(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – वह लिखता रहा
‘सुनो, रेकॉर्डतोड़ लाइक्स मिलें, इसके लिए क्या लिखा जाना चाहिए?’ ..वह लिखता रहा…!
‘अश्लील और विवादास्पद लिखकर चर्चित होने का फॉर्मूला कॉमन हो चुका। रातोंरात (बद) नाम होने के लिए क्या लिखना चाहिए?’ ..वह लिखता रहा…!
‘अमां क्लासिक और स्तरीय लेखन से किसीका पेट भरा है आज तक? तुम तो यह बताओ कि पुरस्कार पाने के लिए क्या लिखना चाहिए?’ ..वह लिखता रहा…!
‘चलो छोड़ो, पुरस्कार न सही, यही बता दो कि कोई सूखा सम्मान पाने की जुगत के लिए क्या लिखना चाहिए?’ वह लिखता रहा…!
वह लिखता रहा हर साँस के साथ, वह लिखता रहा हर उच्छवास के साथ। उसने न लाइक्स के लिए लिखा, न चर्चित होने के लिए लिखा। कलम न पुरस्कार के लिए उठी, न सम्मान की जुगत में झुकी। उसने न धर्म के लिए लिखा, न अर्थ के लिए, न काम के लिए, न मोक्ष के लिए।
उसका लिखना, उसका जीना था। उसका जीना, उसका लिखना था। वह जीता रहा, वह लिखता रहा..!
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ में असहमत के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा – कहानी # 23 – असहमत और पुलिस अंकल : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
पुलिस इंस्पेक्टर जॉनी जनार्दन, असहमत के पिताजी के न केवल सहपाठी थे, बल्कि गहरे दोस्त भी थे और हैं भी.जब तक उनकी पोस्टिंग, असहमत और उनके शहर में रही, असहमत के लिये मौज़ा ही मौजा़ वाली स्थिति रही बस एक कष्ट के अलावा. और ये कष्ट था उनकी धुप्पल खाने का. अब आप यह भी जानना चाहेंगे कि ये धुप्पल किस चिड़िया का नाम है और पुलिसकर्मियों से इसका क्या संबंध है. दर असल ये असहमत की पीठ पर लगाया जाने वाला पुलिस अंकल का स्नेहसिक्त प्रसाद है जो पुलिसिया हाथ की कठोरता के कारण असहमत को जोर से लगता था. इसका, असहमत के फेल होने, गल्ती करने या अवज्ञा करने से कोई संबंध नहीं था. ऐसा भी नहीं है कि ये प्रणाम नहीं करने से मिलता था, बल्कि ये प्रणाम के बाद मिलने वाला पुलसिया प्रसाद था जो बैकबोन को हलहला देता था. पर बदले में असहमत भी इसका पूरा फायदा उठाता था, अपने हमउम्रों पर धौंस जमाने में. उसकी दिली तमन्ना थी कि जानी जनार्दन अंकल की पुलसिया मोटरसाइकिल पर वो भी उनके साथ बैठकर शहर घूमे ताकि नहीं जानने वाले भी जान जायें कि इस असहमत रूपी नारियल को कभी फोड़ना नहीं है. ये तो पुलिस थाने के परिसर में बने मंदिर में चढ़ा नारियल है जो भगवान को पूरी तरह से समर्पित कर दिया गया है. इसका प्रसाद नहीं बंटता बल्कि उनका ज़रूर (प्रसाद) बंटता है जो ऐसा सोचते भी हैं. जब भी जॉनी पुलिस अंकल घर आते उनकी चाय पानी की व्यवस्था असहमत की जिम्मेदारी होती और यहां “चाय पानी” का मतलब सिर्फ पहले पानी और फिर कम शक्कर वाली चाय उपलब्ध कराना ही था, दूसरी वाली चाय पानी इंस्पेक्टर साहब स्वयं बाहर से करने के मामले में आत्मनिर्भर थे.
