हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – कोरोना की रोटी ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा कोरोना की रोटी। )

☆ लघुकथा – कोरोना की रोटी ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

रिपोर्ट पॉज़िटिव निकली। घर भर में सन्नाटा फैल गया । बूढे को अटैच -बाथरूम वाले छोटे से कमरे में 14 दिनों के लिए क्वारनटाइन कर दिया गया । बच्चों को उस कमरे से दूर रहने की हिदायत दे दी गई।  बहू सुबह-शाम डरते-डरते चाय और दो वक्त का खाना दहलीज़ पर रख आती। फिर हाथों को सेनीटाइज कर लेती।

बूढे ने आज तीन में से दो ही रोटी खाई। बची हुई तीसरी रोटी का क्या करें ? जिसकी  थाली तक नहीं छूते उसकी थाली की रोटी भला कौन खायेगा? कमरे में खिड़की नहीं थी वरना वह रोटी फेंक देता। क्या करे इस रोटी का?  जी में आया बाहर जाकर गाय या किसी भिखारी को दे दूँ । पर पॉज़िटिवों के लिए तो घर की दहलीज़ 14 दिनों के लिए लक्षमण रेखा बन जाती है। 14 दिनों तक तो रोटी पड़े-पड़े सड़ जायेगी । आखिर उसने रोटी को कमरे के बाहर रख सबको सुनाते हुए कहा- ” ज्यादा की बची रोटी बाहर रखी है, तुम लोग तो खाओगे नहीँ । बाहर किसी को दे दो।  रोटी बेकार नहीँ जानी चाहिए ।” और दरवाजा बंद कर दिया । 

“अब इनकी जूठी रोटी को कौन हाथ लगाये ? अब फिर उस कमरे तक जाना होगा। बूढ़ा भी है न…,” ऐसा नहीं कि बहू ससुर की इज्जत नहीं करती थी। कोरोना का भय ही कुछ ऐसा था। आखिर भुनभूनाती बहू ने चिमटे के सहारे रोटी को अखबार मैं लपेटकर घर के फाटक की ओर बढ़ी। गली में सन्नाटा था। रोटी को सड़क पर फेंकने में हिचक हो रही थी। किसीने देख लिया तो…..? ‘ कचरापेटी भी घर से दूर थी। अचानक उसे एक बूढा भिखारी हाथ पसारे दिखाई पड़ा । उसने उसे रोटी दिखाते अपने पास बुलाया । लॉकडाउन की वजह से दो दिनों का भूखा भिखारी रोटी देख तेजी से उसकी ओर बढ़ा। आखिर भिखारी में भी जान होती है। कहीं इसे खाकर वो भी…,”, नहीं-नहीं ।  भिखारी जब पास आया तो वो बोली  -”  यह कोरोना पॉज़िटिव की जूठी है ।- इसे खाना मत ।  इसे नुक्कड़ के कचरापेटी में  फेंक  देना।” कहते हुए बहू ने एक पाँच का सिक्का और रोटी उसे दे दी।

कोरोना का इतना भय और चर्चा थी कि भिखारी तक कोरोना के बारे में कुछ-कुछ जानने लगे थे।  मैं अब इस रोटी को नही खाऊँगा।अब इस कोरोना रोटी को कचरापेटी में डाल कर, इन पांच रुपयों से रोटी खरीदकर खाऊँगा । इस सोच से उसकी चाल में  एक सेठपन आ गया । जिन्दगी में पहली बार रोटी खरीद कर जो खाने जा रहा था।

मगर कचरापेटी तक आते-आते उसे खयाल आया,  इस लॉकडाउन  में उसे रोटी कहाँ मिलेंगी ? सारी होटलें तो बंद होगी। उसके हाथ रोटी को फेंकते-फेंकते रुक गये। इधर उसे कोरोना का डर भी सता रहा था, और उधर रोटी को देख उसकी दो दिन की भूख चार दिन  की हो गई थी। पता नहीं कब लॉकडाउन खत्म होगा, कब उसे रोटी मिलेगी ? पेट की भूख कोरोना के डर पर भारी पड़ने लगी।

