हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – औरत # – [1] गलतबयानी  [2] आश्वस्त ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  औरत विषय पर हम प्रतिदिन आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथाएं [1] गलतबयानी  [2] आश्वस्त.  हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – औरत #1 – [1] गलतबयानी  [2] आश्वस्त

[1]

गलतबयानी

बाबा आदम के जमाने से ठगी गयी है औरत – एक औरत ने कहा तो सभी औरतों ने मान लिया।

अप्रिय भूत को भुलाकर वर्तमान से जुड़ने में भी सफल हुयी है औरत – दूसरी औरत ने कहा और सभी औरतों ने मान लिया।

आदमी ने औरत को जिस मुकाम तक पहुंचाया है, इसे नहीं मान रही है औरत।

वह इसे आदमी की गलतबयानी मान रही है औरत।

 

[2]

आश्वस्त

एक जीव बोला –  मुझे औरत बना दीजिए सर।

ब्रह्मा मुस्कुरा कर बोले – क्यों भला?

इसलिए कि औरत का किरदार बड़ा कठिन और जीवट। सबसे बड़ी बात तो यह ‌है कि अभी तक वह पुरुष को राह पर नहीं ला पारी है। जो बहुत जरूरी है।

ब्रह्मा ने तथास्तु कहकर आंखें बंद कर ली। वह औरत के भविष्य के प्रति आश्वस्त हो चुका था।

पर  ब्रह्माणी उस औरत को पागल-बेवकूफ समझ रही थी। शायद वह औरत की बरबादी से अनभिज्ञ रही होगी।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 91 ☆ वापिसी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं 9साहित्य में  सँजो रखा है। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कहानी वापिसी ….। )  

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 91 ☆ वापिसी ☆

दस दस घरों के पांच टोले मिलाकर बना है कसवां गांव। गांव के एक टोले के खपरैल घर के अंदर गोबर से पुते चूल्हे के पास मुन्ना पैदा हुआ। पैदा होते ही खिसककर चूल्हे में घुस गया।  धीरे धीरे मुन्ना बड़ा हुआ।

मुन्नालाल गांव के सम्पन्न घरों के बड़े लड़कों को लोहे का रिंग दौड़ाते देखता तो उसका मन भी रिंग के साथ दौड़ने लगता। उसके घर में ऐसा कोई रिंग नहीं था जिससे वह अपनी ललक पूरी कर लेता। दिनों रात रिंग के जुगाड की ऊहापोह में वह परेशान रहता।एक रात मुन्ना ने सपना देखा, सपने में उसे कोयले की सिगड़ी दिखी जिसमें एक रिंग लगा दिखा। सपने की बात उसने जब मां को बताई तो मां ने कहा कि बहुत साल पहले जब उसके ताऊ जी शहर से नौकरी छोड़कर आये थे तो सामान के साथ पुरानी सिगड़ी भी थी जिसे गाय भैंस बांधने वाली सार के पीछे फेंक दिया गया था, फिर वह मिट्टी में दबती गई और उसका पता नहीं चला। सुबह उठते ही मुन्ना लाल ने सिगड़ी की तलाश करना चालू कर दिया, मिट्टी खोदने के बाद उसे सपने में देखी वही सिगड़ी मिल गई,मुन्नालाल की बांछें खिल गई। मुन्ना लाल ने सिगड़ी के सड़े-गले टीन को तोड़कर उसमें से एक सबूत छोटा सा रिंग निकाल लिया, उसे बड़ा सुकून मिला चूंकि अब वह भी गांव के अन्य लड़कों की तरह रिंग लेकर दौड़ सकता था।उसे लगा जैसे उसने दुनिया जीत ली। दिन दिन भर वह रिंग लेकर दौड़ लगाता रहता,खाना पीना भी भूल जाता। गांव के गरीब घर का बेटा लोहे का रिंग लिए खेले,यह बात कुछ लोगों को अच्छी नहीं लगती थी। जबकि मुन्ना लाल ने यह रिंग अपने बुद्धि कौशल से प्राप्त किया था।जब यह बात उसके बाबू को पता चली तो बाबू को लगा कि हमारा मुन्ना लाल होनहार लड़का है, अचानक बाबू के अंदर उम्मीदों का रेला बह गया, उसके बाबू तुरन्त उसके पढ़े-लिखे फूफा के पास मुन्ना लाल को ले गए और उनसे सारी बात बताई।

