहीं किया? दिल्ली से स्पाइस जेट से बनारस जाने में होगी दिक्कत। डोमेस्टिक फ्लाइट में सात किलो ही ले जा सकते हैं।’

‘अरे उसमें माँ का हैन्ड बैग है, बस। वजन कुछ भी नहीं।’ मेरी बेटी समझाने लगी।

मगर वह मास्टरी करने से बाज कहाँ आता?, ‘बाबा माँ को तो मजा लेते हुए आराम से जाना चाहिए। क्या इनको तकलीफ देने के लिए हमलोगों ने यहाँ बुलाया है? वगैरह वगैरह’…. सुभाषितम्

मेरी मुनिया कितना समझाये ?

आते हुए मॉन्टी्रयल में एक जगह ‘‘ढाबे’’ पर उतरा था, चारों ओर सब फ्रेंच में ही लिखा था। एअरपोर्ट में भी ज्यादातर घोषणायें फ्रेंच में। फिर वही अंग्रेजी और फं्रासीसी के झगड़े में फँसा बेचारा हिन्दुस्तानी बनारसी बाबू मोशाय।

आते समय तारीख के हिसाब से केवल एक(?) ही दिन में यानी 30 तारीख भोर के पहले दिल्ली से रवाना होकर तीस तारीख की शाम को यूल पहुँच गये थे। मगर जाते समय 29,30 और 31 …..तारीख के हिसाब से तीन दिन लग रहे हैं। सूर्योदय पहले उधर ही जो होता है।

अब और क्या कहें? चलते वक्त बेटी के सर पर सिर्फ हाथ फेरता रहा। मुँह से एक शब्द भी न निकला। रुपाई को गले लगाया। उसकी माँ मुझसे काफी मजबूत है। उसने झूम को सीने में जकड़ लिया। बेटी के कानों में कुछ कह रही है। मैं कुछ कह क्यां नहीं पा रहा हूँ ?

पीछे रह गयी सुख स्मृतियां, केवल अनदेखे आँसुओं को पलकों में छुपाये हम परिन्दे पर चढ़ बैठे। कनाडा की भूमि, तुम्हें सलाम! तुम्हारी गोद में ही हम छोड़ जा रहे हैं हमारे बिटिया दामाद को।

वापसी में तो बहुत कुछ वैसा ही। यूल से ऐम्सटर्डम की फ्लाइट में तो सफाई ठीक ठाक थी। मगर ज्यों ज्यों ऐम्सटर्डम से हम दिल्ली की नजदीक पहुँचते गये वाश रुम में हम लोगों का ठप्पा लगता गया। प्लेन में हम ही लोगों का बहुमत जो था। नतीजतन बेसिन का पानी नीचे जा नहीं रहा था। कारण? सूर्ती या गुटका का नाम सुना है आपने? या अल्लाह, हम आखिर ऐसे क्यों हैं ?

फिर दिल्ली में जब एअरपोर्ट के निकास द्वार के पास रात में बैठा था, तो एकबार वाशरुम जाना पड़ा। देखा कि एक सज्जन ने जब बेसिन में अपना हाथ धो लिया, तो एक सफाई कर्मचारी ने तुरंत चार पॉच टिशू पेपर उनकी ओर बढ़ा दिया। लगा इतनी अच्छी आव भगत! मगर तुरंत देखा दस रुपया रूपी लक्ष्मी का हस्तांतरण। मामला समझ में आ गया।

रात्रि के करीब एक बजे हम इन्दिरागांधी एअरपोर्ट के ऊपर गगन में चक्कर काट रहे थे। सामने स्क्रीन पर सूचनायें आ रही थीं। आप अपने गन्तव्य से 32 किमी दूर है, 19 किमी दूर हैं, फिर 27 किमी। यह कैसे भाई? दूरी घट कर बढ़ गयी, क्यों ? मैं गलत तो नहीं न लिख रहा हूँ ? एकबार चाँद दीख गया। पूर्णिमा करीब है? फिर देखा नीचे धरती पर जाने कितने तारे बिखरे पड़े हैं। झिलमिलाती दिल्ली। इतना सुंदर! आँखों ने मन से कहा,‘देख लो जी भर के।’ मन पूछता है,‘ऐसा ही झिलमिलाता रूप हमारे देश के हर घर का नहीं हो सकता ?बोलो चुप न रहो।’

आह, दुष्यंत कुमार, आप ने यह क्यों लिखा ? :- कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए, / कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए। हे कवि कहिए – कब ये हालात बदलेंगे?