वह रोटी को बिलकुल अपनी आँख के करीब लाकर गौर से देखने लगा। फिर रोटी को पलटकर भी उसी तरह गौर से देखा।  कहीं कोई वायरस नजर नहीं आया । माना वायरस अति सूक्ष्म होते हैं, पर होते तो हैं । एकाध तो दिखाई पड़ता। फिर उसने रोटी को दो बार जोर से झटका। एकाध होगा तो गिर गया होगा। उसने फिर रोटी को देखा। अरे, जब कोरोना पाँजिटिव और निगेटिव दोनों ही रोटी खाते हैं तो फिर रोटी निगेटिव-पॉज़िटिव कैसै हो सकती  है ? रोटी सिर्फ रोटी होती है। वह खुद को समझाने लगा। फिर भिखारियों को तो कोरोना होता नहीं। उसने आज तक किसी भिखारी को कोरोन्टाइन होते नहीं  देखा। भूख ने रोटी खाने के सारे तर्क जुटा लिये थे। रोटी को वह मुँह के करीब ले आया। फिर भी मुंह खोलने की हिम्मत नहीं हो रही धी। । कहीं कोई एकाध वायरस…. ,

अचानक उनकी आँखे चमक उठी। वह रोटी को पुनः झटकते हुए इस इतमिनान के साथ रोटी खाने लगा…, ” स्साला, इसके बावजूद एकाध वायरस पेट में चला भी गया तो क्या ?   इस रोटी से इतनी इम्युनिटी तो मिल ही जायेगी,कि  वह उस वायरस को मार सके।

अब वह प्रसन्न हो, इस रोटी को ऐसे खा रहा था, जैसे वो सिर्फ कोरी रोटी नहीं, बल्कि सब्जी के साथ  रोटी खा रहा है।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 93 – लघुकथा – बिखरे मोती ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक लघुकथा  “बिखरे मोती। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 93 ☆

 ? लघुकथा – बिखरे मोती ?

सरला के कम पढ़े लिखे होने को लेकर लगातार ससुराल में बात होती थीं। घर में कलह का कारण बन चुका था। सभी कार्य में निपुण सरला अपनी परिस्थिति, मॉं-पिता जी की कमाई की वजह से पढ़ाई नहीं कर सकी जिसका उसे बेहद अफसोस होता था।

शादी अच्छे घर में हुई। पति मनोज अच्छी कंपनी में कार्य करते थे। परंतु पत्नी के कम पढ़े लिखे को वह अपनी कमजोरी और गिल्टी महसूस करते थे। इसी वजह से सरला ने घर से जाने का फैसला कर लिया और अपने घर आकर बुटीक का काम सीखकर एक अच्छे से मार्केट में दुकान डाल दी।

देखते-देखते दुकान चल निकली। अब उसके बुटीक पर लगभग दस महिलाएं काम करती थी। सरला सभी को बहुत प्यार से रखती थी। और सभी की मजबूरी समझती थी।

आज सुबह दुकान खुली तो एक दफ्तर से बहुत सारे डिजाइनर कुर्तों के डिमांड आए । सरला उसी को पूरा करने के लिए लग गई। देखते-देखते दिन भर में उसकी सखियों ने मिलकर सभी आर्डर के कुर्ते जो दफ्तर के थे तैयार कर दिए। रात होते-होते उसको देना था क्योंकि सुबह उस दफ्तर में कार्यक्रम होना था।

काम निपटा सभी चाय पी रहे थे। उसी समय चमचमाती कार से जो सज्जन उतरे उसको देख सरला ठिठक सी गई पर सहज होते हुए बोली:-” आइए आपका ऑर्डर सब तैयार है।” मनोज सरला का पति विश्वास नहीं कर पा रहा था कि उसकी सरला आज इस मुकाम पर है।

वह रसीद ले रुपए देकर धीरे से सरला के पास आकर कहने लगा – “सरला तुमने सुई धागा से बहुत कुछ संजो लिए हैं। मेरे घर में तो सभी मोती बिखर गए हैं। यदि मुझे माफ कर सको तो सुई धागा बन मेरे बिखरे मोती को एक बार फिर से समेट लो।”

सरला अवाक होकर उसे देखती रही। मनोज ने कहा:-” मैं इंतजार करूंगा और मुस्कुराता हुआ निकल गया। “

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – लघुकथा- आईना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा- आईना ?