फूफा ने कहा- इसका मतलब लड़के के अंदर वैज्ञानिक सोच है, इसे अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहिए,यह बड़ा होकर बड़ा वैज्ञानिक बन सकता है। बाबू गरीब था, लड़के को अच्छे स्कूल में पढ़ाना सपने की बात थी। गांव के फटेहाल स्कूल में पढ़ाने के अलावा कोई चारा नहीं था, पर मुन्ना लाल के फूफा ने बाबू के अंदर अजीब तरह की उम्मीदें भर लीं थीं, उसके अंदर कुलबुलाहट होती रहती कि थोड़ा बड़ा होने के बाद शहर के अच्छे स्कूल में मुन्ना लाल का दाखिला करायेगा।

मुन्ना लाल उस सिगड़ी के रिंग को दौड़ाते दौड़ाते बड़ा हो गया,गांव के सम्पन्न घरों के लड़के उसके लिंग से चिढ़ते,उस पर हंसते। ऐसा भी नहीं था कि सम्पन्न परिवार के लड़कों के रिंग कोई सोने चांदी के बने थे या उनमें कोई अजूबा था,मात्र कुछ रुपए देकर गांव के लुहार से उनके रिंग बने थे, मुन्ना लाल का रिंग मुफ्त में धोखे से मिल गया था, मुन्ना लाल के बाबू गरीब थे उनके पास लुहार को देने के लिए पैसे नहीं थे।

मुन्ना लाल बड़ा होता गया, उसे शहर में उसके फूफा के पास पढ़ने को छोड़ दिया गया,वह पढ़ता गया, और बड़ा इंजीनियर हो गया। एक बड़े सरकारी संस्थान में महत्वपूर्ण पद मिल गया, विभाग वाले उसे अब एम एल साब कहने लगे। शादी हुई इंजीनियर लड़की से। दो बच्चे भी तीन साल में हो गये, फिर एक दिन सरकारी काम से मुन्ना लाल अमेरिका के लिए उड़ गए। गांव के उस छोटे से टोले के खपरैल घर की टूटी खटिया में लेटे लेटे बापू ने ये सब बातें खांसते खांसते सुनी, बापू को संतोष भी हुआ और मुन्ना लाल को देखने की ललक पैदा हुई,पर लम्बी बीमारी और बेहिसाब कमजोरी ने खाट से उठने नहीं दिया।

बीच बीच में सुनने में आया कि मुन्ना लाल कनेडियन लड़की के साथ रहने लगे हैं, फिर छै महीने बाद सुनने में आया कि कनेडियन लड़की से अलग होकर अब पाकिस्तानी लड़की के साथ घर बसा लिया है। बीच बीच में अपनी असली पत्नी पत्र भेज देते, थोड़ा पैसा भी भेज देते।जो लोग अमेरिका से छुट्टियों में इंडिया लौटते वे लोग मुन्ना लाल के बड़े रोचक कारनामे सुनाते। बात फैलते फैलते कसवां गांव तक जाती, गांव के लोग सुनकर दांतों तले उंगली दबाते। बीच में एक बार मुन्ना लाल की ओरिजनल पत्नी बच्चों के साथ अमेरिका गयी तो मुन्ना लाल के रंगरेलियां देख कर हताश होकर लौट आयी।

मुन्ना लाल के हर नये चरचे पर गांव के लोग शर्म से पानी पानी हो जाते, फूफा को गलियाते,बाबू अपनी गलती पर पछताते, मुन्ना लाल के बचपन के साथी गांव की चौपाल में हंसी उड़ाते।

एक नई ताज खबर चलते चलते इन दिनों कसवां गांव पहुंची है, मुन्ना लाल के हम उम्र दिलचस्प खबर सुनने बेताब हैं, सुना है कि मुन्ना लाल तीस पेंतीस साल बाद कसवां गांव आने वाले हैं।लोग कहते काहे को आ रहा है, मां बाप को बिलखता छोड़ खुद ऐश करता रहा,एक एक दाना को मां बाप तरसते तरसते मर गए। मां बाप के मरने पर भी नहीं आया,अब काहे को आ रहा है गांव।

