हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 175 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “लोहे का घोड़ा (साइकिल)” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “लोहे का घोड़ा (साइकिल)। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “लोहे का घोड़ा (साइकिल)” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

काला कलुआ है यह घोड़ा,

सदा जागता कभी न सोता

नहीं माँगता दाना-पानी,

कभी नहीं करता मनमानी।

 *

कभी कभी बस तेल पिलाओ,

भूख लगे तो हवा खिलाओ

कभी बिगड़ कर चलता है जब,

खटर पटर भर करता है तब।

 *

चाहे जहाँ इसे ले जाओ,

दूर-दूर तक घूम के आओ

धीरे-धीरे भी चल लेता,

चाहो तो सरपट दौड़ाओ।

 *

छोटे-बड़े सबों का यार,

सदा दौड़ने को तैयार

चपरासी से साहब तक

सब सदा इसे करते हैं प्यार।

 *

माता इसकी लोह खदान

वर्कशाप है पिता महान्

सबको देता सेवा अपनी,

मालिक हो या हो मेहमान ।

 *

सीधा सच्चा इसका काम,

सबको देता है आराम

बाइक’ और कारों से ज्यादा

उपयोगी, ऊँचा है नाम।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बीज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – बीज ? ?

धरती जन्मती है

घने अरण्य,

हरी घास

कच्ची दूब

सुरभित पुष्प..,

 

धरती उपजाती है

स्वादिष्ट कंदमूल,

पौष्टिक अनाज,

फलों से लदी लताएँ

बुुुुभुक्षा की सारी संभावनाएँ..,

 

धरती बलात पैदा करती है

केमिकल से सने अनाज

पेस्टिसाइड से भीगी तरकारियाँ

संस्करित के नाम पर संकरित फल

खुशबू की राह तकते फूल..,

 

धरती उछालती है

असीम समंदर

मीठी नदियाँ

ताल-तलैया

प्यास बुझाती झील-कुइयाँ..,

धरती उगलती है

सुनामी

ज्वालामुखी

ज़हरीली गैस

और भूकंप भी..,

 

जानते हो न,

‘धृ’ धातु से बनती है धरती

‘धरिणी’ धारण करती है,

जो ‘धरती’ है,

वही धरती है,

जो निगलती है

वही उगलती है..,

 

सुनो,

कुछ समय

अब भी शेष है,

विचार कर लो

धरती क्या निगले

ताकि क्या उगल सके..,

बीज तुम्हारे हाथ है,

तुम सुन रहे हो न मनुष्य..!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 5 – गीत – नव चिंतन है नवल चेतना… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – गीत – नव चिंतन है नवल चेतना

? रचना संसार # 5 – गीत – नव चिंतन है नवल चेतना…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

 

मन तुरंग उड़ता ही जाता

डालो भले नकेल।

 *

कभी पढ़े कबीर की साखी,

कभी पढ़े वह छंद।

तृषित हृदय की प्यास बुझाता,

पीकर मधु मकरंद।।

अंग-अंग में बजती सरगम,

चलती प्रीति गुलेल।

 *

संकल्पों की सीढ़ी चढ़ता,

हों कितने अवरोध।

हर चौखट पे अमिय ढूँढ़ता,

करता है अनुरोध।।

चढ़कर अनुपम शुचिता डोली,

नवल खेलता खेल।

 *

नव चिंतन है नवल चेतना,

शब्द-शक्तियाँ साथ।

शब्दकोश करता समृद्ध भी,

सजे गीत हैं माथ।।

मधुरिम नवरस अलंकरण की,

चलती जैसे रेल।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #230 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 230 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

द्वारे मालन बेचती,  भांति भांति के फूल।

ईश्वर को अर्पित किए, श्रद्धा के अनुकूल।

*

खुश होकर माला गुथी, श्रद्धा लिए अपार।

कृपा दृष्टि रखना प्रभु, हे करना आगार।।

*

चुनती मालन फूल है, धन्य हुए वो बाग।

भेंट मंदिरो में करे, खुलते उसके भाग।।

*

रंग बिरंगे फूल का, बने जतन से हार।

बेंच रही है रोज वो, बैठी प्रभु के द्वार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #212 ☆ गीत – उन्हें तसव्वुर हो ना हो मगर… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना – उन्हें  तसव्वुर हो ना हो मगर आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 212 ☆

☆ गीत – उन्हें  तसव्वुर  हो  ना हो  मगर… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

गीत प्यार  के हम  गाने लगे  हैं

देखो हम अब  मुस्कुराने लगे हैं

*

दिल में डेरा है अब हसरतों  का

ख्वाब कई  हम सजाने  लगे  हैं

*

पंख लग गये अरमानों के बहुत

कबूतर  प्रेम  के  उड़ाने  लगे हैँ

*

उन्हें  तसव्वुर  हो  ना हो  मगर

याद हमें वो हरदम आने लगे हैँ

*

दास्तां इश्क़ की इस कद्र फैली

लोग चुपके से बतियाने लगे हैँ

*

जिनको सहूर नहीं आशिक़ी का

पाठ इश्क़ का वही पढ़ाने लगे हैँ

*

इश्क़ जब सच्चा होता है संतोष

वहाँ आशियाने जगमगाने लगे हैँ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत – श्रमिकों की वंदना ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ गीत – श्रमिकों की वंदना  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