आईना कभी झूठ नहीं बोलता, उसने सुन रखा था। दिन में कई बार आईना देखता। हर बार खुद को लम्बा-चौड़ा, बलिष्ठ, सिक्स पैक, स्मार्ट और हैंडसम पाता। हर बार खुश हो उठता।

आज उसने एक प्रयोग करने की ठानी। आईने की जगह, अपनी गवाही में अपने मन का आईना रख दिया। इस बार उसने खुद को वीभत्स, विकृत, स्वार्थी, लोलुप और घृणित पाया। उसे यकीन हो गया कि आईना कभी झूठ नहीं बोलता।

©  संजय भारद्वाज

(बुधवार दि. 30 अगस्त 2017, अप. 12:56 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ डिश वॉशर ☆ श्रीमती अंजू खरबंदा

श्रीमती अंजू खरबंदा

☆ कथा-कहानी ☆ डिश वॉशर ☆ श्रीमती अंजू खरबंदा ☆

घर में बर्तन साफ करने की मशीन आने से सभी बेहद खुश थे। गली मोहल्ले के लोग भी उत्सुकतावश चले आते देखने । इस शहर में शायद ये पहला घर होगा जहाँ ऐसी मशीन आई होगी । सुना तो था कि विदेशों में ऐसी मशीनें होती हैं अब अपने देश में भी…!

मशीन को देखने का कौतूहल कई दिनों तक बरकरार रहा । सभी तो खुश थे एक दादी को छोड़कर! वह वैसे भी जल्दी खुश होती ही कहाँ हैं! हर चीज में कोई न कोई कमी निकाल ही देती हैं ।

अपने कमरे में बैठे सारा दिन बुड़बुड़ाती रहतीं

“बस इन मशीनों पर निर्भर हो जाओ! शर्म ही नहीं आती आजकल के बच्चों को!”

“अब भला इसमें शर्म की क्या बात! ये तो गर्व की बात है कि पहली मशीन हमारे घर आई ।”

सभी दादी की बातें सुन खूब हँसते ।

एक दिन छोटे ने पूछ ही लिया

“दादी! मशीन आने से सभी तो खुश हैं! सिर्फ तुम्हीं क्यों परेशान हो?”

“कभी सोचा ! मशीन आने से बर्तन साफ करने आने वाली महरी शांति के दिल पर क्या बीतती होगी ! उस्का घर कैसे चलता होगा और..!”

“और..!”

“और शांति के न आने पर मेरा अकेलापन कैसे कट..!”

आगे के शब्द दादी के गले में ही घुट कर रह गए ।

 

© श्रीमती अंजू खरबंदा

दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #56 – निंदा का फल ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #56 – निंदा का फल ☆ श्री आशीष कुमार

राजा पृथु एक दिन सुबह सुबह घोड़ों के तबेले में जा पहुंचे। तभी वहां एक साधु भिक्षा मांगने आ पहुंचा। सुबह सुबह साधु को भिक्षा मांगते देख पृथु क्रोध से भर उठे। उन्होंने साधु की निंदा करते हुए बिना विचार किये ही तबेले से घोडे की लीद उठाई और उस के पात्र में डाल दी, साधु भी शांत स्वभाव का था।