एक दिन मुन्ना लाल अमेरिकी संस्कृति लिए गांव पहुंचे। गांव आकर पता चला कि उसके माता-पिता कठिन परिस्थितियों में रहते हुए भूखे प्यासे दुनिया छोड़ चुके थे। बहुत दिन बीत गए थे, उनकी आत्मा की शांति के लिए मुन्ना लाल गांव के गेवडे़ के पीपल के नीचे मिट्टी का दिया जलाकर आंखें मूंदे खड़े हो गए,उसी समय गांव के दो छोटे लड़के लोहे का रिंग लेकर दौड़ते हुए वहां से गुजरे… उसे अचानक याद आया… बचपन में इस लोहे के रिंग को लुहार से बनवाने के लिए उसके बाबू के पास पैसा नहीं था। उसे याद आया, टूटी-फूटी टीन की सिगड़ी को तोड़कर जब उसने रिंग बनायी थी और गांव के सम्पन्न घराने के लड़कों की सम्पन्नता को उस छोटे से रिंग से मात दी थी, फिर उसे याद आया कि वह शायद बचपन में टूटी सिगड़ी से बनाए गए रिंग को शायद वह अमेरिका ले गया था।नम आंखों से मुन्ना लाल ने तय किया कि वह तुरंत अमेरिका पहुंचकर बचपन में बनाये गये उस रिंग की तलाश करेगा और उस रिंग को बाबू की संगमरमर की विशाल प्रतिमा के हाथों में पकड़ा देगा। उसने तय किया कि उस विशाल प्रतिमा को गांव के बीच के चौराहे पर खड़ा करेगा और मूर्ति के उदघाटन के लिए पाकिस्तानी पत्नी ठीक रहेगी या पुरानी भारतीय पत्नी…. इसी उहापोह में मुन्ना लाल पीपल के नीचे खड़ा बहुत देर तक रिंग चलाते बच्चों को देखता रहा। उसने जैसे ही उन खेलते बच्चों को आवाज दी, हवा के झोंके से मिट्टी का दिया बुझ गया और पीपल के पत्ते खड़खड़ाकर आवाज करने लगे, उसे लगा चारों तरफ के पेड़ लड़खड़ाते हुए हंस रहे हैं और उसके नीचे की जमीन खिसक रही है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #4 – कच-देवयानी ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है  तीसरी प्रेमकथा  – कच-देवयानी )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #4 – कच-देवयानी ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

शोणितपुर अर्थात आज का सोहागपुर पौराणिक काल की एक जासूसी प्रेम कहानी का गवाह रहा है। महाभारत में यह कहानी विस्तार से वर्णित है। अंगिरस पुत्र बृहस्पति और भृगु पुत्र शुक्राचार्य आश्रमों में प्रतिद्वंदिता थी। देवताओं के गुरु बृहस्पति और असुरों के गुरु शुक्राचार्य रहे हैं। शुक्राचार्य ने घोर तपस्या करके शिव से मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की थी इसलिए शुक्राचार्य देवासुर संग्राम में मारे गए असुरों को जीवित कर देते थे। इस कारण देवताओं को शर्मनाक पराजय का बार-बार सामना करना पड़ता था। देवताओं के राजा इंद्र और उनके गुरु बृहस्पति ने पुत्र कच को जासूस बनाकर मृत संजीवनी विद्या प्राप्त करने हेतु शुक्राचार्य के शोणितपुर स्थित आश्रम भेजा।

शुक्राचार्य अपने आश्रम में पुत्री देवयानी के साथ रहते थे, जहाँ असुरों का प्रवेश वर्जित था लेकिन आश्रम के बाहर असुर निष्कंटक होकर अत्याचार करते थे। कच शिष्य के रूप में विद्या प्राप्त करने के निमित्त शुक्राचार्य के शोणितपुर स्थित आश्रम पहुँचा तो असुरों ने विरोध किया परंतु आश्रम में शुक्राचार्य की शक्ति के चलते असुर कुछ न कर सके। उन्हें गुरु की ज़रूरत भी पड़ती थी इसलिए वे चुप रहे, परंतु वे कच को मारने की कोशिश में रहते थे। कच को बहुत दिन हो गए परंतु उसे संजीवनी विद्या का कोई अतापता नहीं मिल रहा था।