जब तक पुलिस अंकल की पोस्टिंग शहर में रही, “चाचू तो हैं कोतवाल, अब डर काहे का” वाली हैसियत और औकात बनी रही. पहचान के लोग डराये नहीं जाते बल्कि अपने आप डरते थे और लिहाज करते थे. यहाँ लिहाज़ का मतलब धृष्टता पर होने वाली ठुकाई को विलंबित याने सुअवसर आने पर इस्तेमाल करना था क्योंकि चंद दिनों की चांदनी के बाद अंधेरी रात का फायदा भले ही असहमत उठा ले पर सबेरा होने पर बचना मुश्किल हो ही जाना है आखिर वो दुर्योधन का बहनोई जयद्रथ तो है नहीं. असहमत जानता था कि पुलिस अंकल के ट्रांसफर हो जाने के बाद ये सारे दुष्ट कौरव और पीड़ित पांडव भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी होने के सपने देख रहे हैं. अतः असहमत ने ऐसे लोगों की लिस्ट बनाना शुरु कर दिया जो आगे चलकर उसके लिये खतरा बन सकते थे. लिस्ट असहमत की फोकट का सिक्का जमाने की आदत के कारण थोड़ी लंबी जरूर थी पर योजनाबद्ध तरीके से कम की जा सकती थी जिसका प्लान तैयार था.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा “*बेरंग होली… *”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 117 ☆
☆ लघुकथा – बेरंग होली …☆
होली की मस्ती और रंगों की बौछार लिए होली का त्योहार जब भी आता श्रेया के मन पर बहुत ही कडुआ ख्याल आने लगता।
अभी अभी तो वह यौवन की दहलीज चढी थी।आस पडोस सभी श्रेया की खूबसूरती पर बातें किया करते थे।
उसे याद है एक होली जब उसने अपने दोस्तों और सहेलियों के साथ खेली। एक दोस्त जो कभी उससे बात भी नहीं कर सकता था आज वह भी उसके साथ होली खेल रहा था। मस्ती और होली की ठंडाई, होली के रंगों के बीच किसे कब ध्यान रहा कि श्रेया को ठंडाई के साथ नशे की पुड़िया पिला दिया गया।
झूमते श्रेया को लेकर दोस्त जो उसे पागलों की तरह चाहता था। पहले रंगों, गुलाल से सराबोर कर दिया और मौका देखते ही सूनेपन का फायद उठाया और श्रेया को जिंदगी का वह मोड़ दे दिया जहां से उबर पाना उसके लिए बहुत ही मुश्किल था।
होश आने पर अपने आपको डॉक्टर की चेम्बर में पाकर बेकाबू हो कर रोने लगी।
मम्मी पापा को उसकी हालत देख समझते देर न लगी कि रंगो की सुंदरता पर होली में किसी ने अचानक होली को बेरंग कर दिया है।
एक अच्छे परिवार के लड़के से शादी के बाद श्रेया के जीवन में होली तो हर साल आती। मगर अपने जीवन की बेरंग होली को भूल न पाई थी।
तभी उसका बेटा जो हाथों में पिचकारी लिए दौड़कर अपनी मम्मी श्रेया के पास आकर बोला… “पापा कह रहे हैं वह माँ आपको बिना रंगों की होली पसंद है। यह भी कोई रंग होता है। मैं आज आपको पूरे रंगों से रंग देता हूं। आप भूल जाओगी अपने बिना रंगों की होली।”
श्रेया को जो अब तक होली रंगों से अपने आप को बंद कर लेती थी। आज गुलाल से लिपीपुति अपने पतिदेव से बोली..” बहुत वर्ष हो गए गए मैंने आपको बेरंग रखा।”
“आइए हम रंगीन होली खेलते हैं।” श्रेया को पहली बार होली पर खुश देखकर पतिदेव मुस्कुराए और गुलाल से श्रेया का पूरा मुखड़ा रंग दिया।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं संवेदनशील लघुकथा ‘फ्लाइंग किस’।)
☆ लघुकथा – फ्लाइंग किस ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
कवि खंडहर देखते-देखते थक गया तो एक पत्थर पर जा बैठा । पत्थर पर बैठते ही उसे एक कराह जैसी चीख सुनाई दी । उसने उठकर इधर-उधर देखा । कोई आसपास नहीं था । वह दूसरे एक पत्थर पर जा बैठा । ओह, फिर वैसी ही कराह! वह चौंक गया और उठकर एक तीसरे पत्थर पर आ गया । वहाँ बैठते ही फिर एक बार वही कराह! कवि डर गया और काँपती आवाज़ में चिल्ला उठा, “कौन है यहाँ?”