साधु भिक्षा ले कर वहाँ से चला गया और वह लीद कुटिया के बाहर एक कोने में डाल दी। कुछ समय उपरान्त राजा पृथु शिकार के लिए जंगल में गए। राजा पृथु ने जब जंगल में देखा कि एक कुटिया के बाहर घोड़े की लीद का बड़ा सा ढेर लगा हुआ है। उन्होंने देखा कि यहाँ तो न कोई तबेला है, और न ही दूर-दूर तक कोई घोडे दिखाई दे रहे हैं। वह आश्चर्य चकित हो कुटिया में गए और साधु से बोले। “महाराज! आप हमें एक बात बताइए यहाँ कोई घोड़ा भी नहीं है, ना ही यहां कोई तबेला है  तो यह इतनी सारी घोड़े की लीद कहां से आई! “साधु ने कहा” राजन्! यह लीद मुझे एक राजा ने भिक्षा में दी है, अब समय आने पर यह लीद उसी को खानी पड़ेगी। यह सुन राजा पृथु को पूरी घटना याद आ गई, वह साधु के पैरों में गिर कर क्षमा मांगने लगा। उन्होंने साधु से प्रश्न किया हम ने तो थोड़ी-सी लीद दी थी, पर यह तो बहुत अधिक हो गई है? साधु ने कहा “हम किसी को जो भी देते है, वह दिन-प्रतिदिन प्रफुल्लित होता जाता है और समय आने पर हमारे पास लौट कर आ जाता है, राजन! यह उसी का परिणाम है।” यह सुन कर पृथु की आँखों में अश्रु भर आये। वह साधु से विनती कर बोला “महाराज! मुझे क्षमा कर दीजिए। आइन्दा मैं ऐसी गलती कभी नहीं करूँगा।” मुझे कृपया कोई ऐसा उपाय बताए जिस से मैं अपने दुष्ट कर्मों का प्रायश्चित कर सकूँ!” राजा की ऐसी दुख मयी हालात देख कर साधु बोला “राजन्! एक उपाय है, आप को कोई ऐसा कार्य करना है, जो देखने मे तो गलत हो पर वास्तव में गलत न हो। जब लोग आप को गलत देखेंगे, तो आप की निंदा करेंगे। जितने ज्यादा लोग आप की निंदा करेंगे, आप का पाप उतना ही हल्का होता जाएगा। आप का अपराध निंदा करने वालों के हिस्से में आ जायेगा। यह सुन राजा पृथु ने महल में आ कर काफी सोच विचार किया और अगले दिन सुबह ही उस ने शराब की बोतल ली और चौराहे पर बैठ गया। सुबह सुबह राजा को इस हाल में देख कर सब लोग आपस में राजा की निंदा करने लगे कि कैसा राजा है, कितना निंदनीय कृत्य कर रहा है। क्या यह शोभनीय है आदि! पर निंदा की परवाह किये बिना राजा पूरे दिन शराबियों की तरह अभिनय करता रहा। इस पूरे कृत्य के पश्चात जब राजा पृथु पुनः साधु के पास पहुंचे तो लीद का ढेर के स्थान पर एक मुट्ठी लीद देख कर आश्चर्य से बोला “महाराज! यह कैसे हुआ? इतना बड़ा ढेर कहाँ गायब हो गया!”

साधू ने कहा “राजन! यह आप की अनुचित निंदा के कारण ही हुआ है। जिन जिन लोगों ने आप की अनुचित निंदा की है, आप का पाप उन सब मे बराबर बराबर बट गया है। गुरु जी कहते हैं, जब हम किसी की बेवजह निंदा करते है। तो हमें उस के पाप का बोझ भी उठाना पड़ता है तथा हमे अपने किये गए, कर्मो का फल तो भुगतना ही पड़ता है। अब चाहे हँस के भुगतें या रो कर, हम जैसा किसी को देंगें, वैसा ही लौट कर उस से वापिस भी आएगा! इस लिये सदेव अच्छे कर्म करें और किसी की निंदा से बचें। साध संगत की सेवा करें, सत्संग सुने और सत्संग में फरमाए गए वचनों को अपने हृदय में बिठाए। किसी की यूं ही निंदा कर के अपने कर्मों को मत बढ़ाइए। दुनिया में जो करता है, उसे उस का फल जरूर मिलता है। इस लिए हम अपने आप को देखे, अपने अंदर झांके ना कि दूसरों की निदा करें, चुगली करें। अगर हम किसी की निंदा चुगली करने से नहीं हटते है, तो हमारे कर्मों का ढेर भी उस लीद के ढेर की तरह बढ़ता जाएगा। इस लिए अच्छे कर्म करें, अच्छे कर्म करना ही जीव का कर्त्तव्य है और इसी से जीवन सफल हो सकता है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 70 ☆ एक औरत के मन की मौत ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय एवं अतिसंवेदनशील लघुकथा एक औरत के मन की मौत । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 70 ☆

☆ एक औरत के मन की मौत ☆

उसने परिवार में सबको बार – बार बताने की कोशिश की कि वह मर रही है धीरे – धीरे। शरीर से नहीं, वह  तो अपने सारे काम कर रहा है। रोजमर्रा की जिंदगी चल रही है। बाहर किसी को कुछ खबर ही नहीं है। कैसे हो? जब घर में ही उसे कोई नहीं समझ रहा है तो बाहरवालों से क्या कहे? उसका मन मर रहा है बेमौत। अकेलापन धीमे जहर की तरह असर दिखा रहा है। घर में बिखरा सन्नाटा अजगर की तरह उसे लील रहा है। बचा सको तो बचा लो, उसने कई बार पुकारा था पर सब दूर से हाथ दिखाते रहे, दिलासा देते रहे। ठीक हो ना? हाँ ऐसी ही रहो और चल देते अपने – अपने रास्ते। खुलकर समझाना भी चाहा उसने, हाथ पकडकर रोका, सुन लो मेरी बात, पर हर बार उसे ही दोष देकर निकल लिए – तुम तो ऐसी ही हो। उसका मन बैचैन रहा।  