शीत ऋतु के बाद वसंत का आगमन होता है। पृथ्वी के स्वामी सूर्य की उत्तरायण यात्रा प्रारम्भ हो जाती है याने पृथ्वी दक्षिणी गोलार्ध को सूर्य के सामने से हटाकर उत्तरी गोलार्ध सामने लाने लगती है। उनकी तीखी किरणें ज़मीन को भेदकर पेड़-पौधों की जड़ से सृजन के बीज अंकुरित करने लगती हैं। इसी समय सतपुड़ा के आँचल में फाल्गुन मास में धरती की छाती फोड़कर चटक लाल-पीले पलाश-टेसु और सफ़ेद रंग के महुआ जंगल को रंगीला और रसीला बना देते हैं। आम्र-मंजरी और महुआ की ख़ुश्बू से एक हल्का सा नशा छाया रहता है। जंगल रूमानियत की गिरफ़्त में होता है। एक अजीब सा रसायन ख़ून में उत्तेजना भर देता है। जीव-जंतु मनुष्य सब मस्ती में सराबोर हो प्रेम के प्रदीप्त खेल के वशीभूत होकर प्रणय लीन होते हैं। जीव-जंतु का परस्पर प्रेम ही प्रकृति का अनुपम उपहार है। मनुष्य को प्रकृति के चमत्कार को निहारने, वनस्पति की सुगंध को देह में बसा लेने, पक्षियों के कलरव संगीत से मस्तिष्क झंकृत करने और वायु के महीन रेशमी स्पर्श रूपी इन्द्रिय सुख सर्वाधिक इसी मौसम में प्राप्त होते हैं। इस सुहावने मौसम को वसंत कहते हैं। कामदेव पुत्र वसंत छोटे भाई मदन के साथ मिलकर चर-अचर में उद्दीपन भर उन्हें मस्ती से सराबोर कर देते हैं।

वासंती बयार में देवयानी के हृदय में कच को लेकर प्रेमांकुर फूटने लगे तब कच ने संजीवनी विद्या प्राप्त करने के तरीक़े के बारे में सोचा। असुरों के डर से वह आश्रम की सीमा से बाहर नहीं निकलता था। जब देवयानी के हृदय में कच का वास हो गया और उसे विश्वास हो गया कि देवयानी उसे शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या के उपयोग  जीवित करा लेगी तो वह एक दिन आश्रम की गाय को जंगल में चराने ले गया। असुर देवलोक के उस प्राणी से चिढ़े बैठे थे, उन्होंने अवसर पाकर कच को मारकर नदी में बहा दिया। जब देवयानी ने गाय को अकेले लौटते देखा तो उसे समझते देर न लगी। वह नदी से कच का मृत शरीर आश्रम में लाकर अत्यंत दुखी होकर शुक्राचार्य से उसे संजीवनी विद्या द्वारा जीवित करने का अनुनय करने लगी। कच शुक्राचार्य की संजीवनी विद्या से जीवित होकर फिरसे आश्रम में विद्या ग्रहण करने लगा। लेकिन जब उसे जीवित किया जा रहा था तब कच मृत अवस्था में था अतः उसे संजीवनी विद्या का पता न चल सका।

कच को यह स्पष्ट हो गया कि संजीवनी तक पहुँचने का रास्ता उसकी मृत्यु और देवयानी के प्रेम मार्ग से होकर गुज़रता है। एक दिन वह रसोई हेतु लकड़ियाँ लाने के बहाने दुबारा आश्रम से बाहर वन में गया। इस बार असुरों ने उसे मारकर नए तरीक़े से उसकी मृत देह को ठिकाने लगाने की योजना सोच रखी थी। उन्होंने कच को मारकर उसके टुकड़े करके जंगली कुत्तों को खिला दिए। जब बहुत देर तक कच नहीं आया तो देवयानी दुखी होकर पिता शुक्राचार्य से उसका पता लगाने की ज़िद करने लगी। शुक्राचार्य ने दिव्य दृष्टि से कच का शरीर कुत्तों के पेट में देखा। उन्होंने संजीवनी विद्या और मंत्रोपचार से कच को पुनः जीवित कर दिया। एक बार फिर जब उसे जीवित किया जा रहा था तब कच मृत अवस्था में था, अतः उसे संजीवनी विद्या का पता न चल सका।

देवयानी कच पर आसक्त होती जा रही थी परंतु कच को संजीवनी विद्या नहीं मिल पा रही थी। शरद ऋतु की पूर्णिमा के दिन कच देवयानी के केशों के लिए सुगंधित पुष्प लेने वन की ओर गया तो असुरों ने उसे मारकर उसकी देह को जला हड्डियों का चूर्ण मदिरा में मिला शुक्राचार्य को पिला दिया कि अब शुक्राचार्य का पेट फाड़ कर ही कच बाहर जीवित निकल सकता था उस स्थिति में शुक्राचार्य की मृत्यु तय थी, अतः शुक्राचार्य स्वयं का जीवन ख़तरे में डाल कर कच को संजीवनी विद्या से जीवित न कर पाएँगे।