“डरो मत । तुम अवश्य ही कोई कलाकार हो । अब से पहले भी सैंकड़ों लोग इन पत्थरों पर बैठ चुके हैं, पर किसी को हमारी कराह नहीं सुनी । तुम कलाकार ही हो न!”
“मैं कवि हूँ । तुम कौन हो और दिखाई क्यों नहीं दे रहे हो?”
“हम दिखाई नहीं देते, सिर्फ़ सुनाई देते हैं । हम गीत हैं- स्वतंत्रता, समता और सद्भाव के गीत । हम कलाकारों के होठों पर रहा करते थे । एक ज़ालिम बादशाह ने कलाकारों को मार डाला । उनके होठों से बहते रक्त के साथ हम भी बहकर रेत में मिलकर लगभग निष्प्राण हो गये । हम साँस ले रहे हैं पर हममें प्राण नहीं हैं । हममें प्राण प्रतिष्ठा तब होगी जब कोई कलाकार हमें अपने होठों पर जगह देगा । क्या तुम हमें अपने होठों पर रहने दोगे कवि?”
“……….”
“अच्छी तरह सोच लो कवि । यदि फिर से कोई अत्याचारी बादशाह गद्दी पर बैठ गया तो तुम्हारे प्राण संकट में फँस सकते हैं । तुम तैयार नहीं हो तो कभी कोई और आएगा।”
“मैं हूँ या कोई और, कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है । सत्ता का अपना चरित्र होता है । बादशाह प्रायः ज़ालिम होते हैं ।”
“प्रजा का भी एक चरित्र होता है कवि! तुम जिस खंडहर को देखकर आ रहे हो, वह कभी बादशाह का आलीशान महल था । वह प्रजा ही थी, जिसने महल को खंडहर बनाया और बादशाह को भिखारी । प्राणों की भीख माँग रहा बादशाह कितना दयनीय लग रहा था, काश तुम उसकी कल्पना कर सको ।”
कवि को गीत बहुत अपने से लगे, अपनी आत्मा का हिस्सा हों जैसे । उस दिन के बाद गीत कवि के होठों पर मचलने लगे । कुछ समय बाद कवि को शासन के विरुद्ध असंतोष भड़काने के आरोप में कारागार में डाल दिया गया । गीत अब उतने भोले नहीं रह गये थे । वे किसी और कवि के होठों पर जा बैठे । वह भी जब कारागार में डाल दिया गया तो वे किसी और कलाकार के होठों पर चले गए । इस तरह कलाकार कारागार में आते गये और गीत पूरी रियासत में गूँजने लगे । एक दिन कवि ने सुना- प्रजा बादशाह के महल तक पहुँच गई है और बादशाह को लोगों ने काँपते देखा है । कवि को गीतों पर बहुत प्यार आया । उसने मुस्कुराते हुए एक चुम्बन गीतों की तरफ़ उछाल दिया । गीतों ने तुरंत उस चुम्बन को लपक लिया ।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #82 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक राजा था जो एक आश्रम को संरक्षण दे रहा था। यह आश्रम एक जंगल में था। इसके आकार और इसमें रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही थी और इसलिए राजा उस आश्रम के लोगों के लिए भोजन और वहां यज्ञ की इमारत आदि के लिए आर्थिक सहायता दे रहा था। यह आश्रम बड़ी तेजी से विकास कर रहा था। जो योगी इस आश्रम का सर्वेसर्वा था वह मशहूर होता गया और राजा के साथ भी उसकी अच्छी नजदीकी हो गई। ज्यादातर मौकों पर राजा उसकी सलाह लेने लगा। ऐसे में राजा के मंत्रियों को ईर्ष्या होने लगी और वे असुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन उन्होंने राजा से बात की – ‘हे राजन, राजकोष से आप इस आश्रम के लिए इतना पैसा दे रहे हैं। आप जरा वहां जाकर देखिए तो सही। वे सब लोग अच्छे खासे, खाते-पीते नजर आते हैं। वे आध्यात्मिक लगते ही नहीं।’ राजा को भी लगा कि वह अपना पैसा बर्बाद तो नहीं कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर योगी के प्रति उसके मन में बहुत सम्मान भी था। उसने योगी को बुलवाया और उससे कहा- ‘मुझे आपके आश्रम के बारे में कई उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिली हैं। ऐसा लगता है कि वहां अध्यात्म से संबंधित कोई काम नहीं हो रहा है। वहां के सभी लोग अच्छे-खासे मस्तमौला नजर आते हैं। ऐसे में मुझे आपके आश्रम को पैसा क्यों देना चाहिए?’