बच्चे अपनी जिंदगी में व्यस्त और उसके पतिदेव फोन पर आदर्शवादी मैसेज फॉरवर्ड कर दुनिया को संभालने में लगे थे। वह डूबती जा रही थी गहरे और गहरे। दम घुट रहा था मानों, पानी में डूबनेवाले की तरह तेजी से हाथ ऊपर उठाकर ध्यान दिलाने की कोशिश की लेकिन नहीं, कोई नहीं पलटा उसकी ओर। पता नहीं अपने मन की बात बताने लायक रहेगी भी कि नहीं? वह धीरे- धीरे गहरे पानी के तल में पत्थरों, सीपियों पर जा गिरी। गहरे हरे रंग की काई सब तरफ बिछी हुई थी, उलझ गई उसमें। रंग बिरंगी मछ्लियां उसके ऊपर से तैर कर इधर – उधर जा रही थीं। एक्वेरियम में अपनी लाश उसे साफ दिखाई दे रही थी।

परिवारवाले उसकी मानसिक मौत के कारण तलाश रहे थे।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – अभिनेता ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अभिनेता ?

सुबह जल्दी घर से निकला था वह। ऑफिस के एक दक्षिण भारतीय सहकर्मी की शादी थी। दक्षिण भारत में ब्रह्म मुहूर्त में विवाह की परंपरा है। इतनी सुबह तो पहुँचना संभव नहीं था। दस बजे के लगभग पहुँचा। ऑफिस के सारे दोस्त मौज़ूद थे। जमकर थिरका वह।

समारोह में भोजन के बाद मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल पहुँचा। पड़ोस के सिन्हा जी की पत्नी आई सी यू में हैं। किसी असाध्य रोग से जूझ रही हैं। अपनी चिंता जताता रहा वह जबकि उसे बीमारी का नाम भी समझ में नहीं आया था। आधा किलो सेब ले गया था। सेब का थैला पकड़ाकर इधर उधर की बातें की। दवा नियमित लेने और ध्यान रखने की रटी-रटाई बिनमांगी सलाह देकर वहाँ से निकला।

घर लौटने की इच्छा थी पर सुबह अख़बार में अपने दूर के रिश्तेदार के तीये की बैठक की ख़बर पढ़ चुका था। आधा घंटा बाकी था। सीधे बैठक के लिए निकला। ग़मगीन, लटकाया चेहरा बनाये आधा घंटा बैठा वहाँ।

मुख्य सड़क से घर की ओर मुड़ा ही था कि हरीश मिल गया। पिछली कंपनी में दोनों ने चार साल साथ काम किया था। ख़ूब हँसी-मज़ाक हुआ। खाना साथ में खाया।

रात ग्यारह बजे घर आकर सोफा पर पसर गया। टेबल पर क्षेत्रीय सांस्कृतिक विभाग का पत्र पड़ा था। खोलकर देखा तो लिखा था, ‘बधाई। गत माह क्षेत्रीय सांस्कृतिक विभाग द्वारा आयोजित एकल अभिनय प्रतियोगिता के आप विजेता रहे। आपको सर्वश्रेष्ठ अभिनेता घोषित किया जाता है।’

वह मुस्करा दिया।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 92 – लघुकथा – जन्माष्टमी की खुशियाँ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “जन्माष्टमी की खुशियाँ। इस सार्थक लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 92 ☆

 ? लघुकथा – जन्माष्टमी की खुशियाँ ?

प्रतिदिन पूजन को जाती पूनम अपने लिए कुछ नहीं मांगती। बस कहती – “हे ईश्वर जिन्होंने मुझे सहारा दिया है उनका घर खुशियों से हमेशा भरा रहे।” उसके मन की बात को रोज उसकी मैडम जहाँ वह काम करती थी। अक्सर सुनती और कहती- “आज तुमने भगवान से क्या मांगा?” पूनम मुस्कुरा कर कहती- “मैडम जी वही एक बात जिन्होंने मुझे सहारा दिया उनका घर खुशियों से भरा रहे। “