देवयानी पिता और प्रेमी दोनों में से किसी एक को भी खोना नहीं चाहती थी, वह बहुत दुखी हो गई। बाप बेटी ने गहन चिंतन-मनन के बाद तय किया कि शुक्राचार्य संजीवनी विद्या से कच को जीवित करते हुए उसे मृत संजीवनी विद्या इस तरीक़े से सिखाएँगे कि कच जीवित होकर विद्या का उपयोग कर पाएगा। कच शुक्राचार्य का पेट फाड़ कर जीवन वापस पाएगा जिसमें शुक्राचार्य की मृत्यु हो जाएगी। कच नया जीवन पाते ही संजीवनी विद्या का उपयोग गुरु शुक्राचार्य की मृत देह पर करके उन्हें जीवित कर देगा।

योजना के अनुसार कच पुनर्जीवित हुआ और शुक्राचार्य भी जीवन पा गए। कच को संजीवनी विद्या प्राप्त हो गई। तब देवयानी ने कच के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। कच अपने पिता बृहस्पति और इंद्र की आज्ञा से असुर लोक में शोणितपुर आया था। उसे देवलोक वापिस जाकर मृत संजीवनी विद्या देवताओं को देना था अतः वह असुर लोक में नहीं रुक सकता था। कच ने देवयानी और शुक्राचार्य को तर्क दिया  कि उसका नया जन्म शुक्राचार्य के पेट से होने के कारण वह और देवयानी भाई-बहन हो गए हैं इसलिए वह देवयानी से विवाह नहीं कर सकता।

जब कच ने देवयानी का प्रेम प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया तो देवयानी ने क्रोध में आकर उसे शाप दिया कि तुम्हारी विद्या तुम्हें फलवती नहीं  होगी। इस पर कच ने भी शाप दिया कि कोई भी ऋषिपुत्र तुम्हारा पाणिग्रहण नहीं करेगा और तुम अपने पति प्रेम को तरसोगी। महाभारत में ययाति, देवयानी और उसकी सखी शर्मिष्ठा की कथा प्रसिद्ध है। देवयानी के पति ययाति शर्मिष्ठा से प्रेम करने लगे तो वह अपने पिता शुक्राचार्य के पास लौटने को मजबूर हुई थी। ऐसी अनेकों कहानियाँ सतपुड़ा के जंगलों में बसी असुरों की राजधानी शोणितपुर से जुड़ी हैं, लोक मान्यता है कि सोहागपुर के वर्तमान पुलिस थाना जिसे अंग्रेज़ों ने 1861 में बनाया, की नींव असुर राजा बांणासुर  के क़िले पर रखी हुई है।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#8 – एडजेस्टमेंट ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  शादी-ब्याह विषय पर हमने प्रतिदिन आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  की थी। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की अंतिम लघुकथा  “एडजेस्टमेंट
इस प्रयोग को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से भरपूर प्रतिसाद मिला। इस प्रेरणा से हम कल से लघुकथाओं की एक नवीन श्रृंखला  “औरत ” शीर्षक से प्रारम्भ कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#8 – एडजेस्टमेंट  

उस घर की बहू अलससुबह प्रतिदिन चार बजे उठकर काम से लग जाती है। सब्जी काटती है।आटा गूँथती है। फिर नाश्ते के लिए पराठे और लंच के लिए चपातियाँ।

दो सब्जियाँ, एक प्याज वाली दूसरी बिना प्याज की, दो प्रकार के चावल, एक सामान्य,  दूसरा ब्राउन। उठने पर घरवालों की चाय भी,एक शुगर वाली दूसरी बिना शुगर वाली।

दूध वाले से दूध, दूर से फेंके गये अखबार को उठाकर सही जगह रखना भी साथ में है।

किसी तरह दौड़-भाग कर आफिस पहुचकर सॉंस ले भी न पाती कि साहब का बुलावा आ जाता।

घर वाले कहते हैं – कौन सा तीर मार लेती है?  फिर घर और आफिस के बीच एडजेस्टमेंट दूसरा कौन करेगा?

फिर शादी -बयाह कर लाए किसलिए हैं?