योगी बोला- ‘हे राजन, आज शाम को अंधेरा हो जाने के बाद आप मेरे साथ चलें। मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूं।’
रात होते ही योगी राजा को आश्रम की तरफ लेकर चला। राजा ने भेष बदला हुआ था। सबसे पहले वे राज्य के मुख्यमंत्री के घर पहुंचे। दोनों चोरी-छिपे उसके शयनकक्ष के पास पहुंचे। उन्होंने एक बाल्टी पानी उठाया और उस पर फेंक दिया। मंत्री चौंककर उठा और गालियां बकने लगा। वे दोनों वहां से भाग निकले। फिर वे दोनों एक और ऐसे शख्स के यहां गए जो आश्रम को पैसा न देने की वकालत कर रहा था। वह राज्य का सेनापति था। दोनों ने उसके भी शयनकक्ष में झांका और एक बाल्टी पानी उस पर भी उड़ेल दिया। वह व्यक्ति और भी गंदी भाषा का प्रयोग करने लगा। इसके बाद योगी राजा को आश्रम ले कर गया। बहुत से संन्यासी सो रहे थे।उन्होंने एक संन्यासी पर पानी फेंका। वह चौंककर उठा और उसके मुंह से निकला – शिव-शिव। फिर उन्होंने एक दूसरे संन्यासी पर इसी तरह से पानी फेंका। उसके मुंह से भी निकला – हे शंभो। योगी ने राजा को समझाया – ‘महाराज, अंतर देखिए। ये लोग चाहे जागे हों या सोए हों, इनके मन में हमेशा भक्ति रहती है। आप खुद फर्क देख सकते हैं।’ तो भक्त ऐसे होते हैं।भक्त होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दिन और रात आप पूजा ही करते रहें। भक्त वह है जो बस हमेशा लगा हुआ है, अपने मार्ग से एक पल के लिए भी विचलित नहीं होता। वह ऐसा शख्स नहीं होता जो हर स्टेशन पर उतरता-चढ़ता रहे। वह हमेशा अपने मार्ग पर होता है, वहां से डिगता नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो यात्रा बेवजह लंबी हो जाती है।
भक्ति की शक्ति कुछ ऐसी है कि वह सृष्टा का सृजन कर सकती है। जिसे मैं भक्ति कहता हूं उसकी गहराई ऐसी है कि यदि ईश्वर नहीं भी हो, तो भी वह उसका सृजन कर सकती है, उसको उतार सकती है। जब भक्ति आती है तभी जीवन में गहराई आती है। भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है। उसे भक्ति के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं होती और वहां ईश्वर मौजूद रहेंगे। भक्ति इसलिए नहीं आई, क्योंकि भगवान हैं। चूंकि भक्ति है इसीलिए भगवान हैं।
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादकश्री विजय कुमार जी की एक विचारणीय लघुकथा “धन बनाम ज्ञान “।)
☆ लघुकथा – धन बनाम ज्ञान ☆
दोनों कॉलेज के दोस्त अरसे बाद आज रेलवे स्टेशन पर अकस्मात् मिले थे। आशीष वही सादे और शिष्ट् कपड़ों में था, हालांकि कपड़े अब सलीके से इस्त्री किये हुए और थोड़े कीमती लग रहे थे, जबकि दिनेश उसी तरह से सूट-बूट में था, पर उसके कपड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता था कि उन्हें बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जा चुका है। आशीष के चेहरे पर वही पुरानी मुस्कुराहट और रौनक थी, जबकि दिनेश का चेहरा पीला पड़ गया लगता था, और उसमें अब वह चुस्ती-फुर्ती नज़र नहीं आ रही थी जो कॉलेज के दिनों में कभी हुआ करती थी।