आज जन्माष्टमी की खूब जोरों से तैयारियां चल रही थी। सभी जगह लाइट की झालर और फूलों से घर को सजाया जा रहा था। और खुशी भी ज्यादा हो रही थी क्योंकि आज उसका बेटा कान्हा हॉस्टल से पढ़ाई खत्म करके घर आ रहा था। पूनम भी खुशी-खुशी सारी तैयारी कर रही थी। जैसे ही शाम हुई दरवाजे पर सामान के साथ कान्हा आ गया।

सभी खुश हो गए। पूजा के समय बहुत ही सुंदर ढंग से पूजन हुआ। दीपक की थाली ले पूनम आरती कर रही थी। आज मैडम ने अपने बेटे कान्हा से कहा – “पूनम की खुशियों और दुआओं में हम सब हमेशा शामिल रहते हैं। मैं चाहती हूं आज और अभी पूनम भी हमारे परिवार का एक हिस्सा बन जाए। क्या आप सभी इस बात का अर्थ समझते हैं?”

कान्हा और कान्हा के पापा एक साथ हाँ में सिर हिला रहे थे। और कान्हा मन ही मन खुश हो रहा था क्योंकि उसे तो पूनम जीवनसंगिनी के रूप में पहले से ही पसंद थी। आज उनके घर खुशियां खिलखिलाने लगी। पूनम अब अपने साथ अपने परिवार के लिए दुआएं करने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #55 – गुरु कौन ? ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #55 – गुरु कौन ? ☆ श्री आशीष कुमार

बहुत समय पहले की बात है, किसी नगर में एक बेहद प्रभावशाली महंत रहते थे। उन के पास शिक्षा लेने हेतु दूर दूर से शिष्य आते थे।

एक दिन एक शिष्य ने महंत से सवाल किया, स्वामीजी आपके गुरु कौन है? आपने किस गुरु से शिक्षा प्राप्त की है? महंत शिष्य का सवाल सुन मुस्कुराए और बोले, मेरे हजारो गुरु हैं! यदि मै उनके नाम गिनाने बैठ जाऊ तो शायद महीनो लग जाए। लेकिन फिर भी मै अपने तीन गुरुओ के बारे मे तुम्हे जरुर बताऊंगा। मेरा पहला गुरु था एक चोर।

एक बार में रास्ता भटक गया था और जब दूर किसी गाव में पंहुचा तो बहुत देर हो गयी थी। सब दुकाने और घर बंद हो चुके थे। लेकिन आख़िरकार मुझे एक आदमी मिला जो एक दीवार में सेंध लगाने की कोशिश कर रहा था। मैने उससे पूछा कि मै कहा ठहर सकता हूं, तो वह बोला की आधी रात गए इस समय आपको कहीं कोई भी आसरा मिलना बहुत मुश्किल होंगा, लेकिन आप चाहे तो मेरे साथ आज कि रात ठहर सकते हो। मै एक चोर हु और अगर एक चोर के साथ रहने में आपको कोई परेशानी नहीं होंगी तो आप मेरे साथ रह सकते है। वह इतना प्यारा आदमी था कि मै उसके साथ एक रात कि जगह एक महीने तक रह गया! वह हर रात मुझे कहता कि मै अपने काम पर जाता हूं, आप आराम करो, प्रार्थना करो। जब वह काम से आता तो मै उससे पूछता की कुछ मिला तुम्हे? तो वह कहता की आज तो कुछ नहीं मिला पर अगर भगवान ने चाहा तो जल्द ही जरुर कुछ मिलेगा। वह कभी निराश और उदास नहीं होता था, और हमेशा मस्त रहता था। कुछ दिन बाद मैं उसको धन्यवाद करके वापस अपने घर आ गया। जब मुझे ध्यान करते हुए सालों-साल बीत गए थे और कुछ भी नहीं हो रहा था तो कई बार ऐसे क्षण आते थे कि मैं बिलकुल हताश और निराश होकर साधना छोड़ लेने की ठान लेता था। और तब अचानक मुझे उस चोर की याद आती जो रोज कहता था कि भगवान ने चाहा तो जल्द ही कुछ जरुर मिलेगा और इस तरह मैं हमेशा अपना ध्यान लगता और साधना में लीन रहता|मेरा दूसरा गुरु एक कुत्ता था।