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#49 – असंम्भव कुछ नही ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#49 – असंम्भव कुछ नही ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक समय की बात है किसी राज्य में एक राजा का शासन था। उस राजा के दो बेटे थे – अवधेश और विक्रम।

एक बार दोनों राजकुमार जंगल में शिकार करने गए। रास्ते में एक विशाल नदी थी। दोनों राजकुमारों का मन हुआ कि क्यों ना नदी में नहाया जाये।

यही सोचकर दोनों राजकुमार नदी में नहाने चल दिए। लेकिन नदी उनकी अपेक्षा से कहीं ज्यादा गहरी थी।

विक्रम तैरते तैरते थोड़ा दूर निकल गया, अभी थोड़ा तैरना शुरू ही किया था कि एक तेज लहर आई और विक्रम को दूर तक अपने साथ ले गयी।

विक्रम डर से अपनी सुध बुध खो बैठा गहरे पानी में उससे तैरा नहीं जा रहा था अब वो डूबने लगा था।

अपने भाई को बुरी तरह फँसा देख के अवधेश जल्दी से नदी से बाहर निकला और एक लकड़ी का बड़ा लट्ठा लिया और अपने भाई विक्रम की ओर उछाला।

लेकिन दुर्भागयवश विक्रम इतना दूर था कि लकड़ी का लट्ठा उसके हाथ में नहीं आ पा रहा था।

इतने में सैनिक वहां पहुँचे और राजकुमार को देखकर सब यही बोलने लगे – अब ये नहीं बच पाएंगे, यहाँ से निकलना नामुमकिन है।

यहाँ तक कि अवधेश को भी ये अहसास हो चुका था कि अब विक्रम नहीं बच सकता, तेज बहाव में बचना नामुनकिन है, यही सोचकर सबने हथियार डाल दिए और कोई बचाव को आगे नहीं आ रहा था। काफी समय बीत चुका था, विक्रम अब दिखाई भी नही दे रहा था.

अभी सभी लोग किनारे पर बैठ कर विक्रम का शोक मना रहे थे कि दूर से एक सन्यासी आते हुए नजर आये उनके साथ एक नौजवान भी था। थोड़ा पास आये तो पता चला वो नौजवान विक्रम ही था।

अब तो सारे लोग खुश हो गए लेकिन हैरानी से वो सब लोग विक्रम से पूछने लगे कि तुम तेज बहाव से बचे कैसे?

सन्यासी ने कहा कि आपके इस सवाल का जवाब मैं देता हूँ – ये बालक तेज बहाव से इसलिए बाहर निकल आया क्यूंकि इसे वहां कोई ये कहने वाला नहीं था कि “यहाँ से निकलना नामुनकिन है”

इसे कोई हताश करने वाला नहीं था, इसे कोई हतोत्साहित करने वाला नहीं था। इसके सामने केवल लकड़ी का लट्ठा था और मन में बचने की एक उम्मीद बस इसीलिए ये बच निकला।

दोस्तों हमारी जिंदगी में भी कुछ ऐसा ही होता है, जब दूसरे लोग किसी काम को असम्भव कहने लगते हैं तो हम भी अपने हथियार डाल देते हैं क्यूंकि हम भी मान लेते हैं कि ये असम्भव है। हम अपनी क्षमता का आंकलन दूसरों के कहने से करते हैं।

आपके अंदर अपार क्षमताएं हैं, किसी के कहने से खुद को कमजोर मत बनाइये। सोचिये विक्रम से अगर बार बार कोई बोलता रहता कि यहाँ से निकलना नामुमकिन है, तुम नहीं निकल सकते, ये असम्भव है तो क्या वो कभी बाहर निकल पाता? कभी नहीं…….

उसने खुद पे विश्वास रखा, खुद पे उम्मीद थी बस इसी उम्मीद ने उसे बचाया।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#7 – [1] सफ़ेद दाग [2] मेडीकली अनफिट ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “सफेद दाग“एवं “मेडीकली अनफिट”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा।)

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#7 – [1] सफेद दाग  [2] मेडीकली अनफिट 

[1]

सफेद दाग

शादी—शादी—शादी— नहीं करना है मुझे शादी। बिना नौकरी चाकरी के कहीं शादी होती है?