आशीष तो उसे पहचान भी नहीं पाता, यदि दिनेश स्वयं आगे बढ़ कर उसे अपना परिचय न देता।
“अरे दिनेश यह क्या, तुम तो पहचान में भी नहीं आ रहे यार? कहाँ हो? क्या कर रहे हो आजकल?” आशीष ने तपाक से उसे गले लगाते हुए कहा।
“बस, ठीक हूँ यार, तुम अपनी कहो?” दिनेश ने फीकी सी हंसी हंसते हुए कहा।
“तुम तो जानते ही हो बंधु, हम तो हमेशा मजे में ही रहते हैं”, आशीष ने उसी जोशोखरोश से कहा, “अच्छा, वो तेरा मल्टीनेशनल कंपनी वाला बिज़नेस कैसा चल रहा है, कितना माल इकट्ठा कर लिया?”
“क्या माल इकट्ठा कर लिया यार, बस गुजारा ही चल रहा है। वैसे वह काम तो मैंने कब का छोड़ दिया था, और छोड़ दिया था तो बहुत अच्छा किया, वर्ना बिल्कुल बर्बाद ही हो जाता। उस कंपनी ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया, और लोगों का काफी पैसा हजम कर गयी। आजकल तो मैं अपना निजी काम कर रहा हूँ ट्रेडिंग का। गुजारा हो रहा है। तुम क्या कर रहे हो?”
“मैं आजकल इंदौर के एक कॉलेज में प्रोफेसर हूँ”, आशीष ने बताया, “कुल मिला कर बढ़िया चल रहा है।”
“तो तुम आखिर जीत ही गए आशीष”, दिनेश ने हौले से कहा तो आशीष चौंक गया, “कैसी जीत?”
“वही जो एक बार तुममें और मुझमें शर्त लगी थी”, दिनेश ने कहा।
“कैसी शर्त? मुझे कोई ऐसी बात याद नहीं?” आशीष को कुछ याद न आया।
“भूल गए शायद, चलो मैं याद करवा देता हूँ”, कह कर दिनेश ने बताया, “जब पहली बार किसी ने मुझे इस मल्टीनेशनल कंपनी का रुपए दे कर सदस्य बनने, अन्य लोगों को सदस्य बनाने और इसके महंगे-महंगे उत्पादों को बेच कर लाखों रुपए कमा कर अमीर बनने का लालच दिया, तो मैं उसमें फंस गया था। मैंने तुम्हें भी हर तरह का लालच दे कर इसका सदस्य बनाने की कोशिश की तो तुमने साफ मना कर दिया था। तुमने मुझे भी इस लालच से दूर रह कर पढ़ाई में मन लगाने की ताक़ीद दी थी। परंतु मैं नहीं माना। मुझे आज भी याद है कि तुमने कहा था, ‘धन और ज्ञान में से यदि मुझे एक चुनना पड़े तो मैं हमेशा ज्ञान ही चुनूँगा, क्योंकि धन से ज्ञान कभी नहीं कमाया जा सकता, परंतु ज्ञान से धन कभी भी कमाया जा सकता है। स्वयं ही देख लो, पढ़-लिख कर तुम फर्श से अर्श तक पहुंच गए, और मैं अर्श से फर्श पर…।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है माँ की ममता पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘चिट्ठी लिखना बेटी !’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 88 ☆
☆ लघुकथा – चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆
माँ का फोन आया – बहुत दिन हो गए तुम्हारी चिट्ठी नहीं आई बेटी! हाँ, जानती हूँ समय नहीं मिलता होगा। गृहस्थी के छोटे –मोटे हजारों काम, बच्चे और तुम्हारी नौकरी, सब समझती हूँ। फोन पर तुमसे बात तो हो जाती है, पर क्या करें मन नहीं भरता। चिट्ठी आती है तो जब चाहो इत्मीनान से जितनी बार पढ़ लो। मैंने तुम्हारी सब चिट्ठियां संभालकर रखी हैं अभी तक।
तुम कह रहीं थी कि चिट्ठी भेजे बहुत दिन हो गए? किस तारीख को भेजी थी? अच्छा दिन तो याद होगा? आठ –दस दिन हो गए? तब तो आती ही होगी। डाक विभाग का भी कोई ठिकाना नहीं, देर – सबेर आ ही जाती हैं चिट्ठियां। बच्चों की फोटो भेजी है ना साथ में? बहुत दिन हो गए बच्चों को देखे हुए। हमारे पास कब आओगी? स्वर मानों उदास होता चला गया।
ना जाने कितनी बातें, कितनी नसीहतें, माँ की चिट्ठी में हुआ करती थीं। जगह कम पड़ जाती लेकिन माँ की बातें मानों खत्म ही नहीं होती थी। धीरे- धीरे चिट्ठियों की जगह फोन ने ले ली। माँ फोन पर पूछती – कितने बच्चे हैं, बेटा है? नहीं है, बेटियां ही हैं, (माँ की याद्दाश्त खराब होने लगी थी) चलो कोई बात नहीं आजकल लड़की – लड़के में कोई अंतर नहीं है। ये मुए लड़के कौन सा सुख दे देते हैं? अच्छा, तुम चिट्ठी लिखना हमें, साथ में बच्चों की फोटो भी भेजना। तुम्हारे बच्चों को देखा ही नहीं हमने (बार – बार वही बातें दोहराती है)।
कई बार कोशिश की, लिखने को पेन भी उठाया लेकिन कागज पर अक्षरों की जगह माँ का चेहरा उतर आता। अल्जाइमर पेशंट माँ को अपनी ही सुध नहीं है। क्या पता उसके मन में क्या चल रहा है? उसके चेहरे पर तो सिर्फ कुछ खोजती हुई – सी आँखें हैं और सूनापन। माँ ने फिर कहा – बेटी! चिट्ठी लिखना जरूर और फोन कट गया।
सबके बीच रहकर भी सबसे अन्जान और खोई हुई – सी माँ को पत्र लिखूँ भी तो कैसे?
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – गिरहकट
पत्रिका पलटते हुए आज फिर एक पृष्ठ पर वह ठिठक गया। यह तो उसकी रचना थी जो कुछ उलजलूल काँट-छाँट और भद्दे पैबंदों के साथ उसके एक परिचित के नाम से छपी थी। यह पहली बार नहीं था। वह इस ‘इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी थेफ्ट’ का आदी हो चला था। वैसे इससे उसकी साख पर कोई असर कभी न पड़ना था, न पड़ा। उन उठाईगीरों की साख तो थी ही नहीं, जो कुछ भी थी, उसमें इन हथकंडों से कभी बढ़ोत्तरी भी नहीं हुई।
आज उसने अपनी नई रचना लिखी। पत्रिका के संपादक को भेजते हुए उसे उठाईगीरे याद आए और उसका मन, उनके प्रति चिढ़ के बजाय दया से भर उठा। अपनी रचना में कुछ काँट-छाँट कर और अपेक्षाकृत कम भद्दे पैबंद लगाकर उसने एक और रचना तैयार की। साथ ही संपादक को लिखा कि उठाईगीरों को परिश्रम न करना पड़े, अतः ओरिजिनल के साथ डुप्लीकेट भी संलग्न हैं। दोनों के शीर्षक भी भिन्न हैं ताकि बेचारों को नाहक परेशानी न झेलना पड़े।