एक बार बहुत गर्मी वाले दिन मै कही जा रहा था और मैं बहुत प्यासा था और पानी के तलाश में घूम रहा था कि सामने से एक कुत्ता दौड़ता हुआ आया। वह भी बहुत प्यासा था। पास ही एक नदी थी। उस कुत्ते ने आगे जाकर नदी में झांका तो उसे एक और कुत्ता पानी में नजर आया जो की उसकी अपनी ही परछाई थी। कुत्ता उसे देख बहुत डर गया। वह परछाई को देखकर भौकता और पीछे हट जाता, लेकिन बहुत प्यास लगने के कारण वह वापस पानी के पास लौट आता। अंततः, अपने डर के बावजूद वह नदी में कूद पड़ा और उसके कूदते ही वह परछाई भी गायब हो गई। उस कुत्ते के इस साहस को देख मुझे एक बहुत बड़ी सिख मिल गई। अपने डर के बावजूद व्यक्ति को छलांग लगा लेनी होती है। सफलता उसे ही मिलती है जो व्यक्ति डर का हिम्मत से साहस से मुकाबला करता है। मेरा तीसरा गुरु एक छोटा बच्चा है।

मै एक गांव से गुजर रहा था कि मैंने देखा एक छोटा बच्चा एक जलती हुई मोमबत्ती ले जा रहा था। वह पास के किसी मंदिर में मोमबत्ती रखने जा रहा था।

मजाक में ही मैंने उससे पूछा की क्या यह मोमबत्ती तुमने जलाई है? वह बोला, जी मैंने ही जलाई है। तो मैंने उससे कहा की एक क्षण था जब यह मोमबत्ती बुझी हुई थी और फिर एक क्षण आया जब यह मोमबत्ती जल गई। क्या तुम मुझे वह स्त्रोत दिखा सकते हो जहा से वह ज्योति आई?

वह बच्चा हँसा और मोमबत्ती को फूंख मारकर बुझाते हुए बोला, अब आपने ज्योति को जाते हुए देखा है। कहा गई वह? आप ही मुझे बताइए।

मेरा अहंकार चकनाचूर हो गया, मेरा ज्ञान जाता रहा। और उस क्षण मुझे अपनी ही मूढ़ता का एहसास हुआ। तब से मैंने कोरे ज्ञान से हाथ धो लिए। शिष्य होने का अर्थ क्या है? शिष्य होने का अर्थ है पुरे अस्तित्व के प्रति खुले होना। हर समय हर ओर से सीखने को तैयार रहना।कभी किसी कि बात का बूरा नहि मानना चाहिए, किसी भी इंसान कि कही हुइ बात को ठंडे दिमाग से एकांत में बैठकर सोचना चाहिए के उसने क्या-क्या कहा और क्यों कहा तब उसकी कही बातों से अपनी कि हुई गलतियों को समझे और अपनी कमियों को दूर करें।

जीवन का हर क्षण, हमें कुछ न कुछ सीखने का मौका देता है। हमें जीवन में हमेशा एक शिष्य बनकर अच्छी बातो को सीखते रहना चाहिए। यह जीवन हमें आये दिन किसी न किसी रूप में किसी गुरु से मिलाता रहता है, यह हम पर निर्भर करता है कि क्या हम उस महंत की तरह एक शिष्य बनकर उस गुरु से मिलने वाली शिक्षा को ग्रहण कर पा रहे हैं की नहीं।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 69 ☆ मर्डर ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  पति पत्नी के संबंधों पर आधारित  एक विचारणीय एवं संवेदनशील लघुकथा मर्डरडॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 69 ☆

☆ मर्डर ☆

मीता  ने  तेजी से काम निपटाते हुए पति से कहा – रवि! तुम्हारे फोन पर यह किसके मैसेज आते  हैं? कई दिनों से देख रही हूँ  तुम रोज मैसेज  पढकर हटा देते हो ।

मेरे साथ ऑफिस में काम करती है मारिया। बेचारी अकेली है, तलाक हो गया है बच्चे भी नहीं हैं। उसकी मदद करता रहता हूँ बस।

पक्का और कुछ नहीं ना?

नहीं यार, बहुत शक्की औरत हो तुम।

पर उसके  मैसेज  क्यों ह्टा देते हो?

यूँ ही, अपने सुख दुख की बात करती रहती है बेचारी । तुम तो जानती हो मेरा स्वभाव, मदद करता रहता हूँ सबकी।

मेरे ऑफिस में भी हैं एक मि. वर्मा, बेचारे अकेले हैं। मैं भी  उनकी मदद कर दिया करूंगी।

मर्डर हो जाएगा किसी का — ।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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