लड़का बुरी तरह माँ बाप से लड़ झगड़ रहा  था।

माँ बोलीं-  मूर्ख मत बन, अकेली लड़की है और भगवान का दिया सब कुछ उनके पास है। फोर व्हीलर तो वे लगुन में ही दे रहे हैं।

‘जरूर कुछ नुक्स होगा माँ,  मुझे नहीं करनी ऐसी शादी जिसमें पूरी जिंदगी ससुराल वालों पर लदे रहो।’

पिता ने आगे बात संभाली- बेवकूफी मत कर बेटा, थोड़े से सफेद दाग हैं तो मिट जाएंगे दवा दारू से, एक से बढ़कर एक  डाक्टर हैं आजकल। रोग का क्या किसी को भी हो सकता है। बस तू मना मत कर, मुझे कल ही ज़बाब देना है।

माँ बाप का जबरिया हाँ कराने का प्रयास पीढ़ियों से जारी है।

[2]

मेडीकली अनफिट

बेटी ब्याह के बाद पहली बार मायके आई तो भाभियों ने श्री नवेली को घेर लिया। चुहलबाज़ी तो होनी ही थी।

‘क्या मिला सुहागरात में’ – बडी भाभी ने बड़ी बड़ी आँखें मटकाकर पूछा।’

‘और सुहागरात कैसी रही’ – छोटी ज्यादा रसीली थी।

बेचारी ननद क्या बोलती? उसे मिला तो सब कुछ था, सिवाय एक पति के, बगल के कमरे में रात भर सोया पड़ा रहा। पति में वह गर्मी तलाशती रही – पर हो तब न।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 64 ☆ अजीजन बाई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्वतंत्रता संग्राम की एक ऐतिहासिक घटना पर आधारित प्रेरक लघुकथा अजीजन बाई। यह लघुकथा हमें हमारे इतिहास के एक भूले बिसरे  स्त्री चरित्र की याद दिलाती है।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 64 ☆

☆ अजीजन बाई ☆

वह प्रसिद्ध नर्तकी थी, उसे घुंघरू पहना दिए गए थे। महफिल में उसका नृत्य देखने दूर – दूर से लोग आया करते थे। बात सन् 1857 की है जब स्वतंत्रता सेनानी मातृभूमि की रक्षा के लिए जान की बाजी लगा रहे थे। अजीजन बाई उदास थी, तबले की थाप और  घुंघरुओं की आवाज अब उसे अच्छी नहीं लग रही थी।  उसने घुंघरू उतार दिए। जहाँ कभी महफिलें गुलजार हुआ करती थीं, वहाँ  अजीजन क्रांतिकारियों के साथ मिलकर स्वाधीन भारत के सपने संजोने लगी। उसका प्रेम अब देशभक्तों पर लुट रहा था। उसने अपने बेशकीमती गहने, धन-दौलत सब भारत माता के आँचल में खुशी -खुशी न्यौछावर कर दिए।

अजीजन की मस्तानी टोली अंग्रेजों की छावनी में जाकर उनका मनोरंजन करने के बहाने वहां की गुप्त सूचनाएं स्वतंत्रता सेनानियों तक पहुंचाया करती थी। वे घायल क्रांतिकारियों की देखभाल करतीं, उन्हें भोजन और जरूरी सामान पहुँचातीं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बिठूर के युद्ध में हार जाने  पर नाना साहब और तात्या टोपे तो बच निकले, अजीजन पकड़ी गई। अंग्रेज अधिकारी ने शर्त रखी कि यदि वह स्वतंत्रता सेनानियों की योजनाओं के बारे में बता दे तो उसे माफ कर दिया जाएगा। अजीजन मुस्कुराते हुए बोली – जानकारी देने का तो सवाल ही नहीं है और माफी तो अंग्रेजों को हमारे देशवासियों से मांगनी चाहिए जिन पर उन्होंने अत्याचार किए हैं। हम तो अपनी मातृभूमि का कर्ज उतार रहे हैं बस। इतना सुनते ही अपमान से तिलमिलाए अंग्रेज अधिकारी ने अजीजन के शरीर को गोलियों से छलनी कर दिया।

अजीजन पूरे भारत देश की अज़ीज़ हो गईं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#6 – [1] सोने की मुर्गी [2] वैभव ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “सोने की मुर्गी“एवं “वैभव”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा।)

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#6 – [1] सोने की मुर्गी  [2] वैभव 

[1]

सोने की मुर्गी

‘अरे सुनिए जी, लड़की वालों का फोन है—बात करिए—लीजिए ।’

‘आता हूँ भाग्यवान, तब तक तमीज से बातें करती रहो। लड़के वालों वाला रोब मत दिखाना। नौकरी पेशा सोने की मुर्गी  है लड़की। मुश्किल से ऐसी लड़की हाथ लगती है।’