मातृभूमि में उतर कर एअरपोर्ट में नब्बे रुपये की एक चाय से हम ने उदर को पहला संदेशा भेजा। चलो बनारस की दहलीज पर हम खड़े हैं। भोर होते होते डोमेस्टिक एअरपोर्ट जाने के लिए बस की लाइन में लग गये। जिन लोगों ने यह फ्री टिकट नहीं लिया, उन्हें बस में चढ़ने के बाद दक्षिणा देनी पड़ी।

इसे नमक हरामी न समझे। आते समय डोमेस्टिक एअरपोर्ट पर हमने ब्रेड पकौड़ा लिया था। 106 के दो। बिलकुल चीमड़। लग रहा था कब घर पहुँचे। वहाँ सिगरा सिटी बस स्टैंड का माहौल था। एक एक द्वार के सामने खड़ी एअरहोस्टेस चिल्ला रही हैं,‘जयपुर! जयपुर! प्लेन अब छूटनेवाला है।’ कोई उधर से हाँक रही हैं, ‘मुंबई के तीन यात्री अभी नहीं आये। उनके नाम हैं ……!’ फिर,‘बेंगलूरूवाले इधर आइये।’बिलकुल प्राइवेट बस कंडक्टर के अंदाज में सब चिल्ला रही हैं। बाकी है तो बस प्लेन की दीवार को पीटना ….ढम्…ढम्…ढम्….

सामने देखा गेरुआ धोती पहने एक सन्यासी चक्कर काट रहे हैं। मैं समझ गया हम मार्गभ्रष्ट नहीं हुए हैं। हो न हो, हमारी मंजिले मक्सूद एक ही है।

अबकी बार फिल्मों की तरह बस से चढ़कर प्लेन तक पहुँचा। सीढ़ी चढ़कर हुआ गरूड़ासीन। क्रीऊ मेम्बर में बस दो। चलो चलो जल्दी चलो। उड़ो आसमां में।

मन उतावला। वहाँ घर में अबतक क्या होता रहा! फोन पर बातें तो होती रहीं, फिर भी ….। उबासी, आँखें मुँदी जा रही हैं। वक्त क्या ठहर गया? प्लेन उड़ रहा है न?

वो रहा अपना बनारस! नीचे वरुणा की रेख। अब प्लेन से उतरिये जनाब। यहाँ भी रिमझिम हो रही है। जल्दी से ऊँचे आँगन पर लपक कर चढ़ गये। घुटने से बेपरवाह। बाहर मेरा भतीजा और साला अपनी छोटी सी कार लेकर खड़े हैं। मैं चिल्लाता हूँ,‘ताऊ रे – !’

वो मेरा ताऊ, और मैं उसका ताऊ। वो फोटो खींच रहा है – हमारे आगमन का। हँसते हुए आ गया। पता चला आज ही उसे वापस बंगलूरू जाना है। मैं ने एक चांटा जमा दिया,‘ एकदिन और ठहर नहीं सकता था?’

‘क्या करूँ ताऊ? छुट्टी जो नहीं मिली।’

मैं चुप। हाँ, हमारे बच्चे बड़े हो गये हैं। उनके लिए हमारी गोद तो काफी छोटी पड़ गयी है। कार चल निकली।

पंछी अब अपने घोंसले की ओर जा रहा है। बाबतपुर से बनारस। जनवादी शायर मेयार सनेही के हरहुआ गाँव में देखा लड़कियॉँ बैग पीठ पर लादे स्कूल जा रही हैं। आजकल इन जगहां में भी कितनी चहल पहल रहती है। बस, कुछेक साल पहले यहाँ वीरानी छाई रहती थी।

राहे जिन्दगी पर सबका सफर जारी है। हम सब तो बस मुसाफिर हैं। थक कर बैठ सकते हैं। चोट लगने पर आह कर सकते हैं। तन या मन में आघात लगे तो रो सकते हैं। फिर किसी साथी का हाथ थाम लेंगे। और चलते रहेंगे ……

इस घुमक्कड़ परिन्दे को इस समय रवीन्द्रनाथ की दो पंक्तियॉँ याद आ रही हैं (कतो अजानारे जानाइले तुमि, कतो घरे दिले ठॉँई……) अन्जानों को मैं ने जाना/घर घर जाकर ठौर बनाया/निकट दूर को करके देखा /भाई बन वो चलकर आया!

और इस समय …………अब कितनी देर में पहुँचेंगे अपने घर ? आज पिताजी माताजी इस धरती पर होतें तो बैठे सोचते रहते -‘बेटा बहू कब घर पहुॅँचेगा? कनाडा से आने में भला क्या इतनी देर लगती है?’ चलो चलो….. चले चलो……

हम तो पच्छिम से पूरब की ओर चले जा रहे हैं। और पूर्वदिशा में ही न होता है एक नया सूर्यादय ? 

 – समाप्त – 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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