श्रमिकों का नित ही है वंदन,जिनसे उजियारा है।

श्रम करने वालों से देखो,पर्वत भी हारा है।।

*

खींच रहे हैं भारी बोझा,पर बिल्कुल ना हारे।

ठिलिया,रिक्शा जिनकी रोज़ी,वे ही नित्य सहारे।।

मेहनत की खाते हैं हरदम,धनिकों पर धिक्कारा है।

श्रम करने वालों से देखो,पर्वत भी हारा है।।

*

खेत और खलिहानों में जो,राष्ट्रप्रगति के वाहक ।

अन्न उगाते,स्वेद बहाते,जो सचमुच फलदायक ।।

श्रम के आगे सभी पराजित,श्रम का जयकारा है।

श्रम करने वालों से देखो,पर्वत भी हारा है।।

*

सड़कों,पाँतों,जलयानों को,जिन ने नित्य सँवारा।

यंत्रों के आधार बने जो,हर बाधा को मारा।।

संघर्षों की आँधी खेले,साहस जिन पर वारा है।

श्रम करने वालों से देखो,पर्वत भी हारा है।।

*

ऊँचे भवनों की नींवें जो,उत्पादन जिनसे है।

हर गाड़ी,मोबाइल में जो,अभिवादन जिनसे है।।

स्वेद बहा,लाता खुशहाली, श्रमसीकर प्यारा है।

श्रम करने वालों से देखो,पर्वत भी हारा है।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सेलेक्टिव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सेलेक्टिव ? ?

अधिकांशत:

उनका लेखन

केंद्रित होता है

स्त्री देह पर,

मन,अंतर्द्वंद

भावना,वेदना

तो बहुत दूर

जाने क्या है

उन आँखों में

कि उभरता ही नहीं

प्रतिबिम्ब, स्त्री के

हाथ, पैर

कंधे, कान

घुटने, टखने

पेट, पीठ का,

वे आँखें देखती हैं

…देखती नहीं..,

वे आँखें घूरती हैं

प्राकृतिक लज्जा को ढके

कुछ ‘सेलेक्टिव’ हिस्सों को,

कोई बता रहा था

चर्चित होने के लिए

‘सेलेक्टिव’ होना

ज़रूरी होता है..,

पर मेरी बात

यहाँ समाप्त नहीं हुई है

सुनो प्रसिद्धि-पिपासुओ!

मैं कलम चलाते

रहना चाहता हूँ,

लिखते रहना चाहता हूँ,

लेखक बने रहना चाहता हूँ,

लेखन पर चर्चा चाहता हूँ

पर चर्चित होने के लिए

‘सेलेक्टिव’ लिखना नहीं चाहता!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #44 ☆ कविता – “किस्मत…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 44 ☆

☆ कविता ☆ “किस्मत…☆ श्री आशिष मुळे ☆

नहीं हाथों में

तेरे हाथों की मेंहदी

मेरे हाथों की लकीरों ने

नक्शा कुछ ऐसा बनाया है

तुम्हें हारकर भी

खुदसे जंग जीते है

तुम्हारी मिट्टी खोकर भी

जमीं तुम्हारी जीते है

 *

नहीं किस्मत में

तुम्हारी पलकों की छाव

मगर हमारे बाजुओं का कर्म

के तुम्हारी नज़र हमारी है

 *

कर्म के होली में

हमनें तो रंग खेला है

रंगी किस्मत लाजवंती

देख इधरही रहीं है

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 202 ☆ बाल कविता – बागों में कोयलिया बोले ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 202 ☆

बाल कविता – बागों में कोयलिया बोले ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बारहमासी आम फला है

बागों में कोयलिया बोले।

कहीं बौर की खुशबू महके

पवन बहे हौले – हौले।

नीतू , जीतू का मन खुश है

अमियाँ घर पर लाएँगे।

धनिया , मिर्ची डाल उसी में

चटनी स्वयं बनाएँगे।।

 *

खूब रायता बथुआ वाला

दाल मूंग छिलके वाली।

और पराठा आलू भर – भर

खाएँ हम लेकर थाली।।

 *

माँ अपनी तो बड़े भाव से

खाना रोज बनाती हैं।

जिस दिन चटनी साथ रहे तो

जिव्हा पानी लाती है।।

 *

माँ होती है प्रेम स्वरूपा

पिता हमारे हैं दीवार।

हम सब उनका कहना मानें

मात – पिता को करें दुलार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #229 – कविता – ☆ आत्मस्थ…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “आत्मस्थ….” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #229 ☆

☆ आत्मस्थ…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

  हाँ, मैंने तोड़ी है रूढ़ियाँ

  लाँघी है सीमाएँ

  छोड़ दी है कई अंध परंपराएँ।

 

  रूढ़ियाँ –

  जिन्होंने मुझे बाँध रखा था।

  सीमाएँ –

  जिसमें मैं सिमट गया था

  रूढ़ियाँ –

  जिनने मुझे भीरू बना दिया था,

 

  मुक्त हूँ मैं अब बंधनों से

  दूर हूँ औपचारिक वंदनों से

  विचरता हूँ मुक्त गगन में

  नहीं रही अपेक्षाएँ मन में

  सुख मिलने पर

  अब खुशी से उछलता नहीं

  दूसरों का वैभव देख

  ईर्ष्या से जलता नहीं,

  दुख के क्षणों में

  अब रोना नहीं आता

  आत्ममुग्ध हो कभी

  खुद पर नहीं इतराता 

  विषयी संस्कारों के

  नए बीज बोता नहीं हूँ

  स्वयं से दूर

  कभी होता नहीं हूँ,

 

  अब आ जाती है मुझे नींद

  जब मैं सोना चाहता हूँ

  हो जाता हूँ निर्विचार

  जब होना चाहता हूँ,

  इनसे उनसे आपसे

  मधुर संबंध है

  न कोई राग न विराग

  जीवन

  एक मीठा सा छंद है

  दर्द भी है दुख भी है

  प्यास है भूख भी है

  बावजूद इन सब के

  सब कुछ निर्मल है 

  जीवन में अब जो भी

  शेष है-

  स्वयं का आत्म बल है।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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