‘समझ गयी बाबा, समझ गयी, तब से जी–जी —कहकर ही तो उलझाए हुए हूँ।अब आप आकर अपनी ड्यूटी संभालें तो मुझे फुरसत मिले, इतनी जी तो अपनी पूरी उम्र भर में नहीं लगाई हाँ नहीं तो।’

 

[2]

वैभव

‘हाथी, घोड़े, ऊँट, क्या कहने थे बारात के, शाही शादी थी यार। सपने में भी ऐसी शादी नहीं देखी होगी यार।’

‘अरे भाई लड़की वाले कहीं लक्ष्मीजी के रिश्तेदार तो नहीं, इतना दिया, इतना दिया कि लड़के की सात पीढ़ियों ने भी नहीं देखा होगा। सोने चाँदी रूपयों की बरसात हो रही थी’।

‘कहीं लड़की का कोई अफेयर तो नही है। बात दबाने के लिए इतना दिया जा रहा हो, चमक-दमक में उलझकर रह गयै लड़केवाले।’

‘अजी अफेयर सफेयर सब दब जाएंगे सोने चांदी के वजन से, फिर लग्ज़री कार भी तो है। बारातियों ने ऐसा वैभव आज तक नहीं देखा होगा।हम बारातियों से अच्छे तो उनके नौकर चाकर दिखाई दे रहे थे। हम लोग तो बैंड बाजा वालों से भी गए गुजरे दिखाई दे रहे थे।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#4 – [1] अजीब श्राप [2] स्वर्गलोक ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “अजीब श्राप“एवं “स्वर्गलोक”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा।)

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#5 – [1] अजीब श्राप  [2] स्वर्गलोक

[1]

अजीब श्राप

वृद्धा का सामान आँगन में बिखरा पड़ा था। उसे वृद्धाश्रम भेजने की पूरी पूरी तैयारी थी । पुत्र के साथ पुत्र वधु भी सहयोग कर रही थी।

तब तक उसकी बेटी वहां आ पहूंची। बोली- ‘मैं तेरी सेवा करुँगी माँ। देख तो तेरे दामाद बाबू भी तो आए हैं।’

वृद्धा का सब्र का बाँध टूट गया। वह हिचकियाँ लेकर रोने लगी। रोते – रोते वह श्राप दे रही थी – मेरी तो एक लड़की थी जो मुझे लेने आ गयी। मैं तुम्हें श्राप देती हूँ कि तुझे लड़के ही लड़के हों ताकि वृद्धाश्रम भेजते  समय तेरी कोई लड़की ही न हो।

बेटा बहू ऐसे अजीब श्राप को सुनते ही सकते में आ गए।

 

[2]

स्वर्गलोक

एक पढ़ी लिखी नौकरी करती लड़की ने अपने पिताश्री को फोन किया, एक अमेरिकी लड़का भारत आ रहा है। मेरी कंपनी का ही जूनियर है। मुझसे शादी करना चाहता है।

पिता ने कहा-‘ बेटी तुम समझदार हो, तुम्हारे फैसला हमें हर हाल में मंजूर होगा।’

बेटी बोली- ‘पापा अब इंडिया भी कोई रहने लायक है। अमेरिका स्वर्गलोक है। दरअसल मैं अब वहीँ सेट होना चाहती हूँ । आप उसे पास कर देना प्लीज़।’

पिता बोले- ‘हमें कोई पागल कुत्ते ने काटा है, जो हम मना कर देंगे। इस धूल धक्कड़ से जितने जल्दी पीछा छूटे उतना अच्छा।’

मैं तो अभी से अमेरिका के सपने देखने लगा हूँ जो है सो।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#4 – [1] अमीरी  [2] पैकेज ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “अमीरी “एवं “पैकेज”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#4 – [1] अमीरी  [2] पैकेज ☆

[1]

अमीरी 

एक लग्ज़री कार—नकदी— जेवर- अच्छा फर्नीचर, अमीर घराने में लड़की ब्याहने में करोड़ सवा करोड़ तो लगेंगे —इतना तो कर सकेंगे न?

दलाल हो क्या जो लड़का पार्टी का गुणगान कर रहे हो ?

मुझे वर नहीं खरीदना है, कितना कमीशन तय हुआ था?

लड़की के पिता ने अमीरी ठुकरा दी।

 

[2]

पैकेज  

‘सुनती हो, लड़का विदेश में है। अठारह लाख का पैकेज है,कहो तो बात चलाऊं’?

‘हमारी लड़की का चौबीस का है, पच्चीस का हो तभी बताना, अभी तो न न न है।’

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

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