संपादक ने देखा, मूल रचना का शीर्षक था, ‘गिरह‘ और डुप्लीकेट पर लिखा था- ‘गिरहकट।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– परम संतोषी के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा – कहानी # 22 – परम संतोषी भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
असहमत फिर से, क्या करते हैं आप आज असहमत का कार्यक्रम सुबह फिर जलेबी-पोहा खाने का बना. सबेरे यही किया जाता है, ब्रेकफास्ट और कड़क चाय के बाद ही लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय होते हैं. तो घर से बाहर निकलकर, सीधे सीधे सत्तर कदम चलने के बाद नुक्कड़ पर असहमत के कदम थम गये. दो रास्ते थे, राईट जाता तो मंदिर पहुंचता और लेफ्ट जाता तो गरमागरम जलेबियाँ खाता. असहमत, स्वतंत्र विचारों की रचना थी, गरमागरम जलेबी खाने का फैसला अटल था तो राइट नहीं लेफ्ट ही जाना था. पर नुक्कड़ पर चौबे जी खड़े थे. दोनों एक दूसरे को नज़र अंदाज़ कर सकते थे पर जब असहमत ने चौबे जी से “हैलो अंकल” कहा तो बात से बात निकलने का सिलसिला शुरु हो गया. चौबे जी तो श्राद्ध पक्ष से ही असहमत से खार खाये बैठे थे तो मौके का भरपूर प्रयोग किया. “अरे प्रणाम पंडित जी कहो, अंगरेज चले गये औलाद छोड़ गये. “
असहमत : अरे पंडित जी औलाद नहीं अंगरेजी है, अंग्रेजी छोड़ गये.
चौबे जी: तुम्हारे जैसे अंग्रेजों के गुलाम ही हिंदू धर्म को कमजोर कर रहे हैं तुम नकली हिंदुओं के कारण ही हिंदू एक नहीं हो पाते.
असहमत: अरे चोबे जी, ऐसा तो मत कहो, मैं मंदिर जाता हूँ जब मेरा मन अशांत होता है. “इस्लाम खतरे में है ” बोलबोलकर उन्होंने सरहद पार आतंकवादियों की फसल तैयार कर दी, अब आप हमको क्या सिखाना चाहते हो. भक्त और भगवान का तो सीधा लिंक है फिर ये एकता वाली चुनावी बातें किसलिए.
चौबे जी : हमको ज्ञान मत बांटो, तुम्हारे जैसे दो टके के लोग वाट्सएप पढ़ पढ़ कर ज्ञानी बने घूमते हैं. चलो हमारे साथ, राईट टर्न लो जहाँ मंदिर है.
असहमत : मैं अभी तो लेफ्ट ही लूंगा क्योंकि गरमागरम जलेबी और पोहा मेरा इंतजार कर रहे हैं, डिलीवरी ऑन पेमेंट. चलना है तो आप चलो मेरे साथ. चौबे जी का मन तो था पर बिना मंदिर गये वो कुछ ग्रहण नहीं करते थे.
तो चौबे जी ने अगला तीर छोड़ा ” हिंदू धर्म मानते हो तुम, मुझे तो नहीं लगता.
असहमत : अरे पंडित जी, ऐसी दुश्मनी मत निकालो, बजरंगबली का भक्त हूं मैं, थ्रू प्रापर चैनल पहुंचना है राम के पास. मेरे धर्म में मंदिर हैं, दर्शन की कतारें हैं, पूजा है, आरती है, जुलूस हैं, भंडारे हैं, ऊंचे पर्वतों पर माता रानी बैठी हैं और गुफाओं में शिव, बजरंगबली के दर्शन कभी कभी मंगलवार को कर लेता हूं पर जब यन अशांत होता है तो जरूर मंदिर जाता हूं, बहुत शांति और ऊर्जा मिलती है मुझे.
असहमत के जवाबों और अंदर की आस्था ने, धर्म के ब्रांड एम्बेसडर को हिला दिया. तर्क का स्थान असभ्यता और अनर्गल आरोपों ने ले लिया.
चौबे जी : चल झूठे, दोगला है तू, साले देशद्रोही है.
अब पानी शायद असहमत के सर से ऊपर जा रहा था या फिर गरमागरम जलेबी ठंडी होने की आशंका बलवती हो रही थी पर देशद्रोही होने का आरोप सब पर भारी पड़ा. जलेबी और पोहे को भूलकर, असहमत ने चौबेजी से कहा: अब ये तो आपने वो बात कह दी जिसे कहने का हक आपको देश के संविधान ने दिया ही नहीं. आप मुझे नकली हिंदू कहते रहते हैं मुझे बुरा नहीं लगता पर देशद्रोही, कैसे
मैं तिरंगे का अपमान नहीं करता
जब राष्ट्र गीत बजता है तो मैं चुइंगम नहीं खाता.
मैं रिश्वत नहीं खाता, चंदा नहीं खाता
आपत्तिजनक नारे नहीं लगाता
सेना में भर्ती होना चाहता था पर उनके मानदंडों पर पास नहीं हो पाया.
न मैं देशविरोधी हूँ और ना तो मैं सोचता हूँ न ही मेरी औकात है
मैं कोई अपराध भी नहीं हूँ, बेरोजगारी मुझे कभी कभी गुस्सा दिलाती है तो मैं जिम्मेदार लोगों की आलोचना करने लगता हूँ. मैं अपना वर्तमान सुधारने में लगा हूँ और वो इतिहास सुधारने में. अरे भाई लोगों मेरी चिंता करो, मुझे मेरे वोट का प्रतिदान चाहिये, मेरी समस्याओं का समाधान चाहिये, आपके वादों के परिणाम चाहिए. और आप हैं लगे हुये अगली वोटों की फसल उगाने में. एक फसल जाती है फिर दूसरी आती है और हमारे जैसे लोग हर गली हर नुक्कड़ पर इंतजार करते हैं वादों और सपनों के साकार होने का.
बात चौबे जी के लेवल की नहीं थी, उनके बस की भी नहीं तो उन्होंने इस मुलाकात का दार्शनिक अंत किया, वही संभव भी था और मंदिर की ओर बढ़ गये.
“होइ हे वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढावे साखा”
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ लघुकथा ☆ यह घर किसका है ? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
अपनी धरती , अपने लोग थे । यहां तक कि बरसों पहले छूटा हुआ घर भी वही था । वह औरत बड़ी हसरत से अपने पुरखों के मकान को देख रही थी । ईंट ईंट को, ज़र्रे ज़र्रे को आंखों ही आंखों में चूम रही थी । दुआएं मांग रही थी कि पुरखों का घर इसी तरह सीना ताने, सिर उठाये, शान से खड़ा रहे ।
उसके ज़हन में घर का नक्शा एक प्रकार से खुदा हुआ था । बरसों की धूल भी उस नक्शे पर जम नहीं पाई थी । कदम कदम रखते रखते जैसे वह बरसों पहले के हालात में पहुंच गयी । यहां बच्चे किलकारियां भरते थे । किलकारियों की आवाज साफ सुनाई देने लगीं । वह भी मुस्करा दी । फिर एकाएक चीख पुकार मच उठी । जन्नत जैसा घर जहन्नुम में बदल गया ।परेशान हाल औरत ने अपने कानों पर हाथ धर लिए और आसमान की ओर मुंह उठा कर बोली-या अल्लाह रहम कर । साथ खड़ी घर की औरत ने सहम कर पूछा- क्या हुआ ?
– कुछ नहीं ।
– कुछ तो है । आप फरमाइए ।
– इस घर से बंटवारे की बदबू फिर उठ रही है । कहीं फिर नफरत की आग सुलग रही है । अफवाहों का धुआं छाया हुआ है । कभी यह घर मेरा था । एक मुसलमान औरत का । आज तुम्हारा है । कल … कल यह घर किसका होगा ? इस घर में कभी हिंदू रहते हैं तो कभी मुसलमान । अंधेर साईं का, कहर खुदा का । इस घर में इंसान कब बसेंगे ???